Tag Archives: Suprachar

पूज्य बापू जी का विश्वमानव को उपहारः विश्वगुरु भारत कार्यक्रम


पूर्वकाल में घर-घर में तुलसी, गीता, गोमाता – भारतीय संस्कृति क ये धरोहरें विद्यमान होती थीं, जिससे लोग स्वस्थ, प्रसन्न व शांत रहते थे । लेकिन धीरे-धीरे इन्हें घरों से बेघर कर दिया गया जिसके कारण समाज रोगग्रस्त व अशांत रहने लगा । वर्तमान समय में इस अशांति ने ऐसा विकराल रूप धारण किया कि वर्ष के अंतिम दिनों में होने वाली आपराधिक प्रवृत्तियों, आत्महत्याओं में विशेषरूप से बढ़ोतरी होने लगी । इसका प्रमुख कारण था 25 दिसम्बर से 1 जनवरी के बीच में समाज में बढ़ती दुष्प्रवृत्तियाँ जैसे, मांसाहार, शराब-सेवन आदि । भूले-भटके, नीरस समाज को सच्ची राह मिले व जनजीवन में सरसता, सात्त्विकता, आरोग्य, प्रभुप्रीति आदि का प्रादुर्भाव हो इस उद्देश्य से 2014 में ब्रह्मवेत्ता संत पूज्य बापू जी ने ‘विश्वगुरु भारत कार्यक्रम’ का अनुपम उपहार समाज को दिया । पूज्य बापू जी ने सब प्रकल्पों का अंतिम लक्ष्य यह है कि जीवात्मा अंतरात्मा-परमात्मा के रस को पा ले और अपने सच्चिदानंदस्वरूप को जानकर मुक्त हो जाय । 25 दिसम्बर से 1 जनवरी तक ‘विश्वगुरु भारत कार्यक्रम’ के पूज्य श्री के आवाहन के फलस्वरूप करोड़ों लोग ‘तुलसी पूजन दिवस’ सपरिवार मनाकर प्रसन्नचित्त हो रहे हैं व स्वास्थ्य लाभ पा रहे हैं, हवन द्वारा पवित्र आभामंडल बना रहे हैं, गौ-गंगा-गीता जागृति यात्राओं से गाँव-गाँव, शहर-शहर में सुख-समृद्धि व आरोग्य प्रदायिनी गौमाता की सेवा-पूजा के लाभ, गीता के दिव्य ज्ञान एवं गंगा के माहात्म्य आदि का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं । योग प्रशिक्षण शिविरों के माध्यम से दवाइयों की गुलामी और चीर-फाड़ के बिना रोगमुक्त जीवन की ओर चल रहे हैं । व्यसनमुक्ति अभियान के द्वारा युवा पीढ़ी को विनाश के मार्ग पर जाने से बचा रहे हैं, भूले-भटकों को सच्चा रास्ता दिखा रहे हैं । अध्यात्म मार्ग के पथिक अंतर्मुख हो ‘ध्यान-योग शिविरों’ में अपनी सुषुप्त शक्तियों को जगा रहे हैं । यह सब भगीरथ कार्य पूज्य श्री के संकल्प से, उनकी प्रेरणा और कृपाशक्ति से उनके असंख्य प्यारे भगवान के दुलारे कर रहे हैं । मानवता उनकी आभारी है, उनकी ऋणी है । आइये, हम सब भी पूज्य श्री के इस दैवी कार्य से जुड़कर अपना और अपने सम्पर्क में आने वालों का जीवन धन्य करें तथा शुद्ध ज्ञान और आत्मसुखरूपी परम लाभ को प्राप्त कर लें । जब किसी की सेवा के फलस्वरूप हमारा जीवन परिवर्तित हुआ है तो हम भी विश्वगुरु भारत के ज्ञान का परचम विश्वभर में व्यापकरूप से फहराने के इस महायज्ञ में कोई-न-कोई सेवा खोज लें । स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 2 अंक 360 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

सेवा के लिए यह सुवर्ण-युग है – पूज्य बापू जी


