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अंतर्यामी में आने का अभ्यास करने का उत्तम कालः चतुर्मास


( 10 जुलाई 2022 से 4 नवम्बर 2022 तक ) – पूज्य बापू जी

देवशयनी एकादशी से देवउठी एकादशी तक यह जो चतुर्मास है वह आध्यात्मिक खजाना भरने का काल है । बारिश के दिनों में भूख ज्यादा नहीं लगती इसलिए उपवास या एक समय भोजन किया जाता है । जीवनीशक्ति अन्न पचाने में ज्यादा न खर्च हो तो वह बची रहेगी । इन दिनों में वातावरण सुहावना, सुंदर होता है । वसुंधरा हरी साड़ी पहनकर  अपनी पूरी यौवन अवस्था में होती है । तो वसुंधरा देवी का माधुर्य, ठंडा-मीठा हवामान, बरसात की रिमझिम, बादलों की दौड़ा-दौड़ और बिजली की चमक… यह सारा जो प्राकृतिक सौंदर्य है उसमें मनोवृत्ति ऊर्ध्वगामी होती है । उसमें भी सावन के महीने में अनुष्ठान आदि करने का ऋषियों ने विधान किया है । तो इन दिनों में आप अपनी निष्ठा बनायें । हफ्ते, दो हफ्ते, चार हफ्ते – ऐसा कोई नियम लेकर इन्द्रियों के लालन-पालन में गर्क न होते हुए, जीवन सीधा-सादा रखते हुए औषधि की नाईं आहार-व्यवहार करके अपने सुखस्वरूप अंतर्यामी आत्मा-परमात्मा में आने का अभ्यास करें ।

ज्ञान सुनने से मोक्ष नहीं होता, ज्ञान सुनने के बाद उसमें स्थित होने से मुक्ति का अनुभव होता है । ज्ञान सुनने से लाभ बहुत होता है परंतु सुना हुआ ज्ञान पचाने के लिए अगर समय नहीं निकाला तो जो परम पद की प्राप्ति का लाभ होना चाहिए उससे वंचित हो जाते हैं ।

तो नर्मदा-किनारे, किसी तालाब के किनारे, पहाड़ी में, किसी आश्रम में या पवित्र जगह में जहाँ वेदांत के संस्कारों का पोषण मिले वहाँ कुछ समय अभ्यास करें । ऐसा नहीं कि जो मिला है वह भी धुल जाय, ऐसा वातावरण न हो । ऐसा वातावरण बहुत मिलता है । वेदांत की निष्ठा को हिलाने वाला वातावरण बहुत मिलता है, अज्ञानियों की तो भीड़-भाड़ है । जो वातावरण आपके अद्वैत सिद्धांत में स्थिति करने के लिए, परमात्म-तत्त्व को पाने के लिए पोषक हो उस वातावरण का अवलम्बन लेकर आप थोड़े दिन वहाँ निवास करो । उन दिनों में मोबाइल, अखबार, रेडियो, टी.वी., संबंधों, पत्र-व्यवहार आदि को तिलांजलि दे दो क्योंकि जन्मे थे अकेले, जायेंगे अकेले और रात को नींद में भी अकेले होते हैं । नींद में आप अकेले होते हैं तो शरीर की थकान मिटती है और यदि कभी-कभी ध्यान व साधन-भजन में आप अकेले बैठें तो जन्म-जन्म की थकान मिटने लगती है ।

कभी-कभी ऐसा अवसर खोज लें कि कोई परिचय न हो, रिश्ते-नातों की झंझट, सांसारिक प्रवृत्ति न हो, सत्संग मिलता रहे । ऐसे लोगों का साथ मिल जाय जो अपने से साधन-भजन में ऊँचे हों, साधन-भजन में सजातीय प्रभाव वाले हों अथवा किन्हीं ब्रह्मवेत्ता महापुरुष का सान्निध्य मिल जाय तो फिर कहना ही क्या ! फिर तो साधन-भजन करना नहीं पड़ता, होने लगता है ।

