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What is the purpose of the service?


What is the purpose of the service? Your heart is cleansed by the service. Egoism, hatred, jealousy, high feelings of emotions and all sorts of such bad feelings are destroyed and qualities like humility, pure love, empathy, tolerance and compassion develop. Selfishness vanishes from service, duality is weak, life’s approach becomes vast and generous. Unity begins to feel, speed progresses in enlightenment.The feeling of ‘one in all, one in everybody’ starts to feel. That is why unlimited happiness is attained.

What is the society? There is only a group of different individuals or units. The world is nothing but the manifest form of God. The service is worship only. The service and the wisdom of the wise men and women of great goodness is fulfilled.Like the Hanuman ji service and the teachings of Sita and Shriram ji, Brahmmanutti was completed.

Discrimination-sense is fatal, so it should be eradicated. To eradicate it, the need for Spirit-Spirit, the development of unity of Caitanya and selfless service. Differentiation is an illusion created by ignorance or illusion.

Source: Rishi Prasad, September 2018, page number 17 issue 309

जैसा अधिकारी वैसा मार्गदर्शन


जब तक गुणों के सुख की आवश्यकता है तब तक वेद के अर्थ को अथवा वेद ने बताए हुए कर्मों को हम करते है । अर्जुन की योग्यता बढ़ गई थी तो श्रीकृष्ण ने देखा कि अर्जुन अन्नमय कोष में नहीं  है,   प्राणमय कोष में भी नहीं, मनोमय कोष में भी नहीं, अर्जुन की स्थिति कुछ गहरी देखी श्रीकृष्ण ने इसलिए अर्जुन के लिए आदेश दिया कि सब त्रैगुण्यविषया वेदा.. ये वेद भी तीन गुणों के अंदर है,   तू निस्त्रैगुण हो जा। तो हम लोगों की साधन भजन की गति आगे बढ़ते बढ़ते कुछ ऐसी अवस्था आती है,    जैसे मैंने अर्ज किया था कि पहले पृथ्वी तत्व होता है तो शिव की पूजा से लाभ होता है,   शरीर में जलतत्व अधिक होता है तो विष्णु की पूजा से लाभ होता है,   तेज तत्व अधिक होता है तो सूर्य की पूजा से ज्यादा लाभ होता है।

अन्नमय कोष में स्थिति होती है तो कर्मकांड से लाभ होता है,   प्राणमय कोष में स्थिति होती है तो प्राणायाम,   आसन द्वारा रास्ता जो निकलता है उससे लाभ होता है    मनोमय कोष में स्थिति होती है तो प्रेमाभक्ति ,  ठाकुरजी की भक्ति,   इष्ट की भक्ति,   इष्ट से प्रेम आदि में लाभ होता है।लेकिन उससे भी आगे यदि आपकी योग्यता बढ़ रही है तो फिर आपको विज्ञानमय शरीर में गति है या आनंदमय कोष में गति है तो आपके लिए आत्मा की बात सुनकर सत्संग सुनते सुनते अथवा ध्यान करते करते उस अंतर्यामी को प्रेम करते करते प्रेमस्वरूप हो जाना है। तो किसी आदमी को नृत्य रुचता है,  किसी को गान रुचता है,   किसी को साज रुचता है,   किसी को मौन रुचता है। तो हर एक की अपनी-अपनी रुचि है और हर एक के रुचि के अनुसार यदि साधना हो जाए तो संभावनाएँ जल्दी होती है।

