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जीवन को सफल बनाने वाले सीता जी के 12 दिव्य गुण


श्री सीता नवमीः 13 मई 2019

पद्म पुराण (भूमि खंड, अध्याय 34) में स्त्री के जिन 12 दिव्य गुणों का वर्णन आता है, वे सारे-के-सारे सद्गुण सीता जी में थे।

स्त्री का पहला सद्गुण है रूप । अपने रूप को साफ-सुथरा और प्रसन्नवदन रखना चाहिए, कृत्रिमता (फैशन) की गुलामी नहीं करनी चाहिए ।

सीता जी में दूसरा गुण था शील । शील माने लज्जा । स्त्री का आभूषण है लज्जा । तू तड़ाके की भाषा या फटाक-से बोल देना नहीं, बेशर्मी नहीं, लज्जा और संकोच करके पुरुषों के बीच बात करने का सद्गुण होता है शीलवान नारियों में ।

सीता जी में तीसरा सद्गुण था सत्य वचन । सीता जी सारगर्भित बोलतीं, सत्य बोलतीं, दूसरों को मान देने वाला बोलतीं और आप अमानी रहती थीं ।

चौथा सद्गुण था आर्यता (सदाचार) । दुर्गुण-दुराचार में जो रत हैं उन महिलाओं की गंदगी अपने चित्त में या व्यवहार में न आये । छल-छिद्र, कपट का स्वभाव अपना न बने, सीता माता की नाईं अपने हृदय में सदाचार की भावना बढ़ती रहे इसका ख्याल रखना भारत की देवियाँ !

पाँचवाँ सद्गुण था धर्म-पालन । सीता जी वार-त्यौहार, तिथि के अनुरूप आचरण करतीं और घर का भोजन आदि बनाती थीं ।

छठा सद्गुण था सतीत्व (पातिव्रत्य) । श्री रामचन्द्र जी के सिवाय उनको और जो भी पुरुष दिखते वे अपने सपूतों जैसे दिखते या बड़ी उम्र के हों तो पिता की नाईं दिखते – ऐसा सद्गुण सीता जी में था । सीता जी के चित्त में स्वप्न में भी परपुरुष को पुरुषरूप में देखने की वृत्ति नहीं जगती थी । वे उत्तम पतिव्रता देवी थीं । पाषाण की मूर्ति में दृढ़ भक्ति करने से वहाँ से मनोवांछित फल मिलता है तो पति में तो साक्षात् परमात्मसत्ता है । उसके दोष या ऐब न देखकर उसमें परमात्म-सत्ता को देख के सेवा करने का सद्गुण – यह एक बड़ा भारी सद्गुण है, अपने-आपमें बहुत ऊँची बात है ।

सातवाँ सद्गुण था दृढ़ता । रावण जब सीता जी को रिझाने-समझाने आता है तो सीता जी तिनका रख देती हैं । फिर महीनों भर सीता जी रहीं, रावण तिनके की रेखा से आगे नहीं आया ।

आठवाँ सद्गुण है साहस । सीता जी जब अशोक वाटिका में रहती थीं तब राक्षस-राक्षसियाँ रावण के कहने से उन्हें डराने आते थे लेकिन सीता जी डरती नहीं थीं । अंदर से हँसती थीं कि ‘ये सब माया के खिलौने हैं, आत्मा अमर है । ये सब मन के डरावने खेल हैं । मैं क्यों डरूँ ?’

