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कितना भी ढीला विद्यार्थी हो…


– पूज्य बापू जी

दोनों नथुनों से गहरा श्वास लो । मन में भगवन्नाम जपो फिर हरि ॐ का प्लुत गुंजन करो – हरि ओऽऽ… म्… । जब ॐकार का ‘म’ बोलें तब होंठ बंद कर ‘म’ का दीर्घ (लम्बा) गुंजन करें ।

इस प्रकार के प्राणायाम करने से मनोबल, बुद्धिबल में विकास होता है, रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ती है, अनुमान शक्ति, क्षमा शक्ति, शौर्य शक्ति आदि का विकास होता है । रोज 15 मिनट ऐसा करने वाला विद्यार्थी कितना भी ढीला हो, प्रभावशाली, शक्तिशाली हो जायेगा । तो चाहे आई. जी. बनना है, चाहे डी.आई.जी बनना है, चाहे कुछ भी बनना है, अपनी अंदर की शक्ति जागृत करो तो अच्छे उद्योगपति भी बन सकते हैं, अच्छे भक्त भी बन सकते हैं और भगवान को प्रकट करने वाले महापुरुष, संत भी बन सकते हैं, क्या बड़ी बात है !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 19 अंक 344

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ब्रह्मज्ञान के अतिरिक्त साधन


शुद्ध अंतःकरण वाले मुमुक्षु के लिए ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु के सान्निध्य में ब्रह्मविचार ही मोक्षप्राप्ति का साधन बताया गया है । अंतःकरण को शुद्ध करने के लिए सेवा-सत्कर्म महत्वपूर्ण साधन है । गुरुसेवा से अंतःकरण को शुद्ध किये बिना कितना भी ब्रह्मविचार कर ले, वह मोक्षप्राप्ति तो दूर, सामान्य दुःख-निवृत्ति के भी काम नहीं आता । अतः सेवा और ब्रह्मविचार अर्थात् सत्कर्म और सद्ज्ञान इन दोनों पंखों से ही परमानंदस्वरूप परम पद के महाकाश में उड़ान भरी जा सकती है ऐसा शास्त्रों का निर्णय है । इसलिए वेदांत में ब्रह्मज्ञान के अतिरिक्त साधनों की चार कक्षाएँ स्वीकार की गयी हैं-

  1. हमारे कर्मों का प्रभाव हमारे अंतःकरण पर पड़ता है । अतः कुछ साधन कर्म की शुद्धि के लिए हैं । उनको कर्म-शोधक साधन कहते हैं ।
  2. कुछ साधन पूर्वकृत कर्मों से उत्पन्न अंतःकरण में पड़े हुए राग-द्वेष की निवृत्ति के लिए होते हैं । इसलिए इन साधनों को करण-शोधक साधन कहते हैं ।
  3. वासना की न्यूनता अथवा शुद्धि होने पर भी बुद्धि में जो अपने, जगत के और ब्रह्म के बारे में अज्ञान, संशय और विपरीत ज्ञान भरा है, उसके शोधन हेतु हो साधन हैं वे पदार्थ-शोधक साधन कहलाते हैं ।
  4. अंत में पद-पदार्थ (महावाक्य के पद एवं उन पदों के अर्थ) का यथार्थ बोध होने पर भी जब तक अपनी पूर्णता के बोधक ‘तत्त्वमसि’ आदि महावाक्यजन्य अखंडार्थ-धी (आत्मा और ब्रह्म की एकता का बोध कराने वाली वृत्ति) का उदय नहीं होता, तब तक ब्रह्मात्मैक्य-बोध नहीं होता । अतः इस ब्रह्मात्मैक्य-बोधिनी वृत्ति को वेदांत में साक्षात् साधन कहा गया है ।