है तो हम खंड में,   अभी तो मान बैठे है अपने को खंड में लेकिन है किसी भी खंड में कोई भी खंड अखंड से अलग नहीं ! हो तो आप खिड़की पर,   ठीक है लेकिन वह खिड़की का जो आकाश है महाकाश से जुदा नहीं  है मिला हुआ है। तो आपकी कोई भी साधना पद्धति है ,  प्रक्रिया है,   आपका कोई भी स्वभाव है, उस स्वभाव को समझकर …बाबाजी हमको कैसे पता चले कि हमारे शरीर में पृथ्वी तत्व ज्यादा है कि जल तत्व ज्यादा है ?तेज तत्व ज्यादा है कि अन्‍नमय कोष ज्‍यादा है कि प्राणमय कोष में है? हाँ! हमको पता नहीं  चलता,   जिनको पता चलता है उनसे हम अपनी साधना का मार्गदर्शन लेते है, उसीलिए हम उनको सद्गुरु कहते है ..कि हम नहीं  जानते जिस विषय में उस विषय में आप हमारे मार्गदर्शक होइए। तो सद्गुरुओं का ये खूब कंप्यूटर होता है कि हमसे एकाध बात करेंगे या हमारी आँखों की तरफ निहारेंगे या हमारे आचरण को देखेंगे,   वो तुरंत हमको माप जाएँगे कि यहाँ की स्थिति क्या है, तो बोले न बोले उनकी मौज है। तो उसके अनुसार हमारे मंत्र की दीक्षा, गतिविधि होती है तो यात्रा जल्दी होती है। दूसरे पंथ चलते है कि आजा, तू भी आजा,   तू भी आजा ,  तू भी आजा! एक हॉल में बैठो,   पाँचवी का,   चौथी का,   तीसरी का,   दूसरी का, एम ए का,  पी एच डी का सब विद्यार्थी एक रूम में पढ़ो ।तो फिर पढ़ाई अपने ढंग की होती है और अलग अलग विद्यार्थी अलग अलग खंड में पढ़ते है तो पढ़ाई में प्रोग्रेस होता है।

ऐसे नारदजी जो थे वो लोकसंत थे,   नानक थे वो लोकसंत थे,   सम्प्रदाय के संत नहीं  थे,   कबीर थे,  लोकसंत थे। सम्प्रदाय के संत,   सम्प्रदाय जिनको चलाना है उनको थोड़ा लोगों के साथ अन्याय करना पड़ता है तभी सम्प्रदाय चलेगा। सम्प्रदाय में सम्प्रदाय मुख्य होता है और लोग गौण होते है और संतों के जीवन में लोग मुख्य होते है और सम्प्रदाय गौण होता है,   आश्रम गौण होता है लेकिन आश्रम में लाभ लेने वाले का मुख्य ख्याल होता है । पंथ,   सम्प्रदाय या अपना सिद्धांत गौण होता है, सामने वाले का कल्याण मुख्य होता है।

ऐसे गुरु भी देखे गए कि जिनके जीवन का सिद्धांत ..है तो वेदांत लेकिन भक्ति करने वाले जब भक्त आते है तो वे गुरु भक्तों की भक्ति में, अभी उनकी भक्ति से उनको लाभ होगा तो भक्तों की भक्ति की स्थिति देखकर वो गुरु स्वयं भक्त भी बन जाते है । ऐसे गुरुओं को भी मैंने देखा!

जिनको कुछ कर्म करने की आवश्यकता नहीं, दान करने की आवश्यकता नहीं, यज्ञ करने की आवश्यकता नहीं  ..लेकिन देखते है यज्ञ के अधिकारी है तो वहाँ यज्ञ भी होने देते है, दान के अधिकारी है तो दान भी होने देते है, कर्म के अधिकारी है तो कर्म भी होने देते है,   विनोद के अधिकारी है तो वहाँ विनोद भी होने देते है! तो उन गुरुओं का लक्ष्य व्यक्ति का उत्थान है, सम्प्रदाय का टोला बढ़ाने का लक्ष्य उनका नहीं  होता है। तो नारद ऐसे संत थे। नारदजी वालिया लुटेरा से जब मिलते है तो नारदजी वालिया लुटारा को मंत्र देते है “मरा मरा मरा मरा” और ध्रुव जब नारदजी के चरणों में पहुँचता है तो ध्रुव को बोलते है “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” । गुरु तो एक के एक है लेकिन शिष्य दो है न! मंत्र दो हो गए! हां, ध्रुव की योग्यता वाले दस और होते तो दसों को “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” होना चाहिए था, वालिया की योग्यता वाले पचास और होते तो सबों को ‘मरा मरा’ होना चाहिए था लेकिन किसी को ‘मरा मरा’ किसी को ‘राम राम’ ,  किसी को ‘ह्रीं राम’,  ‘ह्रीं राम’ भी होता है,   ‘ह्रीं हरि’  ‘ह्रीं हरि’ भी मंत्र है और केवल ‘हरि हरि’ भी मंत्र है। कल्याण दोनों से होगा लेकिन ‘ह्रीं हरि’ के अधिकारी को खाली ‘हरि’ दोगे तो यात्रा तेजी से नहीं  होगी और खाली ‘हरि’ तत्व का अधिकारी है तो उसको ‘ह्रीं हरि’ कह दोगे तो उसका रास्ता लंबा हो जाएगा। मंत्र होता है मनन भीतर में किया जाए,  मंत्र होता है भीतर गोता मारने को,  मंत्र होता है चित्त को विश्रांति‍ देने में सहयोगी होने को ,  मंत्र चित्त को फैलाने के लिए नहीं  होता है ,  मंत्र हम कुछ विशेष जानकार है इसका प्रदर्शन करने के लिए नहीं  होता है,  सच पूछो तो तुम्हारी साधना भजन तुम्हारे चित्त के मिटाने में काम आए तो वो साधना है वरना वो भी बोझा हो जाता है। चित्त तो मौजूद रहेगा और अधार्मिक आदमी तो दुःखी है ..बोले बापू तुम बोलते हो कोई देश का भक्त कोई पत्नी का भक्त  कोई किसी का भक्त लेकिन नास्तिक किसी का भक्त नहीं  होता है? नहीं ! नास्तिकों का भक्त होता है! किसी को न मानने को भी तो मानता है! कोई धर्म नहीं ,  कोई कर्म नहीं ,  कोई व्यक्ति नहीं ,  किसी की भक्ति नहीं  ..तो जो किसी का भक्त नहीं,  अलग हो जाओ ..कोई सम्प्रदाय नहीं, कोई सम्प्रदाय नहीं  का भी एक सम्प्रदाय हो गया! जय जय!

