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Sharir Swasthya

आयुर्वेद के क्षेत्र में संत श्री आशाराम जी बापू की योगदान


जीवन का शायद ही कोई ऐसा पहलू होगा जो मानवमात्र के मंगल की सद्भावना से छलक रहे पूज्य संत श्री आशाराम जी बापू के हृदय से अछूता रहा हो । धर्म का रहस्य, योग का सामर्थ्य, संस्कारों का सिंचन, ऐहिक तथा पारमार्थिक सफलता, व्यसनों, तनावों से मुक्ति, उत्तम स्वास्थ्य… हर विषय़ में पूज्य बापू जी के सत्संग-मार्गदर्शन से कितने करोड़ लोगों के जीवन में कितने विलक्षण और अभूतपूर्व परिवर्तन हुए, सब गणितज्ञ और विज्ञानी मिलकर भी उनकी गणना और बखान नहीं कर सकते । आयुर्वेद विभाग, हिमाचल प्रदेश के उपनिदेशक डॉ. सुंदर शर्मा कहते हैं- “संत श्री आशाराम जी आश्रम से हमें मानव-सेवा कैसे हो इसकी प्रेरणा मिलती है ।” निरोगी तन और प्रसन्न मन वाले व्यक्तियों को कर्म, भक्ति और ज्ञान के मार्ग पर दृढ़ता से चलने में बड़ी सुगमता होगी, इस बात को ध्यान में रखते हुए पूज्य बापू जी ने ब्रह्मज्ञान के सत्संग के साथ-साथ आयुर्वेद का प्रचार-प्रसार भी व्यापकता से किया है । चरक संहिता (सूत्रस्थानः 1.15) में लिखा हैः धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम् । ‘धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – इन चारों पुरुषार्थों का मूल कारण आरोग्य ही है ।’ पूज्य श्री ने यह भी बताया कि उत्तम स्वास्थ्य प्राप्त करने के पीछे मनुष्य का उद्देश्य शरीर को भोग-प्राप्ति के साधनों में लगाना नहीं है अपितु जीवन की मूलभूत आवश्यकता अपने शाश्वत सच्चिदानंद स्वभाव की प्राप्ति में सक्षम बनना है । अनेक लोगों का अनुभव है कि पूज्य बापू जी से जुड़ने से पूर्व के जीवन में वे छोटी-छोटी बातों पर हताश-निराश हो जाते थे, जेब खाली करवाने वाले तथा बदले में साइड इफेक्ट्स की सौगात देने वाले एलोपैथिक इलाज की तरफ चले जाते थे । और आज वे ही लोग बिना किसी खर्च के आयुर्वेद के सिद्धान्त, जैसे प्राकृतिक जीवनचर्या व दिनचर्या, मंत्रोपचार आदि से तनावमुक्त तथा स्वस्थ रहते हैं । आयुर्वेद का वास्तविक प्रचार किसी भी सिद्धान्त का जनजीवन में गहरा उतर जाना यही उसका समाज में वास्तविक प्रचार-प्रसार है । पूज्य श्री ने आयुर्वेद की गूढ़ और अमूल्य खोजें सरल और सहज शैली में जन-साधारण तक इस तरह से पहुँचायीं कि उनको अपनाने के लिए लोगों को अतिरिक्त आयास नहीं करना पड़ा । वे लोगों के जीवन का अभिन्न अंग बन गयीं । जैविक घड़ी पर आधारित दिनचर्या, विरुद्ध आहार का त्याग, प्रातःकालीन भ्रमण, ऋतु-अनुसार आहार-विहार, सद्वृत्तों का पालन आदि अनेक सिद्धान्तों द्वारा पूज्य बापू जी ने व्यापक जनसमाज के तन को स्वस्थ और मन को तनावरहित, आनंद-उल्लास से परिपूर्ण कर दिया । ऋषि प्रसाद अगस्त 2022 के अंक में हमने पढ़ा था कि किस प्रकार से गुलामी की मानसिकता के कारण स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भी सनातन संस्कृति एवं आयुर्वेद का महत्त्व हमारे देश में कम होता जा रहा था । ऐसे समय में अशांत और