सीता जी में  नौवाँ सद्गुण था मंगल गान । सीता जी ने कष्ट, प्रतिकूलताएँ सब कुछ सहा फिर भी कभी राम जी के प्रति फरियाद नहीं की । सदा उनका यश ही गाती रहीं ।

नारी का दसवाँ सद्गुण है कार्य-कुशलता । सीता जी टूटे मन से नहीं, सब कार्य मनोयोग से करतीं, पूरी सावधानी, उत्साह और कुशलता से करतीं । उनको न कर्मफल के भोग की कामना थी और न उनके जीवन में लापरवाही व पलायनवादिता थी ।

जद्यपि गृहँ सेवक सेवकिनी । बिपुल लदा सेवा बिधि गुनी ।।

निज कर गृह परिचरजा करई । रामचंद्र आयसु अनुसरई ।।

‘यद्यपि घऱ में बहुत से (अपार) दास और दासियाँ हैं और वे सभी सेवा की विधि में कुशल हैं तथापि (स्वामी की सेवा का महत्त्व जानने वाली) श्री सीता जी घर की सब सेवा अपने ही हाथों से करती हैं और रामचन्द्र जी की आज्ञा का अनुसरण करती हैं ।’ (श्री रामचरित. उ.कां.23.3)

ग्यारहवाँ सद्गुण है – पति के प्रति प्रेमभाव, अनुराग । सीता जी राम जी को प्रेमस्वरूप, ब्रह्मस्वरूप जानती थीं । सीता जी राम के चिंतन में राममय हो गयीं । अशोक वाटिका में सीता जी नज़रकैद थीं । रावण ने उनको प्रलोभन दिये, डरा के, छल-कपट, धोखे से गुमराह करने की कोशिश की फिर भी राम जी के प्रति असीम अनुराग के कारण सीता जी का मन एक क्षण भी फिसला नहीं ।

बारहवाँ सद्गुण है – मीठे, नम्र वचन । सीता जी सब कुटुम्बियों के साथ प्रेमपूर्वक बर्ताव करती थीं, खिन्न हो के नहीं । ‘जाओ, कर लो… मेरा सिर खपा दिया…. ‘नहीं, नहीं ! सीता के देश की देवियों को यह बात शोभा नहीं देती है । ‘अरे छोरे ! मर जाओ !…. अरे मैं तो हैरान हो गयी, परेशान हो गयी !….’ ऐसी वाणी का दुर्गुण भारत की देवियाँ क्यों अपने जीवन में लायेंगी ? माँ सीता की नाईं प्रेमपूर्वक बर्ताव करने का सद्गुण अपने में लाना चाहिए । सीता जी सास-ससुर की सेवा स्नेह से करती थीं । जिन्होंने पति को जन्म दिया है वे पति के माता-पिता भी सीता जी की सेवा से बड़े संतुष्ट रहते थे, प्रसन्न रहते थे ।

आज लोग ‘सीताराम-सीताराम’ करते हैं । ‘सीताराम’ करके राम जी के गुण पुरुष भरें अपने में और ‘सीता’ का उच्चारण करके सीता जी के सद्गुण भारत की नारियाँ भरें अपने में तो आज भी घर-घर में सीता-राम, सीता-राम, सीता-राम प्रत्यक्ष होने लगेंगे ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2019, पृष्ठ संख्या 21,22 अंक 316

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सफल व महान बनने की कुंजीः संयम


हे नौजवानो ! जीवन की नींव है संयम-सदाचार । संयम नहीं तो फिर अच्छे विद्यार्थी, अच्छे नागरिक भी नहीं बन सकते । संयम से एकाग्रता आदि सद्गुण विकसित होते हैं । संयम ही सफलता की सीढ़ी है । भगवान को पाना हो, सिद्धि-प्रसिद्धि पाना हो, कुछ कर दिखाना हो – सभी में इसकी आवश्यकता है । यह सबका मूल है । मनःशक्ति एवं स्मरणशक्ति की, महान बनने की महान कुंजी संयम ही है । इसमें अदभुत सामर्थ्य है । इसके बल से तुम संसार के सभी कार्य सफलतापूर्वक कर सकते हो । जितने भी महापुरुष इस दुनिया में हैं या हो चुके हैं, उनका जीवन संयमपूर्ण रहा है ।

