बहाना बनाकर भी भक्तों का उद्धार करते हैं भगवान !

बहाना बनाकर भी भक्तों का उद्धार करते हैं भगवान !


स्वामी अखंडानंद जी सरस्वती

एक बार भगवान श्री रामचन्द्र जी अपने अंतःपुर में रत्नसिंहासन पर बैठे हुए थे । इसी समय देवर्षि नारद जी आकाश से उतरे । उनको देखकर रामचन्द्र जी झट हाथ जोड़कर बड़े प्रेम से खड़े हो गये ।

महात्मा लोग यदि न हों तो भगवान को कोई पूछे ही नहीं बस यही समझ लो, इसलिए भगवान भी महात्माओं का आदर करके, बनाकर रखते हैं । श्रीमद्भागवत (3.16.6) में भगवान सनकादि मुनियों से कहते हैं

सोऽहं भवद्भ्य

उपलब्धसुतीर्थकीर्तिश्छिन्द्यां

स्वबाहुमपि वः प्रतिकूलवृत्तिम् ।।

यह पवित्र कीर्ति मुझे आप लोगों से ही प्राप्त हुई है । इसलिए जो कोई आपके विरुद्ध आचरण करेगा, वह मेरी भुजा ही क्यों न हो, मैं उसे तुरंत काट डालूँगा । क्योंकि हमें जो कीर्ति मिली है – लोगों को तारने वाली हमारी जिस कीर्ति के श्रवण-स्मरण से लोग भवसागर से पार हो जाते हैं, वह कीर्ति हमारे पास नहीं थी, यह तो आपकी ही दी हुई है ।

नारद जी को देखते ही श्रीराम उठ खड़े हुए और सीता जी के सहित सिर धरती पर रखकर प्रणाम किया । श्रीराम जी ने कहाः “हे मुनिश्रेष्ठ ! आपका दर्शन तो संसारी पुरुषों के लिए दुर्लभ है । जो संसारी सुख भोग रहा है उसको आपका दर्शन हो वह भी महल के भीतर आकर, तो ये अवश्य हमारे पूर्वजन्म के कोई पुण्य होंगे और उनका उदय हुआ तभी तो आपका दर्शन हुआ है ।”

नारद जी ने कहाः “राम ! तुम लोगों के समान बातचीत करके मुझे क्यों मोह में डाल रहे हो ? तुम अपने को संसारी कहते हो ! पुण्यों के उदय से हमारा दर्शन बताते हो तो आपका कहना बिल्कुल ठीक है । आप जरूर संसारी हैं क्योंकि जो सारे संसार की माता है – महामाया, वह आपकी गृहिणी है तो संसारी आप हुए ही । आप जैसा संसारी और कौन होगा ? आपके ही सान्निध्य् से ब्रह्मा आदि संतान की उत्पत्ति होती है, आपके आश्रय से त्रिगुणात्मिका माया भासती है और तमोगुणी, रजोगुणी, सत्त्वगुणी प्रजा की सृष्टि करती है । स्त्री-वाचक जितने भी शब्द हैं, वे सब शुभ जानकी हैं और पुरुष-वाचक जितने भी शब्द हैं, वे सब-के-सब राम हैं ।”

वेद में आता हैः

त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी ।

….जातो भवसि विश्वतोमुखः ।।

तुम स्त्री हो, तुम पुरुष हो, तुम कुमार या कुमारी हो, सर्वरूप में तुम्हीं प्रकट होते हो ।

(अथर्ववेदः कांड 10  सूक्त 8, मंत्र 27, श्वेताश्वतर उपनिषदः 4.3)

अब तो नारदजी की आँखों से आँसुओं की धारा गिरने लगी, वे बोलेः “मैं अपने पिता ब्रह्मा जी की आज्ञा से आपके पास आया हूँ । उन्होंने आपके लिए कहा है कि हे रामचन्द्र ! आप रावण वध के लिए पैदा हुए हैं । अभी पिता दशरथ तुम्हारा राज्याभिषेक कर देंगे । जब राज्याभिषेक के झगड़े में पड़ जाओगे तो रावण को मारोगे नहीं । आपने पृथ्वी का भार उतारने की प्रतिज्ञा की है । उस प्रतिज्ञा को सत्य करो क्योंकि आप सत्यप्रतिज्ञ ही हो !”

भगवान रामचन्द्र जी मुस्कराकर बोलेः “नारदजी मैं सब समझता हूँ, सब जानता हूँ, मेरे लिए अज्ञात कुछ नहीं है । मैंने जो प्रतिज्ञा की है, उसको मैं पूरा करूँगा इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है किंतु समय के अनुसार । इन रावणादि ने जो तपस्या, उपासना करके शक्ति संचित की है, उन्हें जो प्रारब्ध प्राप्त हुआ है वह जब धीरे-धीरे क्षीण होगा तब उनको मारूँगा । मैं रावण के विनाश के लिए ही दण्डकारण्य जाने वाला हूँ । चौदह वर्ष वहाँ मुनि वेष में रहूँगा । सीता के बहाने उनके कुल का नाश करूँगा ।”

इसमें भी बहुत विलक्षण बात है । भगवान सीता जी के हरण का निमित्त बनाकर माने अपनी पत्नी तक को रावण के द्वारा हरवा कर उस रावण का उद्धार करते हैं, सो भक्तों के उद्धार के लिए भी कोई-न-कोई बहाना चाहते हैं ।

ऐसा नहीं कि अजामिल माला लेकर बैठे और ‘हरे राम ! हरे राम ‘ का इतना करोड़ जप करे, ऐसा नहीं । वह तो उसके मुँह से बेटे के  बहाने ‘नारायण’ नाम निकला और नामाभास से ही उसकी रक्षा करने के लिए – जैसे रावण के वध का बहाना बनाते हैं – वैसे पापियों के उद्धार का भी बहाना चाहिए । कोई कारण चाहिए । ये तो अकारण करूणा-वरूणालय हैं ।

जब राम जी ने ऐसी प्रतिज्ञा की तब नारदजी को बड़ा आनंद हुआ । उन्होंने तीन प्रदक्षिणा कीं, प्रणाम किया, राम जी से अनुमति लेकर जहाँ से आये थे वहाँ चले गये । यह नारद जी और राम जी का संवाद है । जो भक्ति के साथ इसका स्मरण-वर्णन करता है वह वैराग्यपूर्वक सुर-दुर्लभ गति को, मोक्ष-कैवल्य को प्राप्त करता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2019, पृष्ठ संख्या 11,12 अंक 323

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