वर्तमान में टिको

वर्तमान में टिको


 

मोह आगे और पीछे धकेल देता है।लेकिन विवेक वर्तमान में ,अपने साक्षी में, अपने अंतर्यामी प्रभु में.. विवेक अपने परमात्मतत्व की स्मृति कराने में सहाय् देता है। ध्यान करते समय भी ऐसा कभी न सोचें कि मेरा भविष्य में ये होगा अथवा भूतकाल में ये हो गया..नहीं ! अगड़म-बगड़म स्वाहा !..इधर उधर की बात स्वाहा ! “अभी मैं मेरे राम में आराम चाहता  हूँ ! अभी मेरे चैतन्य स्वरूप में, सोहं स्वरूप में, निज आत्मा में मैं परितृप्त हो रहा हूँ ! मैं शांत चेतसा हूँ ! “

ऐसी प्रज्ञा अपने शांत स्वरूप की, अपने आत्म स्वरूप की स्मृति जगानी होती है। सुनसान बैठना नहीं होता है अथवा भूत और भविष्य की जाल बुनने में समय खराब नही करना होता है। वर्तमान में स्थित होने के लिए वर्तमान तत्व में, वर्तमान देव में , अंतर्यामी  में, अपनेआप मे जगना है । जो भूत की और भविष्य की कल्पना करता है , चिंतन करता है उसे अपनी स्मृति आ जाए तो भूत और भविष्य की मुसीबत पैदा करने वाली जो कलना है वह शांत हो जाए। हे रामजी ! इस जीव को एक महा व्याधि लगी है..कलना, फुरणा, अविद्या, माया ये महारोग लगे है। और उसी फुरणे का ही नाम है.. भूत और भविष्य के फुरणे का नाम ही कलना है। ज्यों ज्यों कलना शांत होती है, त्यों त्यों जीव निष्कलंक होता है । ज्यों-ज्यों कलना शांत होती है, त्यों-त्यों वो अपनेआप में ओज, बल, तेज पाता है। ज्यों ज्यों कलना में बहता है त्यों-त्यों अपने को पापी,अपने को दीन हीन, दुःखी, लाचार, मोहताज महसूस करता है। ज्यों-ज्यों  कलना शांत होती है और अपने निष्कलंक वर्तमान आत्मा में जगता है,त्यों त्यों अपने को प्रसन्न, सुखद, बलवान और स्वावलंबी बनाता जाता है।

भूतकाल की व्यक्तियों, वस्तुओं, पदार्थों के चिंतन की धारा या भविष्य में मिलने की कुछ आकांक्षा अभी वर्तमान में कंगाल बना देती है। तुम अभी वर्तमान में शहंशाह हो जाओ तुम्हारा भविष्य मधुर हो जाएगा। भूतकाल बीत गया उसमे कलना की धारा में बह मत जाओ। कलना को कलना समझकर निष्कलंक आत्मा का चिंतन करते ओमकार की पावन गूँजन करते रामनाम का पवित्र स्मरण करते, सोहम् शब्द का अनुसंधान करते, अजपा गायत्री विकार दण्डोदेय अजपा जाप तुम्हारे जीवन के विकारों को हरने का सामर्थ्य रखता है। शासोश्वास को कभी निहारा.. वर्तमान में ..तो विकारी आकर्षण दूर हो जाता है, विकारों के बीच रहते हुए भी निर्विकारी आत्मा में प्रीति होने लग जाए तो बेड़ा पार हो जाता है, कल्याण हो जाता है !

सूर्योदय के बाद सोने वाला अथवा सूर्य अस्त के समय सोने वाला अथवा दिन को नींद निकालने वाला व्यक्ति अपनी आयुष्य नाश करता है। ऐसे ही सूर्योदय के पहले उठने वाला और रात्रि को दूसरे प्रहर आराम करनेवाला, तीसरे प्रहर आराम करनेवाला और चौथे प्रहर अपने वर्तमान देव में जगनेवाला व्यक्ति अपनी दीर्घ आयुष्य भोगता है । गीले पैर भोजन करनेवाला व्यक्ति अपनी दीर्घ आयुष्य भोगता है । लेकिन गीले पैर सोना नही चाहिए, झूठे मुँह सोना नही चाहिए, मलीन होकर नही सोना चाहिए । हाथ पैर धोकर, पोंछकर, शुद्ध होकर सोना चाहिए। जैसे नींद लेनी है तो शरीर की शुद्धि की जरूरत है ऐसे ही समाधि सुख लेना है तो हल्के विचारों को हटाकर दिव्य विचारों से अपने चित्त को स्नान करा लो तब तुम ध्यान में, साधना में जप में शीघ्रता से सफलता को पाओगे । तुम स्नेह करते जाओ, तुम्हारी वर्तमान स्मृति को जगाते जाओ , देखो मन कहाँ जा रहा है ..या तो भूतकाल के चिंतन में होगा या तो भविष्य की कल्पना जाल बुनेगा। उसको देखो और कह दो कि अब मैं तेरी चोरी जान गया हूँ ौ।