समाज तक सत्संग पहुँचाने वाले धनभागी हैं ! जो भी विद्यार्थी हैं, साधक हैं, शिष्य हैं भक्त हैं अथवा जो भी अच्छाई फैलाना चाहते हैं उनके लिए सेवा के लिए यह एक सुवर्ण युग है । सत्संग की बातें, झूठे आरोपों की सच्चाई प्रकट करने की बातें सोशल मीडिया पर ट्विटर आदि द्वारा और ऋषि प्रसाद, ऋषि दर्शन, लोक कल्याण सेतु द्वारा समाज तक पहुँचाने की सेवा में लोग लगे हैं, मुझे इस बात की बड़ी प्रसन्नता है और होगी भी । जो सत्कर्म नहीं करता वह दुष्कर्म जरूर करेगा । जो सही जगह पर समय नहीं लगाता वह गलत जगर पर समय बरबाद करके ही रहेगा । गुरु नानकदेव जी कहते हैं- जिनि सेविआ तिनि पाइआ… श्रीकृष्ण कहते हैं- मुझे वैकुंठ उतना प्रिय नहीं है जितना सत्संग प्रिय है – गीता मे हृदयं पार्थ…। संत कबीर जी बोलते हैं- राम परवाना (बुलावा पत्र) भेजिया, वाचत (पढ़कर) कबीरा रोय । क्या करूँ तुम्हरे वैकुंठ को, जहाँ साध संगत नहीं होय ।। तो मेरे प्यारे साधकों के मन में जो उदासीनता थी… ‘झूठा आरोप है, अच्छा नहीं हुआ, अपन क्या करें ?…’ ऐसा करके बैठ जाते थे, अब उनमें भी सक्रियता आयी है कि ‘छोटे-मोटे लोग भी अपना प्रचार करते हैं तो यहाँ तो करोड़ों-करोड़ों साधकों का समुदाय है, हम क्यों पीछे हटेंगे !’ बापू के बच्चे, नहीं रहेंगे कच्चे ! ॐ ॐ ॐ… ट्वीट करने में भी कच्चे नहीं, और सोशल मीडिया के दूसरे साधनों के सदुपयोग में भी कच्चे नहीं । और आजकल श्री योग वेदांत सेवा समितियों, साधक परिवारों और युवा सेवा संघों के सम्मेलनों के आयोजनों में भी सफल हो रहे हैं, शाबाश है ! जो ऋषि प्रसाद, लोक कल्याण सेतु समाज तक पहुँचाते हैं, सदस्य बनाते हैं अथवा कैसे भी लोगों को सत्संग-सेवा का लाभ दिलाते हैं वे धनभागी है ! कुटुम्ब का एक व्यक्ति भी बदलता है या अपने वास्तविक स्वरूप – आत्मदेव की तरफ आता है, जिस देव की महिमा का वर्णन भगवान शिवजी करते हैं उस आत्म-परमात्मदेव का रास्ते चलता है तो वह तो धन्य हो जाता है, उसका कुटुम्ब और आस-पड़ोस भी धन्य होने लगता है । ये धऱती के देव यहीं हृदय का सुख पाते हैं ! धरती के देवता और स्वर्ग के देवता में अंतर है । स्वर्ग के देवता पुण्य का फल खर्च करके स्वर्ग की सुविधा भोगते हैं लेकिन धरती के ये सत्संग का प्रचार करने वाले देवता मरने वाले शरीर का समय लगाकर पुण्य अर्जित करते हैं । और स्वर्ग का सुख तो मरने के बाद मिलता है, उसमें भी अप्सराओं और साज आदि की पराधीनता रहती है परंतु ये तो यहीं जीते-जी हृदय का सुख पाने लग जाते हैं, बोलते हैं- ‘सेवा में गया था, बहुत मजा आया !’ मजा आया… कहाँ से आया ? अपने अंतरात्मा से आया । सच्चा मजा क्या है ? कर्म का फल कुर्सी (सत्ता अथवा अधिकार की प्राप्ति) नहीं है, कर्म का फल लड्डू (वाहवाही, सत्कार) आदि नहीं है । सत्कर्म के बाद तुम्हारे हृदय में शांति, आंतरिक सुख, आत्मसंतोष हुआ यह उसका सच्चा फल है । प्रेमी-प्रेमिका बोलते हैं- ‘अरे, मैं मेरी गर्लफ्रेंड से मिलने गया… मैं मेरे बॉयफ्रेंड से मिली… बहुत मजा आया ।’ उस बहुत मजा के बाद ग्लानि पैदा हुई कि मजा टिका ? पुण्य हुआ कि निस्तेजता आयी ? ओज बढ़ा या ग्लानि ? यह मजा नहीं है, विकारी हर्ष है । सच्चा मजा हर्ष नहीं है और शोक भी नहीं है, वह तो चैतन्यस्वरूप परमात्मा की करुणा-कृपा की तरंगे हैं । अनमोल को पाने की कुंजी ये जो शरीर के, इन्द्रियों के सुख हैं वे सुखाभास हैं, तुम्हारी मूल दशा अंतरात्मा-परमात्मा के सुख की है पर उधर न जाकर बाहर के सुख में भटकते हो ।