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ज्ञान की होली खेल के जन्म-मरण से छूट जाओ-पूज्य बापू जी


होलिका दहनः 20 मार्च 2019, धुलेंडी 21 मार्च 2019

संतप्त हृदयों को शीतलता और शांति की सुरभि देने की शक्ति, कार्य करते हुए संतुलित चित्त और सब परिस्थितियों में समता के साम्राज्य पर बैठने की योग्यता… कहाँ तो मनुष्य को इतनी सारी योग्यताएँ मिली हुई हैं और कहाँ छोटे-मोटे गलत काम करके मनुष्य दर-दर की ठोकरें खा रहा है । जन्म-मरण की दुःखद पीड़ाओं में, राग-द्वेष एवं विकारों में गिरकर चौरासी लाख योनियों की पीड़ा की तरफ घसीटा जा रहा है । उत्सव के द्वारा, साधना के द्वारा नेत्रों में जगमगाता आनंद उत्पन्न करिये, सतंप्त हृदयों को शीतलता देने का सामर्थ्य जगाइये । व्यवहार में संतुलन बना रहे ऐसी समता से अंतःकरण सुसज्ज बनाइये और कितनी भी उपलब्धियाँ हो जायें फिर भी स्मरण रखिये कि ‘यह स्वप्नमात्र है ।’ सुख-दुःख में सम रहने की सुंदर समता का विकास कीजिये तो आपका उत्सव बढ़िया हो गया । आपसे जो मिलेगा उसे भी हितकारी संस्कार और हित मिलेगा ।

इस उत्सव का उद्देश्य

होली का उत्सव मनुष्यों के संकल्पों में कितनी शक्ति है इस बात की की स्मृति देता है और उसके साथ-साथ सज्जनता की रक्षा करने के लिए लोगों को शुभ संकल्प करना चाहिए यह सकेत भी देता है । भले दुष्ट व्यक्ति के पास राज्य-सत्ता अथवा वरदान का बल है, जैसे होलिका के पास था, फिर भी दुष्ट को अपनी दुष्ट प्रवृत्ति का परिणाम देर-सवेर भुगतना ही पड़ता है । इसलिए होलिकोत्सव से सीख लेनी चाहिए कि अपनी दुष्प्रवृत्तयाँ, दुष्ट चरित्र अथवा दुर्भावों का दहन  कर दें और प्रह्लाद जैसे पवित्र भावों का भगवान भी पोषण करते हैं और भगवान के प्यारे संत भी पोषण करते हैं तो हम भी अपने पवित्र भावों का पोषण करें, प्रह्लाद जैसे भावों का पोषण करें । वास्तव में इसी उद्देश्य पूर्ति के लिए यह उत्सव है । लेकिन इस उत्सव के साथ हलकी मति के लोग जुड़ गये । इस उत्सव में गंदगी फेंकना, गंदी हरकतें करना, गालियाँ देना, शराब पीना और वीभत्स कर्म करना – यह उत्सव की गरिमा को ठेस पहुँचाना है ।

कहाँ भगवान श्रीकृष्ण, शिव और प्रह्लाद के साथ जुड़ा उत्सव और अभी गाली-गलौज, शराब-बोतल और वीभत्सता के साथ जोड़ दिया नशेड़ियों ने । इससे समाज की बड़ी हानि होती है । यह बड़ों की बेइज्जती करने का उत्सव नहीं है, हानिकारक रासायनिक रंगों से एक दूसरे का मुँह काला करने का उत्सव नहीं है । यह उत्सव तो एक दूसरे के प्रति जो कुसंस्कार थे उनको ज्ञानाग्निरूपी होली में जलाकर एक दूसरे की गहराई में जो परमात्मा है उसकी याद करके अपने जीवन में नया उत्सव, नयी उमंग, नया आनंद लाने और आत्मसाक्षात्कार की तरफ, ईश्वर-अनुभूति की तरफ बढ़ने का उत्सव है । यह उत्सव शरीर तंदुरुस्त, मन प्रसन्न और बुद्धि में बुद्धिदाता का ज्ञान प्रविष्ट हो – ऐसा करने के लिए है और इस उत्सव को इसी उद्देश्य से मनाना चाहिए ।