इसे आप बंदूक के दृष्टांत से समझ सकते हैं । नियम यह है कि ठीक निशाना लगाने के लिए चार बातें आवश्यक हैं- 1. बंदूक की नली साफ हो । 2. बंदूक में गोली भरी हो । 3. आँख, नली और लक्ष्य – तीनों एक सीध में कर लिये गये हों तथा उँगली बंदूक के घोड़े पर हो । 4. अंत में घोड़ा दबा दिया जाय । यहाँ बंदूक की नली साफ करना कर्म-शोधक साधन है, गोली भरना करण-शोधक साधन है, लक्ष्य की एकता करना पदार्थ-शोधक साधन है तथा घोड़ा दबा देना साक्षात् साधन है ।

इन चार साधनों के दूसरे नाम अधिक प्रचलित हैं । कर्म-शोधक साधन ‘परम्परा साधन’ कहलाते हैं, करण-शोधक साधन ‘बहिरंग-साधन’ कहलाते हैं और पदार्थ-शोधक साधन ‘अंतरंग-साधन’ कहलाते हैं । साक्षात् साधन तो साक्षात् हैं ही, वैसे कोई-कोई उसे ‘परम अंतरंग साधन’ भी कहते हैं । अब इनके बारे में थोड़ा-थोड़ा विचार करें ।

  1. परम्परा साधन (कर्म-शोधक साधन)- वस्तु और क्रिया के अऩुचित संबंध से होने वाले जो असाधन जीवन में आते हैं, जैसे चोरी, व्यभिचार, अनाचार आदि, उनकी निवृत्ति के लिए जो साधन परम्परा से चले आ रहे हैं, जैसे – अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि, वे परम्परा साधन कहलाते हैं । धर्म, उपासना और योग परम्परा साधन हैं ।

शारीरिक और ऐन्द्रियक संयम तथा यज्ञ-यागादिक कर्म धर्म कहलाते हैं । कर्तव्य-कर्म का नाम  धर्म है । परंतु धर्म का आधार एकमात्र शास्त्र ही है । शास्त्रविहित कर्म का नाम धर्म है और शस्त्र से अविहित (निषिद्ध, अनुचित) कर्म का नाम अधर्म है । धर्म का पालन अधर्म का नाशक है । धर्म हमारे कर्मों का नियंता है । वह हमारे जीवन को वासना-पथ से हटाकर मर्यादित भोग और संवैधानिक, सभ्य-सामाजिक आचरण के पथ पर आरूढ़ करता है । प्रत्येक समाज में प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक अवश्य करणीय धर्म होता है । इस प्रकार अधर्म से निवृत्त करने के कारण और कर्म का शोधक होने के कारण धर्म वेदांत का परम्परा साधन है ।

धर्म के अंतर्गत उपासना सहकारी साधन भी है और स्वतंत्र परम्परा साधन भी है । उपासना से धर्म वृद्धि को प्राप्त होता है और धार्मिक व्यक्ति की उपासना में सहज रूचि होती है । उपासना से अंतःकरण में सत्त्वगुणी वासनाओं की वृद्धि होती है है तथा तमोगुणी-रजोगुणी वासनाओं में कमी होती है । वासनाओं की शुद्धि से कर्म भी सहज शुद्ध होता है । इसलिए धर्म के साथ उपासना भी वेदांत का परम्परा साधन है । किंतु धर्म की अपेक्षा उपासना अंतरंग है क्योंकि धर्म का आधार शरीर है तो उपासना का आधार मन है । योग (अष्टांग योगः यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि) भी एक विशिष्ट उपासना है अतः योग भी वेदांत का परम्परा साधन है । उपासना वासना को बाँधती है तो योग मन की चंचलता को दूर करता है किंतु उपासना की अपेक्षा योग अंतरंग है ।

