गुरू
भक्ति योग
(Guru Bhakti Yog)
लेखक
श्री स्वामी शिवानन्द सरस्वती
सम्पादक
श्री स्वामी सच्चिदानंद
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आकल्पजन्मकोटीनां
यज्ञव्रततपः
क्रियाः।
ताः
सर्वाः सफला
देवि
गुरूसंतोषमात्रतः।।
'हे देवी ! कल्पपर्यन्त के, करोड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, तप और शास्त्रोक्त क्रियाएँ... ये सब गुरूदेव के संतोष मात्र से सफल हो जाते हैं।'
(भगवान शंकर)
अमानमत्सरो
दक्षो
निर्ममो
दृढ़सौहृदः।
असत्वरोऽर्थ
जिज्ञासुः
अनसूयुः
अमोघवाक्।।
'सत्शिष्य मान और मत्सर से रहित, अपने कार्य में दक्ष, ममता रहित, गुरू में दृढ़ प्रीतिवाला, निश्चलचित्त, परमार्थ का जिज्ञासु, ईर्ष्या से रहित और सत्यवादी होता है।'
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प.पू. संत
श्री आसारामजी
बापूः एक अदभुत
विभूति
गुरूभक्तियोग
एक विज्ञान के
रूप में
गुरूभक्तियोग
के मुख्य सिद्धान्त
ध्यान के
लिए प्राथमिक तैयारियाँ
प्रकरणः
3 - गुरूभक्ति का
विकास
गुरू के प्रति
आध्यात्मिक अभिगम
प्रकरणः
4 - गुरूभक्ति की
शिक्षा
गुरू कृपा
से प्राप्त होने
वाली प्रसन्नता
शिष्यत्व
की कुंजी है ब्रह्मचर्य
और गुरूसेवा।
प्रकरणः
6 - गुरूभक्ति का
अभ्यास
प्रकरणः
7 - साधक के सच्चे
पथप्रदर्शक
गुरू कृपा
से ईश्वर-साक्षात्कार
प्रकरणः
8 - गुरूभक्ति का
विवरण
ईश्वर-साक्षात्कार
का सबसे सरल मार्ग
आध्यात्मिक
प्रवृत्ति की आवश्यकता
प्रकरणः
10 -गुरूभक्ति का
संविधान
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गुरू की आवश्यकता, गुरू के प्रति शिष्य की भक्ति कैसी होनी चाहिए एवं गुरू के मार्गदर्शन के द्वारा साधक शिष्य किस प्रकार आत्म-साक्षात्कार कर सकता है, इस विषय में पूज्य श्री स्वामी शिवानन्दजी महाराज ने अपनी कई पुस्तकों में लिखा है। श्री गुरूदेव के अग्रगण्य शिष्य एवं उनके निजी रहस्यमंत्री श्री स्वामी सच्चिदानंदजी ने सोचा कि स्वामी जी महाराज की पुस्तकों में से गुरू एवं गुरूभक्ति के विषय में जो जो लिखा गया है वह सब संकलित करके अलग पुस्तक के रूप में प्रकाशित करना अत्यंत आवश्यक है। अतः उन्होंने यह 'गुरूभक्तियोग' पुस्तक का सम्पादन किया।
आध्यात्मिक मार्ग में विचरने वाले साधकों के लिए यह पुस्तक बहुत ही उपयोगी है, इतना ही नहीं, एक आशीर्वाद के समान है।
सदगुरूदेव के कृपा-प्रसादरूप यह पुस्तक आपको अमरत्व, परम सुख और शान्ति प्रदान करे यही अभ्यर्थना......
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स्वामी
शिवानन्द
कर्म और कर्त्ता, पदार्थ और व्यक्ति के सम्बन्ध से ज्ञान होता है। वह एक प्रक्रिया है, चेतना नहीं है। बाह्य पदार्थ और आन्तरिक स्थिति की प्रतिक्रिया के द्वारा ही सब प्रक्रिया प्रकट होती है। मनुष्य में ज्ञान का उदभव यह ऐसी ही प्रतिक्रिया के द्वारा घटित एक रहस्यमय प्रक्रिया है। मूलतः ज्ञान सार्वत्रिक है और उसके लिए कोई प्रक्रिया आवश्यक नहीं है। परन्तु ज्ञान का उदय माने भावातीत चेतना नहीं अपितु सम्बन्धित व्यक्ति में ज्ञान का उदय है। सर्वोच्च ज्ञान को स्वरूपज्ञान-. अपने सत्य अस्तित्व के बोध विषयक ज्ञान कहा जाता है। जीव में इस स्वरूपज्ञान का उदय मन की वृत्तियों के द्वारा अभिव्यक्ति की सापेक्ष प्रक्रिया से होता है। इस प्रकार उदय की प्रक्रिया के दौरान ज्ञान वृत्तिज्ञान के रूप में होता और वृत्तिज्ञान निश्चित रूप से चेतना की देश एवं काल से बद्ध अवस्था है।
मानसशास्त्र जिसे ज्ञान कहता है वह वृत्तिज्ञान है। उसकी प्रबलता, व्यापकता और गहनता अलग-अलग हो सकती है। वृत्तिज्ञान बाह्य कर्म और कर्त्ता, पदार्थ और व्यक्ति के सम्बन्ध के सिवाय उत्पन्न नहीं हो सकता। इस विश्व में कोई भी घटना दो घटना या स्थितियों के संयोग से ही घटित हो सकती है और तभी वृत्तिज्ञान उत्पन्न हो सकता है। आध्यात्मिक ज्ञान के क्रमशः आविष्कार के लिए आध्यात्मिक मार्ग का साधक कर्त्ता या व्यक्ति के रूप में माना जा सकता है। अब दूसरी वस्तु या व्यक्ति कर्म के रूप में आवश्यक है।
जब ऐच्छिक अनुशासन और एकाग्रता के द्वारा अपने मन की निर्मलता बढ़ती है तब भावातीत चेतना के प्रतिबिम्ब के रूप में ज्ञान का आविष्कार होता है। ज्ञान के आविष्कार की मात्रा का फर्क मन की निर्मलता के फर्क के कारण होता है। किसी भी प्रकार के ज्ञान के उदभव के लिए बाह्य साधन, कर्म या क्रिया आवश्यक है। अतः साधक में ज्ञान का आविर्भाव करने के लिए गुरू की आवश्यकता होती है। परस्पर प्रभावित करने की सार्वत्रिक प्रक्रिया के लिए एक दूसरे के पूरक दो भाग के रूप में गुरू-शिष्य हैं। शिष्य में ज्ञान का उदय शिष्य की पात्रता और गुरू की चेतनाशक्ति पर अवलम्बित है। शिष्य की मानसिक स्थिति अगर गुरू की चेतना के आगमन के अनुरूप पर्याप्त मात्रा में तैयार नहीं होती तो ज्ञान का आदान-प्रदान नहीं हो सकता। इस ब्रह्माण्ड मे कोई भी घटना घटित होने के लिए यह पूर्वशर्त है। जब तक सार्वत्रिक प्रक्रिया के एक दूसरे के पूरक ऐसे दो भाग या दो अवस्थाएँ इकट्ठी नहीं होती तब तक कहीं भी, कोई भी घटना घटित नहीं हो सकती।
'आत्म-निरीक्षण के द्वारा ज्ञान का उदय स्वतः हो सकता है और इसलिए बाह्य गुरू की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है.....' यह मत सर्वस्वीकृत नहीं बन सकता। इतिहास बताता है कि ज्ञान की हर एक शाखा में शिक्षण की प्रक्रिया के लिए शिक्षक की सघन प्रवृत्ति अत्यंत आवश्यक है। यदि किसी भी व्यक्ति में, किसी भी सहायता के सिवाय, सहज रीति से ज्ञान का उदय संभव होता तो स्कूल, कॉलेज एवं यूनिवर्सिटिंयों की कोई आवश्यकता नहीं रहती। जो लोग 'शिक्षक की सहायता के बिना ही, स्वतंत्र रीति से कोई व्यक्ति कुशल बन सकता है......' ऐसे गलत मार्ग पर ले जाने वाले मत का प्रचार प्रसार करते हैं वे लोग स्वयं तो किसी शिक्षक के द्वारा ही शिक्षित होते हैं। हाँ, ज्ञान के उदय के लिए शिष्य या विद्यार्थी के प्रयास का महत्त्व कम नहीं है। शिक्षक के उपदेश जितना ही उसका भी महत्त्व है।
इस ब्रह्माण्ड में कर्त्ता एवं कर्म सत्य के एक ही स्तर पर स्थित हैं, क्योंकि इसके सिवाय उनके बीच पारस्परिक आदान-प्रदान संभव नहीं हो सकता। अलग स्तर पर स्थित चेतना शक्ति के बीच प्रतिक्रिया नहीं हो सकती। हालांकि शिष्य जिस स्तर पर होता है उस स्तर को माध्यम बनाकर गुरू अपनी उच्च चेतना को शिष्य पर केन्द्रित कर सकते हैं। इससे शिष्य के मन का योग्य रूपांतर हो सकता है। गुरू की चेतना के इस कार्य को शक्ति संचार कहा जाता है। इस प्रक्रिया में गुरू की शक्ति शिष्य में प्रविष्ट होती है। ऐसे उदाहरण भी मिल जाते हैं कि शिष्य के बदले में गुरू ने स्वयं ही साधना की हो और उच्च चेतना की प्रत्यक्ष सहायता के द्वारा शिष्य के मन की शुद्धि करके उसका ऊर्ध्वीकरण किया हो।
दोषदृष्टिवाले लोग कहते हैं.... "अन्तरात्मा की सलाह लेकर सत्य-असत्य, अच्छा-बुरा हम पहचान सकते है अतः बाह्य गुरू की आवश्यकता नहीं है।"
किन्तु यह बात ध्यान में रहे कि जब तक साधक शुचि और इच्छा-वासनारहितता के शिखर पर नहीं पहुँच जाता तब तक योग्य निर्णय करने में अन्तरात्मा उसे सहायरूप नहीं बन सकती।
पाशवी अन्तरात्मा किसी व्यक्ति को आध्यात्मिक ज्ञान नहीं दे सकती। मनुष्य के विवेक और बौद्धिक मत पर उसके अव्यक्त और अज्ञात मन का गहरा प्रभाव पड़ता है। प्रायः सभी मनुष्यों की बुद्धि सुषुप्त इच्छाओं तथा वासनाओं का एक साधन बन जाती है। मनुष्य की अन्तरात्मा उसके अभिगम, झुकाव, रूचि, शिक्षा, आदत, वृत्तियाँ और अपने समाज के अनुरूप बात ही कहती है। अफ्रीका के जंगली आदिवासी, सुशिक्षित युरोपियन और सदाचार की नींव पर सुविकसित बने हुए योगी की अन्तरात्मा की आवाजें भिन्न-भिन्न होती हैं। बचपन से अलग-अलग ढंग से बड़े हुए दस अलग-अलग व्यक्तियों की दस अलग-अलग अन्तरात्मा होती हैं। विरोचन ने स्वयं ही मनन किया, अपनी अन्तरात्मा का मार्गदर्शन लिया एवं मैं कौन हूँ ? इस समस्या का आत्मनिरीक्षण किया और निश्चय किया कि यह देह ही मूलभूत तत्त्व है।
याद रखना चाहिए कि मनुष्य की अन्तरात्मा पाशवी वृत्तियों, भावनाओं तथा प्राकृत वासनाओं की जाल में फँसी हुई हैं। मनुष्य के मन की वृत्ति विषय और अहं की ओर ही जायगी, आध्यात्मिक मार्ग में नहीं मुड़ेगी। आत्म-साक्षात्कार की सर्वोच्च भूमिका में स्थित गुरू में शिष्य अगर अपने व्यक्तित्व का सम्पूर्ण समर्पण कर दे तो साधना-मार्ग के ऐसे भयस्थानों से बच सकता है। ऐसा साधक संसार से परे दिव्य प्रकाश को प्राप्त कर सकता है। मनुष्य की बुद्धि एवं अन्तरात्मा को जिस प्रकार निर्मित किया जाता है, अभ्यस्त किया जाता है उसी प्रकार वे कार्य करते हैं। सामान्यतः वे दृश्यमान मायाजगत तथा विषय वस्तु की आकांक्षा एवं अहं की आकांक्षा पूर्ण करने के लिए कार्यरत रहते हैं। सजग प्रयत्न के बिना आध्यात्मिक ज्ञान के उच्च सत्य को प्राप्त करने के लिए कार्यरत नहीं होते।
'गुरू की आवश्यकता नहीं है और हरएक को अपनी विवेक-बुद्धि तथा अन्तरात्मा का अनुसरण करना चाहिए.....' ऐसे मत का प्रचार प्रसार करने वाले भूल जाते हैं कि ऐसे मत का प्रचार करके वे स्वयं गुरू की तरह प्रस्तुत हो रहे हैं। 'किसी भी शिक्षक की आवश्यकता नहीं है' ऐसा सिखाने वालों को उनके शिष्य मानपान और भक्तिभाव अर्पित करते हैं। भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को बोध दिया कि 'तुम स्वयं ही तार्किक विश्लेषण करके मेरे सिद्धान्त की योग्यता-अयोग्यता और सत्यता की जाँच करो। बुद्ध कहते हैं इसलिए सिद्धान्त को सत्य मानकर स्वीकार कर लो ऐसा नहीं।' किसी भी भगवान की पूजा करना, ऐसा उन्होंने सिखाया लेकिन इसका परिणाम यह आया कि महान गुरू एवं भगवान के रूप में उनकी पूजा शुरू हो गई। इस प्रकार स्वयं ही चिन्तन करना चाहिए और गुरू की आवश्यकता नहीं है' इस मत की शिक्षा से स्वाभाविक ही सीखनेवाले के लिए गुरू की आवश्यकता का इन्कार नहीं हो सकता। मनुष्य के अनुभव कर्त्ता कर्म के परस्पर सम्बन्ध की प्रक्रिया पर आधारित है।
पश्चिम में कुछ लोग मानते हैं कि गुरू पर शिष्य का अवलंबन एक मानसिक बन्धन है। मानस-चिकित्सा के मुताबिक ऐसे बन्धन से मुक्त होना जरूरी है। यहाँ स्पष्टता करना अत्यन्त आवश्यक है कि मानस-चिकित्सा वाले मानसिक परावलम्बन से गुरू-शिष्य का सम्बन्ध बिल्कुल भिन्न है। गुरू की उच्च चेतना के आश्रय में शिष्य अपना व्यक्तित्व समर्पित करता है। गुरू की उच्च चेतना शिष्य की चेतना को आवृत्त कर लेती है और उसका ऊर्ध्वीकरण करती है । तदुपरांत, गुरू-शिष्य के व्यक्तिगत सम्बंध एवं शिष्य का गुरू पर अवलम्बन केवल प्रारंभ में ही होता है। बाद में तो वह परब्रह्म की शरणागति बन जाती है। गुरू सनातन शक्ति के प्रतीक बनते हैं। किसी दर्दी के मानस-चिकित्सक के प्रति परावलम्बन का सम्बन्ध तोड़ना अनिवार्य है, क्योंकि यह सम्बन्ध दर्दी का मानसिक तनाव कम करने के लिए अस्थायी सम्बन्ध है। जब चिकित्सा पूरी हो जाती है तब यह परावलम्बन तोड़ दिया जाता है और दर्दी पूर्व की भाँति अलग और स्वतंत्र हो जाता है। किन्तु गुरू-शिष्य के सम्बन्ध में, प्रारंभ में या अन्त में, कभी भी अनिच्छनीय परावलम्बन नहीं होता। यह तो केवल पराशक्ति पर ही अवलम्बन होता है। गुरू को देह स्वरूप में यह एक व्यक्ति के स्वरूप में नहीं माना जाता है। गुरू पर अवलम्बन शिष्य के पक्ष में देखा जाय तो आत्मशुद्धि की निरंतर प्रक्रिया है जिसके द्वारा शिष्य ईश्वरीय परम तत्त्व का अंतिम लक्ष्य प्राप्त कर सकता है।
कुछ लोग उदाहरण देते हैं कि प्राचीन समय में भी याज्ञवल्क्य ने अपने गुरू वैशंपायन से अलग होकर, किसी भी अन्य गुरू की सहाय के बिना ही, स्वतंत्र रीति से आध्यात्मिक विकास किया था। परन्तु याज्ञवाल्क्य गुरू से अलग हो गये इसका अर्थ यह नहीं है कि वे गुरू के वफादार नहीं थे। गुरू ने क्रोधित होकर कहा था कि उन्होंने दी हुई विद्या लौटाकर आश्रम छोड़कर चले जाओ। फलतः याज्ञवल्क्य मुनि में मानव-गुरू के प्रति अश्रद्धा का प्रादुर्भाव हुआ लेकिन उन्होंने गुरू की खोज करना छोड़ नहीं दिया। उन्होंने गुरू की आवश्यकता का अस्वीकार नहीं किया है और आध्यात्मिक मार्ग में स्वतंत्र रीति से आगे बढ़ा जा सकता है ऐसा भी नहीं माना है। उन्होंने उच्चतर गुरू सूर्यनारायण का आश्रय लिया। जब उन्होंने फिर से ज्ञान प्राप्त किया तब सूर्य की कृपा प्राप्त करने के लिए याज्ञवल्क्य मुनि के दृढ़ संकल्प बल एवं हिम्मत पर प्रसन्न होकर पुराने गुरू ने अपने अन्य शिष्यों को ज्ञान प्रदान करने के लिए प्रार्थना की तब याज्ञवल्क्य मुनि ने अन्य शिष्यों को भी ज्ञान प्रदान किया ।
प्रकृति के विभिन्न स्वरूपों के द्वारा अभिव्यक्त ईश्वर ही सर्वोच्च गुरू है। हमारे इर्दगिर्द जो विश्व है वह हमारे जीवन में बोध देने वाला शिक्षक है। हम अगर प्रकृति की लीला के प्रति सजग रहें तो हमारे समक्ष होने वाली हरएक घटना में गहन रहस्य एवं बोधपाठ मिल जाता है। यह विश्व ईश्वर का साकार स्वरूप है। उसकी लीला गूढ़ और रहस्यमय है। वह लीला आन्तर एवं बाह्य, व्यक्तिलक्षी एवं वस्तुलक्षी, हर प्रकार के जीवन के अनुभवों को समाविष्ट कर लेती है। उसको जानने से, समझने से हमारे अनुभव, भावना एवं समझ का योग्य विकास होता है। परब्रह्म के प्रति हमारे विकास के लिए परिवर्तन संभव बनता है।
अगर हम प्रकृति की उत्क्रान्ति की प्रक्रिया के साथ व्यक्तिगत विकास को नहीं जोड़ेंगे तो केवल याँत्रिक विकास होगा। उसमें व्यक्ति अनिवार्यतः घसीटा जाता है। उस पर किसी व्यक्ति का नियंत्रण नहीं होता। किन्तु विकास जब परम चेतना के अंश स्वरूप होता है और व्यक्ति की अपनी चेतना में घुलमिल जाता है तब योग की प्रक्रिया घटित होती है। व्यक्ति की चेतना अपने अस्तित्व को आत्मा के साथ पहचानकर, अपने आत्मा में वैश्विक उत्क्रान्ति का अनुभव करे- यह प्रक्रिया योग है। अन्य दृष्टि से देखें तो, ब्रह्माण्ड की लीला का लघु स्वरूप में अपनी आत्मा में अनुभव करना योग है। जब यह स्थिति प्राप्त होती है तब व्यक्ति ईश्वरेच्छा की सम्पूर्णतः शरण हो जाता है। अथवा पराशक्ति के नियम उसको इतने तादृश बन जाते हैं कि प्रकृति की घटनाओं एवं मनुष्य की इच्छाओं के बीच संघर्षों का पूर्णतः लोप हो जाता है। उस व्यक्ति की अभिलाषाएँ दैवी इच्छा या प्रकृति की घटनाओं से अभिन्न बन जाती हैं।
गुरू की यह सर्वोच्च विभावना है और हर साधक को यह प्राप्त करना है। व्यक्तिगत गुरू का स्वीकार करना यानी साधक की परब्रह्म में विलीन होने की तैयारी और उस दिशा में एक सोपान। गुरू की विभावना के विकास के तथा साधक की गुरू के प्रति शरणागति के विभिन्न सोपान हैं। फिर भी साधना के किसी भी सोपान पर गुरू की आवश्यकता का इन्कार नहीं हो सकता, क्योंकि आत्म-साक्षात्कार के लिए तड़पते हुए साधक को होने वाली परब्रह्म की अनुभूति का नाम गुरू है।
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ब्रह्मलीन
स्वामी
शिवानन्दजी
जिस प्रकार शीघ्र ईश्वरदर्शन के लिए कलियुग-साधना के रूप में कीर्तन-साधना है उसी प्रकार इस संशय, नास्तिकता, अभिमान और अहंकार के युग में योग की एक नई पद्धति यहाँ प्रस्तुत है-.गुरूभक्तियोग। यह योग अदभुत है। इसकी शक्ति असीम है। इसका प्रभाव अमोघ है। इसकी महत्ता अवर्णनीय है। इस युग के लिए उपयोगी इस विशेष योग-पद्धति के द्वारा आप इस हाड़-चाम के पार्थिव देह में रहते हुए ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन कर सकते हैं। इसी जीवन में आप उन्हें अपने साथ विचरण करते हुए निहार सकते हैं।
साधना का बड़ा दुश्मन रजोगुणी अहंकार है। अभिमान को निर्मूल करने के लिए एवं विषमय अहंकार को पिघलाने के लिए गुरूभक्तियोग उत्तम और सबसे अधिक सचोट साधनमार्ग है। जिस प्रकार किसी रोग के विषाणु निर्मूल करने के लिए कोई विशेष प्रकार की जन्तुनाशक दवाई आवश्यक है उसी प्रकार अविद्या और अहंकार के नाश के लिए गुरूभक्तियोग सबसे अधिक प्रभावशाली, अमूल्य और निश्चित प्रकार का उपचार है। वह सबसे अधिक प्रभावशाली 'मायानाशक' और 'अहंकार नाशक' है। गुरूभक्तियोग की भावना में जो सदभागी शिष्य निष्ठापूर्वक सराबोर होते हैं उन पर माया और अहंकार के रोग का कोई असर नहीं होता। इस योग का आश्रय लेने वाला व्यक्ति सचमुच भाग्यशाली है। क्योंकि वह योग के अन्य प्रकारों में भी सर्वोच्च सफलता हासिल करेगा। उसको कर्म, भक्ति, ध्यान और ज्ञानयोग के फल पूर्णतः प्राप्त होंगे।
इस योग में संलग्न होने के लिए तीन गुणों की आवश्यकता हैः निष्ठा, श्रद्धा और आज्ञापालन। पूर्णता के ध्येय में सन्निष्ठ रहो। संशयी और ढीले ढाले मत रहना। अपने स्वीकृत गुरू में सम्पूर्ण श्रद्धा रखो। अपने मन में संशय की छाया को भी फटकने मत देना। एक बार गुरू में सम्पूर्ण श्रद्धा दृढ़ कर लेने के बाद आप समझने लगेंगे कि उनका उपदेश आपकी श्रेष्ठ भलाई के लिए ही होता है। अतः उनके शब्द का अन्तःकरणपूर्वक पालन करो। उनके उपदेश का अक्षरशः अनुसरण करो। आप हृदयपूर्वक इस प्रकार करेंगे तो मैं विश्वास दिलाता हूँ कि आप पूर्णता को प्राप्त करेंगे ही। मैं पुनः दृढ़तापूर्वक विश्वास दिलाता हूँ।
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ध्यान और योग के अनुभव कैसे प्राप्त किये जाएँ? पूजा पाठ, जप-तप ध्यान करने पर भी जीवन में व्याप्त अतृप्ति का कैसे निवारण करें? ईश्वर में कैसे मन लगायें? अपने अंदर ही निहित आत्मानंद के खजाने को कैसे खोलें? व्यावहारिक जीवन में परेशान करने वाले भय, चिन्ता, निराशा, हताशा, आदि को जीवन से दूर कैसे भगायें? निश्चिंतता, निर्भयता, निरन्तर प्रसन्नता प्राप्त करके जीवन को आनन्द से कैसे महकायें? अपने प्राचीन शास्त्रों में वर्णित आनन्द-स्वरूप ईश्वर के अस्तित्व की झाँकी हम अपने हृदय में कैसे पायें? क्या आज भी यह सब सम्भव है?