हजारों तीर्थ कर लें, सैंकड़ों मंदिर, मस्जिद , गिरजाघर भेठ ले लेकिन जबतक वर्तमान देव में नही जगेगा, भूत और भविष्य की धारा में बहता रहेगा तबतक उसके जीवन की आध्यात्मिक वीणा नही बज सकती। आध्यात्मिक वीणा, जीवन की वीणा सुननी हो , तो जीवन के होते सुनी जाती है। वीणा सुननी हो तो भविष्य पर नहीं है, भूत पर नहीं है, वीणा अभी बज सकती है…सोहम् की वीणा सतत बज रही है, साक्षित्व की वीणा सतत बज रही है, प्रेम प्रसाद की वीणा सतत बज रही है, तुम्हारे राम की वीणा सतत बज रही है और उसीकी सत्ता लेकर तुम्हारी दिल की धड़कने चल रही है ! तुम्हारा देव आकाश, पाताल में नही …

प्रेम पपीहा तब लिखूँ जब पिया हो परदेस  

तन में,मन में, जन में ताको क्या संदेश ?

बिछडे हैं जो प्यारे से दरबदर भटकते फिरते है

जिसका आनंद , जिसका सुख बाहर है …

कुछ खाकर, कुछ देखकर कुछ भोगकर सुखी होने की जिसके जीवन में गलती घुसी है वो भले ही दरबदर लोक लोकांतर में कभी स्वर्ग में तो कभी बिस्त में, कभी पाताल में तो कभी रसातल में तो कभी तलातल में, कभी इन्द्रियों के दिखावटी सुख में तो कभी मन के हवाई किल्लों के शेखचिल्ली किल्लों में उलझने के उन टकरावों में आदमी टक्कर  खाते खाते थक जाता है और पाता है कि मैं चल नहीं सकता ..मेरा काम नही ईश्वर की तरफ चलना !..अरे ! मनुष्य जन्म मिला है , ईश्वर शांति पाना तुम्हारा जन्म सिद्ध अधिकार है , ईश्वर की तरफ चलने के लिए ही तुम्हारा अवतार हुआ है , ईश्वर तत्व का सुख पाने के लिए ही तुम्हारे पास बुद्धि और श्रध्दा है ! नही कैसे चल सकते ? असंभव नही.. यही काम आप कर सकते है ! दूसरे काम में तो सदा के लिए आप सफल हो भी नही सकते ! संसार में हर क्षेत्र में सदा सफल होना कठिन है लेकिन ये जो  सदा तत्व है उसमें एक बार ठीक से जम गई बात तो फिर सदा सफल ही सफल है !तो सावधान रहें…भूत और भविष्य की कल्पनाओं में अपने को न बहने दे ! भजन करते है भगवान का..भगवान आ जाए, और पूछे -बोलो…बोले-महाराज, पत्नी बीमार है ठीक हो जाए ..अथवा ये हुआ तो ये हो जाए । आपने भगवान से लेना कुछ तरकीब नही सीखा। तुम अगर भगवान तत्व में विश्रांती पाए हुए हो तो ये छोटी छोटी बातें… तो तुम्हारी बुद्धि तेजस्वी होने से उसका सोलुशन अपनेआप निकलेगा ! छोटे छोटे प्रोब्लेम तो अपनेआप समेटते जाएँगे, विदा होते जाएँगे.. तुम वर्तमान में टिकते जाओ तो !