आप भी ज्ञानमयी होली खेलो

इस होली के रंग में यदि ज्ञान का, ध्यान का रंग लग जाय, ईश्वरीय प्रेम का रंग लग जाय तो फिर जगत की खिन्नता के रंग से व्यक्ति बच जाता है । जब तक ज्ञान का रंग पक्का नहीं लगा तब तक खूब सँभल-सँभलकर होली खेलें । निर्दोष भाव को व्यक्त करने के लिए होली पर सहज जीवन, सरल जीवन, स्वाभाविक जीवन होता है, स्वाभाविक खेल होता है लेकिन इस स्वाभाविक खेल में भी काम उत्तेजित हो जाय, द्वेष उत्तेजित हो जाय, राग उत्तेजित हो जाय तो होली का परिणाम बुरा आ जाता है । ऐसा बुरा परिणाम न आय इसकी सँभाल रखते हुए जो ज्ञान की होली खेलने लग जाते हैं वे जन्म-मरण के चक्कर से छूट जाते हैं । जन्माष्टमी, दीवाली, शिवरात्रि, होली, – ये चार दिन संयम, साधना में बहुत हितकारी हैं । अगर इन दिनों में नासमझी से पति-पत्नी का संसारी व्यवहार किया तो विकलांग संतान ही होती है । अगर संतान नहीं भी हुई तो भी पति पत्नी को बड़ी हानि होती है । रोगप्रतिकारक शक्ति का खूब नाश होता है । जीवनभर किसी-न-किसी बीमारी जूझते रहेंगे, परेशान होते रहेंगे । अतः जन्माष्टमी, दीवाली, शिवरात्रि, होली को असावधानी बहुत नुक्सान करेगी और संयम साधना बहुत लाभ करेगी । इन चार दिनों में विशेष संयम साधना करें, औरों को भी समझायें ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2019, पृष्ठ संख्या 12, 13 अंक 314

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प्राकृतिक शुद्धिकारक व स्वास्थ्यवर्धक मूली


आयुर्वेद के अनुसार ताजी, कोमल, छोटी मूली रुचिकारक, भूखवर्धक, त्रिदोषशामक, पचने में हलकी, तीखी, हृदय के लिए हितकर तथा गले के रोगों में लाभदायी है । यह उत्तम पाचक, मल-मूत्र की रुकावट को दूर करने वाली व कंठशुद्धिकर है । बड़ी, पुरानी मूली पचने में भारी, उष्ण, रूक्ष और त्रिदोषकारक होती है । मूली के पत्ते व बीज भी औषधीय गुणों से युक्त होते हैं ।

आधुनिक अनुसंधानानुसार मूली में कैल्शियम, पौटैशियम, फॉस्फोरस, मैग्नेशियम, मैंगनीज़, लौह आदि खनिज पर्याप्त मात्रा में होने के साथ रेशे (fibres) विटामिन ‘सी’ तथा अन्य पोषक तत्त्व पाये जाते हैं ।

मूली मधुमेह के रोगियों के लिए लाभदायी है । यह गुर्दों के स्वास्थ्य के लिए अच्छी रहती है और शरीर से विषैले तत्त्वों को निकालने में भी कारगर है । इसे कच्ची हल्दी के साथ खाने से बवासीर में लाभ होता है । इसका ताजा रस पीने से पथरी एवं मूत्र-संबंधी रोगों में राहत मिलती है । अफरा में मूली के पत्तों का रस विशेषरूप से उपयोगी होता है । इसके नियमित सेवन से पुराना कब्ज दूर होता है ।

पेट के लिए उत्तम

मूली पेट व यकृत के रोगों में बहुत लाभकारी है अतः इसे पेट व यकृत हेतु सबसे अच्छा ‘प्राकृतिक शुद्धिकारक’ माना गया है । अधिक मात्रा में रेशे होने से यह मल को मुलायम करने और पाचनक्रिया को बढ़िया रखने में मदद करती है ।

