Monthly Archives: May 2019

जो कछु किया सो हरि किया, भया कबीर कबीर….


(पूज्य बापू जी के सत्संग से)

(संत कबीरजी जयंतीः 17 जून 2019)

संत कबीर जी सार सत्य कहते थे, इससे उनकी प्रसिद्धि बढ़ने लगी । एक बार कुछ लोगों ने सोचा कि ‘इनकी बेइज्जती हो, ऐसा कुछ करें ।’ धर्म के कुछ ठेकेदारों ने लोगों में फैला दिया कि ‘संत कबीर जी के यहाँ भँडारा है ।’ काशी तो साधु-संत, ब्राह्मणों की नगरी है । साधुओं की भीड़ शुरू हो गयी । कबीर जी ने पूछाः “इतने सारे संत ?….”

बोलेः “आपके यहाँ भँडारा है – ऐसा प्रचार हुआ है इसलिए साधु आये हैं ।”

कबीर जी समझ गये कि किसी की शरारत है ।  परंतु ‘साधु आये हैं, घर में आटा दाल नहीं है, कर्ज पर मिलता नहीं है, फिर भी मुझे कुछ तो करना चाहिए ।’ ऐसा विचार करके पत्नी लोई और पुत्र कमाल को आगंतुकों के बैठने की व्यवस्था करने के लिए कहा । फिर आसपास के पंडाल लगाने वालों को कह गये कि “साधु आयेंगे, छाया तो करो, पंगत लगेगी तब लगेगी ।”

कबीर जी जुगाड़ करने गये सीधे-सामान का पर कुछ हुआ नहीं । वे चले गये जंगल में । ‘जिन्होंने बदनामी की योजना  बनायी है उनको सत्ता देने वाला तू और जो भंडारा खाने को आये उनको सत्ता देने वाला भी तू, मैं कर्जा लेने गया था तो ‘ना’ बोलने वाले को सत्ता देने वाला भी तू… तेरी मर्जी पूरण हो ! अब तू ही बता मैं क्या करूँ ?….’ ऐसे करते-करते वे परमात्मा में शांत हो गये, व्यथित नहीं हुए । भोजन का समय हुआ ।

कर्तुं शक्य अकर्तुं शक्यं अन्यथा कर्तुं शक्यम् ।

परमात्मा करने में, न करने में और अन्यथा करने में भी समर्थ है ।

वह हृदयेश्वर जो अपने हृदय में है, वही सभी के हृदय में है और प्रकृति की गहराई में भी है । जैसे सत्ता देकर यह तुम्हारे शरीर को चलाता है, वैसे ही सूरज, चंदा, पक्षियों में सत्ता उसी की है । उसको इतने-इतने जीव बनाने में कोई बंधन नहीं, कोई रोक-टोक नहीं तो एक कबीर का रूप बनाने में उसको क्या देर लगती है !

कबीर जी का रूप बनाकर वह गया और बैठे हुए लोगों को बोलाः “आज सीधा-सामान आये ऐसा नहीं है । सारे भोजनालयों का जो भोजन था, मिष्ठान्न था, मँगवा लिया है ।”

सबने भोजन किया । अब असली कबीर तो वहाँ बैठे हैं और महा असली कबीर (परमात्मा) लोई के पास गये, बोलेः “तुम भी खा लो ।”

लोईः “आप भोजन करिये नाथ ! आप खाओगे तभी मैं खाऊँगी । मैं तो पतिव्रता हूँ ।”

कबीर जी ने थोड़ा खाया और फिर बोलेः “तुम भोजन कर लो, मैं जरा भोजनालय वालों को पैसे दे आता हूँ ।”

लोई ने देखा कि ‘इतने लोगों को खिलाया तब भी भोजन खूटा नहीं, सब सामग्रियाँ पड़ी हैं । आज तो नाथ ने चमत्कार दिखा दिया । वैसे तो उधार गेहूँ भी नहीं मिलता था और आज इतना सारा दिया है, अब कैसे चुकायेंगे ?’

