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समय रहते उनसे जगदीश्वर की मुलाकात का पाठ पढ़ लें


◆ एक बार सूफी संत मौलाना जलालुद्दीन अपने शिष्यों के बीच बैठे थे । सब कीर्तन ध्यान की मस्ती में मस्त थे । किसी कॉलेज के प्रोफेसर अपने मित्रों के साथ घूमते-घामते वहाँ आ पहुँचे । उन्होंने सुना था कि ‘यहाँ ध्यान, साधना कराने वाले और आत्मविद्या का प्रसाद बाँटने वाले एक अलमस्त फकीर और उनके शिष्य रहते हैं ।’ वे लोग कुतूहलवश ही वहाँ जा पहुँचे ।

◆ देखा कि मौलाना 50-60 साल की उम्र के लगते हैं और अपने शिष्यों को आत्ममस्ती में मस्त बना रहे हैं । कोई नाच रहा है, कोई हँस रहा है, कोई काँप रहा है, कोई घूम रहा है, कोई चुप होकर बैठा है ।

◆ यह सब देखकर उन्होंने अपनी मति से संत को और उनके व्यवहार को तौलना शुरु किया ।

◆ एक ने कहाः “अजीब फकीर हैं ये ! किस ढंग से सबको मस्त बना रहे हैं !”

◆ दूसरे ने कहाः “अरे ! यह आदमी खतरनाक मालूम होता है । सबको पागल बना रहा है ।”

◆ तीसरे ने कहाः “यह कोई ध्यान है ? ध्यान में कभी हिलचाल होती है ? नाचना-गाना होता है ? ध्यान तो चुपचाप बैठकर किया जाता है ।”

◆ चौथे ने कहाः “कुछ भी हो लेकिन ये लोग मस्ती तो ले रहे हैं । ध्यान कैसा होता है, यह तो हमें पता नहीं पर ये लोग कुछ अजीब मस्ती में मस्त हैं । इनका रोम-रोम खुशी की खबरें दे रहा है ।”

◆ तब किसी ने कहाः “जिस विषय का पता न हो उस विषय में बोलना बेवकूफी है । चलो, बेकार में समय मत गँवाओ ।”

◆ उस वक्त वे मूर्ख लोग अपना-अपना अभिप्राय देकर चलते बने । फिर कुछ महीनों के बाद स्कूल-कॉलेज की छुट्टियाँ आयीं । तब उनको हुआः ‘चलो, वहीं चलें ।’ वे लोग फिर से गये पर शिष्य होकर नहीं, साधक हो के नहीं, केवल दर्शक हो के गये ।

◆ जो लोग दर्शक होकर महापुरुषों के द्वार पर जाते हैं, उनकी जैसी-जैसी मान्यताएँ होती हैं वैसा-वैसा अर्थ वे निकालते हैं । वे लोग संत-दर्शन का या संत के ज्ञान का कुछ फायदा नहीं ले पाते हैं । जो लोग प्यास लेकर जाते हैं, जिज्ञासा ले के जाते हैं उनमें कुछ सात्त्विकता होती है जिससे ऐसे लोगों को लाभ भी होता है ।

◆ प्रोफेसर और उनके साथी विद्वता का भूत अपनी खोपड़ी में रखकर संत के पास पहुँचे । इस बार उन्होंने देखा कि संत के सामने लोग बड़ी शांति से बैठे हैं । न कोई नाच रहा है, न गा रहा है, न हँस रहा है, न रो रहा है, न काँप रहा है, न चिल्ला रहा है । जलालुद्दीन भी मौन हैं, शांत हैं ।.

◆ तब उस टुकड़ी के मूर्खों ने अपना अभिप्राय देना शुरु कर दियाः “हाँ, अब ये लोग ध्यान में हैं । अब जलालुद्दीन और उनके शिष्यों को कुछ अक्ल आयी । पहले तो ये बिगड़े हुए थे, अब सुधर गये हैं ।

◆ जो लोग खुद बिगड़े हुए हैं उनको ही साधक लोग, भक्त लोग बिगड़े हुए दिखते हैं । ऐसे लोग ‘रॉक एंड रोल’ में नाचेंगे, फिल्म की पट्टिया देखकर तो हँसेगे-रोयेंगे लेकिन भगवान के लिए भाव में आकर न हँसेंगे, न रोयेंगे, न नाचेंगे । वहाँ अपने को सभ्य समझेंगे और भगवान के लिए हँसना, रोना, नाचना असभ्यता मानेंगे । वे बेचारे अंदर की मस्ती लेने की कला ही नहीं जानते हैं ।

◆ ऐसे ही प्रोफेसर और उनके साथियों ने, बेचारों ने अपना मत दियाः “हाँ, अब ठीक है । अब चुप होकर बैठे हैं । महाराज भी चुप हैं, लोग भी चुप हैं, अच्छा है । अब ये लोग सुधर गये हैं । अब साधना करते रहेंगे, ध्यान करते रहेंगे तो कभी-न-कभी परमात्मा को पा लेंगे ।”

◆ तब किसी ने कहाः “वह ठीक था या यह ठीक है, ऐसा कहना ही ठीक नहीं है । वैसे ही पहले से अपने पाप ज्यादां कि हम इन लोगों की तरह मस्ती में मस्त नहीं हो पाते हैं, ऊपर से संतों और साधकों के संबंध में अभिप्राय देकर पाप का बोझ बढ़ाना उचित नहीं है । हमें चुप रहना चाहिए ।”

◆ किसी ने कहाः “चलो, बेकार की बातों में समय मत गँवाओ ।” उस वक्त भी वे चले गये पर मौका मिला तो आये बिना नहीं रह पाये । अब की बार देखा तो जलालुद्दीन अकेले हैं । आकाश की ओर उनकी निगाहें हैं । उनके रोम-रोम से चैतन्य की मस्ती बिखर रही है । उनके अस्तित्व से मौन (शांति) और आनंद की खबरें मिल रही हैं ।…..उसे फिर कुछ सीखना नहीं पड़ता

◆ प्रोफेसर उनके सामने आकर बैठे । उन्होंने मौलाना से पूछाः “बाबा जी ! सब कहाँ गये ? आपके भक्त और शिष्य, जो आपके साथ रहते थे, वे सब चले गये क्या ?”

◆ जलालुद्दीन बोलेः “हाँ, मुझे जो देना था, वह मैंने दे दिया । उन्हें जो पाना था, वह उन्होंने पा लिया । मुझे जो पाठ पढ़ाना था, पढ़ा दिया । हमारे कॉलेज के दिन पूरे हो गये । अब छुट्टियाँ चल रही हैं ।”“अभी हमारे कॉलेज की छुट्टियाँ तो पड़ी नहीं हैं ।”

◆ “तुम्हारे अज्ञानियों के स्कूल-कॉलेज में तुम 15 साल तक विद्यार्थियों की खोपड़ी में कचरा भरते रहते हो, उन्हें हर साल छुट्टियाँ देते हो फिर भी उनकी छुट्टी नहीं होती है । वे कहीं-न-कहीं बँधे रहते हैं । परंतु यहाँ जो आता है और यहाँ के पाठ से पढ़ लेता है उसकी तो सदा के लिए छुट्टी हो जाती है, साथ ही उसे जन्म-मरण के चक्कर से भी छुट्टी मिल जाती है । हमारा ज्ञान ऐसा है ! विद्यार्थी तुम्हारे पाठ तो हजार जन्म पढ़ता रहे फिर भी उसकी बेड़ियाँ नहीं टूटतीं । हमारा पाठ जो एक बार सीख ले उसे फिर कुछ सीखना नहीं पड़ता । अँगूठाछाप व्यक्ति भी हमारा पाठ पढ़े तो अच्छे-अच्छे, तुम जैसे पढ़े हुए लोगों को भी पढ़ाने की योग्यता पा लेता है । वह चाहे निर्धन दिखे पर कइयों को धनवान बनाने का सामर्थ्य रखता है ।”