दुःखी समाज को दिव्यता की ओर अग्रसर करने हेतु पूज्य बापू जी ने एकांत-समाधि के आनंद को छोड़ा और समाज के बीच आकर ध्यान, जप आदि उपासना और सत्संग रूपी अमृत पिला के आंतरिक स्वास्थ्य-संबंधी महत्त्वपूर्ण पहलुओं के प्रचार-प्रसार द्वारा उसे उन्नत करने का महत्कार्य किया । बापू जी ने आयुर्वेद के मूल उपदेश को प्रतिपादित करते हुए बताया कि यह केवल शरीर को स्वस्थ रखने तक का ही ज्ञान नहीं है, यह तो जीवन जीने की कला सिखाने वाला एक समृद्ध विज्ञान है । आपश्री ने आयुर्वेद के सभी अंगों का प्रचार करते हुए उसके मूल सिद्धान्तों को लोगों के जीवन का अंग बना दिया । वैसे तो पूज्य बापू जी द्वारा आयुर्वेद के प्रचार-प्रसार में दिये गये अभूतपूर्व योगदान का वर्णन करना असम्भव है फिर भी इस विषय पर हलका-सा प्रकाश डालने का प्रयास यहाँ किया जा रहा हैः स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा की आयुर्वेद के दो अंग हैं- पहला, ‘रोगानुत्पादनीय’ अर्थात् व्याधि हो ही नहीं इसलिए प्रयास किया जाय और दूसरा, ‘रोगनिर्वतनीय’ अर्थात् व्याधि उत्पन्न होने पर उसे दूर करने का प्रयास किया जाय । इनमें आयुर्वेद की दृष्टि से प्रथम अंग का महत्त्व अधिक है अर्थात् अपनी दिनचर्या, आचार-विचार ऐसे हों कि रोग हो ही नहीं । ‘स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की सुरक्षा करना’ यह आयुर्वेद का प्रथम प्रयोजन है । स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणम्… (चरक संहिता, सूत्रस्थानः 30.26) इसके लिए आयुर्वेद के रचयिता ऋषियों ने दिनचर्या, आहार-विहार, आचरण आदि संबंधी महत्त्वपूर्ण बिंदुओं का ज्ञान समाज को दिया । इन सिद्धान्तों को बापू जी ने अपने सत्संगों में स्थान दिया और ऐसी युक्ति से इनका प्रतिपादन किया कि ब्राह्ममुहूर्त में उठना, प्रातः 3 से 5 बजे के बीच प्राणायाम करना, संध्या के समय ध्यान, जप करना, सूर्य को अर्घ्य देना, सुबह 9 से 11 और शाम को 5 से 7 के बीच भोजन करना, रात्रि को 9 से 10 बजे तक सो जाना जैसे नियम आज करोड़ों लोगों के जीवन का अंग बन गये हैं । आचार्य चरक जी ने आयुर्वेद में स्वास्थ्य के तीन उपस्तम्भ बताये हैं- त्रय उपस्तम्भा इति – आहारः स्वप्नो ब्रह्मचर्यमिति । (चरक संहिता, सूत्रस्थानः 11.35) आहार, निद्रा, और ब्रह्मचर्य – जब तक इन तीन उपस्तम्भों का युक्तिपूर्वक सेवन किया जाता है तब तक मनुष्य स्वस्थ रहता है । इन स्तम्भों को मजबूत बनाने का अनमोल ज्ञान आज के युग में पूज्य बापू जी द्वारा भली-भाँति दिया गया है । आप श्री ने अपने सत्संगों द्वारा सात्त्विक आहार के लाभ और राजसी-तामसी आहार की हानियों के विषय में समाज को जागरूक कर युक्ताहारविहारस्य – गीता के इस उपदेश को भी सुंदर ढंग से समझाया । लंघनं परमौषधम् – लंघन अर्थात् उपवास परम औषध है । पूज्य श्री ने इस सूत्र का लाभ दिलाने हेतु उपवास का वास्तविक अर्थ समझाया तथा इससे होने वाले स्वास्थ्य व आध्यात्मिक लाभों का शास्त्रीय ज्ञान लोगों के दिल-दिमाग में ऐसा तो उतार दिया कि आज लाखों-लाखों लोग नियमपूर्वक एकादशी व अन्य व्रतों का पालन करते हैं और अन्य लाभों के साथ स्वास्थ्य-लाभ भी सहज में ही पाते हैं । चरक संहिता के अनुसार उत्तम स्वास्थ्य हेतु एक आवश्यक घटक है । सैव युक्ता पुनर्युक्ते निदा देहं सुखायुषा ।