नित्य कल्याणकारी परम सुख

नित्य कल्याणकारी परम सुख


ब्रह्मेन्द्रादिमरुद्गणाँस्तृणकणान्यत्र स्थितो मन्यते

यत्स्वादाद्विरसा भवन्ति विभवास्त्रैलोक्यराज्यादयः।

भोगः कोऽपि स एक एव परमो नित्योदितो जृम्भते

भो साधो क्षणभङ्गुरे तदितरे भोगे रतिं मा कृथाः।।

‘हे साधन करने वाले साधुपुरुष ! इस संसार में अनेक प्रकार के भोग हैं फिर भी उन सबमें नित्य कल्याणकारी एक ही उत्तम परमभोग (आत्मसुख) है। उस भोग में स्थिति करने वाला पुरुष ब्रह्मा, इन्द्र आदि जैसे बड़े देवों को भी तृण (तिनके) के समान समझता है। इस भोग का स्वाद लेने पर त्रैलोक्य के राज्य और वैभव रसहीन लगते हैं। अतः इस अलौकिक भोग को छोड़कर दूसरे क्षणभंगुर भोगों में तुम प्रीति न करो।’ (वैराग्य शतकः40)

भगवान कहते हैं-

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।

आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।

‘जो ये इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, यद्यपि विषयी पुरुषों को सुख भासते हैं तो भी दुःख के ही हेतु हैं और आदि अंतवाले अर्थात् अनित्य हैं। इसलिए हे अर्जुन ! बुद्धिमान-विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।’ (गीताः 5.22)

स्वामी शिवानंद जी कहते हैं- “मनुष्य अपने हृदय में सांसारिक पदार्थों के प्रति अनासक्ति एवं वैराग्य का भाव उत्पन्न कर सकता है क्योंकि स्वर्ग से भी अवधि पूरी होने पर मनुष्य को जन्म लेकर पृथ्वी पर आना पड़ता है। स्वर्ग में भी संसार की तरह इन्द्रिय-सुख भोगने को मिलते हैं। किंतु वे अधिक तीव्र और कृत्रिम होते हैं। विवेकी व्यक्ति को उनसे कोई आनंद नहीं प्राप्त हो सकता। वह तो स्वर्ग के भी सारे सुखों को तिलांजली दे देता है।”

पूज्य बापू जी के सत्संग-अमृत में आता हैः “बढ़िया मकान हो, गाड़ी हो, पत्नी बढ़िया हो, बढ़िया बैंक बैलेंस हो, बढ़िया मजा लूँ…. इस ‘बढ़िया-बढ़िया’ में ही बेचारा जीव खप जाता है और अंत में दुःखद योनियों को पाता है। जो शाश्वत है, नित्य अपने साथ रहने वाला है, जिसको पाने के बाद कुछ पाना बाकी नहीं रह जाता, उस आत्मा को तो वह जानता नहीं, उसको जाने तो बेड़ा पार हो जाय।

इन्द्रपद बहुत ऊँचा है लेकिन आत्मसाक्षात्कार के आगे वह भी मायने नहीं रखता। आत्मसाक्षात्कार के आनंद के आगे त्रिलोकी को पाने का आनंद भी बहुत तुच्छ है। इसीलिए अष्टावक्र गीता (4.2) में कहा गया हैः

यत्पदं प्रेप्सवो दीनाः शक्राद्याः सर्वदेवताः।

अहो तत्र स्थितौ योगी न हर्षमुपगच्छति।।

‘इन्द्रादि सारे देवता जिस पद की प्राप्ति के लिए अत्यंत दीन हो रहे हैं, बड़े आश्चर्य की बात है कि उसी पद पर स्थित होकर तत्त्वज्ञानी हर्षरूप विकार को नहीं प्राप्त होते।’

यह आत्मदेव का ज्ञान, आत्मदेव का सुख ऐसा अदभुत है ! उस आत्मदेव को जानो जिसके आगे जगत का बड़े-में-बड़ा पद भी कुछ नहीं, जीवन भी कुछ नहीं, मृत्यु भी कुछ नहीं।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2018, पृष्ठ संख्या 24 अंक 306

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