Monthly Archives: July 2019

स्वास्थ्य का आधारः पथ्य-अपथ्य विवेक


पथ्ये सति गदार्तस्य किमौषधनिषेवणैः ।

पथ्येऽसति गदार्तस्य किमौषधनिषेवणैः ।।

पथ्य हो तो औषधियों के सेवन की क्या आवश्यकता है ? पथ्य न हो तो औषधियों का कोई फल ही नहीं है । अतः सदैव पथ्य का ही सेवन करना चाहिए ।

पथ्य अर्थात् हितकर । हितकर का सेवन व अहितकर का त्याग करने हेतु पदार्थों के गुण-धर्मों का ज्ञान होना आवश्यक है ।

चरक संहिता के यज्जःपुरुषीय अध्याय में ऐसे हितकर-अहितकर पदार्थों का वर्णन करते हुए श्री चरकाचार्य जी कहते हैं- धान्यों में लाल चावल, दालों में मूँग, शाकों में जीवंती (डोडी), तेलों में तिल का तेल, फलों में अंगूर, कंदों में अदरक, नमको में सैंधव (सेंधा) व जलों में वर्षा का जल स्वभाव से ही हितकर है ।

जीवनीय द्रव्यों में देशी गाय का दूध, रसायन द्रव्यों में देशी गोदुग्ध-गोघृत का नित्य सेवन, आयु को स्थिर रखने वाले द्रव्यों में आँवला, सदा पथ्यकर द्रव्यों में हर्रे (हरड़), बलवर्धन में षडरसयुक्त भोजन, आरोग्यवर्धन में समय पर भोजन, आयुवर्धन में ब्रह्मचर्य, थकान दूर करने में स्नान, आरोग्य वर्धक भूमि में मरूभूमि व शारीरिक पुष्टि में मन की शांति सर्वश्रेष्ठ है ।

सर्वदा अहितकर पदार्थों में दालों में उड़द, शाकों में सरसों, कंदों में आलू, जलों में वर्षा ऋतु में नदी का जल प्रमुख है ।

सर्व रोगों के मूल में आम (अपक्व आहार रस) को उत्पन्न करने में अधिक भोजन, रोगों को बढ़ाने में दुःख, बल घटाने में एक रसयुक्त भोजन, पुंसत्वशक्ति घटाने में नमक का अधिक सेवन मुख्य कारण है ।

अनारोग्यकर भूमि में समुद्र तट का प्रदेश व पूर्णतः अहितकर कर्मों में अत्यधिक परिश्रम प्रमुख है।

अपना कल्याण चाहने वाले बुद्धिमान मनुष्य को हित-अहित का विचार करके हितकर का ही सेवन करना चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2019, पृष्ठ संख्या 31 अंक 319

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यह मेरे तारणहार का तिलक है – पूज्य बापू जी


एक सेठ अपने रसोइये को डाँटते कि “तू मेरे घर का खाता है, मेरी नौकरी करता है तो जैसा मैं तिलक करता हूँ, मेरा परिवार तिलक करता है ऐसा तू भी किया कर ।”

रसोइया ‘हाँ’, ‘हाँ’ कहता रहा लेकिन अपना तिलक नहीं बदला । आखिर सेठ परेशान हो गये । सेठ ने कहाः “अगर कल हमारे सम्प्रदाय का तिलक तूने नहीं किया तो नौकरी से छुट्टी समझना ।”

इस प्रकार डाँटते हुए सेठ ने नौकर से दूसरे ढंग से तिलक करने का वचन ले लिया ।

दूसरे दिन नौकर आया, सेठ चकित हो गये कि नौकर के ललाट पर वही अपना तिलक ! सेठ ने दुत्कारते हुए, फटकारते हुए कहाः “पागल ! कल वचन दे गया था फिर भी तिलक तू अपने ढंग का करता है, हमारे ढंग का क्यों नहीं किया ?”

