क्या है प्रयागराज का रहस्य और त्रिवेणी का महत्त्व ? पूज्य बापू जी

क्या है प्रयागराज का रहस्य और त्रिवेणी का महत्त्व ? पूज्य बापू जी


 

(प्रयागराज कुम्भः 14 जनवरी से 4 मार्च 2019)

सतयुग में नैमिषारण्य क्षेत्र परम पवित्र है, त्रेता में पुष्कर तीर्थ, द्वापर में कुरुक्षेत्र तीर्थ तथा कलियुग में गंगा और उसमें भी विशेष प्रयागराज का महत्त्व मत्स्य पुराण में आता है । भूतल पर 60 करोड़ 10 हजार तीर्थ माने गये हैं, सबका सान्निध्य प्रयागराज में ही होता है । प्रयाग-माहात्म्य सुनने से पापनाश और पुण्य की वृद्धि होती है ।

‘हे अच्युत ! हे गोविन्द ! हे अन्तरात्मा ! मकर  राशि पर सूर्य के रहते हुए माघ मास में त्रिवेणी के जल में किये हुए मेरे स्नान से संतुष्ट हो मेरे अंतरात्मा ! और शास्त्रोक्त फल मेरे हृदय में फलित करें प्रभु जी !’ – इस प्रकार प्रार्थना करते हुए मौनपूर्वक स्नान करना चाहिए ।

रोज त्रिवेणी स्नान कैसे हो ?

त्रिवेणी में नहाने को आ गये । त्रिवेणी तो है नहीं, द्विवेणी है – गंगा और यमुना । बोले, तीसरी सरस्वती है गुप्त । गुप्त माने ब्रह्मज्ञान गुप्त खजाना है। वह संतों के पास सद्भाव, श्रद्धा से मिलता है । कोई-कोई विरले उस गुप्त सरस्वती (ब्रह्मज्ञान) को जानते हैं । उसको समझो तो त्रिवेणी में नहाने का पूर्ण फल होता है । सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण – तीनों गुणों से पार होने के लिए माघ मास में त्रिवेणी में आ गये यह भगवान की कृपा है, वाह वाह ! भगवान को धन्यवाद दिया । और किसी प्रकार नहीं आये तो सत्संग की गंगा में स्नान करके भगवान को धन्यवाद दो ।

एक तपस्वी ब्राह्मण गंगा के पास रहता था और जीवनभर गंगा-किनारे नहीं गया । उसके यहाँ से गंगा दो कोस की दूरी पर थी । वह साधु संतों की सेवा करता था । घूमते घामते दो युवक साधु आये । ब्राह्मण ने उनको खिलाया-पिलाया, उनकी चरण-चम्पी की । साधुओं ने पूछाः “गंगा जी कितनी दूर है ?”

बोलेः “महाराज जी ! 60 साल की उम्र हो गयी, मैं तो एक बार भी गंगा नहाने नहीं गया लेकिन लोग बताते हैं कि दो कोस की दूरी पर है यहाँ से ।”

साधुओं ने डाँटाः “तू कितना पापी है ! हम तो सैंकड़ों मील दूर से आये गंगा नहाने को और तूने जीवन खो दिया, एक बार भी गंगा नहाने नहीं गया ! ऐसे व्यक्ति के यहाँ हम गलती से रात में रुके ।”

साधु रूठ के चले गये गंगा जी की ओर । पहुँचे तो गंगा जी दिखें ही नहीं और अंदर से मन मरुभूमि सा हो गया । भटक-भटक के दुःखी हुए । आखिर गंगा की खूब आराधना की तब अंतर्यामी ने प्रेरणा दीः ‘तुमने सत्संगरूपी गंगा में नहाने वाले भक्त का अपमान किया है । जो सत्संग की गंगा में नहाते हैं ऐसे लोगों से तो गंगा, यमुना आदि तीर्थ पवित्र होते हैं । वह तो सत्संगी था, गुरुभक्त था । जाओ, उससे क्षमा माँगो ।’

वे साधु आयेः “काका ! तुम तो रोज गंगा में नहाते हो, सत्संग करते हो, साधुओं की सेवा करते हो । हमें क्षमा करो ।” क्षमा-याचना की ।

त्रिवेणी स्नान का रहस्य

त्रिवेणी में स्नान करने का रहस्य समझो । शिवजी ने पार्वती जी को वामदेव गुरु से दीक्षा दिलायी । दीक्षा सारे जप-तप का मूल है । दीक्षा लेने के बाद पार्वती जी को आत्म-तत्त्व की दिव्यु अनुभूति हुई, समझो वह गुप्त सरस्वती पार्वती जी ने प्रकट कर ली । गंगा जी ज्ञान का प्रतीक हैं अतः आत्मा-परमात्मा के विचार हों । रास्ते में विचार की प्रधानता होनी चाहिए लेकिन अकेले विचार-विचार करेगा तो शुष्क बौद्धिक, तार्किक हो जायेगा, जीवन रूखा हो जायेगा । यमुना जी भक्ति का प्रतीक हैं पर अकेली भक्ति भाव करेगा तो भाव के घेरे में घूमता रहेगा । तो जीवन में भक्ति भी हो, ज्ञान भी हो और साथ में आत्मिक सरस्वती का रस भी होना चाहिए । जिसके जीवन में आत्मिक रस नहीं है उसका जीवन नीरस हो जाता है । जल रस में शरीर नहाता है लेकिन जीवात्मा को तो भगवान के प्रेमरस की आवश्यकता है । प्रेमरस कैसे मिले ? एक तो तीर्थ में जाने से श्रद्धा जागृत होती है । दूसरा, सच्चे संत-साधुओं का संग मिले और तीसरा भगवान का भजन करने की रूचि और युक्ति मिल जाय ।

तीर्थ में भी राग और द्वेष बना रहा, हल्ला-गुल्ला बना रहा तो तीर्थ का फायदा जितना पाना चाहिए उतना नहीं पा पाते लोग । तीर्थ में शांति हो, विचार हो, सत्संग हो, कभी कीर्तन भजन हो ।

राग में आकर न फँसो और द्वेष में आ के भी उबलो मत । जब अनर्थकारी वृत्ति, राग-द्वेष मिटता जाता है और भगवान में निष्ठा, रूचि, प्रीति-आसक्ति होती है और भाव दिव्य बनता है तो प्रेम प्रकट होता है । और प्रेम व परमात्मा दो चीज नहीं होती है । वह शुद्ध प्रेम नित्य नवीन रस देता है ।

विशेष लाभकारी अंतिम तीन दिन

त्रिवेणी त्रिदोष से मुक्त कर देती है । तीन अवस्थाओं, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति में जो बंधन और आकर्षण है उससे भी मुक्त कर देती है, त्रिवेणी का स्नान ऐसा है । एक मास इन्द्रिय संयमपूर्वक प्रयाग-स्नान सभी पापों से मुक्ति देता है और फिर वह माघ में हो तो और विशेष फलदायी है ।

किसी कारण से एक मास नहीं भी कर सके, वार्धक्य है, ठंडी नहीं सह सकते तो त्रयोदशी से माघी पूर्णिमा तक 3 दिन स्नान कर लें तब भी चित्त शुद्ध, पवित्र हो जाता है और पवित्र, शुद्ध चित्त की पहचान है कि हृदय में निर्विकारी नारायण का आनन्द आने लगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 313

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