Monthly Archives: July 2019

सनातन धर्म ही राष्ट्रीयता है


योगी अरविन्द जयन्तीः 15 अगस्त 2019

हिन्दू धर्म क्या है ?

दुनिया के सामने हिन्दू धर्म का संरक्षण और उत्थान – यही कार्य हमारे सामने हैं । परन्तु हिंदू धर्म क्या है ? वह धर्म क्या है जिसे हम सनातन धर्म कहते हैं ? वह धर्म हिन्दू धर्म इसी नाते है कि हिन्दू जाति ने इसको रखा (संरक्षित किया) है । समुद्र और हिमालय से घिरे हुए इस प्रायद्वीप (स्थल का वह भाग जो तीनों ओर से जल से घिरा हो) के एकांतवास में यह फला फूला है । युगों तक इसकी रक्षा करने का भार आर्य जाति को सौंपा गया था । परंतु यह धर्म किसी एक देश की सीमा से घिरा नहीं है । जिसे हम हिन्दू धर्म कहते हैं, वह वास्तव में सनातन धर्म है क्योंकि यही वह विश्वव्यापी धर्म है जो दूसरे सभी धर्मों का आलिंगन करता है । यदि कोई धर्म विश्वव्यापी न हो तो वह सनातन भी नहीं हो सकता । कोई संकुचित धर्म, साम्प्रदायिक धर्म, अनुदार धर्म कुछ काल और किसी मर्यादित हेतु के लिए ही रह सकता है । यह हिन्दू धर्म ही एक ऐसा धर्म है जो अपने अंदर विज्ञान के आविष्कारों और दर्शनशास्त्र के चिंतनों का पूर्वाभास (पूर्वज्ञान) देकर और उन्हें अपने अंदर मिला के जड़वाद (चेतन आत्मा का अस्तित्व न मानने वाला दार्शनिक मत) पर विजय प्राप्त कर सकता है । यही एक धर्म है जो मानव-जाति के दिल में यह बात बैठा देता है कि ‘भगवान हमारे निकट हैं’ । यह उन सभी साधनों को अपने अंदर ले लेता है जिनके द्वारा मनुष्य भगवान के पास पहुँच सकते हैं । यही एक धर्म है जो संसार को दिखा देता है कि संसार क्या है – वासुदेव की लीला । यही बताता है कि इस लीला में हम अपनी भूमिका अच्छी से अच्छी तरह कैसे निभा सकते हैं और यह दिखाता है कि इसके सूक्ष्म से सूक्ष्म नियम क्या हैं, इसके महान से महान विधान कौन से हैं ।

सच्ची राष्ट्रीयता

राष्ट्रीयता राजनीति नहीं बल्कि एक धर्म है, एक विश्वास है, एक निष्ठा है । सनातन धर्म ही हमारे लिए राष्ट्रीयता है । यह हिन्दू जाति सनातन धर्म को लेकर पैदा हुई है, उसी को ले के चलती है और पनपती है । जब सनातन धर्म की हानि होती है तब इस जाति की भी अवनति होती है और यदि सनातन धर्म का विनाश सम्भव होता तो सनातन धर्म के साथ-साथ इस जाति का विनाश हो जाता । सनातन धर्म ही राष्ट्रीयता है । यही वह (दैवी) संदेश है जो मैंने आपको सुनाया है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2019, पृष्ठ संख्या 10, अंक 319

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

कठिनाइयों, विरोधों को बना सकते हैं शक्ति का स्रोत !


एक सज्जन व्यक्ति थे । उनका एक नौकर था जो कोई काम सही तरीके से नहीं करता था । उसके काम करने का ढंग ऐसा था की धीर से धीर व्यक्ति भी उसे देखकर आपे से बाहर हो जाय परंतु उसका मालिक बड़ा साधु स्वभाव का था । वह न तो नौकर से खिन्न होता और न ही कभी क्रोधावेश में आता था बल्कि उसके साथ बड़ा मधुर व्यवहार करता था ।

एक बार उसके घर में एक मेहमान आया । वह नौकर के व्यवहार से बहुत अप्रसन्न हुआ । उसने मालिक से कहाः “आप इसको तुरन्त हटा दीजिये ।”

मालिकः “आपकी सलाह तो अच्छी है और मैं जानता हूँ कि आप मेरी भलाई चाहते हैं इसलिए यह सलाह दे रहे हैं । परंतु ऐसे व्यवहार के कारण ही मैं उसको रखे हुए हूँ ।”

अजीब उत्तर सुन के मेहमान अवाक् रह गया !

