हे मनुष्यो ! एकजुट हो जाइये….

हे मनुष्यो ! एकजुट हो जाइये….


समानी व आकूतिः समाना हृदयानि चः।

समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति।।

‘हे मनुष्यो ! तुम लोगों के संकल्प और निश्चय एक समान हों, तुम सबके हृदय तक एक जैसे हो, तुम्हारे मन एक समान हों ताकि तुम्हें सब शुभ, मंगलदायक, सुहावना हो (एवं तुम संगठित हो के अपने सभी कार्य पूर्ण कर सको)।’

(ऋग्वेदः मंडल 10, सूक्त 191, मंत्र 4)

1.विचार संकल्पः जगत संकल्पमय है। जब अनेक व्यक्तियों के विचारों में एकजुटता होती है तब उससे सामूहिक संकल्प-शक्ति पैदा होती है, जिसके प्रभाव से दुनिया में क्रांतिकारी बदलाव होते देखे गये हैं। जब-जब आत्मवेत्ता सत्पुरुष धरती पर अवतरित होते हैं, तब-तब तत्कालीन जितने अधिक लोग उनके सिद्धान्त को समझ पाते हैं, उनके पदचिन्हों का अनुसरण कर पाते हैं उतना ज्यादा व्यक्ति, समाज, देश और पूरे विश्व का कल्याण होता है।

2.हृदय-साम्यः हृदय का एक अर्थ केन्द्र भी होता है। हृदय साम्य का अर्थ है कि हमारा जो केन्दीय सिद्धान्त है वह उस एक ईश्वरीय विधान के अनुकूल हो। ईश्वरीय विधान यह है कि सबकी भलाई में अपनी भलाई, सबके मंगल में अपना मंगल है क्योंकि सबकी गहराई में एक ही चैतन्य आत्मा विद्यमान है। अकः किसी का अहित न चाहना भगवान की सबसे बड़ी सेवा है। सबका हित चाहने से आपका स्वयं का हृदय मंगलमय हो जायेगा। ईश्वर में आप जितना खोओगे, उनके प्रति आप जितना समर्पित होंगे, ईश्वर आपके द्वारा उतने ही बढ़िया कार्य करवायेंगे। इससे ईश्वर भी मिलेंगे और समाज की सेवा भी हो जायेगी।

3.मनः साम्यः यदि मन-भेद है, मनःसाम्य नहीं है तो बाहर की सुख-सुविधाएँ होते हुए भी लोग भीतर से दुःखी, चिंतित, अशांत रहते हैं। सभी के मन भिन्न-भिन्न हैं, ऐसे में क्या मनःसाम्य सम्भव है ? हाँ, सम्भव है। सभी के मन एक चैतन्यस्वरूप आत्मा से स्फुरित हुए हैं। अतः यदि आत्मदृष्टि एवं आत्मानुकूल व्यवहार का अवलम्बन लिया जाय तो मनःसाम्य के लिए अलग किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं रहेगी। इससे जीवन में परमत सहिष्णुता आयेगी अर्थात् अपने मत का आग्रह न रहकर दूसरे का जो भी कोई शास्त्रसम्मत मत सामने आयेगा, उसके अनुमोदन एवं पूर्ति में रस आयेगा। इससे अपने व्यक्तिगत अधिकारों की चिंता छूटने लगेगी और दूसरों के शास्त्रसम्मत अधिकारों की रक्षा होने लगेगी। दूसरों द्वारा अपना सही विचार भी अस्वीकृत होने पर व्यक्ति के हृदय में विक्षेप व खेद नहीं होगा बल्कि वह ईश्वर को, सदगुरु को प्रार्थना करेगा एवं शरणागत होकर हल खोजेगा।

तो उपरोक्त वैदिक त्रिसूत्री में अपना एवं सबका मंगल समाया हुआ है। अपना एवं समाज का जीवन सुशोभित करने के लिए मानो यह एक ईश्वरीय उपहार ही है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2018, पृष्ठ संख्या 2 अंक 308

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