Monthly Archives: January 2020

सब कामों को छोड़ दो


भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का श्लोक है
विहाय कामान् यः सर्वान् पुमांश्चरति निःस्प्रहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।।
जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममता रहित , अहंकार रहित और स्पृहा रहित होकर विचरता है वही शांति को प्राप्त होता है।


अष्टावक्र जनक को कहते है, श्रीकृष्ण अर्जुन को कह रहे है।अष्टावक्र कहते है – ममता रहित निर्द्वंद्व हो ,
भ्रम भेद सारे दे हटा
मत राग कर मत द्वेष कर
सब दोष मन के दे मिटा
निर्मूल कर दे वासना
निज आत्म का कल्याण कर
भांडा दुई का फोड़ दे
सर्वात्म अनुसंधान कर


दुई के चिंतन से ही राग- द्वेष, भय -शोक, चिंता ,ग्लानी, स्पृहा, ममता, अहंकार ये सब दोष पैदा होते है।अष्टावक्र कहते है भांडा दुई का फोड़ दे , सर्वात्म अनुसंधान कर। जैसे क्षीरसागर में भगवान विष्णु आराम कर रहे है ऐसे ही तू आत्मसगर में विश्रांति को पा!
विहाय कामान् यः सर्वान् पुमांश्चरति निःस्प्रहः ….कामनाओं को छोड़। ऐसा सुख तो स्वर्ग में नही होता जितना सुख कामना के त्याग से होता है। इतना दुःख तो नरक में भी नही होता जितना कामना वान के ह्रदय में होता है।
विहाय कामान् यः … जो पुरूष संपूर्ण कामनाओं का त्याग कर ममतारहित होता है..विषय भोग की कामना न करें, प्रारब्ध वेग से शरीर का पोषण होता ही जा रहा है।
मिले हुए पदार्थों में ममता न करे क्योंकि बहनेवाले है। बहनेवाले को देखकर बहने का मजा लो और रहनेवाले को देखकर रहने का मजा लो। संसार,सबंध, विषय और भाव सब बहनेवाले है। इनको बहता जानकर तुम तृप्त रहो। और इन सबका जो साक्षी परमात्मा है वह रहनेवाला है। उसके रहने की गरिमा को जानकर तुम वही हो जाओ, तुम बहने का भी मजा लो और रहने का भी मजा लो। बहाव में बहो नही और रहनेवाले को पीठ दो मत।
टूटे-फूटे भाग्य को संत देत है जोड़
संत बेचारा क्या करें
हम ही लेत है मुख मोड़।
टूटे-फूटे भाग्य को संत देत है जोड़,संत बेचारे क्या करें खुद ही लेत है मुख मोड़! हम अपने मुख को न मोड़े। हम अपनी महिमा से अपने मुख को न मोड़े। हमारा कितना भी टूटा-फूटा भाग्य होगा, जुड़ जाएगा। सदियों का अँधेरा जाने में देर नही लगती, सदियों की भटकान …लेकिन मुलाकात के बाद वो कोई महत्व नही रखती। युगों से कई गर्भों में हम भटकते आए है। इस इच्छा और वासना, ममता
और स्पृहा के कारण हे ममता तुझे नमस्कार है, हे अहंकार तुझे अलविदा है, हे कामना तू किनारे हट…जो-जो चित्त में कामना उठती हो उसको बोलो अभी तेरा यहाँ समय नही! हे कामना तूने हमें कई युगों से भटकाया है, हे स्पृहा तूने हमें कई
युगों से भटकाया है, हे ममता तूने कईं जन्मों तक हमें मारा है, हे अहंकार कईं युगों से तू हमें अकेला पछाड़ता आया है!


अब तो हम कृष्ण के वचनों को अपने वचन बना लेंगे। श्रीकृष्ण के वचनों को, श्रीकृष्ण के अनुभव को हम अपना अनुभव मान लेंगे, श्रीकृष्ण के ज्ञान को हम अपना ज्ञान बना लेंगे, श्रीकृष्ण के उपदेश को हम जीवन में ढाल देंगे, अष्टावक्र के आदेश को हम जीवन में ढाल देंगे।
ममता रहित निर्द्वंद्व हो ,
भ्रम भेद सारे दे हटा
मत राग कर मत द्वेष कर
सब दोष मन के दे मिटा
निर्मूल कर दे वासना
निज आत्म का कल्याण कर
भांडा दुई का फोड़ दे
सर्वात्म अनुसंधान कर…


ए मेरे मन तू सर्वात्म अनुसंधान कर,द्वैत भावनाओं को अलविदा कर,ममता और स्पृहा को अलविदा कर मेरे मन ! महात्मा लोग कहते है-हे ममता और अहंता किसे कहा जाता है? इच्छा किसे कहा जाता है? मुझे कुछ मिले ये इच्छा है, मैं कुछ करके, कुछ पाकर सुखी होऊँ, कुछ देखकर सुखी होऊँ ये इच्छाएँ है और इन इच्छाओं से हम युगों तक भटकते आए है।लवलेश भी सुख हमें मिला नही,टिका नही। यदि वो सुख हमें मिलता और टिकता तो अभी गोदाम भर जाते। लवलेश का मतकब है कि सुई की नोक पर.. गैलन के गैलन पानी डालो तुम, टैंकर के टैंकर खाली कर दो..सुई की नोक पर जितना पानी टिक जाए उतना भी यदि हमारा सुख टिकता आता तो दिन में ऐसा सुख कईं बार लिया और एक जनम में ही लवलेश-लवलेश लेते-लेते अभी हमारे पास सुख का गोदाम होता। लेकिन कामनाएँ करने से और संसार के सुखों को भोगने से वो सुख टिके नही, आजतक हम वही के वही रहे। इसीलिए श्रीकृष्ण कहते है …
विहाय कामान् यः सर्वान् …
जिसने सर्व कामनाओं को छोड़ दिया है,
पुमांश्चरति निःस्प्रहः


पुमां माना पुरुषार्थ करने की जिसमें हिम्मत हो। भोग भोगने की हिम्मत हो और छोड़ दिया हो , बदला लेने की ताकत हो शत्रु से लेकिन क्षमा कर दी हो, वो पुमां है!
इन्द्रियों के विषय भोगने की शक्ति हो लेकिन पुरुषार्थ करके भोग को छोड़कर जो आत्मा के तरफ आता है वो पुमांश्च है!
जो पुरूष संपूर्ण कामनाओं का त्याग कर ममता रहित, अहंकार रहित होता है …किसीने पाँच रुपए दिए ,मेरे पास बने रहे ये कामना है, इन पाँच रुपयों से मेरे को सुख मिले ये स्पृहा है, ये पाँच रुपए मेरे है ये अहंकार है! ऐसे ही ये कर्म मेरे है, ये पुत्र मेरे है, ये जात- पात मेरे है, ये पुण्य -पाप मेरे है!
कामना छोड़ो लेकिन कामना के बाद स्पृहा को भी छोड़ो। स्पृहा छोड़ दी,कामना छोड़ दी लेकिन फिर ममता बच जाती है। कृष्ण कहते है वो ममता भी तुम्हें दुःख देती है। ममता को छोड़ो..तो मैंने ममता छोड़ दिया ,मैंने कामना छोड़ दिया, मैंने स्पृहा छोड़ दिया , उस छोड़ने का अहंकार रह जाता है। उस अहंकार को भी छोड़ दो, अहंकार दो प्रकार का होता है… एक प्राकृतिक अहंकार होता है और एक अविद्या अंतर्गत अहंकार होता है। प्राकृतिक अहंकार देह में रहता है, देह में मय कराता है.…मैं मनुष्य हूँ ,मुझे भोजन इस प्रकार करना चाहिए।

प्राकृत अहंकार शरीर की संभाल रखवाता है। चलते-चलते ट्रैफिक आई, कोई गाड़ी मोटर आई तो वो बचाता है शरीर को,भूख लगी तो अन्न जल की जगह पर पहुँचाता है, थकान आई तो बिस्तर पर ले जाता है, उबान आई तो मनोरंजन की तरफ ले जाता है। ये प्राकृतिक अहंकार इतना दुःखदाई नही होता है जितना अविद्या का बेटा अहंकार दुःख देता है। अविद्या का बेटा जो अहंकार है वो दुःख देता है…अविद्यमान पदार्थों में अहं करना …ये मकान मेरा है, ये इतना धन मेरा है, इतनी भूमी मेरी है, इतने मित्र मेरे है…ये मकान, ये भवन,ये भूमी,ये मित्र मेरे है ऐसा कहकर कईं लोग चले गए, ये जमीन मेरी है ऐसा कहकर इस जमीन पर से हजारों लोग गुजर गए होंगे जहाँ हम बैठे है। ये जगह हमारी है ऐसा कहकर हजारों लोग चले गए होंगे, ये मकान हमारा है ऐसा कहकर हजारों लोग चले गए होंगे और मकान भी हजारों बार गिर पड़े होंगे।ये अविद्यमान पदार्थों को अपना मानने का जो अहंकार है अप्राकृतिक है। प्राकृतिक अहंकार शरीर की परिछिन्नता तक रहता है और अप्राकृतिक अहंकार अंतःकरण की अशुद्धि तक रहता है। अंतःकरण अशुद्ध होता है तो अप्राकृतिक अहंकार होता है। ज्यों-ज्यों अंतःकरण शुद्ध होता चला जाता है त्यों-त्यों अप्राकृतिक अहंकार विलय होता जाता है।


पहले बोलते थे कि ‘मकान मेरा है’, अब बोलते है कि भगवान का है! पहले बोलते थे ‘ये जमीन -जागीर,रुपए हमारे है’, अब बोलते है ‘सब परमात्मा की लीला है!’
ज्यों-ज्यों अंतःकरण शुद्ध होता है त्यों-त्यों अप्राकृतिक अहंकार गलता जाता है। लेकिन अंत में प्राकृतिक अहंकार भी दुःख देता है।
‘ये भगवान को सौंप दिया, ये भगवान का, ये भगवान का, मैं भगवान का भक्त हूँ ‘ ये अप्राकृतिक अहंकार है, अच्छा है..लेकिन अंत में “मैं भगवान का भक्त हूँ” – भगवान को अपनेसे अलग मानने का अहंकार बचा रहता है!


भगवान से अपने को अलग रखने का जो अहं है वो तो भक्त जीवन में, साधक और जिज्ञासू के जीवन में भी रहता है। वो इतना दुःख नही देता फिर भी वो अहंकार अप्राकृतिक अहंकार को कभी ला सकता है! वो अहंकार अविद्या के अहंकार को ला सकता है!
जैसे गरुड़ भगवान की सेवा में थे..सबकुछ भगवान का है फिर भी भगवान नागपाश में बंध गए। गरुड़ को नारदजी ने बुलाया।गरुड़ ने नागों को स्वाहा किया और मन में अहंकार आ गया कि “मैं न होता तो ठाकुरजी का क्या हाल होता” …अशांत हो गए…शिवजी के पास गए और शिवजी ने काकभूषण के पास भेजा और वहाँ तत्वज्ञान की कथा सुनी तब उन्हें शांति प्राप्त हुई।


जैसे जय-विजय भगवान विष्णु के पार्षद थे, प्राकृतिक अहंकार था-भूमि,भवन, मकान हमारा नही लेकिन भगवान हमारे है और हम उनके पार्षद है! एक बार सनकादि ऋषि वैकुंठ जा रहे थे ,अंदर प्रवेश न दिया, उनका अपमान कर दिया, शापित हुए और तीन जन्म लेने पड़े! इसीलिए श्रीकृष्ण ने कहा-
विहाय कामान् यः सर्वान्
सब कामनाओं को छोड़ो..एक-दो कामना को नही! भोग भोगने की कामना को तो छोड़ो लेकिन त्याग होने का अहंकार भी छोड़ो! प्राकृतिक अहंकार भी छोड़ो और
अप्राकृतिक अहंकार छोड़ो। जो दोनों का त्याग करता है वो – शांति निर्वाणं पदि गच्छयती… वो शांति पाता है और निर्वाण को पाता है।
जन्म का हेतू वासना है , जन्म का हेतू स्पृहा है, जन्म का हेतू ममता है, जन्म का हेतू अहंकार है। इन चार को यदि छोड़ दिया तो फिर जीते जी वो आदमी मुक्त हो जाता है!


योगवसिष्ठ में वसिष्ठ महराज कहते है रामजी को कि – मनु महाराज ईश्वाकु राजा को उपदेश है- “हे रामजी”…मनु महाराज ने ईश्वाकु राजा को कहा कि -“तू इच्छाओं का त्याग कर,अपने सत्ता समान में रह। हे राजन जो सत्ता समान में रहता है वो ज्ञानवान वो जिस भूमि पर पैर रखता है.. जिस ईंट पर , वो ईंट पूजने के काबिल हो जाती है। वह ज्ञानवान जिसपर दृष्टि डालता है वह व्यक्ति भी पवित्र होने लगता है।वह ज्ञानवान जिस वस्तू को छूता है वह वस्तू भी पवित्र हो जाती है।वह ज्ञानवान जिस वाणी से बोलता है वह जिव्हा भी पवित्र हो जाती है” ये बात नानक भी कहते है…प्रभजी बसें साधजी रसना!…
मन मेरो पंछी भयो उड़न लाग्यो आकाश
स्वर्गलोक खाली पड्यो साहिब संतन के पास!
साहिब केवल संतों के पास ही है ऐसी बात नही है, जरा समझ लेना…साहिब तो सब जगह है लेकिन जहाँ प्रगट होता है वहाँ उसकी महिमा है! कबीर इसी बात को अपनी महिमा में कहते है-
सब घट मेरा साईयाँ
खाली घट न कोई
बलिहारी वा घट की
जा घट प्रगट होई!


अहंता, वासना, स्पृहा से रहित जो होता है वो महात्मा बनता है । व्यवहार में वो महात्मा है और तत्व से वो परमात्मा है। जिसमें ममता, स्पृहा ,वासना, अहंकार नही है वह महात्मा है..महान आत्मा है।ऐसे तो खटमल में भी आत्मा है ,कीट-पतंग और गधे कुत्ते चूहे बिल्लों में भी आत्मा ही तो है, चेतना तो है लेकिन वो बेचारे मूढ योनी को प्राप्त है। मनुष्य की योनी मूढ़ता से पार होने के लिए है।मूढ़ उसे नहीँ कहा जाता है जिसको कुछ ज्ञान न हो… पत्थर को हम मूढ़ नही कहते है , चट्टान को हम मूढ़ नही कहते है..मूढ़ उसे कहते है कि कुछ तो जानता है और कुछ नही जानता है, जो जानना चाहिए वो नही जानता और वो जो नही जानना चाहिए उसी को सच्चा मानता है उसको मूढ़ कहा जाता है।सत्य को सत्य नही जानता और मिथ्या को सत्य समझता है उसको मूढ़ कहते है। श्रीकृष्ण ने कहा-
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः।।15.10।।


दिल लगाने से काम नही चलता, संसार में ऐसी कोई वस्तू नही जिससे तुम दिल लगाओ और सदा सुखी रहो , संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नही जिससे तुम दिल लगाओ और सदा सुखी रहो, संसार में ऐसी कोई अवस्था ही नही जिससे तुम दिल लगाओ और सदा सुखी रहो। दिल लगाने से दिल रहता नही,पदार्थ रहते नही। समुद्र की लहरियाँ उठती है न तो किनारे टिकते नही,ऐसेही समय की लहरियाँ आती है न तो फिर कल्पनाएँ टिकती नही है।


मथुरा में एक वेश्या थी।रूप,लावण्य,सौंदर्य से इतनी वो बढ़ी चढ़ी थी कि ईसा के जमाने में वेश्या थी मेगानीलीन उसकी खबरें वो देती थी। बड़े-बड़े राजे सम्राट उस
के द्वार से कभी वापस आ जाते थे। आजसे ढाई हजार वर्ष पूर्व की बात है- सम्राट अशोक का जो गुरु हुआ बाद में वह फकीर जा रहा था,वह भिक्षुक जा रहा था। भिक्षुक का रूप,सौन्दर्य देखकर वेश्या ठगी सी रह गई। जितना तेजी से उतरना चाहिए ,जितना तेजी से उतर सकती थी उतना वो तेजी से अपने महल से उतरी और भिक्षुक को बुलाया कि -“हे भिक्षुक, हे भंते! आओ जरा इधर देखो!” भिक्षुक सड़क से जा रहा था रास्ते से…आए,भिक्षा पात्र लंबा किया। वो वेश्या कहती है कि “मैं, मेरा रूप,लावण्य, सौंदर्य और ये सब धन, दौलत ,गहने, हीरे, जवाहरात सबके सब तुमको समर्पित है! मुझे तुम अपनी बना लो! तुम मेरे पास ही रहो। मेरे पास ही आ जाओ, मेरे ही हो जाओ!” भिक्षुक ने सिर उठाकर निहारा पैर से चेहरे तक, फिर भिक्षुक चलते-चलते कह गया कि “मैं आऊँगा जरूर लेकिन अभी समय नही है।”


वेश्या चिल्लाई “कब आओगे फिर? प्राणप्रिय !कैसे जाते हो मेरे को छोड़कर?”…
“आऊँगा जरूर लेकिन अभी समय नही है!”…चले गए! दिन गुजरे , रात गुजरी, सुबह गुजरी, श्याम गुजरी , सप्ताह गुजरे, महीने गुजरे, वर्ष गुजर गए बात को …ऐसी घड़ियाँ आई, ऐसे दिन आए -यमुना के किनारे पर वही वेश्या एक भिखारण के वेष में ,बुढिया हुई है, दाँत टूट गए हैं , आँखे अंदर पड़ गई हैं, धन -माल मिलकत तो छूट गया लेकिन अब शरीर भी साथ नही देता है। शरीर में घाँव लगे है उसे कोई मलम लगाने वाला नही मिला। शरीर पुराने फ़टे बर्तनों जैसा,नस- नाड़ियाँ हो गई है ,वही मल-मूत्र त्याग करती, मक्खियाँ भन-भनाती हुई , शरीर से बदबू आ रही है
पसार होते तो मुँह घुमा लेते, नाक सिकुड़ लेते।
भिक्षुक आया घूमता-घामता उस जगह पर , बैठा उसके नजीक , उसके घाँव साफ कर रहा है, मलम लगा रहा है। उसमें थोड़ी चेतना आई ,आँख उठाकर देखा । वो वेश्या कहती है “भिक्षुक! अब तुम आए हो?इस समय तुम मेरे पास आए हो? जब मेरे पास सौंदर्य था, रूप था,लावण्य था , धन था , ओज था , बड़े-बड़े सम्राट मेरे पास चापलूसी करते थे, मेरी एक नजर की भीख माँगते थे, मेरी एक मुस्कान की भीख माँगते थे। उस समय मैंने तुमको सर्वस्व सौंपने का कहा था और तुमने कहा -अभी नही समा होगा तभी आऊँगा.. अभी आए हो?”


भिक्षुक कहता है कि – “हे देवी! अभी हमारे आने का समय है। अभी ही तुझे ज्ञान और वैराग्य का पता चलेगा कि कितना इसका मूल्य है। वासनाओं से जीवन जीने का कितना दुष्परिणाम आता है वो अभी तू प्रत्यक्ष देख रही है! स्पृहाएँ कितना पतन करती है वो तू प्रत्यक्ष महसूस करती है। बाहर के सहारे तेरा कबतक सहारा करते है इसका तुझे प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है। अभी हमारे जैसों के आने का समय हुआ है! लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि तू अब समझ न पाएगी! दिन बीत गए ! मैं ने तुझे कहा था मैं आऊँगा जरूर! तू उसी मद में थी, उसी रूप में थी, उसी लावण्य में थी उसी रंग और उसी चमड़े को संभालने में थी, अपने को टाटाई में दिखाने में थी। उस समय मैं आता तो मेरा भी पतन होता और तेरा तो हो ही गया। हमारे आने का यही समय है!”
वही भिक्षुक बाद में सम्राट अशोक के गुरु हुए।

धर्म की रक्षा के लिए किया प्राणों का बलिदान


भगवत्प्राप्त महापुरुष परमात्मा के नित्य अवतार हैं । वे नश्वर संसार व शरीर की ममता को हटाकर शाश्वत परमात्मा में प्रीति कराते हैं । कामनाओं को मिटाते हैं। निर्भयता का दान देते हैं । साधकों-भक्तों को ईश्वरीय आनन्द व अनुभव में सराबोर करके जीवन्मुक्ति का पथ प्रशस्त करते हैं ।ऐसे उदार हृदय, करुणाशील, धैर्यवान सत्पुरुषों ने ही समय-समय पर समाज को संकटों से उबारा है । इसी शृंखला में गुरु तेगबहादुरजी हुए हैं। जिन्होंने बुझे हुए दीपकों में सत्य की ज्योति जगाने के लिए, धर्म की रक्षा के लिए, भारत को क्रूर, आततायी, धर्मान्ध राज्य-सत्ता की दासता की जंजीरों से मुक्त कराने के लिए अपने प्राणों का भी बलिदान कर दिया ।हिन्दुस्तान में मुगल बादशाह औरंगजेब का शासनकाल था । औरंगजेब ने यह हुक्म किया कि कोई हिन्दू राज्य के कार्य में किसी उच्च स्थान पर नियुक्त न किया जाय तथा हिन्दुओं पर जजिया (कर) लगा दिया जाय । उस समय अनेकों नये कर केवल हिन्दुओं पर लगाये गये । इस भय से अनेकों हिन्दू मुसलमान हो गये । हर ओर जुल्म का बोलबाला था । निरपराध लोग बंदी बनाये जा रहे थे । प्रजा को स्वधर्म-पालन को भी आजादी नहीं थी । जबरन धर्म-परिवर्तन कराया जा रहा था । किसी की भी धर्म, जीवन और सम्पत्ति सुरक्षित नहीं रह गयी थी । पाठशालाएँ बलात् बन्द कर दी गयीं।हिन्दुओं के पूजा-आरती तथा अन्य सभी धार्मिक कार्य बंद होने लगे । मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनवायी गयीं एवं अनेकों धर्मात्मा मरवा दिये गये । सिपाही यदि किसी के शरीर पर यज्ञोपवीत या किसी के मस्तक पर तिलक लगा हुआ देख लें तो शिकारी कुत्तों की तरह उन पर टूट पड़ते थे । उसी समय की उक्ति है कि रोजाना सवा मन यज्ञोपवीत उतरवाकर ही औरंगजेब रोटी खाता था…◆ उस समय कश्मीर के कुछ पंडित निराश्रितों के आश्रय, बेसहारों के सहारे गुरु तेगबहादुरजी के पास मदद की आशा और विश्वास से पहुँचे ।पंडित कृपाराम ने गुरु तेगबहादुरजी से कहा : ‘‘सद्गुरुदेव ! औरंगजेब हमारे ऊपर बड़े अत्याचार कर रहा है । जो उसके कहने पर मुसलमान नहीं हो रहा, उसका कत्ल किया जा रहा है । हम उससे छः माह की मोहलत लेकर हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए आपकी शरण आये हैं । ऐसा लगता है, हममें से कोई नहीं बचेगा । हमारे पास दो ही रास्ते हैं-‘धर्मांतरित होओ या सिर कटाओ ।’◆ पंडित धर्मदास ने कहा : ‘‘सद्गुरुदेव ! हम समझ रहे हैं कि हमारे साथ अन्याय हो रहा है । फिर भी हम चुप हैं और सब कुछ सह रहे हैं । कारण भी आप जानते हैं । हम भयभीत हैं, डरे हुए हैं । अन्याय के सामने कौन खड़ा हो?’’‘‘जीवन की बाजी कौन लगाये ?’’ गुरु तेगबहादुर के मुँह से अस्फुट स्वर में निकला । फिर वे गुरुनानक की पंक्तियाँ दोहराने लगे ।◆ जे तउ प्रेम खेलण का चाउ । सिर धर तली गली मेरी आउ ।।इत मारग पैर धरो जै । सिर दीजै कणि न कीजै ।।◆ गुरु तेगबहादुर का स्वर गंभीर होता जा रहा था । उनकी आँखों में एक दृढ़ निश्चय के साथ गहरा आश्वासन झाँक रहा था । वे बोले : ‘‘पंडितजी ! यह भय शासन का है । उसकी ताकत का है, पर इस बाहरी भय से कहीं अधिक भय हमारे मन का है । हमारी आत्मिक शक्ति दुर्बल हो गयी है । हमारा आत्मबल नष्ट हो गया है । इस बल को प्राप्त किये बिना यह समाज भयमुक्त नहीं होगा । बिना भयमुक्त हुए यह समाज अन्याय और अत्याचार का सामना नहीं कर सकेगा ।’’◆ पंडित कृपाराम : ‘‘परन्तु सद्गुरुदेव । सदियों से विदेशी पराधीनता और आन्तरिक कलह में डूबे हुए इस समाज को भय से छुटकारा किस तरह मिलेगा ?’’◆ गुरु तेगबहादुर : ‘‘हमारे साथ सदा बसनेवाला परमात्मा ही हमें वह शक्ति देगा कि हम निर्भय होकर अन्याय का सामना कर सकें ।’’उनके मुँह से शब्द फूटने लगे :पतित उधारन भै हरन हरि अनाथ के नाथ । कहु नानक तिह जानिए सदा बसत तुम साथ ।।इस बीच नौ वर्ष के बालक गोबिन्द भी पिता के पास आकर बैठ गये ।◆ गुरु तेगबहादुर : ‘‘अँधेरा बहुत घना है । प्रकाश भी उसी मात्रा में चाहिए। एक दीपक से अनेक दीपक जलेंगे। एक जीवन की आहुति अनेक जीवनों को इस रास्ते पर लायेगी।◆ पं. कृपाराम : ‘‘आपने क्या निश्चय किया है, यह ठीक-ठीक हमारी समझ में नहीं आया । यह भी बताइये कि हमें क्या करना होगा ?’’