मूली व उसके पत्ते, खीरा या ककड़ी व टमाटर काट लें । इसमें नमक, काली मिर्च का चूर्ण व नींबू मिला के खायें । इससे पाचन-संबंधी अनेक समस्याओं तथा कब्ज में लाभ होता है ।

औषधीय प्रयोग

  1. पेशाब व शौच की समस्याः मूली के पत्तों का 20-40 मि.ली. रस सुबह-शाम सेवन करने से शौच साफ आता है और पेशाब खुलकर आता है, इससे वज़न घटाने में भी मदद मिलती है ।
  2. पेट के रोगः मूली के 50 मि.ली. रस में अदरक का आधा चम्मच व नींबू का 2 चम्मच रस मिलाकर नियमित पीने से भूख बढ़ती है । पेट में भारीपन महसूस हो रहा हो तो मूली के 15-20 मि.ली. रस में नमक मिला के पीने से लाभ होता है ।
  3. पथरीः बार-बार पथरी होने के समस्या में मूली के पत्तों के 50 मि.ली. रस में 1 चम्मच धनिया-चूर्ण मिला के लगातार 3 महीने लेने से पथरी होने की सम्भावना नहीं रहती है । साथ में पथ्य-पालन आवश्यक है ।
  4. सूजनः मूली के 1-2 ग्राम बीज का 5 ग्राम तिल के साथ दिन में 2 बार सेवन करने से सभी प्रकार की सूजन में लाभ होता है ।

सावधानीः छोटी, पतली व कोमल मूली का ही सेवन करना चाहिए । मोटी, पकी हुई मूली नहीं खानी चाहिए । इसे रात में व दूध के साथ नहीं खाना चाहिए । माघ मास में (21 जनवरी से 19 फरवरी 2019 तक) मूली खाना वर्जित है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2019, पृष्ठ संख्या 31 अंक 314

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श्रद्धा का बल, हर समस्या का हल-पूज्य बापू जी


मंत्रे तीर्थे द्विजे देवे दैवज्ञे भेषजे गुरौ ।

यादृशी भावना यस्य सिद्धिभवति तादृशी ।।

स्कन्द पुराण, प्रभास खंडः 278.39

मंत्र, तीर्थ, ब्राह्मण, देवता, ज्योतिषी, औषध और गुरु में जैसी भावना होती है वैसा ही फल मिलता है ।

संत नामदेव जी के पूर्व जीवन की एक कहानी है । युवक नामदेव का मन विठ्ठल में लगा तो उसके पिता को डर लगा कि ‘यह लड़का भगत बन जायेगा, साधु बन जायेगा तो फिर कैसे गुजारा होगा ?’ बाप ने थोड़ा टोका और धंधा करने, रोजी-रोटी कमाने के लिए बाध्य किया । एक दिन पिताश्री ने नामदेव को कुछ पैसे देकर कपड़ा खरीदवाया और कपड़े का गठ्ठर दे के दूसरे बेचने वालों के साथ बाजार में भेजा ।

नामदेव बाजार में अपना गठ्ठर रख के कपड़े के नमूने खोलकर बैठा लेकिन अब उसकी पिछले जन्म की की हुई सात्त्विक भक्ति उसे बार-बार अँतर्मुख करती है । नामदेव आँखें मूँदकर ‘विठ्ठल-विठ्ठल ‘ करते हुए सात्त्विक सुख में मग्न है । शाम हुई, और लोगों का कपड़ा तो बिका लेकिन नामदेव वही गठ्ठर वापस उठाकर आ रहा है । सोचा कि पिता जी डाँटेंगेः ‘कुछ धंधा नहीं किया…’ अब क्या होगा ? घर लौट रहा था तो उसे खेत में एक वृक्ष के नीचे पड़े हुए सुंदर-सुहावने, गोलमटोल ठाकुर जी जैसे दिखे । उसका हृदय पसीजा, देखा कि ठंड में ठिठुर रहे हैं भगवान !

