विद्यार्थीकाल जीवनरूपी इमारत की नींव है। इस काल में जिस प्रकार के संस्कार बच्चों में पड़ जाते हैं, उसी प्रकार से उनका जीवन विकसित होता है। इसलिए यह आवश्यक कि हम बच्चों को भारतीय संस्कृति और योग पर आधारित ऐसी शिक्षा दें जिससे उनका सर्वांगीण विकास हो सके।
आज का विद्यार्थी कल का नागरिक है। प्राचीन समय में विद्यार्थी गुरु के सान्निध्य में रहकर संयम, सदाचार, पुरुषार्थ, निर्भयता आदि के संस्कारों एवं सदगुणों को ग्रहण कर देश व समाज के लिए एक आदर्श नागरिक बनता था। इतिहास में हमें इसी प्रकार के संस्कारों से युक्त अनेक बालक-बालिकाओं के उदाहरण देखने को मिलते हैं।
छोटे से शिवा को गुरु समर्थ रामदास व माँ जीजाबाई ने देशप्रेम का ऐसा पाठ पढ़ाया कि शिवा में से छत्रपति शिवाजी महाराज का उदय हो गया। चन्द्रगुप्त मौर्य अपने गुरु चाणक्य के मार्गदर्शन में सर्वप्रथम भारत को अखंड राष्ट्र के रूप में सुदृढ़ करने में समर्थ हुआ।
भारत को समर्थ राष्ट्र बनाना हो तो नयी पीढ़ी को बचपन से ही भगवन्नाम-जप, ध्यान, मौन, प्राणायाम आदि का अभ्यास कराओ। इससे उनकी बुद्धि एकाग्र होती है और भीतरी सुषुप्त शक्तियाँ जाग्रत होने लगती हैं। तुम विश्वासपूर्वक इस राह पर कदम बढ़ाओ, मैं सफलता की जिम्मेदारी लेता हूँ।
जोड़ के हाथ झुका के मस्तक, माँगे ये वरदान प्रभु।
द्वेष मिटायें प्रेम बढ़ायें, नेक बने इनसान प्रभु।।
भेदभाव सब मिटे हमारा, सबको मन से प्यार करें।
जाये नजर जिस ओर हमारी, तेरा ही दीदार करें।।
पल-पल क्षण-क्षण करें हमेशा, तेरा ही गुणगान प्रभु।
जोड़ के हाथ झुका के मस्तक, माँगे ये वरदान प्रभु।।
दुःख में कभी दुःखी न होवें, सुख में सुख की चाह न हो।
जीवन के इस कठिन सफर में, काँटों की परवाह न हो।।
रोक सकें ना पाँव हमारे, विघ्नों के तूफान प्रभु।।
जोड़ के हाथ झुका के मस्तक, माँगेग ये वरदान प्रभु।।
दीन दुःखी और रोगी सबके, दुखड़े निशदिन दूर करें।
पोंछ के आँसू रोते नैना, हँसने पर मजबूर करें।।
संस्कृति की सेवा करते, निकलें तन से प्राण प्रभु।।
जोड़ के हाथ झुका के मस्तक, माँगे ये वरदान प्रभु।।
गुरु ज्ञान से इस दुनिया का, दूर अँधेरा कर दें हम।
सत्य प्रेम के मीठे रस से, सबका जीवन भर दें हम।।
वीर-धीर बन जीना सीखे, ये तेरी संतान प्रभु।
जोड़ के हाथ झुका के मस्तक, माँगे ये वरदान प्रभु।।
महिला उत्थान ट्रस्ट
संत श्री आशाराम जी आश्रम
संत श्री आशारामजी बापू आश्रम मार्ग, साबरमती, अहमदाबाद-5
email: ashramindia@ashram.org Website: http://www.ashram.org
दूरभाषः 079-39877749-50-51-88 27505010-11
मेरे लाल ! तुम्हीं
हो सच्चे विद्यार्थी...
हो न !
जीवनशक्ति
का विकास कैसे
हो ?.....
