वृत्ति मीमांसा

वृत्ति मीमांसा


 

वृत्ति मीमांसा

संसार में जो भी दुःख सुख है वे सब वृत्ति का विलास मात्र है.. वृत्ति माना क्या?उसको कोई लोग सुरता भी कहते है ,कोई फुरना भी कहते है…आप तो समझ गए होंगे ..पास में कौन है जबतक तुम्हारी वृत्ति नही गयीं तबतक तुम्हें पता नही चलता इसका नाम वृत्ति है।तो,संसार का व्यवहार ,सुख-दुःख, आकर्षण-विकर्षण ,भोग,त्याग ये सब वृत्ति का ही तो विस्तार है।पंडित,साधु,मूर्ख ये सब वृत्ति का विस्तार है।वो वृत्तियाँ हृदय से निकलती है,उस वृत्तियों को कल्पना भी कहा जा सकता है।वो यदि दुःख में सुख की कल्पना करती है तो वृत्ति को दुःख सुख भासता है।विष में अमृत की भावना दृढ़ करती है तो विष भी उसे अमृत के जैसा लगता है,ये वृत्ति का चमत्कार है।आकाश में हाथी और रथ की भावना करती है वृत्ति तो उस बादलों में  हाथी, रथ,घोड़े आदि भासते है।ठूँठे में चोर की भावना करती है तो ठूँठा चोर हो भासता है और ठूँठे में यदि साधु  की भावना करती है तो ठूँठा साधु भासता है ।सिंपि में रुपे की भावना करती है तो सिंपी रूपा रूप भासती है और रस्सी में साँप की भावना करती है तो रस्सी साँप हो भासती है ।ऐसे ही वृत्ति इस नश्वर देह में सुखबुद्धि करती है तो देह के संयोग से इसे सुख भासता है।और यही वृत्ति जब परमात्मा में सुखबुद्धि करें तो परमात्मा का तो वास्तविक सुख है वो परमसुख को उपलब्ध हो जाती है।

है सारा वृत्ति का खिलवाड़ ! है तो कुछ नही ,फ़िल्म का पर्दा है और युवक बेचारे पढ़े लिखे कईं लोग जाते है ,पर्दे पर जो दिख रही है अभिनेत्री या अभिनेता या और कुछ वो सारा हमारी वृत्तियों को छन्छेडकर और नीचे के केंद्रों में लाने का सामान है।तो,फ़िल्म में जो हमने भवन,भूमि, मकान,रूप,सौंदर्य ,पति ,पत्नी का प्यार आदि जो देखा वो तो हमको उपलब्ध नही होगा!लेकिन हमारी वृत्ति ऐसा प्राप्त करने के लिए प्रवृत्त हो जाएगी!देखा है फ़िल्म में लेकिन वृत्ति नीचे के केंद्रों में आ गई ,वासनाओं के केंद्रों में और विकसित हो गयी ,अपने मूल हाल का रूपांतर तो हुआ नही!तो क्या है कि कईं जवानों को मैंने उनके चेहरे देखे ।यहाँ न आनेवाले लोग भी कईं बार मिलते हैं सड़कों पर कईं बार बाजार में,कईं बार इधर जहाँ कहीं नजर पड़ जाय लोग तो मिलेंगे ही..तो,उनके चेहरे से खबर आती है कि इन्होंने अपने जीवन की शक्ति का बुरी तरह विनाश कर दिया ।कैसे किया?फ़िल्म देखकर उनकी वृत्ति रात्रि को फ़िल्म की जो प्रेयसी दिखी ,जो चित्र देखे उस चित्रों के साथ वो अपने विकारों को उत्तेजित हो जाते है और शरीर उनका धुल जाता है ये भी तो वृत्ति का प्रभाव है..ये कल्पना है!तो,कल्पना -कल्पना में आदमी का विनाश भी हो जाता है और कल्पना -कल्पना में आदमी का रक्षण भी हो जाता है।है तो कल्पना!स्त्री नही है,अभिनेत्री नही है,लेकिन उसका चित्र देखा उसके हास्य विलास को देखा है फ़िल्म में और रात्रि को उसी के साथ अपना हास्य विलास करके शरीर को नाश कर देता है।ऐसा भी हुआ करता है!है तो कल्पना !तो कल्पना होती है प्रारंभ में कल्पना लेकिन वो कल्पना स्थूल शरीर पर बुरा असर भी डालती है।ऐसे ही कल्पना शुरू में करो औऱ वो स्थूल शरीर पर अच्छा असर भी डालती है।ये दोनों माया के अंतर्गत है,संसार के अंतर्गत है,चढ़ाव उतार संसार के अंतर्गत है।

साधक की बुद्धि का विकास होता है ध्यान भजन,जप तप,सेवा करके उसकी वृत्ति की मलिनता घटती जाती है ।अब उसे उस तुच्छ भोगों में तुच्छ आकर्षणों में ,पर्दे के तो क्या वास्तविक भी जो भोग है उसको विष समझता है।उतना उसको विवेक आ गया है।लेकिन कईं जन्मों की  इस प्रकार की जो वृत्तियाँ है ,इस प्रकार का जो आकर्षण है, भोग की जो गरेड पड़ गई है, जो चीला पड़ गया है,जो एक लकीर गहरी हो गई है उस लकीर में से वो बाहर निकल नही सकता औऱ उस लकीर के परिणाम को समझता भी है।अच्छा भी नही लगता ,भोग में फिसल जाना अच्छा भी नही लगता लेकिन पुरानी जो आदतें है ,संस्कार है उसके अनुसार वो गिरता जाता है ,फिर संभलता है,फिर गिरता है,फिर संभलता है।अब उसे अच्छा भी नही लगता लेकिन पुराने संस्कार उसे घसीट जाते हैं वासना के।जय जय..ध्यान से सुनेंगे सब लोग…तो पुराने संस्कार वासना जो है हमें घसीटती है ।

एक तरफ जिसको विवेक मिला उसको सबकुछ मिल गया।और विवेक इनकार करता है..वासना घसीटती है..अब  विवेक कभी कभी तो जीत लेता है,ज्यादा समय हार लेता है।तो क्या है कि विवेक दुर्बल हो जाता है कि आपणु काम नही! और मिलते भी ऐसा कि भाई ये तो संसार है ,इन्द्रियों को कबतक रोकोगे,क्या करोगे ,संभोग से समाधि फलाना आदि आदि सुने है ….
कि और स्पीड में आ गए..लेकिन उनमेंसे चुने हुए जो समझू लोग है वो वासनाओं को रोकने का प्रयास करते है ,वासना नही रुकती तो दुःखी होते है और रुकती है तो कभी कभी हिम्मत आती है लेकिन कभी हिम्मत आई कभी हिम्मत हार गए..कभी हिम्मत आई कभी हिम्मत हार गए इसमें भी जीवन पूरा हो सकता है।ये उपाय तो है बचने का ,ठीक है लेकिन वेदांत के तत्व को जानने वाले आत्मवेत्ता आत्मरामी महापुरुष कहते हैं इससे हम बढ़िया साधन तुमको बताए ।तुम्हारी वृत्ति विषय विकार में फँसकर सुख चाहती है ,क्षणिक सुख मिलता है बाद में विषाद होता है,भोक्ता थक जाता है।ऐसा कोई भोग नही कि भोक्ता को थकाये नही ,ऐसा कोई भोग नही कि भोक्ता के मन को दुर्बल न करे,ऐसा कोई भोग नही कि भोगने के बाद विषाद पैदा ना हो ,घृणा या ग्लानि पैदा न हो।घृणा, ग्लानि ,विषाद पैदा होने के बावजूद  भी ..अनुभव है 15 दिन पहले का ,अनुभव है 4दिन पहले का ,अनुभव है 10 दिन पहले का कि कोई सार नही!और कईं ऐसे ही सप्ताह आता है उसका एक गया दूसरा गया देखते है कोई सार नही !जीते  है तो भी जैसे  जुआरी होते है न ..सिंधी जगत के बुजुर्ग लोग कहते है कि हारे जुआरी का आधा मुँह काला और जीते जुआरी का पूरा मुँह काला..ऐसी कहावत है।हार गया है जुआरी तो अब उसके पास तो अपनी तुच्छ वृत्तियों को पोसने के साधन नही है इसलिए उसका आधा अकल्याण है लेकिन जिसने जुगार मे जीत लिया है मुफ्त का तो उसकी तो वासना और भड़केगी! उसका पूरा सत्यानाश है! ऐसे ही हमने कावे दावे से जो भी कुर्सियाँ वुर्सियाँ जो कुछ पा लिया है ,तो बाहर से तो हम समझते है कि हम है या हमने पा लिया है या ये हो लिया है लेकिन यदि हम सावधान न रहे तो हमारी वासनाएँ हमारा पूरा बर्बादी कर देगी।जय जय….तो अब समझना ये है कि है सारा वृत्तियों का खिलवाड़…अब वृत्तियों को…आप बिना सुख की इच्छा के रह नही सकते और संसार का ऐसा कोई सुख नही कि आपके पास टिक जाय ! यदि टिक गया होता तो हजारों जन्म से तुम सुख लेते आये हो ,एक एक अंश मात्र भी टिकता तो अभी सुख के गोदाम होते हमारे पास ! इस जन्म का भी यदि सुख टिक जाता तो एक एक मूँग जितना क्या एक एक राई के दाने जितना सुख लिया जो दिन में कईं ऐसे राई के दाने इकट्ठे हो गए,साल में कितने हो गए ,अभी इस उम्र में हमारे पास कुछ तो पोटला होना चाहिए ! ये सुख टिकता नही क्योंकि वृत्तियाँ बदलती रहती है !