मालिकः “मेरे सम्पर्क में आने वाले अन्य सभी लोग बहुत अच्छे, नेक, सज्जन हैं । वे मेरा विरोध करने की सोचते भी नहीं, सिर्फ यही ऐसा व्यक्ति है जो मेरी आज्ञा नहीं मानता, ऐसी बातें ऐसे काम करता है जो मेरे लिए अप्रशंसनीय व अपमानजनक हैं । इससे मुझे एक विशेष प्रशिक्षण मिलता है – समता बढ़ाने का, अपने पर नियंत्रण रखने का, अविकम्प योग का प्रशिक्षण । जैसे लोग अपनी शारीरिक शक्ति बढ़ाने हेतु व्यायाम के लिए डम्बलों का प्रयोग करते हैं, उसी प्रकार यह मेरी आध्यात्मिकता बढ़ाने हेतु मानो एक डम्बल है, इसके माध्यम से मैं अपनी समता, शांति, उदारता, सहनशीलता, आत्मदृष्टि – इन शक्तियों को सुगठित करता हूँ ।”

यदि आपको लगता है कि आपके संबंधी या अन्य कोई व्यक्ति अथवा संसार की अन्य अप्रिय बातें आपके लिए बाधा बनती हैं तो आपको झल्लाने या घबराने की आवश्यकता नहीं । आप उक्त मालिक के उदाहरण का अनुकरण कीजिये और कठिनाइयों, मतभेदों, विरोधों को बल और शक्ति का अतिरिक्त स्रोत बना लीजिये ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2019, पृष्ठ संख्या 7 अंक 319

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

‘यह’, ‘वह’ के द्रष्टा ‘मैं’ की असलियत जानो तो पार…. पूज्य बापू जी


दुनिया का व्यवहार तीन ढंग से देखा गया है । एक तो ‘यह’ – जो रू बरू है, यह वस्तु यह व्यक्ति…. दूसरा ‘वह’ – वह वस्तु, वह व्यक्ति, वह भगवान… तीसरा ‘मैं’ । ‘यह’, ‘वह’ और ‘मैं’ – इन तीन से ही सारा  व्यवहार सम्पन्न होता है । ‘यह’ को जानने में ‘मैं’ की जरूरत है, ‘वह’ को जानने में भी ‘मैं’ की जरूरत है लेकिन ‘मैं’ को जानने में न ‘यह’ की जरूरत है न ‘वह’ की जरूरत है, ‘मैं’ स्वयंप्रकाश है । ‘मैं’ सदा रहता है । ‘यह’ और ‘वह’ पहले नहीं थे, अभी दिख रहे हैं और बाद में नहीं रहेंगे ।

तो संसारी बोलते हैं, हमारे लिए उपनिषद् कहती है कि यह जो दुनिया है इसमें त्याग से जियो । तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा….. ‘यह’ का ठीक उपयोग करो तो भगवान मिलेंगे । लोभ, लालच छोड़ो, काम विकार छोड़ो, यह छोड़ो, वह छोड़ो…..।

उपासक बोलते हैं कि जब वह (भगवान) राज़ी होगा तब मिलेगा ।

सोई जानइ जेहि देहु जनाई ।

जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ।। (श्री रामचरित. अयो.कां. 126.2)

वह अपने को जतायेगा तब मिलेगा ।

कर्मी बोलता है कि ‘यह’ का  उपयोग करो । कर्मयोग करो, सेवा करो, यह करो, वह करो… लेकिन वेदांत को जानने वाले बोलते हैं कि ‘यह’ और ‘वह’ की सिद्धि ‘मैं’ के बिना हो सकती है क्या ? नहीं हो सकती ।