… ‘यदि निद्रा का उचित समय पर सेवन किया जाय तो वह शरीर को सुख (आरोग्य) और आयु से युक्त करती है ।’ (चरक संहिता, सूत्रस्थानः 21.38) इसीलिए कहा गया हैः ‘अर्धरोगहरी निद्रा’ । पूज्य बापू जी ने यह बताया कि रात्रि 9 से 3 बजे की नींद अनेक प्रकार के रोगों का निवारण करने वाली, पुष्टिदायी व रोगप्रतिकारक शक्ति को बढ़ाने वाली है । इस सिद्धान्त को आज असंख्य लोगों ने अपनी दिनचर्या का अभिन्न अंग बना लिया है । पूज्य बापू जी कहते हैं कि ‘रात्रि को पूर्व या दक्षिण की ओर सिर करके ही सोना चाहिए । श्वास अंदर जाय तो ‘ॐ’, बाहर आये तो ‘1’… श्वास अंदर जाय तो ‘शांति’, बाहर आये तो ‘2’… इस प्रकार भगवद्-स्वभाव के सुमिरन के साथ श्वासों की गिनती करते-करते सोने से रात की निद्रा कुछ ही सप्ताहों में योगनिद्रा बनने लगेगी, जो बहुत कम समय मे अधिक विश्रांति देती है ।’ आहारस्य परं धाम शुक्रं तद्रक्ष्यमात्मनः । क्षयो ह्यस्य बहून् रोगान्मरणं वा नियच्छति ।। (चरक संहिता, निदानस्थानः 6.9) आयुर्वेद के अनुसार वीर्य हमारे आहार का सार है और वीर्य का क्षय बहुत-से रोगों को आमंत्रण देता है । बापू जी ने वीर्यरक्षा को केवल शारीरिक स्वास्थ्य तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि वीर्यरक्षम द्वारा ओज-तेज व सुषुप्त शक्तियों के जागरण एवं निर्विकारी आत्मा के आनंद की प्राप्ति का उद्देश्य बताया । इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु ‘युवाधन सुरक्षा’ अभियान चलाया गया तथा ‘वेलेंटाइन डे’ जैसी युवावर्ग को चरित्रभ्रष्ट करने वाली पाश्चात्य कुरीति के विकल्प के रूप में नैतिक मूल्यों को पुनर्जीवित करने वाले ‘मातृ-पितृ पूजन दिवस’ जैसी अनुपम सौगात विश्वमानव को दी, जिसके कारण करोड़ों किशोर-किशोरियों की यौन-संक्रमित रोगों से, अपरिपक्व अवस्था में सम्भोग करने के कारण होने वाले अनेक शारीरिक और मानसिक रोगों से और किशोर गर्भावस्था (टीनेज प्रेग्नेंसी) जैसे सामाजिक दूषण से समाज की रक्षा हो सकी । आयुर्वेद के शास्त्रों में शारीरिक, मानसिक आदि सभी दोषों को प्रकुपित करने वाले कारण को प्रज्ञापराध (बुद्धि का अपराध) कहा है । प्रज्ञापराधं तं विद्यात् सर्वदोषप्रकोपणम् । (चरक संहिता, शारीरस्थानः 1.102) अतः आचार्य चरक जी ने आचरण-संबंधी विभिन्न नियम बताये हैं । जिनका जीवन इस आचार-रसायन के अनुसार है वे दीर्घ आयु प्राप्त करने के साथ स्वस्थ एवं सुखी भी रहते हैं तथा शाश्वत सुख एवं आनंद प्राप्त करने में सक्षम हो जाते हैं । महर्षि चरक जी का औषधिरहित यह आचार-रसायन आज के विश्व को आयुर्वेद की अद्भुत एवं अनुपम देन है, जिसे पूज्य बापू जी ने जन-जन तक पहुँचाया । व्रत-त्यौहारों द्वारा स्वास्थ्य लाभ सनातन धर्म के ऋषि-मुनियों ने व्रत-त्यौहारों के माध्यम से ऐसी परम्पराएँ स्थापित कीं जिनके द्वारा