साँईं श्री लीलाशाह जी की अमृतवाणी

साँईं श्री लीलाशाह जी की अमृतवाणी


हम क्या हैं और अपने को क्या समझते हैं ?

हम अनित्य पदार्थों को नित्य समझ बैठे हैं । यह हम भारी भूल कर रहे हैं । क्या यह शरीर हमारा है ? इस पर हमारा भरोसा कैसा ? इस पर इतना गर्व क्यों ? हम अनित्य पदार्थों की कितनी चिंता करते हैं । स्वयं क्या हैं यह हम सोचते ही नहीं । हम सेठ हैं लेकिन अपने को मोटर समझ बैठे हैं । हम मकान के स्वामी हैं परन्तु स्वयं को मकान मान बैठे हैं अर्थात् हम अजर-अमर आत्मा हैं किंतु अपने को यह शरीर समझ बैठे हैं ! कितनी विडम्बना है न ! जरा विचारो और विवेक जगाओ ।

दुःखस्वरूप संसार सुखरूप कैसे हो ?

सागर का पानी खारा होता है । वही पानी सूर्य के ताप के कारण भाप हो के ऊपर जाता है और बादलों का रूप ग्रहण करता है । फिर वही वर्षा होकर बरसता है । वह पानी खारा नहीं होता, मीठा होता है । सागर के पानी का खारापन सूर्य के ताप से निकल जाता है ।

इसी प्रकार यह संसार खारा अर्थात् दुःखरूप भासता है किंतु श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों के संग में रहकर सत्शास्त्रों का श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन करने से वह सुखरूप भासता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2019, पृष्ठ संख्या 13 अंक 317

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