Monthly Archives: November 2018

इससे बड़ा सौभाग्य क्या हो सकता है !


भगवान ने अपना दैवी कार्य करने के लिए हम लोगों के तन को, मन  को पसंद किया यह कितना सौभाग्य है ! और ईश्वर की यह सेवा ईश्वर ने हमें सौंपीं यह कितना बड़ा भाग्य है ! समाज और ईश्वर के बीच सेतु बनने का अवसर दिया प्रभु ने, यह उसकी कितनी कृपा है ! पैसा कमाना, पैसों का संग्रह करना, संसार के विषय-विकारों में खप जाना यह कोई बहादुरी नहीं है लेकिन भगवान के दैवी कार्य में भागीदार होना बड़ी बहादुरी है, बड़ा  सौभाग्य है। भगवान के दैवी कार्य में भगवन्मय हो जाना – इससे बड़ा सौभाग्य क्या हो सकता है। मुझे तो नहीं लगता है कि इससे बड़ा कोई सौभाग्य होता होगा। हम लोगों का बहुत-बहुत बड़ा भाग्य है। ये जो सेवक – बेटे-बेटियाँ, साधक-साधिकाएँ सेवा करते हैं, कितने बड़े भाग्य हैं इनके ! परमात्मा की प्रेरणा के बिना कोई ईमानदारी से सेवा नहीं कर सकता है।

धन का लोभी, वाहवाही का लोभी, पद का लोभी व्यक्ति कुछ भी कर ले उसे ऐसा आनंद नहीं आता जैसा ईश्वर के दैवी कार्य में लगे साधक-साधिकाओं को आता है। ईश्वर की सेवा में ऐसा आनंद आता है कि कल्पना नहीं कर सकते। ऐसा ज्ञान आता है, ऐसी सूझबूझ आती है कि सोच नहीं सकते।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 17 अंक 311

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किन लोगों को शनि नहीं सताता ? – पूज्य बापू जी


पुराणों की प्रचलित कथा है। किसी को पाँच वर्ष की, किसी को साढ़े सात वर्ष की शनैश्चर की पनोती (ग्रहबाधा) लगती है। यह शनीचरी किसको लगती है और किसको नहीं लगती है यह जरा समझ लेना।

एक बार शनीचरी आयी भगवान राम के पास और बोलीः “हे रघुवर ! आप मेरे से लड़िये। मैंने कइयों को लड़ाया और कइयों को भगाती, घुमाती रहती हूँ। दूसरे ग्रह बोलते हैं कि ‘जब राम जी को हराओ तब हम तुमको जानें।’ इसलिए आप मेरे साथ लड़ने के लिए आ जाइये।”

रामजीः “तू ठहरी स्त्री-जाति की, तेरे साथ कौन लड़े ?”

“तो आप हार मान लो।”

लखनपाल बोलते हैं- “भाई, हार कैसे मानेंगे !”

राम जी शनीचरी को बोलते हैं- “देख, तू हमारे सेवक से लड़कर दिखा दे। मेरे शिष्य को तू हरा के दिखा दे। मेरा शिष्य हारा तो मैं हारा और शिष्य जीता तो मैं जीता।”

ऐसे ही होते हैं राम ! उनके भीतर आशा होती है कि शिष्य भी राम हो जाय।

राम जी ने हनुमान जी के पास भेज दिया शनीचरी को।

पनोती हनुमान जी को कहती हैः “सरकार ने भेजा है और मैंने कइयों को घुमाया है, अब तुम्हारी बारी है। इधर ‘हूप’ से काम नहीं चलेगा, पूँछ फटकारने से काम नहीं चलेगा, गदा दिखाने से काम नहीं चलेगा और मैं तो बड़ी अटपटी हूँ, आ जाओ।”

हनुमान जीः “अच्छा ! मेरे स्वामी ने तुझे भेजा है ! मेरे जीतने में स्वामी की जय हो रही है। तेरी चुनौती यदि नहीं स्वीकारता हूँ तो मेरे स्वामी की हार का मुझ पर धब्बा लग जायेगा लेकिन देख, तेरे से लड़ूँ भी कैसे ? मैं स्त्री को छूता नहीं, बालब्रह्मचारी हूँ।”

अब क्या किया जाय… हनुमान जी ने खूब सोचा। बोलेः “अब देख, सारे शरीर के प्राण ऊपर को आ जाते हैं तो तू मेरे पूरे शरीर को न छू, सिर को ही छू ले।”

वह पनोती हनुमान जी के सिर पर चड़ गयी। पनोती जब आती है तो सिर पर चढ़ती है और घुमाती है खोपड़ी को। हनुमान जी ने देखा कि ‘यह अब खोपड़ी को घुमायेगी।’

हनुमान जी एकांत में चले गये। खोपड़ी बोलती हैः ‘भागो यहाँ से।’ पनोती बोलती हैः ‘चलो….’ हनुमान कहते हैं- ‘चलूँ तो सही लेकिन ॐकार का जरा मंत्र लगा दूँ तेरे को।’ हनुमान जी ने ‘ॐऽऽऽऽऽऽ… ‘ करके पहाड़ी  उठा के अपनी खोपड़ी पर धर दी।

पनोती ‘ची… ची…. ‘ करके चीखने लगीः “हटाओ, मैं तो मर गयी !”