तो जो ‘वह’ में ईश्वर खोजता है अथवा ‘यह’ में ईश्वर खोजता है उसको बहुत श्रम पड़ता है । कुछ चमत्कार दिखते हैं और उसमें उलझ भी जाता है । ‘मैं सिद्ध हूँ, मैं लंकापति रावण…. मैं हिरण्यकशिपु….’ हिरण्यकशिपु ने ‘यह’ में और ‘वह’ में 11500 वर्ष तपस्या की और आधिदैविक जगत की शक्तियाँ हस्तगत कीं । फिर भी हिरण्यकशिपु और उसकी प्रजा सुखी नहीं रही भगवान के रस के बिना, मैं की खोज के बिना ।

‘यह’ में, ‘वह’ में खोज-खोजकर कुछ चमत्कार देखते हैं, कुछ संतुष्टि रहती है, कुछ असंतुष्टि रहती है लेकिन ‘मैं’ में आते ही जैसे तरंग अपने असली स्वरूप पानी को खोजे तो तरंग सागर है, ऐसे ही यह ‘मैं’ अपनी असलियत को खोजे तो परमात्मा की सत्ता से ही यह स्फुरित होता है ।

संत ज्ञानेश्वर जी ने कहा कि ‘उपासक अपनी भावना के  बल से भगवान को प्रकट कर लेता है लेकिन द्वैत बना रहता है कि यह भगवान है अथवा वह भगवान है ।’ तो ‘यह’ और ‘वह’ जिससे सिद्ध होता है उस मैं को भगवानरूप में जानो । ‘यह’ को देखना हो तो ‘मैं’ चाहिए, ‘वह’ को देखना हो तो ‘मैं’ चाहिए, लेकिन ‘मैं’ की असलियत को जानो तो भगवान तुम्हारा आत्मा ! विश्रांति योग हो जायेगा । विभुर्व्याप्य सर्वत्र….. सर्वगत, सर्वव्यापक मैं चैतन्यस्वरूप…. जैसे घड़ा अपने को घड़ा न जानकर घटाकाश, महाकाश जाने ऐसे ही जीव अपने को परमेश्वर का, परमेश्वर को अपना जाने तो उसके बंधन छूट जाते हैं ।

कर्मी ‘यह’ को शुद्ध करके भगवान को खोज रहा है । उपासक ‘वह’ में भावना, कल्पना करके उसको खोज रहा है लेकिन सच्चे संत का शिष्य ‘मैं’ में आकर ‘मैं’ की शुद्धरूपता जान लेता है । मैं शरीर हूँ ? नहीं । मैं इन्द्रियाँ हूँ ? नहीं । मैं मन हूँ ? नहीं, मन को जानता हूँ । बुद्धि को भी जानता हूँ । अहं को भी जानता हूँ । सबको जो जानता है वह कौन है ? उसमें विश्रांति पाकर ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर लेता है ।

भगवान प्रेमस्वरूप हैं, ज्ञानस्वरूप हैं…. अपने ‘मैं’ में छुपे हैं भगवान ! शरीर में नहीं, मन में नहीं, इन्द्रियों में नहीं, जहाँ से ‘मैं’ उठता है…. अहंकार में नहीं, अहंकार की गहराई में परमात्मा छुपे हैं । ‘यह’ में भगवान मिलना कठिन है । ‘वह’ में भगवान खोजना कल्पना है लेकिन ‘मैं’ में भगवान हाजरा-हुजूर है ।

मौन, एकांत में रहकर, सात्तविक आहार पर रह के ध्यान व जप करें तो आत्म-ईश्वर तो हैं ही । जहाँ बैठे हों वहाँ पानी है लेकिन कंकड़-पत्थर हटाओ, कुआँ खोदो, बोरिंग करो तो पानी ही पानी है । ऐसे ही अपने अंतरात्मा म  आओ तो ईश्वर ही ईश्वर है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2019, पृष्ठ संख्या 5,6 अंक 319

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