अब साधक के जीवन में और बुद्धू के जीवन मे …अब यहाँ तीन प्रकार के वृत्ति के लोग रहे ..एक बुद्धू की वृत्ति, दूसरी साधक की वृत्ति और तीसरी सिद्ध की वृत्ति।बुद्धू की वृत्ति इतनी प्रगाढ़ हो गई है, इतनी जाड़ी हो गई है कि उसको विवेक करने का मौका ही नही,खाया पिया ,रहा,जिया,बस्स… पशु जैसा जीवन।साधक सोचता है कि आखिर कब तक? इतना खाया फिर क्या?इतना लिया फिर क्या?राज्य मिला फिर क्या? हो गए धनवान फिर क्या? हो गए सत्तावान फिर क्या? हो गए रूपवान आखिर क्या? ततः किम?हम चल रहे है ,मखमल बिछ रहा है,सुंदरियाँ हीरे जड़ित कंगन पहनकर चमर डुला रही है, राजाधिराज महाराज छड़ी पुकारे जा रहे है लेकिन ऐसे लोग भी मिट्टी में मिल गए जमीनदोस्त हो गए ,ततः किम? आखिर कब तक?आखिर क्या ? ये साधक की वृत्ति है।तो देखता है कोई सार नही…कोई सार नही दिखता है फिर भी बेचारा वहीं बह जाता है ,क्यों?कि वो संस्कार और वासनाएँ पुरानी है ।तो, अत्यंत मूर्ख है उसको तो पता ही नही,इसलिए वो उसीमें अपने को सुखी मान लेता है।अ

त्यंत जो समझू है वो अपने सत्य स्वरूप परमात्मा के सुख में मस्त है लेकिन हम लोग जो है बीच के त्रिशंकु की नाई झूले खाते है।जब मिल गए मूढ़ों का संग तो हमको लगा कि …जब मूर्खों के संग में गए,जब उसी वृत्ति में बहने वाले …मूढ़ उसको नही कहते कि जो अनपढ़ है..जय जय…मूढ़ उसको नही कहते कि जो मजदूरी कर रहा है…मूढ़ उसे कहते कि जो संसार को सत्य मानकर संसार की नश्वर चीजों से अपने को सदा सुखी रखने की कोशिश में लगा है उसको मूढ़ कहा जाता है।तुम पत्थर को मूढ़ नही कहते,पत्थर को बेवकूफ नही कहते,क्यों? उसमें कुछ है ही नही तो  बेवकूफ कैसे कहे? वृक्ष को तुम बेवकूफ नही कहते..मूढ़ का मतलब है कि कुछ जाने और कुछ न जाने …लड़के को कहा कि जा चाय में खांड डाल दे ,लड़के ने खांड के बदले नमक डाल दिया..अरे छोरा तू तो मूर्ख है मूढ़ है !..तो चाय की तपेली को तो जानता है।वचन को भी तो सुनता है लेकिन खांड के बदले नमक डाल दिया।जहाँ दाल में  नमक   डालते  है तो खांड डाल दिया ,रसोइया कहे कि ए तू तो रसोइया मूर्ख है ।तो मूढ़ उसे कहा जाता है कि जो समझना चाहिए वो न समझे, जो पाना चाहिए वो न पाए,जो करना चाहिए वो न करें और जो न करना चाहिए वो उस वक्त करें।समझ गए न मूढ़ की परिभाषा?तो श्रीकृष्ण ऐसे लोगों को कहते है- विमूढा नानुपश्यंति पश्यंति ज्ञान चक्षुशः

मूढ़ लोग उस मैं तत्व को अपने निजस्वरूप को नही देख सकते,ज्ञान की आँख से देखा जाता है।तो मूढ़ता भी तो वृत्ति का खेल है।साधन भजन से ये वृत्तियों को शुद्ध करके मूढ़ता हटाकर आदमी विवेक जगाता है।लेकिन विवेक होगा तभी तो साधन में जायेगा ! जय जय..विवेक होगा तभी तो साधना की तरफ जाएगा और साधना करेगा तभी विवेक जगेगा।तो मानना पड़ेगा कि सत्संग से विवेक जाग्रत होता है। विवेक से साधना बनती है,साधना से..जैसे नाविक नाव को ले जाता है ,नाव नाविक को ले जाती है ऐसे  सापेक्ष है एक दूसरे के पोषक है।साधक के लिए वेदांत की दृष्टि से देखा जाय तो वो बॉर्डर पे खड़ा है मूढ़ों का संग मिलता है तो एक पुराना अपनी वासना और आदत और दूसरा वही मिला ! विवेकानंद कहते थे कि अभी तक तुम सावधान रहना कि तुम्हारा घड़ा भी रुंझाया नही है उसको खुजलाना मत ।जबतक सत्य का साक्षात्कार नही हुआ तब तक फिर पुरानी जो वासनाएँ हैं उसको जाग्रत मत होने देना।जाग्रत होने देना तो हम नही चाहते है ,हो जाती है क्या करे?हम नही चाहते है कि हम गिरे ,फिसले..साधक है फिसल जाते है.. कि संस्कार पुराने है!पुराने है इसलिए गिरते रहे  ऐसा भी नही ..और पुराने है इसलिए हम घबरा जाए ऐसा भी नही ,पुराने है नही छूटेंगे ऐसा करके हार जाए ऐसी बात भी नही।प्रयत्नशील रहे और प्रयत्न कईं प्रकार के है ।भोगियों के संग से ,स्त्रियों के संग से कामविकार की वासना पुरानी जग जाती है ।भोगियों के संग से पुरानी भोग वासना जग जाती है ।इसलिए कुछ समय निकालकर हम इन्द्रियों को आकर्षित करने वाले पदार्थों से बचाये अपनेको।इसलिए आद्य शंकराचार्य ने कहा – एकांतवसौ लघु भोजनादौ मौनं निराशा कर्णावरोधः
कभी एकांतवास का उपयोग करो।आप लोग तो वही के वही है लेकिन आठ दिन मौन मंदिर में रहते हैं तो आपकी विचार धारा एकदम भिन्न हो जाती है,बड़े दिव्य अनुभव होते है सूक्ष्म जगत के अनुभव होते है ,किसी को कुछ अनुभव होते है ।है तो आप वही के वही ! इन्द्रियों की पुरानी जो घरेड पड़ी है उस घरेड से बचकर जब आप आ जाते है कुछ सात्विक वातावरण में तो आपकी ऊँचाई भी तो आपकी ऊँचाई भी तो आप अनुभव करते है।

इसीलिए जिसको इसी जन्म में मोक्ष चाहिए, जिसको इसी जन्म में अपना कल्याण चाहिए भले बाबाजी न बने ,साधु न बने,जंगलों में न जाये ,कन्दरों में न जाये, गुंफाओं में न जाये फिर भी वर्ष में 10-15 दिन, पाँच दिन ,पंद्रह दिन जितना जिसकी हिम्मत हो कपैसिटी हो उतना कभी कभी किसी से परिचय न हो एकांत में चला जाय और अपने साधना के रास्ते पर कदम रखें।किसी से परिचय न हो इसका मतलब ये भी नही की आदमी से भी परिचय न हो…परिचय का मतलब है कि वासना भड़काने के वातावरण में नही रोज के वातावरण से कुछ अलग निकलके अपनी भीतर की यात्रा करें…तो उसकी वृत्तियों में शुद्धि बढ़ जाएगी ,और हिम्मत आ जाएगी । फिर भी ये कोई पराकाष्ठा नही है… ऐसा करते करते उसकी वृत्ति जब आज्ञा चक्र तक पहुँच गयी या विशुद्ध चक्र तक पहुँच गयी वो आंनदित हो जाएगा ,सामर्थ्य बहुत आ जाएगा …फिर भी पुरानी घरेड है अथवा प्रकृति को उससे कुछ कराना है तो हो सकता है कि वो घर मे आये ,बच्चे को जन्म दे,हो सकता है कि घर में नही आए और जगह कहीं बच्चे को जन्म दे दे ऐसा भी हो सकता है…

यदि तर तीव्र प्रारब्ध है तो ,उसका दृष्टांत क्या ?पराशर ऋषि किश्ती में बैठकर पार कर रहे थे नदी।मत्स्यगंधा नाम की लड़की,युवती ..उसका बाप चला गया था, शाम का टाइम होगा कि दोपहर का टाइम होगा …पराशर को हुआ कि…पराशर ने उस लड़की को देखा और कहा कि मेरे साथ तू संसार व्यवहार में उतर…उसने कहा ये कैसे हो सकता है? मैं मच्छीमार की लड़की हुँ,.. मेरे शरीर से मच्छी की गंध आती  है..   मस्तयगन्धा…मच्छी के मुँह से मैं निकली हुँ,मच्छी के पेट से निकली हुँ।ये कैसे हो सकता है?कोई देखेगा तो?….”कोई नही देखेगा,तू चिंता मत कर,मैं कोहरा कर देता हुँ।”…कोहरा कर दिया,अंधा धुंधी कर दी …बोली ” अब कोई देखेगा तो नही?अंधा धुंधी तो हो गयी …लेकिन मेरे को क्या लाभ?” ..बोले…”अभी तेरे शरीर से मच्छी की गंध निकलती है ,बाद में तेरे से सुगंध..अभी दुर्गंध निकलती है …सुगंध निकलेगी..योजनगंधा तेरा नाम पड़ेगा”…”योजनगंधा तो पड़ेगा लेकिन फिर  कुछ संतति हो जाय तो फिर समाज में हमारे लिए तो मुसीबत”….बोले “नही,संतति  हो भी जाएगी वो जन्मकर चला जाएगा तू कुँआरी की कुँआरी रहेगी।” …और वही पराशर के द्वारा उस अनंत ब्रम्हांड को संचालन करने वाले परमात्मा ने प्रकृति की ऐसी लीला को घटाकर पराशर द्वारा वेद व्यास जी  को जन्म दे दिया।तो हम देखेंगे कि पराशर जैसे व्यक्ति का पतन हो गया? नही ! उत्थान हुआ? नही ! जबतक शरीर है ,अन्तःकरण है तभी इन केंद्रों से चढ़ना उतरना हो सकता है लेकिन जिसके केंद्रों का रूपांतर नही हुआ उनका गिरना ही गिरना हुआ,जिनका रूपांतर हो गया उनका शरीर परमात्मा का साधन बन गया।जैसे कबीर को पुत्र है, पुत्री है,वसिष्ठ को पुत्र है, थे …लेकिन फिर फर्क क्या होता है कि हम लोग मेरा पुत्र करके ,मेरा परिवार करके हमारी वृत्तियाँ वहीं घूमती रहती है और उन पुरुषों का मेरा पुत्र मेरा परिवार बोलते समय भी वो ऐसी जगह पे होते है कि वो समझते है कि ये सब वृत्तियों का खिलवाड़ है,ये कल्पना मात्र है..ये लोग असंग हो गए !