आज हमारी युवा पीढ़ी को षड्यंत्रकारी झकझोर रहे हैं । हमारी स्वर्णिम संस्कृति को वे अत्याचारी नष्ट करना चाहते हैं । वे देश के भावी कर्णधारों को भटका रहे हैं । उन्हें मादक द्रव्य, अश्लील साहित्य, विदेशी चैनलों व गंदी फिल्मों के माध्यम से असंयमी, कुसंगी व दुर्व्यसनी बना रहे हैं ताकि देश की रीढ़ की हड्ड़ी टूट जाय । वे नवयुवकों को पथभ्रष्ट करके हमारी सच्चरित्रता-प्रधान संस्कृति पर कुठाराघात करके उसे भी कलंकित कर डालना चाहते हैं ताकि वे एक बार फिर हमारे ऊपर शासन कर सकें, देश व समाज के ऊपर अत्याचार कर सकें । आज हर युवा को ऐसा संकल्प करना चाहिए कि ‘हम विदेशी ताकों की इस गंदी, अनैतिक व अमानवीय कुचाल को कभी सफल नहीं होने देंगे । अपना जीवन संतों व शास्त्रों के अनुरूप बनायेंगे ।’

हे विद्यार्थियो ! हे वीरो ! याद करो अपनी उस वैदिक परम्परा को, उस गौरवमय अतीत को, नैतिक आध्यात्मिक वैभव को और अपने चरित्र व संयमनिष्ठा से विफल कर दो इन मलिन उद्देश्य रखने वालों के दुःस्वप्न को । मानसिक परतंत्रता की बेड़ियों को तोड़ दो, विदेशी चैनलों, सिनेमा और गंदे साहित्य से दूर रहो । अपनी गौरवमयी भारतीय संस्कृति के उच्च आदर्शों को अपना के संयमी, सदाचारी व चरित्रवान बन अपने देश की खोयी हुई गरिम को एक बार फिर से स्थापित कर दो । आलस्य-प्रमाद से रहित, स्फूर्तिदायक संयम, नियम, ब्रह्मचर्य आदि से ओतप्रोत हो शांतिमय जीवन बनाओ ।

हे विद्यार्थी ! तू निष्कामता, प्रसन्नता, असंगता की महक फैलाता जा । असंयम, निर्लज्जता, अश्लीलता, पाश्चात्य अंधानुकरण को छोड़कर संयम, सदाचार व सेवा के ऊँचे मानवीय आदर्शों को अपना के अपनी संस्कृति की मधुर रसमयी सुवास को विश्वभर में महका । सभी युवक-युवतियाँ तेजस्वी हों, संयम-ब्रह्मचर्य की महिमा समझें ।

तुम्हारे भीतर असीम सामर्थ्य का भंडार छुपा पड़ा है । बस, आत्मज्ञानी महापुरुषों के सत्संग व सत्साहित्य से, उनकी करूणा-कृपा से संयम का पाठ पढ़ लो, फिर देखो तुम्हारा जीवन कैसा चमकता है !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2019, पृष्ठ संख्या 20 अंक 316

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ऐसा जन्मदिवस मनाना परम कल्याणकारी है !


(पूज्य बापू जी का 83वाँ अवतरण दिवसः 25 अप्रैल 2019)

जन्मदिवस बधाई हो ! पृथ्वी सुखदायी हो, जल सुखदायी हो, तेज सुखदायी हो, वायु सुखदायी हो, आकाश सुखदायी हो… जन्मदिवस बधाई हो… इस प्रकार जन्मदिवस जो लोग मानते मनवाते हैं, बहुत अच्छा है, ठीक है लेकिन उससे थोड़ा और भी आगे जाने की नितांत आवश्यकता है ।

जन्मोत्सव मनायें लेकिन विवेकपूर्ण मनाने से बहुत फायदा होता है । विवेक में अगर वैराग्य मिला दिया जाय तो और विशेष फायदा होता है । विवेक-वैराग्य के साथ यदि भगवान के जन्म-कर्म को जानने वाली गति-मति हो जाय तो परम कल्याण समझो ।

कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ।। (गीताः 13.21)

ऊँच और नीच योनियों में जीवात्मा के जन्म लेने का कारण है गुणों का संग । हम जीवन में कई बार जन्मते रहते हैं । शिशु जन्मा, शिशु की मौत हुई तो बालकपन आया । बालक मरा तो किशोर का जन्म हुआ । किशोर मरा तो युवक का जन्म हुआ ।… ‘मैं सुखी हूँ’… ऐसा माना तो आपका सुखमय जन्म हुआ, ‘मैं दुःखी हूँ’ माना तो उस समय आपका दुःखमय जन्म हुआ । तो इन गुणों के साथ संग करने से ऊँच-नीच योनियों में जीव भटकता है । स्थूल शरीर को पता नहीं कि ‘मेरा जन्म होता है’ और आत्मा का जन्म होता नहीं । बीच में है सूक्ष्म शरीर और वह जिस भाव में होता है उसी भाव का जन्म माना जाता है ।

भगवान श्रीकृष्ण इन सारे जन्मों से हटाकर हमें दिव्य जन्म की ओर ले जाना चाहते हैं । वे कहते हैं-

जन्म कर्म च में दिव्यमेवं यो वेति तत्त्वतः ।

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ।। (गीताः 4.9)

भगवान में अगर जन्म और कर्म मानें तो भगवान का भगवत्पना सिद्ध नहीं होता । भगवान को भी जन्म लेना पड़े और कर्म करना पड़े तो भगवान किस बात के ? अगर भगवान में जन्म और कर्म नहीं मानते हैं तो भगवान में आना-जाना, उपदेश देना, युद्ध करना, संधिदूत बनना अथवा ‘हाय सीते ! हाय लक्ष्मण !!….’ करना – ये क्रिया व दर्शन जो हो रहे हैं वे सम्भव नहीं हैं ।

वेदांत-सिद्धांत के अनुसार इसको बोलते हैं विलक्षण लक्षण । इसमें भगवान में जो लक्षण जीव के लक्षणों से मेल न खायें और ईश्वर (ब्रह्म) के लक्षणों से मेल न खायें फिर भी दोनों दिखें उनको बोलते हैं विलक्षण लक्षण, अनिर्वचनीय । भगवान का जन्म और कर्म दिव्य कैसे ? बोले अनिर्वचनीय है इसलिए दिव्य है । ईश्वर में न जन्म कर्म है, न जीवत्व के बंधन और वासना है इसलिए भगवान के जन्म और कर्म दिव्य मानने-जानने से आपको भी लगेगा कि कर्म पंचभौतिक शरीर से होते हैं, मन की मान्यता से होते हैं, उनको जानने वाला ज्ञान जन्म और कर्म से विलक्षण है, मैं वह ज्ञानस्वरूप हूँ ।

तो कर्म बंधन से छूट जाओगे

शरीर को मैं मानना और शरीर की अवस्था को ‘मेरी’ मानना यह जन्म है । हाथ-पैर आदि इन्द्रियों से क्रिया होती है और उसमें कर्तृत्व मानना कर्म है लेकिन ‘कर रहे हैं हाथ पैर और मैं इनको सत्ता देने वाला शाश्वत चैतन्य हूँ’ – इस प्रकार जानने से अपना कर्म जन्म दिव्य हो जाता है ।

….तो महापुरुषों का जन्मोत्सव मनाना । उससे महापुरुषों को तो कोई फायदा-नुकसान का सवाल नहीं है लेकिन मनाने वाले भक्तों-जिज्ञासुओं को फायदा होता है कि उस निमित्त उन्हें अपने जन्म-कर्म बंधन से छूटना सरल हो जाता है ।

अष्टावक्र मुनि ने कहाः

अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा ।…. (अष्टावक्र गीताः 18.51)