हाँ, सम्भव है, अवश्यमेव। मानव को चिंतित बनाने वाले इन प्रश्नों का समाधान साधना के निश्चित परिणामों के द्वारा कराके पिपासु साधकों के जीवन को ईश्वराभिमुख करके उन्हें मधुरता प्रदान करने वाले ऋषि-महर्षि और संत-महापुरूष आज भी समाज में मौजूद है। 'बहुरत्ना वसुन्धरा।' इन संत महापुरूषों की सुगंधित हारमाला में पूज्य संत श्री आसारामजी बापू एक पूर्ण विकसित सुमधुर पुष्प हैं।
अहमदाबाद शहर में, किन्तु शहरी वातावरण से दूर साबरमती नदी की मनमोहक प्राकृतिक गोद में त्वरित गति से विकसित हुए उनके पावन आश्रम के अध्यात्मपोषक वातावरण में आज हजारों साधक जाकर भक्तियोग, नादानुसंधानयोग, ज्ञानयोग एवं कुण्डलिनी योग की शक्तिपात वर्षा का लाभ उठाकर अपने व्यक्तिगत पारमार्थिक जीवन को अधिकाधिक उन्नत एवं आनन्दमय बना रहे हैं। चित्त में समता का प्रसाद पाकर वे व्यावहारिक जीवन-नौका को बड़े ही उत्साह से खे-खेकर निहाल होते जाते हैं।
प्राचीन ऋषि कुलों का स्मरण कराने वाले इस पावन आश्रम में कुण्डलिनी योग की सच्ची अनुभूति कराके आत्मिक प्रेमसागर में डुबकी लगवाने वाले, मानव समुदाय को ईश्वरीय आनन्द में सराबोर करने वाले, तप्त हृदयवाले हजारो संसारयात्रियों के आश्रयदाता, वट-वृक्षतुल्य, प्रेमपूर्ण हृदयवाले, अगमनिगम के औलिया, परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू ने सहज सान्निध्य एवं सत्संग मात्र लोगो को वेदान्त के अमृत-रस का स्वाद चखा रहे हैं।
संत श्री के नाम को सुनकर, उनकी पुस्तकें पढ़कर अनेक सज्जन उनके दर्शन और मुलाकात के लिए कुतूहलवश एक बार उनके आश्रम में आते है, फिर तो वे नियमित आने वाले साधक बनकर योग और वेदान्त के रसिक बन जाते हैं। वे अपने जीवन-प्रवाह को अमृतमय आनन्द-सिन्धु की तरफ बहते हुए देखकर हृदय में गदगदित हो जाते हैं, आनन्द में सराबोर हो जाते हैं।
एक
अजब योगी
आश्रम में जाकर पूज्यश्री के दर्शन और आध्यात्मिक तेज से उद्दीप्त नयनामृत से सिक्त एक सुप्रसिद्ध लेखक, वक्ता, तंत्री सज्जन ने लिखा हैः
"कोई मुझसे पूछे की अहमदाबाद के आसपास कौन सच्चा योगी है ? मैं तुरन्त संत श्री आसारामजी बापू का नाम दूँगा। साबरतट स्थित एक भव्य एवं विशाल आश्रम में विराजमान इन दिव्यात्मा महापुरूष का दर्शन करना, वास्तव में जीवन की एक उपलब्धि है। उनके निकट में पहुँचना, निश्चित ही अहोभाग्य की सीमा पर पहुँचना है।
योगियों की खोज में मैं काफी भटका हूँ, पर्वत और गुफाओं के चक्कर काटने में कभी पीछे मुड़कर देखा तक नहीं। परन्तु प्रभुत्वशाली व्यक्ति के महाधनी ऐसे संत श्री आसारामजी बापू से मिलते ही मेरे अन्तर में प्रतीति सी हो गई कि यहाँ तो शुद्धतम सुवर्ण ही सुवर्ण है।
प्रेम
और प्रज्ञा के
सागर
संत श्री की आँखों में ऐसा दिव्य तेज जगमगाया करता है कि उनके अन्दर की गहरी अतल दिव्यता में डूब जाने की कामना करने वाला क्षणभर में ही उसमें डूब जाता है। मानो, उन आँखों में प्रेम और प्रकाश का असीम सागर हिलौरें ले रहा है।
वे सरल भी इतने कि छोटे-छोटे बालकों की तरह व्यवहार करने लगें। उनमें ज्ञान भी ऐसा अदभुत कि विकट पहेली को पलभर में सुलझा कर रख दें। उनकी वाणी की बुनकार ऐसी कि सजगता के तट पर सोनेवाले को क्षणभर में जगाकर ज्ञान-सागर की मस्ती में लीन कर दें।
अनेक
शक्तियों के
स्वामी
अन्यत्र कहीं देखी न गई हो ऐसी योगसिद्धि मैंने अनेक बार उनमें देखी है। अनेक दरिद्रों को उन्होंने सुख और समृद्धि के सागर में सैर करने वाले बना दिये हैं। उनके चुम्बकीय शक्ति-सम्पन्न पावन सान्निध्य में असंख्य साधकों द्वारा स्वानुभूत चमत्कारों और दिव्य अनुभवों का आलेखन करने लगूँ तो एक विराट भागवत कथा तैयार हो जाय। आगत व्यक्ति के मन को जान लेने की शक्ति तो उनमें इतनी तीव्रता से सक्रिय रहती है मानो समस्त नभमण्डल को वे अपने हाथों में लेकर देख रहे हों।
ऐसे परम सिद्ध पुरूष के सान्निध्य में, उनकी प्रेरक पावन अमृतवाणी में से आपकी जीवन-समस्याओं का सांगोपांग हल आपको अवश्य मिल जायगा।
साबरतट पर स्थित चैतन्य लोक तुल्य संत श्री आसारामजी आश्रम में प्रविष्ट होते ही एक अदभुत शान्ति की अनुभूति होने लगती है। प्रत्येक रविवार और बुधवार को दोपहर 11 बजे से और हररोज शाम 6 बजे से एवं ध्यानयोग शिविरों के दौरान आश्रम में ज्ञानगंगा उमड़ती रहती है। आध्यात्मिक अनुभूतियों के उपवन लहलहाते हैं। आश्रम का सम्पूर्ण वातावरण मानो एक चैतन्य विद्युत्तेज से छलछलाता है। परम चैतन्य मानो स्वयं ही मूर्त्त स्वरूप धारण कर प्रेम और प्रकाश का सागर लहराते है। विद्यार्थियों के लिए आयोजित योग शिविरों में अनेक विद्यार्थियों एवं अध्यापकों ने अपने जीवन विकास का अनोखा पथ पा लिया है।
पूज्य बापूजी का विद्युन्मय व्यक्तित्व, अन्तस्तल की गहराई में से उमड़ती हुई वाणी की गंगधारा और आश्रम के समग्र वातावरण में फैलती हुई दिव्यता का आस्वाद एक बार भी जिस किसी को मिल जाता है वह कदापि उसे भूल नहीं सकता। जो अपने उर के आँगन में अमृत ग्रहण करने के लिए तत्पर हो, उसे अमृत का आस्वाद अवश्य मिल जाता है।
ब्रह्मनिष्ठ, योगसिद्ध, माधुर्य के महासिन्धु समान संत श्री आसाराम जी बापू का सान्निध्य- सेवन करने वाले का और अमृतवर्षा को संग्रहित करने वाले का अल्प पुरूषार्थ भी व्यर्थ नहीं जायेगा ऐसा अनेकों का अनुभव बोल रहा है।
जिस प्रकार पिता या पितामह की सेवा करने से पुत्र या पौत्र खुश होता है इसी प्रकार गुरू की सेवा करने से मंत्र प्रसन्न होता है। गुरू, मंत्र एवं इष्टदेव में कोई भेद नहीं मानना। गुरू ही ईश्वर हैं। उनको केवल मानव ही नहीं मानना। जिस स्थान में गुरू निवास कर रहे हैं वह स्थान कैलास हैं। जिस घर में वे रहते हैं वह काशी या वाराणसी है। उनके पावन चरणों का पानी गंगाजी स्वयं हैं। उनके पावन मुख से उच्चारित मंत्र रक्षणकर्त्ता ब्रह्मा स्वयं ही हैं।
गुरू की मूर्ति ध्यान का मूल है। गुरू के चरणकमल पूजा का मूल है। गुरू का वचन मोक्ष का मूल है।
गुरू तीर्थस्थान हैं। गुरू अग्नि हैं। गुरू सूर्य हैं। गुरू समस्त जगत हैं। समस्त विश्व के तीर्थधाम गुरू के चरणकमलों में बस रहे हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, पार्वती, इन्द्र आदि सब देव और सब पवित्र नदियाँ शाश्वत काल से गुरू की देह में स्थित हैं। केवल शिव ही गुरू हैं।
गुरू और इष्टदेव में कोई भेद नहीं है। जो साधना एवं योग के विभिन्न प्रकार सिखाते है वे शिक्षागुरू हैं। सबमें सर्वोच्च गुरू वे हैं जिनसे इष्टदेव का मंत्र श्रवण किया जाता है और सीखा जाता है। उनके द्वारा ही सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।
अगर गुरू प्रसन्न हों तो भगवान प्रसन्न होते हैं। गुरू नाराज हों तो भगवान नाराज होते हैं। गुरू इष्टदेवता के पितामह हैं।
जो मन, वचन, कर्म से पवित्र हैं, इन्द्रियों पर जिनका संयम है, जिनको शास्त्रों का ज्ञान है, जो सत्यव्रती एवं प्रशांत हैं, जिनको ईश्वर-साक्षात्कार हुआ है वे गुरू हैं।
बुरे चरित्रवाला व्यक्ति गुरू नहीं हो सकता। शक्तिशाली शिष्यों को कभी शक्तिशाली गुरूओं की कमी नहीं रहती। शिष्य को गुरू में जितनी श्रद्धा होती है उतने फल की उसे प्राप्ति होती है। किसी आदमी के पास अगर यूनिवर्सिटी की उपाधियाँ हों तो इससे वह गुरू की कसौटी करने की योग्यतावाला नहीं बन जाता। गुरू के आध्यात्मिक ज्ञान की कसौटी करना यह किसी भी मनुष्य के लिए मूर्खता एवं उद्दण्डता की पराकाष्ठा है। ऐसा व्यक्ति दुनियावी ज्ञान के मिथ्याभिमान से अन्ध बना हुआ है।
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ध्यानमूलं
गुरोर्मूर्तिः
पूजामूलं
गुरोः पदम्।
मंत्रमूलं
गुरोर्वाक्यं
मोक्षमूलं
गुरोः कृपा।।
चार प्रकार के साधन यानी साधनचतुष्टय इस प्रकार हैं-
विवेक = आत्मा-अनात्मा, नित्य-अनित्य, कर्म-अकर्म आदि का भेद समझने की शक्ति।
वैराग्य = इन्द्रियजन्य सुख और सांसारिक विषयों से विरक्ति।
षट्संपत्ति = शम (वासनाओं एवं कामनाओं से मुक्त निर्मल मन की शान्ति), दम (इन्द्रियों पर काबू), उपरति (विषय-विकारी जीवन से उपरामता), तितिक्षा = (हरेक स्थिति में स्थिरता एवं धैर्य के साथ सहनशक्ति), श्रद्धा और समाधान (बाह्य आकर्षणों से अलिप्त मन की एकाग्र स्थिति)।
मुमुक्षत्व = मोक्ष अथवा आत्म-साक्षात्कार के लिए तीव्र आकांक्षा।
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1. फल की आसक्ति रहित शुद्ध हृदय की गुरूभक्ति से मुक्ति प्राप्त होती है।
2. शोक एवं भय से मुक्ति हो ऐसे गुरू के चरणकमल के सान्निध्य में जाओ।
3. अपने दैवी गुरू के चरणकमलों में अपना हृदय रख दो।
4. अपने गुरूद्वार को, गुरूआश्रम को साफ करके सजाने के काम में अपने हाथ को काम में लगाओ।
5. गुरू शिष्य के बीच का सम्बन्ध बहुत ही पवित्र है।
6. जो गुरू की सेवा करता है वह सब गुणों को प्राप्त करता है।
7. अपनी आँखों का उपयोग अपने दिव्य गुरू की छवी (फोटो) को निहारने में करो।
8. अपने मस्तक का उपयोग सदगुरू के पावन चरणों में झुकाने के लिए करो।
9. हे मनुष्य ! गुरू के चरणकमलों का आश्रय ले। काम, आसक्ति, अभिमान आदि को त्याग दे, क्योंकि वे गुरूसेवा में मुख्य विघ्न हैं।
10. कोई भी तृष्णा से रहित, भक्तिभावपूर्वक गुरू की भक्ति करो तो आपको उनकी कृपा प्राप्त होगी।
11. अपनी सम्पत्ति, अपने शुभ कर्म, अपना तप आदि अपने पावन गुरू को अर्पण कर दो। तदनन्तर ही उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए आपका हृदय शुद्ध होगा।
12. गुरू एवं संतों के चरणों की धूलि से आपके हृदय को शुद्ध करो। तभी आपका हृदय पवित्र होगा, तभी आप भक्ति कर सकोगे।
13. प्रेम एवं आदर से अपने गुरू एवं संतों की सेवा करो। उनका साक्षात् प्रभु मानो। तभी आप भक्ति कर सकोगे।
14. ‘गुरूसेवायोग’ का अर्थ है गुरू की निःस्वार्थ सेवा।
15. गुरू की सेवा माने मानव जाति की सेवा।
16. गुरूसेवा से मन की अशुद्धि नष्ट होती है। गुरूसेवा हृदयशुद्धि के लिए एक बलवान चीज है। अतः भावनापूर्वक गुरू की सेवा करो।
17. गुरू की सेवा दिव्य प्रकाश, ज्ञान और कृपा को ग्रहण करने के लिए मन को तैयार करती है।
18. गुरूसेवा हृदय को विशाल बनाती है, सब विघ्नों को हटाती है। गुरूसेवा हृदयशुद्धि के लिए एक असरकारक साधना है।
19. गुरू की सेवा मन को सदा प्रगतिशील और चपल रखती है।
20. गुरू की सेवा के कारण दैवी गुण जैसे कि दया, नम्रता, आज्ञापालन, प्रेम, श्रद्धा, भक्ति, धैर्य, आत्मत्याग आदि का विकास होता है।
21. गुरूसेवा से ईर्ष्या, धिक्कार एवं दूसरों से बड़ा होने का भाव नष्ट होता है।
22. जो गुरू की सेवा करता है वह अहंभाव और ममता को जीत सकता है।
23. जो शिष्य गुरू की सेवा करता है वह सचमुच तो अपने आपकी ही सेवा करता है।
24. गुरूसेवायोग के अभ्यास से अवर्णनीय आनन्द और शान्ति प्राप्त होती है।
25. शिष्य जब गुरू के घर रहता हो तब उसे संतोषी जीवन बिताना चाहिए। उसे पूर्णतः आत्मसंयम करना चाहिए।
26. अपने गुरू के समक्ष शिष्य को धीरे से, मधुरता से एवं सत्य बोलना चाहिए। उसे कठोर एवं गलीच शब्दों का उपयोग नहीं करना चाहिए। गुरू के द्वार पर रहकर, गुरू का अन्न खाकर गुरू के समक्ष झूठ बोलना अथवा गुरूभाइयों के साथ वैर रखना यह शिष्य के रूप में असुर होने का चिन्ह है। शिष्य के रूप में निहित ऐसा असुर गुरू-शिष्य परम्परा को कलंकित करता है। गुरू के हृदय को ठेस पहुँचे ऐसा आचरण करने वाला शिष्य अपना ही सत्यानाश करता है। जो गुरू का विरोध करता है वह सचमुच हतभागी है।
कबीरा
निन्दक न मिलो
पापी मिलो
हजार।
एक
निन्दक के
माथे पर लाख
पापीन को
भार।।
गुरू की एवं गुरू के कार्य की निन्दा करने वाला निन्दक हजारों जन्मों तक मेंढक होकर पड़ा रहता है।
तुलसीदास जी ने ठीक ही कहा हैः
हरिगुरू
निन्दा
सुनहिं जे
काना। होवहिं
पाप गौघात
समाना।।
हरि
गुरू निन्दक
दादूर
होवहिं। जन्म
सहस्र नर
पावहिं सो
हि।।
गुरूभक्तों को, शिष्यों को एवं सतशिष्यों को चाहिए कि वे ऐसे आसुरी वृत्तिवाले, श्रद्धा डिगाने वाले अथवा अपने हल्के व्यवहार से गुरू के नाम को, गुरू के धाम को क्षति पहुँचाने वाले असुरों को सावधान कर दें एवं स्वयं भी उनसे सावधान रहें।
प्रसिद्ध गुरू के द्वार पर ऐसे आसुरी वृत्ति के लोग शिष्य के रूप में घुस जाते हैं। शिष्य तो उसे कहा जा सकता है जो अपना हलका स्वभाव छोड़ने के लिए तत्पर हो, गुरू के सिद्धान्त के मुताबिक चलने के लिए सतत सजग हो। गुरू को या गुरू के द्वार को लांछन लगे ऐसा आचरण कोई भी शिष्य कर ही नहीं सकता। अगर करता हुआ दिखे तो वह शिष्य के रूप में असुर है। सतशिष्यों को ऐसे कपटी शिष्य से सावधान रहना चाहिए।
27. शिष्य को अपने गुरू की निन्दा नहीं करना चाहिए।
28. जो गुरू की निन्दा करता है वह रौरव नर्क में गिरता है।
29. जो खाने के लिए ही जीता है वह पापी है। जो गुरू की सेवा करने के लिए ही खाता है वह सच्चा शिष्य है।
30. जो गुरू का ध्यान करता है उसे बहुत कम भोजन की आवश्यकता रह जाती है।
31. केवल गुरू की कृपा से ही आप अपने मन को नियंत्रण में रख सकते हैं।
32. आप गुरू की कृपा से ही समाधि या अतिचेतना में स्थित हो सकते हैं।
33. विराग, अनासक्ति, इन्द्रिय-विषयक भोगविलासों के प्रति उदासीन हुए बिना किसी को गुरूकृपा नहीं पच सकती।
34. मन के सहकार के सिवाय इन्द्रियों से कुछ नहीं हो सकता। मन को गुरूकृपा से वश में किया जा सकता है।
35. शिष्य जब गुरू की निगरानी में रहता है तब उसका मन इन्द्रिय-विषयक भोगविलासों से विमुख बनने लगता है।
36. गुरूओं एवं संतों के समागम से, धार्मिक ग्रंथों के अभ्यास के, सात्त्विक भोजन से, प्रभु के नाम आदि से सात्त्विक वृत्ति में वृद्धि होती है।
37. राजसी प्रकृति का मनुष्य अपने पूरे हृदय से एवं अन्तःकरण से गुरू की सेवा नहीं कर सकता।
38. प्राणायाम और गुरू के नाम का जप करने से मन अन्तर्मुख होता है।
39. ब्रह्मश्रोत्रिय एवं ब्रह्मनिष्ठ गुरू के पास शास्त्रों का अभ्यास करो, तभी आपको मोक्ष प्राप्त होगा।
40. ब्रह्मचारी का मुख्य कर्त्तव्य अपने गुरू की सेवा करना है।
41. प्रातःकाल में 4 से 6 के बीच गुरू के स्वरूप का ध्यान करो तो उनकी कृपा का अनुभव कर सकोगे।
42. अपने गुरू को फोटो अपने सामने रखो। ध्यान के आसन में बैठो। धीरे-धीरे फोटो पर मन को एकाग्र करो। मन को उनके चरणकमल, हाथ, छाती, गले, सिर, मुख, आँखों आदि पर घुमाओ। आँख की पुतली न हिले इस प्रकार सतत पाँच मिनट तक निहारो। फिर आँखें बन्द करके उसी प्रकार भीतर फोटो को निहारने का प्रयास करो। इस क्रिया का पुनरावर्तन करो। फिर अच्छी तरह ध्यान कर सकोगे।
43. गुरू के स्वरूप का ध्यान करो। ध्यान के दौरान आपको दिव्य आत्मिक आनन्द, रोमांच, शान्ति आदि का अनुभव होगा। कुण्डलिनी शक्ति जागृत होगी, हृदय भाव-विभोर होगा। रोमांच, शान्ति, आदि का अनुभव होगा। रोमांच, हृदय, रूदन आदि अष्टसात्त्विक भाव में आपका मन विचरण करने लगेगा। शिष्य को गुरूमुखता की यह निशानी है। फिर आपको साधना करनी नहीं पड़ेगी, साधना अपने आप होने लगेगी।
44. सांसारिक लोगों का संग, अधिक खाना, अभिमानी एवं राजसी प्रकृति, निद्रा, काम, क्रोध, लोभ – ये सब गुरूकृपा प्राप्त करने में विघ्न हैं।
45. गुरू के स्वरूप का चिन्तन करने में निद्रा, मन की चंचलता, सुषुप्त इच्छाएँ जागना, हवाई किले बाँधना, आलस्य, रोग एवं आध्यात्मिक अभिमान विघ्न हैं।
46. गुरू सब शुभ गुणों के धाम है।
47. शिष्य के लिए गुरू जीवन का सर्वस्व हैं।
48. गुरूभक्ति जन्म, मृत्यु एवं जरा को नष्ट करती है।
49. गुरूभक्ति ईश्वरकृपा प्राप्त करने का एकमात्र साधन है।
50. जो आत्मज्ञान का मार्ग दिखाते हैं वे पृथ्वी पर के सच्चे देव हैं। गुरू के सिवाय यह मार्ग कौन दिखा सकता है ?