जो कबीर बन के आये थे वे तो लोई से विदा ले के चले गये । उधर कबीर जी को हुआ कि ‘ढाई तीन बज गये । अब जायें, देखें कि साधु-संतों ने खाया कि नहीं ? गालियाँ देते हैं, क्या करते हैं ? सुन लूँगा ।’ उन्होंने चदरिया ओढ़ ली थी, जिससे कोई पहचाने नहीं ।

वे अपने घर की ओर आये तो देखा कि रास्ते में लोग आपस में कह रहे हैं- ‘वाह भाई ! बोलते हैं कि संत कबीर कंगाल है पर कैसा भंडारा था ! ऊपर से 4-4 लड्डू दोने में !’

कोई बोलेः ‘अरे मेरे को मालपुए मिले ।’

कोई बोलेः ‘मेरे को दक्षिणा मिली । जय कबीर !…. वाह कबीर !….

कबीर जी सीधे लोई के पास आये । पूछा  कि “क्या हुआ ? मुझे तो बड़ी भूख लगी है ।….”

“गजब करते हो आप ! अभी तो मेरे को कहा कि “हम पैसे चुकाने जाते हैं ।” मैंने आग्रह किया तो आपने मेरे सामने थोड़ा-सा खाया और डकार दी । इतने भूखे कैसे ? लीजिये, खा लीजिये ।”

“मैं तो अभी-अभी आया हूँ !”

“आप तो पैसे देने गये थे न ? और पतिदेव ! इतना सारा सामान उधार कैसे मिला और पैसे कहाँ से चुका के आये ?”

“उधार सामान ?”

“यह भंडारा हुआ और आपने ही सबको खिलाया ।”

“मैं तो जंगल में बैठा था, मैंने उसको बोला कि ‘तेरी मर्जी पूरण हो !’ यह सारा उसी का खेल है, वही दूसरा कबीर बन के आया था पगली !”

कबीर जी ने साखी बनायीः

ना कछु किया न कर सका….

मेरे पास कुछ था नहीं और कर भी नहीं सकता था ।

न करने योग्य शरीर ।

इस उम्र में यह शरीर इतना बड़ा भंड़ारा कर सके, इतने लोगों को परोस सके वह भी ताकत नहीं थी ।

जो कछु किया सो हरि किया, भया कबीर कबीर ।।

जो कुछ भी किया, हरि ने किया और हो रहा है कि ‘कबीर ने भंडारा किया, कबीर ने भंडारा किया….।’ कैसा है वह प्रभु ! प्रभु ! तेरी जय हो !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2019, पृष्ठ संख्या 24, 25 अंक 317

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हे मनुष्य ! तू ईश्वरीय वचन को स्वीकार कर


अपक्रामन् पौरूषेयाद् वृणानो दैव्यं वचः ।

प्रणीतीरभ्यावर्तस्व विश्वेभिः सखिभिः सह ।।

‘हे मनुष्य ! पुरुषों की, मनुष्यकृत बातों से हटता हुआ देव-संबंधी, ईश्वरीय वचन को श्रेष्ठ मान के स्वीकार करता हुआ तू इन दैवी उत्तम नीतियों का, सुशिक्षाओं का अपने सब साथी मित्रों सहित सब प्रकार से आचरण कर ।’ (अथर्ववेदः कोड 7 सूक्त 105, मंत्र 1)

सामान्य मनुष्य दिन का काफी समय क्या सुनता है ? दुनियावी खबरें, जगत की वस्तुओं की प्रशंसा या घटनाओं के वर्णन, दूसरों की निंदा-स्तुति की बातें, मिथ्या जगत में सत्यबुद्धि बढ़ाने वाली बातें, मनोरंजन की बातें आदि-आदि ।

ब्रह्मवेत्ता संत श्रीमद् आद्य शंकराचार्य जी के चित्त में जब यह प्रश्न उठा कि ‘श्राव्यं सदा किम् ? अर्थात् सदा सुनने योग्य क्या है ?’ तब उन्होंने अपने आत्मा की गहराई में गोता लगाया और उन्हें उत्तर मिला ‘गुरुवेदवाक्यम्’ अर्थात् सद्गुरु और वेद के वचन । ये सदा सुनने योग्य क्यों कहे गये हैं ? इसे जानने के लिए हम भी थोड़ा गहराई में जाँचें ।

