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खर्चा एक कौड़ी का नहीं और पुण्य हो ढेर सारा ! पूज्य बापू जी


कलियुग का एक विशेष प्रताप है कि मानसिक पुण्य करो तो फलदायी हो जायेगा लेकिन मन से पाप करो तो कलियुग में उस पाप का फल अपने को नहीं मिलेगा । मन में आयाः ‘यह ऐसा है- वैसा है… यह करूँ…. वह करूँ….’ तो पाप नहीं लगेगा, जब तक वह कर्म नहीं किया । और मन में आया कि ‘आश्रम में जाऊँ… मंदिर में जाऊँ…. पूजा करूँ….’ मन ही मन भगवान को नहला दिया, गुरु को मत्था टेक लिया, मन ही मन गुरु को तिलकर कर दिया । मन ही मन भगवान को, गुरु को भोग लगा दिया तो मानस पुण्य हो जायेगा । खर्चा एक कौड़ी का नहीं और पुण्य हो ढेर सारा !

मानस पाप कलियुग में नहीं होता, मानस पुण्य हो जाता है ।

कलि कर एक पुनीत प्रतापा ।

मानस पुन्य होहिं नहीं पापा ।। (श्री रामचरित. उ.कां. 102.4)

इस शास्त्रवचन का लाभ उठाते हुए आप गुरुपूर्णिमा को मानसिक पूजन कर लेना या ऐसे ही रोज भगवान को, गुरु को मानसिक भोग लगा देना ।

गुरुदेव को मानसिक स्नान कराके पूजन, तिलक आदि करके फिर जप करने से जप का प्रभाव दस गुना हो जाता है और व्यासपूनम को तो खास ! यह बात हम जानते थे ।

हम गुरुपूर्णिमा को गुरु जी को मन से ही पूजन करते थे । वैसे तो रोज गुरुजी से बात करते थे, रोज गुरु जी की पूजा करते । पहले तो नजदीक से हो जाता था पर कभी-कभी नजदीकी नहीं मिलती तो मन ही मन गुरु जी को स्नान कराते, फिर पोंछते… गुरु जी बोलते हैं- “यह क्या ढीला-ढीला पोंछता है, जरा जोर से पोंछो, रोमकूप खुल जायें ।”

“हाँ साईं ! यह लो । यह लो साँईं !”

“हाँ, शाबाश है !”

मन ही मन हम गुरुदेव की शाबाशी भी ले लेते थे । फिर वस्त्र पहनाते, मन ही मन मोगरे के फूलों की 2 मालाएँ पहनाते, तिलक करते और मत्था टेकते । और देखते कि गुरु जी की कृपा बरस रही हैः ‘बस हो गया बेटे ! हो गया, हो गया !’

ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम् ।

मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा ।।

हजारों जन्मों के पिताओं ने, माताओं ने जो नहीं दिया, गुरु ने वह हँसते-खेलते दे डाला । कितने भी देवी देवताओं का पूजन करो फिर भी किसी का पूजन रह जाता है, कितना भी व्रत और तप करो फिर भी कुछ व्रत व तप रह जाता है लेकिन जिसने व्यासस्वरूप ब्रह्मज्ञानी गुरुदेव का आदर पूजन कर लिया और प्रसन्नता पा ली उसके लिए फिर किसी का पूजन बाकी नहीं रहता, कोई भी व्रत और तप बाकी नहीं रहता ।

सुपात्र मिला तो कुपात्र को दान दिया न दिया,

सत्शिष्य मिला तो कुशिष्य को ज्ञान दिया न दिया,

कहे कवि गंग सुन शाह अकबर !

पूर्ण गुरु मिले तो और को नमस्कार किया न किया ।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2019, पृष्ठ संख्या 4, अंक 319

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