अपने से नाराज हुए बिना दूसरे से नाराजगी सम्भव नहीं

अपने से नाराज हुए बिना दूसरे से नाराजगी सम्भव नहीं


एक परिवार में तीन बहुएँ थीं। बड़ी बहू की कोई कितनी ही सेवा करे पर वह  हमेशा मुँह फुलाये रहती थी। मँझली बहू किसी आत्मवेत्ता गुरु की शिष्या थी और सत्संग प्रेमी, विवेकी, सेवा भक्तिवाली, उदार एवं शांतिप्रिय थी। छोटी बहू साधारण श्रेणी की थी। राज़ी करके उससे चाहे जितना काम करा लो परंतु बकवास, निंदा-चुगली करने वालों के काम में हाथ नहीं लगाती थी, अतः अपनी बड़ी जेठानी की सेवा तो वह कर ही कैसे सकती थी ! लेकिन छोटी जेठानी की खूब सेवा करती थी। और मँझली बहू का तो कहना ही क्या ! वह सबसे  प्रेमभरा, आत्मीयतापूर्ण व्यवहार करते हुए सबकी सेवा करती थी।

आखिर एक दिन छोटी बहू ने मँझली से पूछ ही लियाः “दीदी ! बड़ी दीदी आप पर सदा नाराज रहती हैं। कभी अपशब्द भी बोल देती हैं, फिर भी आप उनकी सेवा करती हैं। उनके प्रति मैंने कभी आपसे कोई शिकायत नहीं सुनी, बात क्या है ?”

मँझली बहू ने कहाः “बहन ! बड़ी दीदी की गाली मुझ तक पहुँचती ही नहीं। वाणी की पहुँच कानों तक ही तो है। मुझ तक तो मेरी बुद्धि की भी पहुँच नहीं है, जो इस सृष्टि का सबसे बड़ा औजार है। और वे सदा नाराज रहती हैं तो अपने से रहती हैं। क्या कोई अपने से नाराज हुए बिना दूसरे से नाराज हो सकता है? स्वयं बुरा बनकर ही कोई दूसरों का बुरा कर सकता है। उनकी नाराजगी मुझ तक पहुँचती ही नहीं है क्योंकि जहाँ नित्य, अविनाशी आनंद-ही-आनंद है, वहाँ उत्पत्ति-विनाशशील नाराजगी कैसे पहुँच सकती है, क्या कर सकती है ? मेरे गुरुदेव ने बताया है कि ‘दूसरों के अधिकार की रक्षा  और अपने अधिकार का त्याग करने वाला कभी दुःखी नहीं हो सकता।’ इस प्रकार नाराजगी को हर पहलू से समझने पर नाराजगी का महत्त्व ही नहीं रहता। संसार अपना, चिद्घन चैतन्यस्वरूप आत्मा अपना…. जहाँ राज़ी-नाराजगी हो-होकर मिट जाती है उस अपने आत्मदेव में जगना ही सार है, बाकी सब बेकार है।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2018, पृष्ठ संख्या 21 अंक 303

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