स्वास्थ्य संबंधी बातों का ऋतु-अनुरूप ज्ञान समाज को मिल सके । लेकिन इन परम्पराओं के पीछे छिपे आयुर्वेदिक व आध्यात्मिक सिद्धान्तों से अनभिज्ञ होने के कारण लोग इनका लाभ लेना भूलते जा रहे थे । ऐसे समय में बापू जी ने विलुप्त होती जा रहीं इन परम्पराओं के सूक्ष्म रहस्यों को समाज के सामने रखा । इतना ही नहीं, पर्वों को वैदिक, प्राकृतिक ढंग से बड़े व्यापक तौर पर विधिवत् मनवाया, जिससे समाज पुनः इनके स्वास्थ्य-लाभ आदि पहलुओं से भी लाभान्वित होने लगा । इसी का उदाहरण है पूज्य श्री द्वारा प्रेरित ‘प्राकृतिक वैदिक होली’ प्रकल्प, जिसके द्वारा आपने समाज को अत्यंत हानिकारक रासायनिक रंगों से बचाकर स्वास्थ्य के लिए वरदानस्वरूप पलाश के रंगों से होली का सुंदर विकल्प दिया । ऐसे ही क्रिसमस के दिनों में शराब-कबाब आदि के सेवन से चरित्रभ्रष्ट हो रहे युवक-युवतियों को इस सामाजिक विकृति से बचाने के लिए तुलसी के स्वास्थ्यप्रद लाभों को बता के लोगों को तुलसी लगाने एवं उसका उपयोग करने के लिए प्रेरित किया और ‘तुलसी पूजन दिवस’ मनवाना शुरु किया । आँवला, तुलसी, गिलोय, बेल, नीम, पीपल आदि औषधीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण वृक्षों का रोपण करवा के उनके स्वास्थ्य लाभ जन-जन तक पहुँचाये गये । रोगग्रस्त समाज को दिये चिकित्सा के अनेकानेक माध्यम मंत्र-चिकित्साः दैवव्यपाश्रयम्… अर्थात् जिस चिकित्सा में मंत्र, ईश्वर भजन आदि नियमों का पालन किया जाता है । (चरक संहिता, सूत्रस्थानः 11.54) पूज्य बापू जी ने आयुर्वेद की भूली-बिसरी दैवी चिकित्सा को पुनर्जीवित कर करोड़ों लोगों को मंत्र-चिकित्सा का महत्त्व समझाया । शास्त्रों में वर्णित आरोग्यमंत्रों, बीजमंत्रों, सर्वरोगनाशक मंत्रों से असाध्य रोगों के भी उपचार का मार्ग आपके द्वारा प्रशस्त किया गया । आपने ऐसे-ऐसे मंत्रों का ज्ञान समाज को दिया जिनसे हृदय, यकृत, पेट आदि संबंधी जिन असाध्य व्याधियों के उपचार में औषधि शस्त्रकर्म (ऑपरेशन) चिकित्सा भी घुटने टेक देती थीं, उनका इलाज सहज में ही करना सम्भव हो गया । आयुर्वेदिक औषधियों व आरोग्य केन्द्रों द्वारा चिकित्साः आज लोगों के पास इतना समय नहीं है कि वे जड़ी-बूटियों को कूट-पीस के घर पर औषधि तैयार कर सकें । ऐसे में बापू जी ने आयुर्वेदिक औषधियों को अत्यल्प दामों में उत्तम गुणवत्ता के साथ टेबलेट, सिरप, चूर्ण आदि के रूप में लोगों को सुलभ कराया । हरड़ रसायन, त्रिफला रसायन, च्यवनप्राश, ओजस्वी चाय, सौभाग्य शुंठी पाक, वज्र रसायन, सुवर्णप्राश, तुलसी गोली, गोमूत्र अर्क, गौ शुद्धि सुगंध (फिनायल) आदि आयुर्वेदिक पद्धति से बने ऐसे अनेक उत्पाद हैं जो आज समाज के लिए वरदान सिद्ध हो रहे हैं । प्रसूति के समय बिन जरूरी ऑपरेशन से बचाकर सामान्य प्रसव हेतु जन-जागरण का कार्य पूज्य श्री द्वारा किया गया । आप श्री ने वर्षों से शरद पूर्णिमा पर दमा की औषधि तथा करोड़ों-करोड़ों नेत्रबिंदुओं का निःशुल्क वितरण करवा के एवं निःशुल्क चिकित्सा शिविरों के आयोजन के द्वारा सारे विश्व को बताया कि