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Avataran Divas

अपने जन्म और कर्म को दिव्य कैसे बनाएँ?


नारायण… नारायण…. नारायण… नारायण…

जन्मदिवस बधाई हो..

पृथ्वी सुखदायी हो, जल सुखदायी हो

तेज सुखदायी हो, वायु सुखदायी हो

जन्मदिवस बधाई हो..

मन सुखदायी हो, मति सुखदायी हो

गति सुखदायी हो, स्नेही सुखदायी हो

जन्मदिवस बधाई हो..

            इस प्रकार जन्मदिवस जो लोग मनाते हैं, मनवाते हैं, बहुत अच्छा है, ठीक है लेकिन उससे थोड़ा और भी आगे जाने की नितांत आवश्यकता है ।

            कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु…   ऊँच और नीच योनियों में जन्म होने का कारण है गुणों का संग। ध्यान से सुनना। पौने दो करोड़ लोग का रोज धरती पर जन्म होता है। जन्मोत्सव मनाना चाहिए लेकिन विवेकपूर्ण मनाने से बहुत फायदा होता है और विवेक में अगर वैराग्य मिला दिया जाय तो और विशेष फायदा होता है। विवेक वैराग्य के साथ अगर भगवान के जन्म-कर्म को जानने वाली गति-मति हो जाय तो परम कल्याण समझो ।

            कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु…  ऊँच और नीच योनियों में जन्म लेने का कारण है गुणों का संग। हम जीवन में कई बार जन्मते रहते हैं। शिशु जन्मा और शिशु की मौत हुई तो बालकपना आया । बालक का जन्‍म मरा तो किशोर बना, किशोर मरा तो युवक का जन्म हुआ, युवक मरा तो वृद्ध का जन्म हुआ। मैं ‘सुखी’ हूँ तो आपका सुखमय जन्म हुआ। मैं ‘दुःखी’ हूँ, उस समय आपका दु:खमय जन्म हुआ। मैं ‘बीमार’ हूँ तो हमने अपनी बीमारी के साथ जन्म मान लिया। मैं ‘स्वस्थ’ हूँ तो स्वास्थ्य के साथ जन्म लिया। इन गुणों के साथ संग करने से सत-असत योनियों में जीव भटकता है। स्थूल शरीर को पता नहीं कि मेरा जन्म होता है और आत्मा का जन्म होता नहीं, बीच में है सूक्ष्म शरीर और सूक्ष्म शरीर जिस समय जिस भाव में होता है उसी समय उस भाव का उसका जन्म माना जाता है । मैं ‘पापी’ हूँ तो अभी पापमय जन्म है, मैं ‘पुण्यात्मा’ हूँ तो पुण्यमय जन्म है। मैं बीच में हूँ  तो बीच का जन्म है और मेरे को पता ही नहीं कि क्या है सब? कुछ समझ में नहीं आता तो अज्ञानता का जन्म है । श्रीकृष्ण सारे जन्मों से हटाकर हमको दिव्य जन्म की ओर ले जाना चाहते हैं।

            गीता के चौथे अध्याय का नौवां श्लोक है: 

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥ (गीता 4.9)

            “अर्जुन,  जो मेरे जन्म-कर्म को दिव्य और अलौकिक, ‘तत्व’ से जानता है वह शरीर त्याग कर फिर जन्मों को प्राप्त नहीं होता, मुझे ही प्राप्त हो जाता है।

भगवान में अगर जन्म और कर्म मानें तो भगवान का भगवानपना सिद्ध नहीं होता। अगर भगवान में जन्म और कर्म नहीं मानते हैं तो भगवान में क्रिया करना, आना-जाना, उपदेश देना, युद्ध करना, संधिदूत बनना अथवा हाय सीते! हाय लक्ष्मण! करना, यह संभव नहीं है। भगवान में जन्म-कर्म नहीं मानते तो क्रिया और दर्शन जो हो रहा है वह संभव नहीं है। अगर मानते हैं तो भगवान का भगवानपना सिद्ध नहीं होगा। भगवान को भी जन्म लेना पड़े और कर्म करना पड़े तो भगवान किस बात के? तो वेदांत सिद्धांत के अनुसार इसको बोलते हैं ‘विलक्षण लक्षण’।  इसमें भगवान में जो जीव के लक्षण से भी मेल खाए और ईश्वर के लक्षण से भी मेल खायें और फिर भी दोनों में दिखे उसको बोलते हैं ‘विलक्षण’, अनिर्वचनीय ।

भगवान का जन्म और कर्म दिव्य कैसे हैं? बोले : अनिर्वचनीय  ‘दिव्य’ है । न ईश्वर में जन्म-कर्म है न जीवत्व के बंधन और वासना है, इसलिए भगवान के जन्म और कर्म दिव्य माने जाते हैं। भगवान के जन्म और कर्म दिव्य मानने से, जानने से आपको भी लगेगा कि जो कर्म होते हैं तो पंचभौतिक शरीर में होते हैं, मन की मान्यता से होते हैं। स्वरूप में उसको जानने वाला जन्म से और कर्म से ‘ज्ञान’ विलक्षण है। ‘मैं’ वह हूँ ज्ञानस्वरूप। मन में ‘दु:खीपने’ का भाव आया, उसी समय ‘मैं दुःखी’ का जन्म हुआ। ‘सुखीपने’ का भाव हुआ तो सुख का जन्म हुआ। मैं ‘बालक हूँ’ तो ‘बालकपने’ का जन्म हुआ, ‘मैं वृद्ध हूँ’ तो वृद्धत्‍व का जन्म हुआ लेकिन मैं इन सबको जानने वाला हूँ।

संगो अयं पूरुषः केवल निर्गुणस्य… मैं इन सब परिस्थितियों से असंग हूँ, ज्ञानस्वरूप हूँ, प्रकाशमात्र हूँ, चैतन्यस्वरूप हूँ, आनंदस्वरूप हूँ। इस प्रकार भगवान अपने स्वत: स्फुरित स्वभाव को जानते हैं, स्वत: सिद्ध स्वभाव को जानते हैं। ऐसे आप भी अपने स्वत: सिद्ध स्वभाव को जान लें तो आपका जन्म और कर्म दिव्य हो जाएगा। शरीर को ‘मैं’ मानना और शरीर की अवस्था को ‘मेरी’ मानना यह जन्म है। हाथ, पैर, इंद्रियों से कर्म होता है और उसमें कर्तृत्व मानना तो कर्म है लेकिन कर रहे हैं हाथ-पैर और ‘मैं’ उनको सत्ता देने वाला चैतन्य हूँ, इस प्रकार जानने वाले के जन्म और कर्म दिव्य हो जाते हैं। वास्तविक में उत्तम साधक तो जानता है, हाथ-पैर काम करते हैं, आँख देखती है, कान सुनता है, बुद्धि निर्णय करती है। इन सब में बदलाहट होती है, देश में बदलाहट होती है। अभी हम यहां बैठे हैं, थोड़ी देर के बाद और जगह बैठे होंगे। अभी हम 12:51 को यह बोल रहे हैं तो 12:50 भूतकाल हो गया और 12:55 भविष्य हो गया।  …तो काल को भी हमारा ज्ञानस्वभाव देखता है। हम देश से भी परे हैं, काल से भी परे हैं। यह वस्तुऍं आती है, जाती हैं, इन सब को जानने वाले ज्ञानस्वरूप हम स्वत: सिद्ध हैं। इनके आने-जाने को भी हम देखते हैं, देश को भी देखते हैं, काल को भी देखते हैं, वस्तु को भी देखते हैं। वह देखने वाला जो अपने आप में स्मृति आ जाए, अपने आप में जाग जाए तो उसका जन्म-कर्म दिव्य हो जाएगा।