पति कहने में चले , पत्नी कहने में चले , छोरा कहने में चले , शरीर मे रोग न हो, भोग मिलते रहे ये जो कल्पनाएँ है वो तुम्हारे वर्तमान के खजाने को लूट लेती है और कंगाल बना देती है। अभी इतना है, यहाँ हूँ और फिर इतना पाऊँगा और वहाँ पहुँचूँगा तब सुख होगा…नहीं ! जो जहाँ है, जिस समय है, वहाँ अपने सुखस्वरूप को स्मरण कर ले.. बेड़ा पार हो जाएगा! जो वस्त्र घर में मिले स्वाभाविक पहन लो, जो भोजन बने सादा सुदा वो खा लो,जहाँ नींद आए सो जाओ । ऊँचे महलों की कल्पना न करो और सुहावने बिस्तर सजाने की जरूरत मत बनाओ जरूरत बनानी है तो भूत और भविष्य की चिंतन की धारा को तोड़कर निश्चिंत तत्व में आराम पाना और जितने निश्चिंत.. एक विचार उठा.. भूत का या भविष्य का ..दूसरा उठेगा उसके बीच की अवस्था वो परमात्म अवस्था है, वो चैतन्य अवस्था है, वो साक्षात्कारी घड़ियाँ है। उसमें जो सदा जगे है वो भगवान है,जो जगने का प्रयत्न करते है वो साधक है और उसका जिनको पता ही नहीं है, वे सरकती हुई चीजों में उलझने वाले संसारी है।फिर चाहे वो संसार की चीज इस पृथ्वी की हो चाहे किसी लोक लोकांतर की हो , लेकिन है सब संसार ! जो सरकता है उसको संसार बोलते है । और देखो जरा सावधानी से देखो  प्रारम्भ में थोडा सा ही कठिन लगेगा लेकिन फिर बहुत आसान हो जाएगा और सारी कुंजियाँ तुम्हारे हाथ लग जाएगी। देखो मन भूत में जा रहा है कि भविष्य में जा रहा है..जरा बारीकी से देखो ..अभी क्या है ? जाने को सोचता है तो भावी में जा रहा है कि भूत में जा रहा है..कल ऐसा ऐसा था-कि भूत में जा रहा है, पहले ऐसा ऐसा था-कि भूत में जा रहा है, अभी ऐसा ऐसा होगा, भूत में जा रहा है …उसको देखो की ..ऐ ! भूत में जाने वाले, ऐ भविष्य में गिरने वाले ! अभी वर्तमान में जरा … । तो भविष्य में और भूत में जो कल्पनाएँ गिरती है आप अपनी स्मृति जगाइए ! स्मृति जग गई प्रभु मिल गए ! स्मृति जग गई प्रभु मिल गए ! भूत भविष्य का तो चिंतन होता है ..चिंतन उस वस्तु का होता है जो तुम्हारे पास नही है! जो अभी नही है अथवा तुम्हारे से दूर है उसका चिंतन होता है। चिंतन उसका होता है जो तुम नही हो ! ध्यान दें…जो तुम नहीं हो उसका चिंतन होता है! जो तुम हो उसकी स्मृति होगी ..तुम नहीं हो उसका चिंतन होता है..ध्यान से सुने ,आँखे खोलकर सुने…जो तुम नही हो उसका चिंतन होता है, जो तुम्हारा नही है उसका चिंतन होता है। शरीर की वस्तुओं का चिंतन होगा लेकिन तुम्हारा जो प्रियतम है उसका चिंतन नहीं होता। जो लोग भगवान के विषय में दयालू है ..भगवान ऐसे है,भगवान चतुर्भुजी है ,खुदा ऐसा ऐसा ऐसा…धरम के नाते भगवान की, बिस्त की, इसकी उसकी महिमा करते है वे लोग भी तुम्हारे चित्त में कामनाओं का भूत सँवार कर देते है। जरा बात कड़क लगेगी ..वो कामनाओं का भूत सँवार होते ही आप अपने अच्युत पद की स्मृति की योग्यता खोने लग जाते है । और यही कारण है कि लाखों लाखों लोग धार्मिक है .. लाखों लाखों लोग किसी न किसी भगवान को, देव को, इष्ट को , गुरु को मानते है लेकिन चित्त की विश्रांती पाए हुए लोग, परमात्म प्रसाद को पाए हुए लोग कोई विरले जिज्ञासु ही मिल पाते है दूसरे नही।

कल हम लोगों ने सुना कि शिष्य के चार लक्षण है। शरणागत हो.. माना गुरुतत्व के , गुरुदेव के विचारों के अनुगामी होकर  ,गुरु के अनुभव का अनुगामी होकर शरणागत होना माना उनके पीछे पीछे चलना । और श्रोत्रिय ब्रम्हवेत्ता सच्चे गुरुओं को तुम्हारे बाह्य वस्तुओं की इतनी आवश्यकता नही होती तुम्हारे बाह्य प्रणाम और पूजा और सत्कार और वस्तुएँ उन्हें वो प्रसन्नता नही देगी जितनी प्रसन्नता…और ब्रम्हवेत्ता की प्रसन्नता प्राप्त करना बहुत जरूरी है ..गुरु की प्रसन्नता हासिल करना समझो ईश्वर के राज्य में जाने का पासपोर्ट और टिकट प्राप्त करना है!