आयुर्वेदिक चिकित्सा का उद्देश्य धन बटोरना नहीं है बल्कि यह तो लोकहित की भावना से समाजरूपी देवता की सेवा करने का एक माध्यम है । ‘सबका मंगल, सबका भला’ सिद्धान्त के पथ-प्रदर्शक पूज्य बापू जी ने देशभर में अनेकानेक स्थानों पर आरोग्य केन्द्रों की स्थापना की, चल-चिकित्सालय की बसें चलायीं, जिनमें निःस्वार्थ भाव से मरीजों की सेवा की जाती है । गौ आधारित चिकित्सा पूज्य बापू जी ने आयुर्वेद में वर्णित देशी गाय के दूध, घी, छाछ, मक्खन, मूत्र, गोमय (गोबर) आदि की महिमा बताकर गौ-आधारित चिकित्सा का मार्ग प्रशस्त किया । ‘धारोष्णममृतोपमम्’ अर्थात् गाय के धारोष्ण दूध को अमृत के समान कहा गया है । यह बल, बुद्धि, वीर्य व नेत्रज्योतिवर्धक है । आपश्री ने देशभर में अऩेक गौशालाओं की स्थापना करवा के जन-जन को गोदुग्ध, गोघृत, पंचगव्य जैसे स्वास्थ्यप्रदायक पदार्थ सुलभ कराये, पंचगव्य घृत, बनवाया । इनके साथ-साथ गोमूत्र-गोमय से बने गौ-चंदन धूपबत्ती, फिनायल जैसे कीटाणु व रोगनाशक उत्पाद भी समाज तक पहुँचाये । विविध प्रचार-माध्यमों द्वारा आयुर्वेद का प्रचार आपश्री ने लोगों के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए ब्रह्मज्ञान के सत्संग में भी आयुर्वेद का प्रसाद बाँटा । आपकी प्रेरणा से ऋषि प्रसाद, लोक कल्याण सेतु, आरोग्यनिधि भाग 1 व 2 एवं अन्य सत्साहित्य, ऋषि दर्शन, आश्रम के यूटयूब चैनलों तथा सोशल मीडिया के अन्य माध्यमों से आयुर्वेद की महिमा व स्वास्थ्य-विषयक अमूल्य ज्ञान वर्षों से देश-विदेश में पहुँचाया जा रहा है । आयुर्वेदिक चिकित्सा का वास्तविक उद्देश्य बताया आयुर्वेद के रचतियता ऋषियों के अनुसार केवल औषधि-सेवन ही चिकित्सा का मूल अंग नहीं है, इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं सद्वृत्त (संयम-सदाचार पालन के विभिन्न नियम) । आचार्य चरक के अऩुसार हितकारी आहार-विहार का सेवन करने वाला, विचारपूर्वक कर्म करने वाला, काम-क्रोध में आसक्त न रहने वाला, जप में तत्पर, शांत, धैर्य़शाली, दानी, सत्य-पालन में तत्पर, देव-गौ-गुरु के सत्कार में रत और महापुरुषों की सेवा करने वाला मनुष्य निरोग रहता है । अगर 20-21वीं सदी में किन्हीं स्वास्थ्य के इन सिद्धान्तों को वृहद्-रूप में एवं उनके वास्तविक अर्थ में समाज तक पहुँचाया है तो वे सिर्फ बापू जी ही हैं । पूज्य श्री ने सम्पूर्ण स्वास्थ्य की परिभाषा का प्रतिपादन करते हुए बताया कि हम पूर्ण निरोग तब होंगे जब हमारा शरीर स्वस्थ रहे, मन प्रसन्न रहे और बुद्धि बुद्धिदाता परमात्मा में विश्रांति पाये । राम नाम की औषधि, खरी नियत से खाय । अंग रोग व्यापे नहीं, महारोग मिट जाय ।। अपने सत्संगों द्वारा बापू जी ने स्वास्थ्य के इन सूक्ष्म पहलुओं को जनजीवन का अभिन्न अंग बनाने का जो दैवी कार्य किया है वही आयुर्वेद का वास्तविक प्रचार-प्रसार है और इसके लिए सारा विश्व आपश्री का ऋणी रहेगा । स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2022, पृष्ठ संख्या 4-8 अंक 358 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