तो,साधक हो,बुद्धू हो चाहे सिद्ध हो ,जब शरीर है तो सब अपनी इच्छा के अनुसार घटनाएँ नही घटती। और सब दिन एक जैसे भी नही होते।सब अवस्थाएँ एक जैसी नही होती..किसी  की भी।तो मूढ़ क्या है कि अवस्थाओं को एक जैसी करने में लगा है और नही हो रही है इसीलिए परेशान है।साधक अवस्थाओं को भी एक जैसा रखना चाहता है और नही हो रही है, वृत्तियों को एक जैसा रखना चाहता है इसीलिए वो परेशान है। भोगी सतत भोग में सुख ढूँढता है और सतत भोग बने रहे  और  सतत भोग भी नही और सतत भोग की वृत्ति भी सुखाकार नही रहती इसीलिए वो दुःखी है।त्यागी हमारी वृत्ति में त्याग ,प्रभु की याद बनी रहे  ,ये बनी रहे ..तो सतत प्रभु की याद नही बनती है अथवा बनती है  तो प्रभु के स्वरूप का पता नही चलता ।तो इस प्रकार वो भी दुःखी,वो भी दुःखी ,क्यों? क्योंकि जबतक वृत्तियों में हमलोग रहते है तबतक वृत्तियाँ कभी सुखाकार होगी कभी दुखाकार होगी,कभी वृत्ति के अनुकूल होगा कभी वृत्ति के प्रतिकूल होगा । श्रीकृष्ण जैसे  ..जो पूतना को छठे दिन की उम्र में पूतना को आकाश विहार कराते कराते पहुँचा दिया।श्रीकृष्ण के जीवन मे पद पद पे चमत्कार दिखे, अद्भुत लीलाएँ दिखी ।श्रीकृष्ण के होते होते श्रीकृष्ण के बच्चे दारू पीकर,आपस में लड़ मरे ये शास्त्र लिखनेवाले की कितनी सच्चाई और कितनी उदारता है! ये समझना होगा कि श्रीकृष्ण परब्रम्ह परमात्मा कहो जो कहो कम है, तो उनके होते हुए उनके बच्चे भगवान राम के होते हुए दशरथ राजा चल बसे और भगवान राम की माँ विधवा,शास्त्र कह रहे है ! तो ये जो बहाय्य जगत की लीलाएँ है,खिलवाड़ है …वे आदमी ज्यादा दुखी होते है जो चाहते है कि …आम केम ना थयूं…जो आदमी अपने को कर्ता मानता है वो कृष्ण को भी कर्ता मान लेगा , वो पराशर को भी कर्ता मान लेगा,परब्रम्ह परमात्मा को भी कर्ता मान लेगा। लेकिन जो अपने को द्रष्टा मानता है वो कृष्ण को भी द्रष्टा मानेगा…अथवा जो कृष्ण को द्रष्टा माने वो अपने को भी द्रष्टा मानेगा…अब फिर दूसरे ढंग से विचारे…भोगी वृत्तियों को भोग से सुखद बनाना चाहता है इसीलिए वो हताश हो जाता है,खिन्न हो जाता है ,अंत में बुरी तरह हार के जाता है।

भक्त वृत्ति में स्मृति भरना चाहता है।योगी वृत्ति को एकाग्र करना चाहता है।लेकिन ज्ञानी समझता है कि एकाग्र करके भी उस वृत्ति से जबतक मैं निवृत्त नही हुआ,वो एकाग्र वृत्ति फिर चंचल हो सकती है, वो ऊपर की वृत्ति फिर नीचे के केंद्रों में आ सकती है और अपने को  जबतक कर्ता मानूँगा तबतक सुख दुःख ,लाभ हानि ,पुण्य पाप ,जन्म मरण चालू रहेंगे।इसीलिए ज्ञानी वृत्ति को बाधित कर देता है।ज्ञानी वृत्ति जिस अन्तःकरण से निकलती है वो अन्तःकरण और अन्तःकरण की वृत्ति और वृत्तियों के द्वारा इन्द्रियों की प्रवृत्ति इन सब को अपनेसे पृथक जानकर जैसे आप अपनी गाड़ी अपनेसे पृथक जानकर उसको ड्राइव करते है,अपना स्कूटर अपनेसे पृथक जानकर  ड्राइव करते है  …आप तो कर्ता है…सच पूछो तो करता वरता क्या?हो रहा है!आदमी आ गया तो ब्रेक लग जाती है।कहीं ,कोई सामने ट्रैफिक है तो हॉर्न पे हाथ चला जाता है ये सब सिस्टमेटिक होता रहता है लेकिन हम मानते हैं कि मैंने ब्रेक लगाया ,लगनी ही  है ,पैर पहुँच ही जाते है।भूख लगी तो रोटी की तरफ मनीराम चला ही जाता है,प्यास लगी तो पानी की तरफ पहुँच ही जाता है।एक ऐसी मशीनरी मोटर फिट की है कि नाक में सनसनाहट हुई तो छींक हो ही जाता है, कोई प्लान बनाते हो?छींक देने की कोई कोशिश करते हो? छींक आ जाती है लेकिन तुम कहते हो कि मैंने दी, बगासा आ जाता है, कि मैं बगासा खांदू…ऐसे ही संसार का जो कुछ व्यवहार है प्रारब्ध वेग से हो जाता है ऐसा समझ कर ज्ञानी अपने वर्तमान प्रारब्ध में कुछ हस्तक्षेप नही करते।

ऐसा नही है कि साक्षात्कार कर लोगे तो सब तुम्हारी इच्छा के अनुसार होने लग जायेगा ! और यदि  इच्छा के अनुसार होने लग भी जाये समझो कुछ तो फिर इच्छाएँ बढ़ती चली जाएगी।जय जय…तो न तुम्हारी इच्छा के अनुसार सब होना संभव है और सब इच्छाएँ तुम्हारी फेल होना भी संभव नही! लेकिन इच्छा मात्र ये जो वृत्ति है और वृत्ति से जबतक निवृत्ति नही हुई तबतक महाराज ऊपर नीचे, सुखद दुःखद ये प्रवृत्ति बनी रहती है। बापजी ये वेदांत की दृष्टि सौ टका ऊँची है?हाँ!ऊँची तो है ,लेकिन इसमें वैराग्य की जरूरत है।विवेक और वैराग्य की जरूरत है। ये सब उसमें होता है ऐसा कर के तुम ..जैसे पराशर उतर आए संसार मे लेकिन उतरने के बाद फिर ऐसे चले गए कि दिखे भी नही!जय जय!श्रीकृष्ण संसार में तमाम लीला,क्रीड़ा ..बंसी बजाना, ये करना,9 वर्ष की उम्र में…अद्भुत लीलाएँ हुई..द्वारका में परिवार था ऐसा वैसा तुम हम सुनते हैं लेकिन देखो कि पुत्र और द्वारका समाप्त हो रही है तो श्रीकृष्ण को खेद नही होता और विस्तार हो रहा है तो श्रीकृष्ण को उसमें अहं नही ।ऐसी तुम्हारी वृत्ति ..तुम समझो ये वृत्ति का खिलवाड़ है ऐसी यदि पक्की हो जाये तुम्हारी समझ तो फिर तुमको दुःख के समय दुःख डिगा नही सकेगा और सुख तुम्हें बाँध नही सकेगा।और दुःख सुख दोनो जिसको बाँध नही सकते वो तो मुक्त है ही है!

