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तीन महत्त्वपूर्ण बातें – पूज्य बापू जी


तीन बातें जो व्यक्ति नहीं जानता वह विद्वान होते हुए भी मूर्ख माना जाता है, धनवान होते हुए भई कंगाल माना जाता है और जिंदा होते हुए भी मुर्दा माना जाता है। कौन सी तीन बातें ?

पहली बातः मृत्यु जरूर आयेगी। कहीं भी, कभी भी मृत्यु आ सकती है। कोई कहेगाः ‘महाराज यह बात तो सब जानते हैं।’

नहीं, अभी जानते नहीं, केवल मानते हैं। साँप काटता है तो आदमी मर जाता है, यह बात आप जानते हो। अगर अभी इस सत्संग-पंडाल में कोई साँप आ जाय तो आप मुझसे पूछने के लिए खड़े नहीं रहोगे कि ‘क्या करें ?’ पहले भाग खड़े होंगे… इसी तरह मृत्यु को नहीं जानते, केवल मानते हो। ‘एक दिन मरना है’ यह मानते हो किंतु यह भी सोचते हो कि ‘अभी थोड़े ही मरेंगे ! अभी तो यह करना है, वह करना है…..।’

जैसे ‘साँप के काटने से आदमी मर जाता है’ यह बात जानते हो और साँप को देख के तुरंत भाग खड़े होते हो, ऐसे ही इस बात को अच्छी तरह से जान लो कि ‘मृत्यु जरूर आयेगी।’ मृत्यु कभी भी आ सकती है, कहीं भी आ सकती है’ ऐसा निरंतर स्मरण रखो। ऐसा सोचने से ही तुम्हारा लोभ, अहंकार आदि घटने लगेगा।

दूसरी बातः बीता हुआ समय कभी वापस नहीं आता। आप समय देकर कारखाना बना सकते हैं. आश्रम बना सकते हैं, डिग्रियाँ हासिल कर सकते हैं, हीरे जवाहरात आदि संग्रह कर सकते हैं, गाड़ी मोटर, बँगला खरीद सकते हैं लेकिन समय दे के आपने जो भी चीजें इकट्ठी की हैं उन सबको वापस करके भी आप उस समय का सौवाँ हिस्सा भी अपना आयुष्य नहीं बढ़ा सकते। 50 साल देकर आपने जो एकत्र किया वह सब-का-सब आप दे-दें फिर भी 50 दिन तो क्या 5 दिन भी आप अपना आयुष्य नहीं बढ़ा सकते। आपका समय इतना बहुमूल्य है। इसलिए अपने अमूल्य समय को व्यर्थ न गँवायें, सर्जनात्मक कार्य में लगायें, किसी के आँसू पोंछने में लगायें, ईश्वरप्रीत्यर्थे साधना-सेवा में लगायें।

तीसरी बातः जैसा संग वैसा रंग होता है। बड़ा व्यक्ति भी यदि छोटी मानसिकता वालों के बीच ज्यादा रहता है तो चमचों की खुशामद से उसका अहंकार उभरने लगेगा और छोटी-छोटी बातों में उसका मन फिसलने लगेगा। अतः बड़े व्यक्ति को चाहिए कि उससे जो भी बड़ा है ज्ञान में, भक्ति में, योग में, ईश्वर की दुनिया में, ऐसे व्यक्ति का संग करता रहे।

बड़े-में-बड़ा संग है संतों का संग, सत्संग। सत्य स्वरूप परमात्मा का संग किये हुए महापुरुषों का संग करने से, उनके अमृतवचनों को सुनने से एवं जीवन में अनुभव करने से मनुष्य स्वयं भी परमात्मा का संग पाने के काबिल हो जाता है। अतः सदैव संतों का सत्संग प्राप्त करें, सत्शास्त्रों का अध्ययन करे।

