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गुरुकृपा ने मारुति को बना दिया निसर्गदत्त महाराज


मार्च 1897 की पूर्णिमा को महाराष्ट्र में एक लड़के का जन्म हुआ, नाम रखा गया मारुति। उसके पिता शिवरामपंत एक निर्धन व्यक्ति थे। मारुति का बचपन शिक्षा से लगभग वंचित रहा पर वह अत्यंत ही जिज्ञासु और मननशील प्रकृति का था। बाल्यकाल में वह गायों आदि की देखभाल करना, हल चलाना आदि अनेक कार्यों में अपने पिता का हाथ बँटाता था। मारुति की 18 वर्ष की उम्र में ही उसके पिता चल बसे। उसने एक छोटा व्यवसाय शुरु किया। विवाह होकर एक व तीन बेटियाँ भी हुईं। अपनी मध्य आयु तक मारुति ने एक सामान्य मनुष्य जैसा ही जीवन व्यतीत किया। तत्पश्चात मारुति के जीवन में सद्गुरु मिलन का ऐसा सद्भाग्य जगा जिसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी।

मारुति के एक मित्र थे यशवंतराव बागकर। वे ब्रह्मज्ञानी महापुरुष श्री सिद्धरामेश्वरजी के शिष्य थे। एक संध्या को वे उन्हें अपने सदगुरु के पास ले गये। वह संध्या मारुति के जीवन में एक नया मोड़ ले आयी। गुरु ने उन्हें मंत्रदीक्षा दी और ध्यान के निर्देश दिये। अभ्यास के प्रारम्भ में ही उन्हें अनेक सूक्ष्म व दिव्य अनुभव होने लगे।

अब मारुति दुकान पर तो कार्य करते पर उनकी दृष्टि अब लाभ पर केन्द्रित न रहती। बाद में उन्होंने अपने  परिवार तथा व्यवसाय को छोड़ दिया और साधु होकर केवल पैदल ही यात्रा करने लगे। वे हिमालय की ओर चल दिये। उन्हें विचार हुआ कि ‘अपनी शेष आयु शाश्वत जीवन की खोज करते हुए वहीं बितायी जाय।’ शीघ्र ही उन्हें अनुभव हुआ कि शाश्वत जीवन की प्राप्ति और खोज कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसके लिए यहाँ-वहाँ (गुरु-निर्दिष्ट मार्ग से भिन्न किन्हीं एकांत गिरि-गुफाओं, वनों में) भटकना आवश्यक हो, यह तो उनके पास ही थी। गुरुप्रदत्त मार्ग व गुरुकृपा से ‘मैं देह हूँ’ इस विचार से परे चले जाने पर उन्हें ऐसी अत्यंत आनंदकारी, शांतिपूर्ण और महिमामयी नित्य अवस्था की प्राप्ति हो गयी जिसकी तुलना में अन्य सब कुछ अत्यंत तुच्छ हो गया। उन्हें आत्मोपलब्धि हो गयी। ये ही मारुति आगे चलकर श्री निसर्गदत्त महाराज के नाम से प्रसिद्ध हुए।

कैसे उन्हें सदगुरु का मार्गदर्शन मिला और आत्मानुभव हुआ यह बताते हुए वे स्वयं कहते हैं- “जब मैं अपने गुरु से मिला तो उन्होंने बताया कि ‘तुम वह नहीं हो जैसा कि अपना होना तुम मान्य करते हो। इसका पता लगाओ कि तुम क्या हो ?’ ‘मैं हूँ’ की भावना का निरीक्षण करो, अपने वास्तविक स्वरूप का पता लगाओ।’ मैंने उनकी आज्ञा का पालन किया क्योंकि उन पर मेरी श्रद्धा थी। मैंने वैसा ही किया जैसा उन्होंने मुझे कहा था। अपने अवकाश के सारे समय को मैंने मौन में अपने-आपका निरीक्षण करते हुए व्यतीत किया करता था और इसके फलस्वरूप कितना अधिक अंतर आ गया और वह भी कितने शीघ्र !

अपने वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार करने में मुझे मात्र 3 वर्ष लगे। जब मैं 34 वर्ष का था तब मेरी भेंट मेरे गुरु से हुई और जब मैं 37 वर्ष का था तब मुझे आत्मज्ञान हो चुका था।”

ब्रह्मानुभव हेतु गुरुआज्ञा-पालन व गुरुनिष्ठा को अत्यंत आवश्यक बताने वाले श्री निसर्गदत्त महाराज 8 सितम्बर 1981 को ब्रह्मलीन हुए।

निसर्गदत्त महाराज के अनुभव वचन

सान्निध्य का अर्थ यह नहीं कि एक ही वायु से सब साँस लें। इसका तात्पर्य होता है भरोसा और आज्ञाकारिता, गुरु की सदिच्छाओं को व्यर्थ न जाने देना। अपने गुरु को सदा अपने हृदय में रखो और उनके आदेशों को स्मरण रखो – यह वास्तविक सत्यनिष्ठा है। अपने सम्पूर्ण जीवन को अपने गुरु के प्रति तुम्हारी श्रद्धा और प्रेम की अभिव्यक्ति बना दो, यही यथार्थतः गुरु के साथ रहना है।

