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सत्शिष्य को सीख


जगत में सर्वाधिक पाप काटने और आध्यात्मिक तौर पर ऊँचा उठाने वाला कोई साधन है तो वह है ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों की डाँट, मार व मर्मभेदी शब्द । शिष्यों के विशेष पापों की सफाई के लिए अथवा सद्गुरु द्वारा उन्हें ऊँचा उठाने के लिए दी जाने वाली डाँट-मार के पीछे शिष्य की गलती निमित्तमात्र होती है । मूल कारण तो सर्वत्र व्याप्त गुरुतत्त्व द्वारा बनाया गया माहौल होता है ।

जब भी किसी ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु द्वारा किसी शिष्य को दी जाने वाली डाँट-मार अथवा मर्मभेदी शब्दों से शिष्य को मृत्युतुल्य कष्ट हो और सद्गुरु का सान्निध्य छोड़कर घऱ भाग जाने के विचार आयें तो उसे भागना नहीं चाहिए लेकिन समझना चाहिए कि इस मनस्ताप से अपने कई जन्मों के पाप भस्म हो रहे हैं ।

सच्चे सद्गुरु तो तुम्हारे स्वरचित सपनों की धज्जियाँ उड़ा देंगे, सपनों को तोड़ेंगे । अपने मर्मभेदी शब्दों से तुम्हारे अंतःकरण को झकझोर देंगे । वज्र की तरह वे गिरेंगे तुम्हारे ऊपर । तुमको नया रूप देना है, नयी मूर्ति बनाना है, नया जन्म देना है न ! वे तरह-तरह की चोट पहुँचायेंगे, तुम्हें तरह-तरह से काटेंगे तभी तो तुम पूजनीय मूर्ति बनोगे । अन्यथा तो निरे पत्थर रह जाओगे । तुम पत्थर न रह जाओ इसीलिए तो तुम्हारे अहंकार को तोड़ना है, भ्रांतियों के जाल को काटना है । तुम्हें नये जन्म के लिए नौ माह का गर्भवास और प्रसव-पीड़ा तो सहनी पड़ेगी न ! बीज से वृक्ष बनने के लिए बीज के पिछले रूप को तो सड़ना-गलना पड़ेगा न ! शिष्य के लिए सद्गुरु की कृपापूर्ण क्रिया एक शल्यक्रिया के समान है । सद्गुरु के चरणों में रहना है तो एक बात मत भूलनाः चोट लगेगी । छाती फट जायेगी गुरु के शब्द बाणों से । खून भी बहेगा । घाव भी होंगे । पीड़ा भी होगी । उस पीड़ा से लाखों जन्मों की पीड़ा मिटती है । पीडोद्भवा सिद्धयः । सिद्धियाँ पीड़ा से प्राप्त होती हैं । जो हमारे आत्मा के आत्म हैं, जो सब कुछ हैं उऩ्हीं की प्राप्तिरूप सिद्धि मिलेगी । …..लेकिन भैया ! याद रखनाः अपने बिना किसी स्वार्थ के अपनी शल्यक्रिया द्वारा शिष्यों को दुश्मन की तरह दिखने  वाले साहसी महापुरुष कभी-कभी आते हैं इस धरा पर । उन्हीं के द्वारा लोगों का कल्याण होता है बड़ी भारी संख्या में । कई जन्मों के संचित पुण्यों का उदय होने प भाग्य से अगर इतने करुणावान महापुरुष मिल जायें तो हे मित्र ! प्राण जायें तो जायें पर भागना मत ।

कबीर जी कहते हैं-

शीश दिये सद्गुरु मिलें, तो भी सस्ता जान ।

अतः कायरता मत दिखाना । भागना मत । भगोड़े मत हो जाना । अन्यथा तो क्या होगा कि पुनः पुनः आना पड़ेगा । पूछोगेः

“कहाँ ?” ….तो जवाब हैः यहीं…. इस धरा पर घोड़ा गधा, कुत्ता, वृक्षादि बनकर… पता नहीं क्या-क्या बनकर आना पड़ेगा । अब तुम्हीं निर्णय कर लो ।

बहुत से साधकों को सद्गुरु के सान्निध्य में तब तक रहना अच्छा लगता है जब तक  वे प्रेम देते हैं । परन्तु जब वे उन्के उत्थानार्थ सद्गुरु उनका तिरस्कार करते हैं, फटकारते हैं, उनका देहाध्यास तोड़ने के लिए उन्हें विभिन्न कसौटियों में कसते हैं तब साधक कहता हैः “मैं सद्गुरु के सान्निध्य में रहना तो चाहता हूँ पर क्या करूँ ? बड़ी परेशानी है । इतना कठोर नियंत्रण !”