रसोइये ने कमीज उठाकर पेट दिखाया तो वहाँ पर सेठ के कुल का तिलक था ।

रसोइये ने कहाः “सेठ जी ! आपने आग्रह किया इसलिए आपका तिलक मैंने लगाया है । मैं आपके पास पेट के लिए आता हूँ इसलिए पेट पर आपके कुल का तिलक लगाया है । ललाट पर तो मुझे मेरे गुरुदेव के श्रद्धा-विश्वास का तिलक ही लगाने दो, औरों के तिलक की जरूरत नहीं है । यह मेरे तारणहार का तिलक है । सेठ जी ! मैं मजबूर हूँ इसलिए पेट पर तुम्हारा तिलक लगा दिया है ।”

भारत का रसोइया भी अपना विश्वास नहीं छोड़ता है, अपनी श्रद्धा नहीं छोड़ता है, अपनी दृढ़ता नहीं छोड़ता है तो तुम क्यों छोड़ो ? तुम क्यों भक्ति छोड़ो ? तुम क्यों नियम छोड़ो ? तुम क्यों संयम छोड़ो ? तुम क्यों अपने मनरूपी घोड़े को एकदम बेलगाम करो ?

कोई व्रत, कोई नियम, कुछ नियम-निष्ठा अपने जीवन में लाओ । अगर तुम उसमें थोड़े से सफल हुए तो तुम्हारा बल, तुम्हारी शक्ति विकसित होगी, मन अधीन होता जायेगा । छोटा सा ही नियम लो लेकिन उसको कड़ाई से पूरा करो । 10 प्राणायाम, 10-15 मिनट ध्यान, नीलवर्ण कमल (तीसरा केन्द्र – मणिपुर चक्र) विकसित करने का नियम (अग्निसार क्रिया) अवश्य करो, जिससे शरीर निरोग व फेफड़े बलवान बनेंगे, रोगप्रतिकारक शक्ति का विकास होगा, चित्त की प्रसन्नता, गुरुकृपा पाने की योग्यता, सद्ग्रुरु के ज्ञान को पचाने की क्षमता और मति की दृढ़ता में बढ़ोतरी हो जायेगी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2019, पृष्ठ संख्या 24, अंक 319

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प्रवृत्ति को बदलें सत्प्रवृत्ति में


स्वामी विवेकानंद जी कहते हैं- “अपने ‘मैं’ (अहं) को धन-सम्पत्ति, प्रभुत्व, नाम-यश द्वारा सर्वदा बढ़ाने का यत्न करना, जो कुछ मिले उसी को पकड़े रखना, सारे समय सभी वस्तुओं को इस ‘मैं’ रूपी केन्द्र में ही संग्रहित करना – इसी का नाम है ‘प्रवृत्ति’ ।”

यह बंधनकारक है किंतु इसके बदले अगर कोई अपनी धन-सम्पत्ति, सुविधाओं, साधनों और समय-शक्ति को सबकी हितभावना से सदुपयोग में, परहित में लगाये तो सत्प्रवृत्ति हो जायेगी ।

हर कर्म के मूल में विचार, संकल्प या भाव होता है । यदि हमारे भाव ‘सत्’ के रस में डूबे हुए हों तो उन सद्भावों से जो कर्म होंगे वे निश्चय ही सत्कर्म होंगे । अतः जीवन में सद्भाव की अत्यंत आवश्यकता है ।

‘सत्’ की स्वीकृति से सद्भाव का प्राकट्य अपने-आप, बड़ी सहजता से हो जाता है । ‘सत्’ की स्वीकृति के बारे में पूज्य बापू जी के सत्संग में आता हैः “ईश्वर की दृष्टि में अपनी दृष्टि मिला दें । ईश्वर को जैसा जगत दिखता है और ‘स्व’ दिखता है ऐसा तू अपने को, ‘स्व’ को देख और जगत को देख । स्वीकृति दे दे, हो गया काम ! तो साधना का मतलब है आपकी स्वीकृति देने की तैयारी । ईश्वर की ‘हाँ’ में ‘हाँ’, सदगुरु की ‘हाँ’ में  ‘हाँ’ । साधन श्रमसाध्य नहीं है, स्वीकृति-साध्य है और ज्यों स्वीकृति दी त्यों ईश्वर और गुरु के अनुभव में एक होने में आसानी हो जायेगी ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2019, पृष्ठ संख्या 17, अंक 319

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