गुरु का यही स्वभाव है कि वे प्रयास कभी नहीं छोड़ते। परंतु सफलता हेतु यह आवश्यक है कि उनका प्रतिरोध न किया जाय। संदेह रखने से, आज्ञाकारिता के अभाव से (लक्ष्यप्राप्ति में) विलम्ब हो जाना निश्चित ही है। यदि उनके प्रति शिष्य की आस्था और नम्रता हो तो अपने शिष्य में वे अपेक्षाकृत तीव्र गति से मौलिक रूपांतरण ला सकते हैं। गुरु की गहरी अंतर्दृष्टि तथा शिष्य की गम्भीरता – ये दोनों बातें आवश्यक होती हैं।

गुरु सदैव तैयार होते हैं, बस तुम तैयार नहीं होते। सीखने हेतु तुम्हें तैयार रहना होगा अन्यथा तुम अपने गुरु से मिलकर भी, अपने गहन प्रमाद और हठधर्मिता के कारण उस अवसर को नष्ट कर सकते हो। मेरा उदाहरण देखोः मुझमें कोई विशेष योग्यता न थी पर जब मैं अपने गुरु से मिला तो मैंने उन्हें सुना, उन पर श्रद्धा रखी और उनकी आज्ञाओं का पालन किया।

अपने गुरु से जो कुछ भी प्राप्त होता है उसमें प्रसन्न रहो और तब तुम संघर्ष किये बिना ही परिपूर्णता तक विकसित हो जाओगे।

एक जीते-जागते मनुष्य के रूप में गुरु को पा सकना (शिष्य के लिए) एक विरला अवसर और एक महान उत्तरदायित्व होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद जुलाई 2018, पृष्ठ संख्या 22, 23 अंक 307

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बस, यही समझ की भूल है


दूसरे के विषय में कोई  बात जाननी हो तो जैसा लिखा होगा या जैसा कोई कहेगा वैसा मानना पड़ेगा किंतु अपने विषय में जानना हो तो स्वानुभव ही प्रमाण होगा। अतः अब सोचो कि कहीं लिखा है कि तुम दुःखी हो इसलिए अपने को दुःखी मानते हो या अपने दुःखीपने के तुम स्वयं साक्षी हो ? निष्कर्ष यही निकलेगा कि तुम इसलिए दुःखी हो क्योंकि तुम अपने दुःखी होने के स्वयं साक्षी हो। परंतु नियम यह है कि जो जिसका साक्षी होता है वह उसके (साक्ष्य के) गुण-धर्म से भिन्न होता है। तब जो तुम दुःखीपने के साक्षी हो वह तुम दुःखी कैसे हो सकते हो ?

विकार के बिना कोई दुःखी नहीं होता। विकार अर्थात् सड़न, एक से दूसरे में परिवर्तन। हमारी जो वस्तु जैसी थी वैसी नहीं रही, इसी से तो हम दुःखी हुए न ! जो परिवर्तनशील है वह साक्षी नहीं है और साक्षी में विकार या परिवर्तन नहीं है। बुद्धि दिन में सहस्र-सहस्र रूप बदलती है। यह प्रिय-अप्रिय, सुख-दुःख, मेरा-तेरा आदि रूपों में बदलती रहती है। बुद्धि के इन सहस्र-सहस्र रूपों का मैं साक्षी हूँ। अतः मैं निर्विकार हूँ। किंतु निर्विकार में तो दुःख होता ही नहीं, तब यह दुःख  कहाँ से आया ? यह भूल से, नासमझी से, अज्ञान से माना हुआ दुःख है। प्रज्ञापराध एव एष दुःखमिति यत्। हम जिसे दुःख कहते हैं वह हमारी प्रज्ञा का अपराध है माने समझ का दोष है।

जैसे कोई व्यापारी अपना पूरा हिसाब देखे बिना केवल आज के हिसाब को देखकर घाटा मान ले और दुःखी हो जाय तो यह उसकी समझ का दोष है, उसी प्रकार हम अनादि, अनंत अपने आत्मा (साक्षी) को तो देखते नहीं कि वह नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त  ब्रह्म ही है, बस एक शरीर के विचार से अपना पूरा हिसाब मान लेते हैं। यही समझ की भूल है।

यदि अज्ञान से दुःख न होता तो ज्ञान से वह दूर नहीं हो सकता था। यह नियम है कि जो वस्तु अज्ञान से होती है वह होती नहीं है और जो वस्तु ज्ञान से मिट जाती है, वह भी नहीं होती। रस्सी में रस्सी के अज्ञान से सर्प दिखता है और रस्सी के ज्ञान से सर्प नष्ट हो जाता है, अतः वह सर्प है ही नहीं। उसी प्रकार साक्षी के ब्रह्मस्वरूप के अज्ञान से साक्षी में दुःख, परिच्छिन्नता, अल्पज्ञता आदि प्रतीत होते हैं और उसके ब्रह्मत्व के ज्ञान से वे सब नष्ट हो जाते हैं, अतः दुःखादि भी वस्तुतः हैं नहीं, केवल उनका भ्रम हममें होता है। वेदांत भ्रमनिवर्तक ज्ञान को कल्पित मानता है। जैसे अविद्या कल्पित है वैसे ही अविद्या-निवर्तक ज्ञान भी कल्पित है। कल्पित की निवृत्ति कल्पित से ही होती है।