छात्रों के
महान आचार्य पूज्य
बापू जी द्वारा
सूक्ष्म विश्लेषण
मानसिक आघात, खिंचाव, तनाव या घबराहट
का प्रभावः
शक्ति सुरक्षा
का एक अदभुत उपाय
संत दर्शन से
जीवनशक्ति का विकास
मनुष्य जन्म
का वास्तविक उद्देश्य
पूज्य बापू
जी का सर्वहितकारी
संदेश
ज्ञान, वैराग्य, योग-सामर्थ्य
की प्रतिमूर्तिसाँईं श्री
लीलाशाहजी महाराज
शिष्य ऐसा हो
कि गुरु का दिल
छलक पड़ा.....
शरीर की जैविक
घड़ी पर आधारित
दिनचर्या
समय ( उस समय सक्रिय
अंग)- सक्रिय अंग
के अनुरूप कार्यों
का विवरण
संकल्पशक्ति
का प्रतीक – रक्षाबंधन
पूज्य बापू
जी के सत्संग अमृत
से
आओ मनायें 14 फरवरी
को मातृ-पितृ पूजन
दिवस
युगप्रवर्तक
संत श्री आशारामजी
बापू
विज्ञान भी
सिद्ध कर रहा है
प्रभुनाम की महिमा
आध्यात्मिक
शक्तियों के केन्द्रः
यौगिक चक्र
ब्राह्ममुहूर्त
में जागरण क्यों
?
स्वस्तिक का
इतना महत्त्व क्यों
?
रासायनिक नहीं, प्राकृतिक
रंगों से खेलें
होली
दीर्घायु व
स्वस्थ जीवन के
लिए...
योग्यताओं
के खजाने को खोलने
की चाबी
दिव्य-प्रेरणा
प्रकाश ज्ञान प्रतियोगिता
के प्रश्नपत्र
का प्रारूप
ʹविश्वगुरु
भारतʹ की ओर बढ़ते
कदम......
जानिये सफलता का विज्ञान-पूज्य बापू जी से
उत्सुकता हमें वरदानरूप में मिली है। उसी को जो ʹजिज्ञासा बना लेता है वह है पुरुषार्थी। सफलता ऐसे उद्यमी को विजयश्री की माला पहनाती है।
एक लड़के ने शिक्षक से पूछाः "मैं महान कैसे बनूँ ?"
शिक्षक बोलेः "महान बनने की जिज्ञासा है ?" "है।"
"जो बताऊँ वह करेगा ?" "करूँगा।"
"लेकिन कैसे करेगा ?" "मैं मार्ग खोज लूँगा।"
शिक्षक ने कहाः "ठीक है, फिर तू महान बन सकता है।"
थामस अल्वा एडिसन तुम्हारे जैसे बच्चे थे। वे बहरे भी थे। पहले रेलगाड़ियों में अखबार, दूध की बोतलें आदि बेचा करते थे परंतु उनके जीवन में जिज्ञासा थी, अतः आगे जाकर उन्होंने अनेक आविष्कार किये। बिजली का बल्ब आदि 1093 खोजें उनकी देन हैं। जहाँ चाह वहाँ राह ! जिसके जीवन में जिज्ञासा है वह उन्नति के शिखर जरूर सर कर सकता है।
किसी कक्षा में पचास विद्यार्थी पढ़ते हैं, जिसमें शिक्षक तो सबके एक ही होते हैं, पाठ्यपुस्तकें भी एक ही होती हैं किंतु जो बच्चे शिक्षकों की बातें ध्यान से सुनते हैं एवं जिज्ञासा करके प्रश्न पूछते हैं, वे ही विद्यार्थी माता-पिता एवं विद्यालय का नाम रोशन कर पाते हैं और जो विद्यार्थी पढ़ते समय ध्यान नहीं देते, सुना-अनसुना कर देते हैं, वे थोड़े से अंक लेकर अपने जीवन की गाड़ी बोझीली बनाकर घसीटते रहते हैं।
जिज्ञासु बनो, तत्पर बनो। ऐहिक जगत के जिज्ञासु होते-होते ʹमैं कौन हूँ ? शरीर मरने के बाद भी मैं रहता हूँ, मैं आत्मा हूँ तो आत्मा का परमात्मा के साथ क्या संबंध है ? ब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति कैसे हो ? जिसको जानने से सब जाना जाता है, जिसको पाने से सब पाया जाता है वह तत्त्व क्या है ?ʹ ऐसी जिज्ञासा करो। इस प्रकार की ब्रह्मजिज्ञासा करके ब्रह्मज्ञानी करके ब्रह्मज्ञानी-जीवन्मुक्त होने की क्षमताएँ तुममें भरी हुई हैं। शाबाश वीर ! शाबाश !!.....
मैं कौन हूँ ? – यह किस प्रकार की जिज्ञासा है ?
किस तरह के विद्यार्थी माता-पिता एवं विद्यालय का नाम रोशन कर सकते हैं ?
क्रियाकलापः आप सफलता पाने के लिए क्या करोगे ? लिखें और उपरोक्त विषय पर आपस में चर्चा करें।
सच्चा विद्यार्थी कौन ? जिसके मन में शांति हो, हृदय में उत्तम भावना हो, इन्द्रियाँ वश में हों, जो सत्साहित्य का सेवन करता हो और अपने हर कार्य में प्रभु को साक्षी मानता हो वही ʹसच्चा विद्यार्थीʹ है। आप भी सच्चे विद्यार्थी बनो।
सुबह जल्दी (प्रातः 3 से 5 बजे) उठो। लेटे-लेटे शरीर को खींचो। कुछ समय बैठकर इष्टदेव, गुरुदेव का ध्यान करो। फिर शशक आसन करते हुए उन्हें नमन करो। दोनों हथेलियों के दर्शन करो। बाद में बिस्तर का त्याग करो। माता-पिता का प्रणाम करो। यशस्वी जीवन जियो।
जो आस्तिक हैं, आलस्य-प्रमाद छोड़कर सत्कार्यों में लगे रहते हैं, गुरु एवं शास्त्रों की आज्ञा शिरोधार्य करते हैं, ऐसे सदभागी बच्चे चिरंजीवी होते हैं। सत्पुरुषों का सत्संग-सान्निध्य तेजस्वी और दीर्घ जीवन जीने की कुंजी देता है।
जो झुककर बैठे, तिनके तोड़े, दाँतों से नाखून कुतरे, हाथ-मुँह जूठे रखे, अशुद्ध रहे, गाली बोले या सुने, चाय-कॉफी, पान-मसाला जैसी हल्की चीजों का सेवन करे उसका आयुष्य कम होता है।
भोजन के समय पैर गीले होने चाहिए लेकिन सोते समय कदापि नहीं। भोजन के पूर्व इस श्लोक का उच्चारण करें-
ʹहरिर्दाता
हरि र्भोक्ता
हरिरन्नं
प्रजापतिः।
हरिः
सर्वशरीरस्थो
भुंक्ते
भोजयते हरिः।।ʹ
फिर ʹૐ प्राणाय स्वाहा। ૐ अपानाय स्वाहा। ૐ व्यानाय स्वाहा। ૐ उदानाय स्वाहा। ૐ समानाय स्वाहाʹ। - इन मंत्रों से पंच-प्राणों को आहुतियाँ अर्पण करें। ʹगीता के 15वें अध्याय का भी पाठ करें, फिर भगवान का स्मरण करके प्रसन्नचित्त होकर भोजन करें। इससे भोजन प्रसाद बन जाता है। रात्रि का भोजन हल्का और सुपाच्य होना चाहिए।
दूसरों के वस्त्र तथा जूते न पहनो। किसी के दिल को ठेस न पहुँचाओ। संध्या के समय तथा रात्रि को देर तक (9 बजे के बाद) न पढ़ो। प्रातः काल जल्दी उठकर थोड़ी देर ध्यान करके पढ़ना अधिक लाभदायक होता है। यशस्वी-तेजस्वी जीवन जीने की आकांक्षावालों को चाहिए कि वे आँखों तथा चारित्र्य-बल का नाश करें ऐसी वेब-साइटों, पुस्तकों, अश्लील चित्रों, फिल्मों, टीवी कार्यक्रमों, धर्मविरोधी चैनलों से दूर रहें। आपके अध्यापकों को गुस्सा दिलाये ऐसा हास्य या कृत्य मत करो। अध्यापक जो गृहकार्य दें, वह सावधान होकर एकाग्रतापूर्वक करो। जो विद्यार्थी नियमित अभ्यास करता है, निश्चिंत और निर्भय होकर पढ़ता है तथा मन इन्द्रियों को संयम में रखता है, वह अवश्य सफल होता है।
