गुरुमंत्र के प्रभाव से एक ने पाया ऋषि पद ! – पूज्य बापू जी

गुरुमंत्र के प्रभाव से एक ने पाया ऋषि पद ! – पूज्य बापू जी


इतरा माता का पुत्र बालक ऐतरेय बाल्यकाल से ही जप करता था । वह न तो किसी की बात सुनता था, न स्वयं कुछ बोलता था । न अन्य बालकों की तरह खेलता ही था और न ही अध्ययन करता था ।

आखिर लोगों ने कहाः “यह तो मूर्ख है । कुछ बोलता ही नहीं है ।”

एक दिन माँ ने दुःखी होकर ऐतरेय से कहाः “माता-पिता तब प्रसन्न होते हैं जब उनकी संतान का यश होता है । तेरी तो निंदा हो रही है । संसार में उस नारी का जन्म निश्चय ही व्यर्थ है जो पति के द्वारा तिरस्कृत हो और जिसका पुत्र गुणवान न हो ।”

तब ऐतरेय हँस पड़ा और माता के चरणों में प्रणाम करके बोलाः “माँ ! तुम झूठे मोह में पड़ी हुई हो । अज्ञान को ही ज्ञान मान बैठी हो । निंदा और स्तुति संसार के लोग अपनी दृष्टि से करते हैं । निंदा करते हैं तो किसकी करते हैं ? जिसमें कुछ खड़ी हड्डियाँ हैं, कुछ आड़ी हड्डियाँ हैं और थोड़ा माँस है जो नाड़ियों से बँधा है, उस निंदनीय शरीर की निंदा करते हैं । इस निंदनीय शरीर की निंदा हो चाहे स्तुति, क्या अंतर पड़ता है ? मैं निंदनीय कर्म तो नहीं कर रहा, केवल जानबूझकर मैंने मूर्ख का स्वांग किया है ।

यह संसार स्वार्थ से भरा है । निःस्वार्थ तो केवल भगवान और भगवत्प्राप्त महापुरुष हैं । इसीलिए माँ ! मैं तो भगवान के नाम का जप कर रहा हूँ और मेरे हृदय में भगवत्शांति है, भगवत्सुख है । मेरी निंदा सुनकर तू दुःखी मत हो ।

माँ ! ऐसा कभी नहीं सोचना चाहिए जिससे मन में दुःख हो, बुद्धि में द्वेष हो और चित्त में संसार का आकर्षण हो । संसार का चिंतन करने से जीव बंधन में पड़ता है और चैतन्यस्वरूप परमात्मा का चिंतन करने से जीव मुक्त हो जाता है ।

वास्तव में मैं शरीर नहीं हूँ और माँ ! तुम भी यह शरीर नहीं हो । शरीर तो कई बार पैदा हुए और कई बार मर गये । शरीर को ‘मैं’ मानने से, शरीर के साथ संबंधित वस्तुओं को मेरा मानने से ही यह जीव बंधन में फँसता है । आत्मा को मैं मानने और परमात्मा को मेरा मानने से जीव मुक्त हो जाता है ।

माँ ! ऐसा चिंतन-मनन करके तू भी मुक्तात्मा हो जा । अपनी मान्यता बदल दे । संकीर्ण मान्यता के कारण ही जीव बंधन का शिकार होता है । अगर वह ऐसी मान्यता को छोड़ दे तो जीवात्मा परमात्मा का सनातन स्वरूप है है ।

माँ ! जीवन की शाम हो जाय उसके पहले जीवनदाता का ज्ञान पा ले । आँखों को देखने की शक्ति क्षीण हो जाय उसके पहले जिससे देखा जाता है उसे देखने का अभ्यास कर ले । कान बहरे हो जायें उसके पहले जिससे सुना जाता है उसमें शांत होती जा… यही जीवन का सार है माँ !”

इतरा ने देखा कि बेटा लगता तो मूर्ख जैसा है किंतु बड़े-बड़े तपस्वियों से भी ऊँचे अनुभव की बात करता है । माँ को बड़ा संतोष हुआ ।

ऐतरेय ने कहाः “माँ ! पूर्वजन्म में मुझे गुरुमंत्र मिला था । मैं निरंतर उसका जप करता था । उस जप के प्रभाव से ही मुझे पूर्वजन्म  की स्मृति हुई, भगवान के प्रति मेरे मन में भक्ति का उदय हुआ ।”

यही बालक आगे चलकर ऐतरेय ऋषि हुए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2019, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 318

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