धर्म में बहिर्मुख प्रवृत्ति, उपासना में अंतर्मुख प्रवृत्ति और योग में निवृत्ति रहती है । धर्म में स्पष्ट कर्ता, उपासना में गौण कर्ता और योग में अज्ञात कर्ता रहता है । अतः धर्म, उपासना और योग कर्तृसाध्य हैं तथा इनसे उत्पन्न होने वाला साध्य या स्थिति कर्मजन्य ही है, इसलिए उस साध्य या स्थिति का टूटना अनिवार्य है । अतः ब्रह्मज्ञान में धर्म, उपासना और योग केवल कर्म-शोधक साधन माने गये हैं । ये क्रियारूप होने से स्वयं बाहर होते हैं किंतु इनका फल भीतर अंतःकरण में होता है। (क्रमशः)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 312

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ब्रह्मज्ञान के अतिरिक्त साधन

(गतांक से आगे)

(2) बहिरंग साधन (करण-शोधक साधन)– विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति (शम, दम, तितिक्षा, उपरति, श्रद्धा तथा समाधान अर्थात् अपनी बुद्धि को समस्त बाह्य पदार्थों एवं विषयों से हटाकर केवल ब्रह्म में ही स्थिर करना ।) और मुमुक्षा – ये जो साधन चतुष्टय हैं वे बहिरंग साधन कहलाते हैं । परम्परा साधनों से तो ये अंतरंग हैं परंतु श्रवण-मनन-निदिध्यासन की अपेक्षा ये बहिरंग हैं। अतः इनकी गिनती बहिरंग साधनों में ही है । अंतःकरण में स्थित अविवेक, भोगासक्ति आदि दोषों को नष्ट करने के कारण साधन-चतुष्टय को करण-शोधक साधन माना जाता है । दोष जिस अंतःकरण में निवास करते हैं उस अंतःकरण की सफाई के लिए ही उसी में ये साधन होते हैं । इनमें बाह्य पदार्थ, क्रिया अथवा भावना नहीं है । ये निवृत्तिरूप हैं । निवृत्ति अपने अधिकरण (आश्रय) से भिन्न नहीं होती । फिर भी ये केवल अंतःकरण के ही शोधक हैं, सद्वस्तु अर्थात् ब्रह्म-तत्त्व के बोधक नहीं हैं । इसीलिए इनका नाम बहिरंग साधन है (आत्म से बाहरी) ।

  1. अंतरंग साधन (पदार्थ शोधक साधन)– वेदांत का गुरुमुख से श्रवण, तदनंतर उसका मनन और निदिध्यासन – ये अंतरंग साधन कहलाते हैं । ये ब्रह्म के स्वरूप को लक्ष्य करते हैं । वेदांत में पद के अर्थ का नाम पदार्थ है । जैसे ‘तत्त्वमसि’ एक वेदांत वाक्य है, जिसका अर्थ है ‘वह तू है ।’ इसमें तत् और त्वम् ये दो पद हैं । इनमें तत्-पदार्थ हैं जगत्कारण ईश्वर और त्वं पदार्थ है कर्ता, भोक्ता, संसारी परिच्छिन्न जीव । ‘असि’ पद इन दोनों पदार्थों की एकता को सूचित करता है । इस प्रकार गुरुमुख से प्रवाहित अमृतवाणी में, वेदांतों में जो उपर्युक्त दो पदार्थों की एकता का निश्चय है, उसे सुनना श्रवण कहलाता है । फिर जैसा सुना है उसके द्वारा अभेद-साधक और भेद-बाधक युक्तियों से ब्रह्म का चिंतन करना ‘मनन’ है । तदनंतर बुद्धिवृत्ति का निश्चय किये हुए अद्वैतार्थ में प्रवाह तथा विजातीय वृत्तियों का तिरस्कार, यह निदिध्यासन की परिपक्व अवस्था ही वेदांत की समाधि है । योग की समाधि या तो परम्परा साधन है अथवा षट्सम्पत्ति के अंतर्गत ‘समाधान’ की कक्षा में होने से बहिरंग साधन के अंतर्गत है ।