विटामिन बी-12 का सस्ता, सर्वसुलभ स्रोत



‘आम के आम, गुठलियों के दाम’ यह कहावत यथार्थ ही है । इन
गुठलियों के लाभों का आयुर्वेद में भलीभाँति वर्णन किया गया है एवं
अनुभवी पुरखों द्वारा परम्परागत रूप से लाभ लिया जाता रहा है पर
जानकारी के अभाव में हम गुठलियों को प्रायः कचरे के डिब्बे में फेंक
देते हैं । गुठली की गिरी (मींगी) विभिन्न प्रकार के पोषक तत्त्वों से
भरपूर है, जो कि शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए अत्यंत
महत्त्वपूर्ण हैं ।
पूज्य बापू जी के सत्संग में आता हैः “शरीर में विटामिन बी-12
की बहुत जरूरत होती है । बी-12 कम होता है तो भूख कम लगती है
और अन्य समस्याएँ भी पैदा होती है । कुछ लोग बी-12 की पूर्ति के
लिए मांसाहार करते हैं, उसकी कोई जरूरत ही नहीं है । आम की गुठली
में बहुत सारा बी-12 होता है । आम खाने के बाद गुठलियाँ फेंक देते हैं,
आगे से इन्हें इकट्ठा करके सुखा के रख देवें । फिर इन्हें तोड़कर इनकी
मींगी को सेंक लें । इसे सुपारी की नाँईं भी खा सकते हैं । देश-विदेश में
बी-12 की टेबलेटों में करोड़ों रुपये खर्च होते हैं और वे साइड इफेक्ट भी
करती हैं । तो आप इसका लाभ लें । इससे आपको विटामिन बी-12 की
कमी नहीं होगी और किसी को होगी तो दूर हो जायेगी ।”
आधुनिक अनुसंधानों से ज्ञात हुआ है कि आम की गुठली की 100
ग्राम मींगी में आम के 2 किलो गूदे से जयादा पोषक तत्त्व हैं । आम के
गूदे से 20 गुना ज्यादा प्रोटीन, 50 गुना ज्यादा स्निग्धांश (फैट) व 4
गुना ज्यादा कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है । बी-12 शरीर में लाल रक्त
कोशिकाओं के उत्पादन में एवं तंत्रिका-तंत्र (नर्वस सिस्टम) को स्वस्थ
रखने में अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।

विटामिन बी-12 की कमी के लक्षण
खून की कमी, हाथ-पैरों में सुन्नपन, आँखों की रोशनी कम होना
आदि । यदि ध्यान न दें तो चलते समय शरीर का संतुलन बनाने में
समस्या, सोचने समझने की शक्ति में कमी, चिड़चिड़ापन, मस्तिष्क एवं
तंत्रिका-तंत्र को गम्भीर क्षति आदि विकार पैदा होते हैं । हृदय की
निष्क्रियता जैसे गम्भीर उपद्रव भी हो सकते हैं ।
अमीनो एसिड्स का उत्कृष्ट स्रोत
मनुष्य शरीर के लिए 9 अमीनो एसिड्स अत्यावश्यक होते हैं,
जिनकी कमी से अंतःस्राव (हार्मोन्स) एवं न्यूरोट्रांसमीटर्स का निर्माम,
मांसपेशियों का विकास एवं अऩ्य महत्त्वपूर्ण कार्यों में बाधा पहुँचने से
विभिन्न समस्याएँ उत्पन्न होती है । मींगी में 9 अमीनो एसिड्स में से
8 पाये जाते हैं, साथ ही कैल्शियम, मैग्नेशियम, लौह तत्त्व, मैंगनीज़,
फॉस्फोरस आदि खनिज एवं विटामिन ‘ई’, ‘सी’, ‘के’ आदि भी पाये जाते हैं
। गुठली की मींगी में मैंगीफेरिन होने से यह मधुमेह, मोटापा व कैंसर
से सुरक्षा में सहायक है ।
आयुर्वेद के अनुसार आम की गुठली की मींगी कफ-पित्तशामक एवं
कृमिनाशक है । यह छाती में जलन, उलटी, जी मितलाना, दस्त,
गर्भाशय की सूजन, बहूमूत्रता, अधिक मासिक स्राव, श्वेतप्रदर आदि रोगों
में लाभदायी है ।
कैसे करें सेवन ?
