Monthly Archives: June 2018

नित्य कल्याणकारी परम सुख


ब्रह्मेन्द्रादिमरुद्गणाँस्तृणकणान्यत्र स्थितो मन्यते

यत्स्वादाद्विरसा भवन्ति विभवास्त्रैलोक्यराज्यादयः।

भोगः कोऽपि स एक एव परमो नित्योदितो जृम्भते

भो साधो क्षणभङ्गुरे तदितरे भोगे रतिं मा कृथाः।।

‘हे साधन करने वाले साधुपुरुष ! इस संसार में अनेक प्रकार के भोग हैं फिर भी उन सबमें नित्य कल्याणकारी एक ही उत्तम परमभोग (आत्मसुख) है। उस भोग में स्थिति करने वाला पुरुष ब्रह्मा, इन्द्र आदि जैसे बड़े देवों को भी तृण (तिनके) के समान समझता है। इस भोग का स्वाद लेने पर त्रैलोक्य के राज्य और वैभव रसहीन लगते हैं। अतः इस अलौकिक भोग को छोड़कर दूसरे क्षणभंगुर भोगों में तुम प्रीति न करो।’ (वैराग्य शतकः40)

भगवान कहते हैं-

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।

आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।

‘जो ये इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, यद्यपि विषयी पुरुषों को सुख भासते हैं तो भी दुःख के ही हेतु हैं और आदि अंतवाले अर्थात् अनित्य हैं। इसलिए हे अर्जुन ! बुद्धिमान-विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।’ (गीताः 5.22)

स्वामी शिवानंद जी कहते हैं- “मनुष्य अपने हृदय में सांसारिक पदार्थों के प्रति अनासक्ति एवं वैराग्य का भाव उत्पन्न कर सकता है क्योंकि स्वर्ग से भी अवधि पूरी होने पर मनुष्य को जन्म लेकर पृथ्वी पर आना पड़ता है। स्वर्ग में भी संसार की तरह इन्द्रिय-सुख भोगने को मिलते हैं। किंतु वे अधिक तीव्र और कृत्रिम होते हैं। विवेकी व्यक्ति को उनसे कोई आनंद नहीं प्राप्त हो सकता। वह तो स्वर्ग के भी सारे सुखों को तिलांजली दे देता है।”

पूज्य बापू जी के सत्संग-अमृत में आता हैः “बढ़िया मकान हो, गाड़ी हो, पत्नी बढ़िया हो, बढ़िया बैंक बैलेंस हो, बढ़िया मजा लूँ…. इस ‘बढ़िया-बढ़िया’ में ही बेचारा जीव खप जाता है और अंत में दुःखद योनियों को पाता है। जो शाश्वत है, नित्य अपने साथ रहने वाला है, जिसको पाने के बाद कुछ पाना बाकी नहीं रह जाता, उस आत्मा को तो वह जानता नहीं, उसको जाने तो बेड़ा पार हो जाय।

इन्द्रपद बहुत ऊँचा है लेकिन आत्मसाक्षात्कार के आगे वह भी मायने नहीं रखता। आत्मसाक्षात्कार के आनंद के आगे त्रिलोकी को पाने का आनंद भी बहुत तुच्छ है। इसीलिए अष्टावक्र गीता (4.2) में कहा गया हैः

यत्पदं प्रेप्सवो दीनाः शक्राद्याः सर्वदेवताः।

अहो तत्र स्थितौ योगी न हर्षमुपगच्छति।।

‘इन्द्रादि सारे देवता जिस पद की प्राप्ति के लिए अत्यंत दीन हो रहे हैं, बड़े आश्चर्य की बात है कि उसी पद पर स्थित होकर तत्त्वज्ञानी हर्षरूप विकार को नहीं प्राप्त होते।’

यह आत्मदेव का ज्ञान, आत्मदेव का सुख ऐसा अदभुत है ! उस आत्मदेव को जानो जिसके आगे जगत का बड़े-में-बड़ा पद भी कुछ नहीं, जीवन भी कुछ नहीं, मृत्यु भी कुछ नहीं।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2018, पृष्ठ संख्या 24 अंक 306

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सूक्ष्म बुद्धि, गुरुनिष्ठा व प्रबल पुरुषार्थ का संगमः छत्रसाल