चार प्रकार के प्रमाण

प्रमाकरणं प्रमाणम् । ‘प्रमा’ पाने सत्य ज्ञान और ‘करण’ याने साधन । सत्य ज्ञान की प्राप्ति के  साधन ‘प्रमाण’ कहलाते हैं । न्यायसूत्र (1.1.3) के अनुसार ये चार प्रकार के हैं – प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द प्रमाण ।

जो इन्द्रियों के सम्मुख है वह प्रत्यक्ष प्रमाण है । जिसके द्वारा अऩुमान करके किसी दूसरी वस्तु का ज्ञान पाया जाता है वह अनुमान प्रमाण है । किसी जानी हुई वस्तु की समरूपता से न जानी हुई वस्तु का ज्ञान जिस प्रमाण से होता है वह उपमान प्रमाण है । चौथा है शब्द प्रमाण ।

क्या है ‘शब्द प्रमाण’ ?

शब्द प्रमाण में एक तो आते हैं वेद-वचन और दूसरे हैं आप्तपुरुषों के वचन ।

‘न्याय दर्शन’ के प्रणेता महर्षि गौतम ने न्यायसूत्र (1.1.7) में  ‘शब्द प्रमाण किसे कहते हैं यह स्पष्ट करते हुए लिखा है कि ‘आप्तोपदेशः शब्दः ।’ अर्थात् आप्तपुरुष का वाक्य शास्त्र प्रमाण है । जिन्होंने स्वयं का, वेदनिर्दिष्ट अपने ब्रह्मस्वरूप का अनुभव किया हो ऐसे महापुरुष के वचन परम विश्वसनीय होते हैं और वे ब्रह्मवेत्ता महापुरुष ‘आप्तपुरुष’ कहे जाते हैं । आप्तपुरुष ही वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानते हैं । इसलिए उनके उपदेश को ‘शब्द प्रमाण’ कहा गया है । उपदेश में कल्याण का भाव निहित होता है । आप्तपुरुष सबका मंगल, सबका भला हो इस मंगल भाव से भरकर सबको सच्चा ज्ञान देते हैं, कल्याण का मार्ग दिखाते हैं, उस पर चलने की प्रेरणा, शक्ति देते हैं ।

वेदों, उपनिषदों के ज्ञान का अपने आत्मरूप में अनुभव करके लोगों को समझाने की शक्ति, भाषा-शैली व युग के अनुरूप दृष्टांतों आदि के माध्यम से जब वही अपौरूषेय वैदिक ज्ञान वेदांतवेत्ता, ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों के श्रीमुख से वचनों के रूप प्रवाहित होता है तब वे वचन भी शब्द प्रमाण माने जाते हैं और उन वचनों से ब्रह्मप्राप्ति होती है । ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों का जीवन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है । श्री योगवासिष्ठ महारामायण, ब्रह्मसूत्र, श्रीमद्भगवदगीता, विचारसागर तथा और भी जो वेदांत के सद्ग्रंथ हैं, पूज्य बापू जी जैसे वेदांतवेत्ता आत्मानुभवी महापुरुष के जो अमृतवचन हैं, जिन्हें ‘ऋषि दर्शन’, ‘ऋषि प्रसाद’, ‘लोक कल्याण सेतु’ एवं सत्साहित्य, डी.वी.डी., एम. पी. थ्री आदि के माध्यम से घर पर बैठे समाज प्राप्त कर रहा है वे भी शब्द प्रमाण है । सत्संग-अमृत के साथ इन आप्तपुरुष के प्रत्यक्ष सान्निध्य-दर्शन का भी लाभ मिले तो व्यक्ति, परिवार और समाज का कितना कल्याण होता है और हो सकता है यह असंख्य लोगों ने देखा है, जानते-मानते हैं ।