तो बाहर का – इन्द्रियों का सुख न मिले, सेवा का, सत्संग का, साधना का सुख मिले तो असली सुख का रास्ता जल्दी से तय हो जायेगा । सिंधी जगत के एक संत कहते हैं- ‘हे प्रभु ! या तो तुम्हें देखें या तुम्हारी चर्चा करें । इन दोनों से हमें कभी वियोग प्राप्त न हो । या तो सेवा करें जिससे तुम्हारा सुमिरन होगा या तो सत्संग करें जिससे तुम्हारी चर्चा होगी ।’ सिंध जगत के संत कवि कहते हैं- सेवा सचीअ मां जिन लधो, लधो लाल अनमुल्हो से सामी सची सिक सां सदा सेवा कनि. सच्चे हृदय से सेवा करने से जिनको जो मिलता है वह अनमोल लाल (आत्मशांति, आत्मानंद रूपी अनमोल हीरा) मिलता है । वे सदा सच्चे हृदय से सेवा करते हैं । लतां मुकां मोचड़ा सदा सिर सहनि रत्ता रंग रहनि अठ ई पहर अजीब जे. अर्थात् वे लातों व मुक्कों की मार भी सदैव सहर्ष सहन करते हैं, आठों प्रहर अजीब ईश्वरीय रंग में रँगे रहते हैं । लातें भी, मार भी, दुत्कार भी सहते हैं फिर भी सेवा में लगे रहते हैं । उनके माता-पिता धन्य हैं ! सेवा में सफल होने की कुंजी महात्मा बुद्ध के शिष्यों ने कहाः “भंते ! आज्ञा दीजिये कि हम धर्म का, साधना, सत्संग का प्रचार करें ।” बुद्ध बोलेः “मेरे लिए तो लांछन लग रहे हैं, राजसत्ताएँ मेरे खिलाफ काम कर रही हैं और लोग भी तुम लोगों को खूब अपमानित करते हैं । क्या करोगे ?” बोलेः “हम सेवा करेंगे…।” “सेवा करोगे और किसी ने पत्थर मार दिया तो ? डंडा मार दिया तो ?” “तो हम बोलेंगे कि अच्छा है, थोड़े में ही जान बची । डंडे या पत्थर से अंग-भंग तो नहीं हुआ ।” “अगर कोई अंग-भंग कर दे, हाथ तोड़ दे, कान-नाक तोड़ दे, आँख फोड़ दे तो ?” “भंते ! तो हम यह सोचेंगे कि अच्छा हुआ सत्कार्य करते-करते एक अंग ही थोड़ा-सा विकृत हुआ है, क्षतिग्रस्त हुआ है, बाकी तो ठीक हैं ।” “बाकी के अंग भी ऐसे कर दें तो ?” “तब भी प्राण तो चल रहे हैं, धन्यवाद है ।” बोलेः “प्राण भी निकाल दें तो ?” “तो भी धन्यवाद ! सत्कर्म करते हुए, भंते के दैवी कार्य करते-करते मरणधर्मा शरीर अमरता के रास्ते चला है ।” बुद्ध ने कहाः “जाओ वत्स ! तुम्हारी विजय है ।” तो केवल भारत ही नहीं, कई देशों में बुद्ध के सत्शिष्यों ने बुद्ध के विचारों को, बुद्ध के बोध को फैलाया । वैसे तो बुद्ध से भी तगड़े-तगड़े महापुरुष हो गये लेकिन उनके सक्रिय शिष्य नहीं हुए तो उन्होंने अपने सीमित क्षेत्र में ही लीला समाप्त कर दी । तो सक्रिय सेवकों का भी बड़ा सौभाग्य है कि ऐसे हयात महापुरुष की हाजिरी में सेवाकार्य कर लेते हैं । तुम सेवा में लग जाना, शाबाश ! सिखों को कितना-कितना सहन करना पड़ा ! विधर्मियों का राज्य था फिर भी सिख धर्म के अनुयायी लगे रहे, कितने-कितने लोगों ने बलिदान दिया ! धर्म की रक्षा के लिए करीब 35000 सरदार-सरदारनियों ने एक ही घटना में बलिदान दिया विधर्मी शासन के आगे । अभी तुम्हारे लिए विधर्मी धर्मांध शासन तो नहीं है, लोकतंत्र है । ‘हमारी हुकूमत है, यह है, वह है….’ ऐसा कहने वाले नहीं हैं । तो तुम सोशल मीडिया से तथा ऋषिप्रसाद, ऋषि दर्शन, लोक कल्याण सेतु आदि से समाज तक सत्य को पहुँचाने की, सत्संग पहुँचाने की सेवा में लग जाना, शाबाश ! स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 23 अंक 360 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