तो वो महापुरुष कैसे प्रसन्न होते है ? कि महापुरुषों को अपना अनुभवगम्य जो सिद्धान्त जितना प्यारा होता है वैसा तो अपना देह भी प्यारा नही होता है। अपने सिद्धांत के लिए सुकरात ने देह बली दे दी। जीजस ने आपने देह की  बली दे दी, मंसूर ने अपने देह की बली दे दी सिद्धांत के लिए। तो सिद्धांत जितना महापुरुषों को अपना प्यारा होता है उतना शरीर भी प्यारा नही होता है। तो महापुरुष जो निर्देश करते है अपने सिद्धांत अपने परमात्मतत्व में वर्तमान में ठहरने को कहते है। आप अगर ठहरने को तत्पर है तो आप ठीक उनको प्रसन्न कर लेंगे।आप उनके बताए हुए नुस्ख़े आजमाकर अपने को ऊँचा उठा लेंगे तो वो आपको सदा प्रसन्न मिलेंगे ! लेकिन आप जान बूझकर भी अपनी पुरानी आदत की धारा में बह जाएँगे उस वक्त गुरु, गुरु मंत्र और गुरु तत्व तुम्हारे हृदय में होता है वो तुम्हे थामता है, रोकता है, संकेत करता  है ! जबतक तुम तुम्हारे गुरु बनकर सच्चाईयों से निकालने को नही डँटते हो तबतक जीवन का दिया जगमगाता नही और ज्यों ज्यों तुम्हारी कमजोरियों को निकालकर तुम आगे बढ़ते हो त्यों त्यों गुरु तुम्हें तुम्हारे इर्द गिर्द विस्तृत मिलेंगे !

मैंने सुना किसी ग्रन्थ में कि कोई भूल हो जाती है तो प्रायश्चित करना पड़ता है । ग्लानि नही…हाय हाय ..पश्चाताप करके ग्लानि नही …लेकिन स्नान ,संध्या, प्राणायाम आदि करके जप अनुष्ठान करके उस पाप का निवारण किया जाता है। जहाँ जहाँ पे ग्लानि या खिन्नता या चित्त मलीन हो ऐसी जब घटनाएँ ,ऐसा वातावरण हो जैसे रस्ते पे जाते है कोई गंदी वस्तु दिखी, चित्त मलीन होता है, उस वक्त सुर्यनारायण का दर्शन , गुरु मंत्र का जाप ,भगवद दर्शन, अग्नि दर्शन ये उस रास्ते की ..कहीं केय पड़ी है, कहीं मरा ढोर का कुछ चमड़ा वमडा पड़ा है, कहीं कुछ पड़ा है गंदी वस्तु, तो चित्त तुम्हारा थोडा उद्विग्न होता है । तो उस वक्त उद्विग्नता का भाव तुम्हारे चित्त में आते ही तुम्हारी इन्द्रियों पर, तुम्हारे मन पर बुरा असर न पड़ जाय इसलिए वहाँ ऐसी स्मृति करनी पड़ती है देव की, गुरुमंत्र की । और जो प्रायश्चित है वो मंत्र जाप करनेसे प्रायश्चित हो जाता है , गुरुमंत्र का जाप करनेसे प्रायश्चित हो जाता है । लेकिन गुरुमंत्र के त्याग के पाप का कोई प्रायश्चित नही ! गुरुमंत्र के त्याग का प्रायश्चित  नही ऐसा मैंने कथा शास्त्र में सुना।

दूसरा-आत्म प्रशंसा

अपने व्यक्तित्व, अपने देहाध्यास की , अपने स्वरूप की प्रशंसा ..जैसे वशिष्ठ बोलते है – मैं समर्थ गुरु हूँ…हे रामजी शिष्य में जो सद्गुण चाहिए वो तुम्हारे में है और गुरु में जो अनुभूति चाहिए वो मेरे में है।

श्रीकृष्ण बोलते है सब कर्मों को छोड़ मेरे शरण आ जा ,मैं सब पापों से तुझे मुक्त कर दूँगा।

ये प्रशंसा वो क्षुद्र “मैं ” नही है , ये तो वास्तविक स्मृति है अपने स्वरूप की ! ये देह का चिंतन होकर नही बोला जा रहा है , अपने स्वरूप की स्मृति जग रही है ये अनुभूति बोली जा रही है !

हम जब बोलते है अहं ब्रम्हास्मि – मैं ब्रम्ह हूँ.. तो मैं अहं पर जोर है कि ब्रम्ह पर जोर है ? देह की अहं को लेकर बोलते है कि वास्तविक “मैं” को जानकर बोलते है?  वास्तविक “मैं” को जानना होगा तो भूत और भविष्य की धाराएँ जहाँ से बिखरती है आगे और पीछे उस वर्तमान में उस “मैं” को अपना स्वरूप मानकर “अहं ब्रम्हास्मि” होता है !

तो और पापों का तो प्रायश्चित है लेकिन गुरुमंत्र के त्याग का जो पाप है उसका प्रायश्चित नही है !

सुना है महाभारत का कोई प्रसंग …श्रीकृष्ण और अर्जुन कहीं चले गए थे अश्वथामा आदि  को पकड़ने के लिए कैसा भी कुछ निमित्त से और युधिष्ठिर महाराज को बड़ा श्रम पड़ा युद्ध में । अर्जुन के न होनेसे उनको खूब सहना पड़ा । संध्या हुई जब युद्ध बंद हुआ तो विश्रांती लेने के लिए खूब दूर रथ खड़ा कर दिया अपना एकांत में। अर्जुन और कृष्ण आए देखा कि नियत जगह पर रोज की जगह पर भाई का रथ नही, चिंतित हुए इधर उधर खूब निहारा तब दिखाई पड़ा और पहुँच गए । थके थे जरा खिन्नमना हो गए थे । तो युधिष्ठिर महाराज ने अर्जुन को देखकर ही अपना थोड़ा कोप – धिक्कार है  अर्जुन ! तेरे गांडीव धनुष को ..तेरे होते हुए इतना मेरे को इतना सहना पडे और इतना लाचारी की अवस्था गुजरना पड़े ..जैसे छोटा भाई कहीं जाए और देर करे और बड़ा भाई डाँट दे तो युधिष्ठिर ने डाँट दिया .. धिक्कार है तेरे गांडीव धारण को । महाराज, अर्जुन ने अपना बाण चलाया गांडीव धनुष्य पर। कृष्ण बोलते है कोई शत्रु तो है नही बाण किस लिए चलाता है?

बोले-जिस भाई को मैं पूजता आ रहा था, जिसको पिता तुल्य मान देता था,देव तुल्य निहारता था विवश होकर आज मुझे उनकी हत्या करनी पड़ेगी क्योंकि मैंने कसम उठाई थी कि मेरे गांडीव की कोई निंदा करेगा तो मैं उसका शिरच्छेद कर दूँगा, मेरा प्रण था !

कृष्ण कहते है कैसी बेवकूफी की बात करता है ! युधिष्ठिर जैसे धर्मात्मा भ्राता का तुम ?… 

अर्जुन-“हालाकि ये मेरे भाई है और मै नतमस्तक हूँ इनके आगे ..और ये गुण की खान हैं। ये तो मेरे भाई नहीं मेरे पिता हैं , माता हैं, देव हैं, सर्वस्व हैं लेकिन अब गांडीव धनुष की निंदा किये हैं अब और कोई उपाय बताइये ।”

कृष्ण ने कहा -“प्रतिष्ठित व्यक्ति, श्रेष्ठ व्यक्ति का अपमान भी उसकी मृत्यु है। युधिष्ठिर को तुम तु-कारक बात कर लो तो मानो तुमने उनकी हत्या कर ली ! “

अर्जुन ने कहा (युधिष्ठिर को) -” तेरे को बोला था हम जा रहे हैं अब तू धीरज नही धारा !”

कृष्ण ने कहा बस हो गया ! तूने भाई की मौत कर दी !

आदरणीय व्यक्ति का अनादर करना ये उसकी मौत कर दी। अर्जुन विषाद की खाई में गिरा । फिर उठाया बाण चढ़ाया धनुष पर, (कृष्ण) बोले – अब क्या है.. कौन तीसरा तो कोई दिखता नही ! युधिष्ठिर ही है अकेले आप हम है ..अब क्या ख्याल है ? इधर को लाना है ?

बोले- “नही “

अर्जुन-“जो छोटा भाई होकर बड़े भाई की हत्या कर दे, भ्राता हत्यारा उसको क्या दंड होना चाहिए ?

(कृष्ण)- उसको मृत्यु दंड होना चाहिए

तो मृत्यु दंड का प्रायश्चित्त वहाँ (मरने के बाद) जाकर करे और मरे.. वहाँ यमराज के वहाँ भोगे ?.. उससे मैं अपने आप का मृत्यु कर देता हूँ , मृत्यु दंड भोग लेता हूँ, अपने आप की हत्या कर देता हूँ , अपने आप को बाण लगा देता हूँ । “

कृष्ण ने फिर समझाया – जो भूत और भविष्य की कल्पनाओं में उलझते है …और वर्तमान में जो व्यक्ति जगे हैं, जगे हुए व्यक्तियों के लिए बड़ा श्रम पड़ता है कि अज्ञानियों के बीच उनको ज्ञान कराने में न जाने वो कहाँ कहाँ धक्केलेगा ! अर्जुन जैसा व्यक्ति जब कभी इधर जाता है तो कभी उधर जाता है ,कृष्ण पकड़कर मैदान में लाते है , वो फिर भविष्य में जाता है। पहले अर्जुन भूत में गया – मेरी शपथ..मेरे गांडीव का कोई अनादर करेगा उसका शिरोच्छेद करुँगा.. पहले की मेरी शपथ ..और फिर ..फिर मरने के बाद  प्रायश्चित करना पड़े ? अभी अपने को दे !

अज्ञान जबतक है तबतक आदमी वर्तमान में आने को ही..उसको टाइम ही नही मिलता बेचारे को !

ज्यों अपने को मारने को तत्पर हुआ त्यों फिर श्रीकृष्ण ने उपदेश दिया, समझाया, डाँटा । तो बोले- नहीं कोई उपाय बताओ इस प्रायश्चित्त का !