मृत्यु अवश्यम्भावी है एवं बीता हुआ समय कभी वापस नहीं आता – इस बात को जानकर जो व्यक्ति संतों-महापुरुषों का संग करता है, उनका सत्संग-श्रवण करता है एवं अपने जीवन में चरितार्थ करने का प्रयास करता है, वही वास्तव में अपना जीवन सार्थक करता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद जुलाई 2018, पृष्ठ संख्या 11 अंक 307

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ऐसे ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों का तो कितना-कितना आभार मानें ! – पूज्य बापू जी


सब एक ही चीज चाहते हैं, चाहे हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहूदी हों, इस देश को हों चाहे दूसरे देश के हों, इस जाति के हों या दूसरी जाति के हों। मनुष्य जाति तो क्या, देव, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, भूत, पिशाच भी वही चाहते हैं जो आप चाहते हैं। लक्ष्य सभी का एक है। प्राणिमात्र का लक्ष्य एक है, चाह एक है कि ‘सब दुःखों की निवृत्ति और परमानंद की प्राप्ति।’ साधन भिन्न-भिन्न हैं। कोई सोचता है कि ‘खाने-पीने से सुखी होऊँगा,’ कोई बोलता हैः ‘धन इकट्ठा करने से सुखी होऊँगा’, कोई यह सोचता है कि ‘सत्ता मिलेगी तब सुखी होऊँगा’ लेकिन आद्य शंकराचारर्य जी कहते हैं-

शरीरं सुरूपं तथा वा कलत्रं

यशश्चारू चित्रं धनं मेरूतुल्यम्।

मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे

ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्।।

‘यदि शरीर रूपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्ति चारों दिशाओं में विस्तारितो हो, मेरू पर्वत के तुल्य अपार धन हो किंतु गुरु के श्रीचरणों में (उनके सत्संग, सेवा व आत्मानुभव में) यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ ?’

संत तुलसीदास जी कहते हैं-

गुरु बिन भव निधि तरइ न कोई।

जौं बिरंचि संकल सम होई।।

ब्रह्मा जी जैसा सृष्टि पैदा करने का सामर्थ्य हो जाय, शिवजी जैसा प्रलय का सामर्थ्य हो, लेकिन जब तक सदगुरु का ब्रह्मवेत्ता गुरु का सान्निध्य न मिले तब तक यह भवनिधि, संसार सागर तरना असम्भव है।

लख प्याला भर-भर पिये, चढ़े न मस्ती नैन।

एक बूँद ब्रह्मज्ञान की, मस्त करे दिन रैन।।

वह ब्रह्मज्ञान की मस्ती जब तक नहीं आयी तब तक अनेक-अनेक साधन जुटाते हैं दुःखों की निवृत्ति के लिए, अनेक-अनेक साधन जुटाते हैं सुखों को थामने के लिए लेकिन लक्ष्य की खबर नहीं। उद्देश्य तो सबका एक है, लक्ष्य तो सबका एक है लेकिन लक्ष्य के साधन की जिनको खबर नहीं। लक्ष्य के साधन की जिनको खबर है उनको सदगुरु कहते हैं।

जीव कीड़ी से लेकर कुंजर (हाथी) तक की योनियों में, मनुष्य से लेकर देव, गंधर्व, यत्र आदि तक की योनियों में भटका किंतु उसे अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हुई, अपने उद्देश्य की पूर्ति नहीं हुई।

ऐसे समस्त प्राणियों को उद्देश्य की पूर्ति का ज्ञान दिलाने की जिन्होंने व्यवस्था की ऐसे भगवान व्यास जी के नाम से यह आषाढ़ी पूनम व्यासपूर्णिमा के नाम से मनायी जाती है। ज्ञान कुल परम्परा से एक से दूसरे की ओर बढ़ाया जाता है। पिता पुत्र को अपनी कुल परम्परा का ज्ञान देता है, शिक्षक विद्यार्थी को शिक्षा देता है और सदगुरु सत्शिष्य को अपना ब्रह्मज्ञान, ब्रह्मरस देते हैं। ऐसा ब्रह्मसुख का मार्ग देना और उस मार्ग की विघ्न-बाधाओं को दूर करने की युक्तियाँ देना और बल भरना यह कोई साधारण व्यक्ति का काम नहीं है, ब्रह्मज्ञानी आचार्य का काम है। भगवान वेदव्यास ज्ञान के समुद्र होने के साथ-साथ भक्ति के आचार्य हैं और विद्वता की पराकाष्ठा है। ज्ञान तो ब्रह्मज्ञान….