निर्दोष, भोले-हृदय नामदेव ने अपनी गठरी खोली और उन गोलमटोल ठाकुर जी को कपड़ा लपेट दिया और बोलता हैः “अच्छा, तुम ठिठुर रहे थे, अब तो तुमको आराम मिल गया ? अब मेरे पैसे दो, नहीं तो मेरे पिता दामा सेठ मेरे को डाँटेंगे ।”

अब पत्थर की मूर्ति पैसे कहाँ से लाती ? नामदेव गिड़गिड़ाया, आखिर कहा कि “अच्छा, अभी नहीं हैं तो अगले सप्ताह मैं आऊँगा न बाजार में, तब पैसे तैयार रखना ।”

पिता ने पूछाः “कितने का बिका कपड़ा ?”

बोलाः “कपड़ा तो बिक गया पर पैसे नहीं आये । पैसे अगले सप्ताह मिलेंगे ।” पिता ने इंतजार किया कि अगले सप्ताह बेटा पैसा लायेगा ।

नामदेव अगले सप्ताह आता है मूर्ति का पास, कहता हैः “लाओ पैसा, लाओ पैसा ।” अब मूर्ति पैसा कहाँ से दे !

आखिर पिता को क्या बतायें ?… उठायी वह गोलमटोल प्रतिमा और पिता के पास आकर कहाः “ये ठंड में ठिठुर रहे थे तो इनको कपड़ा दिया था । कपड़ा भी गायब कर दिया और पैसे भी नहीं देते ।”

पिता ने नामदेव को डाँटते हुए उस पत्थर को पटक दिया । नामदेव घबराया कि ‘विठ्ठलदेव ! तुमको भी चोट लगी है और मेरे पिता जी मुझे भी मारेंगे !’ अंतरात्मा ने आवाज दी कि ‘नामदेव ! घबरा मत, तेरा कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकेगा । तू मेरा है, मैं तेरा हूँ ।’

देखते ही देखते वह पत्थर सोने का हो गया । पिता जी दंग रह गये, नगर में बिजली की तरह यह बात फैल गयी ।

जिसके खेत से वह पत्थर उठा के लाये थे व जमींदार आकर बोलाः “यह तो मेरे खेत का पत्थर था । वही सोना बना है तो यह मेरा है ।”

नामदेव ने कहाः “तुम्हारा है तो ले जाओ पर तुम्हारे इस भगवान ने मेरे कपड़े पहने थे, तुम मेरे कपड़ों के पैसे चुकाओ । मेरे पिता को मैं बोलता हूँ, तुम्हें सोने के भगवान दे देंगे ।”

जमींदार से पैसे दिलवा दिये पिता को और जमींदार वह सुवर्ण के भगवान ले गया और घर पहुँचा तो देखा कि सोने की जगह पत्थर ! ‘कर्तुं शक्यं अकर्तुं शक्यं अन्यथा कर्तुं शक्यम् ।’ करने में, न करने में और अन्यथा करने में भगवान समर्थ हैं – इस बात को याद रखना चाहिए ।

वह जमींदार वापस आकर बोलाः “तुम्हारे सोने के भगवान पत्थर के बन गये !”

बोलेः “अब हम क्या करें ?”

“लो यह पत्थर, रखो पास ।” वह पत्थर समझकर फेंक के चला गया लेकिन नामदेव जी को पत्थऱ में छुपा हुआ अपना प्रियतम दिखता था । नामदेव की दृष्टि में जड़-चेतन में परमेश्वर है । संत नामदेव जी के मंदिर में आज भी भक्त लोग उनके उस ठाकुर जी को पूजते हैं ।

हम मूर्ति में श्रद्धा करते हैं तो उसमें से भगवान प्रकट हो जाते हैं तो जिनके दिल में भगवान प्रकट हुए हैं उन विद्यमान महापुरुषों में यदि दृढ़ श्रद्धा हो जाय तो हमारे तरने में कोई शंका ही नहीं । शरीरों में श्रद्धा कर-करके तो खप जायेंगे । सारा संसार इसी में खपा जा रहा है । अतएव शरीर जिससे दिखते हैं, उस आत्मा में श्रद्धा हो जाय, परमात्मा में श्रद्धा हो जाय, परमात्मा का अनुभव कराने वाले सद्गुरु में श्रद्धा हो जाय तो बेड़ा पार हो जाय ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2019, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 314

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