गुठली को भूनें और फिर मींगी निकाल के सेवन करें अथवा मींगी
को सेंककर या उबाल के खायें, इससे यह सुपाच्य हो जाती है ।

कच्ची मींगी के आटे को गेहूँ, जौ, मक्का आदि के आटे में 5 से
10 प्रतिशत मिलाकर रोटी, शीरा आदि बना के खा सकते हैं । नियमित
सेवन न करें ।
कोंकण प्रदेश के कुणबी जाति के सैंकड़ों लोग मींगी के आटे की
रोटी बनाकर गर्मियों एवं चौमासे के कुछ महीने सेवन करते हैं ।
दाल, सब्जी आदि पकाते समय कच्ची मींगी के टुकड़े ड़ाल के पका
के भी सेवन कर सकते हैं ।
सेवन-मात्राः मींगी या मींगी से बना मुखवास आधा से डेढ़ग्राम तक
जिसको जितना अनुकूल पड़े ले सकते हैं ।
दस्त मेः कच्ची मींगी को सुखाकर कूट-पीस के चूर्ण बना के रखें ।
3 से 5 ग्राम चूर्ण में समान मात्रा में मिश्री मिलाकर सेवन करें ।
सावधानीः पके आम की गुठली की मींगी का प्रयोग करें । मींगी
का अधिक सेवन कब्जकारक है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 32, 33 अंक
357
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उच्च व निम्न रक्तचाप हो तो… – पूज्य बापू जी



जिनको उच्च रक्तचाप (हाईपरटेंशन) है उनको डरने की जरूरत
नहीं है । यह कोई बीमारी है क्या ? कटोरी में पानी लेकर सामने रखो
और उसमें देखते हुए ‘हरि ॐ शांति, हरि ॐ शांति, हरि ॐ शांति…’
जप करो फिर उसे पी लो । दूसरा उच्च रक्तचाप मिटाने का एक सुन्दर
नुस्खा है – किशमिश एक साथ 3-4 बार धोकर सुखा दे (रोज-रोज न
धोये) । उसका एक दाना गुलाब जल में रात को भिगो दें । सुबह
भगवान का नाम लेकर – ‘नारायण… नारायण…नारायण… नारायण…’
जप करके चबा के खा ले । दूसरे दिन 2 दाने, तीसरे दिन 3 दाने, चौथे
दिन 4…. इस प्रकार 21 वें दिन 21 दाने ले । फिर 1-1 किशमिश
प्रतिदिन कम करते हुए 20, 19,18, इस तरह 1 किशमिश तक आयें ।
बस पूरा हो गया । उच्च रक्तचाप गया । फिर भी कहीँ अंश न रह
जाय इसलिए 10-15 दिन का अंतर देकर 1-2 बार फिर यह प्रयोग कर
लो । उच्च रक्तचाप सदा के लिए भाग जायेगा । कई लोगों को लाभ
हुआ है । सरल उपाय है, दुष्प्रभाव (साइड इफेक्ट्स) नहीं है और कोई
खास खर्चा नहीं है ।
और निम्न रक्तचाप (लो बी.पी) हुआ तो ? निम्न रक्तचाप हुआ
तो हीनता के विचार हटाकर ‘ॐ…ॐ…ॐ… सर्वेश्वर परमेश्वर हमारे साथ
हैं ।’ ऐसे विधेयात्मक विचार करो । गहरा श्वास लेकर रोको और ‘हरि
ॐ, हरि ॐ, हरि ॐ… हा… हा… हा… ‘ (देव-मानव हास्य प्रयोग) करो
। निम्न रक्तचाप अपने-आप ठीक हो जाता है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2022, पृष्ठ संख्या 32 अंक 356
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