Monthly Archives: September 2019

संतन के कारज सगल सवारे


भक्तमाल में बीठलदास जी की कथा आती है । बीठलदास का संत-सेवा में बड़ा अनुराग था । उन्हें भगवत्कृपा पर पूरा भरोसा था । उसी के बल पर वे अच्छे-अच्छे धनिकों की भी खुशामद नहीं करते थे  और ईश्वर की कृपा से उनकी संत-सेवा भी चलती रहती थी ।

एक बार धन के मद में चूर एक सेठ को बीठलदास जी ने डाँट दिया और वह नाराज होकर चला गया । कुछ समय बाद बीठलदास जी के यहाँ होने वाले वार्षिक महोत्सव का समय आया । उसमें वह सेठ पहले पूरी-पूरी सहायता देता था किंतु इस बार झाँका तक नहीं । ‘महोत्सव में आने वाले संतों को बिना भोजन-प्रसाद के ही वापस जाना पड़ेगा और बीठलदास जी की बड़ी बदनामी होगी….’ इस प्रकार की चिंता बीठलदास जी के नजदीकी लोगों को सुखाय जा रही थी लेकिन बीठलदास जी निश्चिंत थे । वे कहते- ‘प्रभु जो करेंगे, अच्छा ही करेंगे ।’

नश्वर सहारों को जो तुच्छ समझते हैं और परमात्मा को अपना सर्वस्व मानते हैं ऐसे भक्तों का कार्य प्रभु स्वयं सँभाल लेते हैं ।

श्री गुरु ग्रंथ साहिब में आता हैः

अंगीकारु कीओ प्रभु अपुने भवनिधि पारि उतारे ।।

संतन के कारज सगल सवारे ।

दीन दइआल क्रिपाल क्रिपा निधि पूरन खसम हमारे ।।

‘प्रभु सेवकों का पक्ष लेते हैं और उन्हें संसार-सागर से पार उतारते हैं । हे भाई ! हमारा स्वामी दीनदयालु है, कृपालु है, कृपा का भंडार है, पूर्ण है और संतजनों के समस्त कार्य सँवार देता है ।’

बीठलदास जी की ऐसी निष्ठा देख भगवान रह न सके । वे वैश्य-वेश में आये और 300 सोने की अशर्फियाँ बीठलदास जी को देते हुए बोलेः “महाराज ! मैं एक परदेशी बनिया हूँ । भगवान ने मुझे स्वप्न देकर बतलाया है कि आपके इस महोत्सव में सहायता देने वाले अभिमानी सेठ ने अब आना-जाना भी बंद कर दिया है । अतः मैं यह धन आपकी सेवा में अर्पण करना चाहता हूँ ।”

बीठलदास जी ने अशर्फियाँ ले लीं ।

वैश्य-वेशधारी भगवान बोलेः “भक्तवर ! मुझे प्यास लगी है, थोड़ा सा जल तो पिलाइये ।” बीठलदास जी जल लेकर लौटे तब तक भगवान अंतर्धान हो चुके थे । उन्होंने इधर-उधर देखा पर कहीं कुछ पता न चला । अब उन्हें समझ में आया कि भक्तवत्सल भगवान ही इस रूप में आये थे ।

धूमधाम से महोत्सव हुआ । संतों को बड़े आदर-सत्कार के साथ भोजन कराया गया ।

सेठ को विश्वास था कि इस बार महोत्सव तो होगा ही नहीं किंतु जब उसने इतनी चहल-पहल देखी और अशर्फियों वाली घटना सुनी तो दंग रह गया ! वह बीठलदास जी के चरणों में आकर पड़ गया और अपने अपराध के लिए क्षमा माँगी ।

‘मैं सेवा नहीं करूँगा तो यह कार्य रुक जायेगा ।’ सेठ की ऐसी मान्यता छूटी और उसकी मति में प्रकाश हुआ कि ‘भक्तों-संतों के दैवी कार्य तो परमात्मा स्वयं सँभालते हैं । उनमें सहभागी बनकर अपना जीवन धन्य करने का अवसर मिलना यह तो अपने लिए ही परम सौभाग्य की बात है ।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2019, पृष्ठ संख्या 9 अंक 321

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माया ऐसी मोहिनी, जैसी मीठी खाँड़


एक नगर में धंदतु नाम के एक धर्मात्मा सेठ रहते थे । एक बार वहाँ नट ने आकर खेल दिखाया । सेठ का इकलौता पुत्र इलायती कुमार उस नट की लड़की के रूप पर आसक्त हो गया और उससे विवाह करवाने के लिए उसने सेठ से निवेदन किया । सेठ ने उसे बहुत समझाया पर वह नहीं माना । बेटे की हठ देख सेठ ने भगवान से प्रार्थना कीः ‘प्रभु ! अब तू ही ऐसी कुछ कृपा करना कि मेरे बेटे का भला हो ।’