51. गुरू प्रभुप्राप्ति का मार्ग दिखाते हैं और शिष्य को सदा के लिए सुखी करते हैं।
52. जो पूर्णता का मार्ग दिखाते हैं वे गुरू हैं।
53. संस्कृत में 'गु' शब्द का अर्थ अन्धकार या अज्ञान है और 'रू' का अर्थ दूर करने वाला है। अन्धकार या आवरणरूपी अज्ञान का नाश करने के कारण वे गुरू कहलाते हैं।
54. आध्यात्मिक गुरू निरन्तर उपदेश से साधक को तालीम देते हैं।
55. गुरू सच्चे शिष्य को प्रभु की ओर से प्राप्त भेंट हैं।
56. तमाम शास्त्र जोर देकर गुरू की आवश्यकता मानते हैं।
57. श्रीराम जैसे दैवी अवतार ने भी श्री वशिष्ठजी को अपना गुरू माना था और उनकी आज्ञाओं का पालन किया था।
58. शिष्य दुनियावी दृष्टि से चाहे कितना भी महान हो, फिर भी गुरू की सहाय के बिना वह निर्वाणसुख का स्वाद नहीं चख सकता।
59. गुरू के चरणकमल की धूलि में स्नान किये बिना केवल तपश्चर्या करने से या दान से या वेदों के अध्ययन से ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता।
60. शिष्य को सदा अपने गुरू की मूर्ति का पूजन करना चाहिए और उनके पवित्र नाम का जप करना चाहिए।
61. साधक को अपने गुरू का या किसी भी संतों का बुरा बोलना या चाहना नहीं चाहिए।
62. साधक चाहे कितना भी महान हो फिर भी उसे गुरू के समक्ष फिजूल बातें नहीं करना चाहिए।
63. गुरू पृथ्वी पर देवदूत हैं, नहीं नहीं, देव ही हैं।
64. गुरू को शिष्य की सेवा या सहाय का आवश्यकता नहीं है किन्तु सेवा के द्वारा विकास करने के लिए वे शिष्य को एक मौका देते हैं।
65. कितने भी महान होने के बजाय भी तमाम संतों, ऋषियों, पैगम्बरों, जगदगुरूओं, अवतारों एवं महापुरूषों के अपने गुरू थे।
66. गुरू सब सदगुण एवं शुभ वस्तुओं की खान हैं।
67. गुरू के सान्निध्य से सब संशय, भय, चिन्ता और दुःख का नाश होता है।
68. गुरू में अचल श्रद्धा और गुरू के प्रति दृढ़ भक्तिभाव से शिष्य सब कार्यों में सिद्धि एवं भौतिक आबादी प्राप्त कर सकता है।
69. भवसागर में डूबते हुए शिष्य के लिए गुरू जीवन संरक्षक नौका है।
70. अगर आपको कोई भी कला सीखना हो तो उस कला के विशेषज्ञ गुरू के पास जाना चाहिए।
71. साधारण प्रकार के भौतिक ज्ञान के बारे में अगर ऐसा हो तो आध्यात्मिक मार्ग में गुरू की आवश्यकता कितनी सारी होनी चाहिए ?
72. गुरू की सहाय के बिना मन को संयम में लाने की कोशिश जो करते हैं वे ऐसे व्यापारी जैसे हैं जिनको अपने जहाज के लिए अच्छा संचालक नहीं मिला है।
73. अध्यात्ममार्ग काँटोवाला और सीधी चढाई वाला मार्ग है। प्रलोभन आपके ऊपर हमला करेंगे। उसमें पतन की संभावना है। अतः ऐसे गुरू के पास जायें जो इस मार्ग के जानकार हों।
74. गुरू का चिन्तन करने से सुख, भीतरी शक्ति, मन की शान्ति एवं आनन्द प्राप्त होता है। गुरूचिन्तन से, गुरूचर्चा से उनके दैवी स्वभाव का संचार हमारे जीवन में होता है।
75. गुरू की प्रशस्ति माने ईश्वर की प्रशस्ति।
76. इस कलियुग में आत्म-साक्षात्कारी सदगुरू की भक्ति के द्वारा ही ईश्वर-साक्षात्कार करना है। सत्यस्वरूप ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए गुरू कलियुग में तारणहार हैं।
77. गुरू से दीक्षा प्राप्त हो जाय, यह बड़े भाग्य की बात है।
78. मंत्रचैतन्य याने मंत्र की गूढ़ शक्ति गुरू की दीक्षा के द्वारा ही जागृत होती है।
79. आज से ही सम्पूर्ण भक्तिभावपूर्वक गुरू की सेवा करने का निश्चय करो।
80. आध्यात्मिकता की खान के समान गुरू की सहाय के बिना आध्यात्मिक प्रगति संभव नहीं है।
81. गुरू साधकों के आगे से माया का आवरण एवं अन्य विक्षेप दूर करते हैं और उनके मार्ग में प्रकाश करते हैं।
82. माता को देव समान जानो, पिता को देव समान जानो, गुरू को देव समान जानो, अतिथि को देव समान जानो।
83. गुरू की सेवा के बिना पवित्र शास्त्रों का अध्ययन करना यह समय का दुर्व्यय है।
84. गुरूदक्षिणा दिये बिना गुरू के पास पवित्र शास्त्रों का अध्ययन करना यह समय का दुर्व्यय है।
85. गुरू की इच्छाओं को परिपूर्ण किये बिना वेदान्त की पुस्तकों, उपनिषदों का एवं ब्रह्मसूत्रों का अभ्यास किया जाय तो उससे कल्याण नहीं होता, ज्ञान नहीं मिलता।
86. लम्बे समय की गुरूसेवा के बाद आपका शुद्ध एवं शान्त मन आपका गुरू बनता है। जैसे पारस के संग से लोह सुवर्ण बनता है वैसे गुरू की चिरकाल पर्यन्त सेवा से आपमें भी गुरूत्व प्रकट होता है।
87. चाहे कितने ही फिलासफी के ग्रंथ पढ़ो, सारे विश्व का प्रवास करके व्याख्यान करो, हजारों वर्ष तक हिमालय की गुफा में रहो, वर्षों तक प्राणायाम करो, जीवनपर्यन्त शीर्षासन करो फिर भी गुरू की कृपा के बिना आपको मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। रामायण में कहा हैः
गुरूबिन
भवनिधि तरहिं
न कोई। चाहे
विरंचि शंकर
सम होई।।
88. आध्यात्मिक गुरू यह नहीं दिखा सकते कि ब्रह्म ऐसा है या वैसा है। प्रत्यक्ष अनुभव होने से पहले शिष्य समझ नहीं पाता कि ब्रह्म कैसा है। किन्तु गुरूकृपा शिष्य को अपनी हृदय गुहा में ही ब्रह्म का प्रत्यक्ष अनुभव गूढ़ रीति से करा सकती है।
89. अपने माता, पिता एवं बुजुर्गों को मान दो।
90. अगर गुरू इजाजत दें तो उनकी पैरचंपी करो।
91. हर एक को अपने ज्ञान से, गुरू की सहाय से वेदान्त ग्रंथों का सच्चा रहस्य प्राप्त करके अपने भीतर ब्रह्म का अनुभव करना चाहिए।
92. साधक को गुरू अथवा आध्यात्मिक पथदर्शक मिले हों फिर भी उसे अपने प्रयासों से ही सब तृष्णाओं, वासनाओं एवं अहंभाव का नाश करना चाहिए और आत्म-साक्षात्कार करना चाहिए।
93. गुरू के चरणकमलों का आश्रय लेने से जो परम आनन्द का अनुभव होता है उसकी तुलना में तीनों लोकों का सुख भी नहीं आ सकता।
94. अपने गुरू के साथ कभी लड़ो मत। उनको कभी कोर्ट में मत ले जाओ।
95. गुरू की आज्ञा का उल्लंघन करने से सीधे नरक में पहुँचते हैं। गुरूद्रोही खुद तो डूबता है, अपने कुल को भी कलंकित करता है।
संत
सताये तीनों
जायी तेज बल
और वंश।
एड़ा
एड़ा केई गया
रावण कौरव
केरो कंस।।
पातकी एवं स्वार्थी लोग सदगुरू के लिए चाहे कैसी भी अफवाहें फैलायें फिर भी सुज्ञ समाज एवं शिष्यगण सदगुरू के पावन सान्निध्य और उनकी मधुर याद से अपना हृदय पावन रखते हैं।
96. गुरू एवं ज्ञानी पुरूषों का सान्निध्य मनुष्य-जीवन में कभी-कभी ही मिल सके ऐसा दुर्लभ मौका है।
97. किसी प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति, विशेषतः आत्मा विषयक मूल्यवान ज्ञान की प्राप्ति गुरू से ही हो सकती है।
98. गुरू की परोपकारी कृपा शिष्य के लिए सर्वस्व है। आत्मज्ञान के द्वार खोलने वाली गुरू की कृपा ही है।
99. आत्मसमर्पण का अर्थ है अपने आपको सम्पूर्णतः गुरू के शरण में छोड़ देना।
100. तृष्णा एवं अहंभाव आत्मसमर्पण में कदम कदम पर विघ्नरूप बनते हैं।
101. भगवान श्रीकृष्ण ने अपने गुरू सांदीपनी के चरणों का सेवन किया था। उन्होंने अपने गुरू की सेवा की थी। वे अपने गुरू के लिए लकड़ियाँ लाते थे। भगवान श्रीराम के गुरू वशिष्ठजी थे जिन्होंने उनको उपदेश दिया। देवों के गुरू बृहस्पति हैं। दैवी आत्माओं में सबसे महान सनतकुमार दक्षिणामूर्ति के चरणों में बैठे थे।
102. साधना का रहस्यमय मार्ग गुरू की कृपा के द्वारा ही जाना जा सकता है।
103. अगर आप सच्चे हृदय से, आतुरतापूर्वक प्रार्थना करेंगे तो ईश्वर गुरू के स्वरूप में आपके पास आयेंगे।
104. अगर आपको 'प्राथमिक चिकित्सा' का ज्ञान पाना हो तो केवल उसके विषयों की चर्चा करके पा सकते हैं, किन्तु आप अगर एम.बी.बी.एस. कहलाना चाहते हैं, फिजीशियन या सर्जन के रूप में काम करना चाहते हैं तो आपको नियमित रूप में छः वर्ष का अभ्यास करना चाहिए। इसी प्रकार आप उपासना, प्रार्थना आदि के द्वारा देवताओं को प्रसन्न करके उनकी कृपा प्राप्त कर सकते हैं। किन्तु प्रत्यक्ष आध्यात्मिक साक्षात्कार के लिए आपको तीन चीजें चाहिएः गुरूसेवा, गुरूभक्ति और गुरूकृपा।
105. गुरू को शिष्य का आत्मसमर्पण और गुरू की कृपा- ये दो चीजें आपस में जुड़ी हुई हैं।
106. शरणागति गुरूकृपा को खींच लाती है और गुरूकृपा से शरणागति सम्पूर्ण बनती है।
107. शिष्य संसारसागर को पार कर सके इसके लिए ब्रह्मवेत्ता गुरू आत्मज्ञान देकर उसका अमूल्य हित करते हैं। यह काम गुरू के सिवाय और कोई नहीं कर सकता।
108. जिसके ऊपर सदैव गुरू की कृपा रहती है ऐसे शिष्य को धन्यवाद है।
109. हिन्दूओं के पुराणों में एवं अन्य पवित्र ग्रंथों में गुरूभक्ति की महत्ता गाने वाले सैंकड़ों उदाहरण भरे हुए हैं।
110. जिसको सच्चे गुरू प्राप्त हुए हैं ऐसे शिष्य के लिए कोई भी वस्तु अप्राप्य नहीं रहती।
111. आप अपने इष्ट देवता को गुरूकृपा के द्वारा ही प्रत्यक्ष मिल सकते हैं।
112. गुरू एक प्रकार का माध्यम हैं जिनके द्वारा ईश्वर की कृपा भक्त के प्रति बहती है।
113.
सच्चे गुरू
की अपेक्षा
अधिक प्रेम
बरसाने वाले, अधिक
हितकारी, अधिक
कृपालु और
अधिक प्रिय
व्यक्ति इस
विश्व में
मिलना दुर्लभ
है।
114. शिष्य के लिए तो गुरू से उच्चतर देवता कोई नहीं है।
115. सचमुच गुरू के सत्संग जितनी उन्नतिकारक दूसरी एक भी वस्तु नहीं है। गुरू की आवश्यकता के सम्बन्ध में प्राचीन काल के तमाम साधु-संन्यासियों का एक समान ही अभिप्राय था।
116. गुरू के बिना साधक अपने लक्ष्य पर पहुँच सकता है ऐसा कहने का अर्थ होता है कि प्रवासी बाढ़ में उफनती हुई तूफानी नदी को नौका की सहायता के बिना ही पार कर सकता है।
117. सत्संग माने गुरू का सहवास। उस सत्संग के बिना मन ईश्वर की ओर मुड़ नहीं सकता।
118.
आत्मवेत्ता
गुरू के साथ
एक क्षण का
सत्संग भी लाखों
वर्षों के तप
की अपेक्षा
कहीं उच्चतर है।
119. हे साधकों ! ‘मनमुखी साधना’ कभी करना नहीं। पूर्ण श्रद्धा और भक्तिभाव से ‘गुरूमुखी साधना’ करो।
120. जिसने गुरू किये हैं वह उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म को जानता है।
121. गुरू साधक जगत के प्रकाशक दीप हैं।
122. निष्ठावान शिष्य के लिए जो गुरू सुख, शान्ति, आनन्द और अमरत्व का मूल एवं धुव्रतारक हैं ऐसे गुरू की जयजयकार हो !
123. आपके गुरू अथवा योग सिखाने वाले आचार्य आपको प्रणाम करें उसके पहले आप उन्हें प्रणाम करो।
124. योग के साधक को अपने गुरू में एवं ईश्वर में श्रद्धा और भक्तिभाव होना जरूरी है।
125. उसे गुरू के उपदेश में एवं पवित्र शास्त्रों में श्रद्धा होना जरूरी है।
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1. साधक अगर श्रद्धा एवं भक्तिभाव से अपने गुरू की सेवा नहीं करेगा तो उसके तमाम व्रत, तप कच्चे घड़े में से पानी की तरह टपककर बह जाएँगे।
2. मन एवं इन्द्रियों का संयम, गुरूभगवान का ध्यान, गुरू की सेवा में धैर्य, सहन शक्ति, आचार्य के प्रति भक्तिभाव, संतोष, दया, स्वच्छता, सत्यवादिता, सरलता, गुरू की आज्ञा का पालन.... ये सब अच्छे शिष्य के लक्षण हैं।
3. सत्य के साधक को मन एवं इन्द्रियों पर संयम रखकर अपने आचार्य के घर रहना चाहिए और खूब श्रद्धा एवं आदरपूर्वक गुरू की निगरानी में शास्त्रों का अभ्यास करना चाहिए।
4. उसे चुस्तता से ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए और आचार्य की पूजा करना चाहिए।
5. शिष्य को चाहिए कि वह आचार्य को साक्षात् ईश्वर के रूप में माने, मनुष्य के रूप में कदापि नहीं।
6. शिष्य को आचार्य के दोष नहीं देखना चाहिए क्योंकि वे तमाम देवों के प्रतिनिधि हैं।
7. शिष्य को गुरू के लिए भिक्षा माँगकर लाना चाहिए एवं खूब श्रद्धा तथा भक्तिभावपूर्वक उन्हें भोजन कराना चाहिए।
8. शिष्य को सब सुखवैभव का विष की त्याग कर देना चाहिए और अपना शरीर गुरू की सेवा में सौंप देना चाहिए।
9. शास्त्रों का अभ्यास पूरा करके शिष्य को चाहिए कि वह गुरू को दक्षिणा दे और उनकी आज्ञा लेकर अपने घर वापस लौटे।
10. जो गुरूपद का उपयोग आजीविका के साधन के रूप में करता है वह धर्म का नाश करने वाला है।
11. ब्रह्मचारी का मुख्य कर्त्तव्य पूरे हृदय से अपने आचार्य की सेवा करना है।
12. गुरू की कृपा प्राप्त करने के लिए उनकी निजि सेवा और उनकी आज्ञा का पालन जितना सहायरूप है उतना सहायरूप तप, यात्रा, भेंट, दान आदि नहीं है।
13. वेद, प्रत्यक्ष ज्ञान, गुरूवचन और अनुमान ये चार ज्ञान के प्रमाण हैं।
14. हरएक कर्म में दुःख के बीज समाविष्ट हैं किन्तु गुरू की सेवा के विषय में ऐसा नहीं है।
15. गुरू के आदेशों का पालन करने के लिए शिष्य को कभी भी धन, भोगविलास, सुखवैभव और अपने शरीर का भी त्याग करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
16. जो तन, मन और धन को गुरू के चरणों में अर्पण कर देता है वह गुरूभक्ति का विकास कर लेता है।
17. जिससे गुरूचरणों के प्रति भक्तिभाव बढ़े वह परम धर्म है।
18. नियम माने गुरूमंत्र का जप, गुरूसेवा के दौरान तपश्चर्या, गुरूवचन में श्रद्धा, आचार्य-सेवन, संतोष पवित्रता, शास्त्र का अध्ययन और गुरूभक्ति अथवा गुरू की शरण।
19. तितिक्षा माने गुरू के आदेशों का पालन करते हुए दुःख सहन करना।
20. त्याग माने गुरू का निषेध हो ऐसे कर्मों का त्याग करना।
21. जो अपने गुरू की आज्ञा का पालन नहीं करता तथा गुरू की सेवा नहीं करता वह मूर्ख है।
22. भगवान श्रीकृष्ण उद्धवजी से कहते हैं- "दुष्प्राप्य मनुष्यदेह मजबूत नौका जैसी है। गुरू उस नौका के कर्णधार हैं। वे नौका को संभालते हैं। उस नौका को चलाने वाला मैं (कृष्ण) अनुकूल पवन हूँ।" जो मनुष्य ऐसी नौका और ऐसे साधन से भवसागर पार करने का प्रयत्न नहीं करता वह सचमुच आत्मघातक है।
23. मनुष्य अनादि अज्ञान के प्रभाव में होने के कारण गुरू की सहाय के बिना आत्म-साक्षात्कार नहीं कर सकता।
24. गुरू जो कहते हैं उसमें कुछ गलत हो सकता है ? नहीं…उसके पीछे कोई कारण अवश्य होता है। मनुष्यबुद्धि वहाँ पहुँच नहीं पाती।
25. गुरू की निजी सेवा सर्वोच्च प्रकार का योग है।
26. गुरू की निजी सेवा करने से शिष्य अपने मन को वश में कर सकता है।
27. क्रोध, लोभ, असत्य, क्रूरता, याचना, दंभ, झगड़ा, भ्रम, निराशा, शोक, दुःख, निद्रा, भय, आलस्य.... ये सब तमोगुण हैं, जो अनेक जन्मों के बावजूद भी जीते जी नहीं जा सकते। किन्तु श्रद्धा एवं भक्ति से गुरू की की हुई निजी सेवा इन सब दुर्गुणों का नाश कर देती है।
28. गुरू के वचन में और ईश्वर में श्रद्धा रखना, यह सत्त्वगुण की निशानी है।
29. गुरू के भोजन के बाद जो खुराक बचा हो, वह बहुत सात्त्विक होता है।
30. साधक को विजातीय व्यक्ति का सहवास नहीं करना चाहिए। जो लोग ऐसे सहवास के शौकीन हों उनका संग भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि उससे मन क्षुब्ध होता है तब शिष्य भक्तिभाव और श्रद्धापूर्वक अपने गुरू की सेवा नहीं कर सकता।
31. शिष्य अगर अपने आचार्य की आज्ञा का पालन नहीं करता है तो उसकी साधना व्यर्थ है।
32. बुद्धिमान साधक को तमाम प्रकार के खराब संग से दूर रहना चाहे। उसे संतों एवं गुरू का संग करना चाहिए। उनके संग से वैराग्य विकसित होता है, तमाम वासनाएँ दूर होकर मन शुद्ध बनता है।
33. जैसे अग्नि के पास बैठने से ठण्ड, भय, अन्धकार दूर होता है वैसे ही जो शिष्य गुरू के पास रहता है उसके अज्ञान, मृत्यु का भय तथा सब अनिष्टों का नाश होता है।
34. जो इस संसार-सागर में इधर उधर डूबते उतरते हैं उनके लिए बुद्धिमान गुरू का आश्रय श्रेष्ठ है।
35. सूर्य के पास से केवल एक बाह्य दृष्टि ही प्राप्त होती है किन्तु गुरू के पास से ज्ञान प्राप्त करने के लिए कई प्रकार की कई दृष्टियाँ प्राप्त होती हैं।
36. गुरू इस पृथ्वी पर साक्षात् ईश्वर हैं, सच्चे मित्र एवं विश्वासपात्र बन्धु हैं।
37. "हे भगवान ! हे भगवान ! मैं आपके आश्रय में आया हूँ। मुझ पर दया करो। मुझे जन्म-मृत्यु के सागर से उबारो।" ऐसा कहकर शिष्य को अपने गुरू को दण्डवत प्रणाम करना चाहिए।
38. निरपेक्ष भक्तिभावपूर्वक जो गुरू के चरणों की पूजा करता है उसे सीधी गुरूकृपा प्राप्त होती है।
39. आचार्य से प्राप्त की हुई तथा सेवा से तीक्ष्ण बनी हुई ज्ञानरूप तलवार एवं ध्यान की सहायता से शिष्य मन, वचन, प्राण और देह के अहंकार को काट देता है तथा सब रागद्वेष से मुक्त होकर इस संसार में स्वेच्छापूर्वक विहार करता है।
40. तीव्र गुरूभक्ति के शक्तिशाली शस्त्र से मन को दूषित करने वाली आसक्ति को मूल सहित काट दिया जाय तब तक विषयों का संग त्याग देना चाहिए।
41. गुरू का आश्रय लेकर जो योग का अभ्यास करता है वह विविध अवरोधों से पीछे नहीं हटता।
42. सच्चे शिष्य को अपने गुरू के पवित्र चरणों में किसी भी प्रकार की हिचकिचाहट या शर्म के बिना साष्टांग दंडवत् प्रणाम करना चाहिए। यह उसके सम्पूर्ण आत्मसमर्पण की निशानी है।
43. किसी भी फल की आशा से रहित होकर जो गुरूसेवा और गुरूपूजा में लगा रहता है वह उल्टे मार्ग में नहीं जाएगा। उसे सेवा पूजा का प्रकाश अवश्य प्राप्त होगा।
44. ज्ञान का प्रकाश फैलाने वाली पवित्र गुरूगीता का जो हररोज अभ्यास करता है वही सचमुच विशुद्ध है। उसे ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।
45. जो अपने गुरू के यश में आनन्दित होता है और दूसरों के समक्ष अपने गुरू के यश का वर्णन करने में आनन्द का अनुभव करता है उसे सचमुच गुरू कृपा प्राप्त होती है।
46. परमात्मा और परब्रह्मस्वरूप गुरू की अज्ञाननाशक उपस्थिति में आपके सब संशयों का नाश होगा, जैसे सूर्योदय होते ही ओस की बूँदें नष्ट होती हैं।
47. "हे महान, परम सम्माननीय गुरू ! मैं आदरपूर्वक आपको नमस्कार करता हूँ। मैं आपके चरणकमलों के प्रति अचूक भक्तिभावव कैसे प्राप्त कर सकूँ और आपके दयालु चरणों में मेरा मन हमेशा भक्तिभावपूर्वक कैसे सराबोर रहे यह कृपा करके मुझे कहें।" इस प्रकार कहकर खूब नम्रतापूर्वक एवं आत्मसमर्पण की भावना से शिष्य को चाहिए कि वह गुरू को दण्डवत प्रणाम करे और उनके आगे गिड़गिड़ाए।
48. साक्षात् ईश्वर जैसे सर्वोच्च पद प्राप्त किये हुए गुरू की जय हो ! गुरू का यश गाने वाले धर्मशास्त्रों की जय हो ! जिसने केवल ऐसे गुरू का ही आश्रय लिया है ऐसे सच्चे शिष्य की जय हो !
49. वादविवाद, बुद्धि, गहन अभ्यास, दान या तप से ईश्वर-साक्षात्कार नहीं होता। वह तो जिसने गुरूकृपा प्राप्त की हो उसको ही होता है।
50. गुरूकृपा का छोटे से छोटा बिन्दू भी इस संसार के कष्टों से मनुष्य को मुक्त करने में पर्याप्त है।
51. केवल गुरूकृपा के द्वारा ही साधक आध्यात्मिक मार्ग में लगा रह सकता है एवं तमाम प्रकार के बन्धनों एवं आसक्तियों को तोड़ सकता है।
52. जो शिष्य अहंकार से भरा हुआ है, जो गुरू के वचनों को सुनता नहीं है उसका आखिर नाश होता है।
53. जिन गुरू को आत्म-साक्षात्कार हुआ है ऐसे गुरू में और ईश्वर में कोई फर्क नहीं है। दोनों समान हैं और एकरूप हैं।
54. गुरू के सत्संग की सहाय के बिना नये नये साधक के कुसंस्कारों में मूलतः परिवर्तन करने की बिल्कुल गुंजाईश नहीं है।
55. गुरू का सहवास साधक के लिए एक सुरक्षित नौका है जो उसे अन्धकार के उस पार निर्भयता के किनारे पर पहुँचाती है।
56. भागवत, रामायण, महाभारत, योगवाशिष्ठ आदि में गुरूभक्ति की महिमा सुन्दर ढंग से गायी गई है। हररोज उन ग्रन्थों का अभ्यास करो। आपको उनमें से प्रेरणा मिलेगी।
57. आत्म-साक्षात्कारी गुरू के लिखे हुए ग्रन्थ परोक्ष सत्संग जैसे हैं। आप जब संपूर्ण श्रद्धा और भक्ति से उनका अध्ययन करते हैं तब आपके पावन गुरू के साथ आपका पूर्ण सायुज्य होता है।
58. जो अपने साधनापथ में सच्चे हृदय से प्रयत्न करता है और जो ईश्वर-साक्षात्कार के लिए तड़पता है ऐसे योग्य शिष्य पर ही गुरू की कृपा उतरती है।
59. आजकल शिष्य लोग ऐशो-आरामवाला जीवन जीते हैं और गुरू की आज्ञा का पालन किये बिना ही उनकी कृपा की आशा रखते हैं।
60. गुरू एवं महात्माओं के सत्संग की महिमा विषयक गुरू नानक, तुलसीदास, शंकराचार्य, व्यास और वाल्मीकि ने ग्रंथ लिखे हैं।
61. पुरंदरदास, निश्चलदास, सहजोबाई, मीराबाई, ज्ञानेश्वर, एकनाथ आदि ने गुरूकृपा की महिमा गाई है।
62. जो लोग नियमित सत्संग करते हैं उनमें ईश्वर और शास्त्रों में श्रद्धा, गुरू एवं ईश्वर के प्रति प्रेम और भक्ति का धीरे-धीरे विकास होता है।
63. गुरू का संग 'माँग और पूर्ति' का प्रश्न है। अगर सच्चे हृदय की माँग हो तो पूर्ति तुरन्त हो जाएगी। कुदरत का यह अटल नियम है।
64. आपको अगर सचमुच ईश्वर-साक्षात्कार की तड़प होगी तो आपके आध्यात्मिक गुरू को आप अपने घर के द्वार पर खड़े पाएँगे।
65. आत्म-साक्षात्कारी महान गुरू का संग प्राप्त करना मुश्किल है, किन्तु वह संग बहुत ही लाभकारी है। आप अगर भक्तिभावपूर्वक, ईमानदारी से प्रार्थना करेंगे तो वे स्वयं आपके पास आयेंगे।
66. इस दुनिया में उत्तम वस्तुएँ अत्यंत अल्प मात्रा में होती है जैसे की कस्तूरी, केसर, रेडियम, चन्दन, विद्वान, सदाचारी पुरूष तथा परोपकारी स्वभाव के लोग बहुत कम होते हैं। अगर ऐसा ही है तो संतों, भक्तों, योगियों, पयगम्बरों, दृष्टाओं तथा आत्म-साक्षात्कारी गुरू के विषय में तो कहना ही क्या ?
67. आप अगर आत्म-साक्षात्कारी गुरू की सेवा करेंगे तो आपके मोक्ष की समस्या हल हो जाएगी।
68. महात्माओं का संग ईश्वरकृपा से ही प्राप्त होता है।
69. गुरू की सेवा करके आशीर्वाद प्राप्त करने की इच्छुक साधकों को कुसंग से अवश्य दूर रहना चाहिए।
70. इस माया का रहस्य कौन जान सकता है ? जो कुसंग का त्याग करते हैं, जो उदार हृदयवाले गुरू की सेवा करते हैं, जो अहंभाव से मुक्त हैं और जो ममता रहित हैं वे इस माया का रहस्य जान सकते हैं।
71. राग-द्वेष से मुक्त ऐसे गुरू का संग करने से मनुष्य आसक्ति रहित बनता है। उसे वैराग्य प्राप्त होता है।
72. उसमें गुरू के चरणकमलों के प्रति भक्ति जागती है।
73. जो भक्तिभावपूर्वक गुरू की सेवा करता है वह जीवन के परम तत्त्व को प्राप्त करता है।
74. साधक का मन किसी भी प्रकार के प्रयत्न बिना ही, गुरू की सेवा से अपने आप एकाग्र होने लगता है।
75. गुरू ग्रंथसाहब कहते हैं कि गुरू के बिना ईश्वरप्राप्ति का मार्ग नहीं मिल सकता। गुरू स्वयं ईश्वर स्वरूप होने के कारण वे साधक को ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में ले जाते हैं। उस मार्ग में वे पथप्रदर्शक बनते हैं। गुरू ही शिष्य को ऐसा अनुभव करा सकते हैं कि वह स्वयं ही ईश्वर हैं।
76. दैवी गुणों का विकास करने वाला महान रहस्य गुरूभक्ति में निहित है।
77. जो शिष्य अपने गुरू के चरणकमलों में सम्पूर्ण आत्म-समर्पण करता है उसे गुरू स्वयं ही सब दैवी गुण प्रदान करते हैं।
78. जो अपने मन पर संयम रखकर ध्यान नहीं कर सकते उनके लिए तो गुरूभक्ति जगाकर गुरूसेवा करना ही एक उपाय है।
79. गुरू शिष्य की मुश्किलों एवं अवरोधों को जानते हैं, क्योंकि वे त्रिकालज्ञानी है। अतः मन में ही उनकी प्रार्थना करें। वे आपके अवरोधों को दूर करेंगे।
80. गुरू के दर्शन अन्धकार का सर्वथा नाश करते है और असीम आनन्द देते है।
81. भगवान आपका कल्याण करें और आप सब गुरूभक्ति जैसे दुर्लभ दैवी गुण का विकास करो।
82. भगवान स्वयं ही आचार्य के रूप में दीखते हैं। वे प्रत्यक्ष मानव के स्वरूप में दर्शन देते हैं अथवा ब्रह्मनिष्ठ महान ज्ञानी के रूप में दर्शन देते हैं।
83. जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त जीवन का एक मात्र हेतु महान गुरू की सेवा करना है।
84. केवल बुद्धिमान व्यक्ति के रूप में एक व्यक्ति की कोई सत्ता नहीं है। उसमें वास्तविकता का ज्ञान नही है। किन्तु जब व्यक्ति गुरू के सम्पर्क में आता है तब उसमें सच्चा ज्ञान, सच्ची शक्ति और सच्चा आनन्द प्रकट होता है। वे गुरू भी ऐसे हों जिन्होंने परमात्मा के साथ तादात्म्य स्थापित किया हो।
85. शिष्य को घास के तिनके से भी अधिक नम्र होना चाहिए। तभी गुरू की कृपा उस पर उतरेगी।
86. जब शिष्य ध्यान नहीं कर सकता हो, जब आध्यात्मिक जीवन का मार्ग नहीं जान सकता हो तब उसे गुरू की सेवा करना चाहिए, उनके आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए। उसके लिए केवल यही उपाय है।
87. मन जब प्रशान्त और स्थिर हो तब आप ध्यान कर सकते हैं। मन अगर क्षुब्ध हो तो जप करें, पुस्तक पढ़ें और श्रद्धा-भक्तिपूर्वक गुरू की सेवा करें। गुरू के साथ मानसिक सम्बन्ध स्थापित करें। तभी आपका जल्दी विकास हो सकेगा।
88. जन्म से लेकर मृत्यु तक सारा जीवन विद्यार्थी अवस्था का समय है। तभी विद्यार्थी मोक्षदायक आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
89. जो शिष्य गुरूकुल में रहते हों उन्हें इस नाशवंत दुनिया की किसी भी चीज की तृष्णा न रहे इसके लिए हो सके उतना प्रयास करना चाहिए।
90. जिसने गुरू प्राप्त किये हैं ऐसे शिष्य के लिए ही अमरत्व के द्वार खुलते हैं।
91. साधकों को इतना ध्यान में रखना चाहिए कि केवल पुस्तकों का अभ्यास करने से या वाक्य रटने से अमरत्व नहीं मिलता। उससे तो वे अभिमानी बन जाते हैं। जिसके द्वारा जीवन का कूटप्रश्न हल हो सके ऐसा सच्चा ज्ञान तो गुरूकृपा से ही प्राप्त हो सकता है।
92. जिन्होंने ईश्वर के दर्शन किये हैं ऐसे गुरू का संग और सहवास ही शिष्य पर गहरा प्रभाव डालता है। तमाम प्रकार के अभ्यास की अपेक्षा गुरू का संग श्रेष्ठ है।
93. गुरू का सत्संग शिष्य का पुनर्जीवन करने वाला मुख्य तत्त्व है। वह उसे दिव्य प्रकाश देता है और उसके लिए स्वर्ग के द्वार खोल देता है।
94. गुरू का संग ही साधक को उसके चारित्र्य के निर्माण में, उसकी चेतना को जागृत करके अपने स्वरूप का सच्चा दर्शन करने में सहाय कर सकता है।
95. गुरू की सेवा, गुरू की आज्ञा का पालन, गुरू की पूजा और गुरू का ध्यान, ये चीजें बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। शिष्य के लिए आचरण करने योग्य उत्तम चीजें हैं।
96. शिष्य को बार-बार देवी सरस्वती की, जिन्होंने आशीर्वाद दिये हों ऐसे गुरू की एवं सर्वोच्च पिता परमेश्वर की प्रार्थना करना चाहिए।
97. गुरू के पास अभ्यास पूरा करने के बाद भी समग्र जीवनपर्यन्त शिष्य को अपने आचार्य के प्रति कृतज्ञता का भाव बनाये रखना चाहिए।
98. गुरू की कृपा तो सदा रहती है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि शिष्य को गुरू के वचनों में श्रद्धा रखना चाहिए और उनके आदेशों का पालन करना चाहिए।
99. बुद्धि को तेजस्वी रखने के लिए स्वाध्याय की आवश्यकता है जिससे बुद्धि उल्टे मार्ग में न जाय या उसका दुरूपयोग न हो। उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण चीज है महात्माओं का सत्संग। अर्थात् हमें गुरू करना चाहिए जिससे हमें निरन्तर मार्गदर्शन प्राप्त होता रहे। वे हमें मार्ग में आने वाले भयस्थान दिखाते रहें। फिर गुरू से प्राप्त ज्ञान की सहायता से शिष्य योग्य पथ पर आगे बढ़ने में शक्तिमान होगा।
100. जीवन के परमतत्त्व रूपी वास्तविकता के सम्पर्क का रहस्य गुरूभक्ति है।
101. सच्चे शिष्य के लिए तो गुरूवचन माने कानून।
102. गुरू का दास बनना माने ईश्वर का सेवक बनना।
103. जिन्होंने प्रभु को निहारा है और जो योग्य शिष्य को प्रभु के दर्शन करवाते हैं वे ही सच्चे गुरू हैं।
104. बनावटी गुरू से सावधान रहना। ऐसे गुरू पूरे के पूरे शास्त्र रट लेते हैं और शिष्यों को उनमें से दृष्टान्त देते हैं लेकिन वे जो उपदेश देते हैं उसका आचरण वे खुद नहीं कर सकते।
105. आलसी शिष्य को गुरूसेवा नहीं मिल सकती।
106. राजसी स्वभाव के शिष्य को लोकसंग्रह करने वाले गुरू के कार्य समझ में नहीं आते।
107. किसी भी कार्य का प्रारंभ करने से पहले शिष्य को गुरू की सलाह लेना चाहिए।
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1. मुक्तात्मा गुरू की सेवा, उन्होंने लिखे हुए पुस्तकों का अभ्यास और उनकी पवित्र मूर्ति का ध्यान, यह गुरूभक्ति विकसित करने का सुनहरा मार्ग है।
2. जो शिष्य नाम, कीर्ति, सत्ता, धन और विषयवासना के पीछे दौड़ता है वह सदगुरू के चरणकमलों के प्रति सच्चा भक्तिभाव नहीं रख सकता।
3. शिक्षा का क्षेत्र बहुत ही विशाल है और ज्ञानप्राप्ति की संभावनाएँ अपार हैं। अतः गुरू की आवश्यकता अनिवार्य है।
4. तैत्तीरीय उपनिषद कहती हैः "अब, ज्ञान के विषय में बात करते हैं। आचार्य प्रथम स्वरूप हैं। शिष्य आखिरी स्वरूप है। ज्ञान इन दोनों के बीच की कड़ी है और उपदेश वह माध्यम है जो समन्वय कराता है। यह ज्ञान का क्षेत्र है।"
5. कठोपनिषद कहती हैः “जिस आत्मा के विषय में भिन्न-भिन्न प्रकार से उपदेश दिया जाता है उस आत्मा विषयक जब निम्न स्तर की बुद्धिवाले व्यक्ति के द्वारा उपदेश दिया जाता है तब सरलता से समझ में नहीं आता। किन्तु जब वही आत्मा के विषय में ब्रह्मनिष्ठ गुरू उपदेश देते हैं तब बिल्कुल सन्देह नहीं रहता, अर्थात् भली प्रकार समझ में आ जाता है। आत्मा तो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है। केवल बौद्धिक कसरत से उसे प्राप्त नहीं किया जा सकता। केवल गुरू कृपा से ही ज्ञान प्राप्त हो सकता है।“
6. शिष्य को आचार्य के घर रहना चाहिए, बारह वर्ष तक सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए तथा कठिन तप करना चाहिए। उसे गुरू की सेवा करना चाहिए तथा उनके मार्गदर्शन में पवित्र शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिए।
7. जो शिष्य को शिक्षा दे सकें और स्वयं जो शिक्षा दें उसको अपने आचरण में भी ला सकें वे ही गुरू हो सकते हैं।
8. मनुष्य को जिस किसी को भी गुरू के रूप में स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए। एक बार गुरू के रूप में स्वीकार कर लेने के बाद किसी भी परिस्थिति में उनका त्याग नहीं करना चाहिए।
9. आत्म-साक्षात्कारी गुरू इस जमाने में सचमुच बहुत दुर्लभ हैं।
10. सचमुच आध्यात्मिक विकास कर लेने वाले व्यक्ति जब तक परमात्मा की आज्ञा नहीं होती तब तक गुरू के रूप में फर्ज अपने सिर पर नहीं लेते।
11. जब योग्य साधक आध्यात्मिक पथ की दीक्षा लेने के लिए गुरू की खोज में जाता है तब उसके समक्ष ईश्वर गुरू के स्वरूप में दिखते हैं और उसे दीक्षा देते हैं।
12. जो मुक्तात्मा गुरू हैं वे एक निराली जाग्रत अवस्था में रहते हैं जिसे तुरीयावस्था कहा जाता है। जो शिष्य गुरू के साथ एकता स्थापित करना चाहता हो उसे संसार की क्षणभंगुर चीजों के प्रति सम्पूर्ण वैराग्य का गुण विकसित करना चाहिए।
13. जो उच्चतर ज्ञान चित्त में से निष्पन्न होता है वह विचारों के रूप में नहीं अपितु शक्ति के रूप में होता है। वह ज्ञान गुरू को शिष्य के प्रति सीधे-सीधे संक्रमित करते है। ऐसे गुरू चित्शक्ति के साथ एकरूप होते हैं।
14. ईश्वर-साक्षात्कार केवल स्वप्रयत्न से ही नहीं हो सकता। उसके लिए गुरू कृपा अत्यन्त आवश्यक है।
15. शिष्य जब उच्चतर दीक्षा के लिए योग्य बनता है तब गुरू स्वयं ही उसे योग के रहस्यों की दीक्षा देते हैं।
16. गुरूश्रद्धा पर्वतों को हिला सकती है। गुरूकृपा चमत्कार कर सकती है। हे वीर ! निःसंशय बनकर आगे बढ़ो।
17. परमात्मा के साथ एकरूप बने हुए महान आध्यात्मिक पुरूष की जो सेवा करता है वह संसार के कीचड़ को पार कर जाता है।
18. अगर आप सांसारिक मनोवृत्तिवाले लोगों की सेवा करेंगे तो आपको सांसारिक लोगों के गुण मिलेंगे। उससे विपरीत, जो सदैव परम सुख में निमग्न रहते हैं, जो सर्व गुणों के धाम हैं, जो साक्षात् प्रेमस्वरूप हैं ऐसे गुरू के चरणकमलों की सेवा करेंगे तो आपको उनके गुण प्राप्त होंगे। अतः उनकी सेवा करो... बस, सेवा करो।
19. अपने गुरू की सेवा करने वाले शिष्य को दूसरों के समक्ष लज्जित नहीं होना चाहिए, संकोच महसूस नहीं करना चाहिए।
20. गुरू ने भोजन न किया हो तब तक आप कभी भोजन मत करें।
21. गुरू का उच्छिष्ट प्रसाद (गुरू की थाली में बचा हुआ प्रसाद) जो ग्रहण करता है वह गुरू के साथ एकत्व का अनुभव करेगा। गुरूकृपा से वह उनके साथ एकरूप हो जायेगा।
22. जब गुरू निद्राधीन हों या आराम करते हों तब अनिवार्य परिस्थितियों में भी उन्हें जगाना नहीं चाहिए, विघ्न नहीं डालना चाहिए।