ज्ञान मिडई1 ज्ञानड़ी2 , ज्ञान तो ब्रह्मज्ञान।

जैसे गोला तोप का, सोलह सौ मैदान।।

1 सभी 2 नन्हें ज्ञान

दुनिया के तमाम ज्ञान ब्रह्मज्ञान के आगे नन्हें हो जाते हैं। पेटपालू हैं अन्य सारे ज्ञान, वे नश्वर शरीर के हैं एवं उसे जिलाने मात्र के हैं लेकिन शाश्वत ज्ञान क्या नश्वर को मार देगा ? नहीं। शाश्वत ज्ञान का मार्ग नश्वर शरीर को भी स्वस्थ, सुखी और सम्पन्न रखेगा क्योंकि शाश्वत ज्ञान सुमति का तो भंडार है।

व्यासपूर्णिमा मनाने के दो पहलू

व्यासपूर्णिमा भगवान व्यास जी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का हमें स्मरण कराती है। जो तुच्छ संसार की चीजें देते हैं उनका भी अगर आभार नहीं मानते हैं तो कृतघ्नता का दोष लगता है तो ऐसे ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों का तो कितना-कितना हम आभार मानें ! जितना भी मानें उतना कम है। व्यासपूर्णिमा मनाने के दो पहलू हैं, दो दृष्टिकोण हैं। एक तो ऐहिक, स्थूल दृष्टि से देखा जाय कि जिन्होंने हमारे लिए खून पसीना एक किया, दिन रात एक करके जिस परमात्मा को पाया, परमात्म-तत्त्व में जगह, उस परमात्म-तत्त्व की समाधि, ज्ञान, माधुर्य का परमानंद छोड़कर जन-जन के लिए न जाने कितने-कितने शास्त्रों, कितने-कितने उपायों एवं दृष्टांतों का सार निकाल के और कितन कुछ करके हमको इतना उन्नत किया, हम उनके प्रति कृतघ्नता के दोष से दब न मरें इसलिए हम कृतज्ञता व्यक्त करने के ले यह महापर्व मनाते हैं।

दूसरा आतंरिक रूप है कि वर्षभर में जो साधन-भजन हमने किये हैं, जो नश्वर के आकर्षण से बचकर शाश्वत की प्रीति की यात्रा की, उसमें जो कुछ उपलब्धियाँ हुई उनसे आगे अब नया पाठ…. जैसे विद्यार्थी हर साल कक्षा में आगे बढ़ता है ऐसे ही साधक को साधना में आगे बढ़ने के कुछ संकेत, कुछ शुभ संकल्प, शुभ भाव, शुभ उपाय, कुछ बढ़िया साधन मिल जायें। जैसे संग होगा ऐसा अंतःकरण को रंग लगेगा। तो बार-बार उन सत्पुरुषों का संग करना चाहिए।

इस गुरुपूनम का संदेश है कि गुरु के ज्ञान में चित्त को शांत करने का अभ्यास कीजिये। अग्नि में प्रवेश कर लिया तब भी वह काम नहीं होगा। स्वर्ग में प्रवेश कर लो चाहे प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति अथवा विश्वपति-किसी भी पद पर पहुँच जाओ फिर भी दुःख की अँधेरी रात नहीं मिटेगी, मृत्यु का भय नहीं जायेगा। जब तक आप गुरु-तत्त्व में स्थिर होने का अभ्यास नहीं करोगे तब तक आपके जीवन में साम्य विद्या (सदा समत्व में रहने की कला सिखाने वाली विद्या) नहीं आयेगी और ‘सब दुःखों की सदा के लिए निवृत्ति और परमानंद की प्राप्ति’ – यह जीवन की माँग पूरी नहीं होगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद जुलाई 2018, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 307