उत्तर तथा पश्चिम दिशा की ओर सिर करके सोनेवालों के स्वास्थ्य की हानि होती है। पूर्व तथा दक्षिण दिशा की ओर सिर करके सोने वालों के स्वास्थ्य की रक्षा होती है। रात्रि के समय परमात्मा का स्मरण करते-करते उसी में खो और सो जाने से रात की निद्रा योगनिद्रा बन जाती है और इस प्रकार का आराम-विश्राम महानता का द्वार खोल देता है। स्वयं की मेहनत से करोड़पति बनने में समय लग सकता है किंतु करोड़पति पिता के गोद चले जाने मात्र से सहज में करोड़पति हो जाता है। उसी प्रकार एक-एक सफलता को पाने में बहुत समय लगता है परंतु जो मानव-जीवन के परम लक्ष्य को पा चुके हैं, ऐसे महापुरुषों के सत्संग-सान्निध्य में जाने से सहज में ही ढेरों सफलताएँ मिल जाती हैं।
कैसा विद्यार्थी अवश्य सफल होता है ?
आप अपनी नींद को योगनिद्रा कैसे बनाओगे ?
सहज में ही सफलताएँ पाने की सबसे सरल कुंजी क्या है ?
क्रियाकलापः विद्यार्थी दिनचर्या की समय सूची बनायें, उसके अनुसार कार्य करें और शाम को पूर्ण हुए कार्यों को √ करें, कार्य़ ठीक से पूरे हुए या नहीं यह सोचें।
क्या है जीवनशक्ति ? जीवनशक्ति को आधुनिक भाषा में ʹलाइफ एनर्जीʹ और योग की भाषा में ʹप्राणशक्तिʹ कहते हैं। यह हमारी भीतरी शक्ति है, जो अनेक पहलुओं से प्रभावित होती है। हमारे शारीरिक व मानसिक आरोग्य का आधार हमारी जीवनशक्ति है। हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने योगदृष्टि से, अंतर्दृष्टि से और जीवन का सूक्ष्म निरीक्षण करके जीवनशक्ति विषयक गहनतम रहस्य खोजे थे। जो निष्कर्ष ऋषियों ने खोजे थे उनमें से कुछ निष्कर्षों को समझने में आधुनिक वैज्ञानिकों को अभी सफलता प्राप्त हुई है। विदेश के कई बुद्धिमान, विद्वान, वैज्ञानिक वीरों ने विश्व के समक्ष हमारे ऋषि-महर्षियों के आध्यात्मिक खजाने को प्रयोगों द्वारा प्रमाणित किया कि वह खजाना कितना सत्य और जीवनोपयोगी है ! डॉ. डायमण्ड ने जीवनशक्ति पर गहन अध्ययन व प्रयोग किये हैं। (जीवनशक्ति को प्रभावित करने वाले आठ घटकों में से निम्निलिखित दो घटकों पर हम विचार करेंगे।)
डॉ. डायमण्ड ने कई प्रयोग करके देखा कि जब व्यक्ति अचानक कोई तीव्र आवाज सुनता है तो उसी समय उसकी जीवनशक्ति क्षीण हो जाती है, वह घबरा जाता है।
तालुस्थान
(दाँतों से
करीब आधा
सें.मी. पीछे) में
जिह्वा लगाने
से जीवनशक्ति
केन्द्रित हो
जाती है और मस्तिष्क
के दायें व
बायें भागों
में संतुलन
रहता है। जब
ऐसा संतुलन
होता है तब