23. गुरू के साथ हँसी मजाक कभी मत करें। अगर ऐसा करेंगे तो धीरे-धीरे उनके प्रति आदर कम होता जायगा और आपको लगेगा कि मैं उनके बराबर हो गया हूँ।
24. बनावटी गुरू से सावधान रहना। उन्होंने अपनी बरबादी तो की है लेकिन वे आपकी भी बरबादी कर देंगे।
25. गुरू होना अच्छी बात है लेकिन गुरू का त्याग करना बहुत खराब बात है।
26. गुरू होना अच्छी बात है और गहरी श्रद्धा से उनकी सेवा करना यह उससे भी अच्छी बात है।
27. गुरू की आज्ञा का पालन करना ईश्वर की आज्ञा का पालन करने के बराबर है।
28. अनेक गुरू करना खराब बात है। गुरू से धोखा करना और उनकी आज्ञा का उल्लंघन करना बहुत खराब बात है।
29. गुरू की सेवा करने के लिये सदैव तत्पर रहो।
30. गुरू की अथक सेवा करके उनकी कृपा प्राप्त करो।
31. जिसने गुरू कृपा प्राप्त की है वही साधना का रहस्य जानता है।
32. गुरू होना अच्छी बात है। उनकी आज्ञा का पालन करना उससे भी अधिक अच्छी बात है और उनके आशीर्वाद प्राप्त करना श्रेष्ठ है।
33. जो अपने गुरू की सेवा करता है वही परम सत्य के सम्पर्क में आने की कला जानता है।
34. जो मोह से मुक्त बनता है वह कभी भी गुरू का द्रोह नहीं करेगा।
35. गुरू महाराज के जीवित होते हुए जो उनकी गद्दी पर बैठने की इच्छा करता है उसे सीधा नर्क का पासपोर्ट मिल जाता है। यमराज भी ऐसे आदमी से डरते रहते हैं कि शायद वह आदमी मेरी गद्दी भी छीनने का यत्न करेगा।
36. गुरूपूर्णिमा के दिन जो अपने गुरू की पादपूजा करता है उसे सारे वर्ष के दौरान सारे कर्मों में सफलता मिलती है।
37. गुरूभाई पर प्रेम रखना यह गुरूदेव के प्रति प्रेम रखने के बराबर है।
38. गुरूभाई को सहाय करना यह गुरूदेव की सेवा करने के बराबर है।
39. गुरू की सेवा करना माने आत्मोद्धार करना।
40. गुरू की सेवा करना माँ-बाप की सेवा करना।
41. किसी भी चीज में अन्धश्रद्धा होना यह अच्छी बात नहीं है किन्तु ईश्वर के साथ एकत्व स्थापित किये हुए गुरू के वचनों में अन्धश्रद्धा रखना यह मोक्ष का राजमार्ग है।
42. आप कुछ ही समय में एक महान विद्वान बन सकते हैं किन्तु आसानी से सच्चे शिष्य नहीं बन सकते।
43. आजकल कई बनावटी गुरू तथा शिष्य दिखाई देते हैं। आपको गुरू की पसन्दगी करना हो तब ध्यान रखना।
44. शिष्य का कर्त्तव्य है गुरू के पवित्र मुख से जो आज्ञाएँ निकलें उनका पालन करना।
45. गुरू के निवास एवं आश्रम के आसपास के स्थान स्वच्छ एवं व्यवस्थित रखो।
46. गुरू और शिष्य के बीच प्रेमी और प्रेमिका जैसा सम्बन्ध है।
47. कभी-कभी गुरू अपने शिष्य की कसौटी करें या उसे प्रलोभन में डालें तो शिष्य को गुरू के प्रति अपनी श्रद्धा के द्वारा उसका सामना करना चाहिए।
48. शिष्य को कोई भी चीज गुरू से छिपाना नहीं चाहिए। उसे स्पष्टवक्ता और प्रामाणिक बनना चाहिए।
49. रागद्वेष से मुक्त गुरू के चरणकमलों की धूलि बनना यह तो महान सौभाग्य है, दुर्लभ अधिकार है।
50. परमात्मा के साथ एकत्व स्थापित किये हुए आचार्य के पवित्र चरणों की धूलि तो शिष्य के लिए अलौकिक अलंकार है।
51. गुरूसेवा का एक भी दिन चूकना नहीं। किसी भी प्रकार के पंगु बहाने बनाना नहीं।
52. जो अपने को गुरूचरण की धूलि मानता है ऐसा शिष्य धन्य है।
53. जो शिष्य नम्र, सादा, आज्ञाकारी तथा गुरू के चरणकमलों के प्रति भक्तिभाव रखनेवाला है उस पर गुरूकृपा उतरती है।
54. गुरू के कार्य का एक साधन बनो।
55. गुरू जब आपकी गलतियाँ बतावें तब केवल उनका कहा मानो, आपका कार्य उचित हैं ऐसा बचाव मत करो।
56. जो गुरू विशेषज्ञ हों उनके मार्गदर्शन में आसन, प्राणायाम, ध्यान आदि सीखो।
57. जिसकी निद्रा तथा आहार आवश्यकता से अधिक है वह गुरू की रूचि के मुताबिक उनकी सेवा नहीं कर सकता।
58. जो अधिक वाचाल है और शरीर की टीपटाप करना चाहता है वह गुरू की इच्छा के अनुसार सेवा नहीं कर सकता।
59. हररोज भक्तिभाव एवं भक्ति से गुरू के चरणकमलों की पूजा करो।
60. अगर अलौकिक भाव से अपने गुरू की सेवा करना चाहते हो तो स्त्रियों से एवं सांसारिक मनोवृत्तिवाले लोगों से हिलोमिलो नहीं।
61. गुरू के आशीर्वाद का खजाना खोलने के लिए गुरू सेवा गुरूचाबी है।
62. जहाँ गुरू हैं वहाँ ईश्वर हैं, यह बात सदैव याद रखो।
63. जो गुरू की खोज करता है वह ईश्वर की खोज करता है। जो ईश्वर की खोज करता है उसे गुरू मिलते हैं।
64. शिष्य को अपने गुरू के कदम-कदम का अनुसरण करना चाहिए।
65. गुरू की पत्नी को अपनी माता समझकर उनको इस प्रकार मान देना चाहिए।
66. अपने गुरू से क्षणभंगुर पार्थिव सुखों की याचना मत करना। अमरत्व के लिए याचना करो।
67. अपने गुरू से सांसारिक आवश्यकताओं की भीख नहीं माँगना।
68. सच्चे शिष्य के लिए आचार्य के चरणकमल ही एकमात्र आश्रय है।
69. जो कोई अपने गुरू की भावपूर्वक, अहर्निश अथक सेवा करता है उसे काम, क्रोध और लोभ कभी सता नहीं सकते।
70. जो दैवी गुरू के चरणों में आश्रय लेता है वह गुरू की कृपा से आध्यात्मिक मार्ग में आने वाले तमाम विघ्नों को पार कर जाएगा।
71. योग के लिए श्रेष्ठ एकान्त स्थान गुरू का निवास स्थान है।
72. शिष्य के साथ गुरू रहते नहीं हों तो ऐसा एकान्त सच्चा एकान्त नहीं है। ऐसा एकान्त काम और तमस् का आश्रयस्थान बन जाता है।
73. जिस शिष्य को अपने गुरू के प्रति भक्तिभाव है उसके लिये तो आदि से अन्त तक गुरू सेवा मीठे शहद जैसी बन जाती है।
74. गुरू के पवित्र मुख से बहते हुए अमृत का जो पान करता है वह मनुष्य धन्य है।
75. जो सम्पूर्ण भाव से अपने गुरू की अथक सेवा करता है उसे दुनियादारी के विचार नहीं आते। इस दुनिया में वह सबसे अधिक भाग्यवान है।
76. बस, अपने गुरू की सेवा करो, सेवा करो, सेवा करो। गुरूभक्ति विकसित करने का यह राजमार्ग है।
77. गुरू माने सच्चिदानंद परमात्मा।
78. पूज्य आचार्य की सेवा जैसी हितकारी और आत्मोन्नति करने वाली और कोई सेवा नहीं है।
79. सच्चा आराम दैवी गुरू की सेवा में ही निहित है। ऐसा दूसरा कोई सच्चा आराम नहीं है।
80. गुरूकृपा से जीवन का मर्म समझ में आता है।
81. किसी भी प्रकार के स्वार्थी हेतु के बिना आचार्य की पवित्र सेवा जीवन को निश्चित आकार देती है।
82. वेदान्त के थोड़े बहुत पुस्तक स्वतंत्र रीति से पढ़ लेने के बाद यों कहना कि 'न गुरूः न शिष्यः' यह सत्य के खोजी के लिए महान भूल है।
83. कभी-कभी शिष्य के पापों को हर लेने से गुरू को शारीरिक पीड़ा भुगतनी पड़ती है। वास्तव में गुरू कोई भी शारीरिक रोग या पीड़ा नहीं भोगते, किन्तु बहुत भक्तिभाव और तत्परता से गुरू की सेवा करके हृदय को पवित्र बनाने के लिए शिष्य को प्राप्त एक विरल मौका होता है।
84. पुण्यशाली आचार्य का उत्तम विचार शिष्य को पार्थिवता और इन्द्रियविषयक जीवन से ऊपर उठने में सहायरूप है।
85. 'उप' माने 'पास'। 'नि' माने 'नीचे'। 'षद्' माने 'बैठना'। 'उपनिषद्' माने आचार्य के पास नीचे बैठना। शिष्यों का समूह ब्रह्म के सिद्धान्त का रहस्य जानने के लिए आचार्य के पास बैठता है।
86. पवित्र शास्त्रों का गूढ़ रहस्य और प्राचीन सिद्धान्तों का अर्थ केवल पुस्तकें पढ़ने से या पाण्डित्यपूर्ण भाषण सुनने से समझ में नहीं आता। जो भाग्यशाली शिष्य आजीवन गुरू के साथ रहकर उनकी सेवा करते हैं और गुरू के प्रति आदर तथा भक्तिभाव रखते हैं उनको 'तत्त्वमसि', अहं ब्रह्मास्मि, सर्वं खल्विदं ब्रह्म…’ आदि उपनिषदों के कथन अच्छी तरह समझ में आते हैं और उनके अर्थ का साक्षात्कार होता है।
87. गुरूकृपा आत्मा का आन्तरदर्शन कराती है।
88. अनेकबार की बिनती और कठिन कसौटी के बाद ही सदगुरू अपने विश्वसनीय शिष्य को उपनिषद की रहस्य विद्या प्रदान करते हैं।
89. उपनिषद् की परम्परा के मुताबिक आचार्य ब्रह्म-विद्या का रहस्य अपने योग्य पुत्र अथवा तो विश्वसनीय शिष्य को ही दे सकते हैं, और किसी को भी नहीं। फिर वह चाहे कोई भी हो और चारों ओर से पानी से आवृत्त, वैभव से समृद्ध सारी पृथ्वी गुरू को देने के लिए तैयार हो।
90. पावनकारी गुरू को दण्डवत् प्रणाम करने के बाद उनकी ओर पीठ करके शिष्य को जाना नहीं चाहिए।
91. आचार्य यदि वेदान्त को सच्चा अर्थ जानते हों और जीवन की विभिन्न अवस्थाओं को वह किस प्रकार लागू किया जा सकता है वह समझते हों तो एक बालक को भी वे वेदान्त सिखा सकते हैं।
92. जो व्यक्ति पैसे के पीछे दौड़ता है वह गुरू की सम्पत्ति चुराने में भी झिझकता नहीं है।
93. गुरू की सम्पत्ति के प्रति लोलुप मत बनो।
94. जो मुक्तात्मा पावनकारी गुरू हैं वे शान्ति और आनन्दस्वरूप हैं। वे समदृष्टिवाले और स्थितप्रज्ञ हैं। उनके लिए मान-अपमान, स्तुति-निन्दा, सुख-दुःख समान है। वे काम, क्रोध, लोभ, मद और मत्सर से मुक्त हैं। उनको रूचि अरूचि नहीं होती। उन्हें कोई आसक्ति नहीं होती। वे बालक जैसे निर्दोष, फिर भी ज्ञान के भण्डार हैं। वे अपनी उपस्थिति मात्र से या कृपादृष्टि से ही शिष्य के संशय दूर करते हैं।
95. गरीब और बीमार की सुश्रूषा करना, गुरू और माँ-बाप की सेवा करना, दया के उत्तम कार्य करना, गुरूकृपा से आत्मज्ञान पाना..... यह सब सचमुच सर्वश्रेष्ठ पुण्य है।
96. गुरू की निजी सेवा जैसी पावनकारी और कोई चीज नहीं है।
97. मोक्ष के श्रमजनक मार्ग में गुरूकृपा सचमुच विश्वसनीय साथी है।
98. केवल गुरू की शरण में जाने से ही जीवन जीता जा सकता है।
99. गुरूभक्तियोग के अभ्यास से मन को संयम में लाने से कामवासना की शान्ति हो सकती है।
100. गुरूसेवा आपको बिल्कुल स्वस्थ और तन्दुरूस्त रखती है।
101. गुरूभक्तियोग का अभ्यास आपको अमाप एवं अनहद आनन्द देता है।
102. गुरूसेवा अद्वैतभाव या एकरूपता पैदा करती है।
103. गुरूभक्तियोग साधक को चिरायु और अनन्त सुख देता है।
104. गुरूसेवा के बिना वेदान्त का अभ्यास व्यक्ति को तोते जैसा वेदान्ती बनाता है। अतः अपने पूज्य आचार्य की सेवा करो, सेवा करो, सेवा करो।
105. अपने दैनिक जीवन में मार्गदर्शन के लिए प्रत्येक क्षण पूज्य गुरू की प्रार्थना करो।
106. जो प्रार्थना शिष्य के निखालिस, पवित्र हृदय से निकलती है उसे गुरू की ओर से तत्काल प्रत्युत्तर मिलता है।
107. जो साधु-संत पूज्य गुरू हैं उनके पास श्रद्धा, भक्ति और नम्रतापूर्वक जाओ। ज्ञानरूपी औषध लो। सम्पूर्ण आज्ञाकारिता पथ्य है। तभी अज्ञानरूपी रोग पूर्णतः निर्मूल होगा और आप सर्वोच्च सुख का अनुभव कर सकेंगे।
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1. गुरू में श्रद्धा गुरूभक्तियोग की सीढ़ी का प्रथम सोपान है।
2. गुरू में श्रद्धा दैवी कृपा प्राप्त करने के लिए शिष्य को आशा एवं प्रेरणा देती है।
3. गुरू में सम्पूर्ण विश्वास रखो। तमाम भय, चिन्ता और जंजाल का त्याग कर दो। बिल्कुल चिन्तामुक्त रहो।
4. "गुरूवचन में श्रद्धा अखूट बल, शक्ति एवं सत्ता देती है। संशय मत कर। हे शिष्य आगे बढ़।"
5. ज्ञानीजनों के समागम से तथा पुराण और पवित्र शास्त्रों के अध्ययन से गुरू पर श्रद्धा दृढ़ करो।
6. गुरू के उपदेशों में गहरी श्रद्धा रखो। सदगुरू के स्वभाव और महिमा को स्पष्ट रीति से समझो। गुरू की सेवा करके दिव्य जीवन बिताओ। तभी ईश्वर की जीवन्त मूर्ति के समान सदगुरू के पवित्र चरणों में सम्पूर्ण आत्मसमर्पण कर सकोगे।
7. गुरू को विघ्नरूप बनने से तो मरना बेहतर है।
8. गुरू पर भक्तिभाव सब हीन वृत्तियों और आवेगों को दबा देता है तथा सब अवरोधों को दूर करता है।
9. गुरूभक्तियोग में गुरू के प्रति भक्तिभाव सबसे महान चीज है।
10. गुरू की अचल भक्ति ईश्वर-साक्षात्कार करने के लिए बहुत असरकारक पद्धति मानी जाती है।
11. गुरू की महिमा का सतत स्मरण और उनके दिव्य सन्देश को सर्वत्र फैलाना यह गुरू के प्रति सच्चा भक्तिभाव है।
12. आचार्य के पवित्र चरणों की भक्ति फूल है और उनके आशीर्वाद अमर फल है।
13.
जीवन का
ध्येय है- परिणाम
में दुःख
देनेवाली
कुसंगति का
त्याग करना और
अमरत्व देने
वाले पवित्र
आचार्य के चरणकमलों
की सेवा करना।
14. साधक जब इहलोक और परलोक में चिरंतन सुख देने वाले गुरूभक्तियोग का आश्रय लेता है तभी उसका सच्चा जीवन शुरू होता है।
15. "जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख, हर्ष-शोक के अविरत चक्र से मुक्ति नहीं होगी क्या ? हे शिष्य ! सावधान होकर सुन। उसके लिए एक निश्चित उपाय है। नाशवंत इन्द्रियविषयक पदार्थों में से अपना मन हटा ले और इन द्वन्द्वों से पार ले जाने वाले गुरूभक्तियोग का आश्रय ले।"
16. सच्चा एवं स्थायी सुख बाहर के नाशवंत पदार्थों से नहीं अपितु गुरूशरणयोग का आश्रय लेने से मिल सकता है।
17. गुरूसेवायोग, गुरूशरणयोग आदि गुरूभक्तियोग के समानार्थी शब्द हैं। वे सब एक ही हैं।
18. गुरूभक्तियोग का अभ्यास माने गुरू के प्रति गहरा पवित्र प्रेम।
19. आचार्य के पावनकारी चरणकमलों के प्रति पवित्र प्रेम धीरे-धीरे विकसित करना चाहिए। उसके लिए कोई छोटा मार्ग नहीं है।
20. गुरूभक्तियोग सब विज्ञानों में श्रेष्ठ विज्ञान है।
21. सच्चे शिष्य के लिए पावनकारी आचार्य के चरणकमल ध्यान का मुख्य विषय हैं।
22. गुरूभक्तियोग सब योगों का राजा है।
23. गुरूभक्ति के अभ्यास से जब मन की बिखरी हुई शक्ति की किरणें एकत्रित होती हैं तब यह रोग चमत्कार कर देता है।
24. सब महात्माओं तथा आचार्यों ने गुरूभक्तियोग के अभ्यास द्वारा महान कार्य किये हैं। जनार्दन स्वामी के शिष्य एकनाथजी गुरूभक्ति से महान हो गये और उनका शिष्य पूरणपोड़ा अविद्वान होते हुए गुरू का अपूर्ण ग्रन्थ पूर्ण कर सका। शंकराचार्य के शिष्य तोटकाचार्य ने गुरूभक्ति से चमत्कार कर दिखाया। एकलव्य और सहजोबाई गुरू-भक्तियोग के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। और भी असंख्य गुरूभक्तों ने गुरू के दैवी चिन्तन से, मधुर स्मृति से अथवा गुरू के दैवी कार्य में सेवा करके हृदय की ऐसी शीतलता, मन की मधुरता महसूस की है कि किताबें पढ़कर कथा करने वाले या सुनने वाले जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। ऐसी है गुरूभक्ति की महिमा !