शास्त्र में आता है कि हमने वेदांत-ज्ञान जितना श्रवण किया है उससे 10 गुना उसका मनन करना चाहिए और उससे 10 गुना माने श्रवण से 100 गुना निदिध्यासन करना चाहिए । परंतु अगर वक्ता कुशल है, संत परमात्म-अनुभव सम्पन्न हैं, उनकी अपने स्वरूप में निष्ठा है और वेद के रहस्य को भी जानते हैं, श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ, कृपालु आचार्य हैं तो उस महापुरुष के सान्निध्य में अगर वेदांत-अमृत सुनने को मिलता है तो श्रवण के साथ कुछ-कुछ मनन और निदिध्यासन भी होने लगता है । मनन होने का फल क्या है ? आत्मा के प्रति, अपने स्वरूप के प्रति जो शंका थी वह कुछ-कुछ अपने-आप निवृत्त होती जाती है । निदिध्यासन होने का फल क्या है ? कि आनंद आता है ।

तो साधन-भजन के लिए अमृततुल्य इस काल का लाभ उठायें और मनुष्य जीवन के सर्वोत्तम लाभ परमात्मप्राप्ति के पथ पर शीघ्रता से अग्रसर हों ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2022, पृष्ठ संख्या 10 अंक 354

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साधना में चार चाँद लगाने वाला अमृतकालः चतुर्मास


(चतुर्मासः 23 जुलाई 2018 से 19 नवम्बर 2018 तक)

चतुर्मास की बड़ी भारी महिमा है, इन बातों को जानकर इस अमृतकाल का लाभ उठाइयेः

  1. सद्धर्म, सत्संग-श्रवण, सत्पुरुषों की सेवा, संतों के दर्शन, भगवान का पूजन आदि सत्कर्मों में संलग्न रहना और सुपात्र हेतु दान देने में अनुराग होना – ये सब बातें चतुर्मास में अत्यंत कल्याणकारी बतायी गयी हैं।
  2. इन दिनों भूमि पर (चटाई, कम्बल, चादर आदि बिछाकर) शयन, ब्रह्मचर्य-पालन, उपवास, मौन, ध्यान, जप, दान-पुण्य आदि विशेष लाभप्रद होते हैं।
  3. जल में आँवला मिलाकर स्नान करने से पुरुष तेजवान होता है और नित्य महान पुण्य प्राप्त होता है।
  4. चतुर्मास में ताँबे के पात्र में भोजन विशेष रूप से त्याज्य है। इन दिनों धातु के पात्रों का त्याग कर पलाश के पत्तों पर भोजन करने वाला ब्रह्मभाव को प्राप्त होता है, ऐसा शास्त्र में कहा गया है।
  5. इन दिनों में परनिंदा का विशेष रूप से त्याग करें।
  6. चतुर्मास में शादी-विवाह और सकाम यज्ञ नहीं होते। ये चार मास साधन-भजन करने के हैं।
  7. पद्म पुराण में आता है कि जो व्यक्ति भगवान के शयन करने पर विशेषतः उनके नाम का कीर्तन और जप करता है, उसे कोटि गुना फल मिलता है।
  8. चतुर्मास में भगवान विष्णु के सामने खड़े होकर ‘पुरुष सूक्त’ का पाठ करने से बुद्धिशक्ति बढ़ती है।

