Monthly Archives: December 2019

दूध नही अपमान के घूंट पी कर बड़े हुए वे योगी (प्रेरक कथा) भाग- १


गुरुभक्ति योग जीवन के अनिष्टों का एक ही उपाय है, गुरुभक्ति योग के अभ्यास से सर्व सुखमय अविनाशी आत्मा को भीतर ही खोजो। गुरुभक्ति योग को जीवन का एकमात्र हेतु ध्येय एवं वास्तविक रस का विषय बनाओ। आप सर्वोच्च सुख प्राप्त करोगे। साधना पथ तो है ही युद्ध का पथ। युद्ध भी किसी अन्य से नही स्वयं अपने आप से। अस्त्र शस्त्रों से लैस सैनिकों से नही। विकारों से लैस मन के विचारों से। इन्हीं शत्रु विचारों मे से एक है कि मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ? यह तो अन्याय है, मेरा अपमान है, उसने मुझसे कटु लहजे मे बात क्यों की?, उसने मेरी ओर हीन दृष्टि से क्यों देखा? उसने आंखे क्यों तरेरी?, क्या मेरी कोई इज्जत नही, कोई सम्मान नही। ये शत्रु विचार है मन के। अक्सर इन विचारों के प्रबल शस्त्र साधक के मन को विदीर्ण कर डालते हैं, उसके भीतर कोहराम मचा देते है, मान सम्मान का मोर्चा संभालता हुआ साधक थक हार जाता है, इस परिस्थिति मे विजय श्री का बिगुल कैसे बजाया जाए? अन्याय और अपमान की स्थतियो मे एक साधक का क्या कर्म है क्या अधर्म है। उसकी प्रतिक्रिया कैसी होनी चाहिए हम इस कथा के माध्यम से जान सकते है।

महाराष्ट्र के प्रसिद्ध चार आत्मज्ञानी भाई और बहनों में सबसे बड़े थे श्री निवृत्ति नाथ फिर श्री ज्ञानदेव, श्री सोपान और बहन मुक्ता। ये बचपन से ही दूध नही अपमान के घूंट पीकर बड़े हुए, इन्हे मुख्य गांव आलंदी से बाहर सिद्ध दीप मे निष्कासित कर दिया। इनके माता पिता को देह त्याग करने के लिए विवश किया गया, माता पिता ने ग्राम सभा के इस अन्याय कारी बर्बरता को भी शिरोधार्य कर लिया। अपनी जीवन लीला समाप्त कर डाली सिर्फ इसलिए कि उनके बच्चो को गांव वाले स्वीकार कर लें। परन्तु तब भी न्याय का प्रकाश नही हुआ ये छोटे छोटे अनाथ भाई बहन को बाहर एक निर्जन कुटिया मे जैसे तैसे पलते बढ़ते रहे, अपमान कारी ताने और अन्याय कारी व्यवहार यही उनकी खुराक थी परन्तु इतिहास साक्षी है इन्होंने अपमान को भी अपने आत्मनिर्माण का साधन बना लिया। कैसे बनाया आइए जाने……