25. गुरूभक्तियोग की ‘फिलाँसफी’ (दर्शन) के मुताबिक गुरू और ईश्वर एक और अभिन्न ही हैं। अतः गुरू को सम्पूर्ण आत्मसमर्पण करना अनिवार्य है।
26. गुरूभक्तियोग में अन्य सब योग समाविष्ट हो जाते हैं। गुरूभक्तियोग का आश्रय लिए बिना कोई भी व्यक्ति अन्य कठिन योगों का अभ्यास नहीं कर सकता।
27. गुरूभक्तियोगकी ‘फिलासफी’ आचार्य की उपासना के द्वारा गुरूकृपा करने के लिए मुख्य दृष्टान्त आगे रखती है।
28. गुरूभक्तियोग वेद और उपनिषदों के समय जितना प्राचीन है।
29. हृदय की पवित्रता प्राप्त करने के लिए ध्यान के लिए और आत्म-साक्षात्कार के लिए गुरूभक्तियोग की ‘फिलासफी’ गुरूसेवा पर काफी जोर देती है।
30. जो अपने गुरू की आरोग्यता के लिए लगा रहता है वह मनुष्य धन्य है।
31. गुरूकृपा एक परिवर्तनकारी बल है।
32. जहाँ गुरूकृपा है वहाँ विजय है।
33. आचार्य के पावन चरणों की पूजा करने में और उनके दिव्य आदेशों का पालन करने में ही सच्चा जीवन निहित है।
34. गुरूभक्तियोग के निरन्तर अभ्यास द्वारा मन की चंचल वृत्ति को निर्मूल करो।
35. इस लोक के आपके जीवन का परम ध्येय और लक्ष्य अमरत्व प्रदान करने वाली गुरूकृपा प्राप्त करना है।
36. गुरू की सेवा करते समय श्रद्धा, आज्ञापालन और आत्मसमर्पण, इन तीनों को याद रखो।
37. गुरूसेवा के आदर्श को अपने हृदय में गहरा उतर जाने दो।
38. कुसंग में से अपने मन को अलग करो और जो पूर्णता के प्रतीक हैं, सत्यवेत्ता हैं, सार्वत्रिक प्रेम के केन्द्र और मनुष्य जाति के नम्र सेवक हैं ऐसे गुरू के पावन चरणों में अपने मन को लगा दो।
39. ज्ञानी गुरू की सहायता से सतत आध्यात्मिक अभ्यास जारी रखो।
40. सच्चा साधक गुरूभक्तियोग के अभ्यास में रत रहता है।
41. हो सके उतनी मात्रा में आचार्य के प्रति भक्तिभाव जगाओ। तभी उनके सर्वश्रेष्ठ आशीर्वाद का सुख भोग सकोगे।
42. पावनकारी आचार्य के पवित्र चरणों को निहारते निहारते सच्चे आनन्द की कोई सीमा नहीं रहती।
43. एक भी क्षण गँवाओ नहीं। जीवन थोड़ा है। समय जल्दी से सरक जाता है। मृत्यु कब आ जाय, कोई पता नहीं। उठो, जागो, तत्परतापूर्वक आचार्य की सेवा में लग जाओ।
44. आचार्य की सेवा में डूब जाओ।
45. गुरू पर श्रद्धा और उनके ज्ञान के वचनों से सज्ज बनो।
46. आध्यात्मिक मार्ग तीक्ष्ण धारवाली तलवार का मार्ग है। जिनको इस मार्ग का अनुभव है ऐसे गुरू की अनिवार्य आवश्यकता है।
47. आपके सब अहंभाव का त्याग करो और गुरू के चरणकमलों में अपने आपको सौंप दो।
48. गुरू आपको मार्ग दिखाएँगे और प्रेरणा देंगे। मार्ग में आपको स्वयं ही चलना होगा।
49. जीवन अल्प है। समय जल्दी से सरक रहा है। उठो, जागो, आचार्य के पावन चरणों में पहुँच जाओ।
50. जीवन थोड़ा है। मृत्यु कब आयेगी, निश्चित नहीं है। अतः गंभीरता से गुरू सेवा में लग जाओ।
51. हररोज आध्यात्मिक दैनिकी लिखो। उसमें अपनी प्रगति और निष्फलता की सच्ची नोट लिखो और हर महीने अपने गुरू के पास भेजो।
52. अपने गुरू से ऐसी शिकायत नहीं करना कि आपके अधिक काम के कारण साधना के लिए समय नहीं बचता। नींद के तथा गपशप लगाने के समय में कटौती करो और कम खाओ। तो आपको साधना के लिए काफी समय मिलेगा। आचार्य की सेवा ही सर्वोच्च साधना है।
53. गुरू की सेवा और गुरू के ही विचारों से दुनिया विषयक विचारों को दूर रखो।
54. अपने आध्यात्मिक आचार्य के आगे अपनी शक्ति की बड़ाई नहीं करना या प्रमाण नहीं देना। नम्र और सादे बनो। इससे आध्यात्मिक मार्ग में शीघ्र प्रगति कर सकोगे।
55. आचार्य के कार्यों की निन्दा, आलोचना एवं दोषदर्शन छोड़ देना। उनके प्रत्याघातों से सावधान रहना।
56. आचार्य की सेवा करते समय चाहे कितने भी दुःख आ जाएँ, उन्हें सह लेने की तैयारी रखना।
57. प्रेम एवं अनुकंपा की साक्षात् मूर्तिरूप अपने गुरू के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करके उन्हें स्वीकार करो।
58. आपके गुरू आपसे जितनी अपेक्षा रखें उससे भी अधिक सेवा करो।
59. गुरू के सिवाय और किसी से गाढ़ सम्बन्ध मत रखो। और लोगों से कम हिलोमिलो।
60. गुरू का प्रेम, उनको दयादृष्टि शिष्य की स्थूल प्रकृति का परिवर्तन करके शुद्धीकरण कर सकती है।
61. गुरू की महिमा को पहचानकर उसका अनुभव करो और उनका प्रेम-सन्देश मनुष्य जाति में फैलाओ। ऐसा करने से गुरू की कृपा आप पर उतरेगी।
62. आचार्य के प्रति कर्त्तव्यों में से कभी भी विचलित मत हो।
63. श्रद्धा, विनय एवं भक्तिभावपूर्वक गुरू को खूब मूल्यवान भेंट देनी चाहिए।
64. गुरू को श्रेष्ठ दान दो। गुरू को लापरवाही में दी हुई भेंट भी शिष्य को वापस नहीं लेना चाहिए।
65. गुरू की सेवा करते समय अपने भीतर के हेतुओं पर निगरानी रखो। किसी भी प्रकार के फल, नाम, कीर्ति, सत्ता, धन आदि की आशा के बिना ही गुरू की सेवा करनी चाहिए।
66. आप अपने गुरू के साथ व्यवहार करें तब सच्चाई एवं निष्ठा रखना।
67. गुरूभक्तियोग में ईमानदारी के बिना आध्यात्मिक प्रगति संभव नहीं है।
68. जिस प्रकार चातक पक्षी केवल वर्षा के पानी की आशा में ही जीता है उसी प्रकार केवल गुरू कृपा की आशा से ही शिष्य आध्यात्मिक मार्ग में आगे बढ़ सकता है।
69.
गुरू
के प्रति
आतिथ्यभाव
दिखाना यह
सर्वोच्च
यज्ञ है। गुरूसेवा
रूपी यज्ञ के
पास अश्वमेध
और अन्य महान
यज्ञों की भी
कोई कीमत नहीं
है।
70. गुरूचरण में आश्रय लेकर प्रेरणा पाओ।
71. प्रेम यह गुरू के चरणकमलों के साथ शिष्यों के हृदय को बाँधने वाली सुवर्ण की कड़ी है।
72. ईश्वर का अनुभव करने के लिए गुरूभक्तियोग सबसे सरल, सचोट, त्वरित और सलामत मार्ग है। आप सब गुरूभक्तियोग के अभ्यास के इसी जन्म में ईश्वर-अनुभव प्राप्त करें।
73. गुरू के नाम का शरण लो। सदैव गुरू का नाम रटन करो। कलियुग में गुरू की महिमा गाओ और उनका ध्यान करो। ईश्वर-साक्षात्कार के लिए यह श्रेष्ठ और सरल मार्ग है।
74. मोक्ष अथवा सनातन सुख के द्वार खोलने की गुरूचाबी गुरूभक्ति है।
75. जीवन मधुर फूल है, जिसमें गुरूभक्ति मीठा शहद है।
76. गुरू के चरणों की भक्त सच्चे शिष्य के लिए श्वासोच्छवास के बराबर है।
77. गुरूभक्तियोग के अभ्यास से अमरत्व, सर्वोत्तम शान्ति और शाश्वत आनन्द प्राप्त होता है।
78. गुरू प्रेम और करूणा की मूर्ति है। आपको अगर उनके आशीर्वाद प्राप्त करने हों तो आपको भी प्रेम और करूणा की मूर्ति बनना चाहिए।
79. गुरू के प्रति भक्ति में शिष्य के ह्रदय में स्वार्थ की एक बून्द भी नहीं होना चाहिए।
80. गुरू के प्रति भक्ति अखूट और स्थायी होनी चाहिए।
81. गुरू सेवा के लिए पूरे हृदय की इच्छा ही गुरूभक्ति का सार है।
82. शरीर या चमड़ी का प्रेम वासना कहलाती है, जबकि गुरू के प्रति प्रेम भक्ति कहलाता है। ऐसा प्रेम, प्रेम के खातिर होता है।
83. गुरू के प्रति भक्तिभाव ईश्वर के प्रति भक्तिभाव का माध्यम है।
84. जप, कीर्तन, प्रार्थना, ध्यान, साधुसेवा, अध्ययन और साधुसमागम के द्वारा अपने हृदयकुँज में शुद्ध गुरूभक्ति का फूल विकसित करो।
85. गुरू की सेवा आपके जीवन का एकमात्र लक्ष्य और ध्येय होना चाहिए।
86. स्वयं की अपेक्षा गुरू पर अधिक प्रेम रखो।
87. अपने शत्रुओं पर प्रेम रखो। अपने से निम्न कोटि के लोगों पर प्रेम रखो। प्राणियों के प्रति प्रेम रखो। अपने गुरू पर प्रेम रखो। सब साधु संतों पर प्रेम रखो।
88. गुरू की निःस्वार्थ सेवा, महात्माओं का सत्संग, प्रार्थना और गुरूमंत्र के जप द्वारा धीरे-धीरे विश्वप्रेम का विकास करो।
89. अन्य लोगों ने जो चीज महाप्रयत्न से सिद्ध की हो वह चीज आप गुरू कृपा से प्राप्त कर सकते हैं।
90. धन्य है विनम्र लोगों को, क्योंकि उन्हें तुरन्त गुरू कृपा मिल जाती है। जिन्होंने गुरू की शरण ली है ऐसे पवित्र आत्माओं को धन्यवाद है, क्योंकि उनको परम सुख अवश्य प्राप्त होता है।
91. गुरूकृपा की प्राप्ति के लिए नम्रता राजमार्ग है।
92. आध्यात्मिक आचार्य अथवा सच्चे महापुरूष की प्रथम कसौटी उनकी नम्रता है। यह उनका मूल सदगुण है।
93. सुई के छेद से ऊँट गुजर सके इससे भी अत्यन्त अधिक मुश्किल बात है गुरू कृपा के बिना ईश्वरकृपा प्राप्त करना।
94. जैसे पानी को दूध में डाला जाए तो वह दूध में मिल जाता है और अपना व्यक्तित्व गँवा देता है वैसे सच्चे शिष्य को चाहिए कि वह अपने आपको सम्पूर्णतः गुरू को सौंप दे, उनके साथ एकरूप हो जाय।
95. जैसे छोटे छोटे झरने एवं नदियाँ महान पवित्र नदी गंगा से मिल जाने के कारण खुद भी पवित्र होकर पूजे जाते हैं और अन्तिम लक्ष्य समुद्र को प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार सच्चा शिष्य गुरू के पवित्र चरणों का आश्रय लेकर तथा गुरू के साथ एकरूप बनकर शाश्वत सुख को प्राप्त होता है।
96. बालक बोलना-चलना क्या एक ही दिन में सीखता है ? बोलना-चलना सीखने के लिए बालक को आवश्यक ऐसे माँ-बाप के लम्बे सहवास एवं योग्य निगरानी तथा रस की आवश्यकता नहीं पड़ती क्या ? पड़ती ही है। इसी प्रकार सच्चे और ईमानदार शिष्य को गुरू के साथ लम्बे समय तक रहना चाहिए और तन मन से सब सेवा करनी चाहिए। इस पूरे समय के दौरान सर्वोच्च विद्या सीखने के लिए हृदयपूर्वक ध्यान देना चाहिए और उसमें रस लेना चाहिए। इस प्रकार उसे परम ज्ञान प्राप्त होगा, और किसी प्रकार से नहीं।
97. कल्पवृक्ष, कामधेनु और चिन्तामणि माँगने वाले को उसका मनोवांछित वरदान अवश्य देते ही हैं, इसी प्रकार गुरू भी माँगने वाले को इष्ट वस्तु अवश्य देते हैं। अतः सच्चा शिष्य तो केवल मोक्ष प्राप्त करने के लिए उपनिषद् की महाविद्या ही माँगता है।
98. जिस प्रकार बालक जब धीरे धीरे कदम रखता है और स्वतंत्र रीति से चलने की कोशिश करता है तब कभी कभी गिर पड़ता है और खड़ा होता है। माँ की सहायता की आवश्यकता पड़ने पर उसकी सहायता माँगता है। इसी प्रकार साधना के प्रारंभ के स्तरों में शिष्य को करूणामय गुरू की सहायता एवं मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ती है। अतः उसे वह माँगना चाहिए।
99. सच्चे शिष्य को मोक्ष के लिए तीव्र आकांक्षा होनी चाहिए तथा संभव हों उतनी तमाम रीतियों से वह आकांक्षा प्रकट करनी चाहिए, तभी उसकी इच्छा की पूर्ति करने में गुरू उसे सहायभूत हो सकते हैं। इस आकांक्षा को प्रयत्न कह सकते हैं और गुरू की करूणामय सहाय को माता की वात्साल्मय कृपा कह सकते हैं।
100. सुन्दर ढंग से निर्मित मूर्ति के लिए दो चीजें आवश्यक हैं- एक है अखण्ड, कमीरहित अच्छा संगमरमर का टुकड़ा और दूसरी चीज, कुशल शिल्पी। संगमरमर का टुकड़ा शिल्पी के हाथ में रहना अनिवार्य है जिससे छीनी के द्वारा उसे कुरेदकर सुन्दर मूर्ति बनाया जाये। इसी प्रकार शिष्य को भी चाहिए की वह अपने आपको स्वच्छ और शुद्ध करके बिल्कुल क्षतिरहित संगमरमर के टुकड़े जैसा बनाए और गुरू के कुशल मार्गदर्शन में रख दे, जिससे गुरू छीनी से उसे कुरेदकर प्रभु की दिव्य मूर्ति में परिवर्तित कर सकें।
101. जैसे सूर्योदय होते ही तमाम अन्धकार का तुरन्त नाश होता है वैसे ही गुरूकृपा उतरते ही शिष्य के मन में आवरण और अविद्या का तुरन्त नाश हो जाता है।
102. जिस प्रकार सूर्य की प्रखर किरणों से जला हुआ मनुष्य वृक्ष की शीतल छाया में और दिन भर की गर्मी के बाद शीतल चाँदनी में असीम आनन्द की अनुभूति करता है उसी प्रकार संसार की प्रखर किरणों से जला हुआ और शान्ति के लिए व्याकुल बना हुआ मनुष्य ब्रह्मनिष्ठ गुरू के चरणों में इच्छित शान्ति और आनन्द की अनुभूति करता है।
103. जिस प्रकार चातक पक्षी लम्बे समय तक इन्तजार करने के बाद वर्षा के केवल एक ही जलबिन्दू से अपनी प्यास बुझाता है उसी प्रकार सच्चे शिष्य को अपने गुरू की सेवा करनी चाहिए और उपदेश-वचन का इन्तजार करना चाहिए। इससे उसकी तमाम व्यथाएँ शान्त होंगी और वह सदा के लिए मुक्त हो जाएगा।
104. जैसे अग्नि का स्वभाव ही ऐसा है कि उसके निकट आनेवाली प्रत्येक वस्तु को जलाकर भस्म कर देती है, वैसे ही जो मनुष्य कृपालु गुरू की प्राप्ति कर लेता है उसके किसी भी गुण दोषों को देखे बिना ब्रह्मनिष्ठ गुरू की कृपा उसके तमाम पापों को जलाकर भस्म कर देती है।
105. जो कोई मनुष्य दुःखों से पार होकर सुख एवं आनन्द प्राप्त करना चाहता हो उसे सच्चे अन्तःकरण से गुरूभक्तियोग का अभ्यास करना चाहिए।
106. गुरू के पवित्र चरणों के प्रति भक्तिभाव सर्वोत्तम गुण है। इस गुण को तत्परता एवं परिश्रमपूर्वक विकसित किया जाए तो इस संसार के दुःख और अज्ञान के कीचड़ से मुक्त होकर शिष्य अखूट आनन्द और परम सुख के स्वर्ग को प्राप्त करता है।
107. प्रारंभ में तरंग के रूप में दिखने वाली विषय वृत्तियाँ कुसंग के कारण महासागर का रूप धारण कर लेती है। अतः कुसंग का त्याग करके आचार्य के जीवनरक्षक चरणों का आश्रय लो।
108. अगर आप गुरूसेवा में रममाण रहते हैं तो आप चिन्ताओं को जीत सकते हैं। सब चिन्ताओं का यह अचूक मारण है।
109. उत्तम शिष्य को अपने गुरू पर किसी भी परिस्थिति में सन्देह नहीं लाना चाहिए या उनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
110. आदरणीय गुरू के पवित्र चरणों में साष्टाँग दण्डवत् प्रणाम करने में लज्जित होना, यह गुरूभक्तियोग के अभ्यास में बड़ा अवरोध है।
111. स्वावलम्बन, आत्मन्यायीपन की भावना, मिथ्याभिमान, आत्माभिमान, अपनी बात ही सत्य है ऐसा मानना, आलस्य, हठाग्रह, कूथली, कुसंग, बेईमानी, उद्दण्डता, काम, क्रोध, लोभ और ‘मैं’ पना.... ये चीजें गुरूभक्तियोग के मार्ग में महान भयस्थान हैं।
112. कर्मयोग, भक्तियोग, राजयोग, हठयोग, ज्ञानयोग आदि सब योगों की नींव गुरूभक्तियोग है। जो शिष्य मानता है कि मैं सब कुछ जानता हूँ कि वह ‘मैं’ पने की भावना के कारण अपने गुरू से कुछ भी नहीं सीख सकेगा।
113. ‘मैं खुद सच्चा हूँ ।‘ ऐसा गुरू के समक्ष दिखाना यह शिष्य के लिए बहुत ही खतरनाक आदत है।
114. आप जब गुरू की सेवा करते हों तब नम्र, मधुरभाषी, मृदु और विवेकी बनो। इससे गुरू का हृदय जीत सकोगे। गुरू के समक्ष वाणी या वर्तन में कभी उद्दण्डता मत दिखाओ।
115. मोटी बुद्धि का विद्यार्थी गुरूभक्तियोग के अभ्यास में किसी भी प्रकार की ठोस प्रगति नहीं कर सकता।
116. शिष्य को आदरणीय आचार्य के जीवन की उज्जवल बातें ही देखनी चाहिए।
117. मन में अगर गुरू के विषय में कुविचार आये तो स्वयं ही अपने आप को दण्ड दो।
118. आपके लिए केवल इतना ही आवश्यक है कि गुरूभक्तियोग के मार्ग में अन्तःकरणपूर्वक प्रामाणिक प्रयत्न करना है।
119. अपना गुरूमंत्र अथवा गुरू का पवित्र नाम हररोज एक घण्टे तक स्वच्छ नोटबुक में लिखो।
120. चलते हुए, खाते हुए, कार्यालय में काम करते हुए भी सदैव अपने गुरूमंत्र का जप करते रहो।
121. महान गुरू में स्थित चमत्कारिक आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा शिष्य में जो अदभुत परिवर्तन किया जाता है उस उपकार के महान ऋण का पूरा वर्णन करने की शक्ति वाणी में नहीं है।
122. 'सदगुरू साक्षात् ईश्वर हैं' ऐसा जो कहा गया है वह सत्य ही है। उनकी महानता शब्दातीत है।
123. गुरू का सान्निध्य प्रबल आध्यात्मिक स्पन्दनों के द्वारा शिष्य को ऊँची भूमिका पर ले जाता है और उसे प्रेरणा देता है। गुरू की महिमा शिष्य की स्थूल प्रकृति का परिवर्तन करने में निहित है।
124. सदगुरू के पूज्य चरणों में आश्रय लेना ही सच्चा जीवन है, जीवन जीने की सही रीति है।
125. गुरू की शरणागति की स्वीकार करना यही आत्मसाक्षात्कार का मार्ग है।
126. गुरू में अविचल श्रद्धा न हो तब तक किसी को भी परम सुख भोगने को नहीं मिलता।
127. हमें अयोग्य लगता हो फिर भी गुरू जो करते हैं वह योग्य ही है।
128. गुरू के उपदेश में अविचल और अविरत श्रद्धा सच्ची गुरूभक्ति का मूल है।
129. गुरू सदैव अपने शिष्य के हृदय में बसते हैं।
130. कबीर जी कहते हैं- "गुरू और गोविन्द दोनों मेरे समक्ष खड़े हैं, तो मैं किसको प्रणाम करूँ ? धन्य हैं वे गुरूदेव जिन्होंने मुझे गोविन्द के दर्शन करवाये !"