मानवी मति माया-अंतर्गत होने से सीमित है अतः उससे जो बातें उपजती हैं वे भी सीमित, काल्पनिक और सांसारिक व्यक्ति वस्तु-परिस्थितियों से संबंधित होती हैं । किंतु ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों के वचन मति से नहीं बल्कि ऋतम्भरा प्रज्ञा से प्रस्फुटित होते हैं । मति जब यह अनुभव कर लेती है कि उसका ‘मति’ रूप काल्पनिक है, वास्तव में अखंड, अद्वैत, एकरस परमात्मा ही है, अन्य कुछ नहीं है तब वह ‘ऋत’ माने सत्य से ओतप्रोत प्रज्ञा (मति) ‘ऋतम्भरा प्रज्ञा’ कहलाती है । अतः उससे स्फुरित विचार या शब्द जब महापुरुषों के श्रीमुख से प्रवाहित होते हैं तब वे ‘शब्दब्रह्म’ कहलाते हैं एवं अपौरूषेय वेद-वाणी, ईश्वरीय वचन के रूप में विश्वपूजित होते हैं तथा उनका आदरपूर्वक श्रवण-मनन करके आत्मकल्याण किया जाता है ।

संत तुकाराम जी कहते हैं- “तुका तरी सहज बोले वाणी । त्याचें घरीं वेदांत वाहे पाणी ।।

अर्थात् तुकाराम वाणी से सहज वचन बोलते हैं, वेदांत उनके घर पानी भरता है ।” तात्पर्य ,ब्रह्मवेत्ता महापुरुष द्वारा सहज में निकली हुई वाणी भी वेदांत के रहस्यों का उद्घाटन करती है ।

ब्रह्मवेत्ता संत निलोबाजी कहते हैं- “संतों के श्रीमुख से निकलने वाले सहज वचन भी वेद वचन ही होते हैं क्योंकि वे अखंडरूप से वेदों का ही चिंतन करते हैं, जिससे उनके मुख से वेद ही बहते हैं ।”

सद्गुरु की आवश्यकता क्यों ?

अपौरूषेय वेद-ज्ञान गूढ़ और समझने में कठिन है । ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु के मार्गदर्शन बिना अपने ही मन से कोई वेदों, उपनिषदों का अध्ययन करके उनका अर्थ समझने की कोशिश करे तो उसे अपनी कल्पना, अपनी मति के अनुरूप थोड़ी-बहुत समझ मिल सकती है, थोड़ा-बहुत सुख-शांति का आभास हो सकता है प उन सद्ग्रंथों के वचनों का जो लक्ष्यार्थ है, जहाँ वे वचन दिशा-निर्देश करके अपने-आपको भी हटा लेते हैं अर्थात् उस आत्मा-परमात्मा को वाणी या शब्दों से परे ‘वर्णनातीत’ बता देते हैं, वह जो लक्षित आत्मस्वरूप है उसे तो उस निःशब्द स्वरूप के अनुभवी महापुरुषों के बिना जाना ही कैसे जा सकता है ?

स्वामी शिवानंद जी द्वारा विरचित ‘गुरुभक्तियोग’ सत्शास्त्र में स्पष्ट शब्दों में कहा गया हैः ‘साधक कितना भी बुद्धिमान हो फिर भी सद्गुरु अथवा आध्यात्मिक आचार्य की सहाय के बिना वेदों की गहनता प्राप्त करना या उनका अभ्यास करना उसके लिए सम्भव नहीं है ।’

इसलिए वेदों को सागर की तरह बताया गया है और ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों को मेघ की तरह । सागर का पानी सीधे न तो पीने के काम आता है और न ही उससे भोजन बनाया जा सकता है लेकिन जैसे सागर के पानी को सूर्य की किरणें उठाती हैं एवं वही पानी जब मेघ के रूप में बरसता है तो अमृत के समान मधुर हो जाता है । ऐसे ही वेदरूपी सागर से उपनिषदों का मधुर, सुपाच्य, सारभूत ज्ञानामृत ब्रह्मवेत्ता संत उठाते हैं और फिर जब सबका मंगल, सबका भला हो इस कारूण्यभाव से भरकर बरसाते हैं तो हमारे लिए वह सत्संग-अमृत बन जाता है ।

श्री गुरुग्रंथ साहिब में आता हैः

वाणी गुरु गुरु है वाणी, विचि1 वाणी अंम्रितु2 सारे ।

1 भीतर 2 अमृत

पूज्य बापू जी के सत्संग में आता हैः “वेद पढ़ने से किसी को आत्मसाक्षात्कार हो जाय, इसका कोई भरोसा नहीं है किंतु ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु के वचनों से आत्मसाक्षात्कार कइयों के जीवन में हुआ है ।”