◆ प्रोफेसर एकटक जलालुद्दीन की ओर निहार रहे थे । जलालुद्दीन जो बोल रहे थे वह केवल भाषा नहीं थी, भाषा के पीछे कुछ सत्य था, तत्त्व का अनुभव था ।

◆ लोग समझते हैं कि पैसे हों, सत्ता हो या लोगों में प्रतिष्ठा हो तो ही सुखी जीवन गुजारा जा सकता है । पैसे के बिना सुख नहीं मिल सकता, सुधार नहीं हो सकता, सेवा भी नहीं हो सकती । लेकिन वे लोग भ्रांत मनोदशा में जी रहे हैं ।

◆ जलालुद्दीन ने प्रोफेसर को कहाः “मेरा पाठ पढ़ने वाला व्यक्ति जहाँ कहीं जायेगा, जो कुछ करेगा उसके लिए शुभ हो जायेगा । जिन वस्तुओं को देखेगा वे प्रसाद हो जायेंगी । वह जितने दिन जियेगा उतने दिन उसके लिए मानो हर दिन दीवाली और हर रात पूनम हो जायेगी । ऐसा पाठ पढ़ाकर अब मैं विश्रांति ले रहा हूँ ।”अगर सोचने में रह गये तो चूक गये…..

◆ वे प्रोफेसर तो पढ़े-लिखे व्यक्ति थे । कुछ सोचकर वे नम्रता से बोलेः “महाराज ! हम भी आपसे पढ़ना चाहते हैं । हमें भी आप पाठ पढ़ाइये ।”

◆ जलालुद्दीन बोलेः “अब मेरे पास समय नहीं है । तुम कई बार यहाँ आते रहे….. सब देखते रहे । परंतु तब मेरे पाठ पढ़ने की तुम लोगों में कोई उत्सुकता नहीं थी । अब मैंने अपना काम निपटा लिया है । अब मैं आखिरी क्षणों के इंतजार में कुछ दिन बिता दूँगा । फिर इस संसार के शरीररूपी चोले को छोड़कर अपने आत्मा में लीन हो जाऊँगा । वक्त यूँ ही चला गया, तुम समझ नहीं पाये । जगत की विद्या पढ़ाने वाले प्रोफेसर तो लाखों-लाखों मिल जायेंगे किंतु जगदीश्वर की मुलाकात का पाठ पढ़ाने वाले मुर्शिद (सद्गुरु) तो कभी-कभी, कोई-कोई विरले ही समाज के बीच आते हैं । वे जब आते हैं तो श्रद्धा-भक्तिवाले कुछ लोग उनसे जितनी जिसकी श्रद्धा-निष्ठा होती है उतना-उतना पा लेते हैं और बाकी के वैसे ही रह जाते हैं ।”

◆ आप स्टेशन पर पहुँचे हो और रेलगाड़ी भी उस समय खड़ी हो…. अगर आप कहीं जाना चाहते हो तो समय रहते ही, रेलगाड़ी जब खड़ी हो तब उसमें बैठ जाना चाहिए । अगर सोचने में रह गये तो चूक गये । रेलगाड़ी रवाना होने की तैयारी में हो तब तक भी बैठ सकते हो । तुम जहाँ कहीं जाना चाहते हो वहाँ पहुँच सकते हो परंतु रेलगाड़ी चली जाय उसके बाद तो फिर सिर कूटना ही रहेगा ।.

