भगवान की सीख मान के समय रहते चेत जायें

भगवान की सीख मान के समय रहते चेत जायें


ब्रह्मज्ञानी संतों के आदर पूजन, उनके सत्संग-सान्निध्य तथा शास्त्रोक्त आचरण से दीर्घायुष्य, आरोग्य, सुमति, सम्पदा, सुयश, मोक्ष – सब कुछ मिलता है तथा 7-7 पीढ़ियों की सद्गति होती है और संतों महापुरुषों की निंदा करने-कराने, भगवद्भक्तों से द्वेष रखने तथा धर्मविरूद्ध कार्य करने से सर्वनाश हो जाता है, इतिहास और हमारे शास्त्रों-पुराणों में ऐसे अनगिनत प्रसंग मिलते हैं ।

पुराणों में एक कथा आती है कि भगवान शिवजी माता पार्वती से कहते हैं- “एक ब्राह्मण प्रतिदिन मेरी पूजा व संत-सेवा आदि करता था । उस पुणय के प्रभाव से वह पिंडारपुर का राजा कुकर्दम बना । लेकिन बाद में राजपद के अहंकार से भरकर वह बड़ा ही मूढ़, गोहत्यारा व संत-निंदक बन गया । असमय उसकी मृत्यु हो गयी । संतों की निंदा के घोर पाप के कारण वह प्रेत बना । प्रतेयोनि में वह भूख प्यास से पीड़ित होकर केवल हवा पी के जीता था, जिससे वह करूण स्वर मं रोता और हाहाकार मचाता हुआ भटकता फिरता था ।”

श्रीरामचरितमानस (उ.कां. 120.12) में आता हैः

हर गुर निंदक दादुर होई । जन्म सहस्र पाव तन सोई ।।

द्विज निंदक बहु नरक भोग करि । जग जनमइ बायस सरीर धरि ।।

शिव और गुरु की निंदा करने वाला मनुष्य (अगले जन्म में) मेंढक होता है और वह हजार जन्म तक वही मेंढक का शरीर पाता है । ब्राह्मणों (ब्रह्मवेत्ताओं) की निंदा करने वाला व्यक्ति बहुत से नरक भोगकर फिर जगत में कौए का शरीर धारण करके जन्म लेता है ।

गुरु की उदारता

शिवजी आगे कहते हैं- “एक समय दैवयोग से वह प्रेत अपने गुरु (पूर्वजन्म के ब्राह्मण शरीर के गुरु) कहोड़ मुनि के आश्रम पर जा पहुँचा । उस प्रेत को देख के गुरु जी बोलेः “अरे ! तुम्हारी यह दशा कैसे हुई ?”

प्रेतः “गुरुदेव ! मैं वही पिंडारपुर का कुकर्दम राजा हूँ । ब्राह्मणों की हिंसा करना, साधु-संतों पर अत्याचार करना, प्रजा का उत्पीड़न करना, गौओं को दुःख देना, असत्य बोलना, सज्जन पुरुषों कलंक लगाना, भगवान और उनके भक्तों की निंदा करना – यही मेरा काम था । मैं दुराचारी और दुरात्मा था और उसी पापकर्म के कारण मैं प्रत बना हूँ । गुरुदेव ! यहाँ नाना प्रकार के दुःख सहने पड़ते हैं । अब आप ही मेरे माता-पिता एवं बंधु हैं, आप ही उत्तम गति हैं, कृपा करके मुझे मुक्त कर दीजिये ।”

परम दयालु गुरु कहोड़ मुनि ने कृपा करके शास्त्रीय विधि-विधान से उसकी सद्गति कर दी ।”

संत महापुरुष सदैव हितैषी होते हैं । उनको किसी भी प्रकार से कष्ट नहीं पहुँचाना चाहिए, उसकी निंदा नहीं करनी चाहिए । नासमझी, अहंकार वश उसका अपमान हो गया हो तो उनके चरणों में पहुँच के क्षमायाचना करनी चाहिए, जिससे नीच योनियों में जाकर दुःख न भोगने पड़ें ।

