‘कल्याणी’ या ‘अतिकल्याणी’ ?

‘कल्याणी’ या ‘अतिकल्याणी’ ?


दयानंद सरस्वती गुरु विरजानंदजी के आश्रम में विद्याध्ययन करते थे । उनका गुरुभाई सदाशिव आलसी एवं उद्दंड था । एक दिन गुरुदेव ने प्रवचन में समझायाः “समय का सम्मान करो तो समय तुम्हारा सम्मान करेगा । समय का सदुपयोग ही उसका सम्मान है । जो सुबह देर तक सोते हैं, पढ़ाई के समय खेलते हैं तथा आलस्य, निद्रा और व्यर्थ के कामों में समय बरबाद करते हैं, समय उनसे प्रतिशोध लेता है ।”

एक दिन एक मंदिर के प्रांगण में दयानंद जी सदाशिव ने दो समान मूर्तियाँ देखीं । लेकिन एक के हाथ में लोहे का दंड था और नीचे लिखा था ‘अतिकल्याणी’ तथा दूसरी के नीचे लिखा था ‘कल्याणी’ । आकर गुरुजी से उनका रहस्य पूछा तो बोलेः “ये मूर्तियाँ काल की स्वामिनी दो देवियों की हैं । ‘कल्याणी’ उसका कल्याण है जो समय का सम्मान नहीं करता । परंतु तुम्हें अतिकल्याणी का उपासक नहीं बनना है ।”

सदाशिव ने सोचा, ‘कल्याण ही करना है तो वह अतिकल्याणी से भी हो जायेगा ।’ उसमें कोई सुधार नहीं हुआ, फलतः उसे आश्रम से निकाल दिया गया ।

समय बीता । दयानंद जी गुरुज्ञान के प्रचार हेतु भारत-भ्रमण कर रहे थे । मथुरा के निकट एक गाँव में उनकी दृष्टि सिर पर तसला और कंधे पर फावड़ा रखे तेजी से जा रहे व्यक्ति पर पड़ी ।

“सदाशिव !”

“ओह, दयानंद ! तुम तो बड़े महंत बन गये हो !”

“लेकिन तुमने यह क्या हाल बना रखा है ?”

“गुरु विरजानंद के पाखंड का फल भोग रहा हूँ ।”

“क्या मतलब ?”

“उन्होंने कहा था कि अतिकल्याणी उसका भी कल्याण करती है जो समय का सम्मान नहीं करता । मेरा कल्याण कहाँ हुआ ?”

“मथुरा में मेरा प्रवचन है, आ सकते हो ?”

“बिल्कुल फुरसत नहीं है फिर भी देखूँगा ।”

प्रवचन शुरु हुआ । श्रोताओं में सबसे पीछे सदाशिव बैठा है । दयानंद जी ने प्रवचन की दिशा बदली और उन मूर्तियों वाला पूर्व प्रसंग और गुरुदेव का बताया उनका अर्थ दोहराया । फिर बोलेः “मूर्ख समझता है कि समय के सम्मान बिना भी कल्याण सम्भव हो तो समयशील क्यों बनें ? मनमुख यह नहीं सोचता कि ‘अतिकल्याणी के हाथ में कौन-सा दंड है और क्यों है ?’ वह दंड है ‘काल-दंड’ और यह उसे कल्याण-मार्ग पर जबरन चलाने के लिए ईश्वर की कृपापूर्ण व्यवस्था है । समझदार व्यक्ति गुरु के उपदेशमात्र से समय का महत्त्व जान लेता है और मूर्ख अतिकल्याणी के कठोर दंड से दंडित होकर ! दंड पाकर जो उसके लिए भी गुरु को दोषी ठहराता है वह तो महामूर्ख है, मंदमति है । अतः काल-दंड से बचो ।”

सदाशिव को अपनी भूल का एहसास हो गया । जो समय बरबाद करता है समय उसी को बरबाद कर देता है । ब्रह्मवेत्ता महापुरुष के वेदांत से सराबोर सत्संग का श्रवण-मनन, उनकी दैवी सत्प्रवृत्तियों में सहभाग, भगवद्-स्मृति, प्रीति व शांति-विश्रांति में समय लगाना ही उसका सदुपयोग है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2019, पृष्ठ संख्या 24 अंक 315

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