सच पूछो तो तुम्हारे असली स्वरूप को सुख और दुःख ने कभी बाँधा ही नही है!तुम्हारे वास्तविक स्वरूप को,तुम्हारे आत्मा को आजतक सुख ने और दुःख ने किसीने बाँधा नही…लेकिन तुम जानते नही वास्तविक स्वरूप को इसीलिए शरीर को मान लेते है मैं! बंगाली महात्मा की मैंने तुमको बात बताई थी कुछ समय पहले ..वो बंगाली महात्मा महात्मा कैसे बने कि वो जज थे ,न्यायाधीश थे,जूरी में बैठे थे,किसी अपराधी को फाँसी लगने वाली थी ,ब्रिटिश गवर्नमेंट के जमाने की बात है 1942,44,45 के इर्द गिर्द की होगी …तो पाँच जज न्यायाधीश बैठते थे फाँसी के केस में …तो उसको 5बजे शाम को फाँसी लगनी है.. ये आकर  कुर्सी पर बैठे ,उसको सामने देखा मुजरिम को.. जज ने बोला कि” ये अपराधी तो नही है इसको फाँसी कैसे दी जाए?”…
“सेशन कोर्ट का आर्डर है, हाय कोर्ट का आर्डर है उसमें हम तुम क्या कर सकते हैं?हमें तो खाली बैठना है”…
बोले “नही!ये निरपराध है!”
आपस में वो उनका चल पड़ा कुछ ,ऐसा करते करते कलह में थोड़ा समय बीत गया ,5बजकर कुछ देर भी हो गई.. आर्डर नही दे पाए ..अब तो वो बच गया!समय बीतने के बाद फिर फाँसी नही देते।फिर देरी से तार आई ब्रिटिश गवर्नमेंट के वहाँ से कि वो अपराधी को फाँसी न लगे..तार आने में कुछ लेट हुई..तब जज को लगा कि जिस परमात्मा ने मेरे को ये सत्प्रेरणा  इनको हम फाँसी दिलवा देते है तो फिर इसको तो हम जिंदा नही कर सकते थे !

तो जिस अन्याय को बचाने के लिए परमात्मा ने न्याय की वृत्ति पैदा की उस परमात्मा को मैं खोजूँगा! वो रिजाइन करके चल दिए, प्रमोशन का प्रलोभन मिला,ये मिला,वो मिला लेकिन विवेक पक्का था वैराग्य मजबूत हो गया था ,चल पड़े..खोज में किसी गुरु महाराज के..गए हरिद्वार, गए हृषिकेश,गए काशी मथुरा खोजा  लेकिन देखा तो कही छोटी दुकान कहीं बड़ी दुकान,कोई एक हजार आठ तो कोई जगत का गुरु लेकिन अपने मन का गुरु कोई दिखा नही उनको।कोई विश्व के गुरु कोई जगत के गुरु ,किसीका बोर्ड और लम्बा , किसीका कम ,किसीकी छोटी गादी ,किसीकी बड़ी,गादियाँ मिली कोई गुरु नही मिला! श्रीराम! न्यायाधीश थे,निर्णय शक्ति तो अच्छी थी ही और साधक भी थे साधन भजन करते थे ।तो,अपनेसे बड़ी शक्ति के बिना सिर झुकता नही।तो,  कहीं भी जाए तो…हाँ अच्छा!आप न्यायाधीश थे, बैठिए  बैठिए…ये वो..खम्मा खम्मा खम्मा खम्मा…बोले,ये मेरे से इम्प्रेस हो गए ! खम्मा खम्मा करे ये मेरा घर तो क्या करेंगे ?….खूब भटके बेचारे लेकिन इनको कोई ऊपर उठा सके ऐसा इनको कोई दिखा नही।आखिर परेशान हो गए ।

रात्रि के मध्यान वक्त कमर में पत्थर बाँधकर गंगा किनारे खड़े हुए और कूद के अपघात कर ले ..इस जीवन से भी क्या एक तरफ तो ये भोग घसीटते है और असत्य में सार नही ,जीकर भी क्या करना?त्रिशंकु होकर क्या करना?इससे तो मर जाना अच्छा।तो रात्रि के समय हृषिकेश में गहरे पानी की जगह पर जो जम्प मारने की तैयारी की,कि बस अब कूद मरुँ, अपघात करू,अपघात माना देह घात नही शरीर घात करूँ..बस उठे कि बस जम्प लगाने की तैयारी पंजों के बल शरीर उठ चुका था ,बस गंगे हर कह रहे थे मन में कि  एकाएक किसी अजनबी चेतना ने अजनबी आदमी ने आकर हाथ पकड़ लिया! ए, मूर्ख कहीं का! अपघात करता है, अहं घात नही करता ? गुरु नही मिलते?जा मैं तेरा गुरु हुँ!जा नारायण नारायण जा!
“प्रभु,हे भगवान ,हे गुरुजी आप कहाँसे आये?”
“ये मत पूछ!जा,मैं तेरा गुरु हुँ!जा नारायण नारायण जा!”

वो योगी अदृश्य हो गए।वे बंगाली जज साधु वेश धारण करते नारायण नारायण करते घूमते घामते चारूदकरनाली है इधर बड़ौदा के पास..किसी पेड़ के नीचे बैठ गए और वो धूणी दुखाई उन्होने अपनी  , नारायण नारायण जप करते करते वैखरी वाला फिर मध्यमा में आया  ,फिर पश्यंति में आया…उनका थोड़ा सामर्थ्य प्रभाव बढ़ने लगा..फिर क्या हुआ कि लोग उनको बोलते  बाबाजी हमारे घर भिक्षा लो  हमारे घर भिक्षा लो..उन्होंने कहा कि जो अडोस पड़ोस के लोग मिलकर आये और  कीर्तन करते करते मेरे पास आए और मुझे ले चले भिक्षा के लिए मैं उसकी लूँगा! ताकि भीड़ घट जाए,आग्रह घट जाए और लोग भगवान के रस्ते लगे।तो लोग ऐसा करने भी लग गए।वो बाबाजी भिक्षा ले आते ,नर्मदाजी में खारा खट्टा अर्पण करके बाकी निःस्वाद लेके भोजन करते और वो अपना पेड़ के नीचे मानसिक साधना करते रहते।

 

उनकी वृत्ति इतनी एकाग्र हुई और अनजाने में लोग बोले कि बाबाजी भगवान आके करते थे ऐसी बात नही है…छुपा हुआ परमात्मा …यदि तुम्हारी वृत्तियाँ ,कल्पना कम हो जाती है तो तुम्हारी वृत्ति में इतना संकल्प की तीव्रता हो जाती है कि बहाय्य स्थूल जगत पर भी उसका प्रभाव पड़ जाता है।कोई बाबाजी ने गाड़ी रोक दी,कोई बाबाजी ने बरसात कर दी कोई ने कुछ कर दिया…कोई बाबाजी यूँ करता है कि हे भगवान दया कर,अब तू बादलों को इधर से भेज इधर से धक्का मुक्की कर…नही!उनके संकल्प मात्र से वातावरण में हो जाता है चेंज..जैसे मेरा संकल्प तो सूक्ष्म है। है तो सूक्ष्म…अथवा ये माइक वाले संचालन जो कर रहे है  …इनका है तो संकल्प..मैं इनको इशारा यूँ करता हुँ और ये तुरंत सब लाइटे बंद कर देते है।है तो संकल्प..लाइट बन्द करना दिखा कि ओहोहोहो एक एक गोला में जाके क्या किया होगा?जो नितांत गामडिया है उसको आश्चर्य लगेगा लेकिन तुम ने समझा कि ये तो सिस्टमैटिक है कोई बड़ी बात नही…लेकिन योग की दृष्टि में हम गामडिया इसलिए बोलते है कि ….फिर बाबाजी चले गए वहाँ से,भीड़ होने लगी…आयी मौज फकीर की दिया झोपड़ा फूँक… बद्रीनाथ गए..अब भक्तों को तो श्रध्दा थी ,कोई चमत्कार घट जाते थे..भक्तों को श्रध्दा बढ़ गई… भोजन करो भोजन करो….कि “भगवान को लगाओ पहले ठाकुरजी को भोग लगाओ …बद्री विशाल के धाम में है तो प्रभु खाए फिर खाना चाहिए अपन को” ..भोजन वोजन बनाया …लगाया तो भगवान को तो जैसे पंडी लगाते है और ले आते है…बाबा ने कहा “नही ,भगवान खायेंगे तब खाएंगे अपन “..तो मैने सुना है बहुत लोगों के मुँह से की भोग लगवाया और जैसे कोई बड़ा आदमी खा लेता है,थोड़ी दाल खा लेता है, थोड़ा कुछ उठा लिया थोड़ा खा लिया ..उसकी खाई हुई थाली दिखे ऐसे वहाँ भगवान के लगाया भोग देखा कि भगवान ने स्वीकार किया ,बाद में बाँटा। ये तो खैर वो न्यायाधीश थे,नर्मदा किनारे आके जमे थे,तप किया था,वैखरी मध्यमा परा में पहुँचे थे उनके संकल्प में बल था।

 

कभी कभी तो तुम्हारी जो कल्पनाएँ हैं वो कल्पनाएँ श्रद्धा का रूप ले लेती है तो उसमें बड़ा समर्थ आ जाता है जैसे धन्ना जाट आदि की कथाएँ तुमने सुनी होगी । धन्ना जाट की कथा क्या कहती है …किसी गाँव मे पंडित आया कथा करने भागवत आदि की । कथा करके पंडित जब रवाना होता है तो 7 दिन कथा सुनकर उनका दिल भर गया धन्ना जाट का ,लड़के का..और पंडितजी घोड़े पर सवार होकर जा रहे थे , पैर पकड़ लिया कि गुरु महाराज आपको पहले नही जाने दूँगा ।आप बोलते है कि ठाकुरजी की सेवा करो, ठाकुरजी की सेवा करो ..मेरे पास ठाकुरजी नही आप ठाकुरजी दो…बोले ले लेना कही से…बोले नही आप ठाकुरजी के लिए सुनाते है तो आपके पास ही होंगे ठाकुरजी। उस बेचारे को पता नही!…पंडित ने पिंड छुड़ाने के  लिए काफी किया लेकिन धन्ना जाट की जो कल्पना है वो विश्वास में बदल गई।   भोले आदमी की कभी कभी कल्पनाएँ  विश्वास का रूप तेज ले लेती है।