व्यक्ति का
सर्वांगीण
विकास होता
है,
सर्जनात्मक
प्रवृत्ति
खिलती है और
प्रतिकूलताओं
का सामना सरलता
से हो सकता
है।
जब सतत्
मानसिक
तनाव-खिंचाव,
घबराहट का समय
हो तब जिह्वा
को तालुस्थान
से लगाये रखने
से जीवनशक्ति
क्षीण नहीं
होती।
देवी-देवताओं,
संतों-महापुरुषों
के चित्रों के
दर्शन से
अनजाने में ही
जीवनशक्ति का
लाभ होता रहता
है।
कुदरती
दृश्य,
प्राकृतिक
सौंदर्य के
चित्र, जलराशि,
सरिता-सरोवर-सागर
आदि देखने से,
हरियाली एवं
वन आदि देखने
से, आकाश की ओर
निहारने से
हमारी
जीवनशक्ति
बढ़ती है।
इसीलिए हमारे
देवी-देवताओं
के चित्रों
में पीछे की
ओर इस प्रकार
के दृश्य रखे
जाते हैं।
किसी प्रिय
सात्त्विक
काव्य, गीत,
भजन, श्लोक आदि
का वाचन, पठन,
उच्चारण करने
से भी
जीवनशक्ति का
संरक्षण होता
है। चलते वक्त
दोनों हाथ
स्वाभाविक ही
आगे-पीछे
हिलते हैं,
इससे भी
जीवनशक्ति का
विकास होता
है।
कमर झुकाकर,
रीढ़ की हड्डी
टेढ़ी रखकर
बैठने-चलने
वाले व्यक्ति
की जीवनशक्ति
कम हो जाती है।
उसी व्यक्ति
को कमर, रीढ़
की हड्डी,
गर्दन व सिर
सीधे रखकर
बैठाया जाय और
फिर
जीवनशक्ति नापी
जाय तो बढ़ी
हुई मिलेगी।
हिटलर जब
किसी इलाके को
जीतने के लिए
आक्रमण की
तैयारी करता,
तब अपने
गुप्तचर
भेजकर जाँच करवाता
कि उस इलाके
के लोग कैसे
चलते-बैठते
हैं – युवानों
की तरह सीधा
या बूढ़ों की
तरह झुककर ? इससे यह
अंदाजा लगा
लेता कि वह
इलाका जीतने में
परिश्रम
पड़ेगा या
आसानी से जीता
जायेगा।
सीधे-बैठने-चलने
वाले लोग
साहसी, हिम्मत
वाले, बलवान,
दुर्बल, डरपोक
व निराशावादी
होते हैं।
चलते-चलते
बातें करने से
भी जीवनशक्ति
का खूह ह्रास
होता है।
हरेक प्रकार
की धातुओं से
बनी
कुर्सियाँ,
आरामकुर्सी,
नरम
गद्दीवाली
कुर्सियाँ
जीवनशक्ति को
हानि
पहुँचाती
हैं। सीधी
सपाट, कठोर
बैठकवाली
कुर्सी
लाभदायक है।
तुलसी,
रुद्राक्ष,
सुवर्णमाला
धारण करने से
जीवनशक्ति
बढ़ती है।
जीवनशक्ति
का विकास करना
और जीवनदाता
को पहचानना यह
मनुष्य जन्म
का लक्ष्य
होना चाहिए। हजारों
तन तूने पाये,
मन में हजारों
संकल्प-विकल्प
आये और गये।
इन सबसे जो
परे है, इन
सबका जो वास्तिक
जीवनदाता है,
वह तेरा आत्मा
है। उस आत्मबल
को जगाता रह...
उस आत्मज्ञान
को बढ़ाता रह...
उस
आत्मप्रीति,
आत्मविश्रान्ति
को पाता रह। ૐ.... ૐ....!! ૐ...!!!
तनाव के समय
क्या करने से
मस्तिष्क का
संतुलन बना
रहेगा ?
मनुष्य जन्म
का वास्तविक
लक्ष्य क्या
है ?
क्रियाकलापः जीवनशक्ति के ह्रास व विकास के 5-5 घटक लिखें। आप जीवनशक्ति को बढ़ाने के लिए क्या करोगे ?
