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Self Realization

…तो उसी समय आत्मसाक्षात्कार ! – पूज्य बापू जी


अधार्मिक लोग तो दुःखी हैं ही लेकिन धार्मिक भी परेशान हैं, रीति-रिवाज, रस्म में, किसी धारणा में, किसी मान्यता में इतने बँध गये कि हृदय में विराजता जो एकदम नकद आत्मानंद है उसका उनको पता ही नहीं । उनकी ऐसी कुछ मान्यता हो गयी कि ‘ऐसा होगा, ऐसा होगा… तब ज्ञान होगा । कुछ ऐसा-वैसा बनेगा, कोई समाधि लगेगी तब प्रभु मिलेगा ।’ अरे, प्रभु तेरे से एक पलभर भी दूर नहीं । कुछ लोग सोचते हैं कि ‘धड़ाक धूम होगा….. कोई घोर तपस्या करेगा तब ईश्वर मिलेगा….’ और महापुरुषों के जीवन-चरित्र पढ़ते हैं कि फलाने महाराज ने 12 वर्ष तप किया, बाद में आत्मसाक्षात्कार हुआ… फलाने बाबा जी 7 वर्ष घोर तपस्या की फिर उनको ईश्वर मिला… तो आप भी ऐसा मान बैठते हैं कि ‘कुछ घोर तपस्या करेंगे फिर ईश्वर मिलेगा….’ परन्तु ऐसी बात नहीं है । वह कभी तुम्हारे से बिछुड़ा नहीं । यदि समर्थ सदगुरु मिल जाते हैं और तुम्हारी तैलीय बुद्धि ( वह बुद्धि जिसमें संकेतमात्र ऐसे फैल जाता है जैसे पानी से भरी थाली में डली तेल की एक बूँद पूरी थाली में फैल जाती है । तैलीय बुद्धि वाले को सद्गुरु ने कोई संकेत किया तो उसकी बुद्धि में फैल जाता है । फिर वह एकांत में अभ्यास करके पूर्ण स्थिति में पहुँच जाता है । एकांतवास, अल्पाहार, भगवद्-चिंतन…. श्रीयोगवासिष्ठ महारामायण में महर्षि वसिष्ठ जी कहते हैं- “एक प्रहर (अर्थात् 3 घंटे) शास्त्र-विचार, एक प्रहर सद्गुरु-सेवा, एक प्रहर प्रणव (ॐकार) जप और एक प्रहर ध्यान करे । इन साधनों से हे राम जी ! उसे शीघ्र ही भगवत्प्राप्ति हो जाती है ।”) है तो चट मंगनी, पट ब्याह !

मूवा पछीनो वायदो नकामो, को जाणे छे काल ।

आज अत्यारे अब घड़ी साधो, जोई लो नकदी रोकड़ माल ।।

अर्थात् मरने के बाद का वादा व्यर्थ है, कल का किसको पता है ? साधो ! आज, अभी इसी क्षण देख लो नकद माल ।

मान्यताओं ने आपको परमात्मा से दूर कर दिया । ऐसा कुछ सुन बैठे हैं, ऐसा कुछ समझ बैठे हैं, ऐसा कुछ देख बैठे हैं कि जिससे सब समझा जाता है, जिससे सब देखा जाता है वह नहीं दिखता, बाकी सब दिखता है । ॐॐॐ… कुछ सोचो मत । भगवान की भी इच्छा मत करो । इच्छामात्र हट यी तो उसी समय आत्मसाक्षात्कार ! नेति नेति नेति नेति नेति…. यह नहीं, यह नहीं, यह नहीं, यह नहीं, यह नहीं करते-करते…. पुत्र तुम्हारा है ? बोलो, नहीं । पत्नी तुम्हारी है ? नहीं । पैसा तुम्हारा है ? नहीं । शरीर तुम्हारा है ? नहीं । मन तुम्हारा है ? नहीं । बुद्धि तुम्हारी है ? नहीं । चित्त तुम्हारा है ? नहीं । कार तुम्हारी है ? अरे, शरीर ही हमारा नहीं तो कार हमारी कैसे है ? दुकान तुम्हारी है ? नहीं । तुम्हारा यह नहीं, यह नहीं, यह नहीं, यह नहीं…. हटाते जाओ, हटाते जाओ…. हटा-हटा कर सब हटा दो, जो हटाने वाला बचेगा वह आत्मा है, वह नहीं हटता । देखे हुए को, सुने हुए को – दोनों को हटाते जाओ, देखे हुए – सुने हुए दोनों हट गये तो जिससे सब हट उसमें शांत….

