Monthly Archives: March 2018

हम हर मंजिल पा सकते हैं पर…..


स्वामी रामतीर्थ एक प्राचीन कथा सुनाया करते थे। यूनान में एक बहुत सुंदर लड़की रहती थी ‘अटलांटा’। उसका प्रण था कि ‘मैं उसी युवक से शादी करूँगी जो दौड़ में मुझे हरा देगा।’ अटलांटा दौड़ने में बहुत तेज थी अतः अनेक इच्छुक युवक दौड़ में उसे हरा नहीं पाये। एक राजकुमार ने किसी देवता की आराधना की और उन्होंने उसे अटलांटा को हराने का उपाय बताया।

राजकुमार ने रात में दौड़ के रास्ते में सोने की ईंटें डलवा दीं। सवेरे जब दौड़ शुरु हुई तो अटलांटा पहले ही प्रयास में राजकुमार से बहुत आगे निकल गयी। दौड़ते समय रास्ते में अटलांटा को सोने की ईंट दिखाई दी। वह लोभ में फँस गयी, झट से झुकी और ईंट उठा ली तथा फिर दौड़ने लगी। इससे उसकी गति कुछ धीमी पड़ गयी। राजकुमार लगातार दौड़ता रहा। रास्ते में अनेक ईंटें मिलीं, अटलांटा किसी भी ईंट को छोड़ने को तैयार नहीं थी, वह ईंट उठा के पल्लू में बाँध लेती। वह इसी में अपना समय लगाती रही और राजकुमार उससे आगे निकल गया।

हम लोग भी उसी अटलांटा के पड़ोसी हैं जो लोभ, लालच और मोह की इसी प्रकार की ईंटों के चक्कर में फँस जाते हैं और अवसर निकल जाता है। जीतने की हर योग्यता रखने वाले हम जीवन की दौड़ में प्रायः हार जाते हैं। अगर हमें जीतना है तो इन प्रलोभनों से दूर रहना होगा। किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति के लोभ, मोह और लालच में न फँसें तो हम हर मंजिल पा सकते हैं। अपने मनुष्य जीवन के परम लक्ष्य आत्मा-परमात्मा को पाकर संसाररूपी भवबंधन से, जन्म-मरण के चक्र से पार हो सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2018, पृष्ठ संख्या 23 अंक 303

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सभी शत्रुओं को परास्त करने वाला एक बाण


(श्री परशुराम जयंतीः 18 अप्रैल 2018)

महाभारत में आता है कि परशुराम जी द्वारा 21 बार क्षत्रिय-संहार होने पर उन्हें आकाशवाणी सुनाई दीः ‘वत्स ! इस हत्या के कार्य से निवृत्त हो जाओ। इसमें तुम्हें क्या लाभ दिखाई देता है ?’

उनके पितरों ने भी समझायाः

बेटा ! यह छोड़ दो। हम एक प्राचीन इतिहास सुनाते हैं, उसे सुनकर तुम तदनुकूल बर्ताव करो।

पूर्वकाल में अलर्क नाम से प्रसिद्ध एक राजर्षि थे। उन्होंने अपने धनुष की सहायता से समुद्रपर्यन्त पृथ्वी को जीत लिया था। इसके बाद उनका मन सूक्ष्म तत्त्व की खोज में लगा। वे एक  वृक्ष के नीचे जा बैठे और उस तत्त्व की खोज के लिए चिंतन करने लगेः ‘मैं इन्द्रियरूपी शत्रुओं से घिरा हुआ हूँ अतः बाहर के शत्रुओं पर हमला न करके इन भीतरी शत्रुओं को ही अपने बाणों का निशाना बनाऊँगा। यह मन चंचलता के कारण तरह-तरह के कर्म कराता रहता है, इसको जीत लेने पर ही मुझे स्थायी विजय मिल सकती है। अब मैं मन पर ही तीखे बाणों का प्रहार करूँगा।’

