माँ महँगीबा महानिर्वाण दिवस

हे माँ महँगीबा बड़भागी...तू जो ऐसो लाल जनायो

हमारी पूजनीय अम्मा

ऐसी थीं मेरी माँ !

पूज्य बापू जी की ब्रह्मलीन मातुश्री माँ महँगीबाजी (पूजनीया अम्माजी) के कुछ मधुर संस्मरण स्वयं पूज्य बापू जी के शब्दों में...

"पुत्र में गुरुबुद्धि... पुत्र में परमात्मबुद्धि... ऐसी श्रद्धा मैंने एक देवहूति माता में देखी, जो कपिल मुनि को अपना गुरु मानकर, आत्मसाश्रात्कार करके तर गयीं और दूसरी ये माता मेरे ध्यान में है।" पूज्य बापूजी

माँ बालक की प्रथम गुरु होती है। बालक पर उसके लाख-लाख उपकार होते हैं। व्यावहारिक दृष्टि से मैं उनका पुत्र था फिर भी मेरे प्रति उऩकी गुरुनिष्ठा बड़ी निराली थी !

एक दिन वे दही खा रही थीं तो मैंने कहाः "दही आपके स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं रहेगा।" उनके जाने (महाप्रयाण) के कुछ समय पूर्व उनकी सेविका ने मुझे बताया कि ʹअम्मा जी ने फिर कभी दही नहीं खाया क्योंकि गुरु जी ने मना किया था।"

इसी प्रकार एक अन्य अवसर पर माँ भुट्टा (मकई) खा रही थीं। मैंने कहाः "भुट्टा तो पचने में भारी होता है, बुढ़ापे में देर से पचता है। क्यों खाती हो ?"

माँ ने भुट्टा खाना भी छोड़ दिया। फिर दूसरे तीसरे दिन उन्हें भुट्टा दिया गया तो वे बोलीं- "नहीं गुरु जी ने मना किया है। गुरु जी ʹनाʹ बोलते हैं तो क्यों खायें ?ʹʹ

माँ को आम बहुत पसंद थे किंतु उनके स्वास्थ्य के अनुकूल न होने के कारण मैंने उनके लिए मना कर दिया तो माँ ने आम खाने छोड़ दिये। माँ का विश्वास बड़ा गजब का था ! एक बार कह दिया तो बात पूरी हो गयी। अब ʹउसमें पोषक तत्त्व हैं कि नहीं... मेरे लिए हानिकारक है या अच्छा....ʹ उनको कुछ सुनने की जरूरत नहीं। बापू ने ʹनाʹ बोल दिया तो बात पूरी हो गयी।

श्रद्धा की हद हो गयी। उनकी श्रद्धा इतनी बढ़ गयी, इतनी बढ़ गयी कि उसने विश्वास का रूप धारण कर लिया। श्रद्धा और विश्वास में फर्क है। श्रद्धा सामने वाले की महानता को देखकर होती है जबकि विश्वास अपने-आप होता है। ʹश्री रामचरितमानसʹ में आता हैः

भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।

माँ पार्वती श्रद्धा का और भगवान शिव विश्वास का स्वरूप हैं। ये श्रद्धा और विश्वास जिसमें हैं समझो वह शिव-पार्वतीस्वरूप हो गया। मेरी माँ में पार्वती का स्वरूप तो था ही, साथ ही शिव का स्वरूप भी था। मैं एक बार जो कह देता, उनके लिए वह पत्थर पर लकीर हो जाता।

पुत्र में दिव्य संस्कार डालने वाली पुण्यशीला माताएँ तो इस धरा पर कई हो गयीं। विनोबा भावे की माता रखुमाई देवी ने उनमें बाल्यकाल से ही उच्च संस्कार डाले थे। बाल्यकाल से ही शिवाजी में भारतीय संस्कृति की गरिमा एवं अस्मिता की रक्षा के संस्कार डालने वाली भी उनकी माता जीजाबाई थीं, लेकिन पुत्र को गुरु मानने का भाव... देवहूति के बाद मेरी माँ में मैंने देखा।

मेरी माँ पहले तो मुझे पुत्रवत् प्यार करती थीं लेकिन जब से उनकी मेरे प्रति गुरु की दृष्टि बनी तब से उन्होंने मेरे साथ पुत्र जैसा व्यवहार नहीं किया।

वे अपनी सेविका से कहती थीं- "साँईं जी आये हैं... साँईंजी के भोजन के बाद जो बचा है, वह (प्रसादरूप) में मुझे दे दे..." आदि आदि। एक बार की बात है, माँ ने मुझसे कहाः "प्रसाद दो।"

हद हो गयी ! कैसी अलौकिक श्रद्धा ! पुत्र में इस प्रकार की श्रद्धा कोई साधारण बात है ? उऩकी श्रद्धा को नमन है बाबा !

मेरी ये माता शरीर को जन्म देने वाली माता तो हैं ही, भक्तिमार्ग की गुरु भी हैं, समता में रहने वाली और समाज के उत्थान की प्रेरणा देने वाली माता भी हैं। यही नहीं, इन सबसे बढ़कर इन माता ने एक ऐसी गजब की भूमिका अदा की है कि जिसका उल्लेख इतिहास में कभी-कभी ही देखने को मिलता है। सतियों की महिमा हमने पढ़ी, सुनी, सुनायी... अपने पति को परमात्मा मानने वाली देवियों की सूची भी हम दिखा सकते हैं लेकिन पुत्र में गुरुबुद्धि.... पुत्र में परमात्मबुद्धि... ऐसी श्रद्धा हमने एक देवहूति माता में देखी, जो कपिल मुनि को अपना गुरु मानकर, आत्मसाक्षात्कार करके तर गयीं और दूसरी ये माता मेरे ध्यान में हैं।

एक बार मैं अचानक बाहर चला गया और जब लौटा तो उनकी सेविका ने बताया कि ʹअम्मा जी बात नहीं करती हैं।ʹ

मैंने पूछाः "क्यों?"

सेविकाः "वे कहती हैं कि साँईं मना कर गये हैं कि किसी से बात नहीं करना तो क्यों बातचीत करूँ ?"

मेरे निकटवर्ती कहलाने वाले शिष्य भी मेरी आज्ञा पर ऐसा अमल नहीं करते होंगे, जैसा इन देवीस्वरूपा माता ने अमल करके दिखाया है। माँ की श्रद्धा की कैसी पराकाष्ठा ! मुझे ऐसी माँ का पुत्र होने का व्यावहारिक गर्व है और ब्रह्मज्ञानी गुरु का शिष्य होने का भी गर्व है।"

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