तो वह कर्मबंधन से छुड़ाने वाला हो जाता है – पूज्य बापू जी

तो वह कर्मबंधन से छुड़ाने वाला हो जाता है – पूज्य बापू जी


भगवान कहते हैं-

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ।।

‘सर्वदा योगयुक्त (सर्वदा मुझ में एकाग्रबुद्धि रखने वाले) और (मुझे) प्रीतिपूर्वक भजने वाले लोगों को मैं बुद्धियोग (ज्ञाननिष्ठा) देता हूँ, जिससे वे मुझे प्राप्त हो जाते हैं ।’ (गीताः 10.10)

बुद्धि तो सबके पास है लेकिन बुद्धि में योग आ जाय और योग आयेगा भगवान में प्रीति करने से । हम अपने दिल को भगवान से जोड़ें । जो कुछ काम करें, भगवान की प्रीति-प्राप्ति के लिए करें । कर्म तो हम करते हैं लेकिन कर्म में योग मिला दें । कर्म में योग तब मिलेगा जब निष्काम भाव से कर्म करेंगे ।

आप किसके लिए कर्म करते हैं ?… एक माई रास्ते पर झाड़ू  लगाती है और उसकी दृष्टि रुपयों पर है तो वह उसकी नौकरी हो गयी । एक माई बुहारी करती है घर में, उसकी दृष्टि रुपयों पर नहीं है, कुटुम्बियों की सेवा पर है तो सांसारिक कर्तव्यपूर्ति हो जाती है । शबरी भीलन गुरु के आश्रम में बुहारी करती है । उसकी दृष्टि रुपयों पर भी नहीं, कुटुम्बियों की सेवा पर भी नहीं, उसकी दृष्टि राम पर है तो उसकी बुहारी बंदगी हो जाती है, पूजा हो जाती है । बुहारी तो वही-की-वही लेकिन किसके लिए की जा रही है इसका महत्त्व है ! नौकरी करें लेकिन किसके लिए क्या करें ? रुपये-पैसे कमाकर मजा लेने के लिए नहीं बल्कि अपना कर्तव्य पालन करके उस प्यारे (परमात्मा) को प्यार करने के लिए करते हैं तो नौकरी बंदगी हो जाती है ।

भजतां प्रीतिपूर्वकम्…. जो मुझे प्रीतिपूर्वक भजता है…. भगवान में प्रीति कैसे हो ? बार-बार भगवन्नाम लें, बार-बार भगवन्नाम लें, बार-बार भगवान के निमित्त कार्य करें । कार्य किये बिना तो कोई नहीं रह सकता है इसलिए कार्य करें लेकिन राम के लिए, ईश्वरप्रीति-अर्थ । किसी को छोटा दिखाने के लिए अथवा अपने को बेड़ा दिखाने के लिए कार्य करेंगे तो वह कार्य बंधन हो जायेगा लेकिन भगवान को प्रसन्न करने के लिए कार्य करें तो वह बंधन से छुड़ाने वाला हो जाता है ।

ददामि बुद्धियोगं तं.… मैं उनको बुद्धियोग देता हूँ…. एक होती है बुद्धि, मति । कुमार्ग में जाय तो कुमति, सुमार्ग में जाय तो सुमति ।

सुमति कुमति सब कें उर रहहिं ।

नाथ पुरान निगम1 अस कहहीं ।। (श्री रामचरित. सुं. कां. 39.3)

1 वेद या उनका कोई भाग ।

अगर सत्कर्म करके ईश्वर को अर्पण करें और ईश्वर की प्रसन्नता चाहें तो वह सुमति मेधा बन जाती है । मेधावी पुरुषों की वाणी शास्त्र बनने लगती है । और उसी मेधा को अगर सत्यस्वरूप की तरफ लगायें – आत्मा के लिए अनंत ऐश्वर्य, अनंत सत्यत्व, चैतन्यत्व, ज्ञानत्व और आनंदत्व का श्रवण करके गम्भीर निदिध्यासन करें तो बुद्धियोग हो जाता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2019, पृष्ठ संख्या 17 अंक 322

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *