तब वह ज्ञान का अधिकारी होता है

तब वह ज्ञान का अधिकारी होता है


एक राजा गुरु के पास गया । गुरु बहुत प्रसन्न होकर बोलेः “वर माँगो ।”

राजाः “आप जो उत्तम जानते हैं, वह अपना ज्ञान दीजिये ।”

“नहीं । ज्ञान नहीं, काम लो ।”

मैंने विचार करके देख लिया कि विषय नाशवान हैं ।”

“नाशवान हैं तो क्या हुआ ? एक बार तो भोग लो ।”

“इन्द्रियाँ शक्तिहीन हैं । ये बहुत दिन भोग नहीं कर सकतीं । भोग्य पराधीन है और भोक्ता का कोई स्वत्व (स्वामित्व) नहीं है ।

गुरु राजा पर प्रसन्न हुए ।

‘यह वस्तु सदा हमारे पास रहे और हम प्रत्येक दशा में उसे भोग सकें’ – ऐसा सम्भव नहीं है । जीव को नाना देहों में जाना पड़ता है । भोक्ता में भी दोष है, भोग्य में भी दोष है, करण (इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि साधन) में भी दोष है, करण से सम्बद्ध विषय में भी दोष है ।

जब मनुष्य के मन में विवेक के उदय से वैराग्य का उदय होता है, तब वह ज्ञान का अधिकारी होता है । इतने दिनों तक श्रवण करने पर भी ज्ञान नहीं होता है । इसका क्या कारण है ? विवेक वैराग्य दृढ़ नहीं है । इतने दिन माला फेरने पर भी हृदय में भक्ति नहीं आती है । इसका क्या कारण है ? विवेक वैराग्य नहीं है । इतने दिन प्राणायाम करने पर भी समाधि नहीं लगती । इसका कारण क्या है ? विवेक वैराग्य दृढ़ नहीं हैं । विवेक-वैराग्य दृढ़ न होने से ही काम, क्रोध, लोभ, मोह होते हैं । विवेक-वैराग्य की दृढ़ता की कमी से ही मनुष्य के मन में सब दोष आते हैं । अध्यात्म-मार्ग में चलने वाले जिज्ञासु का पहला लक्षण यह है कि इष्ट (परमात्मा) को छोड़कर संसार की किसी वस्तु में उसकी महत्त्वबुद्धि नहीं होती । इस प्रकार, विवेक-वैराग्यसम्पन्न जिज्ञासु ही ज्ञान का अधिकारी होता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2019, पृष्ठ संख्या 27 अंक 323

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