◆ गुरु तेगबहादुर मुस्कराये और बोले : ‘‘पंडितजी ! भयग्रस्त और पीड़ितों को जगाने के लिए आवश्यक है कि कोई ऐसा व्यक्ति अपने जीवन का बलिदान दे, जिसके बलिदान से लोग हिल उठें, जिससे उनके अंदर की आत्मा चीत्कार कर उठे । मैंने निश्चय किया है कि समाज की आत्मा को जगाने के लिए सबसे पहले मैं अपने प्राण दूँगा और फिर सिर देनेवालों की एक शृंखला बन जायेगी । लोग हँसते-हँसते मौत को गले लगा लेंगे । हमारे लहू से समाज की आत्मा पर चढ़ी कायरता और भय की काई धुल जायेगी और तब… ।’’‘‘और तब शहीदों के लहू से नहाई हुई तलवारें अत्याचार का सामना करने के लिए तड़प उठेंगी ।’’यह बात बालक गोबिंद के मुँह से निकली थी । उन सरल आँखों में भावी संघर्ष की चिनगारियाँ फूटने लगी थी ।तब गुरु तेगबहादुरजी का हृदय द्रवीभूत हो उठा । वे बोले : ‘‘जाओ, तुमलोग बादशाह से कहो कि हमारा पीर तेगबहादुर है । यदि वह मुसलमान हो जाय तो हम सभी इस्लाम स्वीकार कर लेंगे ।’’पंडितों ने यह बात कश्मीर के सूबेदार शेर अफगन को कही । उसने यह बात औरंगजेब को लिख कर भेज दी। तब औरंगजेब ने गुरु तेगबहादुर को दिल्ली बुलाकर बंदी बना लिया । उनके शिष्य मतिदास, दयालदास और सतीदास से औरंगजेब ने कहा : ‘‘यदि तुम लोग इस्लाम धर्म कबूल नहीं करोगे तो कत्ल कर दिये जाओगे ।’’◆ मतिदास : ‘‘शरीर तो नश्वर है और आत्मा का कभी कत्ल नहीं हो सकता।’’तब औरंगजेब ने मतिदास को आरे से चीरने का हुक्म दे दिया । भाई मतिदास के सामने जल्लाद आरा लेकर खड़े दिखाई दे रहे थे । उधर काजी ने पूछा : ‘‘मतिदास तेरी अंतिम इच्छा क्या है ?’’◆ मतिदास : ‘‘मेरा शरीर आरे से चीरते समय मेरा मुँह गुरुजी के पिंजरे की ओर होना चाहिए ।’’◆ काजी : ‘‘यह तो हमारा पहले से ही विचार है कि सब सिक्खों को गुरु के सामने ही कत्ल करें ।’’भाई मतिदासजी को एक शिकंजे में दो तख्तों के बीच बाँध दिया गया । दो जल्लादों ने आरा सिर पर रखकर चीरना शुरू किया । उधर भाई मतिदासजी ने ‘श्री जपुजी साहिब’ का पाठ शुरू कर दिया । उनका शरीर दो टुकड़ों में कटने लगा। चौक को घेरकर खड़ी विशाल भीड़ फटी आँखों से यह दृश्य देखती रही ।◆ दयालदास बोले : ‘‘औरंगजेब ! तूने बाबरवंश को एवं अपनी बादशाहियत को चिरवाया है ।’’◆ यह सुनकर औरंगजेब ने दयालदास को गरम तेल में उबालने का हुक्म दिया । उनके हाथ-पैर बाँध दिये गये । फिर उन्हें उबलते हुए तेल के कड़ाह में डालकर उबाला गया । वे अंतिम श्वास तक ‘श्री जपुजी साहिब’ का पाठ करते रहे । जिस भीड़ ने यह नजारा देखा, उसकी आँखें पथरा-सी गयीं ।◆ तीसरे दिन काजी ने भाई सतीदास से पूछा : ‘‘क्या तुम्हारा भी वही फैसला है ?’’◆ भाई सतीदास मुस्कराये : ‘‘मेरा फैसला तो मेरे सद्गुरु ने कब का सुना दिया है ।’’◆ औरंगजेब ने सतीदास को जिंदा जलाने का हुक्म दिया । भाई सतीदास के सारे शरीर को रूई से लपेट दिया गया और फिर उसमें आग लगा दी गयी । सतीदास निरन्तर ‘श्री जपुजी’ का पाठ करते रहे । शरीर धू-धूकर जलने लगा और उसीके साथ भीड़ की पथराई आँखें पिघल उठीं और वह चीत्कार कर उठी ।अगले दिन मार्गशीर्ष पंचमी संवत् सत्रह सौ बत्तीस (22 नवम्बर सन् 1675) को काजी ने गुरु तेगबहादुर से कहा : ‘‘ऐ हिन्दुओं के पीर ! तीन बातें तुमको सुनाई जाती हैं । इनमें से कोई एक बात स्वीकार कर लो । वे बातें हैं :(1) इस्लाम कबूल कर लो ।(2) करामात दिखाओ ।(3) मरने के लिए तैयार हो जाओ ।’’◆ गुरु तेगबहादुर बोले : ‘‘तीसरी बात स्वीकार है ।’’बस, फिर क्या था ! जालिम और पत्थरदिल काजियों ने औरंगजेब की ओर से कत्ल का हुक्म दे दिया । चाँदनी चौक के खुले मैदान में विशाल वृक्ष के नीचे गुरु तेगबहादुर समाधि में बैठे हुए थे ।जल्लाद जलालुद्दीन नंगी तलवार लेकर खड़ा था। कोतवाली के बाहर असंख्य भीड़ उमड़ रही थी । शाही सिपाही उस भीड़ को काबू में रखने के लिए डंडों की तीव्र बौछारें कर रहे थे । शाही घुड़सवार घोड़े दौड़ाकर भीड़ को रौंद रहे थे । काजी के इशारे पर गुरु तेगबहादुर का सिर धड़ से अलग कर दिया गया । चारों ओर कोहराम मच गया ।◆ तिलक जझू राखा प्रभ ताका । कीनों वडो कलू में साका ।।◆ धर्म हेत साका जिन काया । सीस दीया पर सिरड़ न दिया ।।◆ धर्म हेत इतनी जिन करी । सीस दिया पर सी न उचरी ।।◆ धन्य हैं ऐसे महापुरुष जिन्होंने अपने धर्म में अडिग रहने के लिए एवं दूसरों को धर्मांतरण से बचाने के लिए हँसते-हँसते अपने प्राणों की भी बलि दे दी ।◆ श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । ◆ स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।।◆ अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है । अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देनेवाला है ।