बोले-अपनी प्रशंसा खुद कर ले..आत्म श्लाघा कर ले.. इसका कोई प्रायश्चित्त नही ! वो आत्महत्या का पाप ही लगता है !

मैं ऐसा मैं ऐसा,  मैं ऐसा….मैं ऐसा मैं ऐसा का देहाध्यास से जो मैंने ये किया, मैंने वो किया,मैं ऐसा हूँ ऐसा जो अहंकार है वो सचमुच में आत्महत्या कर देता है ! अपने आत्म भाव को जगाने पर तो पर्दे डाल देता है ! “मैंने ये किया” ..क्या किया? तो आप दो हाथ पैर वाले हो गए ! ..”मेरा ये है,मेरा वो है ,मैंने इतना किया,मैंने ये किया “..तो ये जब गहराई से आप सोचते है,बोलते है तो ये आत्महत्या करते हैं !

इसीलिए कृपानाथ जब ऐसा बोलने का मौका मिले, सोचने का अवसर आए तो उस समय तुम अपनी स्मृति भी याद रखना कि मैं मैं मैं ने अपने सोहं स्वरूप को तो जाना नही ..किया सब इसने !..इसने माना देह ने, इन्द्रियों ने, मन ने किया .. देह से बॉडी से हुआ, इन्द्रियों से हुआ ..मुझ चैतन्य में करना धरना नही ! सोहम् ! …आप आत्महत्या के पाप से बच जाएँगे ! आत्मश्लाघा के पाप से बच जाएँगे और आप सचमुच में निष्पाप होने लगेंगे ! जिसने अपने आत्मा की हत्या, अपने शुद्ध स्वरूप का अनादर किया ..रामतीर्थ बोलते है कि शास्त्रों में कईं प्रकार के पापों का वर्णन आता है कि ये पाप है तो उसका प्रायश्चित्त ये है । कोई मातृ हत्यारा है , कोई बिल्ली मार लिया ,किसीने  कुत्ता मार दिया, किसीने घोड़ा मार दिया किसीने गधा मार दिया किसीने कीड़ी मार दिया किसीने कुछ मार दिया या हत्या किया उनको तो हम पापी मानते है लेकिन जो अपनेआप चैतन्य परमात्म स्वरूप की स्मृति न करके वो ईश्वर हत्या करने का जिसने पाप किया उसने और कौनसा पाप नही किया ? अपने ईश्वरत्व भाव को जो मार बैठा है उसने और क्या नही मारा ?

और जिसने अपने ईश्वरत्व भाव को जगा दिया उसके द्वारा त्रिलोकी युद्ध में खत्म भी हो जाए तो उसे पाप नही लगता ! उस ज्ञानी को कोई पाप बाँध नही सकता ! और कोई पुण्य ऊपर नही उठा सकता वो ऐसी ऊँचाई को छू लेता है ! और ऐसी ऊँचाई कहीं स्वर्ग में या उधर नही है, ऐसी ऊँचाई यह है कि भूतकाल और भविष्यकाल में जो चिंतन की धारा जाती है वो निश्चिन्त तत्व से उठती है । निश्चिन्त तत्व की स्मृति करना और भूत और भविष्य का प्रभाव अपने ऊपर से हटाना समझ लो कि सब साधनाओं का मूल पाना है ! सारी सफलताओं का मूल पाना है ! केवल ये नुख्सा भी आ जाए और आजमाएँ तो काम बन जाए !  हम माला करते है कभी भी देखो कि या तो भूत पर है ..आशा किये है कि माला करेंगे अनुष्ठान सिद्ध होंगे कोई आएगा !..होता है न ? कुछ धड़ाखा- भड़ाखा होगा , कुछ होगा !.. नही ! कुछ होनेवाला नही है और जो होगा वो होकर खत्म हो जाएगा ! माला भी करे तो स्मृति जगाने के लिए ! वर्तमान में टिकने के लिए माला हो जाए !तो बेड़ा पार हो जाएगा !

मैंने कहा था कल कि कोई कपड़े ऐसे होते है कि जिनको खूब सोडा, खार, साबुन और धमाधम की जरूरत होती है। कोई वस्त्र तो ऐसे कि पानी मे से डुबोकर निकाल दो बस ! जैसे शुद्ध वस्त्र है ,रात भर सोए है..चलो तमस के परमाणु हैं , दौड़ के सुखा दो हो गया ठीक ! ऐसे ही थोड़ा बहुत जिनको अज्ञान है , थोडा  बहुत ये है उनको तो जरा सा गुरु कृपा और जरासा उपदेश दो और पार हो जाते है! उत्तम प्रकार का जो शिष्य है, जिज्ञासु है वो तो उपदेश मात्र से तर जाता है ! उपदेश मात्र से जग जाता है ! मध्यम प्रकार का है.. वो मनन और निदिध्यासन से..जो उपदेश सुना है उसका बार बार मनन करे और मनन में से तन्मय होता जाए ..निदिध्यासन..तो वो आनंद, वो शांति उसकी प्रगट होगी और प्रगाढ़ होगी तो साक्षात्कार हो जाएगा ! और जो कनिष्ठ है  वो तर्क वितर्क करके भी उपासनाएँ वुपासनाएँ करके और शम दम करके और फिर कहीं कभी जगता है ।