संत कबीर जी ने कहा हैः

गुरु बिन ज्ञान न उपजे, गुरु बिन मिटे न भेद ।

गुरु बिन संशय ना मिटे, जय जय जय गुरुदेव ।।

श्रेष्ठ सुनीति, सुशिक्षा हैं ये वचन

श्रोत्रिय ब्रह्मवेत्ता महापुरुष या सद्गुरु के आत्मानुभव-सम्पन्न वचन श्रेष्ठ सुनीति, सुशिक्षा हैं और वे वचन हमें दुःख, बाधा, अशांति, कष्ट, उद्वेग आदि से परे ले जाकर अपने अखंडस्वरूप परमात्मदेव का प्रसाद हमारे हृदय में प्रकटाने की क्षमता रखते हैं । अतः अपने मित्रों, साथियों सहित स्वयं उन्हीं वचनों को सर्व प्रकार से स्वीकार कर आचरण में लाने की शिक्षा वेद भगवान दे रहे हैं । मनुष्यकृत वचन जगत की सत्यता बढ़ाते हैं जबकि सद्गुरु के मुख से प्रवाहित वैदिक ज्ञान-गंगा जगत की सत्यता को मिटा के आत्मा-परमात्मा की सत्यता हमारे हृदय में दृढ़ करती है । ईश्वर की सत्यता माने अपने अमिट आनंदस्वरूप की सत्यता, अपने वास्तविक मैं की सत्यता । सद्गुरुवचन के श्रवण, मनन और निदिध्यासन मात्र से अपने-आप में ही आनंद और सुख-शांति की प्राप्ति होती है यह अनेक साधकों और वेदांत के जिज्ञासुओं का अनुभव है । अतः वेद भगवान के ये वचन बड़ा ज्ञानांजन प्रदान करने वाले हैं ।

अपौरूषेय वेद-ज्ञान को हर व्यक्ति को नहीं समझ सकता लेकिन गुरुसेवा, गुरु-शरणागति और गुरु की एकनिष्ठ भक्ति की ऐसी भारी महिमा है कि इनके द्वारा सत्यकाम जाबाल, तोटकाचार्य, पूरणपोड़ा, शबरी भीलन, बहिणाबाई जैसे अशिक्षित शिष्य, भक्त भी भगवद्-तत्त्व का साक्षात्कार कर पार हुए हैं । इसलिए भगवान शिवजी ने कहा हैः

ज्ञानं विना मुक्तिपदं लभ्यते गुरुभक्तितः ।

गुरोः समानतो नान्यत् साधनं गुरुमार्गिणाम् ।।

‘गुरुदेव के प्रति (अनन्य) भक्ति से ज्ञान के बिना भी मोक्षपद मिलता है । गुरु के मार्ग पर चलने वालों के लिए गुरुदेव के समान अन्य कोई साधन नहीं है ।’ इसलिए गुरुभक्तियोग को ‘सलामत योग’ भी कहा गया है ।

आज प्रचार-प्रसार के आधुनिक साधन तो बहुत हो गये किंतु इनसे जगत की सत्यता बढ़ाने वाली बातों का ही प्रचार अधिक बढ़ा है । साधन बुरे नहीं हैं लेकिन उनका दुरुपयोग होना बुरा है । अतः बड़ा उपकार है पूज्य बापू जी जैसे वेदांतवेत्ता, ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों का, जिन्होंने इन्हीं आधुनिक साधनों का सदुपयोग करके विश्वभर में वेदांत-ज्ञान, ब्रह्मज्ञान का प्रचार कराया है और धनभागी हैं वे शिष्य, भक्त एवं सज्जन, जो इस दिव्य ज्ञान को व्यापक समाज तक पहुँचाने के दैवी कार्य में सहभागी बनते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2019, पृष्ठ संख्या 2, 28,29 अंक 317

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महापुरुष देते अजब युक्तियाँ


(गुरु अर्जुन देव शहीदी दिवसः 7 जून 2019)

एक दिन मंगलसेन नाम का एक व्यक्ति अपनी मंडली के साथ गुरु अर्जुनदेव जी के दरबार में आया । उसने प्रार्थना कीः “गुरु महाराज ! कोई ऐसी युक्ति बताइये जिससे हमारा भी कल्याण हो जाय ।”

अर्जुनदेव जी बोलेः “जीवन में सत्य पर पहरा देना सीखो, कल्याण अवश्य ही होगा ।”

मंगलसेन बोलाः “मेरे लिए यह कार्य अत्यंत कठिन है ।”

“मंगलसेन ! तुम इसी जन्म में अपना कल्याण चाहते हो और उसके लिए कोई मूल्य भी चुकाना नहीं चाहते ! दोनों बातें एक साथ कैसे हो सकती हैं ?”

