बात अच्छी न भी लगे लेकिन है 100 % सत्य

बात अच्छी न भी लगे लेकिन है 100 % सत्य


जन्म का फल यह है कि परमात्मा का ज्ञान पायें । ‘नौकरी मिल गयी, प्रमोशन हो गया….’ यह सब तुम्हें ठगने का व्यवहार है । परमात्मा के सिवाय किसी भी वस्तु, व्यक्ति में कहीं भी प्रीति की तो अंत में पश्चात्ताप के सिवाय कुछ हाथ नहीं लगेगा । सब धोखा देंगे, देखना । हमारी बात तुमको अभी अच्छी नहीं भी लगे लेकिन है सौ प्रतिशत सत्य । ईश्वर के सिवाय किसी में भी प्रीति की तो अंत में रोना ही पड़ेगा । व्यवहार तो जगत के पदार्थों से करो, प्रेम भगवान से करो । संसार प्रेम करने योग्य नहीं है, वस्तुएँ प्रेम करने योग्य नहीं है । प्रेम करने योग्य तो परमात्मा है । मोह रखो तो परमात्मा में, प्रीति करो तो परमात्मा से, लड़ाई करो तो परमात्मा से करो, उलाहना दो तो परमात्मा को दो । तुम्हारे लिए परमात्मा सर्वस्व होना चाहिए ।

‘भगवान को उलाहना दें ?’

हाँ, कम से कम इस बहाने भी तो उसकी याद रहेगी तो भी बेड़ा पार हो जायेगा । ‘तू सबके हृदय में छुपा है और फिर प्रकट नहीं होता । मुझमें इतनी अक्ल नहीं, तब हे करूणानिधे ! तुम करूणा नहीं करोगे तो मेरा क्या होगा….. 84 लाख योनियों में भटकता रहूँगा । मनुष्य जन्म की मति का दुरुपयोग करके दुर्गति में न गिरूँ ।

दीन दयाल बिरिदु संभारी ।

हरहु नाथ मम मूढ़ता भारी ।।

तू सत्-चित्-आनंद है और मेरा परमात्मा एवं विश्वेश्वर परमात्मा एक का एक ! तुम्हारी तरफ न जाकर असत् – जड़ – दुःखरूप पंचविकारों की तरफ अंधा आकर्षण लगा है नाथ ! पतंगे का अँधा आकर्षण उसे जलाकर मार देता है दीये में । भौंरे का कमल की सुगंध का आकर्षण उसे जानवरों के द्वारा मृत्यु के घाट उतार देता है । मछली का स्वाद का आकर्षण उसे कुंडे में फँसा देता है । हाथी का कामविकार का अंधा आकर्षण उसे गुलामी की जंजीरों में बाँध देता है । मृग का सुनने का आकर्षण उसे शिकारी का शिकार बना देता है ।

अलि पतंग मृग मीन गज, एक एक रस आँच ।

तुलसी तिनकी कौन गति, जिनको ब्यापे पाँच ।।

यह संत तुलसीदास जी का वचन सुनने-समझने के बाद भी पंचविकारों में आकर्षित होने की मूढ़ता लगी है ।

दीन दयाल बिरिदु संभारी ।

हरहु नाथ मम मूढ़ता भारी ।।

सत्संग, ध्यान, आत्मसुख, परमात्म-ज्ञान का प्रसाद छोड़कर तुच्छ विकारों में अपने को तबाह कर रहे हैं । आत्मज्ञानात् परं ज्ञानं न विद्यते । आत्मलाभात् परं लाभं न विद्यते । आत्मसुखात् परं सुखं न विद्यते । – ये शास्त्र व संत वचन तथा गीता-ज्ञान के होते हुए भी, उपनिषद का अमृत होते हुए भी विषय-विकारों की तरफ अंधी दौड़ लगा रहे हैं । अशांति, विषाद, भय, चिंता, शोक की संसारी आग में तपते हुए भी… ‘संसारतापे तप्तानां योगः परमौषधः ।’ सुनते-समझते हुए भी… न कर्मयोग, न भक्तियोग, न ज्ञानयोग में चल पाते हैं ।

दीन दयाल बिरिदु संभारी ।

हरहु नाथ मम मूढ़ता भारी ।।

ऐसा कह के उसको उलाहना दो और मन को समझाओ कि ‘स्वर्ग का राज्य मिला तो क्या ? फूलों की शय्या हो, अप्सरा कंठ लगे तो आखिर क्या ? इन्द्र का नंदनवन हो और गंधर्वों के साथ विहार करने को मिल जाय, फिर क्या ? आखिर क्या ? आखिर मरो, फिर किसी के गर्भ में जाओ, कौवा बनो, कीट बनो, पेड़ बनो और बिना पानी के सूख-सूख के मरो, फिर जन्मो… आखिर क्या ? राजा नृग यश के लिए दान पुण्य करता था व अपनी खुशामद करने वालों को, यश गाने वालों को इनाम देकर बड़ा यशस्वी राजा कहा जाता था । हाड़-मांस के यश में, राजसुख में मनुष्यता पूरी हो गयी । फिर मरने के बाद गिरगिट बना । राजा अज बड़ा प्रभावशाली राजा कहलाता था । आरामप्रियता की वासना से अजगर बना दूसरे जन्म में । इन्द्रों में भी जो आत्मज्ञानी हुए उनको तो नमस्कार है, बाकी के अप्सराओं के नाच-गान में, विकारों में लगे इन्द्रपदवाले भी स्वर्ग से पतित होकर नीची योनियों में भटकते-भटकते कीड़े-मकोड़े की योनि तक पतित हो गये । आखिर क्या ?’

मकान बन गया, फिर क्या ? कब तक रहोगे उसमें ? इस जमीन पर न जाने कितने मालिक आ गये । अंग्रेज कहते थे कि ‘हमारी है’, हूण कहते थेः ‘हमारी है’, मुसलिम शासक कहते थेः ‘हमारी है’, हिटलर वाले कहने लगेः ‘यह इलाका हमारा है ।’ ऐसा हमारा-हमारा कहकर कई मर गये । फिर अपन कहते हैं, ‘यह हमारा है ।’ ये हमारी चीजें थोड़े ही हैं ?

शतरंज बिछी रह जायेगी,

खिलाड़ी एक-एक करके उठ जायेगा ।

राजकोट पर, अहमदाबाद पर और दूसरे इलाकों पर कइयों ने दावा किया कि ‘हमारा है ।’ कितने राजा हो गये, ‘हमारा-हमारा दावा कर-करके सब मर गये । यह पृथ्वी यही की यहीं पड़ी रही, हवाएँ वही चलती रहीं, सूरज वही बरसता रहा…. लेकिन खिलाड़ी गायब हो गये फिर नये आये । वे भी गायब होने के लिए ही आये हैं । खिलाड़ी गायब हों उसके पहले शाश्वत सत्य समझ में आ जाय तो कितना सुंदर होगा ! मौत आकर शरीर को घेर ले, श्मशान में लकड़ियाँ डाल के शरीर को भभक-भभक करके जला दिया जाय उसके पहले अगर मौन की भाषा समझ में आ जाय, निःसंकल्प चित्त-दशा में प्रवेश हो जाय तो कितना सुंदर होगा !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2019, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 320

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