तुम बिना माने रह ही नहीं  सकते हो! तुम्हारा चित्त बिना माने कुछ रह ही नहीं  सकेगा! फिर चाहे नास्तिक को मानो चाहे आस्तिक को मानो ,  चाहे किसी के सिद्धांत को मानो लेकिन वेदांत कहता  है कि  किसी के सिद्धांतों को मानो और न मानो इन दोनों के बीच जो सत्ता है उस सत्ता को जानो फिर चाहे किसी को मानो चाहे किसी को न मानो मौज तुम्हारी है! जिससे माना जाता है उस यार को जानो! वेदांत तुम्हें वहाँ ले जाना चाहता है! फिर भक्ति को भी स्वीकृति देता है,  ध्यान को भी स्वीकृति देता है,  विनोद को भी स्वीकृति देता है..

वंदे कृष्णम जगद्गुरुं… कृष्ण को जगद्गुरु कहा जाता है। क्या मुसलमान सम्प्रदाय के लोगों को कृष्ण ने उपदेश थोड़े ही दिया !उन्होंने लिया थोड़े ही! ईसाईयों ने थोड़े ही लिया! फिर भी कृष्ण को जगद्गुरु कहा जाता है क्योंकि कृष्ण में ऐसी समता थी कि जगत में जितने भी प्राणी है,  जितने भी मनुष्य है वे सब के सब कृष्ण के मार्ग की एक ऐसी योग्यता ,  एक ऐसी कुशलता है कि सब किस्म के लोग कृष्ण के द्वारा लाभान्वित हो सकते थे। मुस्कुराने में देखो तो पूरा मुस्कुराता है,  जो बालक है उनके साथ मुस्कुराके भी उनकी यात्रा करा रहे है। जो यौद्धे है उनको वीरता का उपदेश देकर उनकी यात्रा करा रहे है,  जो याज्ञिक है उनको यज्ञ का उपदेश देकर सात्विक यज्ञ,  राजस यज्ञ,  तामस यज्ञ ,  जो शुद्धि अशुद्धि वाले है उनको आहार की बात बताए सात्विक आहार,  राजस आहार,  तामस आहार जो जैसा अधिकारी है.. ।

गीता क्यों लोकप्रिय है कि गीता में सब प्रकार का मार्गदर्शन है। तो सनातन धर्म के ग्रन्थ,  वेद.. जिन सम्प्रदायों में एक ही मंत्र है और एक ही प्रक्रिया है वो साधना के मार्ग में कंगाल है। वो कुछ नहीं  जानते। एक ही जानते है बस! लेकिन ये सब कैसे करेंगे भैया? दुकान पे बैठ के थोड़े ही करेगा! घर में सब करेगा? नहीं ! ये नादानुसंधान योग है,  ये एक प्रक्रिया है। योग की इस प्रकार 570 प्रक्रियाएँ है! जय जय! अब एक प्रक्रिया एक को लागू पड़ेगी दूसरे को दूसरी,  तीसरे को तीसरी.. तो सत्संग जल वृष्टि न्यायेन.. सत्संग में कभी विनोद ,  कभी गुरुतत्व की प्रशंसा,  कभी ये,  कभी कीर्तन,  कभी ध्यान.. जिसको जो सूट होता होगा उसको उसी से थोड़ा थोड़ा लाभ होते-होते उसके कोषों में परिवर्तन होता है। दूसरा जो तत्व को उपलब्ध महापुरुष है ,  जो गुणातीत है..