श्रवण, मनन और निदिध्यासन ज्ञान के साक्षात् साधन नहीं हैं । परंत ब्रह्म का लक्ष्य कराने के कारण ये अंतरंग साधन कहलाते हैं । ‘वेद का तात्पर्य अभेद ब्रह्म के प्रतिपादन में है या भेद के प्रतिपादन में ?’ – यह जो प्रमाण (वेद) के संबंध में संशय है वह श्रवण से दूर हो जाता है । ‘ब्रह्म का हमारे साथ जो संबंध है वह भेद का ही है, अभेद का नहीं हो सकता’ – यह जो बुद्धि में असम्भावना है, वह मनन से दूर होती है । वेद प्रमाण है ब्रह्म के विषय में । इसलिए वेद प्रमाण है और ब्रह्मात्मैक्य-बोध प्रमेय है । तो प्रमाणगत संशय श्रवण से दूर होता है और प्रमेयगत संशय मनन से दूर होता है । किंतु प्रमाणगत संशय और प्रमेयगत असम्भावना दूर हो जाने पर भी पूर्व-पूर्व के (अविद्याकालीन) अभ्यास के कारण देहादि जागतिक पदार्थों की सत्यता और ब्रह्म की अन्यता का भ्रम पुनः पुनः उपस्थित हो जाता है । इसको ‘विपर्यय’ या ‘विपरीत बुद्धि’ कहते हैं । बुद्धि का यह विपर्यय-दोष निदिध्यासन से दूर होता है । प्रतिबंधरहित साधक श्रवणमात्र से कृतकृत्य हो जाता है क्योंकि जहाँ वस्तु अपरोक्ष होती है वहाँ श्रवणमात्र से अपरोक्ष ज्ञान ही होता है । और जहाँ वस्तु परोक्ष होती है वहाँ श्रवण से परोक्ष ज्ञान ही होता है तथा वस्तु को प्राप्त करने के लिए अन्य साधन अपेक्षित होता है । ब्रह्म सदा अपरोक्ष है क्योंकि वह अपना आत्मा ही है । उसमें अविद्या न कभी थी, न है और न होगी । श्रवण से केवल प्रातीतिक अविद्या की निवृत्ति हो जाती है । हाँ, जिन साधकों में संशय-विपर्ययरूप प्रतिबंध शेष हैं उन्हें श्रवणमात्र से ज्ञान नहीं होता । उन्हें संशय की निवृत्ति के लिए मनन और विपर्यय की निवृत्ति के लिए निदिध्यासन की आवश्यकता रहती है । (क्रमशः)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2019, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 313

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ब्रह्मज्ञान के अतिरिक्त साधन

  1. साक्षात् साधनः अपने-आपको अद्वितीय ब्रह्म न जानना ही अज्ञान है । इस अज्ञान की पूर्णतया निवृत्ति करने वाला जो ज्ञान है वही साक्षात् साधन है । यह सम्पूर्ण साधनों का फल है । आत्मा को ब्रह्म बताने वाले जो श्रुति के महावाक्य हैं1, जैसे – ‘तत्त्वमसि’ (वह तू है), ‘अहं ब्रह्मास्मि’ (मैं ब्रह्म हूँ), ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ (प्रज्ञान अर्थात् ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय की त्रिपुटी से रहित ज्ञान या ज्ञानमात्र आत्मा ब्रह्म है), ‘अयमात्मा ब्रह्म’ (यह आत्मा ब्रह्म है), उनके अखंडार्थ को धारण करने वाली विकल्परहित जो बुद्धिवृत्ति है उसको ही ज्ञान का साक्षात् साधन कहा जाता है । इसी को ब्रह्माकार वृत्ति भी कहते हैं । यह वृत्ति अधिकारी मुमुक्षु को मात्र श्रवण से भी हो सकती है अथवा श्रवण, मनन, निदिध्यासन के परिपाक से भी हो सकती है । यह वृत्ति अज्ञानवृत्ति का नाश कर देती है और स्वयं अपने आश्रय स्वयंप्रकाश ब्रह्म के साथ अभिन्न हो जाती है ।