मुख पर ब्रह्मचर्य का तेज, अंग-अंग में संस्कृति रक्षा के लिए उत्साह, हृदय में निःस्वार्थ सेवाभाव – कुछ ऐसे गुण झलकते थे युवा वीर छत्रसाल के जीवन में। उस समय भारतभूमि व सनातन संस्कृति पर मुगलों का अत्याचार बहुत बढ़ गया था। अपनी संस्कृति की रक्षा करने हेतु छत्रसाल ने वीर युवकों का एक दल संगठित कर लिया था। पर मुगलों के पास लाखों सैनिक, हजारों तोपें सैंकड़ों किले व अगाध सम्पदा थी एवं देश के अधिकांश भाग पर उन्होंने अपना अधिकार जमा लिया था। छत्रसाल उत्साही और साहसी तो थे पर आँखें मूँदकर आग में छलाँग लगाने वालों में से नहीं थे। भगवद्ध्यान करने वाले छत्रसाल सूक्ष्म बुद्धि के धनी थे। वे मुगल सेना में भर्ती हुए और उनका बल व कमजोरियाँ भाँप लीं।

बाद में अपने राज्य में आकर छत्रसाल ने मातृभूमि को मुक्त कराने की गतिविधियाँ तेज कर दीं और कुछ ही समय में बुंदेलखंड का अधिकांश भाग मुगल शासन से मुक्त करा लिया।

औरंगजेब घबराया। उसने अनेक सूबेदारों को एक साथ छत्रसाल पर आक्रमण करने के लिए भेजा। यह परिस्थिति छत्रसाल के लिए चिंताजनक तो थी पर गुरु प्राणनाथ का कृपापात्र वह वीर चिंतित नहीं हुआ बल्कि युक्ति से काम लिया। उन्होंने औरंगजेब के पास संधि-प्रस्ताव भेजा।

औरंगजेब ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। ज्यों ही मुगल फौजदार बेफिक्र व असावधान हुए, त्यों ही छत्रसाल ने उन पर आक्रमण कर दिया। समाचार जब तक आगरा में औरंगजेब तक पहुँचे उसके पहले ही छत्रसाल ने बुंदेलखंड के अनेक स्थानों से मुगलों को खदेड़ डाला।

औरंगजेब ने पुनः सबको मिलकर आक्रमण करने का आदेश दिया। छत्रसाल को यह ज्ञात हुआ। अपने सदगुरु प्राणनाथ जी से अंतर्यामी आत्मदेव में शांत होकर सत्प्रेरणा पाने की कला छत्रसाल ने सीख ली थी। झरोखे से बाहर दूर पर्वत-शिखर पर टिकी उनकी दृष्टि सिमट गयी, आँखें बंद हो गयीं। मन की वृत्ति अंतर्यामी की गहराई में डूब गयी। शरीर कुछ समय के लिए निश्चेष्ट हो गया। कुछ समय बाद चेहरे की गम्भीरता सौम्यता में बदल गयी और आँखें खुल गयीं। उपाय मिल गया था। छत्रसाल ने सेनानायकों को आदेश देकर गतिविधियाँ रोक दी। मुगल फौजदार छत्रसाल से युद्ध करने में घबराते थे। वे इस संकट को जहाँ तक हो सके टालना चाहते थे। कुछ दिनों तक छत्रसाल के आक्रमणों का समाचार नहीं मिला तो उन्होंने औरंगजेब को सूचित कर दिया कि “अब छत्रसाल डर गये हैं।’ इस प्रकार मुगल सेना ने छत्रसाल पर आक्रमण नहीं किया।

कुछ समय बाद छत्रसाल ने पुनः मातृभूमि व संस्कृति के विरोधी उन मुगलों पर आक्रमण कर उनके सेनानायकों को परास्त किया और बंदी बनाया। मुगलों की प्रतिष्ठा धूमिल हो गयी।

मुगल साम्राज्य के सामने छत्रसाल की सेना व साधन-सामग्री कुछ भी नहीं थी लेकिन उनके पास दृढ़निश्चयी हृदय, पवित्र उद्देश्य, निःस्वार्थ सेवा, भगवदाश्रय तथा गुरु का आशीर्वाद व मार्गदर्शन था, जिसके बल पर वे बुंदेलखंड की विधर्मियों से रक्षा करने में सफल हो गये।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2018, पृष्ठ संख्या 20 अंक 306

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पूर्ण विकास की 16 सीढ़ीयाँ-पूज्य बापू जी


ये 16 बातें समझ  लें तो आपका पूर्ण विकास चुटकी में होगाः

1.आत्मबलः अपना आत्मबल विकसित करने के लिए ‘ॐ….ॐ….ॐ….ॐ….’ ऐसा जप करें।

2.दृढ़ संकल्पः कोई भी निर्णय लें तो पहले तीसरे नेत्र पर (भ्रूमध्य में आज्ञाचक्र पर) ध्यान करें और निर्णय लें और एक बार कोई भी छोटे मोटे काम का संकल्प करें तो उसमें लगे रहें।

3.निर्भयताः भय आये तो उसके भी साक्षी बन जायें और झाड़कर फेंक दें। यह सफलता की कुंजी है।