वह ज्यों का त्यों हस्तामलकवत् (हाथ पर रखे आँवले की तरह सुस्प्ष्ट एवं प्रत्यक्ष) भासेगा । भासेगा किसको ? उसी को…. स्वयं को स्वयं भासेगा !

यह भगवान के दर्शन से भी ऊँची बात है । ठाकुर जी का दर्शन हो जाय, अल्लाह का दर्शन हो जाय तो भी व्यक्ति रोयेगा लेकिन आत्मसाक्षात्कार करेगा तो फिर रोना-धोना गया । फिर अल्लाह स्वयं बन जायेगा, ठाकुर जी स्वयं बन जायेगा । फिर तुम्हारे को छूकर जो हवा चलेगी न, वह भी लोगों के पाप नष्ट कर देगी । तुम्हारी जिन पर दृष्टि पड़ेगी वे भी प्रणाम करने के पात्र हो जायेंगे । तुम्हारी दृष्टि जिन पर बरसेगी उऩके आगे यमदूत कभी नहीं आयेगा तुम ऐसे पवित्र हो जाओगे ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 5, अंक 333

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इसी का नाम है ईश्वरप्राप्ति ! – पूज्य बापू जी


सदा सुखी रहने का नाम है ईश्वरप्राप्ति । दुःखों से, चिंताओं से और जन्म-मरण की पीड़ाओं से मुक्ति का नाम है ईश्वरप्राप्ति । मनुष्य की माँग का नाम है ईश्वरप्राप्ति ।

वास्तव में ईश्वरप्राप्ति के लिए किन्हीं लम्बे चौड़े नियमों की जरूरत नहीं है । किसी विशिष्ट काल या कालान्तर में प्राप्ति होगी ऐसा नहीं है । ईश्वर के सिवाय और कुछ सार न दिखे, उसको पाने के लिए तीव्र लगन हो बस, उसकी प्राप्ति सहज हो जायेगी ।

जितना हेत हराम से, उतना हरि से होय । कह कबीर ता दास का, पला न पकड़े कोय ।।

ईश्वरप्राप्ति की भूख लगेगी तो विवेक-वैराग्य बढ़ेगा, सत्त्वगुण की वृद्धि होगी तथा धीरे-धीरे सारे सदगुण आयेंगे । धीरे-धीरे सब उपाय अपने-आप आचरण में आ जायेंगे और शीघ्र परमात्मप्राप्ति हो जायेगी ।

लोग कहते हैं- “महाराज ! भगवान की प्राप्ति के हम अधिकारी नहीं हैं ।”

अरे भैया ! कुत्ते को सत्संग सुनने का, गधे को योग करने का, भैंस को भागवत सुनने का, चिड़िया को व्रत करने का अधिकार नहीं है…. किंतु सत्संग-श्रवण, योग, भक्ति, व्रत आदि करने का अधिकार आपको है । ये सारे अधिकार तो परमात्मा ने आपको ही दे रखे हैं, फिर क्यों आप अपने को अनधिकारी मानते हो ?

भगवत्प्राप्ति की सुविधा चौरासी लाख योनियों में से मनुष्य जन्म में ही है । देवताओं को भी अगर भगवत्प्राप्ति, आत्मसाक्षात्कार करना हो तो मनुष्य बनना पड़ता है । ऐसा मनुष्य जन्म आपको मिला है । ईश्वर ने ऐसा उत्तम अधिकार दे दिया है, फिर क्यों अपने को अनधिकारी मानते हो ? अपने को अनधिकारी मानना यही ईश्वरप्राप्ति में बड़े-में-बड़ा विघ्न है ।

ईश्वरप्राप्ति कोई अवस्था नहीं है । किसी परिस्थिति का सर्जन करके भगवान को पाना है या कहीं चलकर भगवान के पास जाना है ऐसी बात नहीं है वरन् वह तो हमसे एक सूतभर भी दूर नहीं है । लेकिन हम जिन विचारो से संसार की ओर उलझे हैं उन्ही विचारों को आत्मा की तरफ लगाना इसका नाम ही है ईश्वर की ओर चलना, साक्षात्कार की ओर चलना । ईश्वर हमसे अलग नहीं हुआ है, वह तो सर्वत्र है किंतु हम ही ईश्वर से विमुख हो गये हैं । अगर हम सम्मुख हो जायें तो वह मिला हुआ ही है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 2, अंक 333