भैया ! घबरा मत । एक तेरे लिए सद्गुरु अपने नियम नहीं बदलेंगे । उन्हें लाखों का कल्याण करना है । उनकी लड़ाई तेरे से नहीं, तेरी मलिन कल्पनाओं से है । तेरे मन को, तेरे अहंकार को मिटाना है, तेरे मन के ऊपर गाज गिरानी है… तभी तो तू ब्रह्मस्वरूप में जागेगा । तेरे अहं का अस्तित्व मिटेगा तभी तो तेरा कल्याण होगा ।

अभी तो मन तुझे दगा दे रहा है । मन के द्वारा माँगी जाने वाली यह स्वतन्त्रता तो आत्मज्ञान में । आत्मज्ञान के रास्ते जल्दी आगे बढ़ाने के लिए ही सद्गुरु साधक को कंचन की तरह तपाना शुरु करते हैं परंतु साधक में यदि विवेक जागृत न हो तो उसका मन उसे ऐसे खड्डे में पटकता है कि जहाँ से उठने में उसे वर्षों नहीं, जन्मों लग जाते हैं । फिर तो वह…

घर का रहा न घाट का, ज्यों धोबी का श्वान ।

याद रखोः जब भी तुम्हें सद्गुरु की गढ़ाई का सामना करना पड़े, अपनी दिनचर्या को झोंक लो, अपनी गलतियों को निहार लो । निश्चित ही तुमसे कोई गलती हुई है, कोई पाप हुआ है आगे-पीछे अथवा कोई पकड़ हो गयी है । तात्कालिक गलती तो निमित्तमात्र है । सद्गुरु तो तुम्हारे एक-एक पाप की सफाई करके तुम्हें आगे बढ़ाना चाहते हैं । सबके भाग्य में नहीं होती सद्गुरु की गढ़ाई । तुम भाग्यशाली हो कि सद्गुरु ने तुम्हें गढ़ने के योग्य समझा है । तुम अपनी सहनशक्ति का परिचय देते हुए उन्हें सहयोग दो और जरा सोचो कि तुमसे उन्हें कुछ पाना नहीं है, उनका किसी प्रकार का स्वार्थ नहीं है । केवल एवं केवल तुम्हारे कल्याण के लिए ही वे अपना ब्रह्मभाव छोड़कर ऐसा क्रोधपूर्ण बीभत्स रूप धारण करते हैं । अरे, रो ले एकान्त में बैठकर… रो ले भैया ! इतना जानकर भी सद्गुरु के प्रति तुम्हारे अंतःकरण में द्वेष उत्पन्न हो रहा है तो फट नहीं छाती तेरी ?

वैसे ऑपरेशन के समय सद्गुरु इतनी माया फैलाकर रखते हैं कि गढ़ाई से उत्पन्न विचारों का पोषण करने की शिष्य की औकात नहीं क्योंकि…. अंतर हाथ सहारि दे, बाहर मारे चोट ।

फिर भी चित्त सद्गुरु का अपमान करता है, अहंकारवश ज्यादा हठ करता है तो सद्गुरु से दूर हो सकता है । अतः हे साधक ! सावधान !

दुर्जन की करुणा बुरी, भलो साँईं को त्रास ।

सूरज जब गर्मी करे, तब बरसन की आस ।।

स्रोतः पंचामृत पुस्तक, पृष्ठ संख्या 144-147

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पुरुषार्थी पुरु – पूज्य बापू जी


पुरुषार्थ करना चाहिए । इस लोक में सफल होने के लिए और आत्मा-परमात्मा को पाने में सफल होने के लिए भी पुरुषार्थ चाहिए ।

पुरु नाम का एक लड़का बेचारा महाविद्यालय पढ़ने के दिन देख रहा था । 16 वर्ष की उम्र हुई और एकाएक उसके पिता को हृदयाघात हो गया, वे मर गये । बेटे और माँ पर दुःखों का पहाड़ आ पड़ा । पुरु को एक भाई और एक बहन थी । बड़ा दुःख आ गया, पुरु सोचने लगाः ″अब कौन कमायेगा, घर का खर्चा कैसे चलेगा ? 12वीं अभी पूरी भी नहीं हुई, नौकरी तो मिलेगी नहीं ! क्या करें ?’ पुरु की माँ सत्संगी थी, पति की अंत्येष्टि करवायी । लोग बोलतेः ″तुम अब कैसे जियोगे, क्या खाओगे ?″

बोलेः ″परमेश्वर है ।″ पुरु की माँ ने पुरु को सांत्वना दी और पुरु ने अपनी माँ को ढाढस बँधाया । दो भाई-बहन और तीसरा पुरु, चौथी माँ । माँ घर पर ही थोड़ा बड़ी-पापड़ आदि बनाती । उनमें लगने वाली चीज वस्तु साफ सुथरी, सस्ती व अच्छी लाती । पहले तो पड़ोसी लोग मखौल उड़ाने लगे लेकिन बाद में पड़ोसी भी उनसे ही चीजें खऱीदने लगे । पुरु भी नौकरी की तलाश करता रहा, पढ़ता रहा । डाक विभाग से एक विज्ञापन निकला कि कोई 11वीं पढ़ा हुआ होगा तो उसको यह नौकरी मिल सकती है – क्लर्क को सहायक क्लर्क चाहिए । पुरु  ने उस नौकरी हेतु प्रपत्र (फॉर्म) भर दिया और घर बैठे पढ़कर बी.ए. करने का निश्चय किया । साक्षात्कार (इन्टरव्यू) हुआ, नौकरी मिली । वह जो काम मिले उसको पहले समझता फिर अच्छी तरह तत्परता से लगकर पूरा करता । ऐसा करते-करते उसने डाकघर के प्रधान अधिकारी और वरिष्ठ साहब का भी विश्वास सम्पादन कर लिया । एक तरफ पढ़ता गया, दूसरी तरफ ईमानदारी की सुंदर सेवा से सबका विश्वास सम्पादन करता गया । समय बीतता गया, स्नातक (ग्रेजुएट) हुआ और आगे चल के डाकघर का प्रधान अधिकारी हो गया फिर उससे भी आगे की पदोन्नति हुई ।