“मैंने तो तेरे को छुआ तक नहीं।”

“छुआ नहीं लेकिन पीस डाला ! छोड़ो मुझे, दुबारा नहीं आऊँगी।”

“मेरे स्वामी को हराने निकली थी। स्वामी की बतायी हुई युक्ति है – ‘जब गड़बड़ हो तो ॐऽऽऽऽऽ… करके सिर पर हाथ धर देना।’ अब यहाँ तो तू बैठी है, हाथ कैसे धरूँ इसीलिए जरा-सा पर्वत का टुकड़ा ही रख दिया।”

“छोड़ो, छोड़ो….. तुम जीते, मैं हार गयी।”

“अब उतार दूँ ?”

“उतार दो।”

पर्वत का टुकड़ा हटा दिया। उसको बोलाः “जा, कूद जा नीचे।”

पनोती नीचे कूदी, बोलीः “मैं तुम्हारे बल और गुरुभक्ति पर प्रसन्न हूँ, तुमको वरदान देना चाहती हूँ।”

हनुमान जी बोलते हैं- “जा, हारी हुई ! तेरा वरदान मैं क्या करूँगा ?”

“अच्छा, मैं वरदान देने के लायक तो नहीं हूँ, लेकिन आपकी आज्ञा मानने के तो लायक हूँ, आप मुझे कुछ आज्ञा करिये।”

“जो मेरे जैसा बलवान भाव का हो, जो मेरा चिंतन करता हो और अपने स्वामी के प्रति सेवक के दायित्व को निभाता हो उस पर तू कभी मत बैठना। जो बैठी तो तू चकनाचूर हो जायेगी।”

तब से सद्गुरु के शिष्यों पर पनोती (ग्रहबाधा) बैठती नहीं। जहाँ ज्ञान है, ध्यान है वहाँ ये ग्रह भी ठंडे हो जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 13 अंक 311

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उस पर कभी विवाद न करें


परमहंस योगानंद जी अपने जीवन का एक संस्मरण बताते हुए कहते हैं- “एक बार मैं अपने एक दलाल मित्र के साथ भारत के संतों की चर्चा कर रहा था। उसने मेरी बातों में कोई उत्साह नहीं दिखाया। उसने कहाः “ये सब तथाकथित संत झूठे हैं। वे ईश्वर को नहीं जानते हैं।”

मैंने बहस नहीं की और विषय बदल दिया। हम दलाली के धंधे की चर्चा करने लग गये। जब उसने धंधे के बारे में काफी कुछ बता दिया तो मैंने सहजता से कहाः “जानते हो, पूरे कोलकाता में एक भी विश्वसनीय दलाल नहीं है। सब के सब बेईमान हैं।”

उसने गुस्से से कहाः “दलालों के बारे में आप जानते ही क्या हैं ?”

मैंने भी उत्तर दियाः “बिल्कुल ठीक ! संतों के बारे में आप भी क्या जानते हैं ?”

वह कोई उत्तर नहीं दे सका। मैं आदर के साथ आगे कहता गयाः “जिसके बारे में आप कुछ नहीं जानते उस पर कभी विवाद न करें। मैं दलाली के धंधे के बारे में कुछ नहीं जानता और आप संतों के बारे में कुछ नहीं जानते।”

आजकल पाश्चात्य शिक्षा-पद्धति का ऐसा दुष्प्रभाव हमारे देश को भुगतना पड़ रहा है कि अपने को पढ़े-लिखे समझने वाले कई लोग हर उस बात पर अपना मत-प्रदर्शन, ज्ञान-प्रदर्शन करने लगते हैं, जिसका उन्हें अनुभव-ज्ञान तो छोड़ो, ठीक से बाह्य (बौद्धिक) ज्ञान भी नहीं होता। ‘ए’, ‘बी’, ‘सी’, ‘डी’ आदि वर्णमाला के अक्षर अपनी तोतली बोली में बोलना सीखा हुआ के.जी. का सिक्खड़ बच्चा कोयले से मूँछें बनाकर गर्व से छाती फुलाते हुए पी.एच.डी. के प्राध्यापकों के बारे में अपना मत-प्रदर्शन करने लगे तो कैसा लगेगा ? इससे उन प्राध्यापकों का कुछ नहीं बिगड़ता अपितु वह बच्चा ही अपनी मंद बुद्धि का प्रदर्शन कर हँसी एवं डाँट-फटकार का पात्र हो जाता है। यही हाल उन लोगों का होता है जो खुद को आध्यात्मिकता के क्षेत्र का ‘अ’ भी ठीक से पता न होते हुए, कहीं से देख-सुन के ब्रह्मनिष्ठ संतों-सद्गुरुओं के बारे में अपनी बेतुकी राय का प्रदर्शन करने लग जाते हैं। हकीकत में किन्हीं ‘ब्रह्मवेत्ता संत’ को समझना हो तो पहले खुद में भी कुछ ‘संतत्व’ लाना पड़ता है। जो अपनी आंतरिक ऊँचाई को जितनी बढ़ाता है, वेदांत शास्त्र-सम्मत विशुद्ध आत्मिक उन्नति करने वाला सत्संग साधन जितना बढ़ाता है, अपने मन को जितनी मात्रा में निर्मल बनाता है, वह उतना ही ब्रह्मवेत्ता संत के संतत्व को समझने का अधिकारी हो जाता है। बाकी मीडिया के माध्यम से देखी, सुनी या पढ़ी हुई बातों के पुलिंदे के आधार पर जो किन्हीं ब्रह्मवेत्ता संत पर कोई टिप्पणी करते हैं, वे उन महापुरुष की हानि तो क्या करेंगे, बेचारे उपरोक्त बालक की तरह अपनी ही इज्जत खोते हैं और फटकार के पात्र बनते है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 7 अंक 311

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