सनातन धर्म में, सनातन साहित्य में वेदांत फिलोसोफी ये आखिरी है ! और सब अपनी अपनी जगह पर कर्मकांड देवी-देवता ये सब ठीक है लेकिन हृदयस्थ के देव को जो जानने की विद्या है वो वेदांत विद्या है ! दूसरे मजहब और मत पंथों में प्रश्न उत्तर को स्वीकार नही ! क्यों?..कि शिष्य प्रश्न करे उत्तर देने की …बौद्धिक क्षमता की कसौटी पर  दूसरे जो ग्रन्थ बने है धार्मिक , बौद्धिक कसौटी की क्षमता पर वो नही उतर सकते लेकिन वेदांत ये कहता है कि शिष्य को अधिकार देता है ..

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ..

शिष्य का अगर महत्वपूर्ण अधिकार है साधक का तो वेदांत जगत में है !…बाकी तो तुम मान लो …खुदा है ..तुम मान लो !…वैकुंठ में भगवान बैठे है तुम मान लो !…सातवे अरब पर खुदा बैठे है ..अरे जरा तो ख्याल करो सातवे अरब पर बेचारे को ठंडी नही लग जाएगी ?  अब तो उसको उतारो अपने हृदय में जगाओ यार ! और अपना जो अहम है उसको सातवें अरब में भेज दो ! तुम ऐसा करो ऐसा करो इतना दान पुण्य इतना नमाज वमाज पढ़ो ,इतने अच्छे आदमी हो जाओ तुम्हें बिस्त मिलेगा ! उसमें में संदेह ना करो , मान लो ! बिस्त में क्या है कि हूरे  हैं, शराब के चश्मे है ..मान लो !..अब शराब के चश्मे उधर ? जय जय !

तो ये उपासनाएँ तो मान्यता से चल जाती है ..अभी थोड़ा संयम कर लिया..ये दुकानदारी है !….अभी इतना इतना दे दो फिर इतना इतना इतना सारा मिल जाएगा ! वेदांत दुकानदारी को नही मानता ! स्वार्थी जीवन की…स्वार्थ की बात नही ..प्रलोभन की बात नही !..वो तो तुम्हें जगा देता है कि तुम अपनी महिमा को जान लो ,तुम अपनी मैं को जान लो ! जो यह है उसको यह रहने दो और “मैं” को ठीक से जान लो !  शरीर “मैं” में आ जाता है गलती से..हकीकत में “यह” है। मेरा हाथ ..तो “मैं” हाथ नही हुआ । यह बाल है । यह क्या है ? बोले मैं हूँ..नही, ये बाल है। तो यह क्या है ? कि ये नाक है। तो यह क्या है ? कि ये हाथ है। तो यह क्या है ? ये पैर है।

ये क्या है ? कि ये पेट है ।यह क्या है ? कि यह कमर है। तो “यह” हो गया कि नही ? यह कमर है ! …फिर संकल्प विकल्प होते है …वो क्या है ? ये क्या है ? कि ये मन है ..मेरा मन ..तो मैं मन नही..मेरा मन..मेरा मन खिन्न है …मेरे मन में ये चिंता हो गई  …अरे मेरे मन में ये चिंता हो गई ऐसा जानकर ही तू निश्चिंत हो जा यार अभी चुटका बजा ले!

मुझे प्रॉब्लम हो गया ..तुझे कभी कोई प्रॉब्लेम छू नही सकता ! जब प्रॉब्लम होता है तो तेरे भूत और भविष्य के चिंतन में ही प्रॉब्लम होता है ! और आप नही चाहते तभी भी ये चिंतन होता रहता है ।क्योंकि आदत पुरानी है और मन का स्वभाव भी है ! तो चिंतन होता रहता है इसलिए चिंतन में धाराएँ बढ़ जाती है तो स्मृति नही जगती !

योग, शास्त्र, प्राणायाम आदि ध्यान आदि कराके पूर्व और भूत और भविष्य के चिंतन से हटाकर वर्तमान में ठहराता है। कर्मकांड मलीन चिंतन और मलीन क्रिया से बचाकर फिर सात्विक में लगाता है। धर्म तुम्हारी वृत्ति को सात्विक बनाता है।उपासना तुम्हारी वृत्ति को सात्विक बनाती है। लेकिन जो वेदांत ज्ञान है वो तुम्हारी वृत्ति को उद्गम स्थान का बोध कराके तुम्हें वृत्ति के पार अपने स्वरूप में जगा देता है। इसीलिए

शावक गर्जन्ति शस्त्राणि जम्बुका विपनेय

न गर्जन्ति महाशक्ति वेदांते ????