लोगों ने कहा कि ‘पुरु तो एक साधारण विधवा का बेटा और इतना आगे !’

पुरु ने कहाः ″भगवान ने आगे बढ़ने के लिए धरती पर जन्म दिया लेकिन कमाकर आगे बढ़ गये तो कई बड़ी बात नहीं है, इस कमाई का सदुपयोग करके सत्यस्वरूप परमात्मा का पाने में भी आगे बढ़ने के लिए मनुष्य जन्म मिला है ।″

″ऐ पुरु ! तुम पोस्ट ऑफिस विभाग के श्रेष्ठ अधिकारी ही नहीं बल्कि एक श्रेष्ठ नागरिक भी हो ।″

पुरु ने कहाः ″श्रेष्ठ नागरिक बनने के लिए श्रेष्ठ सीख चाहिए और वह मुझे सत्संग से, भगवन्नाम के जप और भगवान के ध्यान से मिली है । श्रेष्ठ व्यक्ति वही है जो श्रेष्ठ-में-श्रेष्ठ परमात्मा में विश्रांति पाता है ।″

पुरु वेदांत का सत्संग और आत्मविश्रांति का अवलम्बन लेते हुए आध्यात्मिक जगत में भी बड़ी ऊँचाई को उपलब्ध हुए ।

बड़े-बड़े धनाढ़य, बड़े-बड़े सत्तावान अपने जीवन से नीरसता मिटाने के लिए शराब-कबाब, दुराचार आदि की शऱण लेते हैं । वे मनुष्य धनभागी हैं जो संत-महापुरुषों का सत्संग श्रवण कर आत्मिक उन्नति की कुंजियाँ जान के अपने जीवन को रसमय बना लेते हैं । इससे उनके जीवन में लौकिक उन्नति तो होती ही है, साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति भी होती है । वे देर-सवेर अपनी साक्षीस्वरूप परब्रह्म-परमात्मा का साक्षात्कार कर लेते हैं, अपने ‘सोऽहम्’ स्वभाव में जग जाते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 344

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संत की युक्ति से भगवदाकार वृत्ति व पति की सद्गति


एक महिला संत के पास गयी और बोली ″बाबा जी ! मेरे पति मर गये । मैं उनके बिना नहीं जी सकती । मैं जरा सी आँख बन्द करती हूँ तो मुझे वे दिखते हैं । मेरे तन में, मन में, जीवन में वे छा गये हैं । अब मेरे को कुछ अच्छा नहीं लगता । मेरे पति का कल्याण भी हो ऐसा भी करो और मेरे को भी कुछ मिल जाये कल्याण का मार्ग । लेकिन मेरे पति का ध्यान मत छुड़ाना ।″

संतः ″नहीं छुड़ाऊँगा बेटी ! तेरे पति तुझे दिखता है तो भावना कर कि पति भगवान की तरफ जा रहे हैं । ऐसा रोज अभ्यास कर ।″

माई 2-5 दिन का अभ्यास हुआ । करके संत के पास गयी तो उन्होंने पूछाः ″अब क्या लगता है बेटी ?″

″हाँ बाबा जी ! भगवान की तरफ मेरे पति सचमुच जाते हैं ऐसा लगता है ।″

संत ने फिर कहाः ″बेटी ! अब ऐसी भावना करना कि ‘भगवान अपनी बाँहें पसार रहे हैं । अब फिर पति उनके चरणों में जाते हैं प्रणाम के लिए ।’ प्रणाम करते-करते तेरे पति एक दिन भगवान में समा जायेंगे ।″

″अच्छा बाबा जी ! उनको भगवान मिल जायेंगे ?″

″हाँ, मिल जायेंगे ।″

माई भावना करने लगी कि ‘पति भगवान की तरफ जा रहे हैं । हाँ, हाँ ! जा रहे हैं… भगवान को यह मिले… मिले… मिले….!’ और थोड़े ही दिनों में उसकी कल्पना साकार हुई ।

पति की आकृति जो प्रेत हो के भटकने वाली थी वह भगवान में मिलकर अदृश्य हो गयी और उस माई के चित्त में भगवदाकार वृत्ति बन गयी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2021, पृष्ठ संख्या 21. अंक 321

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