जो संस्कृत नहीं जानते उनके लिए ब्रह्मविद् गुरु द्वारा अपनी-अपनी बोली अथवा भाषा में बोले गये जो भी इन महावाक्यों के समानार्थक वाक्य हों, जिनसे अपनी पूर्णता का बोध होता हो, जिनमें आत्मा, परमात्मा और जगत का एकत्व प्रतिपादित होता हो, उन्हीं वाक्यों से जन्य प्रज्ञा साक्षात् साधन होगी2 । फिर भी कर्म, करण और पदार्थ का शोधन यथाविधि सम्पूर्ण तो अवश्य होना ही चाहिए ।

इस प्रकार परम्परा साधन तीन हैं- धर्म, उपासना और योग । इन तीनों को एक नाम से कह सकते हैं ‘निष्काम कर्म’ । बहिरंग साधन चार हैं- साधन चतुष्टय (विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति और मुमुक्षा) । अंतरंग साधन तीन हैं- श्रवण, मनन और निदिध्यासन । साक्षात् साधन एक हैः महावाक्यजन्य प्रज्ञा । अविद्यानिवृत्ति के ये कुल 9 साधन हैं । इनमें निष्काम कर्म और साधन-चतुष्टय का संबंध चित्तशुद्धि से है और शेष ज्ञान के वास्तविक साधन हैं । (समाप्त)

1.आत्मा और ब्रह्म की एकता के प्रतिपादक श्रुतिवाक्यों को ‘महावाक्य’ कहते हैं ।

  1. ब्रह्मरूप अहि ब्रह्मवित्, ताकी बानी बेद । भाषा अथवा संस्कृत, करत भेद-भ्रम छेद ।। (वेदांत-सद्ग्रंथ विचारसागरः 3.10)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2019, पृष्ठ संख्या 23, अंक 314

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योगविद्या से भी ऊँची है आत्मविद्या


 

संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

योग में चित्तवृत्ति का निरोध हो जाता है और व्यक्ति समाधिस्थ हो जाता है। समाधि से सामर्थ्य आता है, परंतु जीवत्व बाकी रह जाता है। ‘पातंजल योगदर्शन’ और ‘कुंडलिनी योग’ के अनुसार अभ्यास करने पर मनोजय हो जाता है, समाधि हो जाती है, सामर्थ्य आ जाता है, परंतु जब साधक समाधि से उठता है तो उसे जगत सच्चा लगता है। इसलिए इन समाधियों को लय समाधि कहा गया है।

योगविद्या से मन का लय हो जाता है जबकि आत्मविद्या से मन का बाध हो जाता है।

मन के बाध और लय में क्या फर्क है ?

आपने रस्सी में साँप देखा और आपको भय लगा। किसी ने आपको आश्वासन दिया और वीरता की अच्छी बातें कहीं। आपने सोचा कि यह साँप मेरा क्या बिगाड़ेगा ?’ और आप खाने-पीने में, सुख-सुविधा के साधनों में मस्त हो गये। इस प्रकार रस्सी में दिखने वाले साँप से आपका भय गायब हो गया। परंतु फिर जब रस्सी में दिखने वाली साँप की तरफ गये तो हृदय की धड़कनें बढ़ गयीं… अर्थात् आप कुछ समय के लिए साँप की सत्यता भूल गये, फिर आपने देखा तो वही रस्सी साँप होकर सच्चा भासने लगी। यह है मन का लय होना।

अगर टार्च लेकर आपने रस्सी को देख लिया तो फिर रस्सी दिखेगी तो साँप के आकार की, परंतु साँप आपको सच्चा नहीं लगेगा, क्योंकि वह बाधित हो गया। यह है मन का बाध।

ऐसे ही आत्मविद्या संसाररूपी सर्प को बाधित कर देती है और योगविद्या मन को लय कर देती है तो संसाररूपी सर्प नहीं दिखता। योगविद्या के साथ यदि आत्मविद्या नहीं है तो योगविद्यावाले का पतन हो सकता है। इसलिए ‘गीता’ में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा हैः योगभ्रष्टोऽभिजायते। पतन से तात्पर्य संसारी व्यक्ति की तरह पतन से नहीं, संसारी की जो स्थिति है उससे तो योगविद्यावाले बहुत ऊँचे होते हैं, परन्तु आत्मविद्या की ऊँचाई के आगे वे बच्चे हैं।

जब तक आत्मविद्या को ठीक से नहीं समझते, तब तक धन का, विद्या का, सत्ता का कोई न कोई भूत अंदर घुस जाता है और तुच्छ चीजों का, प्रकृति के गुण-दोषों का आरोप अपने में करके हम लोग एक दायरा बना लेते हैं और उस दायरे से बाहर नहीं निकल पाते। ‘मैं पटेल’, ‘मैं सिंधी’, ‘मैं गुजराती’ – इसी दायरे में उलझकर रह जाते हैं। लोग भले कहें और हम भी ऊपर-ऊपर से ‘हाँ’ कहें, परंतु भीतर से समझना चाहिए कि हम गुजराती भी नहीं, पटेल भी नहीं, सिंधी भी नहीं, हम तो हम ही हैं। जो उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय में एकरस साक्षी है, वह परम सत्ता और हम एक हैं।

जिस सत्ता से यह तन पैदा हुआ, यह मन उत्पन्न हुआ, बुद्धि व अहं उत्पन्न हुए और बदलते रहते हैं, जो इन सबको सत्ता-स्फूर्ति देता है और सबको बदलने की सत्ता देता है, वह चैतन्य आत्मा हम हैं। उसी को तत्त्वरूप से जानना – यह आत्मविद्या का लक्ष्य है।

ऋद्धि-सिद्धि का सामर्थ्य, सफलता आदि सब प्रकृति के अंतर्गत होते हैं। जिन्होंने पानी को घी बना दिया – ऐसे योगियों का नाम मैंने सुना है। बीमार को ठीक कर दिया…. मुर्दे को जिंदा कर दिया…. यह सब ठीक है, परंतु हैं सब प्रकृति के अंतर्गत। तत्त्वज्ञान इससे बहुत ऊँची चीज है। तत्त्वज्ञान पाने के लिए अहं को विसर्जित करना पड़ता है। योगविद्या में मन का लय होता है, एकाग्रता से सामर्थ्य आता है, परंतु ब्रह्मविद्या में मन बाधित हो जाता है और तत्त्व का बोध हो जाता है।

मन आत्मा में लय हो जाय – यह एक बात है और मन बाधित हो जाय – यह दूसरी बात है। जैसे, विश्वासपात्र व्यक्ति ने सर्प से निश्चिंत कर दिया तो आप निश्चिंत हो गये, परंतु विश्वासपात्र व्यक्ति की जगह कोई दूसरा आकर कहने लगे कि ‘भाई ! उन्होंने भले कह दिया कि साँप नहीं काटेगा परंतु आप सँभलना….’ तो उसकी सत्यता मौजूद रहेगी। ऐसे ही योगविद्या में कितने भी ऊँचे चले जाओ तो भी योगी को थोड़े बहुत पतन का भय बना रहता है, परंतु ज्ञानी को कोई भय नहीं क्योंकि ज्ञानी के लिए जगत बाधित हो जाता है। जैसे, टॉर्च से रस्सी को रस्सी जानकर सर्प की सत्यता चली जाती है, ऐसे ही आत्मज्ञानी के लिए जगतरूपी सर्प बाधित हो जाता है। ऐसा ज्ञानवान जगत से निर्लेप हो जाता है।