पंडित ने सोचा अब इसको कैसे छुड़ाउँ ? पंडित भांगेडी थे, भांग घोंट के पीते थे रोज , तो भांग घोंटने का जो सिलबट्टा था वो पकड़ा दिया बोले ये ठाकुरजी है ! बोले क्या करना कि नहा के नहलय्यो, खिलाकर ख़य्यो , बस यही आज्ञा मान लेना। नहा के सिलबट्टे को नहला दिया । अब भोजन एक रोटी रोज मिलती थी । क्योंकि खेत था थोड़ासा छोटासा पौना एकर..माँ और बेटा थे  रोटी ,सब्जी या चटनी रख दी भगवान के आगे …खा ले…खा ले…आधी तू खा ले फिर मैं खाऊँगा। गुरुमहाराज ने कहा है नहा के नहलय्यो, खिलाकर ख़य्यो…अब तू खाएगा तभी तो मैं खाऊँगा ..खा ले ठाकूर,खा ले ठाकूर,खा ले ठाकूर… लेकिन ठाकुर..इसके मन में ये नही कि सिलबट्टा है  …ये तो बस पंडितजी ने कहा गुरुमहाराज ने …ठाकूर खा ले,खा ले,खा ले ..उसकी जो और वृत्तियाँ थी वो वृत्तियाँ सब  कट आउट हो गयी और तदाकार की गरेड पड़ गई!  लेकिन अभी उतनी नही पड़ी जितनी घटना में चाहिए …एक दिन हुआ ,ठाकुरजी ने नही खाया, भूखे रहे !..दूसरे दिन,तीसरे दिन ,चौथे दिन, और दिन दिन भूख-प्यास-तड़प बढ़ती रही.. महणे भी मारने लगे कि तुम तो अमीरों के हो
!तुम तो पढ़े लिखे को,हमारे जैसे गरीब की रोटी तुमको अच्छी नही लगती ,पंडित तो तुम्हें मलाई खिलाते होंगे..पंडित तो तुम्हें रबड़ी खिलाते होंगे! अब मैं कहाँ से लाऊँ?खा ले !कभी मालदार हो जाऊँगा तो रबड़ी भी खिलाऊँगा अभी रोटी तो खा लें!क्या तेरे को भूख नही लगती?वो अपनी जैसी जैसी उसकी भावनाएँ कल्पनाएँ थी वो बेचारा बड़बड़ाता रहा। लेकिन उसकी बुद्धि सत्य बुद्धि थी कि ठाकुरजी खाएँगे !कथा कहती है कि सातवा दिन हो गया ! अब भूख ने तंग किया ! आदमी भोजन करता है तो उसकी चेतना भोजन पकाने में पेट के करीब होती है। और भोजन आदि नही करता तो उसकी प्राण शक्ति ऊपर चढ़ जाती है। अब आ गए  जिद पर ! और स्त्रियाँ भी जब रोटी नही खाती है न तो जिद बढ़ जाती है उनका और …और दारू काम करावे न..सत्याग्रह वत्याग्रह क्या है? रोटी नही खाया तो फिर जिद पकड़ जो हैं बढ़ जाती है और सामने वाले की पकड़ रोटी खा रहा है तो उसकी पकड़ कम हो जाएगी और हम रोटी खा रहा है तो ज्यादा हो जाएगी।

और कईं बार सत्याग्रह..अब फाफड़ा खाकर सत्याग्रह करते है उनको दम नही होता..ॐ ॐ ॐ..वृत्ति अंदर खटकती है न! …वृत्ति में दृढ़ता हो तो सामनेवाले के …  सारी दुनिया संकल्पों की वृत्तियों की है! जिसकी वृत्ति दृढ़ है उसकी जीत होती है और जिसकी वृत्ति थोड़ी  हिल गई उनकी हार होती है। जैसे दोमल ..जिसमे बल ज्यादा ,युक्ति ज्यादा , ऐसे ही ये सारा दुनिया वृत्तियों का खिलवाड़ है! निदान, आखिर धन्ना जाट आया अपनी जटेती  पर कि..” तू खाता नही! तेरे को  पंडितजी के सिवाय अच्छा नही लगता तो मेरे को तेरे सिवाय भी जीना क्या? …. कि तू नही खाता है तो मैं नही हो जाता हुँ, भूखे मर मर के   मर जाऊँ ,इससे तो ऐसे ही मर जाऊँ  तेरे आगे बलिदान होकर!  गुरुमहाराज ने कहा कि नहा के नहलय्यो, खिलाकर ख़य्यो, तू खाता नही ? तू नही खाता तो मेरा रहना,जीना किस काम का? गुरुमहाराज बेचारे अच्छे थे, दे ही नही रहे थे! मैंने जबरन  माँगा और मैं तेरे को भूखे मारूँ ? तू मेरे पास आता भी नही ? सुना था कि ठाकुरजी दयालु होते है लेकिन ये पत्थर दिल ! सचमुच तुम पत्थर जैसे हो ! जैसे बाहर से दिखते हो ऐसे ही भीतर हो ! हमने सोचा कि बाहर से पत्थर जैसे दिखते है ,भीतर कोई दिल  होगा, लेकिन तुम्हारा दिल नही? अब मैं जाता हुँ ! “….लेकिन वो जाने का तुम मत करना हं !…क्योंकि उसमें तीव्रता चाहिए ! उठाया छरा और ज्यों पेट में भोंक मारने की तैयारी की ,ठाकुरजी वहाँ प्रगट हो गए! हाथ पकड़ा कि “धन्ना ! माफ करना मुझे माफ़ करना देरी हो गई !” झट झट झट झट रोटी खाने लग गए ! धन्ना क्या कहता है…”ठहर जा ! आधी मेरे लिए रख, मैं भूखा हुँ!क्या करता है तू?”

तो धन्ना के अंदर ही वो चैतन्य आत्मा था जिसने सिलबट्टे से प्रभु को भोजन कर्ता कर दिया ऐसी बात नही..वही का वही ,वैसे का वैसा, पूरे का पूरा हमारे पास है, लेकिन हमारी वृत्ति में विश्वास कहाँ?हमारी वृत्ति में ऐसी एकाग्रता कहाँ?हमारी वृत्ति में ऐसी गहरी दृढ़ता कहाँ?इतना हो भी जाए.. सिलबट्टे से ठाकुरजी निकल आए और ठाकुरजी तुम्हारे खेत में काम करे …अथवा वो पंडितजी का वो लंबा कथा है,हम सार समझ रहे है इसका,थोड़ा हिस्सा… फिर भी धन्ना जाट की ये पूर्णता है ऐसी वेदांत को जानने वाले महापुरुष नही स्विकार करेंगे! वृत्ति में विश्वास हुआ ,लेकिन है वृत्ति !तो ठाकुरजी भी कबतक रोटी खाएँगे और तू खोलनेवाला भी कबतक रहेगा? तू ठाकुरजी के स्वरूप को और अपने स्वरूप को नही पहचानेगा तबतक ये मध्यम भक्ति हुई ! ईश्वर के रास्ते जाने वालों के..बहुत लोग हैं लेकिन इनके तीन भेद होते है.. शुरुआत ये होती है कि “वो” है! भले अपने को दिखता नही है, लेकिन “वो” है!  …”वो” है! ईश्वर है! आगे आदमी बढ़ता है तो ऐसा महसूस होता है कि “वो” मेरा है ! “भगवान” मेरा है ! और आगे साधना में बढ़ता है तो फिर अपने को हटा देता है  …वो मेरा नही ,न मेरा न तेरा ,हम न तुम दप्तर गुम..वो स्वयं मेरा हो जाता है!  …तस्यवाहं,तवैवाहं,सुवहं…मैं उसका हुँ! फिर बोलता है मैं तेरा हुँ! फिर आगे बढ़ जाता है “मैं” तू हुँ तू मैं है! एक ही  है…

एकमेवाद्वितीय ! “मैं उसका हुँ ” दूरी है, “मैं तेरा हुँ” थोड़ी नजदीकी है , लेकिन “मैं” हुँ ही नही “तू” है अथवा तू नही मैं दोनो एक हो गए ! ये साधना की पराकाष्ठा हो गयी !तो वृत्ति में विश्वास आए अच्छा है लेकिन वही वृत्ति का जो विश्वास है उस विश्वास से भी एक कदम आगे चला जाए तो विश्वास भी वृत्ति का है , अंतःकरण का है, अंतःकरण को सत्ता  देने वाला “मैं चैतन्य ” अनन्त अनन्त ब्रम्हांडों फैल रहा हुँ ! जैसे लाइट है न हीटर में आ जाती है तो गर्मी देती है ,फ्रिज में आ जाती है तो ठंडक दे देती है ऐसे ही  मुझ चैतन्य का स्वभाव है …सूर्य में आकर तपन देता हुँ ,  चाँद में आकर शीतलता देता हुँ, अंतःकरण सात्विक में आकर प्रेम और आनंद छलकाता हुँ, तामस और राजस में आकर इच्छाएँ ,वासनाओं को सत्ता देता हुँ… मेरे अनेक रूप है…ऐसा जो अनुभव करने लग जाए उसके लिए फिर   न मृत्यु न जन्म ..चिदानन्द रूपं शिवोहं  शिवोहं….न में जाति भेद…जाति का भेद नही,वर्ण का भेद नही,गुरु और   शिष्य का भेद नही…चिदानन्द रूपं शिवोहं  शिवोहं..