131. केवल गुरू ही अपने योग्य शिष्य को दिव्य प्रकाश दिखा सकते हैं।
132. गुरू अपने शिष्य को 'असत्' में से 'सत्' में 'मृत्यु' में से 'अमरत्व' में, 'अन्धकार' में से 'प्रकाश' में और 'भौतिक' में से 'आध्यात्मिक' में ले जाते हैं।
133. सच्चे गुरू शिष्य का प्रारब्ध बदल सकते हैं।
134. सदगुरू पैगम्बर और देवदूत है, विश्व के मित्र और जगत के लिए कल्याणमय हैं, पीड़ित मानवजाति के ध्रुवतारक हैं।
135. सच्चे गुरू की सेवा करने से काल का शस्त्र बुट्ठा बन जाता है। गुरू के ज्ञान के पवित्र शब्द शिष्य के हृदय में प्रवेश करते हैं। गुरूकृपा के बिना बन्धन से मुक्ति नहीं है।
136. जो गुरूभक्तिमार्ग से विमुख बना है वह मृत्यु, अन्धकार और अज्ञान के भँवर में घूमता रहता है।
137. स्त्री एवं पुरूष अपनी आनुवंशिक शक्ति के मुताबिक मानवता के पथ का अनुसरण करने की कोशिश कर सकते हैं उनको महान गुरू का उपदेश सूर्य की प्रखर किरण की तरह जगत के भ्रांतिरूपी अन्धकार को विदीर्ण करके प्रकाशित करता है।
138. गुरूकृपा से ही मनुष्य को जीवन का सच्चा उद्देश्य समझ में आता है और आत्म-साक्षात्कार करने की प्रबल आकांक्षा उत्पन्न होती है।
139. शिष्य के हृदय के तमाम दुर्गुणरूपी रोगों का सबसे अधिक असरकारक प्रतिरोधक एवं सार्वत्रिक औषध है-गुरूकृपा ।
140. यदि कोई मनुष्य गुरू के साथ अखण्ड और अविच्छिन्न सम्बन्ध बाँध ले तो जितनी सरलता से एक घट में से दूसरे घट में पानी बहता है उतनी ही सरलता से गुरूकृपा बहने लगती है।
141. केवल यंत्रवत् दण्डवत् प्रणाम करने से गुरूकृपा प्राप्त नहीं की जा सकती। वह तो गुरू के उपदेश को जीवन में उतारने से ही प्राप्त हो सकती है।
142. रात्रि को निद्राधीन होने से पहले अन्तर्मुख होकर शिष्य को निरीक्षण करना चाहिए कि गुरू की आज्ञा का पालन कितनी मात्रा में किया है।
143. हररोज गुरू की सेवा का प्रारंभ करने से पहले शिष्य को मन में निश्चय करना चाहिए कि पूर्व की अपेक्षा अब अधिक भक्तिभाव से एवं अधिक आज्ञाकारिता से गुरू की सेवा करूँगा।
144. गुरू में तथा शास्त्रों में थोड़ी बहुत श्रद्धा होती है वह भी कुसंग से शीघ्र नष्ट हो जाती है।
145. जो गुरू के पवित्र चरणों के प्रति सच्चा भक्तिभाव विकसित करना चाहते हों उन्हें सब प्रकार की खराब आदतों का त्याग कर देना चाहिए। जैसे कि धूम्रपान करना, पान खाना, नास सूँघना, मद्यपान करना, जुआ खेलना, सिनेमा देखना, अखबार-नोवेल पढ़ना, फेशन करना, माँस खाना, चोरी करना, दिन में सोना, गाली बोलना, निन्दा-आलोचना करना आदि।
146. जो गुरूभक्तियोग का अभ्यास करना चाहते हैं उन्हें सब दिव्य गुणों का विकास करना चाहिए। जैसे कि सत्य बोलना, न्यायपरायणता, अहिंसा, इच्छाशक्ति, सहिष्णुता, सहानुभूति, स्वाश्रय, आत्मश्रद्धा, आत्मसंयम, त्याग, आत्मनिरीक्षण, तत्परता, सहनशक्ति, समता, निश्चय, विवेक, वैराग्य, संन्यास, हिम्मत, आनन्दी स्वभाव, हरएक वस्तु में मर्यादा रखना आदि।
147. आनन्द के लिए बाहर क्यों व्यर्थ खोज करते हो ? सदगुरू के चरणों के समीप जाओ और शाश्वत सुख का उपभोग करो।
148. सदगुरू के चरणों में श्रद्धा और भक्तिभाव ये दो पंख हैं जिनकी सहायता से शिष्य पूर्णता के शिखर पर पहुँचने में शक्तिमान बनता है।
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1. गुरू के कार्य की अविचारी आलोचना नहीं करनी चाहिए।
2. गुरू को अविचारी सलाह नहीं देना चाहिए। हमेशा चुप रहो।
3. जाने अनजाने गुरू की भावना को ठेस मत पहुँचाओ।
4. सदगूरू के चरणकमल की धूलि अमरत्व प्रदान करने वाली है।
5. गुरू के पावनकारी चरणों की पवित्र धूलि शिष्य के लिए सचमुच वरदान स्वरूप है।
6. आचार्य के पवित्र चरणों की धूलि ललाट पर लगाना सबसे महान भाग्य की बात है।
7. जीवन का सबसे महान और दुर्लभ सौभाग्य गुरू के चरणकमल का स्पर्श है।
8. गुरूकृपा और स्त्री का मुख (काम) वे दोनों परस्पर विरूद्ध चीजें हैं। अगर आपको एक की आवश्यकता हो तो दूसरी का त्याग करो।
9. गुरू के पावन चरणों की पवित्र धूलि शिष्य को रिद्धि-सिद्धि दिलाती है।
10. सदगुरू के जीवनदायी चरणों की धूलि पूजने योग्य है।
11. शिष्य की सबसे महान संपत्ति अपने सदगुरू के चरणकमल की पवित्र धूलि है।
12. जो व्यक्ति अपने गुरू के चरणकमल की पवित्र धूलि को अपने ललाट पर लगाता है उसका हृदय शीघ्र पवित्र बनता है।
13. गुरू के चरणकमल की धूलि की महिमा अवर्णनीय है।
14. इस पृथ्वी पर हमारा जीवन अन्तःकरणपूर्वक सदगुरू के प्रति दिनोंदिन वर्धमान भक्तिभाव से, अधिक-से-अधिक उनकी सेवा करने के लिए, उनकी आज्ञा में रहने के लिए एक उत्तम मौका है।
15. गुरूभक्तियोग की नींव गुरू के प्रति अखण्ड श्रद्धा में निहित है।
16. शिष्य को समझ में आता है कि हिमालय की एकान्त गुफा में समाधि लगाने की अपेक्षा गुरू की निजी सेवा करने से वह उनके ज्यादा संयोग में आ सकता है, गुरू के साथ अधिक एकता स्थापित कर सकता है।
17. गुरू को सम्पूर्ण, बिनशरती आत्म-समर्पण करने से अचूक गुरूभक्ति प्राप्त होती है।
18. जब आप मुश्किलों एवं मुसीबतों में आ जायें तब गुरू की कृपा के लिए प्रार्थना करें। अपने सच्चे हृदय से बार-बार प्रार्थना करें। सब सरल बन जाएगा, ठीक हो जायेगा।
19. प्रातःकाल में जगने के तुरन्त बाद और रात्रि के समय सोने से पहले गुरू का चिन्तन करो। पूर्णतः उनकी शरण में जाओ।
20. दिन के दौरान अगर गुरू की सेवा के बारे में आज्ञापालन में निष्ठा का अभाव या ऐसी कोई भूल हुई हो तो रात्रि में सोने से पहले, उसका विचार करो।
21. अपनी आवश्यकताएँ कम करो। पैसे बचाओ और गुरू के चरणकमलों में अर्पण करो। इसमें आपकी गुरूभक्ति की कसौटी है।
22. ब्रह्मनिष्ठ गुरू के चरणकमलों के सान्निध्य में जाने के लिए कला, विज्ञान या विद्वता कुछ भी आवश्यक नहीं है। आवश्यक है केवल उनके प्रति प्रेम और भक्ति से पूर्ण हृदय, जो फल की अपेक्षा से रहित, केवल उनमें ही निरत रहने के संकल्पवाला होना चाहिए। केवल उनके ही कार्य में लगा हुआ केवल उनके ही प्रेम में मग्न रहने वाला हो।
23. मानसिक शान्ति और आनन्द गुरू को किये हुए आत्मसमर्पण का फल है।
24. गुरू के प्रति सच्चे भक्तिभाव की कसौटी आन्तरिक शान्ति और उनके आदेशों का पालन करने की तत्परता में निहित है।
25. गुरूसेवा के द्वारा ज्ञान में वृद्धि करो और मुक्ति पाओ।
26. गुरूकृपा से जिनको विवेक और वैराग्य प्राप्त हुए हैं उनको धन्यवाद है ! वे सर्वोत्तम शान्ति और सनातन सुख का भोग करेंगे।
27. शिष्य गुरू को जब तक योग्य गुरूदक्षिणा नहीं देगा तब तक गुरू के दिये हुए ज्ञान का फल मिलेगा नहीं।
28. गुरूभक्तियोग मन का संयम और गुरू की सेवा द्वारा उसमें होने वाला परिवर्तन है।
29. उत्तम शिष्य पैट्रोल जैसा है। काफी दूर होते हुए भी गुरू उपदेश की चिंगारी को तुरंत पकड़ लेता है।
30. दूसरी कक्षा का शिष्य कपूर जैसा है। गुरू के स्पर्श से उसकी अन्तरात्मा जाग्रत होती है और वह उसमें आध्यात्मिकता की अग्नि को प्रज्जवलित करता है।
31. तीसरी कक्षा का शिष्य कोयले जैसा है। उसकी अन्तरात्मा को जाग्रत करने में गुरू को बहुत तकलीफ उठानी पड़ती है।
32. चौथी कक्षा का शिष्य केले के तने जैसा है। उसके लिए किये गये कोई भी प्रयास काम नहीं लगते। गुरू कितना भी करे फिर भी वह ठण्डा और निष्क्रिय रहता है।
33. “हे शिष्य ! सुन। तू केले के तने जैसा मत होना। तू पैट्रोल जैसा शिष्य बनने का प्रयास करना अथवा तो कम-से-कम कपूर जैसा तो अवश्य बनना”
34. आप जब अपने गुरू के पवित्र चरणों की शरण में जाएँ तब उनसे दुनियावी आवश्यकताएँ या और कोई चीजें माँगना नहीं किन्तु उनकी कृपा ही माँगना जिसके कारण आपमें उनके प्रति सच्चा भक्तिभाव और स्थायी श्रद्धा जगे।
35. गुरू ही मार्ग हैं, जीवन हैं और आखिरी ध्येय हैं। गुरूकृपा के बिना किसी को भी सर्वोत्तम सुख प्राप्त नहीं हो सकता।
36. गुरू ही मोक्षद्वार हैं। गुरू ही मूर्तिमन्त कृपा हैं।
37. जीने के लिए मरो। अपने गुरू के चरणकमलों में मरो। अहंभाव का त्याग करके मरो जिससे पुनः सच्चा दिव्य जीवन जी सको। जिस जीवन में गुरूकृपा के प्राणों की धड़कन नहीं है, जो जीवन गुरूकृपा से दिव्य स्वरूप को प्राप्त नहीं हुआ है वह सच्चा जीवन नहीं है।
38. गुरू और शिष्य के बीच जो वास्तविक सम्बन्ध है उसका वर्णन नहीं हो सकता, वह लिखा नहीं जा सकता, वह समझाया नहीं जा सकता। सत्य के सच्चे खोजी को करूणास्वरूप ब्रह्मनिष्ठ गुरू के पास श्रद्धा और भक्तिभाव से आना चाहिए। उनके साथ चिरकाल तक रहकर सेवा करना चाहिए।
39. गुरूभक्तियोग एक स्वतंत्र योग है।
40. शिष्य की कसौटी करने के लिए गुरू जब विघ्न डालें तब धैर्य रखना चाहिए।
41. गुरू सेवा के कार्य में आत्मभोग देना यह गुरू के पवित्र चरणों के प्रति भक्तिभाव विकसित करने का उत्तम साधन है।
42. प्रार्थना, जप, कीर्तन, समाधि, गुरूसेवा, ऊँचे भव्य विचार और समझ से मन की शान्ति उत्पन्न होती है।
43. गुरू की सेवा के दौरान शिष्य को बहुत ही नियमित रहना चाहिए।
44. गुरू के दिव्य कार्य हेतु शिष्य को मन, वचन और कर्म में बहुत ही पवित्र रहना चाहिए।
45. अपने हृदय रूपी उद्यान में निष्ठा, सादगी, शान्ति, सहानुभूति, आत्मसंयम और आत्मत्याग जैसे पुष्प सुविकसित करो और वे पुष्प अपने गुरू को अर्घ्य के रूप में अर्पण करो।
46. शिष्य को गुरू की संपत्ति पर निगाह रखनी चाहिए। रक्षक की तरह उस पर सतत दृष्टि रखनी चाहिए।
47. ब्रह्मनिष्ठ गुरू की कृपा से प्राप्त न हो सके, ऐसा तीनों लोकों में कुछ भी नहीं है।
48. गुरूभक्तियोग का अभ्यास किये बिना साधक के लिए ईश्वर-साक्षात्कार की ओर ले जाने वाले आध्यात्मिक मार्ग में प्रविष्ट होना संभव नहीं है।
49. गुरूभक्तियोग दिव्य सुख के द्वार खोलने के लिए गुरूचाबी है।
50. गुरूभक्तियोग के अभ्यास से सर्वोच्च शान्ति के राजमार्ग का प्रारंभ होता है।
51. सदगुरू के पवित्र चरणों में आत्मसमर्पण करना ही गुरूभक्तियोग की नींव है।
52. अगर आपको सदगुरू के जीवनदायक चरणों में दृढ़ श्रद्धा एवं भक्तिभाव होगा तो आपको गुरूभक्तियोग के अभ्यास में अवश्य सफलता मिलेगी।
53. केवल मनुष्य का पुरूषार्थ ही योगाभ्यास के लिए पर्याप्त नहीं है लेकिन गुरूकृपा अनिवार्यतः आवश्यक है।
54. बाघ, सिंह या हाथी जैसे जंगली प्राणियों को पालना बहुत ही आसान है, पानी या आग पर चलना बहुत आसान है लेकिन मनुष्य में अगर गुरूभक्तियोग के अभ्यास के लिए तमन्ना न हो तो गुरू के चरणकमलों में आत्मसमर्पण करना बहुत कठिन है।
55. गुरूभक्तियोग के अभ्यास से शिष्य को सर्वोत्तम शान्ति, आनन्द और अमरता प्राप्त होती है।
56. जीवन का ध्येय गुरूभक्तियोग का अभ्यास करके सदगुरू की कल्याणकारी कृपा प्राप्त करना है।
57. गुरूभक्तियोग के अभ्यास से जन्म-मृत्यु के चक्कर से मुक्ति मिलती है।
58. गुरूभक्तियोग अमरता, सनातन सुख, मुक्ति, पूर्णता, अखूट आनन्द एवं चिरंतन शान्ति देता है।
59. संसार या सांसारिक प्रक्रिया के मूल में मन है। बन्धन और मुक्ति, सुख और दुःख का कारण मन है। इस मन को गुरूभक्तियोग के अभ्यास से ही नियंत्रित किया जा सकता है।
60. सदगुरू के दिव्य कार्य के वास्ते आत्मसमर्पण करना अथवा तन, मन, धन अर्पण करना चाहिए। सदगुरू की कल्याणकारी कृपा प्राप्त करने के लिए उनके पवित्र चरणों का ध्यान करना चाहिए। गुरू के पवित्र उपदेश को सुनकर निष्ठापूर्वक उसके मुताबिक चलना चाहिए।
61. उल्लू सूर्यप्रकाश के अस्तित्व में माने या न माने फिर भी सूर्य तो सदा प्रकाशित रहता है। उसी प्रकार अज्ञानी और चंचल मनवाला शिष्य माने या न माने फिर भी गुरू की कल्याणकारी कृपा तो चमत्कारी परिणाम देती है।
62. अपने गुरू को ईश्वर मानकर उनमें विश्वास रखो, उनका आश्रय लो, ज्ञान की दीक्षा लो।
63. केवल शुद्ध भक्ति से ही गुरू प्रसन्न होते हैं। गुरूभक्तियोग के अभ्यास के मन की शान्ति और स्थिरता प्राप्त होती है।
64. जिसने सदगुरू के पवित्र चरणों में आश्रय लिया है ऐसे शिष्य के पास से मृत्यु पलायन हो जाती है।
65. गुरूभक्तियोग का अभ्यास सांसारिक पदार्थों के प्रति वैराग्य और अनासक्ति पैदा करता है और अमरता प्रदान करता है।
66. सदगुरू के जीवनप्रदायक चरणों की भक्ति महापापी का भी उद्धार कर देती है।
67. जिसने सदगुरू के पवित्र चरणों में आश्रय लिया है ऐसे पवित्र हृदयवाले शिष्य के लिए कोई भी वस्तु अप्राप्त नहीं है।
68. साधुत्व और संन्यास से, अन्य योगों से एवं दान से, मंगल कार्य करने आदि से जो कुछ भी प्राप्त होता है वह सब गुरूभक्तियोग के अभ्यास से शीघ्र प्राप्त होता है।
69. गुरूभक्तियोग शुद्ध विज्ञान है। वह निम्न प्रकृति को वश में लाने की एवं परम आनन्द प्राप्त करने की रीति सिखाता है।
70. गुरूदेव की कल्याणकारी कृपा प्राप्त करने के लिए आपके अन्तःकरण की गहराई से उनको प्रार्थना करो। ऐसी प्रार्थना चमत्कार कर सकती है।
71. जिस शिष्य को गुरूभक्तियोग का अभ्यास करना है उसके लिए कुसंग एक महान शत्रु है।
72. जो नैतिक पूर्णता, गुरू की भक्ति आदि के बिना ही गुरूभक्तियोग का अभ्यास करता है उसे गुरूकृपा नहीं मिल सकती।
73. गुरू में अविचल श्रद्धा शिष्य को कैसी भी मुसीबत से पार होने की गूढ़ शक्ति देती है।
74. गुरू में दृढ़ श्रद्धा साधक को अनन्त ईश्वर के साथ एकरूप बनाती है।
75. जिस शिष्य को गुरू में श्रद्धा है वह दलील नहीं करता, विचार नहीं करता, तर्क नहीं करता। वह तो केवल आज्ञा ही मानता है।
76.