ईश्वर पर विश्वास रख से सेठ निश्चिंत हो गये और विवाह-प्रस्ताव लेकर नट के पास पहुँचे । नट को सारी बात बतायी तो वह बोलाः “सेठ जी ! आपका बेटा 12 वर्ष नटविद्या सीखकर जब तक किसी राजा से पुरस्कृत न हो जाय तब तक मैं अपनी बेटी का विवाह उससे नहीं कर सकता ।”

कामासक्त युवक लोक-लज्जा छोड़ के उस नट के साथ रह के नटविद्या सीखने लगा । 12 वर्ष में वह नटविद्या में निपुण हो गया ।

एक दिन वह काशी के राजा के दरबार में अपनी कला दिखा रहा था । उसकी कला राजा को इतनी तो भायी कि खेल पूरा होने के पहले ही राजा ने पुरस्कार की घोषणा कर दी । युवक एक बहुत बड़े स्तम्भ पर चढ़ के कला दिखा रहा था । उसी समय दरबार में एक चित्ताकर्षक आवाज सुनाई दीः “भिक्षां देहि ।”

दासी एक बड़े थाल में सामग्री लेकर महात्मा को देने पहुँची तो उन्होंने कहाः “मुझे तो अपनी भूख के अनुसार थोड़ा ही भोजन चाहिए ।”

दासी आग्रह कर रही थी तथा संत मना कर रहे थे । संत के मधुर वचन इलायती कुमार के कानों में पड़े तो वह उनकी ओर देखने लगा । संत ने एक मीठी दृष्टि उस पर डाल दी ।

संतकृपा व सेठ की प्रभु-प्रार्थना के प्रभाव से सेठपुत्र को विचार आया कि ‘ये संत बार-बार आग्रह करने पर भी स्वादिष्ट राजवी मिष्ठान्नों में भी आसक्त नहीं हो रहे हैं और मैं आसक्तिवश यह कामना लिए बैठा हूँ कि इस नटनी के साथ मेरा विवाह हो जाय, धिक्कार है मुझे ।

वह तुरंत ही खम्भे से नीचे उतरा और उन महापुरुष के चरणों में पड़ गया ।

नट ने आकर इलायती कुमार से कहाः “अब मैं तैयार हूँ अपनी बेटी से विवाह करवाने को ।”

संत-दर्शन से सेठपुत्र का मन बदल चुका था । वह बोलाः “तेरी लड़की एक साधारण नटनी है, जिसकी आसक्ति में फँसकर मैं 12 साल से बंदर की तरह नाच रहा हूँ परंतु यह मायारूपी नटनी तो कितने ही जन्मों से नचा रही है और समस्त त्रिलोकी को नचा रही है । अब मैं इसके खेल से पार होने के लिए इन महापुरुष की शरण में ही रहूँगा ।”

मायारूपी नटनी के खेल से पार होने के लिए संत कबीर जी ने कहा हैः

कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खाँड़1

सतगुरु की किरपा भई, नातर2 करती भाँड़3 ।।

1 अपरिष्कृत शक्कर 2 नहीं तो 3 मसखरा, जोकर

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2019, पृष्ठ संख्या 20 अंक 321

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ऐसी कथाएँ सुनने वालों के कल्याण में देर नहीं-पूज्य बापू जी


कई वाद हैं, कई सिद्धान्त हैं, कई कहानियाँ हैं । कहानियाँ मनुष्यों को प्यारी लगती हैं । लोगों को कथा-कहानियाँ, किस्से सुनने का, बोलने का, पढ़ने का शौक यह बताता है कि ये उपन्यास क्यों बने और क्यों चलते हैं । कथा पढ़ने-सुनने में मनुष्य की रूचि रहती है इसलिए उपन्यासों का प्रचार चला । हलके उपन्यास एवं आलतू-फालतू किस्से कहानियों का साहित्य भी खूब चल पड़ा है । लेकिन उनकी जगह पर अगर भगवद् तत्त्व का ज्ञान देने वाले किस्से होते, कहानियाँ होतीं, जैसे – फलाने गुरु शिष्य की ऐसी-ऐसी चर्चा हुई, फलाने ऋषि का भगवान की प्राप्ति का यह मार्ग रहा… राजा जनक, महर्षि याज्ञवल्क्य जी जैसे महापुरुषों के कथा-प्रसंग…. इस प्रकार की घटनाएँ-कथाएँ प्राचीन हो चाहें वर्तमान युग की हों, वे सत् से मिलाने में सहायता करती हैं और जीव का कल्याण कर ही देती हैं ।