तुमको क्या करना कि मैं कहूँ कि तुम ये करो ऐसी बात नही है, तुम इन कथाओं से ये समझ लो कि तुम कहाँ हो और तम्हारे चित्त की सेटिंग कहाँ अच्छी तरह से होती है!  तुम्हे ज्ञान मार्ग में गति करने की हिम्मत है तो उस जैसा कोई रास्ता नही! यदि ज्ञान मार्ग में गति करने की हिम्मत नही और फिसल फिसल जाते है तो फिर यम -नियम का थोड़ा अवलंबन लेकर …जनरल में तो ये कहना होगा कि तुम प्रति दिन थोड़ा बहुत  सत्संग चाहिए ! काम करने के बाद ,कार्य पूरा होने के बाद ,अथवा कार्य के बीच आप देखो कि ये काम मन ने, इन्द्रियों ने  ,वृत्तियों ने किया, इसको सत्ता देनेवाला मैं वृत्तियों का साक्षी चैतन्य ! ॐ शिवोहं सद्चिदानंदोहं शांतोहं ! एकाध घण्टा बीत गया फिर आप 2 मिनट ब्रेक मार दी..एकाध घण्टा काम किया फिर एकाध मिनट आपने अपने चित्त को ,चित्त की वृत्तियों को ,प्रवृत्तियों को देखा..एक उपाय ये भी सुगम है। दूसरा – आप 2-3 महीने के लिए प्रयोग करें चलते-फिरते कि ये सब स्वप्ना है! लेकिन  बड़ा कुशल,सतर्क और स्फूर्ति दाई जीवन होता है ज्ञानी का! मिथ्या मिथ्या करके आलस्य ,प्रमादी …जैसे कोई लोग सत्संग थोड़ा बहुत वेदांत का  सुन लेते है फिर तो नींद में और गपशप में जीवन गवाँते है ! नही ! जीवन तुम्हारा ऐसा होना चाहिए कि आप सुख के दाता बन जाओ ! देहाध्यास घटाने के लिए सुगम उपाय है कर्मयोग। कर्मयोग का मतलब ये कि अपनेसे हो सके उतना दूसरों को सुख दो! जो दुसरों को सुख देने की आदत पड़ जाएगी तो अपने सुख की परवाह नही होगी, अपना सुख दूसरों को सुख देते समय अपनेआप ऑटोमैटिक भीतर से शुरू हो जाएगा, बाहर के सुख की जरूरत नही पड़ेगी, बाहर के सुख की गुलामी नही करनी पड़ेगी !

जितना हो सके दूसरों को सुख पहुँचाओ । दूसरों को बाबाजी फ़िल्म की टिकट लेके देवे वो सुखी हो जाएँगे ! इसमें फिर कैसे सुख पहुँचाए वो ढूँढना पड़ेगा। और सच्चा सुख पहुँचाना है तो दूसरों को हरि चर्चा में ,दूसरों को सत्संग में,सत्य साधना में …तो सजातीय  प्रवृत्ति में यदि दूसरोंको सुख पहुँचाओगे तो वो बहुत तीव्र,बढ़िया साधना होगी नही तो फिर दूसरे जिस ढंग से भी थोडा बहुत दूसरों को सुख पहुँचाओ,दूसरों की सेवा की तरफ समय जाए,शक्ति जाए तो ये कर्मयोग उसका नाम बन जाता है। कर्म तो करें लेकिन इस कर्म से वासना बढ़े नही लेकिन हमारे चित्त में भूख की वासना घट कर हमारा अपने साथ मिलाप होता जाए,योग होता जाए। ये संसार जीवन मे जीने वाले संसारी लोगों के लिए बड़ा उपयोगी है। ये कर्मयोग करोगे तो वाहवाही हो जाएगी,थोड़ा यश हो जाएगा और फिर समझोगे कि बस! तो फिर सत्ता या सत्ता वाले बोलेंगे लेओ टिकट आप ही लड़ो !  हम बैठा छे !

इसलिए सत्संग को न छोड़े! सत्संग को न छोड़े और अपने को ऊँची दृष्टि रखें कि हमारा लक्ष्य क्या है? प्राप्तं राज्यं.. राज्य प्राप्त भी हो गया , ततः किम ? चक्रवर्ती सम्राट भी हो गए ,ततः किम ? नगरसेठ हो गए, ततः किम ? पहलवान हो गए , आखिर कब तक ? उससे क्या ? सबकुछ हो गया फिर भी एक दिन सब न होने में बदल जाएगा।
जब  न होने में बदल जाएगा तो अभी से समझ लो नही है ! और नही के तरफ ही तो जा रहा है! जो कल दिन था आज वो नही है ! जितना कल  उम्र था आज वो नही है ! शरीर में कल अन्न,जल था वो आज उस रूप का नही है। सब नही में जा रहा है। जो सब नही में जा रहा है तो नही है ! ऐसा करके देह अध्यास को गलाने का प्रयत्न करो । देह को गलाने का नही..देखना गलती न हो! Gujarati text
नही,नही…देह में अध्यास..जो अहं प्रत्यय है उसको गला ले। कभी नदी किनारे चले गए,सरोवर किनारे चले गए, नदी की बहती धारा को देखा कि यह धारा बह रही है  ….बहती हुई धारा…आँखों की पुतलियों को एकाग्र कर दिया, मन एकाग्र हो गया ..देखो की नदी की धारा बह रही है, पानी बह रहा है, बहता पानी देखनेवाला मैं हुँ ऐसे ही बहती वृत्तियों को देखने वाला “मैं” वृत्तियों से परे ,वृत्तियों का साक्षी ! वाह वाह !ॐ आनंद ॐ शांति ॐ… कभी छत पर चले गए  , तारे टिमटिमा रहे हैं , अंधेरी रात है, उनके   तरफ देखते देखते देखते  चित्त एकाग्र कर लिया …फिर..कहीं तारे होकर मैं टिमटिमा रहा हुँ  ,कहीं चाँद होकर  चमक रहा हुँ… कभी चले गए पूर्णिमा की  रात है या और कोई चाँदनी का अच्छा वातावरण है , चाँद की तरफ देखा, आँखों को खोला ,बंद किया,खोला ,बंद किया..1-2 मिनट.. इससे आँखों की रोशनी भी थोड़ी बढ़ती है। फिर एकटक चाँद को देखते देखते.. हाय! चाँद तू मेरी चेतना से  चमकता है, तू मैं है, मैं तू हुँ! वाह वाह वाह ! कभी ऐसे खुले आकाश में निहारा…दृष्टि एकाग्र करके निहारा तो दूर तक दृष्टि जाएगी तो आँखों की कसरत हो जाती है और आँखों की थोड़ी सुरक्षा भी होती है। जितना दूर साफ दिखाई दे उतना दूर तक  सीधाई में देखनेसे आँखों के लिए  हितावह है। सीधाई में देखते देखते फिर दृष्टि को फैलाया , दृष्टि को फैलाते फैलाते अपने को फैला दिया जैसे जहाँ तक नजर जाती है वहाँ तक अपने मन को फैला दिया कि सब मैं मैं मैं ! ये अच्छा और ये बुरा ये दोनों गल जाएगा। अशुभ करने की अपेक्षा शुभ करना अच्छा है, ठीक है न ! वृत्ति में पाप होने की बजा वृत्ति से पुण्य होना अच्छा है। वृत्ति से पुण्य होने की बजा वृत्ति के द्वारा परमात्मा देखना अच्छा है! परमात्मा देखने की अपेक्षा सबको परमात्म तत्व मानना अच्छा है ! और सबको परमात्म तत्व मानने की अपेक्षा भी अपने सहित सब परब्रम्ह है ऐसा जानना सर्वोपरी है ! ॐ ॐ ॐ ! 3 महीना तुम्हारे आगे बहुत कुछ अनुभूतियाँ आ जाएगी ! हो सकता है कि आँख खुल जाए, हो सकता है कि आपको साक्षात्कार हो जाए !

उठें सुबह 4 बजे के करीब, नहा धो के बैठ सके तो बहुत अच्छा है नही तो फिर ऐसे ही बैठ गए..वृत्तियों को देखा, फिर श्वासों श्वास को देखा , मैं देखनेवाला हुँ, ये सब दिखनेवाला है…थोड़ा ये अभ्यास किया फिर गहरा पूछा “मैं कौन हुँ वास्तव में?”  दिखनेवाला तो हुँ लेकिन कौन हुँ? “मैं कौन हूँ ”  “मैं कौन हूँ”  ऐसा दोहराते दोहराते जाओगे न  तो आपका स्वरूप कोई आकार नही है कि ऐसा होगा ..आपका स्वरूप तो जो हैं शांत,शुद्ध ,निःसंकल्प…कोई संकल्प नही उठे ..बड़ी शांति लगेगी …फिर मन इधर उधर जाएगा …कि मन तू इधर उधर जाता है तो जा ! मैं तेरे को देखता हुँ !…मन को तो देखनेवाला हुँ लेकिन हूँ  कौन? इस प्रकार का थोड़ा अभ्यास करोगे , कुछ ही दिनों में आपको लगेगा कि अरे ! असीम शांति का दर्या  ! आपकी योग्यता बढ़ जायेगी। बुद्धि की शक्तियाँ विकसित होने लगेगी।