त्रैगुणा विषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन

        निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो ..

बोलते है निर्द्वन्द्व हो जा..  द्वंद्व क्या ? कि विरोध.. सुख-दुःख,   लाभ-हानि,   मान-अपमान,  जीवन तो मरण..तो ये सब द्वंद्वों में होता है। कृष्ण बोलते है अर्जुन, तू निर्द्वंद्व हो जा। बाकी की स्थिति जो है तीन,  द्वंद्व में रहोगे तो चालू रहेगी,  कितने भी सुखी रहोगे तो जन्म रहेगा तो  मौत मौजूद है,  सुख है तो दुःख मौजूद है,  मान है तो अपमान मौजूद है,  ये सब द्वंद्वों में है।यदि तू समझता है कि द्वंद्वों में कोई सार नहीं  है और तू मेरा निकट का भक्त है तो मैं तुझे सुनाता हूँ,  द्वंद्वों से पार हो जा! आत्मस्थ हो जा! सत्‍व में स्थिति कर।सत्‍व में स्थिति करना क्या?कि आनंदमय कोष में आना ये सत्‍व में स्थिति है।और ज्ञानी महापुरुष सदा आनंदमय कोष में रहते है इसलिए उनके अंतःकरण में सत्वप्रधान होता है। तो सत्वप्रधान अंतःकरण वाले के निकट हमलोग जब पहुँचते है तो हम लोगों के जीवन में भी सुख शांति आनंद का एहसास होने लगता है।तो ज्ञानियों को अंतःकरण का होना स्वीकार करके ज्ञानियों के लिए कहा कि नित्यसत्त्वस्थ..और अंतःकरण से परे होकर अंतःकरण को बाध करने की स्थिति में उनको देखने का विषय आता है तब उनको कहते है आत्मस्थ । तो ज्ञानी नित्यसत्त्वस्थ भी है और आत्मस्थ भी है।और साधक लोग,  हमलोग जब पुण्य करते है ,  सात्विक जगह में जाते है तो सात्विक होते है,  राजस जगह में जाते है तो राजसी हो जाते है और तामस जगह में जाते है तो तामसी हो जाते है..पानी का रंग कैसा?जै सा मिलाओ तैसा! जिसका संग वैसा रंग हम लोगों को चढ़ जाता है,  क्योंकि एक सिद्धांत है-तांबा ,  पीतल और लोहा इन तीन चीजों के धातु से बने हुए बर्तन को यदि कोई कहे कि इन तीनों धातुओं को अलग अलग कर दो तो बर्तन को हटा दो ही तो कह रहा है! तीन धातुओं के मिश्रण से जो बर्तन बना है उस बर्तन को हटाने का वो शब्द नहीं  यूज़ कर रहा है,  वो बोलता है ये तीनों धातू अलग अलग कर दो और तांबा तांबा तुम्हारे पास रखो। तो क्या उसका कहना हुआ कि बर्तन का अस्तित्व बिखेर दो। ऐसे ही तुम्हारा अंतःकरण अथवा तुम्हारा मैं तीन गुणों से पोषित हुआ है,  अब कृष्ण कैसे कहे मर जाओ? तो बोलते है-नित्य सत्व में रहो। नित्य सत्व में रहो तो तुम्हारा मन कहाँ रहेगा? तुम्हारा अहं कहाँ रहेगा? उपनिषदों का ज्ञान की परंपरा थी कि संसार मिथ्या है अहंकार को छोड़ो,   तो संसार मिथ्या अहंकार को छोड़ने के बहाने लोग इतने दीन हीन हो गए कि आत्मओज भी छोड़ दिया और संसार मिथ्या-मिथ्या करके आलसी और प्रमादी हो गए। इसलिए इस उपनिषदों के ज्ञान को श्रीकृष्ण ने थोड़ा अपनी रिफाइनरी फैक्ट्री में लाकर कहा कि नित्य सत्व में रहो,   आत्मस्थ रहो!  बात तो वही की वही है! लेकिन लोग कहीं गलती न कर बैठे उसलिए उन्होंने अपनी रिफाइनरी बीच में रख दी.. नित्य सत्वस्थ रहो अर्थात नित्य सत्वगुण में रहो। अब नित्य सत्वगुण में रहो तो रजो और तमो गुण शांत हो जाएगा,  कम हो जाएगा ।नित्य सत्वगुण में तो भैया, प्रकृति में नित्य सत्वगुण में तो परमात्मा रह सकता है!