बाकी के सियार और पशु, वन प्राणी तबतक जोर मारते है वट दिखाते है जबतक कि सिंह नही गरजा और सिंह की गर्जना होते ही सब पूँछ दबा के    कहाँ चले गए पता नही ! ऐसे ही जीवन में आत्मज्ञान के विचार आने के बाद सारे इधर उधर के विचार कहाँ चले गए, आकर्षण और दबाव कहीं पता नही चला ! इसीलिए जीवन में शेर के विचार लाओ, वेदांतिक विचार लाओ । जब भूतकाल की चिंतन धारा हो ,भविष्य की चिंतन धारा हो .. वर्तमान में क्या है ? अभी तो यार मजे से बैठ कल की बात कल ! आनेवाले कल की बात आनेवाले कल पर !

तो उसका मतलब ये नही कि तुम्हारा व्यवहार, व्यवहार उच्छलंक कर दो बसआलसी हो जाओ.. नहीं… तुम अपने चित्त को वर्तमान में डंटाए रखो और बाकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होगी। एक बात और ध्यान देने योग्य है। तुम्हारे काम में वर्तमान की व्यक्तियाँ आती है। तुम्हारे काम में वर्तमान की वस्तुएँ आती है । न भविष्य की वस्तु तुम्हारे काम में अभी आती है ..न भविष्य में होनेवाले व्यक्तियों के..और अपने पुत्र परिवार वाले । भविष्य में होनेवाले भी तुम्हारे काम में नहीं आते और भविष्यवाले भी तुम्हारे काम नहीं आते और भूतवाले भी तुम्हारे अभी काम में नहीं आते । तो जब-जब तुम्हें काम लेना होता है तुम्हारे काम हमेशा वर्तमान की वस्तुएँ आती हैं, वर्तमान के व्यक्ति आते हैं, वर्तमान के ही साधन तुम्हारे काम आते हैं कि भूतकाल के आते है ? नही ! अभी जो तुम्हारे पास है वोही तो काम आएँगे ! भविष्य में जो बनेंगे वो अभी तो काम नहीं आएँगे । तो हमेशा आपको काम तो वर्तमान की वस्तुयें आती हैं, काम तो वर्तमान के व्यक्ति आते हैं , काम तो वर्तमान ही आता है। उसके बिना तो काम चल नही सकता, तो जो वर्तमान में तुम्हारे काम आता है उसका तुम सदुपयोग करो तो भविष्य का टेंशन … क्या करें लड़की बड़ी है इसीलिए टेंशन करना पड़ता है.. लड़की सोचती है मेरी उम्र हो गयी इसलिए टेंशन.. अच्छा टेंशन से अगर काम बन जाता तो सारे टेंशनवाले आदमी आपके काम के हो जाते ! नही ..वर्तमान में जो ठीक है उसकी सूझ बूझ ठीक होती है तो उसका भविष्य भी आता है तो वर्तमान होके आता है ।भविष्य भी आएगा..कल जो आएगा वो भी आज होके आएगा न ! आज शनि है कल रवि है, लेकिन रवि को जब होंगे तो वो रवि कल रहेगा क्या ? रवि भी आज होकर आएगा।तो आज होके जो आना है उसको आज में जीने की कला सीख ले !ऐसे ही ध्यान भजन में बैठते है न तो ये मिलेगा ये होगा,ये करूँगा,ये किया है ऐसे विचार उठे तो अगड़म दगड़म स्वाहा ! ऐसा किया, आप फिर ठहर जाएँगे वर्तमान में ठहरेंगे लेकिन टिकेंगे नही ,आदत है ! फिर इधर उधर आ जाए ..इसका थोडा सा बारीकी से आप विचार करेंगे अनुसंधान करेंगे न तो आपकी वो जो गैप है धारा थोडी बढ़ जाएगी ! एक संकल्प उठा दूसरा उठने को है उसके बीच की जगह बढ़ जायेगी वो बढ जाना ही परमात्मा में स्थित होना है ! और वो अगर 3 मिनट रह जाए तो महाराज निर्विकल्प समाधि हो जाएगी ! केवल 3 मिनट, खाली 3 मिनट ! साक्षात्कार हो जाएगा ! जो ईश्वर का अनुभव है वो तुम्हारा अनुभव हो जाएगा , जो कबीर का अनुभव वो तुम्हारा अनुभव जो समर्थ रामदास का अनुभव वो तुम्हारा अनुभव ! जितने ज्यादा उसमें टिके उतना सामर्थ्य बढ़ जाएगा !

 

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