जब जिज्ञासु अपने आपको (अपने स्व स्वरूप को) अकर्ता और अभोक्ता निश्चय कर लेता है उसी समय वह कर्म बंधन से छूट जाता है । शुभ कर्म करे लेकिन उसका कर्ता अपने को न माने, प्रकृति ने किया और परमात्मा की सत्ता से हुआ । अशुभ कर्म से बचे और कभी गलती से हो गया हो तो उसके कर्तापन मं न उलझे और फिर-फिर से न करे । हृदयपूर्वक उसका त्याग कर दे तो प्रायश्चित्त हो गया । शुभ-अशुभ में, सुख-दुःख में, पुण्य-पाप में अपने को न उलझाये, अपने ज्ञानस्वरूप में जग जाय तो उस जिज्ञासु को अपने जन्म-कर्म कि दिव्यता का रहस्य समझ में आ जाता है ।

इससे जगती परम शांति की प्यास

सत्पुरुषों की जयंती मनाने से भावनाएँ शुद्ध होती हैं, विचार शुद्ध होते हैं, उमंगे सात्त्विक होती हैं और अगर आप हलकी वृत्ति से, हलके विचारों से और हलके आचरणों से समझौता नहीं करते हैं तो आपका भी जागरण हो जाता है अपने चैतन्यस्वरूप में, चित्त में अपने शुद्ध स्वरूप का प्राकट्य हो जाता है ।

जब व्यक्ति बेईमानी, भोग-संग्रह और दुर्वासनाओं को सहयोग करता है तो उसका अवतरण नहीं होता, वह साधारण जीव-कोटि में भटकता है । आत्मबल बढ़ाने में वे ही लोग सफल होते हैं जो हलकी आशाओं, इच्छाओं व हलके संग से समझौता नहीं करते हैं । ऐसे पुरुषों का आत्मबल विकसित होता है और वह आत्मबल सदाचार के रास्ते चलते-चलते चित्त में परम शांति की प्यास जगाता है ।

वैदिक संस्कृति में प्रार्थना हैः

दुर्जनः सज्जनो भूयात्…. दुर्वासनाओं के कारण व्यक्ति दुर्जन हो जाता है । दुर्वासनाओं व दुर्व्यवहार के साथ समझौता नहीं करे तो सज्जनता आ जायेगी । सज्जनः शान्तिमाप्नुयात् । सज्जन को शांति प्राप्त होती है, सज्जन शांति प्राप्त करे । शान्तो मुच्येत बन्धेभ्यो…  शांत बंधनों से मुक्त होते हैं । मुक्तश्चान्यान् विमोचयेत् ।। मुक्त पुरुष औरों को मुक्ति के मार्ग पर ले जायें ।

शांति पाने से दुर्वासनाएँ निवृत्त होती हैं, सद्वासनाओं को बल मिलता है, ‘सत्’ स्वरूप को पाने की तीव्रता जगती है । फिर पहुँच जायेंगे आत्मसाक्षात्कारी महापुरुष की शरण में… जिनके अंतःकरण में सत्य का अवतरण हुआ है । उन्हें अवतारी पुरुष कहो, ब्रह्मवेत्ता कहो – ऐसे महापुरुष के सत्संग-सान्निध्य में आने से हमारा चित्त, हमारी दृष्टि, हमारे विचार पावन होने लगते हैं… उनकी कृपा से हमारी परम शांति की प्यास शांत होने लगती है और आगे चलकर मोक्ष की प्राप्ति भी हो जाती है ।

बड़ी मुश्किल से यह मनुष्य देह मिली है तो अपनी मंजिल तय कर लो । अगर तय कर ली तो आप सत्पुरुष हैं और तय करने के रास्ते हैं तो आप साधक हैं और यदि आप तय नहीं कर रहे हैं तो आप देहधारी द्विपाद पशु की पंक्ति में गिने जाते हैं । जन्मोत्सव प्रेरणा देता है कि तुम पशु की पंक्ति से पार होकर सत्पुरुष की पंक्ति में चलो ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2019, पृष्ठ संख्या 13, 22 अंक 316

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