कहानियाँ सुनने में मजा आता है । भगवान श्री रामचन्द्र जी को भी सत्संग-कथा में बड़ा रस आता था । रामायण में वर्णन आता है कि श्रीराम जी कथाप्रिय थे । भोजन आदि करते और फिर तुरन्त सत्संग कथा में बैठ जाते । राम जी गुरु विश्वामित्रजी, महर्षि वसिष्ठजी आदि से पौराणिक कथा वार्ताएँ, घटनाएँ सुनते थे । तो अपने आत्म परमात्मस्वभाव में जगह हुए ऋषियों के द्वारा जो लोग भगवद्-तत्त्व का ज्ञान देने वाली कथाएँ सुनते हैं वे अपने आत्म-परमात्मस्वभाव में जग जाते हैं ।

विकार पैदा करने वाली पिक्चरें, सिनेमा देखने से विकार पैदा होते हैं लेकिन परमात्मप्राप्ति वाली पिक्चरें देखें तो निर्विकारी परमात्मा को पाने की ललक पैदा होती है, परमात्म-प्रीति जगती है । पर जिनको परमात्मप्राप्ति हुई है उनकी पिक्चर कौन उतार सकता है…. फिर भी उनके जीवन की थोड़ी-बहुत बातें लेकर जो फिल्में बनती हैं वे भी समाज के लिए ईश्वरप्राप्ति की पथप्रदर्शक बन सकती हैं । चश्मदीद गवाह की कीमत होती है, सुने हुए से भी देखा हुआ विशेष प्रमाणभूत माना जाता है । तो जिन ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों को देखा है, जिनके सत्संग से साधकों के जीवन में परिवर्तन देखा है, जिनके सत्संग में, जिनके द्वारा बतायी हुई साधना में ईश्वरत्व का अंश देखा है उनके सम्पर्क से दूसरे लोगों का खूब लाभ होता है ।

इसलिए संत कबीर जी कहते हैं-

कथा कीर्तन रात दिन जिनका उद्यम येह ।

कह कबीरा वा संत की हम चरनन की खेह(धूल) ।।

कबीरा माँगे माँगणा, प्रभु दीज्यो मोहे दोय ।

संत समागम हरिकथा, मो घर निशदिन होय ।।

तो ये हरिकथा है, भगवद् कहानियाँ हैं, संत-समागम है फिर व्यर्थ की कथा-कहानियाँ क्यों सुनें ? उनसे तो जीवन व्यर्थ हो जायेगा । किस्से कहानियाँ, बातें भी वे ही सुनो पढ़ो जिनसे भगवत्प्रीति पैदा हो, भगवद्ज्ञान पैदा हो, भगवद् निमित्त सेवा में उत्साह आता हो, भगवत्संबंधी मन बनता हो, भाव बनता हो, फिर कल्याण होने में देर नहीं है ।

( सावधान ! आजकल घर में टी.वी., रेडियो, अखबारों, पत्रिकाओं, कॉमिक्स, वेबसाइटों, मोबाइल गेम्स, फिल्मों आदि के माध्यम से किस प्रकार की कथा-कहानियाँ, धारावाहिक, कार्यक्रम, विज्ञापन आदि सामग्री मनोरंजन और मार्गदर्शन के नाम पर परोसी जा रही है यह सभी को भली प्रकार ज्ञात है एवं गहन चिंता का विषय बना हुआ है । ऐसे में यदि हमारी दृष्टि में अपने और परिवार जनों के जीवन का थोड़ा भी महत्त्व है, अपना और समाज का जीवन पशुता, पिशाचता एवं दानवता की खाई में नहीं गिरने देना चाहते हैं तो देश के बुद्धिमानों, पवित्रात्माओं, मनीषियों एवं समाजहितैषियों को तत्काल सचेत होने की आवश्यकता है । हम सबका यह नैतिक और राष्ट्रीय कर्तव्य है कि हम घर-घर को भगवद् रस, भगवद् ज्ञान, भगवत् प्रेम, परमात्मशांति, निर्दोष-निर्विकारी आनंत से ओतप्रोत सामग्री से सुसमृद्ध बनाकर अपने राष्ट्र और समाज की घोर पतन से रक्षा करें । ध्यान रहे, सद्विचार एवं सत्कर्म ही सम्पदा है । इसी से सुमति एवं बाहरी सम्पदा प्राप्त होती है और अधिक समय तक टिकती है । आश्रम के मासिक प्रकाशन ‘ऋषि प्रसाद’, लोक कल्याण सेतु, मासिक वीडियो मैगजीन ‘ऋषि दर्शन’, मंगलमय इन्टरनेट चैनल एवं पूज्य बापू जी के सत्संग पर आधारित सत्साहित्य, वी.सी.डी., डी.वी.डी., एम. पी. थ्री. आदि जीवन की उपरोक्त माँग की सम्पूर्णरूप से पूर्ति करते हैं । अतः इनका लाभ सभी को लेना चाहिए एवं दूसरों तक हर प्रकार से पहुँचाना चाहिए । )

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2019, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 321

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