मन बोलाः ‘अलर्क ! तुम्हारे ये बाण मुझे नहीं बींध सकते। यदि इन्हें चलाओगे तो ये तुम्हारे ही मर्मस्थानों को चीर डालेंगे अतः और किसी बाण का विचार करो जिससे तुम मुझे मार सकोगे।’

फिर अलर्क नासिका को लक्ष्य करके बोलेः ‘मेरी या नासिका अनेक प्रकार की सुगंधियों का अनुभव करके भी फिर उन्हीं की इच्छा करती है इसलिए इसी को तीखे बाणों से मार डालूँगा।’

नासिकाः ‘अलर्क ! ये बाण मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। तुम्हीं मरोगे, अतः मुझे मारने के लिए और तरह के बाणों की व्यवस्था करो।’ इसी प्रकार अलर्क ने जीभ को स्वादिष्ट रसों के उपभोग में उलझाने, त्वचा को नाना प्रकार के स्पर्शों के सुख में फँसाने, नेत्रों को सौंदर्य देखने के सुख में लगाने तथा बुद्धि को अनेकानेक प्रकार के निश्चय करने के कारण मारने का विचार किया पर इन सभी को बाह्य बाणों से मारने में उन्होंने अशक्यता का अनुभव किया। फिर उन्होंने घोर तपस्या की पर मन-बुद्धिसहित इन्द्रियों को मारने योग्य किसी उत्तम बाण का पता न लगा।

तब वे एकाग्रचित्त हो के विचार करने लगे।

बहुत दिनों तक निरंतर सोचने-विचारने के बाद उन्हें योग (आत्मा-परमात्मा का योग) से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी साधन प्रतीत नहीं हुआ। अब वे मन को एकाग्र करके स्थिर आसन से बैठ गये और ध्यानयोग द्वारा परमात्म-विश्रांति पाने लगे। इस एक ही बाण से उन्होंने समस्त इन्द्रियों को परास्त कर दिया। वे ध्यानयोग के द्वारा आत्मा में स्थिति पाकर परम सिद्धि (मोक्ष) को प्राप्त हो गये। इससे उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने इस गाथा का गान कियाः “अहो ! बड़े कष्ट की बात है कि अब तक मैं बाहरी कामों में लगा रहा और भोगों की तृष्णा से बँध के राज्य की ही उपासना करता रहा। आत्मविश्रांतिदायी ध्यानयोग से बढ़कर दूसरा कोई उत्तम सुख का साधन नहीं है – यह बात तो मुझे बहुत बाद में मालूम हुई।”

पितामहों ने कहाः बेटा परशुराम ! इन बातों को अच्छी तरह समझकर तुम क्षत्रियों का नाश न करो। आत्मविश्रांति पाने में लग जाओ, उसी से तुम्हारा कल्याण होगा।

परशुराम ने उसी मार्ग को अपनाया और उन्हें परम दुर्लभ सिद्धि (परमात्म-पद) प्राप्त हुई।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2018, पृष्ठ संख्या 10 अंक 303

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मोक्षप्राप्ति कैसे होगी ?


दर्पण भले ही साफ-शुद्ध हो लेकिन यदि वह हिलता रहेगा तो उसमें अपना मुँह कैसे देख सकेंगे ? हमारा दर्पण है शुद्ध हृदय (अंतःकरण) परंतु यदि स्थिर मन न होगा तो अपने स्वरूप अर्थात् आत्मा को कैसे देख (अनुभव कर) सकेंगे ? अतः काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि  विकारों तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस आदि विषयों के समूह से जब अपने को बचायेंगे, तब मोक्ष को प्राप्त करेंगे।

हृदयरूपी लकड़ी और भगवन्नामरूपी लकड़ी को आपस में रगड़ने से ज्ञानरूपी अग्नि निकलती है। भाग्यवान मनुष्य वह है जो ईश्वर में प्रेम रखता है।

साँईं श्री लीला शाह जी की अमृतवाणी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2018, पृष्ठ संख्या 12 अंक 303

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