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हे महापुरुषो ! विश्व में आपकी कृपा जल्दी से पुनः-पुनः बरसे- पूज्य बापू जी


उपनिषदों के ऋषियों का कहना हैः

यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ ।

तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ।।

जिन्हें परमात्मा में परम भक्ति होती है, जैसी परमात्मा में वैसी ही भक्ति जिनको सदगुरु में होती है, ऐसे महात्मा के हृदय में ये (उपनिषदों में) बताये हुए रहस्यमय अर्थ प्रकाशित होते हैं (परमात्मज्ञान प्रकाशमान होता है ।) श्वेताश्वतर उपनिषद्- अध्याय 6, मंत्र 23

मत्स्येन्द्रनाथजी ने यह उत्तम साधन बताया गोरखनाथ जी को । गोरखनाथ जीने दी उत्तम प्रसादी गहिनीनाथ जी को, गहिनीनाथ जी ने निवृत्तिनाथ जी को और निवृत्तिनाथ जी की कृपा से ज्ञानेश्वर जी इतने महानपुरुष हुए । संत तोतापुरी जी ने प्रसादी दी श्री रामकृष्ण जी को, श्री रामकृष्ण जी ने विवेकानंद जी को दी । मुनि अष्टावक्र जी ने यह कृपाप्रसादी राजा जनक को दी और उन्होंने शुकदेव जी को दी । याज्ञवल्क्य ऋषि मैत्रेय को देते हैं यह कृपा प्रसादी । सनत्कुमार ने ब्रह्मज्ञान का उपेदश दिया और कृपादृष्टि की नारदजी पर । यमराज ने नचिकेता पर की, भगवान वसिष्ठ जी ने श्रीराम जी पर कृपा की । जनार्दन पंत, एकनाथ जी, संत तुलसीदास जी, साँईं श्री लीलाशाह जी – इन सभी महात्माओं को अपने-अपने सदगुरुओं से बहुत कुछ मिला था । यह गुरु-परम्परा बहुत जरूरी है । जिस देश में गुरु-शिष्य परम्परा हो, ऐसे ब्रह्मवेत्ताओं का आदर होता हो, जो अपने को परहित में झोंक देते हैं, अपनी ‘मैं’ को परमेश्वर में मिला देते हैं ऐसे महापुरुष अगर देश में सौ भी हों तो उस देश को फिर कोई परवाह नहीं होती, कोई लाचारी, परेशानी नहीं रहती ।

सच्ची सेवा तो उन महर्षि वेदव्यासजी ने की, उस सदगुरुओं, ब्रह्मवेत्ताओं ने की जिन्होंने जीव को जन्म-मृत्यु की झंझट से छुड़ाया… जीव को स्वतंत्र सुख का दान किया… दिल में आराम दिया…. घर में घर दिखा दिया… दिल में ही दिलबर का दीदार करने का रास्ता बता दिया । यह सच्ची सेवा करने वाले जो भी ब्रह्मवेत्ता हों, चाहे प्रसिद्ध हों, चाहे अप्रसिद्ध, नामी हों चाहे अनामी, उन सब ब्रह्मवेत्ताओं को हम खुले हृदय से हजार-हजार बार आमंत्रित करते हैं और प्रणाम करते हैं । हे महापुरुषो ! विश्व में आपकी कृपा जल्दी से पुनः – पुनः बरसे । विश्व अशांति की आग में जल रहा है । हे आत्मज्ञानी गुरुओ ! हे ब्रह्मवेत्ताओ ! हे निर्दोष नारायणस्वरूपो ! हम आपकी कृपा के ही आकांक्षी हैं । जिन देशों में ऐसे ब्रह्मवेत्ता गुरु हुए और उनको झेलने वाले साधक हुए वे देश उन्नत बने हैं । धन्यभागी हैं वे लोग, जिनमें वेदव्यासजी जैसे आत्मसाक्षात्कारी पुरुषों का प्रसाद पाने की और बाँटने की तत्परता है !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2020, पृष्ठ संख्या 4, अंक 330

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