Rishi Prasad 270 Jun 2015

सावधान व संगठित रहें, हौसला बुलंद रखें


भारत के हिन्दू संत-महापुरुषों को बदनाम करने की साजिश चल पड़ी है। संत कबीर जी, गुरु नानक जी, महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी, स्वामी विवेकानंद आदि संतों का कुप्रचार हुआ तो अब हमारा हो रहा है। मेरे को कोई फरियाद नहीं लेकिन ऐसा करने वालो ! आपको क्या मिलेगा ? जरा भविष्य सोचो। कोई चोर नहीं और आप उसको चोर कहते हैं तो आपको बड़ा भारी पाप लगता है। भइया ! तू भगवान को प्रार्थना कर तेरी बुद्धि में भगवान द्वेष नहीं, सच्चा ज्ञान दे दें। फिर तू सत्य की कमाई का उपयोग करेगा और तेरे बच्चों का भविष्य जहरी नहीं उज्ज्वल बनायेगा।
कुप्रचार के शिकार न हों
महात्मा बुद्ध को बदनाम करने वालों ने तो अपनी तरफ से पूरी साजिश की लेकिन वे कौन से नरकों में होंगे मुझे पता नहीं है, बुद्ध तो आपके, हमारे और करोड़ों दिलों में अभी भी हैं। ऐसे ही गाँधी जी के लिए अंग्रेजों के पिट्ठू कितना-कितना बोलते और कितना-कितना लिखते थे लेकिन गांधी बापू डटे रहे तो बेटे जी हार गये व भाग गये और बापू जी अब भी जिंदाबाद हैं।
जब साबरमती के बापू के लिए लोगों ने ऐसा-ऐसा बोला और वे अडिग रहे तो हम भी साबरमती के बापू जी हैं। हमारी तो किसी के प्रति नफरत नहीं है, द्वेष नहीं है और विदेशी ताकतों को भी हम कभी बुरे शब्द नहीं कहते हैं। अगर ये किसी दूसरे धर्म के गुरुओं के पीछे ऐसा पड़ते तो आज देश की क्या हालत हो जाती ! हम सहिष्णु व उदार होते-होते अपनी संस्कृति पर कुठाराघात करने दे रहे हैं। अब हम सावधान रहेंगे, सहिष्णु तो रहेंगे लेकिन सूझबूझ से और आपस में संगठित रहेंगे। हमारे भारत में अशांति फैला दें ऐसे तत्वों के चक्कर में हम नहीं आयेंगे, कुप्रचार के शिकार नहीं बनेंगे।
अपने अनुभव का आदर करें
किसी पर लांछन लगाना तो आसान है लेकिन संत-महापुरुषों का प्रसाद लेकर पना बेड़ा पार करना तो पुण्यात्माओं का काम है। इतने-इतने लांछन लगते हैं फिर भी मुझे दुःख होता नहीं और सुख मिटता नहीं। संतों के संग से दूर करने वाला वातावरण भी खूब बन रहा है। न जाने कितने-कितने रूपये देकर चैनलों के द्वारा फिल्में, कहानियाँ, आरोप ऐसी-ऐसी कल्पना करके बनाया जाता है कि लगता है कि संत ही बेकार हैं, करोड़ों रुपये लेकर जो दिखाते हैं, कुप्रचार करते हैं वे तो सती-सावित्री के हैं, उनके पास तो दूध का धोया हुआ सब कुछ है और गड़बड़ी है तो सत्संगियों में और संतों में है, ऐसा कुप्रचार भी खूब होता है। लेकिन भाई ! जिनकी बीमारियाँ मिट जाती हैं, जिनके रोग-शोक मिट जाते हैं, वे कुप्रचार के शिकार नहीं होते।
सलूका-मलूका संत कबीर जी के शिष्य थे। उन्हें कबीर जी ने कहाः “भई ! वह वेश्या बोलती है कि मैं उसके बिस्तर पर था, दारूवाला बोलता है कि मैंने दारू पिया… ये सब बोलते हैं, सब लोग जा रहे हैं, तुम क्यों नहीं जाते ?”
