किन लोगों को शनि नहीं सताता ? – पूज्य बापू जी

किन लोगों को शनि नहीं सताता ? – पूज्य बापू जी


पुराणों की प्रचलित कथा है। किसी को पाँच वर्ष की, किसी को साढ़े सात वर्ष की शनैश्चर की पनोती (ग्रहबाधा) लगती है। यह शनीचरी किसको लगती है और किसको नहीं लगती है यह जरा समझ लेना।

एक बार शनीचरी आयी भगवान राम के पास और बोलीः “हे रघुवर ! आप मेरे से लड़िये। मैंने कइयों को लड़ाया और कइयों को भगाती, घुमाती रहती हूँ। दूसरे ग्रह बोलते हैं कि ‘जब राम जी को हराओ तब हम तुमको जानें।’ इसलिए आप मेरे साथ लड़ने के लिए आ जाइये।”

रामजीः “तू ठहरी स्त्री-जाति की, तेरे साथ कौन लड़े ?”

“तो आप हार मान लो।”

लखनपाल बोलते हैं- “भाई, हार कैसे मानेंगे !”

राम जी शनीचरी को बोलते हैं- “देख, तू हमारे सेवक से लड़कर दिखा दे। मेरे शिष्य को तू हरा के दिखा दे। मेरा शिष्य हारा तो मैं हारा और शिष्य जीता तो मैं जीता।”

ऐसे ही होते हैं राम ! उनके भीतर आशा होती है कि शिष्य भी राम हो जाय।

राम जी ने हनुमान जी के पास भेज दिया शनीचरी को।

पनोती हनुमान जी को कहती हैः “सरकार ने भेजा है और मैंने कइयों को घुमाया है, अब तुम्हारी बारी है। इधर ‘हूप’ से काम नहीं चलेगा, पूँछ फटकारने से काम नहीं चलेगा, गदा दिखाने से काम नहीं चलेगा और मैं तो बड़ी अटपटी हूँ, आ जाओ।”

हनुमान जीः “अच्छा ! मेरे स्वामी ने तुझे भेजा है ! मेरे जीतने में स्वामी की जय हो रही है। तेरी चुनौती यदि नहीं स्वीकारता हूँ तो मेरे स्वामी की हार का मुझ पर धब्बा लग जायेगा लेकिन देख, तेरे से लड़ूँ भी कैसे ? मैं स्त्री को छूता नहीं, बालब्रह्मचारी हूँ।”

अब क्या किया जाय… हनुमान जी ने खूब सोचा। बोलेः “अब देख, सारे शरीर के प्राण ऊपर को आ जाते हैं तो तू मेरे पूरे शरीर को न छू, सिर को ही छू ले।”

वह पनोती हनुमान जी के सिर पर चड़ गयी। पनोती जब आती है तो सिर पर चढ़ती है और घुमाती है खोपड़ी को। हनुमान जी ने देखा कि ‘यह अब खोपड़ी को घुमायेगी।’

हनुमान जी एकांत में चले गये। खोपड़ी बोलती हैः ‘भागो यहाँ से।’ पनोती बोलती हैः ‘चलो….’ हनुमान कहते हैं- ‘चलूँ तो सही लेकिन ॐकार का जरा मंत्र लगा दूँ तेरे को।’ हनुमान जी ने ‘ॐऽऽऽऽऽऽ… ‘ करके पहाड़ी  उठा के अपनी खोपड़ी पर धर दी।

पनोती ‘ची… ची…. ‘ करके चीखने लगीः “हटाओ, मैं तो मर गयी !”

“मैंने तो तेरे को छुआ तक नहीं।”

“छुआ नहीं लेकिन पीस डाला ! छोड़ो मुझे, दुबारा नहीं आऊँगी।”

“मेरे स्वामी को हराने निकली थी। स्वामी की बतायी हुई युक्ति है – ‘जब गड़बड़ हो तो ॐऽऽऽऽऽ… करके सिर पर हाथ धर देना।’ अब यहाँ तो तू बैठी है, हाथ कैसे धरूँ इसीलिए जरा-सा पर्वत का टुकड़ा ही रख दिया।”

“छोड़ो, छोड़ो….. तुम जीते, मैं हार गयी।”

“अब उतार दूँ ?”

“उतार दो।”

पर्वत का टुकड़ा हटा दिया। उसको बोलाः “जा, कूद जा नीचे।”

पनोती नीचे कूदी, बोलीः “मैं तुम्हारे बल और गुरुभक्ति पर प्रसन्न हूँ, तुमको वरदान देना चाहती हूँ।”

हनुमान जी बोलते हैं- “जा, हारी हुई ! तेरा वरदान मैं क्या करूँगा ?”

“अच्छा, मैं वरदान देने के लायक तो नहीं हूँ, लेकिन आपकी आज्ञा मानने के तो लायक हूँ, आप मुझे कुछ आज्ञा करिये।”

“जो मेरे जैसा बलवान भाव का हो, जो मेरा चिंतन करता हो और अपने स्वामी के प्रति सेवक के दायित्व को निभाता हो उस पर तू कभी मत बैठना। जो बैठी तो तू चकनाचूर हो जायेगी।”

तब से सद्गुरु के शिष्यों पर पनोती (ग्रहबाधा) बैठती नहीं। जहाँ ज्ञान है, ध्यान है वहाँ ये ग्रह भी ठंडे हो जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 13 अंक 311

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