आश्रमों को किया कलंकित, शरीर पर हो गया कोढ़ अंकित

महादेव जी कहते हैं- “हे पार्वती ! चम्पक नगर का राजा विदारूण भी बड़ा दुष्ट और प्रजा को पीड़ा देने वाला, परस्त्रीगामी व अधर्मी था । वह ब्राह्मणों के घात में लगा रहता था । वह निरंतर भगवान और संतों की निंदा करता और आश्रमों को कलंक लगाने में लगा रहता था, जिससे उसे कोढ़ हो गया ।

एक दिन वह शिकार खेलता हुआ प्यास से पीड़ित हो वेत्रवती (बेतवा) नदी पर पहुँचा । पूर्व समय में वहाँ संतों ने साधन-भजन किया था, जिससे वह भूमि आध्यात्मिक स्पंदनों से युक्त थी । उस नदी के जल का पान करके राजा राजधानी लौट गया । उस भूमि व जल के प्रभाव से उसका कोढ़ दूर हो गया । उसकी बुद्धि में निर्मलता, मन में शांति व हृदय में  भक्ति उत्पन्न होने लगी । वह समय-समय पर वहाँ आने लगा तथा स्नान, जप, संतों की सेवा आदि करने लगा, जिसके प्रभाव से वह भगवद् धाम को प्राप्त हुआ ।

जब हुआ भूल का एहसास, तब पाप का हो गया नाश

शिवजी एक और प्रसंग बताते हैं- “ऐसा ही एक पापात्मा, भगवान व ब्रह्मवेत्ता संतों की निंदा करने वाला गुरुद्रोही तथा प्रजा को पीड़ा देने वाला दुष्ट राजा था वैकर्तन । कुछ काल पश्चात अपने पाप के कारण वह अत्यंत पीड़ाप्रद रोग से ग्रस्त हो गया । शरीर की दुर्दशा देखकर उसे अपनी भूल का एहसास हुआ ।

एक दिन घूमते हुए वह साभ्रमती (साबरमती ) नदी तट पर पहुँचा । वहाँ उसने स्नान किया और वहाँ का जल पिया । संतों के सत्संग, ध्यान, सत्कर्मों की सुवास से महकती उस पुण्यभूमि के प्रभाव से उसे अपने कर्मों के प्रति घृणा हुई, अपराधों के लिए उसने संतों से क्षमा माँगी, जिससे वह धीरे-धीरे पूर्ण स्वस्थ हो गया ।”

रामायण में आता है कि ‘जो अभिमानी जीव देवताओं और वेदों की निंदा करते हैं, वे रौरव नरक में पड़ते हैं । संतों की निंदा में लगे हुए उल्लू होते हैं, जिन्हें मोह (अज्ञान) रूपी रात्रि प्रिय होती है और ज्ञानरूपी सूर्य जिनके लिए बीत गया (अस्त हो गया) रहता है ।’ जैसे चन्द्रमा और सूर्य का उदय समस्त विश्व के लिए सुखदायक है, ऐसे ही संतों का अनुभव सदा ही सुखकर होता है ।

जैसे संतों-महापुरुषों के सत्संग और सेवा-सान्निध्य से होने वाले लाभ अवर्णनीय हैं, वैसे ही उनकी निंदा करने, उनसे द्वेष रखने आदि से होने वाले पापों और कष्टों का पूरा वर्णन करना असम्भव है । संतों के साथ किये गये प्रतिकूल व्यवहार का बदला चुकाना ही पड़ता है, किसी को भी अभी तो किसी को बाद में । शास्त्रों के ऐसे प्रसंग मनुष्य को समय रहते अपने पापों, गलतियों का एहसास कराने तथा पाप करना छोड़ के उनका प्रायश्चित्त कर भावी जीवन सुधारने हेतु सचेत करते हैं । परंतु जिनको सावधान ही न होना हो उन्हें तो भावी महादुःख, नरक यातनाएँ झेलने हेतु तैयार ही रहना चाहिए ।

संदर्भः पद्म पुराण आदि शास्त्र

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2019, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 318

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