◆ ऐसे ही प्रोफेसर बेचारे सोचने में ही रह गये । आये तो सही संत के पास….. दो बार, तीन बार, चार बार…. पर ऐसे-के-ऐसे ही रह गये । सब आपस में एक-दूसरे को दोष देने लगेः ‘तूने ऐसा कहा…. तूने वैसा कहा….।’ जब संत के पास समय नहीं रहा तब आये तो फिर उनके हाथ सिर कूटना ही रहा । ऐसे लोगों के लिए कहावत सार्थक होती है कि अब पछताये होत क्या, जब चिड़िया चुग गयी खेत ।

◆ उस समय तो दर्शक बनकर आये थे । अगर साधक बन के, जिज्ञासु बन के आते, भगवद्ध्यान, सत्संग और भगवन्नाम रूपी गाड़ी में बैठ जाते तो भवसागर से पार हो जाते । भवसागर से पार नहीं भी होते तो भवसागर से पार होने की कुछ कला ही सीख लेते । इतना भी नहीं होता तो सत्संगियों के बीच बैठकर सत्संग-कथा सुनते तो कुछ समझ का विकास होता, कुछ पाप मिटा सकते थे । पर जो लोग अपने को समझदार मानते हैं वे सत्संग में नहीं बैठ सकते । जो लोग जानते हैं कि अपनी समझ से भी अधिक समझ है, अपने सुख से भी विशेष सुख है और उसे पाने में अपने समय का सदुपयोग कर लेना चाहिए-ऐसी जिनकी सन्मति होती है, वे ही लोग ब्रह्मवेत्ता संतों के सान्निध्य में शांति और आनंद का अनुभव कर सकते हैं । वे ही संतों के सान्निध्य का लाभ लेकर परमात्मप्राप्ति की चल पड़ते हैं और अपने मनुष्य-जन्म को सार्थक कर लेते हैं ।

◆ स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2019, पृष्ठ संख्या 4-6 अंक 322

अनेक में एक


◆ वेदांत के ज्ञान की महिमा अमाप है। वेदांत का ज्ञान सुनने से जितना पुण्य होता है उतना पुण्य चांद्रायण व्रत रखने से या पैदल यात्रा करके पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से या अश्वमेध यज्ञ करने से भी नहीं होता है।

◆ किसी आश्रम में कोई नया साधक गुरुजी के दर्शन-सत्संग के लिए आ पहुँचा। उस साधक ने अपनी शंका का समाधान पाने के लिए गुरुजी से पूछाः “गुरुजी ! कोई कहता है कि भगवान मंदिर में रहते हैं और कोई कहता है कि भगवान अपने हृदय में रहते हैं तो सचमुच में भगवान कहाँ रहते हैं ?”

◆ गुरुजी ने कहाः “इतनी सी बात है न ! वह तो तू मेरे पुराने शिष्य से ही पूछकर समझ ले।” साधक ने शिष्य के पास जाकर वही बात दुहराई कि ʹभगवान कहाँ रहते हैं ?ʹ

◆ शिष्य ने उसकी शंका का समाधान करते हुए कहाः “भगवान सर्वत्र हैं, सर्वव्यापक हैं। वे एक-के-एक अनेक रूपों में दिखत हैं। जैसे आकाश एक है फिर भी घट में आया हुआ आकाश घटाकाश, मठ में आया हुआ आकाश मठाकाश, मेघ में आया हुआ आकाश मेघाकाश और खुला आकाश महाकाश कहलाता है, वैसे ही भगवान परमात्मा एक हैं लेकिन जिस रूप में आते हैं वैसे दिखते हैं।

◆ अनेक रूपों में बसे हुए वे एक-के-एक सच्चिदानंद परमात्मा ही मेरा आत्मा है, ऐसा ज्ञान जिसे हो जाता है उसका जीवन सफल हो जाता है।”

◆ शिष्य की बात समझने की कोशिश करता हुआ वह साधक अपनी शंका का कुछ तो समाधान पा रहा था लेकिन उसे पूर्ण संतोष नहीं हुआ था। शिष्य और साधक की बातों को गुरु जी सुन रहे थे। गुरु जी ने उसी बात को और स्पष्ट रूप से समझाते हुए कहाः “बेटा ! सुनो। एक हजार घट लेकर उसमें पानी भरकर चंद्रमा का प्रतिबिम्ब देखो तो साफ (शुद्ध) पानी में प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखेगा और मैले पानी में प्रतिबिंब साफ नहीं दिखाई देगा। वैसे ही परमात्मा का प्रतिबिंबरूप जीवात्मा अनेक अंतःकरणों में अलग-अलग स्वरूप में दिखाई देता है।.