4.ज्ञानः आत्मा-परमात्मा और प्रकृति का ज्ञान पा लें। यह शरीर ‘क्षेत्र’ है और आत्मा ‘क्षेत्रज्ञ’ है। हाथ को पता नहीं कि ‘मैं हाथ हूँ’ लेकिन मुझे पता है, ‘यह हाथ है’। खेत को पता नहीं कि ‘मैं खेत हूँ’ लेकिन किसान को पता है, ‘यह खेत है’। ऐसे ही इस शरीररूपी खेत के द्वारा हम कार्य करते हैं अर्थात् बीज बोते हैं और उसके फल मिलते हैं। तो हम क्षेत्रज्ञ हैं – शरीर को और कर्मों को जानने वाले हैं। प्रकृति परिवर्तित होने वाली है और हम एकरस हैं। बचपन परिवर्तित हो गया, हम उसको जानने वाले वही के वही हैं। गरीबी अमीरी चली गयी, सुख-दुःख चला गया लेकिन हम हैं अपने आप, हर परिस्थिति के बाप। ऐसा दृढ़ विचार करने से, ज्ञान का आश्रय लेने से आप निर्भय और निःशंक होने लगेंगे।

5.नित्य योगः नित्य योग अर्थात् आप भगवान में थोड़ा शांत होइये और ‘भगवान नित्य हैं, आत्मा नित्य है और शरीर मरने के बाद भी मेरा आत्मा रहता है’ – इस प्रकार नित्य योग की स्मृति करें।

6.ईश्वर चिंतनः सत्यस्वरूप ईश्वर का चिंतन करें।

7.श्रद्धाः सत्शास्त्र, भगवान और गुरु में श्रद्धा – यह आपके आत्मविकास का बहुमूल्य खजाना है।

8.ईश्वर-विश्वासः ईश्वर में विश्वास रखें। जो हुआ, अच्छा हुआ, जो हो रहा है, अच्छा है और जो होगा वह भी अच्छा होगा, भले हमें अभी, इस समय बुरा  लगता है। विघ्न-बाधा, मुसीबत और कठिनाइयाँ आती हैं तो विष की तरह लगती हैं लेकिन भीतर अमृत सँजोय हुए होती हैं। इसलिए कोई भी परिस्थिति आ जाय तो समझ लेना, ‘यह हमारी भलाई के लिए आयी है।’ आँधी तूफान आया है तो फिर शुद्ध वातावरण भी आयेगा।

9.सदाचरणः वचन देकर मुकर जाना, झूठ-कपट, चुगली करना आदि दुराचरण से अपने को बचाना।

10.संयमः पति-पत्नी के व्यवहार में खाने पीने में संयम रखें। इससे मनोबल, बुद्धिबल, आत्मबल का विकास होगा।

11.अहिंसाः वाणी, मन, बुद्धि के द्वारा किसी को चोट न पहुँचायें। शरीर के द्वारा जीव जंतुओं की हत्या, हिंसा न करें।

12.उचित व्यवहारः अपने से श्रेष्ठ पुरुषों का आदर से संग करें। अपने से छोटों के प्रति उदारता, दया रखें। जो अच्छे कार्य में, दैवी कार्य में लगे हैं उनका अनुमोदन करें और जो निपट निराले हैं उनकी उपेक्षा करें। यह कार्यकुशलता में आपको आगे ले जायेगा।

13.सेवा-परोपकारः आपके जीवन में परोपकार, सेवा का सदगुण होना चाहिए। स्वार्थरहित भलाई के काम प्रयत्नपूर्वक करने चाहिए। इससे आपके आत्मसंतोष, आत्मबल का विकास होता है।

14.तपः अपने जीवन में तपस्या लाइये। कठिनाई सहकर भी भजन, सेवा, धर्म-कर्म आदि में लगना चाहिए।

15.सत्य का पक्ष लेनाः कहीं भी कोई बात हो तो आप हमेशा सत्य, न्याय का पक्ष लीजिये। अपने वाले की तरफ ज्यादा झुकाव और पराये वाले के प्रति क्रूरता करके आप अपनी आत्मशक्ति का गला मत घोटिये। अपने वाले के प्रति न्याय और दूसरे के प्रति उदारता रखें।

16.प्रेम व मधुर स्वभावः सबसे प्रेम व मधुर स्वभाव से पेश आइये।

ये 16 बातें लौकिक उऩ्नति, आधिदैविक उन्नति और आध्यात्मिक अर्थात् आत्मिक उन्नति आदि सभी उन्नतियों की कुंजियाँ हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2018, पृष्ठ संख्या 12, 13 अंक 306

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