एक बार संत नामदेव जी के सत्संग में श्यामनाथ नामक एक धार्मिक व्यक्ति अपने पुत्र तात्या को लेकर आये। श्यामनाथ जी पक्के सत्संगी थे जबकि उनका पुत्र धर्म-कर्म और साधु-संतों की संगति से दूर भागता था। पिता ने संत को दंडवत् प्रणाम कर कहाः “महाराज ! यह मेरा पुत्र तात्या सारा दिन कामचोरी और आवारागर्दी में व्यतीत करता है। सत्संग के तो नाम से ही बिदकता है। कृपया इसका मार्गदर्शन कीजिये।”
नामदेव जी उऩ दोनों को मंदिर के पीछे लम्बे-चौड़े दालान में ले गये। वहाँ एक कोने में लालटेन जल रही थी लेकिन संत उन्हें उससे दूर दूसरे अँधेरे वाले कोने में ले गये तो तात्या बोल पड़ाः “महाराज ! यहाँ अँधेरे वाले कोने में क्यों? वहाँ लालटेन के पास चलिये न ! वहाँ हमें उचित प्रकाश मिलेगा और हम एक दूसरे को देख भी सकेंगे।”
नामदेव जी मुस्कराये, बोलेः “बेटा ! तुम्हारे पिता भी तुम्हें रात दिन यही समझाने में लगे रहते हैं। प्रकाश तो प्रकाश के स्रोत के पास जाने से ही मिलता है पर हम अँधकार में ही हाथ पैर मारते रह जाते है। जीवन का सर्वांगीण विकास करने वाले सच्चे, अमिट, आनंदप्रद ज्ञान का एकमात्र स्रोत ईश्वर-अनुभवी संत ही हैं और वह उनकी संगति से ही मिलता है। संतों के सत्संग से मलिन, कलुषित हृदय में भी भगवान का ज्ञान, रस, माधुर्य पाने की योग्यता आ जाती है। तुम्हारा कहना उचित ही है परंतु केवल लालटेन के प्रकाश से दुःखों का अँधेरा नहीं मिटता, वह तो संतों के ज्ञान-प्रकाश से ही मिट सकता है। समझे वत्स !”
तात्या स्तब्ध खड़ा था। नामदेव जी ने उसके सिर पर हाथ फेरा और तात्या की आँखों से अश्रुधाराएँ बहने लगीं। उसके अंतर में समझदारी का सवेरा हुआ, वह उन्नति के रास्ते चल पड़ा।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2018, पृष्ठ संख्या 18 अंक 303
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