मंगलसेन के चेहरे पर गम्भीरता छा गयी, बोलाः “मैं आपके बताये सत्य के मार्ग पर चलना तो चाहता हूँ पर एकाएक जीवन में क्रांति लाना इतना सहज नहीं है क्योंकि अब तक हमारा स्वभाव परिपक्व हो चुका है कि हम झूठ बोले बिना नहीं रह सकते ।”

अर्जुनदेव जी ने उत्साहवर्धन करते हुए कहाः “धीरे-धीरे प्रयास करो । जहाँ चाह, वहाँ राह । परमात्मा की कृपा का सहारा लेकर लग जाओ तो ऐसा क्या है जो नहीं हो सकता ! केवल दृढ़ संकल्प करने की आवश्यकता है ।”

“गुरु महाराज ! इस कठिन कार्य में जब हम डगमगायें तो हमें सहारा देने वाला कोई प्रेरणास्रोत भी हो, ऐसी कुछ कृपा कीजिये ।”

अर्जुन देव जी ने एक सुंदर युक्ति बतायीः “एक कोरी लेखन-पुस्तिका सदैव अपने पास रखो, जब कभी किसी मजबूरीवश झूठ बोलना पड़े तो उस पूरे वृत्तांत को लिख लिया करो और सप्ताह बाद उसे सत्संगियों की सभा में सुना दिया करो । सभा कार्य की विवशता को ध्यान में रखकर क्षमा करती रहेगी ।”

उपरोक्त बात सुनने में जितनी सहज लगती थी, जीवन में अपनानी उतनी ही कठिन थी । मंगलसेन को अपने झूठ का विवरण सबके समक्ष रखना ग्लानिपूर्ण लगा । वह गरु आज्ञानुसार अपने पास एक लेखन-पुस्तिका रखने लगा किंतु जब भी कोई कार्य-व्यवहार होता तो बहुत सावधानी से कार्य करता ताकि झूठ बोलने की नौबत ही न आये ।

मंगलसेन जानता था कि सद्गुरु सर्वसमर्थ और सर्वज्ञ होते हैं इसलिए वह बड़ी सतर्कता से व्यवहार करता । सत्याचरण करने से वह धीरे-धीरे लोकप्रिय होने लगा । उसे सब ओर से मान-सम्मान भी मिलने लगा ।

ऐसी स्थिति में अहंकार अपने पैर पसाने लगता है परंतु मंगलसेन सावधान था । उसे अंतःप्रेरणा हुई कि ‘यह क्रांतिकारी परिवर्तन तो गुरुवचनों को आचरण में लाने का ही परिणाम है ।’

वह अपने सहयोगियों की मंडली के साथ पुनः गुरुदेव की शरण में पहुँच गया । अंतर्यामी गुरुदेव सब कुछ जानते हुए भी सत्संगियों को सीख देने के लिए अनजान होकर बोलेः “मंगलसेन ! वह झूठ लिखने वाली पुस्तिका लाओ ।”

मंगलसेन ने वह पुस्तिका गुरु जी के समक्ष रख दी । अर्जुनदेव जी पुस्तिका को देखकर बोलेः “यह तो कोरी की कोरी है ।”

तब मंगलसेन ने सब हाल कह सुनाया । गुरुदेव उस पर प्रसन्न होकर बोलेः “जो श्रद्धा-विश्वास के साथ गुरुवचनों के अनुसार आचरण करता है, उसके संग प्रभु स्वयं होते हैं, गुरु का अथाह सामर्थ्य उसके साथ होता है, उसे किसी भी कार्य में कोई कठिनाई आड़े नहीं आती ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2019, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 317

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