 

मूर्ख शिरोमणियों की खोज


एक राजा ने अपने महामंत्री को आदेश दियाः “जाओ, अपनी जनता में जो दो सबसे बड़े मूर्ख हों, उन्हें दरबार में लाओ । उन मूर्खों को ‘मूर्ख शिरोमणि’ की उपाधि देंगे ।”

मंत्री महामूर्खों की तलाश में लग गया । कुछ दिन बाद वह दरबार में आया । उसको अकेले देखकर राजा ने पूछाः “मंत्री ! तुम्हारे साथ कोई मूर्ख नहीं दिख रहे हैं । क्या तुम उन्हें ढूँढने में असफल रहे ?”

“नहीं राजन् ! मैं सफल रहा पर उन्हें पहचानने में देर हुई । वे दोनों महामूर्ख तो अपने दरबार में ही हैं । अभयदान मिले तो बताऊँ ।”

“मेरे प्राणप्रिय मंत्री ! तुम्हें प्राणों की चिंता ! हिचको मत, दे दिया तुम्हें अभयदान ।”

“राजन् ! बुरा न मानें । राज्य का दूसरा सबसे बड़ा मूर्ख…. आप ही हैं !”

“मैं…. ! अरे महामूर्ख ! निर्लज्ज ! अब मैं अभयदान से बँधा हूँ वरना… बता मैं दूसरा महामूर्ख कैसे ?”

“साफ है नरेश ! जो राजा अपने राज्य में निवास करने वाले संतों-महापुरुषों एवं धर्मज्ञ सात्त्विक विद्वानों की खोज न कराके मूर्खों की खोज कराये, संतों का आदर न करके मूर्खों को सम्मानित कराये, वह मूर्ख नहीं तो और क्या है !”

“यदि मैं दूसरा हूँ तो मूर्खों में प्रथम कौन है ?”

“वह तो मैं ही हूँ । एक आत्मानुभवी जागृत महापुरुष के सत्संग में जाने से अब मेरा विवेक जागृत हुआ है कि आप तो ज्यादा सोचे-समझे बगैर जैसा मन में फुरना आया वैसा आदेश दे के किनारे हो गये लेकिन मैं तो थोड़ा-सा वेतन कमाने के लिए आपके ऐसे बेतुके आदेशों पर अमल करने में अपना अनमोल मनुष्य जीवन नष्ट कर रहा हूँ ।

सम्राट के साथ राज्य करना भी बुरा है, न जाने कब रुला दे !

सद्गुरु के साथ भीख माँगकर रहना भी अच्छा है, न जाने कब मिला दें !

आज मैं अपनी मूर्खता को छोड़ रहा हूँ । मैं मंत्री पद का त्याग कर रहा हूँ ।”

“मंत्री ! मुझे क्षमा करो । तुम्हारा यही निर्णय है तो मैं भी इसी समय अपनी मूर्खता छोड़ने का संकल्प कर रहा हूँ । तुम मुझे भी उन जागृत महापुरुष के सत्संग में ले चलो जिनके सत्संग में जाने से तुम्हारा यह विवेक जगा । तुम्हारा यह राजा अब जनता के दिलों पर राज करने वाले उन ‘महाराज’ के दर्शन-सत्संग से अपनी सूझबूझ बढ़ाना चाहता है । उनका सम्मान-सत्कार कर अपनी महामूर्खता का मार्जन (शुद्धीकरण) करना चाहता है ।”

“अवश्य ! अवश्य चलिये महाराज !”

मंत्री अपना पद छोड़ के उन आत्मपद में जगह हुए संत से शिक्षा-दीक्षा पा के ईश्वरप्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर हुआ और राजा ने भी उनसे दीक्षा ले के उनके मार्गदर्शन में अपना शासन ‘कर्मयोग’ में  परिणत कर लिया ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2019, पृष्ठ संख्या 24 अंक 316

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