◆ जैसे, विद्युत शक्ति तो एक ही होती है लेकिन टयूबलाईट में ज्यादा प्रकाश देती है, बल्ब में उसके रंग के अनुरूप प्रकाश देती है, माईक्रोफोन में आवाज बनाती है, हीटर में से गर्मी देती है, फ्रीज में बर्फ बनाती है, रेकोर्डिंग में उसका उपयोग होता है तो आवाज टेप करती है। एक ही विद्युत शक्ति अनेक रूपों में अलग-अलग कार्य करती दिखाई देती है। स्थूल भौतिक शक्ति भी यदि अनेक रूपों में कार्य करती हुई दिखती है तो वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म चैतन्य परमात्मा अनेक रूपों में एक ही दिखाई दें इसमें क्या आश्चर्य है ?”

◆ मूलतः एक-का-एक परमात्मा कार्य-कारण की भिन्नता से अलग-अलग रूपों में दिखाई देता है।

◆ अनुभवी महापुरुषों के ग्रंथों के, शास्त्रों के, भगवान श्रीकृष्ण, भगवान श्रीराम, याज्ञवल्क्य, अष्टावक्र, राजा जनक जैसे ब्रह्मवेत्ताओं के वचनों के लिए अलावा ऐसा दिव्य ज्ञान कहीं सुनने को नहीं मिलता है। सब लोग इसे नहीं सुन पाते हैं। कई लोग सुनना भी चाहते हैं तो अभागे अश्रद्धालु लोग उनकी श्रद्धा को डगमगाते हैं, कई तरह के बहाने बताकर उस आध्यात्मिक रास्ते पर चलने से रोक लेते हैं। जो ईश्वर के मार्ग से किसी को दूर करते हैं ऐसे लोग महापाप के भागी बनते हैं।

◆ किसी व्यक्ति ने मुझसे कहाः “बापू ! आपके गुरु लीलाशाहजी महाराज ने तो आत्मसाक्षात्कार किया था न ? वे आये थे हमारे गाँव। उनके दर्शन से मुझे बहुत आनंद आया और श्रद्धा भी हुई लेकिन उनकी बातों पर मुझे विश्वास नहीं हुआ।”

◆ मुझे आश्चर्य हुआ। मैं उसे देखता ही रह गया कि ʹजिसे मेरे गुरुजी की बात पर विश्वास नहीं हुआ, उसे मेरी बात पर विश्वास कैसे आयेगा ?ʹ

◆ मैंने पूछाः “मेरे गुरुजी की कौन सी बात पर विश्वास नहीं आया ?”

◆ उसने कहाः “लीलाशाहजी बापू कहते थे कि अपना आत्मा ही परमात्मा है और वही आत्मा सबमें बस रहा है।”

◆ उसने कहाः “बापू ! अभी कुछ समय पहले मेरी माँ मर गई। सबमें एक ही आत्मा है तो हम सब भी मर जाने चाहिए थे न ?”मैंने कहाः “ऐसा कोई जरूरी नहीं है।”उसने पूछाः “यह कैसे हो सकता है ?”

◆ मैंने कहाः “भाई ! दस घड़ों में पानी भरकर रखो, उनमें पूनम की रात को चंद्रमा का प्रतिबिंब देखो तो दस चंद्रमा दिखेंगे कि नहीं ?”“हाँ।”

◆ “उनमें से एक घड़ा फोड़ डालो तो नौ प्रतिबिंब दिखेंगे कि नहीं ?”“हाँ, दिखेंगे।”

◆ “बाकी नौ को भी फोड़ डालो तो असली चंद्रमा रहेगा कि नष्ट हो जायेगा ?”“असली तो रहेगा।”

◆ “जैसे एक घड़ा फूट जाय या उसका पानी ढुल जाये तो उससे दूसरे प्रतिबिंब या असली चंद्रमा को कुछ हानी नहीं होती। वैसे ही यह देहरूपी घड़ा फूट जाये तो उससे शाश्वत आत्मा को कुछ हानि नहीं होती। वह अमर आत्मा ही परमात्मा है। सबके हृदय में वही है।”

◆ उसने फिर से पूछाः “बापू ! सबके हृदय में सुख का अनुभव होता है तब सबको सुख होना चाहिए और मुझे दुःख का अनुभव होता है तब सबको दुःख होना चाहिए। यह नहीं होता है। क्यों ?”