सलूका-मलूका कहते हैं- “महाराज ! हमारे मन, बुद्धि और तन की सारी बीमारियाँ यहाँ मिटी हैं। हम आपके सत्संग का त्याग करके नहीं जाना चाहते। लोग चाहे आपके लिए कुछ भी बोलें, लल्लू-पंजू भक्त कुप्रचार सुनकर कुप्रचार के शिकार हो जायें तो हो जायें लेकिन महाराज ! हमें आप रवाना मत करिये।”
कबीर जी ने कहाः “इतनी समझ है तुम्हारी तो बैठो।” सत्संग सुनाते-सुनाते कबीर जी ने ऐसी कृपादृष्टि की कि सलूका-मलूका को भावसमाधि में प्रेमाश्रु आने लगे। भगेड़ू भागते रहे और कौन से गर्भों में कहाँ-कहाँ भगे भगवान जानें !
मैं सत्य का पक्षधर हूँ, कानून और व्यवस्था का पक्षधर हूँ। समाज की सुन्दर व्यवस्था रहे इससे मैं प्रसन्न होने वाला व्यक्ति हूँ फिर भी क्या-क्या कुप्रचार किये जा रहे हैं, कुछ-की-कुछ सामग्री जुटाये जा रहे हैं !
वे समाज के साथ बहुत जुल्म करते हैं…..
जिनके विचार प्रखर भगवद्-ज्ञान के भगवत्-प्रसाद के हैं, ऐसे लोग भी सावधान नहीं रहते और जिस किसी के हाथ का खाते हैं, जिस किसी से हाथ मिलाते हैं तो ऐसे भक्तों की भक्ति भी दब जाती है। इसलिए संग अच्छा करना चाहिए, नहीं तो निःसंग रहना चाहिए। निंदकों की बात सुनकर, कभी हलके वातावरण में रहकर कइयों की श्रद्धा हिल जाती है, शांति और भक्ति क्षीण हो जाती है। जब सत्संगियों के वातावरण में आते हैं तो लगता है कि ‘अरे, मैंने बहुत कुछ खो दिया !’ इसलिए कबीर जी सावधान करते हैं-
कबीरा निंदक न मिलो, पापी मिलो हजार।
एक निंदक के माथे पर, लाख पापिन को भार।।
निंदक ऐसे दावे से बोलते हैं कि लगेगा, ‘अरे यही सत्य जानता है, हम इतने दिन तक ठगे जा रहे थे।’ हजारों-हजारों जन्मों के कर्म-बंधन काटकर ईश्वर से मिलाने वाली श्रद्धा की डोर जो काटते हैं, वे समाज के साथ बहुत-बहुत जुल्म करते हैं। उनको हत्यारा कहो तो हत्यारे नाराज होंगे। हत्यारा तो एक-दो को मारता है इसी जन्म में लेकिन श्रद्धा तोड़ने वाला तो कई जन्मों की कमाई नाश कर देता है।
कैसे रखें हौसला बुलंद ?
विदेशी ताकतें तो वैसे ही साधु-संतों और हमारी संस्कृति को तोड़कर देश को तोड़ने के स्वप्न देख रही है और आप उस आग में घी डालने की गलती क्यों करते हो भाई साहब ? न लड़ो न लड़ाओ। हौसला बुलंद रखो ! हौसला बुलंद उसको कहा जाता है कि न दुःखी रहो न दूसरे को दुःखी करो, न टूटो न दूसरों को तोड़ो, न खुद डरो न दूसरों को भयभीत करो, न खुद बेवकूफ बनो न दूसरों को बेवकूफ बनाओ। यह वैदिक वाणी के आधार से मैं आपको बता रहा हूँ। मैं तो साँपों के बीच रहा हूँ, रीछों के साथ मुलाकात हुई और उनके प्रति भी मेरा सद्भाव रहा तो मनुष्य के प्रति, किसी पार्टी के प्रति मैं क्यों कुभाव करूँगा ? कुभाव करने से मेरा हृदय खराब होगा। मैं तो सद्भाव की जगह पर बैठा हूँ, सत्संग की जगह पर बैठा हूँ इसलिए मेरा सत्य बात कहने का कर्तव्य है, अधिकार है कि सबको मंगल की बात कह दूँ। हम नहीं चाहते कि कोई उसको उलटा समझकर परेशान हो। हमारी इस सूझबूझ का आप आदर करेंगे तो आपके जीवन में बहुत कुछ ऊँचाइयाँ आ सकती हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2015, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 270
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