अपनी पकड़ ही दुःख देती है

अपनी पकड़ ही दुःख देती है


जैसे एक आदमी स्वप्न देखता है तो उसके स्वप्ने में दूसरा आदमी प्रविष्ट नही होता है।उसके स्वप्ने में दूसरा आदमी तब प्रविष्ट होता है जब दोनों के सुने हुए संस्कार एक जैसे हो। ठीक,मूर्ख आदमियों के साथ हम लोग जीते है, संसार के दल-दल में फँसे हुए पैसों के गुलाम,इन्द्रियों के गुलाम…लोगों के बीच यदि साधक भी जाता है तो साधक भी सोचता है कि चलो थोड़ी ???      कर ही ले,थोड़ी थप्पी तो बना ही ले !Sindhiतो मोह के दल-दल में आदमी फँस जाता है। कीचड़ में फँसे हुए व्यक्ति के साथ यदि तुम तादात्म्य करते हो तो तुम्हारा …तुम क्या…’ये डूबे हुए है,अपने नही डूबेंगे!’… अपने नही डूबेंगे कहते भी जाते है और डूबते भी जाते है।क्योंकि बुद्धि में एक ऐसा विचित्र भ्रम हो जाता है…ऐसा भ्रम जैसे तैसे साधक को तो नही अर्जुन जैसे को हो गया। अर्जुन को साक्षात्कार नही हुआ और अर्जुन बोलता है कि भगवान तुम्हारे प्रसाद से मैं अब ठीक हो गया हूँ, मैं सब समझ गया हूँ। कृष्ण बोलते है-“अच्छा ठीक है, समझ रहा है तभी भी दुःखी-सुखी होता है, मोह ममता है!” ११वे अध्याय में कहा अर्जुन ने कि मेरे को ज्ञान हो गया है।११वे अध्याय में उसको महसूस हुआ कि मैं सब समझ गया!अब मेरा मोह नष्ट हो गया। फिर होते-होते ७अध्याय और चले। उसको पता ही नही कि साक्षात्कार क्या होता है!तो एक तुष्टि नाम की भूमिका आती है जो जीव का स्वभाव होता है। जीव में थोडासा शांति, थोडासा हर्ष,थोडासा सामर्थ्य आ जाता है तो समझ लेता है कि मैंने बहुत कुछ पा लिया है।जरासा आभास होता है, झलक आती है उसीको लोग साक्षात्कार मान लेते है।बुद्धिव्र्यति-तरिष्यति तदा गतासि निर्वेदंश्रुतव्यस्य  श्रुतव्यस्य च…जब मोह शरीर को बुद्धि पार हो जाएगी तब तुमने सुना हुआ और देखा हुआ उस सबसे तुम्हारा वैराग्य हो जाएगा। इंद्र आकर हाथ जोड़कर खड़ा हो जाए, कुबेर तुम्हारे लिए खजाने की चाबियाँ हाथ में लिए खड़ा हो,ब्रम्हाजी करमण्डल हाथ में लिए खड़ा होके कहे’ चलिए ब्रह्मपुरी का सुख भोगिए’, फिर भी तुम्हारे चित्त में उन पदार्थों का आकर्षण नही होगा तब समझ लेना कि साक्षात्कार हो गया!बच का खेल नही मैदान-ए-महोब्बत…किसी सूफी फकीर का वचन है…बच का खेल नही मैदान-ए-महोब्बतयहाँ जो भी आया सिर पे कफ़न बाँधकर आया!

जीव का स्वभाव है भोग, शिव का स्वभाव भोग नही है। जीव का स्वभाव है भोग,जीव का स्वभाव है वासना,जीव का स्वभाव है सुख के लिए दौड़ना। ब्रह्माजी आएँगे तो सुख देने की तो बात करेंगे न!तो सुख के लिए यदि आप भागते है तो पता चल गया कि सुख का दर्या अभी तुम्हारे हृदय में पूरा उमड़ा नही है!सुख की कमी होगी तभी आप कहीं सुख लेने को जाएँगे। तो सुख लेना जीव का स्वभाव होता है। साक्षात्कार के बाद जीव बाधित हो जाता है,जीव नही रहता है, जीव का जीवपना उड़ जाता है और वो शिवत्व में प्रगट होता है। जैसे कामदेव कितने भी नखरे करने लगा रति के साथ, शिवजी को प्रभावित न कर सका। क्योंकि शिव इतने आत्मरामी है,शिव के अंदर इतना आत्मानंद है कि काम का सुख अति तुच्छ है,अति नीचा है। तो शिव इम्प्रेस नही हुए,शिव प्रभावित नही हुए! योगी लोग,संत लोग जब साधना करते है तो अप्सराएँ आती है, नखरे करती है। तो जो अप्सराओं के नखरों में आक्रांत हो जाते है वे आत्मनिष्ठा नही पा सकते है,वे आत्मा के खजाने को नही पा सकते। इसीलिए साधकों को चेतावनी दी जाती है कि किसी रिद्धि-सिद्धि में ,किसी प्रलोभन में मत फँसना।