आपस में सम सत्ता जिनकी,

लखि साधक-बाधकता तिनकी।। (विचारसागर)

जिनकी आपस में सम सत्ता होती है, उनकी आपस में साधकता और बाधकता भी होती है। जैसे मिट्टी और घट की सम सत्ता है, अतः मिट्टी घट की साधक है, कारण है। अग्नि और लकड़ी की सम सत्ता है। अग्नि काष्ठ की बाधक है क्योंकि वह काष्ठ को जला देती है। किंतु मरूभूमि के जल की और प्यास की सम सत्ता नहीं, अतः मरुस्थल का जल प्यास का बाधक नहीं, वह प्यास को दूर नहीं कर सकता।

स्रोतः ऋषि प्रसाद जुलाई 2018, पृष्ठ संख्या 25 अंक 307

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साधना में चार चाँद लगाने वाला अमृतकालः चतुर्मास


(चतुर्मासः 23 जुलाई 2018 से 19 नवम्बर 2018 तक)

चतुर्मास की बड़ी भारी महिमा है, इन बातों को जानकर इस अमृतकाल का लाभ उठाइयेः

  1. सद्धर्म, सत्संग-श्रवण, सत्पुरुषों की सेवा, संतों के दर्शन, भगवान का पूजन आदि सत्कर्मों में संलग्न रहना और सुपात्र हेतु दान देने में अनुराग होना – ये सब बातें चतुर्मास में अत्यंत कल्याणकारी बतायी गयी हैं।
  2. इन दिनों भूमि पर (चटाई, कम्बल, चादर आदि बिछाकर) शयन, ब्रह्मचर्य-पालन, उपवास, मौन, ध्यान, जप, दान-पुण्य आदि विशेष लाभप्रद होते हैं।
  3. जल में आँवला मिलाकर स्नान करने से पुरुष तेजवान होता है और नित्य महान पुण्य प्राप्त होता है।
  4. चतुर्मास में ताँबे के पात्र में भोजन विशेष रूप से त्याज्य है। इन दिनों धातु के पात्रों का त्याग कर पलाश के पत्तों पर भोजन करने वाला ब्रह्मभाव को प्राप्त होता है, ऐसा शास्त्र में कहा गया है।
  5. इन दिनों में परनिंदा का विशेष रूप से त्याग करें।
  6. चतुर्मास में शादी-विवाह और सकाम यज्ञ नहीं होते। ये चार मास साधन-भजन करने के हैं।
  7. पद्म पुराण में आता है कि जो व्यक्ति भगवान के शयन करने पर विशेषतः उनके नाम का कीर्तन और जप करता है, उसे कोटि गुना फल मिलता है।
  8. चतुर्मास में भगवान विष्णु के सामने खड़े होकर ‘पुरुष सूक्त’ का पाठ करने से बुद्धिशक्ति बढ़ती है।

अपना आध्यात्मिक खजाना बढ़ायें

चतुर्मास की महिमा के बारे में पूज्य बापू जी के सत्संग में आता हैः “जैसे किसान बोवाई करके थोड़ा आराम करता है और खेत के धन का इंतजार करता है, ऐसे ही चतुर्मास में आध्यात्मिक धन को भरने की शुरुआत होती है। हो सके तो सावन के महीने में एक समय भोजन करें, जब बढ़ा दे। हो सके तो किसी पवित्र स्थान स्थान पर अनुष्ठान करने के लिए चला जाय अथवा अपने घर में ही पूजा कमरा बना दे। एक सुबह नहा धोकर 5 बजे पूजा-कमरे में चला जाय और दूसरी या तीसरी सुबह को निकले। मौन रहे, शरीर के अनुकूल फलाहार, अल्पाहार करे। अपना आध्यात्मिक खजाना बढ़ाये। ‘आदर हो गया, अनादर हो गया, स्तुति हो गयी, निंदा हो गयी… कोई बात नहीं, हम तो करोड़ काम छोड़कर प्रभु को पायेंगे।’ ऐसा दृढ़ निश्चय करे। बस, फिर तो प्रभु तुम्हारे हृदय में प्रकट होने का अवसर पैदा करेंगे।”

विशेषः चतुर्मास के दौरान सभी साधक मंत्रजप-अनुष्ठान का लाभ अवश्य लें। मौन-मंदिर व अनुष्ठान की सुविधा संत श्री आशाराम जी आश्रमों में उपलब्ध है।

अधिक जानकारी हेतु सम्पर्क करें- साधक निवास कार्यालय, संत श्री आशाराम जी आश्रम, अहमदाबाद। दूरभाषः 079-39877729

स्रोतः ऋषि प्रसाद जुलाई 2018, पृष्ठ संख्या 13 अंक 307

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