हमारा
व्यवहार
हमारे
विचारों का
आईना है। ऋषि-मुनियों
एवं मनीषियों
ने
मनुष्य-जीवन
में धर्म-दर्शन
और
मनोविज्ञान
के आधार पर
शिष्टाचार व
अन्य जीवनोपयोगी
कई नियम बनाये
हैं। इन
नियमों के पालन
से मनुष्य का
जीवन उज्जवल
बनता है।
सदा संतुष्ट
और प्रसन्न
रहो। दूसरों
की वस्तुओं को
देखकर ललचना
नहीं।
हमेशा सच
बोलो। लालच या
किसी की धमकी
के कारण झूठ
का आश्रय न
लो।
व्यर्थ
बातों, व्यर्थ
कामों में समय
न गँवाओ। कोई
बात बिना समझे
मत बोलो।
नियमित तथा
समय पर काम
करो।
किसी को
शरीर से तो मत
सताओ पर मन,
वचन, कर्म से भी
किसी को नहीं
सताना चाहिए।
जिनके
सान्निध्य से
हमारे स्वभाव,
आचार-व्यवहार
में
स्वाभाविक ही
सकारात्मक
परिवर्तन होने
लगते हैं,
उनका संग करो।
श्रीमद्
भगवद् गीता,
श्री रामचरित
मानस, संत श्री
आशारामजी
बापू, स्वामी
रामतीर्थ,
आनंदमयी माँ
आदि के
प्रवचनों से
संकलित
सत्साहित्य का
नित्य पाठ
करो।
पुस्तकें
खुली छोड़कर
मत जाओ।
धर्मग्रन्थों
को स्वयं
शुद्ध, पवित्र
व स्वच्छ होने
पर ही स्पर्श
करना चाहिए।
उँगली में थूक
लगाकर पृष्ठ
मत पलटो।
नेत्रों की
रक्षा के लिए
न बहुत तेज
प्रकाश में पढ़ो, न
बहुत मंद
प्रकाश में।
लेटकर, झुककर
या पुस्तक को
नेत्रों के
बहुत नजदीक
लाकर नहीं
पढ़ना चाहिए।
अपने कल्याण
के इच्छुक
व्यक्ति को
बुधवार व शुक्रवार
के अतिरिक्त
अन्य दिनों
में बाल नहीं
कटवाने चाहिए।
कहीं से
चलकर आने पर
तुरंत जल मत
पियो, हाथ-पैर मत
धोओ और न ही
स्नान करो।
पहले 15 मिनट
विश्राम कर
लो, फिर हाथ
पैर धोकर,
कुल्ला लेकर
पानी पियो।
वेद-शास्त्र,
संत महापुरुष
आदि का
निंदा-परिहास
कभी न करो और न
ही सुनो। इनकी
निंदा करके
अपने पैरों पर
कुल्हाड़ी न
मारो।
आत्मज्ञानी
संत-महापुरुषों
का
सत्संग-श्रवण
प्रतिदिन
अवश्य करो।
सत्संग-श्रवण
से उपरोक्त
प्रकार की
जीवन जीने की
कुँजियाँ सहज
में प्राप्त
होती हैं।
विद्यार्थियों
को किस प्रकार
के सत्साहित्य
का पठन-पाठन
करना चाहिए ?
क्रियाकलापः
आप
जीवन में कौन
सा नियम लोगे ? एक
संकल्प-पत्र
बनाकर किसी
बड़ी उम्र के
व्यक्ति को
दें जिनका आप
आदर करते हों
अथवा ईश्वर या
गुरु-चरणों
में अर्पित
करें।
सफल और
समुन्नत वे ही
होते हैं जो
सदैव प्रयत्नशील
रहते हैं।
गंगा की धारा
भी जनकल्याण
के लिए अविरत
बहती रहती है।
हिमाच्छादित
गिरि-श्रृंखलाओं
से पिघलकर
बहता जल सतत
प्रवाहित हो समुद्र
में मिलता है।
बड़ी-बड़ी
चट्टानों को काटकर
भी वह लक्ष्य
तक पहुँचने का
अपना मार्ग
बना लेता है।
सौरमंडल के
ग्रह,
नक्षत्र,
टिमटिमाते
सितारे भी
अपने-अपने
नियत कर्मों
में संलग्न
हैं अविराम...