◆ “क्योंकि जैसे दस घड़ों को ठी पर रखेंगे तो उनमें भरा हुआ पानी उबलेगा लेकिन उसमें आया हुआ प्रतिबिंब उबलेगा क्या ? उसे ताप लगेगा क्या ?”“नहीं।”

◆ जैसे, भट्ठी पर रखने से घड़ा भी तपेगा, घड़े का पानी भी तपेगा, पर उससे चन्द्रमा के प्रतिबिंब पर या चंद्रमा पर कोई असर नहीं होगा। वैसे ही हरेक मनुष्य के अंतःकरण अलग-अलग होते हैं, उनमें सुख-दुःख का अनुभव तो होता है परंतु उन सबसे परे सबका साक्षी, चैतन्य परमात्मा सुख-दुःख से परे होने के बदले अपने में उसका अनुभव करने लगते हैं।

◆ शरीर को ʹमैंʹ मानने के बजाय अपने को आत्मा मान लो और आत्मा-परमात्मा एक जान लो तो समस्त सुख-दुःख के लिए पार हो जाओगे।

◆ स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 1997, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 57

लाबयान है ब्रह्मवेत्ताओं की महिमा


◆ सदगुरु मेरा सूरमा, करे शब्द की चोट। मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट।।

◆ सदगुरु की करूणा तो करूणा है ही, उनकी डाँट भी उनकी करूणा ही है। गुरु कब, कहाँ और कैसे तुम्हारे अहं का विच्छेद कर दें, यह कहना मुश्किल है।

◆ श्रद्धा ही गुरु एवं शिष्य के पावन संबंध को बचाकर रखती है, वरना गुरु का अनुभव और शिष्य का अनुभव एवं उसकी माँग, इसमें बिल्कुल पूर्व-पश्चिम का अंतर रहता है। शिष्य के विचार एवं गुरु के विचार नहीं मिल सकते क्योंकि गुरु जगे हुए होते हैं सत्य में, जबकि शिष्य को मिथ्या जगत ही सत्य लगता है। किंतु शिष्य श्रद्धा के सहारे गुरु में ढल पाता है और गुरु करुणा से उसमें ढल जाते हैं। शिष्य की श्रद्धा एवं गुरु की करुणा-इसी से गाड़ी चल रही है।

◆ श्रद्धा हृदय की पवित्रता का लक्षण है, तर्क और संशय पवित्रता का लक्षण नहीं है। जैसे वस्त्र के बिना शरीर नंगा होता है, वैसे ही श्रद्धा के बिना हृदय नंगा होता है। श्रद्धा हृदय-मंदिर की देवी है। श्रद्धा होने पर ही मनुष्य किसी को अपने से श्रेष्ठ स्वीकार करता है। जीवन में गुरु, शास्त्र, संत और धर्म के प्रति श्रद्धा अवश्य होनी चाहिए।ʹ

◆ गीताʹ में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- श्रद्धावान् लभते ज्ञानं…..

◆ श्रद्धा एक ऐसा सदगुण है जो तमाम कमजोरियों को ढक देता है। करूणा एक ऐसी परम औषधि है, जो सब सह लेती है। दोनों में सहने की शक्ति है। जैसे माँ बेटे की हर अँगड़ाई करूणावश सह लेती है, बेटे की लातें भी सह लेती है, वैसे ही गुरुदेव शिष्य की हर बालिश चेष्टा को करुणावश सहन कर लेते हैं। बाकी तो दोनों का कोई मेलजोल सम्भव ही नहीं है।.