मृत्यु पीड़ाएँ मंत्रदीक्षित को नहीं सताती


◆ भगवान के नाम का आश्रय और भगवान के प्यारे संतों का सत्संग जिनके जीवन में है, वे लोग जितना फायदे में हैं उतना मनमुख लोग नहीं हैं।

◆ रानी एलिजाबेथ टेबल पर भोजन कर रही थी, एकाएक दौरा पड़ा। डॉक्टरों ने कहाः “पाँच मिनट से ज्यादा नहीं जी सकोगी।”

◆ उसने कहाः “मेरा राज्यवैभव सब कुछ ले लो पर मुझे एक घंटा जिंदा रखो, जिससे मैं कुछ कर सकूँ।”

◆ मृत्युवेला आने पर कुछ कर सकें, ऐसा जीवित रखने का डॉक्टरों के वश का नहीं है। वह मर गयी बेचारी।

◆ अमेरिका का एक बड़ा धनाढय व्यक्ति एँड्रयू कार्नेगी डींग हाँकता था कि ʹमौत आयेगी तो मैं उसको बोलूँगा अभी बाहर खड़ी रह ! मैं इतना काम निपटाकर फिर आऊँगा।ʹ लेकिन उस डींग हाँकने वाले की मुसाफिरी करते-करते कार में ही मौत हो गयी। कार में से उसकी लाश निकालनी पड़ी।

◆ सामान्य आदमी मरते हैं तो चार तकलीफें उनके सिर पर होती हैं। मरते समय कोई न कोई पीड़ा होती है। एक तो शरीर की पीड़ा सताती है। पीड़ा पीड़ा में प्राण निकल जाते हैं। चाहे हृदयाघात (हार्ट अटैक) की पीड़ा हो, चाहे बुढ़ापे की हो, चाहे कोई और पीड़ा हो। गुरु साधक को युक्ति सिखाते हैं कि शारीरिक पीड़ा होती है तो शरीर को होती है, तुम्हारे में नहीं घुसनी चाहिए। सदगुरु ज्ञान देते हैं कि शरीर की बीमारी तुम्हारी बीमारी नहीं है, मन का दुःख तुम्हारा दुःख नहीं है। गुरु जी दिव्य ज्ञान पहले से ही देते रहते हैं। तो मरते समय अपने में पीड़ा का आरोप न करने वाले साधक बहुत उन्नत पद को पाते हैं लेकिन मरते समय शरीर की पीड़ा को अपने में जो मानते है वे पीड़ित होकर मरते हैं।

◆ जो कोई पीड़ित होकर मरता है या प्रेत होता है तो उसको मरते समय की पीड़ा सताती रहती है। प्रेत जिस शरीर में जाते हैं वहाँ ऐसे ही काँपते रहते हैं जैसे मरते समय शरीर छोड़कर आये थे। अंते मतिः सा गतिः। तो मरते समय अंत मति सुहानी हो, इसका ध्यान रखते हैं संत-महापुरुष। गुरु चाहते हैं कि मरते समय की पीड़ा मेरे शिष्यों को न सताये।

◆ दूसरा, किसी से आपने बदसलूकी की ही है, किसी के साथ अत्याचार किया है तो मरते समय अंतरात्मा लानतें देता है। किसी को दुःख दिया है तो मरते समय वह कर्म भी पीड़ा देगा। औरंगजेब को मरते समय बहुत पीड़ा हुई क्योंकि उसने सरमद फकीर की और अपने भाई दारा शिकोह की हत्या करवायी थी।

◆ इस प्रकार जो ब़ड़े पाप होते हैं वे मरते समय अंतरात्मा को खूब तपाते हैं व पीड़ा देते हैं।