मजूरी कर कर के जो रॉकेट वाले नही समझ पाए वो लीलाशाह बापू पाटण-मैंसाणा लोकल,चालू लोकल में , शटल…
पाटण-मैंसाणा शटल होय छे न…शटल में उसने पढ़ के दिखाया कि बापू …आजसे 12-13 साल पहले की बात होगी 14 साल …बापू ऐसा है,बापू ऐसा है, अब वो ऐसी संभावना है  अखबार में आया था बड़ी फोटो वोटो …बापू ने यूँ करके..अरे !बोले…कुछ नही ये तो खाली..कुछ नही होगा …घड़ीभर में!..लेकिन बापू से पूछो कि आपकी ये तो बड़ी उपलब्धि है ..हम लोगों की नजर में तो बड़ी उपलब्धि है, लेकिन उन्होंने जो स्वरूप का साक्षात्कार किया उसके आगे कुछ नही!  आत्मसाक्षात्कार के आगे ये गरिमा, या ये ज्ञान , या ये देश देशांतर का पता या भविष्य का पता या ख्याल आ जाना…अच्छा, तो ये ख्याल कैसे आता है ? कि दिखता है ? नही ! ज्ञानी के आगे चाहे अज्ञानी के आगे , आँखों के आगे जो चीज आएगी उतनीही वैसी दिखेगी लेकिन ज्ञानी को जो दिखता है उसकी वृत्ति इतनी सूक्ष्म हो जाती है ,ब्रम्हतत्व , ब्रम्हाकार  वृत्ति उनकी इतनी सूक्ष्म हो जाती है कि अनंत अनंत ब्रम्हांडों में फैली हुई  । जैसे आकाश आपका इस ब्रम्हांड को फैला हुआ है ऐसे अनंत ब्रम्हांड है दूसरे …इस ब्रम्हांड को इस आकाश ने घेरा है। ऐसे अनंत ब्रम्हांड है! वो चैतन्य परमात्मा इतना सूक्ष्म है कि जिसका वाणी के द्वारा बयान नही..ये छठे  केंद्र का तो थोड़ा हम कल्पना संकल्प करके थोड़ा हिम्मत करके समझा भी सकते है, लेकिन जब आखरी तत्वज्ञान की बात आती है न तो वहाँ वाणी अवाच्यपद हो जाती है ! जितना भी कहेंगे उसमे से कुछ न कुछ प्रतियोगी शब्द आ जाएगा। जो भी कुछ कहेंगे  उसको काँटने का शब्द दूसरा भी आ सकता है।

पूरा सत्य कहने का विषय नही होता है..उसके इशारे हो सकते है, संकेत हो सकते है…   संकेत हो सकते है. ..संकेतमात्र…कैसे संकेत कैसे ? आ रहा था साधु, पकड़े पैर..बाबाजी गृहस्थी हुँ, चार बच्चियाँ है ,  शादी करानी है,पैसा नही है…संध्या के समय आपके दर्शन हो गए।अभी आठ ही बजे है ।दिए जले थे तबसे बैठा हुँ ,बाबाजी कोई संत आए …  आप आए दया करो…बाबा ने कहा दया वया क्या , मैं आ रहा था तो कोई  कहीं मणि पड़ी थी,कोई हीरा पड़ा था । तो ठीकरा था न उसको मैंने मणी के ऊपर रख दिया …तो यहाँ से आधा मील जाना फिर दाहे थोडासा मुडना ,एक झाड़ है , पेड़ है पीपल का उसके पास में वो पड़ा है घड़ा।  अब क्या है कि अंधेरी रात है ,घड़ा  के द्वारा  घड़ा से मणि ढका हुआ है। उसने  उठाया फानस , हाथ में लिया डण्डा , चला…चला तो जो चिन्ह मिले थे पहुँच गया। जबतक वहाँ नही पहुँचा था तबतक तो उसको फानस काम मे आया ।अब वहाँ पहुँचा और देखा कि वो घड़ा से ढका हुआ कुछ है, उठाए क्या? साँप हो, कुछ हो क्या पता !कोई घुस गया हो तो…मार दिया जोरसे डंडा। डंडा मार दिया तो वो जो मणि है न प्रकाश मय ! तअब मणि को देखने के लिए क्या वो फानस की बात ऊपर करेगा ? नही ! मणि स्वयं प्रकाश है !

ऐसे ही तुम्हारी बुद्धि रूपी लालटेन कबतक कहाँ तक जाती है ?जहाँ तक वो मणि ढकी हुई है !  मणि खुल गई तो तुम्हारी मणि का प्रकाश उसमें मिल जाता है! फिर उसका बयान नही हो सकता ! और वह मणि बाबाजी ने बताई थी आधा मील दूर ,लेकिन कृष्ण जो मणि बता रहे है,वेद   जो मणि बता रहे है,  संतपुरुष जो मणि बता रहे है वो आधा इंच भी दूर नही है ! पाव इंच भी दूर नही है ! इतनी वो नजदीक है और आजतक पाया नही! क्योंकि बहुत नजदीक होता है न उस वस्तू का खयाल ही नही होता! जो अत्यंत निकट है न उसका खयाल नही होता ! दूर की चीजें दिखती है लेकिन आँख का निकट का हिस्सा नही दिखता। आँख दूर दूर देखती है लेकिन ये हिस्सा नही देखती ! इसको देखने के लिए फिर आईना लाओ ..तो आईना में ऊँधा दिखेगा …  मैं दिख रहा हुँ.. मुँह है पूरब को तो दिखेगा पश्चिम में….ऊँधा दिखेगा…
इसीलिए हम संसार की बुद्धि से देखते है तो वो सत्य हमको ऊँधा दिखता है ,जगत होके भासता है ।जय जय ! और ये ऊँधा दिखता है ऐसा समझ आये तो उसको सीधा कर ले! ॐ ॐ ॐ ॐ !
तो 3 महिने प्रयोग करके देखो कि ये मिथ्या है,ये मिथ्या है,ये मिथ्या है,ये स्वप्न है,ये स्वप्न है…जो दिखे  , खाओ तो भी स्वप्न , ये खा रहा है..पिओ तोभी  “ये पी रहा है”, बोलो तोभी “ये बोल रहा है” और वृत्ति में चिंता है कि वृत्ति को चिंता है ? ठीक है तू कर चिंता ! देखो उसी समय चिंता भागती है कि नही भागती!जय जय! डर भी…चित्त को डराया क्योंकि पुराने संस्कार है, क्रोध आया…पुराने संस्कार है, चित्त के है !मेरे नही है ! आपका इतना बचाव होगा कि जो लोग उपवास कर रहे है , खड़े सूर्य होके तप कर रहे है उससे बैठे में हजार गुना फायदा हो जाएगा ! ॐ ॐ ….

 

यस्य ज्ञानमयं तपः  … ग्राहक को लो,दो,बात करो ,लेकिन ऐसा व्यवहार करो कि वो ग्राहक के रूप में मैं ही आया हुँ !  फिर देखो कर्मयोग बन जाता है! जहाँ जहाँ नजर जाए पहले तो उसको अपना स्वरूप समझो  अथवा तो इस  देह को उस देह को खिलौना समझो …बाकी दोनों देहों के अंदर जो चमक रहा है वो विदेही चैतन्य का विलास..ये घड़ा वो को घड़ा दिखता है,दोनों के अंदर आकाश एक!ऐसा भाव..चलते फिरते घूमते ..अभ्यास किया जाय..सब मिथ्या, सब स्वप्ना.. अथवा तो दूसरा रास्ता है.. सब मैं ही हुँ!…वो भी ठीक है।…सब मिथ्या है, जो आकृति में दिखता है मिथ्या है लेकिन आकृति को जो सत्ता दे रहा है वो सब मैं ही हुँ ! ये जो चिंतन है न.. सतत तुम ध्यान भी नही कर सकोगे, सतत तुम जप में माला लेके  बैठो तो भी नही होगा..स्मृति होगी और स्मृति में भी थोड़ी ..स्मृति भी हटाओगे तभी तो खाना पीना होगा ।लेकिन स्मृति तीव्र होगी तो खाने पीने के ,और वृत्तियों का प्रभाव नही होगा । तो
अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँति।
सब तजि भजनु करौं दिन राती
स्मृति भरना चाहते है हम ,ठीक है!

स्मृति भी होगी तब आनंद और स्मृति से कुछ विपरीत हो गया तो? स्मृति तो हो अच्छा ही है लेकिन स्मृति कितनी हुई कि भगवान के भक्त बन गए और भगवान विष्णु के हम गरुड़ बन गए । गरुड़ के जीवन की एक कथा है कि राम अवतार में  मेघनाथ के साथ भगवान राम की जब युद्ध हुई तो मेघनाथ ने देखा कि ये कुछ हमारा असर नही होता इनपर ,कल तक मैं कल शाम तक इनको कुछ कर दिखाऊँगा। उन्होंने क्या किया कि मेघनाथ ने अपना नाग पाश फेंका और प्रभुजी बंध गए! प्रभुजी बंध गए, नारद ने देखा कि ठाकुरजी बंध गए क्या किया जाय? गए गरुड़ के पास।भगवान बंध गए हैं, चलो अब तुम्हारे सिवा नागपाश से छूटना उनका मुश्किल है।नारद जी ने कहा गुरुड़ तैयार हो गए। गरुड़ जी ऐसे तैसे नही थे, वो जब उड़ान लेते थे तो उनके पाखों से सामवेद की संदे निकलती थी।ऐसे थे वो! हाय, साँपों को निगला,वो प्रभु नागपाश से मुक्त हो गए। गरुड़ के मन में आया अगर मैं नही आता तो इनका क्या हाल होता! देखो वृत्ति कैसा धोखा दे देती है। वृत्तियों में जी रहे  है न हम लोग! अब इनका क्या होता? तो जिनमे श्रद्धा थी उनकी स्मृति से रस आ था । अब  श्रद्धा डाउन हो गई तो स्मृति से रस आना बंद हो गया,  जो रस आने का जो रस था वो  बंद हो गया तो विरसता उनको खटकने लगी, विक्षिप्त हो गए । खटकने लगी, विक्षिप्त हुए ,गए भगवान शंकर के पास ऐसी कथा है । ये कथाएँ सब महापुरुषों ने जिन्होंने बनाई बड़ी करुणा की। सत्य को समझाने के लिए  न जाने क्या क्या उन्होंने तैयार किया ! गए शिवजी के पास… अब अशांति हो गई..कारण क्या है ..बोले कारण तो और कुछ नही है, नागपाश से प्रभु को छुडाया उसके बाद अशांति हुई ।प्रभु को नागपाश से छुड़ाने से अशांति नही हुई लेकिन स्मृति में जो श्रद्धा थी उसके कारण जो स्मृति थी,श्रध्दा दान हुई  तो स्मृति में गड़बड़ हुई ।आप किसीके प्रति श्रध्दा करते है और उसका स्मरण करते हैं तो रस आएगा।