आप मन का और इन्द्रियों का थोड़ा संयम करेंगे तो तुम्हारी वाणी में सामर्थ्य आ जाएगा, तुम्हारे संकल्प में बल आ जाएगा, तुम्हारे द्वारा चमत्कार होने लगेंगे। लेकिन चमत्कार होना ये साक्षात्कार नही है। चमत्कार होना शरीर और इंद्रियों के संयम का फल है। साक्षात्कारवाले के द्वारा भी चमत्कार हो जाते है लेकिन साक्षात्कारवाले महापुरुष चमत्कार करते नही है हो जाते है!और हो भी गए तो उनको कोई बड़ी बात नही लगती! जैसे कबीर के द्वारा कुछ हो गया, नानक के द्वारा कुछ हो गया, शंकराचार्य के द्वारा कुछ हो गया,लीलाशाहबापू के द्वारा कुछ हो गया,कोई बड़ी बात नही! हम लोग बड़े प्रभावित हो जाते थे कि बापू ने ऐसा कर दिया,बापू ने ऐसा कर दिया! और होता था कि हम ऐसे कैसे बनेंगे?जैसा बापू में सामर्थ्य है ऐसा हम में कब आएगा? बाद में पता चला कि अरे!ये सामर्थ्य भी इच्छा शक्ति का एक हिस्सा ही है। जो तुम संकल्प करते हो उस संकल्प को तुम डंटे रहो। जो तुम एक विचार करते हो उस विचार को कांटने का विचार न उठने दो तो तुम्हारे विचार में बल आ जाएगा।

तुम्हारा विचार हुआ, अब अमुक आदमी के बारे में तुमने सुना कि फलाना मित्र बीमार है…अब तुम्हारा अंतःकरण शुद्ध है…तुम्हारा अंतःकरण शुद्ध दो किसम से होता है- शरीर को, इंद्रियों को संयत करके तुमने जप,तप,मौन, एकाग्रता की तो तुम्हारा अंतःकरण शुद्ध हुआ। लेकिन ये आखिरी नही है।शुद्ध अंतःकरण अशुद्ध भी हो सकता है। हृदय आपका स्थिर है तो दूसरे की चित्त वृत्तिओं के साथ तादात्म्य हो जाता है। ये कोई बडी बात नही है। अपन लोगों को चमत्कार लगता है। संतों को कोई चमत्कार नही लगता है।तुम्हारा बुद्धि स्थिर है तो दूसरे के जो आंदोलन है,दूसरे के जो श्वास है…जैसे तुम्हारे मशीन के नंबर ठीक है तो टी.व्ही. के वेव्ज झेल लेगी, तुम्हारे रेडियो के बैंड अनुकूल है तो वेव्ज का पता चल जाता है और गाना सब सुनाई पड़ता है। ऐसे ही तुम्हारा अंतःकरण यदि शांत होता है,बुद्धि स्थिर होती है तो घटित घटना या घट रही है वो घटना या घटनेवाली घटना का पता चल जाता है। यही कारण है कि वाल्मिकी ऋषि ने सौ साल पहले रामायण रच लिया..कोई राम को या विष्णु को पूछने नही गए थे तुम क्या क्या करोगे! अथवा किसी ज्योतिष का हिसाब लगाने को नही गए थे! उनकी बुद्धि इतनी शुद्ध होती है कि भूत और भावी दोनों कल्पनाओं में नही रहती, वर्तमान में..और ज्ञानी के लिए सदा वर्तमान रहता है इसलिए भूत भविष्य की खबर उनको पड़ जाती है, बुद्धि उनकी विचलित नही होती, चलित नही होती ।

तो एकाग्रता सब तपस्याओं का माय-बाप है।भक्त परंपरा के पूज्यपाद माधवाचार्य भक्त परंपरा में प्रसिद्ध संत हो गए, आचार्य  हो गए। माधवाचार्य ने कहा कि ‘हे प्रभु! हम तेरे प्यार में अब इतने मौन हो गए है कि अब हमसे न यज्ञ होता है , न तीर्थ होता है, न तर्पण होती है, न संध्या होती है, न मृगशाला दिखती है, न माला घूमती है! अब तो हम तेरे प्यार में ही बिक गए!’जब प्रेमा-भक्ति प्रगट होने लगती है और संसार का मोह, कुटुंबियों का,समाज का      मोह तो हट जाता है लेकिन फिर ये कर्मकांड का मोह भी टूट जाता है। कर्मकांड का मोह तबतक है जबतक देह में आत्मबुद्धि है, जबतक संसार में आसक्ति है तबतक कर्मकांड में प्रीति है। संसार की आसक्ति हट जाए, कृष्ण में प्रेम हो जाए… कृष्ण का अर्थ है आत्मा,राम का अर्थ है जो रम रहा है सबमें चैतन्य…उस परमात्मा में यदि प्रेम हो जाए तो फिर कर्मकांड की नीची साधना करने को जी नही करता है।एकाग्रता तो ठीक है लेकिन एकाग्रता का उपयोग यदि संसार है, एकाग्रता का उपयोग यदि भोग है ,तो वह एकाग्रता मार डालती है। एकाग्रता का उपयोग ‘परमात्मा एक है’ उसमें होना चाहिए। रुपया तो है, रुपया कोई पाप नही ,लेकिन रुपयों से भोग भोगना पाप है। सत्ता कोई पाप नही लेकिन सत्ता से अहंकार बढ़ाना पाप है। अकल होना कोई पाप नही लेकिन अकल से दूसरों को गिराना और अपने को अहंकार से पोषित करना ये पाप है। जो कुछ चीजें है..कईं लोग परेशान है और धार्मिक लोग तो दुःखी रहते हैं , मूढ़ लोग पामर लोग परेशान है कोई आश्चर्य नही लेकिन भगत भी परेशान है! भगत को ऐसा है कि मेरा मन शांत हो जाए,मेरी इन्द्रियाँ स्थिर हो जाए ! भैया! मन शांत हो जाएगा, इंद्रियाँ स्थिर हो जाएगी तो राम राम सत ही हो जाएगा! मन और तन का तो स्वभाव है हरकत करना …मन और तन का स्वभाव है,इंद्रियों का स्वभाव है चेष्टा करना ! लेकिन सुयोग्य चेष्टा हो। मन का स्वभाव है संकल्प-विकल्प करना लेकिन संकल्प ऐसे करे कि जिन संकल्पों से इसके बंधन कटे! बुद्धि का स्वभाव है निर्णय-अनिर्णय करना ..लोग बोलते है-मैं शांत हो जाऊँ, पत्थर की तरह मेरा ध्यान लग जाए, समाधि लग जाए। जिनका ध्यान लगता है वे भी परेशान है और जिनका ध्यान नही लगता है वे भी परेशान है!जो ध्यान के रास्ते पर नही आए वो तो परेशान है कि उनकी पल-पल में वृत्तियाँ उद्विग्न होती है, रजो-तमो गुण बढ़ जाता है। जिनको थोड़ा बहुत ध्यान में रुचि है और ध्यान नही लगता वो परेशान है और जिनका थोड़ा बहुत लगता है वे भी परेशान है कि ज्यादा लगे। ज्यादा लगने को वो ऐसा समझते है कि ऐसा ध्यान लगे कि बस अपने बैठे रहे ,कोई पता न चले ! योग में बताया गया है – चित्त की अवस्था होती है..क्षिप्त, विक्षिप्त, मूढ़, निरुद्ध और एकाग्र। तो सदा एकाग्र चित्त नही रह सकता क्योंकि चित्त भी प्रकृति का बना है। सदा निरुद्ध भी नही रह सकता है, सदा मूढ़ भी नही रह सकता है, सदा विक्षिप्त भी नही रह सकता, सदा एकाग्र भी नही रह सकता, और सदा चंचल भी नही रह सकता है.. कितना भी चंचल व्यक्ति रात को देखो शांत हो जाएगा, कितना भी शांत व्यक्ति देखो तो उसे चेष्टा करेगी!  भगवान शंकर जैसी समाधि तो किसीकी लगी नही!  फिर भी शंकर उठते है तो डमरू लेके नाँचते है। इतने दिन जो बैठे थे तो नही हिले-चिले थे वो सब कसर निकाल देते है!इतने दिन समाधि में थे नही हिले-जुले थे तो डमरू लेके नाँचे और सब बैठने के दिन बीत गए उनकी कसर निकाल ली! तो शरीर,मन और संसार ये सब चीजें बदलने वाली है, एक जैसी नही रहेगी।