जिसने भगवान के जन्म और कर्म को दिव्य नहीं माना, नहीं जाना तो अपने जन्म और कर्म को दिव्य कैसे जानेगा? कैसे मानेगा? कोई लोग बोलते हैं ‘मेरा जन्म होता है’, ‘हम मर जायेंगे’, ‘सुखी है-दुखी है’, तो समझ लो निगुरा है निगुरा, उसको गुरु के ज्ञान का, श्रीकृष्ण के ज्ञान का पता ही नहीं। संगात… यह संगात जो है,  गुणों का संगात, सात्विक-राजस-तामस, सात्विक-राजसमिश्रित, राजस तामस मिश्रित, सात्विक-तामसमिश्रित, इनसे जो भी विचित्र-विचित्र कर्म बनते हैं, विचित्र-विचित्र भाव बनते हैं, यह सब बदलता है फिर भी जो नहीं बदलता वह दिव्य स्वरूप का अधिष्ठान है, बदलाहट को जानने वाला है। जैसे तरंग हुए, बुलबुले हुए, झाग हुए, भँवर हुए लेकिन पानी ज्यों का त्यों। ऐसे ही मन में स्फुरणा हुआ, बुद्धि में निर्णय हुए, शरीर में बदलाहट हुई, सुखाकार-दुखाकर वृत्तियाँ हुई लेकिन वो सब वृत्तियाँ जिस परमात्मा सत्ता से जानी जाती है, वह मैं ‘आत्मा’ हूँ, ऐसा जो जान लेता है वह मरने के बाद नीचयोनि या उच्चयोनि में भटकता नहीं है। भगवान के स्वत:स्वभाव में, सिद्धस्वभाव में स्थित हो जाता है।

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥

           अर्जुन जो मेरे जन्म-कर्म को दिव्य और अलौकिक जानता है… । लौकि‍क कर्म वह होते हैं जिसमें फल की वासना होती है, कर्तृत्व का भाव हो और देह में अहं हो तो लौकिक है लेकिन ज्ञान में ‘मैं’ है, कर्तृत्‍व का भान नहीं है, फल आकांक्षा नहीं है… उसके जन्म और कर्म दिव्य हो जाते हैं। महापुरुषों का जन्मोत्सव मनाने से महापुरुषों को तो कोई फायदा-नुकसान का सवाल नहीं है लेकिन हम लोगों को फायदा होता है कि उस निमित्त हम भी अपने जन्म को, कर्म को दिव्य बनाएँ, कर्म बंधन से छूट जाए।

अष्टावक्र मुनि ने कहा- कर्तृत्वं-भोक्तृत्वं जब तक रहेगा तब तक जीव जन्म-मरण में भटकेगा। अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा… अपने आत्मा को अकर्ता-अभोक्ता जब मानता है उसी समय वो कर्मबंधन से छूट जाता है । वास्तविक में शुभ कर्म तो करें लेकिन शुभ कर्म का कर्ता अपने को न मानें, प्रकृति ने किया और परमात्मा की सत्ता से हुआ। अशुभ कर्म से बचें और कभी गलती से हो गए तो अशुभ कर्म के कर्तापन में न उलझें और फिर-फिर से न करें। हृदयपूर्वक उसका त्याग कर दें, प्रायश्चित हो गया। शुभ-अशुभ में अपने को न उलझाऍं।  सुख और दुख में अपने को न उलझाएँ। पुण्य और पाप में अपने को न उलझाएँ। अपने ज्ञान-स्वभाव में जग जाए तो उसका जन्म-कर्म दिव्य हो जाता है।

‘बाबा हम तो संसारी हैं.. हम तो ऐसे हैं.. हम तो वैसे हैं’।

‘अरे संसार मैं आये हैं तो संसारी है । संसारी मानकर सरकनेवाला अपने को मत जानो, कई ऐसे संसार में रहनेवाले लोगों ने अपने जन्म-कर्म को दिव्य बना दिया। ठाकुर मेघसिंह बड़े जागीरदार थे। जागीरदार तो थे, साथ-साथ में बड़े सत्संगी भी थे और सत्संग के प्रभाव से वे जानते थे कि जो कुछ होता है, मंगलमय विधान में होता है, हमारे विकास के लिए होता है, हमें जन्म और कर्म की कर्तृत्‍व भाव से बचना है, मंगलमय विधान-ईश्वर के विधान में विश्वास रखना है।

अब सब दिन, सब के एक जैसे नहीं आते। ठाकुर मेघसिंह जागीरदार थे, कोई वादा करते तो जल्दबाजी में नहीं करते।  विचार करके हाँ बोलते और बोली हुई हाँ को निभाते अथवा तो कभी अवसर मिलता तो बोले- ‘अच्छा जो ईश्वर की मर्जी होगी प्रयत्न करेंगे’ ताकि झूठ न बोलना पड़े और अपना वचन झूठा न पड़े। मंगलमय विधान में विश्वास होने के कारण कोई भी परिस्थिति उन्हें डावाँडोल नहीं कर सकती थी।

शारिरिक तितिक्षा सहने की योग्यता होनी चाहिए और मन में जो शास्त्रीय नियम से ठान लिया है उसको करवाने में बुद्धि को बलवान बनाना चाहिये और जो परिस्थितियाँ आये उसमें क्षमता आ जाये, इस प्रकार जन्म और कर्म दिव्य बनाने में सभी लोग कुशल है सभी लोग सक्षम है, जो भी कौशल्य, चाहे उन्हें सहज में ही परमात्मा तरफ से कुशलता मिलती है ।

मेघसिंह जागीरदार का एक सेवक था- मेरुदान चारण। सेवा तो बड़ी तत्परता से करता था और अपने स्वामी का विश्वास भी पा लिया था लेकिन उस चारण ने कुसंग के कारण, कुछ कर्मयोग के अनुसार समझो, उसके मन में जागीरदार के प्रति द्वेष पैदा हो गया। रात्रि को जागीरदार रनिवास की तरफ जा रहा था और उस सेवक मेरुदान ने खँजर निकाला, पीछे से अपने स्वामी पर प्रहार करने के लिए। मगलमय विधान मंगल ही करता है, इस प्रकार का दृढ़ विश्वास रखने वाले, निश्चिंतता से जागीरदार जा रहे थे लेकिन एकाएक पीछे से सेवक के हाथ में खँजर… सामने नजर डाली तो बैल भागा आ रहा है। आगे-पीछे का सोचे इतनी देर में तो बैल आया दौड़ता-दौड़ता और ऐसा जोरों का सिंग,  मेरुदान चारण की छाती में सिंग घोष दिया। धड़ाक से गिरा, हाथ का खँजर ऐसा घूमा कि उसी की नाक कट गई, चारण की। करनी आपो आप नी, के नेड़े के दूर… ये मंगलमय विधान है। बैल का प्रेरक कौन है? स्वामी आ गये हैं, स्वामी को छूता नहीं है और सेवक के अंदर में गद्दारी है तो सेवक को बैल छोड़ता नहीं है, कैसा मंगलमय विधान है? अगर स्वामी का आयुष्य इसी ढँग से पूरा होनेवाला होता तो ऐसा भी हो सकता था। अब बेहोश… गिरा चारण। उसके सामने रनिवास था। सेवकों को बुलाया, स्वयं भी लगा, उठाया, अपने महल में, अपने मकान में ले गए।

पत्नी ने देखा, चीखी ‘आपके सेवक के हाथ में इतने जोरो से पकड़ा हुआ खंजर, मालूम होता है कि इसने आप की हत्या करने की नीच वृत्ति ठानी और भगवान ने आपको बचाया’

बोले : ‘तू ऐसा क्यों सोचती है? हम उसमें संदेह क्यों करें?’

लेकिन अनुमान और वार्तालाप से पत्नी को तो यह बात समझ में आ गई थी, पति पहले ही समझे  थे लेकिन ‘उसका क्या दोष है? बिचारे का ऐसा नहीं हो सकता है, तुम्हारी गलती हो सकती है उसको गद्दार मानने की,  तुम ईश्वर से माफी ले लो’।

ईश्वर से माफी मांगी। कटार के द्वारा नाक कटे हुए उस सेवक की सेवा, चाकरी कराकर स्वस्थ तो किया लेकिन बेहोशी हालत में से होश आया तब पति-पत्नी आपस में जो बात कर रहे थे, उस चारण ने सुनी कि हमारे लिये इनको संदेह गया और स्वामी ने मेरे को देखा भी था और पत्नी को भी कहते हैं- ‘ऐसा तो मैंने भी देखा था लेकिन हो सकता है कि मेरी रक्षा के लिए उन्होंने कटार पकड़ी हो, तो तुम कभी भी इसमें संदेह नहीं करना, मेरुदान मेरा ईमानदार, वफादार सेवक है, वह मुझे खँजर मारे यह संभव नहीं। अगर मारे तभी भी ऐसा कोई विधान होगा।’

इस उदार वचनों ने… और ईश्वर की विधान में आस्था रखनेवाले वचनों ने मेरूदान का शरीर तो नकटा रहा लेकिन मद उसका बदल गया कि मैंने इतनी-इतनी नीचता की और स्वामी मेरी इज्जत रख रहे हैं। फूट-फूटकर रोया कि ‘मुझ अभागे ने आपको नहीं पहचाना, आप मंगलमय विधान में सम रहने वाले सत्पुरुष हैं, आपके कर्म दिव्य है, आपका जन्म दिव्य है! मैं तो आपका यश देखकर जलता था। पहले तो आप के प्रति वफादारी थी, बाद में फिर आप के प्रति नफरत हुई और मैनें तो सचमुच आप की हत्या करने के लिए खँजर पकड़ा था लेकिन मेरे को मेरी करनी का फल मिला। अब मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ लेकिन क्षमा के साथ दंड भी चाहता हूँ, नहीं तो मेरी आत्मा मुझे कोसेगी।’ 

‘चारण तुझे दंड दूँ, बिना दंड के नहीं मानोगे?

‘नहीं स्वामी! आपके द्वारा मुझे दंड मिलना ही चाहिये!’  

‘तो मैं तीन प्रकार के दंड देता हूँ, शरीर से किसी का बुरा नहीं करना, मन से किसी का बुरा ना सोचना, बुरा ना मानना और बुद्धि से ‘कोई बुरा है’ ऐसा निश्चय ना करना, जो कुछ है मंगलमय विधान की लीला है। यह त्रिदंड साधेगा तो तू भी जन्म-कर्म की दिव्यता को पा लेगा।’ ऐसी औदार्य वाणी सुनकर मेरूदान तो चरणों में गिर पड़ा । स्नेह से उसको पकड़ कर उठाया, प्रेरित किया… ‘कर्म करने में सावधान, होने में प्रसन्न रहो।’  

ऐसे पुरुषों की जीवन में केवल एक बार ही कोई घटना आकर चुप हो जाये, ऐसा नहीं है। सभी के जीवन में सभी प्रकार की घटनाएँ घटती रहती है। उनका बेटा सोलह साल का…। तीन महीने पहले शादी की थी, घोड़े से गिर पड़ा और जख्म तो आया शरीर को, वो ठीक हो गया लेकिन मस्तक को जो चोट लगी, कई इलाज करने के बाद भी वह चोट भीतर ही भीतर शरीर में जहर फैलाने में सक्षम हो रही थी। हकीम डॉक्टरों ने कहा कि कुछ घंटों का मेहमान है। उदास पुत्र को देखकर पिता बोलता है, मेघसिंह जागीरदार कि बेटा उदास क्यों है? मैं जागीरदार हूँ, सारी जागीरी की मालकियत अब तेरी है लेकिन यह मालकियत सँभालने की अगर तेरी प्रारब्ध नहीं है तो तू उसकी मालकियत संभालेगा जो विश्व का जागीरदार है। जैसे कोई छोटा काम छोड़कर, छोटा ओहदा छोड़कर बड़े ओहदे की तरफ जाता है, ऐसे ही तू यह मेरी जागीरी छोड़कर परमात्मा की जागीरी का पुत्र होने जा रहा है, इसमें उदास होने की क्या जरूरत है? जन्म तो दि‍खता हैं, वास्तव में जन्म है नहीं, कर्म भी दिखते हैं लेकिन कर्तापने की तुच्छ भावना से अगर तुम इस शरीर को ‘मैं’ नहीं मानो और कर्म  ‘मैं कर रहा हूँ’, ऐसा अहं नहीं पालो तो तुम्हारे कर्म और जन्‍म दिव्य हो जाएंगे। अभी-अभी तुम दिव्यस्वरूप का चिंतन करो। भगवान के दिव्य मंगलमय विधान में शरीर जैसे ऐसी बुलबुले पैदा होकर, तरंग पैदा होकर मिट जाते हैं तो पानी का क्या बिगड़ा? गहने बनकर मिट जाते हैं तो सोने का क्या बिगड़ा? शरीर बन कर मिट जाये तो भी तुझ आत्मा का क्या बिगड़ा? तू तो परमात्मा का सनातन सपूत है। बात रही पुत्रवधू की… वह भी इस घर की है, लाडली है और वह भी पवित्रता से जीएगी और वह भी पति के लोक को प्राप्त होगी। तू अपने जन्म-कर्म दिव्‍य करके अपने दिव्य-स्वभाव में, दिव्य-स्वरूप में विलय होगा और यह भी पीछे से… । ऐश आराम भोग-विलास का जीवन इसका जल्दी से पूरा हो गया, तो इसका योग का जीवन पूरा होता है तो इसकी भी तुझे चिंता नहीं है और यह भी खानदान की संतान है। बहू को भी उपदेश दिया और बेटे को भी उपदेश दिया। देखते-देखते बेटे ने आँख बंद कर ली सदा के लिए..। बहू ने, सास ने,पिता ने और लोगों ने, यथा योग्य उसकी अंत्येष्टि की लेकिन मानों कुछ दुर्घटना नहीं घटी। ईश्वर की करनी में, ईश्वर के विधान में जब हम खड़े होते हैं ना तब छाती ठोककर रोते हैं, छाती पीटते हैं। बेटा जीना चाहिए था, मर गया… हाय-हाय! पति जीना चाहिए था चला गया.. हाय-हाय! ऐसा होना चाहिए था लेकिन नहीं हुआ.. हाय-हाय! मंगलमय विधान में, ना जाने क्या-क्या हमारी उच्च गति करने के लिए भगवान की लीलाएँ हैं। जो थारी मर्जी वो म्हारी मर्जी, जो थारी दृष्टि वो म्हारी दृष्टि… ऐसा करनेवाले व्यक्ति के जन्म और कर्म दिव्य हो जाते हैं।

            जन्मदिवस बधाई हो….. वास्तव में यह दिवस विवेक करने का दिवस है। 71 साल कैसे गये, उनमें क्या गलतियाँ हुई। 70 साल कैसे गये, उनमें क्या गलती  हुई अथवा क्या अहंता आ गई । अब 71 वॉं साल आता है तो उसमें यह गलती और अहंता न आए, इस प्रकार का सोचना, यह तो दिव्यता की तरफ है लेकिन मैं इतना धन कमाऊँगा, ऐसा करूँगा… वैसा बना कर दिखाऊँगा, ऐसा करके दिखाऊँगा, अगले साल डेढ़ करोड़ नफा निकाला था मेरी कंपनी ने, अभी दो करोड करूंगा। अगले साल हमने 1500 करोड नफा किया था अब स्टील प्लांट बोकारो ने… हमने 2000 करोड नफा किया था ।  हम आपके चरण में पड़े हैं तो हमारा बोकारो स्टील प्लांट और प्रगति करेगा… तो यह न जन्म दिव्‍य है न कर्म दिव्‍य है यह तो अपने को उलझानेवाले प्लानिंग है। मैं अभी इतना पढ़ा हूँ , अगले साल इतना बन जाऊँगा, ऐसा बनकर दिखाऊँगा, वैसा बनकर दिखाऊँगा… तो आप कर्म के दलदल में, जन्म के दलदल में अपने को फैंकते हैं । श्रीकृष्ण के नजरिये से आप जन्म-कर्म से अपना पल्ला झाड़कर और तत्परता से करें लेकिन कर्तृत्व भाव, भोक्तृत्व भाव, फल लोलुपता, फलाकांक्षा आदि‍ नहीं रखें । ज्ञानस्वभाव का तो कभी जन्म होता ही नहीं और उसकी मृत्यु भी नहीं होती, शरीर मर गया फिर भी मरने को जानता है। जो जानता है तो उसकी मौत कैसे होगी? शरीर का जन्म हुआ और मृत्यु हुई। अगर मृत्यु से मृत्यु हो जाती होगी तो करोड़ों बार शरीर की मृत्यु हुई तो तुम तो नहीं मरे… तो तुम्हारे ज्ञानस्वभाव की तो कभी मृत्यु होती नहीं। केवल मैं दुखी हूँ .. मैं सुखी हूँ .. कर्म का करता हूँ .. मैं बच्चा हूँ ..मैं जवान हूँ ..मैं बुढ़ा  हूँ .. मैं फलानी जाति का हूँ ..फलानी जाति का हूँ, यह व्यवहारिक भ्रमणाऍं है । अगर भ्रमणाऍं समझ कर बाहर से करें, जैसे रंगमंच में अपना-अपना पार्ट अदा करते हैं बाहर से करे लेकिन अंदर से जाने ‘सोहम’… मैं वो ही हूँ।सत चित आनंद ।  जो पहले था, अभी है, बाद में रहेगा वह सच्चिदानंद आत्मा मैं हूँ। कर्म, हाथ से, पैर से, शरीर से, मन से हुए । ये सारा जगत जो दिख रहा है इसको शास्त्रीय भाषा में कहा ‘विश्व’। स्थूल शरीर आपका विश्वरूप से एकाकार है, सूक्ष्म शरीर तेजस है और कारण शरीर पारतत्व है, वो प्राज्ञ है‌। स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर..।  कारण शरीर में नींद आती है, सूक्ष्म शरीर में चिंतन और सपना आता है, स्थूल शरीर में कर्म होते हैं लेकिन यह अपने में मानने की गलती से आदमी के कर्म बंधनकारक होते हैं।

            गुणसंग में लग जाते हैं, सत और असत योनियों में भटकाते हैं। सत्संग समझ में आ जाए तो बेटे को जन्म देने वाला,  बहु को सांत्वना देने वाला और मेरूदान चारण की गद्दारी सहने वाला मेघसिंह निर्लेप नारायण के पद में स्थित हो गया तो आपको क्या घाटा है? आपको क्या देर है? केवल विवेक जगा दो। जो नहीं है उसको नहीं मानो और जो है वह है, बस…!  बचपन सच्चा नहीं है, चला गया। जो इदं बोलते हैं ना, वह सच्चा नहीं है लेकिन इदं जिससे प्रकाशित होता है वह सत्य है। यह बचपन था, वह जवानी थी,  वह किशोरावस्था थी, वह दुखद अवस्था थी, सुखद अवस्था थी, था.. थी… जो देख रहा है, होगा, होगी, जो दिखेगा.. वह जिससे दिखेगा वह ज्यों का त्यों है। दिखनेवाला प्रकृति का विलास है, खिलवाड़ है, मायामात्र है।

            बाबा! मेरा मन ठीक नहीं होता, ऐसा नहीं होता… ।

            बाबा ने कहा कि दुनिया में कई मन है और मेरा कुत्ता ठीक नहीं है…  दुनिया में कई कुत्ते हैं उसकी चिंता नहीं है लेकिन मेरा कुत्ता है, ऐसे ही यह मेरा मन है, यह मत सोचो। मेरा भगवान है, भगवान का मैं हूँ तो फिर मन अपने-आप ठीक होता है। बे-ठीक जितना ठीक करने पडोगे उतना कूदेगा। जितना बे-ठीक की तरफ उसको जाने दोगे उतना वह ले डूबेगा। ना बे-ठीक की तरफ जाने दो, ना ठीक करने की चिंता में पड़ो। जो ठीक है उसमें आप आ बैठो।

बोले : चाहते हैं कि सुख-दुःख, मान-अपमान में सम रहें लेकिन…..

…लेकिन क्या? जब कूड़े-करकट पर बैठोगे और चाहते हो कि मक्खियाँ नहीं भिनभिनाए तो मक्खियाँ तो भिनभिनाएगी..। मच्छर, मक्खियाँ, जीव-जंतु शरीर को ना काटे लेकिन आप बैठे हो म्‍युनिसिपल्टी का सारा कूड़ा-करकट जहां पड़ा है उस ढेर पर बैठे हो और चाहते हो कि ऐसा ना हो। ऐसे ही अपने को देह में, अपने को कर्म में, अपने को गुणों में लगाकर फिर सोचते हैं कि ऐसा ना हो-ऐसा हो, वैसा ना हो-वैसा हो.. तो श्रीकृष्ण कहते हैं कि:

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥

हे अर्जुन! जो मेरे जन्म-कर्म को दिव्य और अलौकिक ‘तत्व’ से जानता है वह शरीर त्यागने पर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता, मुझे ही, मुझ ज्ञानस्‍वभव में, मुझ चैतन्यस्वभाव में एकाकार हो जाता है।

            शास्त्र कहते हैं कि : कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु… गुणों के साथ, परिस्थितियों के साथ हम जुड़ जाते हैं। जैसे दुख आया तो दुख के साथ जुड़े, हम दु:खी हैं, हम बच्चे हैं, हम बीमार हैं, हम जवान हैं… तो इनके साथ जुड़ गए न…। हम तो ज्यौं के त्यौं हैं, ये तो आते-जाते हैं तो जुड़ने की जो आदत है कई जन्मों की, उस आदत को विवेक से उखाड़ के हटा दो। यह आदत है तो मन में है, शरीर में है, मुझ चैतन्य में ये कोई आदतें नहीं, मैं ज्ञान-स्वभाव, परमात्मा-सत्ता में हूँ। ॐ… तं नमामी हर‍िं परं ।

सभी को आज के दिन यह बात पक्की कर लेनी चाहिए कि अवतार भगवान के होते हैं, स्फूर्ती अवतार भी होता है, नित्य अवतार भी होता है, नैमित्तिक अवतार भी होता है, आवेश अवतार भी होता है, प्रवेश अवतार भी होता है। यह भगवान के अवतारों को तुम थोड़ा जान लोगे ना तो…. अवतरति‍ ईति‍ अवतार:जो ऊपर से नीचे की और आए। जैसे चक्रवर्ती राजा, बाबू के ऑफिस में आए और बाबू के कार्यालय में काम करने लगे। ऐसे ही वास्तविक में आपका भी अवतार ही है। यह अवतार है, ऐसा मनुष्य जीवन में ही समझ में आएगा। आप अकर्ता, अभोक्ता, चैतन्य है लेकिन शरीरों से जुड़ते-जुड़ते, जुड़ते-जुड़ते मनुष्य देह में आए। अब समझो कि मनुष्य-देह से मेरा कोई विशेष संबंध नहीं है, जैसे और देह छूट गया ऐसा यह भी छूट जाएगा। जैसे आप गाड़ी में, बस में, ऑटो में बैठते हैं, यात्रा पूरी करते ही छोड़ देते हैं, ऑटो को, बस को, जहाज को रसोई घर में या स्नानागार में नहीं ले जाते हैं, अपने साथ नहीं रखते हैं ऐसे ही, इस शरीर को और शरीर के संबंधों को, सदा साथ में नहीं रख सकते लेकिन जो सदा साथ है उसको कभी छोड़ नहीं सकते। जिस को छोड़ नहीं सकते उसको ‘मैं’ मानने में क्या आपत्ति है। जिसको कभी छोड़ नहीं सकते उसको आप ‘मैं’ मानिये। जिसको रख नहीं सकते उसकी आसक्ति छोड़ दीजिये। रख नहीं सकते उसकी ममता-आसक्ति छोड़ दीजिये और छोड़ नहीं सकते उसको ‘मैं’ मानिये। आप ज्ञानस्वभाव को छोड़ सकते हैं क्या? दुख को जानेवाला है। ये भगवान है, भगवान हैं कि नहीं उसको जानने वाला भी मेरा ज्ञानस्वभाव चाहिए। सुख को जानने वाला भी ज्ञानस्वभाव चाहिए, तो अपना ज्ञानस्वभाव, चैतन्यस्वभाव नित्य अवतरित होता रहता है सभी परिस्थितियों में। उसीसे परिस्थितियों का पता चलता है, परिस्थितियाँ बदल जाती है लेकिन परमात्म-सत्ता ज्यौं की त्यौं रहती है।

आवेश अवतार, स्फूर्ति अवतार…, जैसे परशुराम का आवेश अवतार स्फूर्ति अवतार..। जब तक राम नहीं मिलु थे, रामजी के दर्शन नहीं हुए थे तब तक उनका आवेश अवतार रहा, रामजी मिल गए तो रामजी के साथ उनका अवतार तत्व रामजी में समा गया फिर सामान्य रहे । सदा के लिए कृष्ण के नाईं अवतार नहीं रहे। नित्य अवतार, नैमित्तिक अवतार, रावण और कंस का निमित्त लेकर जो अवतरण हुआ वह नैमित्तिक अवतार है और संतों के हृदय में जो ज्ञान-स्वभाव का, आनंद-स्वभाव का, चैतन्य-स्वभाव का लोक-मांगल्य स्वभाव का अवतरण होता रहता है उसे बोलते हैं  ‘नित्य अवतार’। ऐसे ही अर्चनावतार होता है। भक्त ने हनुमानजी की उपासना की, अब उस भक्त को कोई विरोधी शत्रु ने… हनुमान जी के ध्यान में मग्न है, पीछे से जाकर रामपुरी… ‘आर-पार कर दूंगा लेकर तो वो मिट जाएगा। वह रामपुरी लेकर आ रहा है और भक्त की पीठ में पीछे से छुरा भोंकना है चाकू का… हनुमानजी की मूर्ति के दो टुकड़े हो गए और गुर्राते हुए आवेशमय अवतार हुआ। हनुमानजी ने मारनेवाले को ही मारकर यमपुरी पहुँचा दिया। हनुमानजी कहीं से भागकर आए, ऐसी बात नहीं है अथवा उस भक्त ने हनुमानजी को बोला, वो नहीं है लेकिन कण-कण में जो ज्ञानसत्ता, चैतन्यसत्ता व्याप्त रही है, वह आवेश अवतार के निमित्त कभी रक्षा करने के लिए प्रगट भी हो जाती है। नृसिंह अवतार… आवेश अवतार अथवा द्रौपदी की साड़ी में प्रवेश अवतार तो इस प्रकार भगवान की सत्ता अन्‍तर्यामी अवतार, प्रेरणा अवतार…। आप अच्छा करते हैं फिर शांत होकर क्‍या करूँ, करूँ ना करूँ, मन तो कहता है करो, बुद्धि ने भी समर्थन दिया, लोगों ने भी समर्थन किया लेकिन हृदय में खटका और अंदर से आवाज आई कि नहीं करना है.. नहीं जाना है। बाद में पता चला कि अरे! बाप रे बाप! अगर मैं उसी बस की यात्रा करता, प्रेरणा नहीं मानता, बस से नीचे नहीं उतरता तो बस मोरबी पहुँची और मोरबी का बाँध टूटा तो कई लोग बहकर मर गए, हजारों…। बाईस हजार लोग तो सरकारी आँकड़ा है लेकिन कितने और ज्यादा मरे होंगे, भगवान जाने। ऐसे ही भोपाल गैस कांड हुआ । तो कभी-कभी ऐसे समय में अन्‍तर्यामी अवतरण होता है। रेलवे स्टेशन पर बैठे थे जम्मू कश्मीर में और बापू ने प्रेरणा दी- उठो! उठो! बाहर जाओ! बाहर जाओ! बाहर जाओ! वो बाहर गए, थोड़ी देर में धड़ाधड़ गोलियॉं आतंकवादियों ने आकर बरसाई कई लोग मर गए लेकिन वो जप-ध्यान करता था तो उसके अन्‍तर्यामी ने अवतरित होकर उसको बचा दिया। पूजा-पाठ, जप-ध्यान से विवेक जगता है तो अन्‍तर्यामी के संकेत मिलते रहते हैं। कभी-कभी तो अपना मन बदमाश होता है तो अन्‍तर्यामी का रूप लेकर अपने को संकेत देता है, जिसमें अहंकार हो, वासना हो, वो संकेत अन्‍तर्यामी के नहीं होते।

जैसे एक लड़का गया, गुरु ने बोला- जाओ बेटा नर्मदा किनारे अनुष्ठान करो।

तप करने को नर्मदा है, ज्ञान साधने को गंगा है, ध्यान करने को भगवान विष्णु आदि उनके रूप हैं, वह अनुष्ठान छोड़कर आ गया।

बोले- क्यों अनुष्ठान हो गया 40 दिवस पूरा?

बोले- अरे गुरुजी, भगवान ने प्रेरणा किया कि जाओ बेटा जाओ, जल्दी से अच्छी, फलानी लड़की है, अच्छे खानदान की।  उसके साथ शादी कर लो। दोनों मिलकर भजन करना, मैं राजी हो जाऊँगा।

हरामी, यह तेरा मन ही भगवान का रूप लेकर तेरे को कहता है।  तो जब ऐसी प्रेरणा मिले तो आप अन्‍तर्यामी की प्रेरणा मत समझना। ऐसे वल्लभाचार्य ने ग्रंथ लिखा तो बोले- मेरे प्रभु अन्‍तर्यामी की प्रेरणा से मैंने लिखा और बिल्कुल सच्चाई से उनको अंतर-प्रेरणा हुई होगी । रामानुजाचार्य ने भी यह ईश्वर की प्रेरणा से लिखा लेकिन दोनों में फिर संस्कार भेद से ग्रंथों में कुछ भेद दिखता है तो प्रेरणा, सत्ता तो भले भगवान की है लेकिन संस्कार अपने भी काम करते हैं। शराबी को अन्‍तर्यामी प्रेरणा कर रहा है कि जाओ आज ईद मनाओ, दि‍वाली मनाओ, बोतल लो, बाँटो और पीयो.., शराबी का मन अन्‍तर्यामी ऐसा बन जाएगा। भक्तों का अन्‍तर्यामी बन जाएगा कि चलो आज उत्सव है, कुंभ चल रहा है, जाओ गोता मारो और बापू का सत्संग सुनो… तो ये अन्‍तर्यामी नहीं, अंतर-संस्कार होते हैं।

संत महापुरुषों की जयंती मनाने का उद्देश्य


पूज्य बापू जी का 84वाँ अवतरण दिवसः 13 अप्रैल 2020

मेरा जन्मदिवस-उत्सव आप मनाते हैं लेकिन यह समझना भी आवश्यक है कि मेरा और आपका अनादि काल से कई बार जन्म हुआ है । भगवान अपने प्रिय अर्जुन को कहते हैं-

बहूनि में व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ।।

‘हे परन्तप अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं । उन सबको तू नहीं जानता किंतु मैं जानता हूँ ।’ (गीताः 4.5)

जीव क्यों नहीं जानता है ? क्योंकि जीव नश्वर वस्तुओं का संग्रह करने और उनसे सुख लेने के लिए जो चिंतन करता है उससे उसकी मति व वृत्ति स्थूल हो गयी है । इसलिए वह अपने जन्मों को नहीं जानता है और ईश्वर अपने अवतारों को जानते हैं क्योंकि ईश्वर में विषय-विलास से सुख लेने की मति व वृत्ति नहीं है । ईश्वर को अपने आत्मस्वरूप का भान रहता है । ‘जो जन्मता है, बढ़ता है, बूढ़ा होता है और मर जाता है वह मेरा शरीर है ।’ – ऐसा जिन सत्पुरुषों को अनुभव होता है वे भी अपने शरीर के जन्म को एक निमित्तमात्र बनाते हैं, अपने वास्तविक स्वरूप को जानते हैं । ऐसे पुरुष भगवान के उस रहस्य को समझकर अपने अखंड स्वभाव में जगे रहते हैं ।

जयंतियाँ क्यों मनायी जाती हैं ?

व्रत, उपवास तन-मन के शोधन के लिए किये जाते हैं । पर्व और उत्सव अपनी सूक्ष्म क्षमताओं-निराशाओं को दूर हटाने और अपनी दिव्यता के संकेत को पाने के लिए मनाये जाते हैं । जयंतियाँ मनाने के पीछे यह उद्देश्य है कि इनके द्वारा  वांछनीय उमंगों, भावनाओं, आत्मविश्रांति व उन्नत ज्ञान का प्रचार-प्रसार हो, वांछनीय दृष्टि प्राप्त हो और अवांछनीय दृष्टि बदल जाय । फिर चाहे भगवान श्रीराम जी की, भगवान श्रीकृष्ण की, महात्मा बुद्ध की, गुरु नानक जी की, साँईं लीलाशाह जी की या चाहे किन्हीं सत्पुरुष की जयंती मनाओ ।

जो शुद्ध-बुद्ध, निरंजन-निराकार परमात्मा है उसको अवतरित करने के लिए वातावरण बनाना पड़ता है । हजारों-हजारों चित्त जब शुभकामना करते हैं और मार्गदर्शन चाहते हैं तब वह सच्चिदानंद जिस अंतःकरण में विशेषरूप से अवतरित होता है उसे अवतार कहते हैं । बाकी तो परमात्मा राम बनकर आये, कृष्ण बन के आये तो श्रोता या पाठक बन के भी वही परमात्मा बैठा है, यह बात भी उतनी ही सच्ची ।

कीड़ी में नानो बन बेठो हाथी में तू मोटो क्यूँ ?

बन महावत ने माथे बेठो हांकणवाळो तू को तू ।।….

ऐसा खेल रच्यो मेरे दाता ज्याँ देखूं वाँ तू को तू ।।

अनादि काल से सृष्टि चली आ रही है, राम थे तब भी तुम थे, कृष्ण थे तब भी तुम थे, सृष्टि के आदि में तुम थे, मध्य में तुम थे, अब भी तुम हो और प्रलय हो जायेगा तब भी तुम्हारा नाश नहीं होता है, वास्तव में तुम वह परब्रह्म-परमात्मा का सनातन स्वरूप हो । इस समझ को उभारने का अवसर मिले, इसका अनुभव करने का साधन मिले इसलिए जयंतियाँ मनायी जाती हैं ।

वे देर-सवेर विजयी हो जाते हैं

इन जयंतियों, सत्संगों, पर्व-उत्सवों के द्वारा साहसी आगे बढ़ते हैं । पराक्रमी सफल होते हैं । अकेला साहस जगाकर बैठें नहीं, पुरुषार्थ भी करें, पराक्रम करें । जो प्रतिकूलताओं से दबते नहीं, उनके साथ समझौता नहीं करते और उन्हें देखकर अपने चित्त को परेशान नहीं करते हैं बल्कि ‘महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी, झूलेलाल जी, साँईं लीलाशाह जी महाराज, श्रीकृष्ण और श्रीराम में जो चैतन्य रम रहा था वही चैतन्य मेरा आत्मा है’ – ऐसा सोच के पग आगे रखते हैं वे देर-सवेर विजयी हो जाते हैं ।

यह विवेक करने का दिवस है

जन्मदिवस बधाई हो !…. वास्तव में यह दिवस विवेक करने का दिवस है । किसी की 70 वर्ष उम्र हो गयी तो सोचे कि ’70 साल  कैसे गये, उनमें क्या गलती हो गयी अथवा क्या अहंता आ गयी ?…. अब 71वाँ साल आता है, उसमें यह गलती और अहंता न आये ।’ इस प्रकार सोचते हैं तो दिव्यता की तरफ यात्रा होती है लेकिन ‘मैं इतना धन कमाऊँगा, ऐसा करूँगा, ऐसा बन के दिखाऊँगा…..’ ऐसा सोचते हैं तो यह न जन्म दिव्य है न कर्म दिव्य है । ये अपने को उलझाने वाली योजनाएँ हैं । श्रीकृष्ण के दृष्टिकोण से आप तत्परता से कर्म करें लेकिन कर्तृत्व भाव, भोक्तृत्व भाव, फल-लोलुपता, फलाकांक्षा आदि नहीं रखें तो अनुभव हो जायेगा कि

असङ्गो ह्ययं पुरुषः

‘मैं इन सब परिस्थितियों से असंग, ज्ञानस्वरूप, प्रकाशमात्र, चैतन्यस्वरूप, आनंदस्वरूप हूँ….’ – इस प्रकार भगवान अपने स्वतःस्फुरित, स्वतः सिद्ध स्वभाव को जानते हैं, ऐसे ही आप भी अपने स्वतः सिद्ध स्वभाव को जान लें तो आपका जन्म और कर्म दिव्य हो जायेंगे ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2020, पृष्ठ संख्या 12, 13 अंक 327

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ऐसा जन्मदिवस मनाना परम कल्याणकारी है !


(पूज्य बापू जी का 83वाँ अवतरण दिवसः 25 अप्रैल 2019)

जन्मदिवस बधाई हो ! पृथ्वी सुखदायी हो, जल सुखदायी हो, तेज सुखदायी हो, वायु सुखदायी हो, आकाश सुखदायी हो… जन्मदिवस बधाई हो… इस प्रकार जन्मदिवस जो लोग मानते मनवाते हैं, बहुत अच्छा है, ठीक है लेकिन उससे थोड़ा और भी आगे जाने की नितांत आवश्यकता है ।

जन्मोत्सव मनायें लेकिन विवेकपूर्ण मनाने से बहुत फायदा होता है । विवेक में अगर वैराग्य मिला दिया जाय तो और विशेष फायदा होता है । विवेक-वैराग्य के साथ यदि भगवान के जन्म-कर्म को जानने वाली गति-मति हो जाय तो परम कल्याण समझो ।

कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ।। (गीताः 13.21)

ऊँच और नीच योनियों में जीवात्मा के जन्म लेने का कारण है गुणों का संग । हम जीवन में कई बार जन्मते रहते हैं । शिशु जन्मा, शिशु की मौत हुई तो बालकपन आया । बालक मरा तो किशोर का जन्म हुआ । किशोर मरा तो युवक का जन्म हुआ ।… ‘मैं सुखी हूँ’… ऐसा माना तो आपका सुखमय जन्म हुआ, ‘मैं दुःखी हूँ’ माना तो उस समय आपका दुःखमय जन्म हुआ । तो इन गुणों के साथ संग करने से ऊँच-नीच योनियों में जीव भटकता है । स्थूल शरीर को पता नहीं कि ‘मेरा जन्म होता है’ और आत्मा का जन्म होता नहीं । बीच में है सूक्ष्म शरीर और वह जिस भाव में होता है उसी भाव का जन्म माना जाता है ।