और उसीके बारे में  कोई आदमी आपको इधर उधर बता दे,आप न माने और श्रद्धा बनाए रखें ..फिर भी उसकी सुनी हुई बात कभी कभी खटकाव देगी तो आपको लगेगा कि  फलाना आदमी की बात तो मैं नही मानता हुँ लेकिन वो अभागा निंदक जबसे मिला है न तबसे साँई पहले जैसा मजा नही आता है।हो जाएगा! ठाकुरजी में, भगवान में, गुरु में, कृष्ण में,राम में,रहमान में,किसीमें! तो ये स्मृति का सुख हुआ वृत्ति में ,स्मृति का सुख..शिवजी ने कहा कि तू इष्ट का निंदक?तेरे को कथा हम नही सुनाते! तेरे आगे राम की चर्चा हम नही करते ! जा खग की भाषा खग ही जाने….पक्षी की भाषा पक्षी जाने, तुलसीदास जी ने कहा…खग की भाषा खग ही जाने..गरुड़ को भेज दिया काकभूषण के पास। काकभूषण के इलाके में जाने मात्र से उसका जो सन्देह था भगवान राम के प्रति ..नर है, ऐसा है,क्या होता है,ये…वो निवृत्त हो गया ! स्मृति बनी, फिर सत्संग सुनकर वृत्ति तदाकार हुई । तब काकभूषण की कृपा से गरुड़ को आनंद हुआ। निज स्वरूप कि झलकें आई। तो गरुड़ जैसे व्यक्ति की अवस्था वृत्तियों में रहते है तो एक जैसी नही रहती है तो हम लोग तभी दुःखी रहते है कि हमारी वृत्तियाँ हम चाहते है कि एक जैसी रहे ! हमारी अवस्था एक जैसी रहे ,हमारी परिस्थितियाँ एक जैसी रहे !
खून पसीना बहाता जा
तान के चादर सोता जा
ये किश्ती तो हिलती जाएगी
तू हँसता जा या रोता जा

तो ये किश्ती हिल रही है , किश्ती में बैठा हुआ किश्ती कार भी हिल रहा है लेकिन वो अपनेको …शरीर को, किश्ती को हिलता हुआ देखकर ज्ञान तो नही  हिल रहा है! किश्ती शांत थी तब भी तू था ,किश्ती हिल रही है तब भी तू था, किश्ती में बैठा  तब भी तू है, किश्ती से बाहर आ गया तब भी तू है, तू तो ज्यूँ का त्युं है ! ज्ञान ज्यूँ का त्युं है ! अंतःकरण बदलता रहता है! इन्द्रियाँ बदलती रहती है। उनको देखनेवाला, देखने के साधन अनेक लेकिन देखनेवाला मैं एक, सुनने  के साधन अनेक,चीजे अनेक,सुनने के विषय अनेक लेकिन उसका ज्ञान एक!चखने के विषय अनेक,रस के विषय अनेक लेकिन उसका ज्ञान एक!मन के संकल्प और वृत्तियाँ अनेक लेकिन उनको देखनेवाला मैं एक! बुद्धि के निर्णय अनेक  उनको देखनेवाला मैं एक! तो ज्ञान तो एक ही है! और जो यहाँ एक ज्ञान है वही का वही सब मे है ! ये बात समझ मे आए तो अभी के अभी मुक्ति हो सकती है बाबा !  देर नही ! फिर ये केंद्र वेंद्र की भी कोई परवाह नही !

लेकिन ये ज्ञान समझ में …सुन लेते है…समझ मे आने को भी राजी है ज्ञान, लेकिन हमको उस ज्ञान की तड़प नही ,प्यास नही है ! क्यों ? कि संस्कार है वृत्तियों को बहलाने का! भगवद प्राप्ति की तड़प हो  तो श्रवण मात्र से साक्षात्कार हो सकता है!  No doubt in it ! कुछ क़रने की जरूरत नही है।और कुछ करनेसे भगवान मिलता भी नही ! जो करनेसे मिलता है वो न करनेसे चला जाएगा ।जय जय!उसका मतलब ये भी नही कि चलो करनेसे भगवान नही मिलता तो अपने तो पिच्चर देखो, खाओ, पिओ..तो फिर अनर्थ कर लोगे अपने साथ।ये तो एकदम टॉप की बात है, कर कर के जब  ऊँचाई पे आ जाते है न  तब पता चलता है करने से कुछ नही मिलता….तो शांत होके..  भोग की वृत्ति चली गई ,तो अब त्याग की वृत्ति भी नही रही और वृत्तियों से निवृत्त तत्व का साक्षात्कार हो गया, फिर उसके लिए …जब ऊँचाई का बोलते है न तो कभी कभी खतरा भी पैदा हो जाता है! समझने वाले बहुत नीचे खड़े है और बोलनेवाले एकदम टॉप की बात बता देते है तो फिर वो समझने वाले नरक का रास्ता ले लेते है।

हे रामजी जिनकी समझ का विकास नही होता और उनको यदि कहा जाए सब ब्रम्ह है , तो मानो वो वक्ता श्रोताओं को सीधा नरक में भेजता है।जय जय…मुझे हमारे श्रोताओं पर विश्वास है कि मेरे उपदेश का सही अर्थ लेंगे । सब ब्रह्म  है …ले कि दे धमाधम ,सम्भोग से समाधि, दे धमाधम!..नही,नही!बाबा मेरा कहने का तातपर्य ये नही…तात्पर्य  ये है कि अंदर में समझ तुम्हारी ऐसी रखो कि जिस वक्त दुःख आए ,भोग तुम्हें आकर्षित करे तो बहो मत ! समझो कि भोग का आवेग आ गया सदा नही रहेगा, घड़ी भर आप मन को दूसरे में बहला दो,भोग की वृत्ति खत्म हो जाएगी। क्रोध आया, ये आदमी बुरा है, लेकिन वो सदा बुरा नही दिखेगा ,तुम्हारी वृत्ति क्रोधाकार आयी है, वो टिकेगी नही, वृत्ति निवृत्त हो गयी तो वो क्रोध करने के और डाँटने के काबिल लगता है फिर तुमको प्यार करने के काबिल दिखेगा।जय जय…तो उस बहाव में तुम बहो मत ! समझ गए न कहने का तात्पर्य ! कि बाबाजी बह भी गए तो क्या फर्क पड़ता है? पराशर बह गए तो…ओहो यार ! फिर गलती करते है! बह जाने के बाद वो खटकता है,पंच होता है ! वह अभी तो हम हुए नही, स्वरूप में पहुँचे फिर तो बहना गिराना कोई प्रश्न नही…उसके पहले यदि हम बहे तो फिर खटकता है, अभी नही तो देर सवेर  …औरंगजेब जा रहे थे।कोई नग्न  ,नँग धिडंग, दिगम्बर अवस्था में साधु बैठा था । लोग राजाधिराज महाराज…  साधु टांग पे टांग चढ़ाए , एकदम दिगम्बर…औरंगजेब ने आकर घोड़ा रोका। बोला , माना तू फकीर हो गया , मेरे जैसा सम्राट निकल रहा है, कंबल पड़ा है , ओढ़ लेता तो तेरा क्या बिगड़ता?
हमको अच्छा नही लगता !
बोले, तेरेको अच्छा नही लगता तो तू ओढा दे मेरे को!  मैं नँगा बैठा हुँ तेरे को अच्छा नही लगता है तू ओढा दे।

वो फकीर को उठाकर कंबल ओढ़ाने को गए तो देखा कि 2-3 मुंडीयाँ अंदर,मस्तक पड़े है। और वही मस्तक पड़े है जिनको औरंगजेब ने अपने हाथों से विछेद कर दिया था और सज्जन लोग थे। घबराया की ये मेरे दुश्मन इधर? ये कैसे? फकीर ने कहा कि कंबल एक है, बोल तेरे पाप ढाँकू या अपना शरीर ढाँकू? मरते समय इतना पंच हुआ कि पिता को जेल में डालने का और उस साधु का अपमान करके अपने अहं पोशने का मरते समय बड़ा पश्चात्ताप करते करते मारा । तो अहं में आवेश में आकर आदमी कुछ कर ले तो ऐसा नही कि छूट जाता है। करने में भी तो वृत्ति थी ,और पश्चात्ताप करने में भी तो  वृत्ति थी। तो ये वृत्ति को वृत्ति देख लिया न बड़ा मजा आ जायेगा ! ऐसा भी अभ्यास आपका चलते फिरते हो सकता है कि ये वृत्ति है ।ये सब वृत्ति का खिलवाड़ भी दिख जाए तो भी आप समझेंगे कि ये संसार है, ये माया है, खेल है।

 

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