तो जो-जो आदमी ध्यान में, समाधि में एक जैसा रहना चाहता है अथवा जो दुःख में या सुख में पकड़ जिसकी है ..तो दुःख में तो पकड़ ज्यादा नही होती सुख में पकड़ होती है। इसीलिए पकड़ होती है कि बुद्धि का मोह नही गया। तो सुख में यदि पकड़ है, धन में यदि पकड़ है, स्वर्ग में यदि पकड़ है, तो समझो कि बुद्धि का मोह चालू है। ज्ञानी की पकड़ कहीं नही होती इसलिए भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में कृष्ण कहते है- यदाते मोहकलिल बुद्धिव्यतिरिष्यति…मोहकलिल दलदल हैं। दलदल में आदमी थोडासा फँसता है, फिर थोड़ा,-थोड़ा-थोड़ा करते-करते पूरा नाश हो जाता है। पित्वा मोहमय मदिरा संसार भूत्वा उन्मदःतो कहने का तात्पर्य यह है कि दुर्जन तो दुःखी होते ही है लेकिन सज्जन लोग भी परेशान रहते है। एक पिता फर्याद करता है -मैं सवेरे उठता हूँ,मेरे कुटुंब के लोग सवेरे उठते है लेकिन नौ जवान लड़का जो बड़ा है मेरा वो दुष्ट है, वो सवेरे नही उठता है। तो ये मोह है कि मेरा बेटा है इसलिए सवेरे उठे , कईयों के बेटे नही उठते तो दुःख नही होता लेकिन मेरा बेटा है तो मैं जैसा धार्मिक हूँ ऐसा बेटा धार्मिक होना चाहिए। तो अपने बेटे में इतनी ममता होने के कारण ही तो दुःख होता है। तो भगवान के जो प्यारे भक्त है, जो भगवान तत्व कुछ समझ बैठे है उनको कोई  आग्रह नही होता है। वो बड़े बेटे को जल्दी उठाने में प्रयत्न तो करते है लेकिन नही उठता है तो चित्त में विक्षिप्त नही होते। Gujaratiकिसीका विरक्तता का प्रधानता का प्रारब्ध होता है, किसीका धन प्रधान प्रारब्ध होता है, किसीका व्यवहार प्रधान प्रारब्ध होता है, किसीका मौन प्रधान प्रारब्ध होता है। तो ज्ञान होने के बाद कोई ध्यान करता है तो Gujaratiलेकिन धार्मिक लोगों को ये चिंता-परेशानी रहती है कि अरे! शुकदेव जी को तो लंगोटी का पता नही चलता था , अब हमारा ध्यान लगता है तो हमारे को तो ऐसा होता है, शुकदेवजी जैसा ध्यान लगे! लेकिन हजारों वर्ष पहले का मनुष्य, हजारों वर्ष पहले का वातावरण और कईं जन्मों के संस्कार थे..उनका ऐसा हुआ..अब उनको लक्ष्य बनाकर तुम चलते तो जाओगे लेकिन अंदर से विक्षिप्त नही होना …नही होता है तो नही होता है लेकिन चित्त को तुम प्रसाद से पूर्ण रखो, हो गया तो भी स्वप्ना और न हुआ तो भी स्वप्ना! जिस परमात्मा में शुकदेवजी होके चले गए, वसिष्ठ होकर चले गए,राम आकर चले गए वो परमात्मा अभी तुम्हारा आत्मा है! इस प्रकार का ज्ञान जबतक नही होता तबतक मोह नही जाता है। 

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