भगवान श्रीकृष्ण इन सारे जन्मों से हटाकर हमें दिव्य जन्म की ओर ले जाना चाहते हैं । वे कहते हैं-

जन्म कर्म च में दिव्यमेवं यो वेति तत्त्वतः ।

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ।। (गीताः 4.9)

भगवान में अगर जन्म और कर्म मानें तो भगवान का भगवत्पना सिद्ध नहीं होता । भगवान को भी जन्म लेना पड़े और कर्म करना पड़े तो भगवान किस बात के ? अगर भगवान में जन्म और कर्म नहीं मानते हैं तो भगवान में आना-जाना, उपदेश देना, युद्ध करना, संधिदूत बनना अथवा ‘हाय सीते ! हाय लक्ष्मण !!….’ करना – ये क्रिया व दर्शन जो हो रहे हैं वे सम्भव नहीं हैं ।

वेदांत-सिद्धांत के अनुसार इसको बोलते हैं विलक्षण लक्षण । इसमें भगवान में जो लक्षण जीव के लक्षणों से मेल न खायें और ईश्वर (ब्रह्म) के लक्षणों से मेल न खायें फिर भी दोनों दिखें उनको बोलते हैं विलक्षण लक्षण, अनिर्वचनीय । भगवान का जन्म और कर्म दिव्य कैसे ? बोले अनिर्वचनीय है इसलिए दिव्य है । ईश्वर में न जन्म कर्म है, न जीवत्व के बंधन और वासना है इसलिए भगवान के जन्म और कर्म दिव्य मानने-जानने से आपको भी लगेगा कि कर्म पंचभौतिक शरीर से होते हैं, मन की मान्यता से होते हैं, उनको जानने वाला ज्ञान जन्म और कर्म से विलक्षण है, मैं वह ज्ञानस्वरूप हूँ ।

तो कर्म बंधन से छूट जाओगे

शरीर को मैं मानना और शरीर की अवस्था को ‘मेरी’ मानना यह जन्म है । हाथ-पैर आदि इन्द्रियों से क्रिया होती है और उसमें कर्तृत्व मानना कर्म है लेकिन ‘कर रहे हैं हाथ पैर और मैं इनको सत्ता देने वाला शाश्वत चैतन्य हूँ’ – इस प्रकार जानने से अपना कर्म जन्म दिव्य हो जाता है ।

….तो महापुरुषों का जन्मोत्सव मनाना । उससे महापुरुषों को तो कोई फायदा-नुकसान का सवाल नहीं है लेकिन मनाने वाले भक्तों-जिज्ञासुओं को फायदा होता है कि उस निमित्त उन्हें अपने जन्म-कर्म बंधन से छूटना सरल हो जाता है ।

अष्टावक्र मुनि ने कहाः

अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा ।…. (अष्टावक्र गीताः 18.51)

जब जिज्ञासु अपने आपको (अपने स्व स्वरूप को) अकर्ता और अभोक्ता निश्चय कर लेता है उसी समय वह कर्म बंधन से छूट जाता है । शुभ कर्म करे लेकिन उसका कर्ता अपने को न माने, प्रकृति ने किया और परमात्मा की सत्ता से हुआ । अशुभ कर्म से बचे और कभी गलती से हो गया हो तो उसके कर्तापन मं न उलझे और फिर-फिर से न करे । हृदयपूर्वक उसका त्याग कर दे तो प्रायश्चित्त हो गया । शुभ-अशुभ में, सुख-दुःख में, पुण्य-पाप में अपने को न उलझाये, अपने ज्ञानस्वरूप में जग जाय तो उस जिज्ञासु को अपने जन्म-कर्म कि दिव्यता का रहस्य समझ में आ जाता है ।

इससे जगती परम शांति की प्यास

सत्पुरुषों की जयंती मनाने से भावनाएँ शुद्ध होती हैं, विचार शुद्ध होते हैं, उमंगे सात्त्विक होती हैं और अगर आप हलकी वृत्ति से, हलके विचारों से और हलके आचरणों से समझौता नहीं करते हैं तो आपका भी जागरण हो जाता है अपने चैतन्यस्वरूप में, चित्त में अपने शुद्ध स्वरूप का प्राकट्य हो जाता है ।

जब व्यक्ति बेईमानी, भोग-संग्रह और दुर्वासनाओं को सहयोग करता है तो उसका अवतरण नहीं होता, वह साधारण जीव-कोटि में भटकता है । आत्मबल बढ़ाने में वे ही लोग सफल होते हैं जो हलकी आशाओं, इच्छाओं व हलके संग से समझौता नहीं करते हैं । ऐसे पुरुषों का आत्मबल विकसित होता है और वह आत्मबल सदाचार के रास्ते चलते-चलते चित्त में परम शांति की प्यास जगाता है ।

वैदिक संस्कृति में प्रार्थना हैः

दुर्जनः सज्जनो भूयात्…. दुर्वासनाओं के कारण व्यक्ति दुर्जन हो जाता है । दुर्वासनाओं व दुर्व्यवहार के साथ समझौता नहीं करे तो सज्जनता आ जायेगी । सज्जनः शान्तिमाप्नुयात् । सज्जन को शांति प्राप्त होती है, सज्जन शांति प्राप्त करे । शान्तो मुच्येत बन्धेभ्यो…  शांत बंधनों से मुक्त होते हैं । मुक्तश्चान्यान् विमोचयेत् ।। मुक्त पुरुष औरों को मुक्ति के मार्ग पर ले जायें ।

शांति पाने से दुर्वासनाएँ निवृत्त होती हैं, सद्वासनाओं को बल मिलता है, ‘सत्’ स्वरूप को पाने की तीव्रता जगती है । फिर पहुँच जायेंगे आत्मसाक्षात्कारी महापुरुष की शरण में… जिनके अंतःकरण में सत्य का अवतरण हुआ है । उन्हें अवतारी पुरुष कहो, ब्रह्मवेत्ता कहो – ऐसे महापुरुष के सत्संग-सान्निध्य में आने से हमारा चित्त, हमारी दृष्टि, हमारे विचार पावन होने लगते हैं… उनकी कृपा से हमारी परम शांति की प्यास शांत होने लगती है और आगे चलकर मोक्ष की प्राप्ति भी हो जाती है ।

बड़ी मुश्किल से यह मनुष्य देह मिली है तो अपनी मंजिल तय कर लो । अगर तय कर ली तो आप सत्पुरुष हैं और तय करने के रास्ते हैं तो आप साधक हैं और यदि आप तय नहीं कर रहे हैं तो आप देहधारी द्विपाद पशु की पंक्ति में गिने जाते हैं । जन्मोत्सव प्रेरणा देता है कि तुम पशु की पंक्ति से पार होकर सत्पुरुष की पंक्ति में चलो ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2019, पृष्ठ संख्या 13, 22 अंक 316

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