अपना आध्यात्मिक खजाना बढ़ायें

चतुर्मास की महिमा के बारे में पूज्य बापू जी के सत्संग में आता हैः “जैसे किसान बोवाई करके थोड़ा आराम करता है और खेत के धन का इंतजार करता है, ऐसे ही चतुर्मास में आध्यात्मिक धन को भरने की शुरुआत होती है। हो सके तो सावन के महीने में एक समय भोजन करें, जब बढ़ा दे। हो सके तो किसी पवित्र स्थान स्थान पर अनुष्ठान करने के लिए चला जाय अथवा अपने घर में ही पूजा कमरा बना दे। एक सुबह नहा धोकर 5 बजे पूजा-कमरे में चला जाय और दूसरी या तीसरी सुबह को निकले। मौन रहे, शरीर के अनुकूल फलाहार, अल्पाहार करे। अपना आध्यात्मिक खजाना बढ़ाये। ‘आदर हो गया, अनादर हो गया, स्तुति हो गयी, निंदा हो गयी… कोई बात नहीं, हम तो करोड़ काम छोड़कर प्रभु को पायेंगे।’ ऐसा दृढ़ निश्चय करे। बस, फिर तो प्रभु तुम्हारे हृदय में प्रकट होने का अवसर पैदा करेंगे।”

विशेषः चतुर्मास के दौरान सभी साधक मंत्रजप-अनुष्ठान का लाभ अवश्य लें। मौन-मंदिर व अनुष्ठान की सुविधा संत श्री आशाराम जी आश्रमों में उपलब्ध है।

अधिक जानकारी हेतु सम्पर्क करें- साधक निवास कार्यालय, संत श्री आशाराम जी आश्रम, अहमदाबाद। दूरभाषः 079-39877729

स्रोतः ऋषि प्रसाद जुलाई 2018, पृष्ठ संख्या 13 अंक 307

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पुरुष सूक्त


चतुर्मास में विशेष पठनीय

पुरुष सूक्त

जो चतुर्मास में भगवान विष्णु के आगे खड़े होकर ‘पुरुष सूक्त’ का जप करता है, उसकी बुद्धि बढ़ती है।

ॐ श्री गुरुभ्यो नमः। हरिः ओम्।

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात।

स भूमिँ सर्वतः स्पृत्वाऽत्चतिष्ठद्यशाङ्गुलम्।।1।।

जो सहस्रों सिर वाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरण वाले विराट पुरुष हैं, वे सारे ब्रह्माण्ड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं।।1।।

पुरुषऽएवेवँ सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्।

उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति।।2।।

जो सृष्टि बन चुकी, जो बनने वाली है, यह सब विराट पुरुष ही हैं। इस अमर जीव-जगत के भी वे ही स्वामी हैं और जो अन्न द्वारा वृद्धि प्राप्त करते हैं, उनके भी वे ही स्वामी हैं।।2।।

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः।

पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।3।।

विराट पुरुष की महत्ता अति विस्तृत है। इस श्रेष्ठ पुरुष के एक चरण में सभी प्राणी हैं और तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में स्थित हैं।।3।।

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः।

ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशनेऽअभि।।4।।

चार भागों वाले विराट पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार, जड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित है। इसके तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में समाये हुए हैं।।4।।

ततो विराडजायत विराजोऽअधि पूरुषः।

स जातोऽअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः।।5।।

उस विराट पुरुष से यह ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ। उस विराट से समष्टि जीव उत्पन्न हुए। वही देहधारीरूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को, फिर शरीरधारियों को उत्पन्न किया।।5।।

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम्।

पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये।।6।।

उस सर्वश्रेष्ठ विराट प्रकृति यज्ञ से दधियुक्त घृत प्राप्त हुआ (जिससे विराट पुरुष की पूजा होती है)। वायुदेव से संबंधित पशु, हरिण, गौ, अश्वादि की उत्पत्ति उस विराट पुरुष के द्वारा ही हुई।।6।।

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतऽऋचः सामानि जज्ञिरे।

छन्दाँसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत।।7।।

उस विराट यज्ञ-पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद का प्रकटीकरण हुआ। उसी से यजुर्वेद एवं अथर्ववेद का प्रादुर्भाव हुआ अर्थात् वेद की ऋचाओं का प्रकटीकरण हुआ।।7।।

तस्मादश्वाऽजायन्त ये के चोभयादतः।

गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाताऽअजावयः।।8।।

उस विराट यज्ञ-पुरुष से दोनों तरफ दाँतवाले घोड़े हुए और उसी विराट पुरुष से गौएँ, बकरियाँ और भेड़ें आदि पशु भी उत्पन्न हुए।।8।।