इंद्रायणी नदी का तट है, बालक ज्ञानेश, श्री ज्ञानदेव जी। बालक ज्ञानेश पसीने से लथपथ था, सूर्य का भीषण ताप उसके अंगों को झुलसा रहा था, ज्ञानेश स्नान करने आया था, इंद्रायणी के शीतल जल को अपलक दृष्टि से देखता हुआ वह सीढ़ियां उतरने लगा तभी भीषण गर्जना हुई यह एक कट्टर पंथी ब्राह्मण का स्वर था। ओ लड़के भाग यहां से। इस सरिता मे ब्रह्मण स्नान करते है इसे अपनी काया तो क्या छाया से भी मैली मत कर। ज्ञानेश के कदम ठिठक गए उसने धीरे से कहा बाबा नदी के इस ओर गाय, बैल, भैंसे और कई पशु नहाते है। में भी इस कोने मे डुबकी लगाऊंगा और चला जाऊंगा। नहाने दो ना मुझे। तूने अपनी बराबरी ब्रह्मणो की गाय से की। तेरी इतनी हिम्मत। तू तो पशुओं से भी हीन है जा तू तो नाली और नाला ढूंढ़ ले नहाने के लिए। चल भाग यहां से। ब्रह्मण मुख से आग उगलता रहा पास ही कुछ ब्रह्मण कुमार खेल रहे थे, अवसर भांपते ही उन्हें तो खेल सूझ गया, उन्होंने तो तटवर्ती कंकड़, पत्थर उठाए और ज्ञानेश को निशाना बना बना कर फेकने लगे। ज्ञानेश की कोमल देह जगह जगह से छील गई, बड़ी मुश्किल से बचता बचाता कंकरीले तट पर रास्ता बनाता ज्ञानेश वहा से बच निकला, अपनी कुटिया की ओर जाने लगा, रास्ते मे ज्ञानदेव की देह घायल थी परन्तु उससे अधिक मन आहत था, ज्ञानेश का हृदय चीख उठा की हे विठोबा ! हमारा क्या अपराध है उन ब्रह्मनो द्वारा खोदे गए कुओ पर तो हम जाते ही नहीं परन्तु अब क्या तो तेरी नदियों पर भी हमारा अधिकार नहीं, पशुओं तक का है, हमारा नहीं है, क्यो है ऐसा देव? वो ऊंचे और हम नीचे कैसे? पग पग पर ये अपमान की चोटे क्यो? हमारे माता पिता ने अपने जीवन तक का त्याग कर दिया फिर भी

इनकी घृणा का विष दूर नही हुआ अन्याय की भी एक सीमा होती है केशवा। कैसे है ये लोग?

ज्ञानदेव के मन मे तो प्रश्नों का झंझावात उमड़ने घुमड़ने लगा किसी प्रकार का तर्क या तथ्य उसे उत्तर नही दे पा रहा था कोई गणित इस स्थति मे सटीक नही बैठता था, ऐसे मे कैसी मन, बुद्धि को समझाया जाए ऐसे मे एक पंथ ही शेष था, मन बुद्धि से परे का पंथ वो है आत्मा की राह। ज्ञानेश की आत्मा मे गीता का एक श्लोक गूंज उठा जिसका एक भावार्थ था। कि..

शीत,उष्ण सुख, दुख तथा शत्रु, मित्र समान बन निसंग विचरे।

सदा सहे मान अपमान निंदा स्तुति सम जानता।

दोष भरा मन मे स्थति मति प्रिय वह भक्त है सर्वोपरि जग मे।।

यह था एक साधक का अपना सनातन तर्क। अपना अलौकिक गणित मुझे कुछ नही होना चाहिए यह तो एक दिव्य परिस्थती है जो मेरे लिए निर्मित की गई है ताकि मेरा निर्माण हो सके। मुझमें संयम पैदा हो सके। मुझमें सहन शक्ति, क्षमा जैसी सदव्रतिया जाग पाए, मुझमें सम भाव विकसित हो जाए, अच्छा है अच्छा है। ऐसी स्थति मे तो स्थिर मती बनाई जाती है इसलिए क्षुब्ध क्यों होना भला एक अनघड़ पत्थर छैनी, हथौड़ा से कोई गिला शिकवा करता है क्या? नहीं ना तो तू क्यो करता है ज्ञानेश?

इन्हे धेर्य से सहन कर ज्ञानेश। इस महा तर्क की औषधि पिलाते हुए वापस लौटने लगा इसलिए घर पहुंचने तक उसके आहत मन के सारे घाव सुख गए। निर्जन स्थान मे बनी अपनी कुटिया के आंगन मे भाई निवृत्ति। निव्रतीनाथ सबसे बड़े भाई थे, भाई निवृति, सोपान और छोटी बहन मुक्ता तीनों किसी गहन मंत्रणा मे व्यस्त थे, ज्ञानेश ने एक मृदु सी मुस्कान लिए आंगन मे प्रवेश किया बड़े भाई निवृत्ति जिनको ज्ञानेश्वर जी अपने अध्यात्म गुरु मानते थे, बड़े भाई निवृत्ति को झुककर ज्ञानेश ने प्रणाम किया फिर छोटी बहन मुक्ता से पूछा क्यों मूक्ताई क्या मंत्रना चल रही है? किसी गहन विषय पर सोच विचार करते लग रहे है, सभी मुक्ता और सोपान खी खी करते हस दिए, मुक्ता बोली हा ज्ञानू भैया बहुत ही गहन और गंभीर विषय पर हम गोष्ठी कर रहे हैं।

ज्ञानेश ने कहा बताओ ना किस विषय पर? छोटा भाई सोपान ने कहा आज माड़े कैसे पकाएं जाए?माड़े आटे के बनते हैं मोटी रोटी के समान। आज माड़े कैसे पकाएं जाए? गरमा गरम पतले पतले मृदु माड़े। चारो भाई बहन हस दिए मुक्ता ने बात आगे बढ़ाई कि ज्ञानू भैया हमारे निवृत्ति दादा बड़े भैया ने आज इच्छा की है कि‌ माड़े खाने है ज्ञानदेव ने कहा निवृत्ति दादा की इच्छा है माने गुरु की आज्ञा।

मुक्ता अब तो हर परिस्थिति मे उसे पूरा करना ही करना है छोटे भाई सोपान ने कहा आप ठीक कहते हो ज्ञानू भैया। आप और में मधुकरी मे आटा मांगकर लाते है, रास्ते मे कुम्हारिन कमला मौसी के घर से खपरेला भी उठा ले आएंगे। मुक्ता उसे उल्टा करके सेंक लेगी उस पर। मुक्ता ने कहा हा हा भैया मुझे सुबह वन मे कुछ कंदमूल मिले तब तक में उससे सब्ज़ी और चटनी बना लेटी हूं वाह आज तो दावत ही हो जाएगी। दादा निवृत्ति ने बड़ी अर्थ

भरी मुस्कान दी।ज्ञानदेव ने झोला टांग लिया और छोटे भाई सोपान के संग गांव आलंदी की ओर बढ़ गया जिस गांव से उन्हें निष्कासित किया गया था ये दोनों भाई उसी गांव की ओर बढ़ चले। गुरु की इच्छा पूरी करने के लिए। गांव पहुंचकर पहला द्वार खटखटाया।

भिक्षाम देही, मधुकरी दे दो बाबा, भिक्षाम देही।

झटके से द्वार खुला सामने से एक बड़ी चोटी वाला रूढ़िवादी, नकचड़ा पोंगा शास्त्री आ खड़ा हुआ उसका नाम था विसोबाचाटी। उसकी भृकुटियां चड़ी हुई थी, मुखाकृतियां वक्र थी नेत्र द्वेष से तप्त थे, दोनों बालको को देखते ही उसने धावा बोल दिया अरे आे पाखंडी सन्यासी की औलादों दूर भागो यहां से। मेरे आंगन मे अपनी पापी छाया मत डालो तुम वो जंगल छोड़कर इधर गांव मे कैसे आ गए, नास पीटो, भूखे प्यासे रहकर मर खप क्यो नही जाते? बार बार अपनी मनहूस सूरत क्यो दिखाने चले आते हो? क्या आलंदी मे छूत की बीमारी फैलाओगे? तलवार से भी अधिक धारदार ताने सुनने वाले को काट काटकर टुकड़े कर डाले परन्तु हमारे इन ज्ञानी साधकों की क्या प्रतिक्रिया थी जानते है। संयम, संयम और संयम। ज्ञानेश्वर ज्ञानेश ने मुस्कराते हुए मीठा सा उत्तर दिया विसोबा काका दूर भगाना है तो क्रोध और द्वेष को भगाओ, देखो यह आपका कितना अहित करेगी, अभी ज्ञानेश की पंक्ति पूरी ही नहीं हुई थी विसोबाचाटी बोल उठा ओ भिख मंगो मुझ पर उपदेश झाड़ने आए हो ठहरो तुम्हारी तो…. विसोबा ने द्वार पर रखा हुआ मोटा डंडा उठा लिया और द्वार पर लपका। ज्ञानेश और सोपान ने आंव देखा ना ताव सिर पर पैर रखकर वहा से भाग गए। आटा तो मिला नहीं चाटा जरूर मिल जाता आज। सोपान ने कहा सोपान हांफते हुए कहे जा रहा था, ज्ञानेश ने भी लंबी गहरी सांस भरी कोई बात नहीं, कोई बात नहीं। सोपान विसोबा काका को मन ही मन क्षमा कर दो, नही तो बैर जन्म ले लेगा नही तो आगे चलकर मानसिक क्लेश मचाएगा। इससे हमारी ही हानि होगी परन्तु सोपान तनिक विद्रोही हो चला था दांत पीसता हुआ बोला मेरा बस चले तो इन ढापोल शंखी, धूर्त मार्तंडो की चोटी पकड़कर गोल गोल घुमाकर इनको जमीन पर पटक दू। ज्ञानेश ने तुरंत अपनी बाह छोटे भाई कंधे पर रख दी।

समझाया नही नही सोपान इतना उबाल अच्छा नही, निवृत्ति दादा कहते है ना आनंद मनाना है तो परमानंद को ध्याओ, इन छोटी मोटी बातो पर क्या विचार करना? देखो जरा संयम धरकर देखो तुम स्वयं को कितना ऊंचा, कितना विराट अनुभव करोगे में भी ऐसा ही करता हूं सोपान ने कहा आप ठीक कहते है भैया वैसे ही हमे अपने लक्ष्य से नही भटकना चाहिए। आज हमारा लक्ष्य है गुरुदेव को माड़े खिलाने का। दोनों भाई हस्ते हुए अगले द्वार पर बढ़ चले। द्वार खटखटाया पुकारा भिक्षाम देही, मधूकरी दे दो।

माई स्त्री ने द्वार खोला तनिक ठहरो कहकर भीतर जाने ही लगी थी कि ज्ञानेश ने विनय की माई आज मधूकरी मे आटा ही दे दो। स्त्री उदार थी बर्तन भरकर आटा लाई और ज्ञानेश का पूरा झोला ही भर दिया दोनों बालक प्रसन्न हो उठे,कुम्हारिन कमला के घर की और बढ़ गए अब तो सोपान चल नही फुदक रहा था अत्यंत उमंगित था अब तो सोपान बार बार झोले का भार अपने हाथो मे ले लेता था भार अनुभव करते ही तालियां बजाता और खिलखिलाता था। ज्ञानेश ने फिर से सोपान को सावधान किया सोपान अधिक हर्ष मत मनाओ गुरुदेव दादा निवृत्ति कहते है ना हर्ष कब संघर्ष में बदल जाए कुछ पता नहीं दोनों कुम्हारिन कमला के आंगन मे पहुंच गए तरह तरह के मटकों की कतारें सुशोभित थी, ज्ञानेश ने पुकारा कमला मौसी, कमला मौसी एक खपरा दे दोगी क्या? कमला का चारो बालको के प्रति स्नेह अपार था ज्ञानेश का स्वर सुनते ही वह दौड़कर बाहर आ गई, सोपान ने निजी इच्छा रखी मौसी आज हमने माड़े खाने की योजना बनाई है। निवृत्ति दादा की यही इच्छा है इसलिए माड़े सेंकने के लिए एक खपरा चाहिए।

हा हा क्यो नहीं बहुत बढ़िया अभी देती हूं। एक चपटा सा खपरा देते हुए कहा मुक्ता को कहना चूल्हे पर इसे उल्टा रख दे। कमला पंक्ति मे से एक उपयुक्त खपरा उठाने लगी तभी एक प्रचंड भूचाल का नाम था विसोबाचाटी। अपने सेवकों से कहकर उसने बालको पर नजर रखवायी हुई थी।

उनके खबर देने पर वह कमला के आंगन पहुंचा उसकी कुटिल दृष्टि सीधी ज्ञानेशा की लदी फदी झोली पर गई। फिर कमला के हाथो पर टिकी खपरा पर। उस धूर्त को समझते देर न लगी और उसने कुत्सित स्वर मे कहा। आहा ये कंगाल भीखमंगे मांग मांगकर माड़े उड़ाने की सोच रहे है, दो दो गज लंबी जीभ हो गई है तुम दुष्टों की। पूरी आलंदी को मूर्ख बनाते हो, पेट की आग बुझाने का बहाना बनाते हो और माड़ो की ललक रखते हो। थोड़ी भी लज्जा है या सारी हया घोलकर पी गए हो पाखंडियों। टुकड खोर चोर कहीं के।

कमला भी सहम गई परन्तु फिर भी हिम्मत बटोर कर वह बोली साहब बालक ही तो है सालो मे एक बार माड़े पकाकर

खा भी लिए तो क्या हुआ और वो माड़े भी तो आटे से बनते है।

चुप कर कुम्हारिन। अपनी आौकत मे रह। विसोबाचाटी पहले से भी ऊंचे और उग्र स्वर मे चीखे तूने ही इन ठिकरो को सिर चड़ा रखा है इतना कहते कहते विसोबाचाटी क्रोध से पागल हो गया। ताव मे आकर पांव चलाने लगा, कुम्हारिन के मटके एक एक करते चूर चूर करते गए, कमला के हाथ से भी खपरा छीनकर चकना चूर कर डाला। दोनों बालक टुकुर टुकुर पलके झपका कर अपनी आंखो के सामने विनाशकारी तांडव देख रहे थे। कमला के नेत्र भी डबडबा आए, सोपान मे रोष का उफान उठ गया था, वह प्रबल प्रतिक्रिया करने ही वाला था तभी ज्ञानेश ने उसका हाथ दबाया और आंखो ही आंखो मे शांत रहने को कहा बालको की यह शांति देखकर विसोबाचाटी और ज्यादा जल भून गया मुख से अंगारे उगलता हुआ आगे बढ़ा और ज्ञानेश का झोला छीनकर पटक दिया, सारा आटा टूटे मटको और मिट्टी मे जा मिला, विसोबाचाटी ने अंतिम धमकी दी, नरक के कीड़ों में टुकड़ा भर भी माड़े तुम्हे खाने नहीं दूंगा, तुम्हारी तो ऐसी की तैसी फिर विसोबाचाटी ने अकड़ में अपना अंगोछा झाड़ा और तमतमाता हुआ आंगन मे चला गया आंगन मे चारो ओर विध्वंस ही विध्वंस मचा डाला, प्रलयकारी तूफान आया था और सब कुछ रील कर चला गया था।

दोनों बालक थर थर कांप रहे थे सोपान के कंठ मे हिचकियां भर गई, घोर संताप दोनों के मन मे उबल रहा था, ज्ञानेश ने एक नजर उठाकर कमला मौसी की ओर देखा उसकी भी कुछ ऐसी दशा थी, दोनों भाई लूट पिटे क़दमों से कुटीर की ओर चल पड़े अब तो ज्ञानेश का संयमचारी मन भी सिसकने लगा था कि इतना तिरस्कार, इतना अनादर, इतनी उपेक्षा। हे ईश्वर हमारा अस्तित्व ही तूने क्यों गड़ा? दोनों अपने आंगन तक पहुंच गए निवृत्ति और मुक्ता दोनों उत्सुक क़दमों से उनकी तरफ बढ़ ज्ञानेश कुछ नहीं बोला कुटिया मे अकेले प्रवेश कर उसने किवाड़ बन्द कर दिया भीतर से सांकल भी जड़ दी, बाहर आंगन मे छोटा भाई सोपान ने रोते रोते सारा प्रसंग कह सुनाया।

अब आगे इन बालको की क्या प्रतिक्रिया रहेगी इस घोर अपमान को कैसे आत्मनिर्माण की सीढ़ी बनाएंगे? ऐसी कौन सी योजना होगी यही देखना है।

————————————————-

आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जायेगा

जिसमें संयम है सिखने की तड़प है और गुरुमंत्र पर विश्वास है उसे सफलता जरूर मिलती है।


द्रोणाचार्य के कुछ शिष्य सोचते थे कि अर्जुन पर गुरूजी की विशेष कृपा है। उन सभी को अर्जुन खटकता था।

एक बार गुरू द्रोणाचार्य अर्जुन सहित अपने शिष्यों को लेकर नदी किनारे गये और एक वटवृक्ष के नीचे खड़े होकर बोले- बेटा अर्जुन! मैं आश्रम में अपनी धोती भूल आया हूँ जा! जरा ले आ। अर्जुन चला गया।

गुरू द्रोणाचार्य ने दूसरे शिष्यों से कहा कि- बाहर के धनुष और गदा में तो शक्ति है लेकिन मंत्र में इनसे अनंत गुना शक्तियाँ होती है। मंत्र जापक उसका महात्म्य और विधि समझ ले तो मंत्रों में बहुत ताकत है। मैं मंत्र से अभिमंत्रित एक ही बाण से इस वटवृक्ष के सारे पत्तों को छेद सकता हूँ। ऐसा कहकर द्रोणाचार्य ने धरती पर एक मंत्र लिखा। एक तीर को इस मंत्र से अभिमंत्रित किया और छोड़ दिया। बाण एक-एक पत्ते को छेद करता हुआ गया। सभी शिष्य आश्चर्य चकित हो गये।

बाद में गुरू द्रोणाचार्य और सभी शिष्य नहाने चले गये। इतने में अर्जुन लौट आया। उसकी दृष्टि पेड़ के पत्तों की ओर गई। वह सोचने लगा कि इस वटवृक्ष के पत्तों में पहले तो छेद नहीं था। मैं सेवा के लिए गया तब गुरूजी ने इन शिष्यों को कोई रहस्य बताया है।

रहस्य बताया है तो उसका कोई सूत्र भी होगा। शुरूआत भी होगी और कोई चिन्ह भी होगा। अर्जुन ने इधर-उधर देखा तो धरती पर एक मंत्र के साथ लिखा था- वृक्ष छेदन के साम्थर्य वाला यह मंत्र अद्भुत है। उसने वह मंत्र पढ़ा, धारणा की और दृढ़ निश्चय किया की मेरा यह मंत्र अवश्य सफल होगा। अर्जुन ने तीर उठाया और मंत्र पढ़कर छोड़ दिया। वटवृक्ष के पत्तों में एक-एक छेद तो था ही दूसरा छेद भी हो गया।

अर्जुन को प्रसन्नता हुई की गुरूदेव ने उन सब को जो विद्या सिखाई वह मैंने भी पा ली। नहाकर आने पर सबने देखा कि पहले तो वृक्ष के पत्तों में एक ही छेद था अब दूसरा किसने किया ? द्रोणाचार्य ने पूछा दूसरा छेद तुम लोगों में से किसी ने किया है ?

सभी ने कहा- नहीं गुरूदेव! द्रोणाचार्य ने अर्जुन से पूछा क्या तुमने किया है ? अर्जुन थोड़ा डर गया किंतु झूठ कैसे बोलता। उसने कहा- मैंने आपकी आज्ञा के बिना आपके मंत्र का प्रयोग इसलिए किया कि आपने इन सब को तो यह विद्या सिखा ही दी थी फिर आपसे पूछकर मैं अकेला आपका समय खराब न करूँ! इतना खुद ही सीख लूँ। गुरूदेव! गलती हो गई हो तो माफ करना।द्रोणाचार्य ने कहा- नहीं अर्जुन! तुममे जिज्ञासा है, संयम है, सिखने की तड़प है और मंत्र पर तुम्हें विश्वास है।

मंत्रशक्ति का प्रभाव देखकर ये सब तो केवल आश्चर्य करके नहाने चले। इनमे से किसी ने भी दूसरा छेद करने का सोचा ही नहीं। तुमने हिम्मत की , प्रयत्न किया और सफल भी हुए। तुम मेरे सत्पात्र शिष्य हो। अर्जुन! तुमसे बढ़कर दूसरा धनुर्धर होना मुश्किल है। शिष्य ऐसा जिज्ञासु हो कि गुरू का हृदय छलक पड़े।

जिसके जीवन में जिज्ञासा है, तड़प है और पुरूषार्थ है वह जिस क्षेत्र में चाहे सफल हो सकता है। सफलता उद्यमियों का ही वरण करती है। स्वामी शिवानंद जी कहते हैं कि शिष्य जब गुरु के पास रहकर अभ्यास करता हो तब उसके कान श्रवण के लिए तत्पर होने चाहिए। वह जब गुरू की सेवा करता हो तब उसकी दृष्टि सावधान होनी चाहिए।

पुण्य कब परम कल्याणकारी होता है ?


बालि एक ऐसा योद्धा है जो अपने जीवन में कभी पराजित नहीं होता । वह किसी भी शत्रु की चुनौति से घबराता नहीं । यह बालि के चरित्र में पग-पग पर दिखाई देता है । जब बालि के ऊपर भगवान राम बाण-प्रहार करते हैं तो पहले तो बालि भगवान को चुनौति के स्वर में फटकारता है और उनसे पूछता हैः

धर्म हेतु अवतेरहु गोसाईं । मारेहु मोहि ब्याध की नाईं ।।

जब आपने धर्म की रक्षा के लिए अवतार लिया है, तब मुझे व्याध की तरह छिपकर क्यों मारा ? (श्रीरामचरित. कि. कां. 8.3)

आपका अवतार तो पाप को नष्ट करने के लिए हुआ है, पुण्य को नष्ट करने के लिए नहीं । यदि आप रावण पर बाण चलाते तो बात कुछ समझ में आती पर आपने मुझ पर अपने बाण का प्रयोग किया, यह दुःख की बात है । इससे आपके अवतार का उद्देश्य तो पूरा होने वाला नहीं । फिर आपने मुझमें और सुग्रीव में भेद क्यों किया ?

मैं बैरी सुग्रीव पिआरा । अवगुन कवन नाथ मोहि मारा ।।

मैं वैरी और सुग्रीव प्यारा ? हे नाथ ! किस दोष से आपने मुझे मारा ?

(श्रीरामचरित. कि. कां. 8.3)

बालि का सांकेतिक तात्पर्य यह है कि ‘सुग्रीव यदि सूर्य का पुत्र है, सूर्य के अंश से यदि उसका जन्म हुआ है तो मेरा जन्म भी तो इन्द्र के अंश से हुआ है । ऐसी स्थिति में आपको ज्ञान और पुण्य की रक्षा करनी चाहिए थी । आपने ज्ञान अर्थात् सुग्रीव की तो रक्षा की लेकिन पुण्य पर अर्थात् मुझ पर प्रहार किया, इसमें आपका उद्देश्य क्या है ?’

भगवान श्री राम ने कहाः “वस्तुतः मैंने जो तुम पर प्रहार किया है उसका उद्देश्य तुम्हें मारना नहीं है ।

मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना ।

हे मूढ़ ! तुझे अत्यंत अभिमान है ।’

(श्रीरामचरित किं.कां. 8.5)

मैंने तेरे अभिमान पर प्रहार किया है ।”

संसार में पुण्य की तो आवश्यकता है मगर अभिमान की नहीं । इसलिए जब पुण्य के साथ अभिमान की वृत्ति सम्मिलित हो जाती है तब अभिमान को नष्ट करना पड़ता है । इसलिए जब बालि का अभिमान नष्ट हो जाता है, तब भगवान उसके सिर पर हाथ रख देते हैं । जिस बालि के ऊपर प्रभु ने अपने हाथों से धनुष पर बाण चढ़ाकर प्रहार किया था, उसी के मस्तक पर उनका हाथ है । इसका अभिप्राय यह है कि जब तब पुण्य अभिमान से युक्त है तब तक भगवान उसको विनष्ट करने पर तुले रहते हैं पर यदि पुण्य से अभिमान की निवृत्ति हो जाय तो ऐसा पुण्य परम कल्याणकारी होता है । तभी तो भगवान राम बालि के मस्तक पर हाथ रखकर कहते हैं-

अचल करौं तुन राखहु प्राना ।

बालि ! मैं चाहता हूँ कि तुम जीवित रहो, तुम्हारे शरीर और प्राणों की मैं रक्षा करना चाहता हूँ ।”

किंतु बालि ने भगवान राम के इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया । आगे चलकर वर्णन आता है कि बालि की मुक्ति हो गयी ।

बहुत बार ऐसा होता है कि व्यक्ति पुण्य तो करता है पर अपने-आपको न तो अहंता से मुक्त कर पाता है और न ममता से । इसलिए पुण्यकर्म करने पर यदि अहंता और ममता बनी हई है तो व्यक्ति की मुक्ति सम्भव नहीं । बालि का यह प्रसंग इसी ओर संकेत करता है । अतः मुक्ति के लिए पुण्यकर्म करने के साथ-साथ ब्रह्मवेत्ता महापुरुष के सत्संग-मार्गदर्शन अनुसार चलकर अहंता-ममता निवृत्त करनी चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2019, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 324

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