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गुरु सिरजे ते पार


आध्यात्मिक विकास एवं दिव्य जीवन की प्राप्ति हेतु पूर्ण सत्य के ज्ञाता, समर्थ सदगुरु की अत्यंत आवश्यकता होती है। जैसे प्रकाश बिना अंधकार का नाश संभव नहीं, वैसे ही ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु के बिना अज्ञानांधकार का नाश सम्भव नहीं। अतः शास्त्र और संतजन सदगुरु की महिमा गाते-गाते नहीं अघाते।

ब्रह्ममूर्ति उड़िया बाबा जी के बड़े ही हितकारी वचन हैं, “गुरु में जब तक भगवद्बुद्धि नहीं की जाती, तब तक संसार सागर से पार नहीं हुआ जा सकता। गुरु और भगवान में बिल्कुल भेद नहीं है – यही मानना कल्याणकारी है और इसी भाव से भगवान मिलते हैं। जब तक शिष्य यह न समझ ले कि ‘गुरु ही मेरा सर्वस्व है’ तब तक शिष्य का कल्याण नहीं हो सकता। उत्तम शिष्य चिंतन करने से गुरु की शक्ति प्राप्त कर लेते हैं, मध्यम शिष्य दर्शन करने से और निकृष्ट शिष्य प्रश्न करने शक्ति प्राप्त कर करते हैं। हमारे यहाँ गुरु से प्रश्न करने की आवश्यकता नहीं मानी जाती। गुरु की सेवा करें और उनका चिंतन करें। जब गुरु में अनुराग है – गुरु हमारे हैं तो उनके गुण हमारे में ही हैं।”

स्वामी अखंडानंद जी सरस्वती कहते हैं, “आप अपने आचार-विचार को गुरु के उपदेश के अनुसार बनाइये। गुरु का जो गुरुत्व है वह भगवान का गुरुत्व है, उनके जो विचार हैं वे भगवत्-सम्बंधी विचार हैं और वे आपको विचार, कोई संस्कार, कोई आकार, कोई प्रकार आपको बाँध नहीं सके, गुरु आपको वहाँ  पहुँचाने वाला होते हैं उनका सम्मान कीजिये।”

सदगुरु का स्थान अद्वितीय बताते हुए आनंदमयी माँ कहती हैं, “गुरु क्या कभी मनुष्य हो सकते हैं ? गुरु साक्षात् भगवान हैं। गुरु का स्थान दूसरा कोई नहीं ले सकता। गुरु में मनुष्य बुद्धि करना महापाप है।”

संत कबीर जी कहते है,

गुरु हैं बड़े गोविंद ते, मन में देखु विचार।

हरि सिरजे ते वार हैं, गुरु सिरजे ते पार।।

गुरुदेव गोविंद से बड़े हैं, इस तथ्य का मन में विचार करके देखो। हरि सृष्टि करते हैं तो प्राणियों को संसार में ही रखते हैं और गुरुदेव सृष्टि करते हैं (शिष्य के अंतःकरण मं आत्मसृष्टि का सृजन करते हैं) तो संसार से मुक्त कर देते हैं।

पूज्य संत श्री आशाराम जी बापू कहते हैं, “दुनिया के सब मित्र, सब साधन, सब सामग्रियाँ, सब धन-सम्पदा मिलकर भी मनुष्य को अविद्या (असत्य जगत को सत्य मानना व सदा विद्यमान परमात्मा को न जानना), अस्मिता (देह को ‘मैं’ मानना), राग, द्वेष और अभिनिवेश (मृत्यु का भय) – इन पाँच दोषों से नहीं छुड़ा सकते। सदगुरुओं का सत्संग, सान्निध्य और उनकी दीक्षा ही बेड़ा पार करने की सामर्थ्य रखती है।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद जुलाई 2018, पृष्ठ संख्या 2, अंक 307

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