◆ बहुत लोग किसी को मानते हैं एवं उनका आदर करते हैं इसलिए वे महात्मा हैं, ऐसी बात नहीं है। लोगों की वाहवाही से सत्य की कसौटी नहीं होती। धन-वैभव से भी सत्य को नहीं मापा जा सकता और न ही सत्ता द्वारा सत्य को मापना सम्भव है। सत्य तो सत्य है। उसे किसी भी मिथ्या वस्तु से मापा नहीं जा सकता।

◆ माँ आनंदमयी के पास इंदिरा गाँधी जाती थीं इसलिए माँ आनंदमयी बड़ी हैं, ऐसी बात नहीं है। वे तो हैं ही बड़ी, बल्कि यह इंदिरा गांधी का सौभाग्य था कि ऐसी महान विभूति के पास वे जाती थीं। रमण महर्षि के पास मोरारजीभाई देसाई जाते थे इससे रमण महर्षि बड़े थे, ऐसी बात नहीं है वरन् मोरारजीभाई का सौभाग्य था कि महर्षि के श्रीचरणों में बैठकर आत्मज्ञान-आत्मशांति पाने के योग्य बनते थे।

◆ लोग यदि ऐसे ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों को जानते मानते हैं तो यह लोगों का सौभाग्य है। कई ऐसे लोग हैं जिन्हें लाखों लोग जानते हैं, फिर भी वे ऊँची स्थिति में नहीं होते। कई ऐसे महापुरुष होते हैं जिन्हें उनके जीवनकाल में लोग उतना नहीं जानते जितना उनके देहावसान के बाद जानते हैं। भारत में तो ऐसे कई महापुरुष हैं जिन्हें कोई नहीं जानता जबकि वे बड़ा ऊँचा जीवन जीकर चले गये।

◆ जैसे प्रधानमंत्री आदिवासियों के बीच आकर उन्हीं के जैसी वेशभूषा में रहें तो उऩकी योग्यता को आदिवासी क्या जान पायेंगे ! वे तो उनके शरीर को ही देख पायेंगे। उनके एक हस्ताक्षर से कितने ही नियम बदल जाते हैं, कितने ही लोगों की नींद हराम हो जाती है। इस बात का ज्ञान आदिवासियों को नहीं हो पायेगा। ऐसे ही ज्ञानी महापुरुष भी स्थूल रूप से तो और लोगों जैसे ही लगते हैं, खाते-पीते, लेते देते दिखते हैं, किन्तु सूक्ष्म सत्ता का बयान कर पाना सम्भव ही नहीं है। किसी ने ठीक ही कहा हैः.

◆ पारस अरु संत में बड़ा अंतरहू जान।

◆ एक करे लोहे को कंचन ज्ञानी आप समान।।

◆ पारस लोहे को स्वर्ण तो बना सकता है किंतु उसे पारस नहीं बना सकता जबकि पूर्ण ज्ञानी व्यक्ति को अपने ही समान ब्रह्मज्ञानी बना सकता है।

◆ अनुभूति कराने के लिए ईश्वर तैयार है, गुरु समर्थ हैं तो फिर हम देर क्यों करें ? यदि ईश्वर-अनुभूति के रास्ते चलते-चलते मर भी गये तो मरना सफल हो जायेगा एवं जीते-जी ईश्वर-अनुभूति करने में सफल हो गये तो जीना सफल हो जायेगा।

◆ ऐसे ही ब्रह्मज्ञानी संतों का दर्शन व सत्संग करते-करते मर भी गये तो अमर पद के द्वार खुल जायेंगे और इसी जन्म में लक्ष्य साध्य करने की दृढ़ता बढ़ाकर जीवन को उनके सिद्धान्त-अनुरूप बनाने में तत्पर हो गये तो जीवन्मुक्त हो जायेंगे।

◆ स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2013, पृष्ठ संख्या 2,10 अंक 246