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः।

तेन देवाऽअयजन्त साध्याऽऋषयश्च ये।।9।।

मंत्रद्रष्टा ऋषियों एवं योगाभ्यासियों ने सर्वप्रथम प्रकट हुए पूजनीय विराट पुरुष को यज्ञ (सृष्टि के पूर्व विद्यमान महान ब्रह्मांडरूप यज्ञ अर्थात् सृष्टि-यज्ञ) में अभिषिक्त करके उसी यज्ञरूप परम पुरुष से ही यज्ञ (आत्मयज्ञ) का प्रादुर्भाव किया।।9।।

यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।

मुखं किमस्यासीत किं बाहू किमूरू पादाऽउच्येते।।10।।

संकल्प द्वारा प्रकट हुए जिस विराट पुरुष का ज्ञानीजन विविध प्रकार से वर्णन करते हैं, वे उसकी कितने प्रकार से कल्पना करते हैं ? उसका मुख क्या है ? भुजा, जाँघें और पाँव कौन-से हैं ? शरीर-संरचना में वह पुरुष किस प्रकार पूर्ण बना ?।।10।।

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याँ शूद्रोऽअजायत।।11।।

विराट पुरुष का मुख ब्राह्मण अर्थात् ज्ञानीजन (विवेकवान) हुए। क्षत्रिय अर्थात् पराक्रमी व्यक्ति, उसके शरीर में विद्यमान बाहुओं के समान हैं। वैश्य अर्थात् पोषणशक्ति-सम्पन्न व्यक्ति उसके जंघा एवं सेवाधर्म व्यक्ति उसके पैर हुए।।11।।

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।

श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत।।12।।

विराट पुरुष परमात्मा के मन से चन्द्रमा, नेत्रों से सूर्य, कर्ण से वायु एवं प्राण तथा मुख से अग्नि का प्रकटीकरण हुआ।।12।।

नाभ्याऽआसीदन्तरिक्षँ शीर्ष्णो द्यौः समवर्त्तत।

पद्भ्याँ भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ२ऽकल्पयन्।।13।।

विराट पुरुष की नाभि से अंतरिक्ष, सिर से द्युलोक, पाँवों से भूमि तथा कानों से दिशाएँ प्रकट हुईं। इसी प्रकार (अनेकानेक) लोकों को कल्पित किया गया है (रचा गया है)।।13।।

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत।

वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्मऽइध्मः शरद्धविः।।14।।

जब देवों ने विराट पुरुष को हवि मानकर यज्ञ का शुभारम्भ किया, तब घृत वसंत ऋतु, ईंधन (समिधा) ग्रीष्म ऋतु एवं हवि शरद ऋतु हुई।।14।।

सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः।

देवा यद्यज्ञं तन्वानाऽअबध्नन् पुरुषं पशुम्।।15।।

देवों ने जिस यज्ञ का विस्तार किया, उसमें विराट पुरुष को ही पशु (हव्य) रूप की भावना से बाँधा (नियुक्त किया), उसमें यज्ञ की सात परिधियाँ (सात समुद्र) एवं इक्कीस (छंद) समिधाएँ हुईं।।15।।

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।

ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः।।16।।

आदिश्रेष्ठ धर्मपरायण देवों ने यज्ञ से यज्ञरूप विराट सत्ता का यजन किया। यज्ञीय जीवन जीने वाले धार्मिक महात्माजन पूर्वकाल के साध्य देवताओं के निवास स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं।।16।।

ॐ शांतिः ! शांतिः !! शांतिः !!! (यजुर्वेदः 31.1-16)

सूर्य के समतुल्य तेजसम्पन्न, अहंकाररहित वह विराट पुरुष है, जिसको जानने के बाद साधक या उपासक को मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्षप्राप्ति का यही मार्ग है, इससे भिन्न और कोई मार्ग नहीं। (यजुर्वेदः 31.18)

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