जैसे, सूर्य अपने स्थान पर रहकर जगत को अपने किरणरूपी हाथ से छू लेता है फिर भी निर्लिप्त रहता है, ऐसे ही वह चैतन्य ‘मैं’ अपनी सत्ता-स्फूर्ति की चेतना के द्वारा सारे शरीरों को छूता है फिर भी निर्लिप्त रहता है। जैसे, सूर्य सब पेड़ पौधों को छूता है और उसी की सत्ता से सब जीते हैं, फलते-फूलते हैं परंतु वे मिट जायें, नष्ट हो जायें फिर भी सूर्यनारायण का बाल तक बाँका नहीं होता। ऐसे सूर्यनारायण में भी जिसकी सत्ता है उस सत्ता का कुछ नहीं बिगड़ता। वही सत्ता आँखों के द्वारा देखती है, कानों के द्वारा सुनती है, जिह्वा के द्वारा बोलती है, मन के द्वारा सोचती है, बुद्धि के द्वारा निर्णय लेती है, वही सत्ता लेकर अहं ‘मैं-मैं’ करता है। वही सत्ता स्वरूप ‘मैं’ हूँ, ऐसा बोध हो जाना यह आत्मविद्या का उद्देश्य है।

जीव का यह स्वभाव है कि वह जिस शरीर में आता है उसी शरीर को ‘मैं मानकर अपनी आयुष्य गिनता है। वास्तव में देखा जाय तो उसने हजारों शरीरों में कई-कई बार जन्म लिये और जिस-जिस शरीर में जन्म लिया उसी को ‘मैं’ मान लिया, परंतु वह वास्तव में ‘मैं’ नहीं है। अगर वह शरीर ‘मैं’ होता तो शरीर चले जाने के बाद ‘मैं’ भी चला जाता…. परंतु ऐसा नहीं है।

आपका वास्तविक स्वरूप कहीं आता-जाता नहीं है – ऐसा ज्ञान हो जाना आत्मविद्या का लक्ष्य है जबकि प्राकृतिक गुण-दोष और पदार्थ आने जाने वाले हैं।

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।

‘ज्ञान के समान कोई पवित्र नहीं है।’

यदि कोई इस आत्मविद्या के विचार में नित्य तल्लीन रहे तो उसकी कामनाएँ, आकर्षण आद दूर हो जाते हैं। कामनाएँ दूर होते ही काम्य  पदार्थ उसकी शरण खोजने आते हैं। फिर उसे यश की इच्छा नहीं होगी तब भी यश उसके पीछे पड़ेगा, उसे धन की इच्छा नहीं होगी तब भी धन उसकी गुलामी करेगा, भोग की  इच्छा नहीं होगी तब भी भोग उसके इर्दगिर्द में मँडरायेंगे। कोई कहे कि ‘महाराज ! हमें भी तो यश, धन, भोग की कोई इच्छा नहीं है फिर भी यश तो नहीं मिला।’ अरे, ‘इच्छा नहीं है’ कहकर भी यश तो चाहते हैं, गहराई में तो इच्छा है ! भीतर से इच्छा हटनी चाहिए। गहराई से इच्छा हटते ही इच्छित पदार्थ आपके इर्दगिर्द मँडराने लगते हैं – यह प्रकृति का नियम है।

जिसके चित्त में कोई इच्छा नहीं होती, उसके चित्त में राग-द्वेष भी कैसे हो सकते हैं ? जिन्होंने अपने हृदय में ठीक से साक्षी होकर अपने स्वरूप को जान लिया, उनको सदैव-सर्वत्र अपना-आपा ही नज़र आता है। ऐसे महापुरुषों के चित्त में राग-द्वेष कहाँ ?

प्रारम्भ में राग-द्वेष से बचा जाता है, बाद में देश-काल की माया से भी बचा जाता है। अमुक देश में, अमुक काल में प्रीति करना – यह भी माया है। यह माया भी आत्मविद्या की प्राप्ति के बाद छूट जाती है।

योग विद्या में तो राग-द्वेष से बचने पर प्रवेश मिल जाता है और पहुँच भी जाती है, परंतु आत्मविद्या तो राग-द्वेष से पार करके, देश-काल से भी पार कर देती है और परब्रह्म-परमात्मस्वरूप में जगा देती है। ऐसी आत्मविद्या की महिमा है !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2002, पृष्ठ संख्या 2-4, अंक 118

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