◆ तीसरा, जीवन भर जिनके साथ हमारा मोह रहा, ममत्व रहा, आसक्ती रही उनके वियोग का कष्ट होता है कि वे हमसे छूट रहे हैं। जहाँ आपका मन अटका है, रूपया पैसा, शादी ब्याह, एफ.डी. (आवधिक जमा) आदि की याद आयेगी। इस देश का नाम अजनाभ खंड था। राजा भरत ने इस देश की सुन्दर व्यवस्था की थो तो भरत के नाम से इसका नाम पड़ गया ʹभारतʹ। भरत ने मरते समय हिरण का चिंतन किया तो मरने के बाद हिरण बना।

◆ चौथी बात होती है कि मरकर कहाँ जाऊँगा ? ये चार मुसीबतें सबके सिर होती हैं लेकिन साधकों के ऊपर नहीं होतीं क्योंकि उनके पास गुरु का दिया आत्मज्ञान, परमात्म-ध्यान और मंत्र है। मंत्रदीक्षा लेने वाले का आत्मबल, बुद्धिबल, मनोबल बढ़ जाता है। गुरुमंत्र के कितने-कितने फायदे हैं उनकी गिनती हम-आप नहीं कर सकते। भगवान शिवजी कहते हैं-

◆ गुरुमंत्रो मुखे यस्य तस्य सिद्धय्न्ति नान्यथा।

दीक्षया सर्वकर्माणि सिद्धय्नते गुरुपुत्रके।।

◆ गुरुमंत्र जिसके मुख में है उसको आध्यात्मिक आधिदैविक सब फायदे होते हैं। जिसके जीवन में गुरूमंत्र नहीं वह बालिश है, मूर्ख है। शास्त्रों में निगुरे आदमी की ऐसी दुर्दशा कही गयी हैः

◆ सुन लो चतुर सुजान निगुरे नहीं रहना…निगुरे का नहीं कहीं ठिकाना,

◆ चौरासी में आना जाना।पड़े नरक की खान निगुरे नहीं रहना…..

◆ गुरु बिन माला क्या सटकावे,मनवा चहुँ दिश फिरता जावे।

◆ यह का बने मेहमान निगुरे नहीं रहना…हीरा जैसी सुंदर काया,

◆ हरि भजन बिन जनम गँवाया।कैसे हो कल्याण निगुरे नहीं रहना…..

◆ निगुरा होता हिय का अंधा,खूब करे संसार का धंधा।

◆ क्यों करता अभिमान निगुरे नहीं रहना…सुन लो चतुर सुजान निगुरे नहीं रहना।ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

◆ सही दिशा के लिए दीक्षा आवश्यक

◆ भगवान शिवजी पार्वती को वामदेव गुरु से दीक्षा दिलाते हैं। शिवजी की बुद्धि की बराबरी कौन कर सका है ? शिवजी की अक्ल से कोई अपनी अक्ल मिला नहीं सकता। इतने महान हैं फिर भी शिवजी ने पार्वती को वामदेव गुरु से दीक्षा दिलायी। कलकत्ते की काली माता प्रकट होकर गदाधर पुजारी से बोलती है कि “तोतापुरी गुरु से दीक्षा ले लो।”

◆ बोलेः मैया तुम प्रकट हो जाती हो तो फिर मुझे दीक्षा लेने की क्या जरूरत ?”

◆ बोलीः “मैं मानसिक भावना से प्रकट होती हूँ। तेरे को मंदिर में दर्शन होते हैं, अर्जुन का तो श्रीकृष्ण के सतत दर्शन होते थे फिर भी अर्जुन को गुरु की जरूरत पड़ी।”

◆ गदाधर पुजारी ने तोतापुरी गुरु से दीक्षा ली। तो जो कृष्ण का आत्मा है, राम का आत्मा है, वही मेरा आत्मा है, ऐसा साक्षात्कार हुआ तब उनका नाम पड़ा रामकृष्ण परमहंस। अगर गदाधर में से रामकृष्ण बने, नरेन्द्र में से विवेकानन्द बने, आसुमल से आशाराम बने तो यह गुरुकृपा है।

◆ नामदेव महाराज के सामने विट्ठल भगवान प्रकट हो जाते थे। उन्होंने कहाः “जाओ, विसोबा खेचर से दीक्षा लो।।”

◆ बोलेः “अब तुम्हारे दर्शन होते हैं फिर भी…..”

◆ “अरे, हम भी आते हैं तो गुरु की शरण में जाते हैं। सांदीपनी गुरू की शरण में गय़े थे कृष्ण रूप में और वसिष्ठ मुनि के चरणों में गये थे भगवान राम के रूप में। तू इनसे बड़ा है क्या ?”

◆ दीक्षा राग-द्वेष मिटाकर जीव ब्रह्म की एकता करा देती है। अगर गदाधर पुजारी कोक काली माता प्रकट होकर आदेश नहीं देतीं और दीक्षा नहीं लेते तो गदाधर पुजारी रह जाते, रामकृष्ण परमहंस नहीं बन पाते। नामदेव को अगर विट्ठल भगवान प्रकट होकर गुरूदीक्षा लेने की आज्ञा नहीं देते तो नामदेव भावुक भगत रह जाते हैं। इसलिए जीवन को सही दिशा देने के लिए आत्मज्ञान की दीक्षा बहुत आवश्यक है।

◆ स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2012, अंक 234, पृष्ठ संख्या 16,17