शिष्य
जब गुरू में
श्रद्धा खो
देता है तब
उसका जीवन
उजाड़ मरूभूमि
जैसा बन जाता
है। साधक
जब गुरू में
श्रद्धा खो
बैठता है तब
उसके जीवन का
वैभव नष्ट हो
जाता है।
77. जीवन का पानी गुरू में दृढ़ श्रद्धा है।
78. सदैव याद रखोः ‘मनुष्य जब पवित्र गुरू के शब्दों में श्रद्धा खो देता है तब वह सब कुछ खो बैठता है। अतः गुरू में पूर्ण श्रद्धा रखो।’
79. गुरू के चरणकमलों की प्रार्थना शिष्य के हृदय को प्रफुल्ल बनाती है। उसके मन को शक्ति, शान्ति एवं शुद्धि से भर देती है।
80. गुरूदेव के पावन चरणों का भावपूर्वक प्रक्षालन करके उस चरणोदक को अपने सिर पर छिड़को। यह महान शुद्धि करने वाला है।
81. दिव्य गुरू के पवित्र चरणों की धूलि बनना यह जीवन का अमूल्य लाभ है।
82. आध्यात्मिक गुरू के पवित्र चरणों की प्रार्थना सुबह की चाबी और शाम का ताला है। अर्थात सुबह होने से पहले एवं शाम होने के बाद प्रार्थना करना चाहिए।
83. सदगुरू के चरणों के प्रति श्रद्धा एवं भक्तिभावरहित जीवन मरूभूमि में खड़े हुए रसहीन वृक्ष जैसा है।
84. गुरू के पवित्र चरणों की प्रार्थना शिष्य के हृदय की गहराई में से निकलनी चाहिए।
85. शिष्य के शुद्ध, निखालिस हृदय से निकली हुई आर्जवपूर्ण प्रार्थना ब्रह्मनिष्ठ गुरू तुरन्त सुनते हैं।
86. दुःख से मुक्ति पाने के लिए नहीं अपितु दुःख सहन करने की शक्ति एवं तितिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करो।
87. सब दोषों से पार होने की शक्ति के लिए सदगुरू के चरणकमलों की प्रार्थना करो।
88. हरेक अपने ढंग से गुरू की सेवा करना चाहता है लेकिन गुरू चाहें उस प्रकार गुरू की सेवा करना कोई नहीं चाहता।
89. शिष्य अपने गुरू की सेवा करना तो चाहता है पर किसी प्रकार का कष्ट सहना नहीं चाहता।
90. सच्चा सुख सदगुरू की सेवा में निहित है।
91. शिष्य गुरूसेवा के द्वारा ही देहाध्यास से छूटकर ऊँची कक्षा प्राप्त कर सकता है।
92. अपने गुरू में, गुरू की महिमा में और गुरू के नामजप के प्रभाव में सच्ची, पूर्ण, जीवन्त और अविचल श्रद्धा रखो।
93. गुरू की सम्पूर्णतः शरणागति लेना गुरूभक्ति की अनिवार्य शर्त है।
94. जब तक आपको गुरू में अखण्ड श्रद्धा न जगे तब तक गुरू की कृपा आप उतरेगी ऐसी आशा मत करना।
95. जो गुरू मुक्तात्मा है उनके कार्य अश्रद्धा से या सन्देह से नहीं देखना चाहिए।
96. ईश्वर, मनुष्य एवं ब्रह्माण्ड के विषय में सच्चा ज्ञान गुरू से लिया जाता है।
97. गुरू साधना रूपी नाव के कर्णधार हैं लेकिन पतवार तो साधक को ही चलानी होगी।
98. गुरूभक्ति तमाम आध्यात्मिक प्रवृत्तियों का मूल है।
99. गुरू के प्रति भक्तिभाव ईश्वरप्राप्ति का सरल एवं आनन्ददायक मार्ग है।
100. गुरू भक्ति धर्म का सार है।
101. गुरू के चरणकमलों के प्रति भक्तिभाव जीवन को सचमुच सार्थक बनाता है।
102. गुरूभक्ति का आदि, मध्य और अन्त मधुर एवं सुखदायक है।
103. गुरूप्रेम एवं संसारप्रेम दोनों एक साथ नहीं रह सकते।
104. गुरू एवं लक्ष्मी की एक साथ सेवा नहीं हो सकती।
105. गुरूद्रोह ईश्वरद्रोह के बराबर है।
106. गुरू पर भक्तिभाव होना आध्यात्मिक निर्माण- कार्य की नींव है।
107. भावना की उफान या उत्तेजना गुरूभक्ति नहीं कहलाती।
108. शरीरप्रेम यानी गुरू प्रेम का इन्कार। शिष्य अगर अपने शरीर की अधिक देखभाल करता है तो वह गुरू की सेवा नहीं कर पाता।
109. साधक के दुष्ट स्वभाव का एकमात्र उपाय गुरूसेवा है।
110. गुरू बिल्कुल हिचकिचाहट से रहित, निःशेष एवं सम्पूर्ण आत्मसमर्पण के सिवाय और कुछ नहीं चाहते। जैसे प्रायः आजकल के शिष्य करते हैं वैसे आत्मसमर्पण केवल शब्दों की बात ही नहीं होना चाहिए।
111. गुरू को जितनी अधिक मात्रा में आत्मसमर्पण करोगे उतनी अधिक गुरूकृपा प्राप्त करोगे।
112. कितनी मात्रा में गुरूकृपा उतरेगी इसका आधार कितनी मात्रा में आत्मसमर्पण हुआ है इस पर निर्भर करता है।
113. शिष्य का कर्त्तव्य गुरू के प्रति प्रेम रखने का एवं गुरू की सेवा करने का है।
114. गुरू की कृपा गुरूभक्तियोग का आखिरी लक्ष्य है।
115. गुरूभक्तियोग का अभ्यास जीवन के परम लक्ष्य के साक्षात्कार का सचोट मार्ग प्रस्तुत करता है।
116. जहाँ गुरूकृपा है वहाँ योग्य व्यवहार है और जहाँ योग्य व्यवहार है वहाँ रिद्धि-सिद्धि और अमरता है।
117. मायारूपी नागिन के द्वारा डसे हुए लोगों के लिए गुरू का नाम एक शक्तिशाली रामबाण औषधि है।
118. पवित्रता, भक्तिभाव, प्रकाश एवं ज्ञान के लिए गुरू की प्रार्थना करो।
119. गुरूसेवा की भावना आपकी रग-रग में, नस-नस में, प्रत्येक हड्डी में एवं शरीर के तमाम कोषों में गहरी उतर जानी चाहिए। गुरू सेवा की भावना को उग्र बनाओ। उसका बदला अमूल्य है।
120. गुरूभक्तियोग ही सर्वत्तम योग है।
121. कुछ शिष्य गुरू के महान शिष्य होने का आडम्बर करते हैं लेकिन उनको गुरूवचन में या कार्य में विश्वास और श्रद्धा नहीं होती।
122. जो अद्वितीय हैं ऐसे सर्वशक्तिमान गुरू की सम्पूर्ण शरण में जाओ।
123. गुरूभक्तियोग आपको इसी जन्म में धीरे-धीरे दृढ़तापूर्वक, निश्चिंततापूर्वक एवं अविचलतापूर्वक ईश्वर के प्रति ले जाता है।
124. अहंभाव के विनाश से गुरूभक्तियोग का प्रारंभ होता है और शाश्वत सुख की प्राप्ति में परिणत होता है।
125. गुरूभक्तियोग जीवन के तमाम दुःख-दर्दो को निर्मूल करने का मार्ग बताता है।
126. गुरूभक्तियोग का अभ्यास आपको भय, अज्ञान, निराशावादी स्वभाव, मानसिक अशान्ति, रोग, निराशा, चिन्ता आदि से मुक्त होने में सहायभूत होता है।
127. गुरूभक्तियोग जीवन के अनिष्टों का एक ही उपाय है।
128. गुरूभक्तियोग के अभ्यास से सर्वसुखमय, अविनाशी आत्मा को भीतर ही खोजो।
129. एक अन्धा दूसरे अन्धे का मार्गदर्शन नहीं कर सकता। एक कैदी दूसरे कैदी को नहीं छुड़ा सकता। इसी प्रकार जो खुद दुनियादारी के कीचड़ में फँसा हुआ हो वह दूसरों को मुक्ति नहीं करा सकता। इसीलिए गुरूभक्तियोग के अभ्यास के लिए गुरू की अनिवार्य आवश्यकता है।
130. गुरूभक्तियोग को जीवन का एकमात्र हेतु, ध्येय एवं वास्तविक रस का विषय बनाओ। आप सर्वोच्च सुख प्राप्त करोगे।
131. गुरू के प्रति भक्तिभाव के बिना आध्यात्मिकता नहीं आ सकती।
132. यदि आपको गुरूभक्तियोग का अभ्यास करना हो तो कामवासनावाला जीवन जीना छोड़ दो।
133. अगर आपको सचमुच ईश्वरप्राप्ति की कामना हो तो दुनियावी भोगविलासों से विमुख बनो और गुरूभक्तियोग का आश्रय लो।
134. गुरूकृपा से शिष्य के हृदय में विवेक वैराग्य का उदय होता है।
135. ध्यान के समय शिष्य को सदगुरू से प्रार्थना करना चाहिए कि उनके चरणकमलों की भक्ति उत्तरोत्तर बढ़ती जाय और वह अविचल श्रद्धा प्रदान करे।
136. जो गुरू के नाम का जप करता है उसको केवल मोक्ष ही नहीं लेकिन सांसारिक समृद्धि, आरोग्यता, दीर्घायु एवं दिव्य ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।
137. शिष्य को अपने गुरूदेव का जन्मदिन बड़ी भव्यता से मनाना चाहिए।
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योग का अभ्यास गुरू के सान्निध्य में करना चाहिए। विशेषतः तंत्रयोग के बारे में यह बात अत्यंत आवश्यक है। साधक कौन सी कक्षा का है यह निश्चित करना एवं उसके लिए योग्य साधना पसन्द करना गुरू का कार्य है।
आजकल साधकों में एक ऐसा खतरनाक एवं गलत ख्याल प्रवर्तमान है कि ‘वे साधना के प्रारंभ में ही उच्च प्रकार का योग साधने के लिए काफी योग्यता रखते हैं।’ प्रायः सब साधकों का जल्दी पतन होता है इसका यही कारण है। इसी से सिद्ध होता है कि अभी वह योगसाधना के लिए तैयार नहीं है। सचमुच में योग्यतावाला शिष्य नम्रतापूर्वक गुरू के पास आता है, गुरू को आत्मसमर्पण करता है, गुरू की सेवा करता है और गुरू के सान्निध्य में योग सीखता है।
गुरू और कोई नहीं है अपितु साधक की उन्नति के लिए विश्व में अवतरित परात्पर जगज्जननी दिव्य माता स्वयं ही हैं। गुरू को देव मानों, तभी आपको वास्तविक लाभ होगा। गुरू की अथक सेवा करो। वे स्वयं ही आपर पर दीक्षा के सर्वश्रेष्ठ आशीर्वाद बरसायेंगे।
गुरू मंत्र प्रदान करते हैं, यह दीक्षा कहलाती है। दीक्षा के द्वारा आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त होता है, पापों का विनाश होता है। जिस प्रकार एक ज्योति से दूसरी ज्योति प्रज्जवलित होती है उसी प्रकार गुरू मंत्र के रूप में अपनी दिव्य शक्ति शिष्य में संक्रमित करते हैं। शिष्य उपवास करता है, ब्रह्मचर्य का पालन करता है और गुरू से मंत्र ग्रहण करता है।
दीक्षा से रहस्य का पर्दा हट जाता है और शिष्य वेदशास्त्रों के गूढ़ रहस्य समझने में शक्तिमान बन जाता है। सामान्यतः ये रहस्य गूढ़ भाषा में छुपे हुए होते हैं। खुद ही अभ्यास करने से वे रहस्य प्रकट नहीं होते। खुद ही अभ्यास करने से तो मनुष्य अधिक अज्ञान के गर्क होता है। केवल गुरू ही आपको शास्त्राभ्यास के लिये योग्य दृष्टि दीक्षा के द्वारा प्रदान करते हैं। गुरू अपनी आत्म-साक्षात्कार की ज्योति का प्रकाश उन शास्त्रों के सत्य पर डालेंगे और वे सत्य आपको शीघ्र ही समझ में आ जाएँगे।
जप के
लिए मंत्र
ॐ गुरूभ्यो नमः।
ॐ श्री सदगुरू परमात्मने नमः।
ॐ श्री गुरवे नमः।
ॐ श्री सच्चिदानन्द गुरवे नमः।
ॐ श्री गुरु शरणं मम।
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गुरू में सम्पूर्ण श्रद्धा तथा विश्वास रखना चाहिए तथा शिष्य को पूर्णरूपेण उनके प्रति आत्मसमर्पण करना चाहिए।
दीक्षाकाल में गुरू के द्वारा दिये गये तमाम निर्देशों का पूर्ण रूप से पालन करना चाहिए। यदि गुरू ने विशेष नियमों की चर्चा न की हो तो निम्नलिखित सर्व सामान्य नियमों का पालन करना चाहिए।
मंत्रजप से कलियुग में ईश्वर-साक्षात्कार सिद्ध होता है, इस बात पर विश्वास रखना चाहिए।
मंत्रदीक्षा की क्रिया एक अत्यन्त पवित्र क्रिया है, उसे मनोरंजन का साधन नहीं मानना चाहिए। अन्य की देखादेखी दीक्षा ग्रहण करना उचित नहीं। अपने मन को स्थिर और सुदृढ़ करने के पश्चात गुरू की शरण में जाना चाहिए।
मंत्र को ही भगवान समझना चाहिए तथा गुरू में ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहिए।
मंत्रदीक्षा को सांसारिक सुख-प्राप्ति का माध्यम नहीं बनाना चाहिए, भगव्तप्राप्ति का माध्यम बनाना चाहिए।
मंत्रदीक्षा के अनन्तर मंत्रजप को छोड़ देना घोर अपराध है, इससे मंत्र का घोर अपमान होता तथा साधक को हानि होने की संभावना भी रहती है।
साधक को आसुरी प्रवृत्तियाँ – काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष आदि का त्याग करके दैवी सम्पत्ति सेवा, त्याग, दान, प्रेम, क्षमा, विनम्रता आदि गुणों को धारण करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए।
गृहस्थ को व्यवहार की दृष्टि से अपना कर्त्तव्य आवश्यक मानकर पूरा करना चाहिए, परन्तु उसे गौण कार्य समझना चाहिए। समग्र परिवार के जीवन को आध्यात्मिक बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। मन, वचन तथा कर्म से सत्य, अहिंसा तथा ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
प्रति सप्ताह मंत्रदीक्षा ग्रहण किये गये दिन एक वक्त फलाहार पर रहना चाहिए और वर्ष के अंत में उस दिन उपवास रखना चाहिए।
भगवान को निराकार-निर्गुण और साकार-सगुण दोनों स्वरूपों में देखना चाहिए। ईश्वर को अनेक रूपों में जानकर श्रीराम, श्रीकृष्ण, शंकरजी, गणेशजी, विष्णु भगवान, दुर्गा, लक्ष्मी इत्यादि किसी भी देवी-देवता में विभेद नहीं करना चाहिए। सभी के इष्टदेव सर्वव्यापक, सर्वज्ञ सभी देवता के प्रति विरोधभाव प्रकट नहीं करना चाहिए। हाँ, आप अपने इष्टदेव पर अधिक विश्वास रख सकेत हो, उसे अधिक प्रेम कर सकते हो परन्तु उसका प्रभाव दूसरे के इष्ट पर नहीं पड़ना चाहिए। भगवद् गीता में कहा भी हैः
यो
मां पश्यति
सर्वत्र
सर्वं च मयि
पश्यति।
तस्याहं
न प्रणश्यामि
स च मे न
प्रणश्यति।।
'जो पुरूष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिय अदृश्य नहीं होता' (6, 30)
इस प्रकार गोस्वामी जी ने भी लिखा है किः
सिया
राम मय सब जग
जानी।
करहुँ
प्रनाम जोरि
जुग पानी।।
अपना इष्ट मंत्र गुप्त रखना चाहिए।
पति पत्नी यदि एक ही गुरू की दीक्षा लें तो यह अति उत्तम है, परन्तु अनिवार्य नहीं है।
लिखित मंत्रजप करना चाहिए तथा उसे किसी पवित्र स्थान में सुरक्षित रखना चाहिए। इससे वातावरण शुद्ध रहता है।
मंत्रजप के लिए पूजा का एक कमरा अथवा कोई स्थान अलग रखना संभव हो तो उत्तम है। उस स्थान को अपवित्र नहीं होने देना चाहिए।
प्रत्येक समय अपने गुरू तथा इष्टदेव की उपस्थिति का अनुभव करते रहना चाहिए.
प्रत्येक दीक्षित दम्पति को एक पत्नीव्रत तथा पतिव्रता धर्म का पालन करना चाहिए।
अपने घर के मालिक के रूप में गुरू तथा इष्टदेव को मानकर स्वयं अपने को उनके प्रतिनिधि के रूप में कार्य करना चाहिए।
मंत्र की शक्ति पर विश्वास रखना चाहिए। उससे सारे विघ्नों का निवारण हो जाता है।
प्रतिदिन कम से कम 11 माला का जप करना चाहिए। प्रातः और सन्ध्याकाल को नियमानुसार जप करना चाहिए।
माला फिराते समय तर्जनी, अंगूठे के पास की तथा कनिष्ठिका (छोटी) उंगली का उपयोग नहीं करना चाहिए। माला नाभि के नीचे जाकर लटकती हुई नहीं रखनी चाहिए। यदि सम्भव हो तो किसी वस्त्र (गौमुखी) में रखकर माला फिराना चाहिए। सुमेरू के मनके को (मुख्य मनके को) पार करके माला नहीं फेरना चाहिए। माला फेरते समय सुमेरू तक पहुँचकर पुनः माला घुमाकर ही दूसरी माला का प्रारम्भ करना चाहिए।
अन्त में तो ऐसी स्थिति आ जानी चाहिए कि निरन्तर उठते बैठते, खाते-पीते, चलते, काम करते तथा सोते समय भी जप चलते रहना चाहिए।
आप सभी को गुरू देव का अनुग्रह प्राप्त हो, यह हार्दिक कामना है। आप सभी मंत्रजप के द्वारा अपना ऐच्छिक लक्ष्य प्राप्त करने में सम्पूर्णतः सफल हों, ईश्वर आपको शान्ति, आनन्द, समृद्धि तथा आध्यात्मिक प्रगति प्रदान करें ! आप सदा उन्नति करते रहें और इसी जीवन में भगवत्साक्षात्कार करें। हरि ॐ तत्सत्।
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स्वामी
शिवानन्द
सरस्वती
जहाँ तक सम्भव हो वहाँ तक गुरू द्वारा प्राप्त मंत्र की अथवा किसी भी मंत्र की अथवा परमात्मा के किसी भी एक नाम की 1 से 200 माला जप करो।
रूद्राक्ष अथवा तुलसी की माला का उपयोग करो।
माला फिराने के लिए दाएँ हाथ के अँगूठे और बिचली (मध्यमा) या अनामिका उँगली का ही उपयोग करो।
माला नाभि के नीचे नहीं लटकनी चाहिए। मालायुक्त दायाँ हाथ हृदय के पास अथवा नाक के पास रखो।
माला ढंके रखो, जिससे वह तुम्हें या अन्य के देखने में न आये। गौमुखी अथवा स्वच्छ वस्त्र का उपयोग करो।
एक माला का जप पूरा हो, फिर माला को घुमा दो। सुमेरू के मनके को लांघना नहीं चाहिए।
जहाँ तक सम्भव हो वहाँ तक मानसिक जप करो। यदि मन चंचल हो जाय तो जप जितने जल्दी हो सके, प्रारम्भ कर दो।
प्रातः काल जप के लिए बैठने के पूर्व या तो स्नान कर लो अथवा हाथ पैर मुँह धो डालो। मध्यान्ह अथवा सन्ध्या काल में यह कार्य जरूरी नहीं, परन्तु संभव हो तो हाथ पैर अवश्य धो लेना चाहिए। जब कभी समय मिले जप करते रहो। मुख्यतः प्रातःकाल, मध्यान्ह तथा सन्ध्याकाल और रात्रि में सोने के पहले जप अवश्य करना चाहिए।
जप के साथ या तो अपने आराध्य देव का ध्यान करो अथवा तो प्राणायाम करो। अपने आराध्यदेव का चित्र अथवा प्रतिमा अपने सम्मुख रखो।
जब तुम जप कर रहे हो, उस समय मंत्र के अर्थ पर विचार करते रहो।
मंत्र के प्रत्येक अक्षर का बराबर सच्चे रूप में उच्चारण करो।
मंत्रजप न तो बहुत जल्दी और न तो बहुत धीरे करो। जब तुम्हारा मन चंचल बन जाय तब अपने जप की गति बढ़ा दी।
जप के समय मौन धारण करो और उस समय अपने सांसारिक कार्यों के साथ सम्बन्ध न रखो।
पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुँह रखो। जब तक हो सके तब तक प्रतिदिन एक ही स्थान पर एक ही समय जप के लिए आसनस्थ होकर बैठो। मंदिर, नदी का किनारा अथवा बरगद, पीपल के वृक्ष के नीचे की जगह जप करने के लिए योग्य स्थान है।
भगवान के पास किसी सांसारिक वस्तु की याचना न करो।
जब तुम जप कर रहे हो उस समय ऐसा अनुभव करो कि भगवान की करूणा से तुम्हारा हृदय निर्मल होता जा रहा है और चित्त सुदृढ़ बन रहा है।
अपने गुरूमंत्र को सबके सामने प्रकट न करो।
जप के समय एक ही आसन पर हिले-डुले बिना ही स्थिर बैठने का अभ्यास करो।
जप का नियमित हिसाब रखो। उसकी संख्या को क्रमशः धीरे-धीरे बढ़ाने का प्रयत्न करो।
मानसिक जप को सदा जारी रखने का प्रयत्न करो। जब तुम अपना कार्य कर रहे हो, उस समय भी मन से जप करते रहो।
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साधारण संसारी मनुष्य दूध जैसा है। वह जबदुष्ट जनों के सम्पर्क में आता है तब उल्टे मार्ग में चला जाता है और फिर कभी वापस नहीं लौटता। उसी दूध में अगर थोड़ी सी छाछ डाली जाती है तो वह दूध दही बन जाता है। संसारी मनुष्य को गुरू दीक्षा देते हैं। अतः जो स्वयं सिद्ध हैं ऐसे गुरू दही जैसे हैं।
छाछ डालने के बाद दूध को कुछ समय तक रख दिया जाता है। इसी प्रकार दीक्षित शिष्य को एकान्त का आश्रय लेकर दीक्षा का मर्म समझना चाहिए। तभी दूध का दही बनेगा, अर्थात् शिष्य का परिवर्तन होगा और वह ज्ञानी बनेगा।
अब दही सरलता से पानी के साथ मिलजुल नहीं जायेगा। अगर दही में पानी डाला जायेगा तो वह तले में बैठ जाएगा। अगर दही को जोर से बिलोया जाएगा तो ही वह पानी के साथ मिश्रित होगा। इसी प्रकार विवेवकवाला मनुष्य जब बुरी संगत में आता है तब दुराचारी लोगों के साथ सरलता के मिलता जुलता नहीं है। लेकिन संगत अत्यंत प्रगाढ़ होगी तो वह भी उल्टे मार्ग में जाएगा। जब दही को सूर्योदय से पहले ब्राह्ममुहूर्त में अच्छी तरह बिलोया जाएगा तब उसमें से मक्खन मिलेगा। इसी प्रकार विवेकी साधक ब्राह्ममुहूर्त में ईश्वर का गहन चिन्तन करता है तो उसे आत्मज्ञान रूपी नवनीत प्राप्त होता है। फिर वह आत्म-साक्षात्कारी साधुरूप बन जाता है।
इस मक्खन (नवनीत) को अब पानी में डाल सकते हैं। वह पानी में मिश्रित नहीं होगा, पानी में डूबेगा नहीं अपितु तैरता रहेगा। आत्म-साक्षात्कार सिद्ध किये हुए साधु अगर दुर्जनों के सम्पर्क में आयेंगे तो भी उल्टे मार्ग में नहीं जाएँगे। दुनियावी बातों से अलिप्त रहकर आनन्द से संसार में तैरते रहेंगे। अगर इस नवनीत को पिघलाकर घी बनाया जाय और बाद में उसे पानी में डाला जाय तो वह सारे पानी को अपनी सुवास से सुवासित कर देगा। इस प्रकार साधु को निःस्वार्थ प्रेम की आग से पिघलाया जाय तो वह दैवी चैतना रूप घी बनकर अपने संग से सबको पावन करेगा, सबकी उन्नति करेगा। उसके सम्पर्क में आने वालों के जीवन में अपने ज्ञान, महिमा एवं दिव्यता का सिंचन करेगा।
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साधक के जीवन में सदगुरू-कृपा का क्या महत्त्व है, इस विषय में पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू अपने सदगुरूदेव की अपार कृपा का स्मरण करते हुए कहते हैं-
"मैंने तीन वर्ष की आयु से लेकर बाईस वर्ष की आयु तक अनेकों साधनाएँ की, दस वर्ष की आयु में अनजाने ही रिद्धि-सिद्धियों के अनुभव हुए, भयानक वनों, पर्वतों, गुफाओं में यत्र-तत्र तपश्चर्या करके जो प्राप्त किया वह सब, सदगुरूदेव की कृपा से जो मिला उसके आगे तुच्छ है। सदगुरूदेव ने अपने घर में ही घर बता दिया। जन्मों की साधना पूरी हो गई। उनके द्वारा प्राप्त हुए आध्यात्मिक खजाने के आगे त्रिलोकी का साम्राज्य भी तुच्छ है।"
हम न
हँसकर सीखे
हैं न रोकर
सीखे हैं।
जो
कुछ भी सीखे
हैं सदगुरू के
होकर सीखे
हैं।।
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