अतः
पुरुषार्थी
और साहसी बनो।
उद्यम, साहस,
धैर्य,
बुद्धि,
शक्ति,
पराक्रम – ये
छः सदगुण जहाँ
हैं, वहीं
पद-पद पर आत्मा-परमात्मा
का
सहायता-सहयोग
मिलता है।
इतिहास उन
चंद
महात्माओं और
वीरों की ही
गाथा है,
जिनमें अदम्य
साहस, संयम,
शौर्य और
पराक्रम
कूट-कूटकर भरा
हुआ था।
उन्होंने
दृढ़ता व साहस
से मुसीबतों
का सामना किया
और सफल हो
गये। तुम्हारे
भीतर भी ये
शक्तियाँ
बीजरूप में पड़ी
हैं। अपनी इन
शक्तियों को
तुम जितने अंश
में विकसित
करोगे, उतने
ही महान हो
जाओगे। अतः कैसी
भी विषम
परिस्थिति
आने पर घबराओ
नहीं बल्कि
आत्मविश्वास
जगाकर आत्मबल,
साहस, उद्यम,
बुद्धि व
धैर्य पूर्वक
उसका सामना
करो और अपने
लक्ष्य को
पाने का
संकल्प दृढ़
रखो। वेद भगवान
ने भी कहा हैः
मा भेर्मा
संविक्थाઽऊर्ज्ज
धत्स्व.... ʹहे मानव ! तू डर मत,
काँप मत। बल,
पराक्रम और
साहस धारण कर।
(यजुर्वेदः6-25)
हे
विद्यार्थी ! जीवन में
तुम सब कुछ कर
सकते हो। नकारात्मक
विचारों को
छोड़ दो। अपने
आदर्श चरित्र-निर्माण
के लिए संतों
एवं भक्तों का
स्मरण करो। एक
लक्ष्य से
जुड़े रहो (अर्थात्
अपने अमर
चैतन्यस्वरूप
का ज्ञान पाने
में दृढ़ता से
लग जाओ)। फिर
देखो, सफलता
तुम्हारी
दासी बनने को
तैयार हो
जायेगी।
आज एक और
जहाँ सारा
विश्व चिंता,
तनाव,
अऩैतिकता और
अशांति की आग
में जल रहा है,
वहीं दूसरी ओर
पूज्य बापू जी
अपने गुरुदेव
से मिले
आशीर्वाद और
आज्ञा को
शिरोधार्य कर
गाँव-गाँव,
नगर-नगर जाकर
अपनी पावन
वाणी से समाज
में प्रेम,
शांति, सदभाव
तथा
आध्यात्मिकता
की मधुर सुवास
फैला रहे हैं।
एक बार
गुरुदेव
(पूज्यपाद
भगवत्पाद
साँई श्री
श्री
लीलाशाहजी
महाराज) ने
गुलाब का फूल
दिखाकर जो
मुझसे कहा था,
वह आज भी मुझे
ठीक से याद है।
वे बोले थेः "देख
बेटा ! यह
क्या है ?"
"साँईं ! यह गुलाब
है।"
"यह लेकर
किराने की
दुकान में जा
और इसे घी के
डिब्बे के ऊपर
रख, गुड़ के
थैले पर रख,
शक्कर के बोरे
पर रख, तेल के
डिब्बे पर रख, मूँगफली,
मूँग, चावल,
चने वगैरह सभी
वस्तुओं के
ऊपर रख, फिर
इसे सूँघ तो
सुगंध किसकी
आयेगी ?"
मैंने कहाः "सुगंध
तो गुलाब की
ही आयेगी।"
गुरुदेव
बोलेः "इसे
गटर के आगे रख,
फिर सूँघकर
देख तो सुगंध
किसकी आयेगी ?"
मैंने कहाः "गुलाब
की ही।"
गुरुदेव
बोलेः "बस,
तू ऐसा ही
बनना। दूसरे
की दुर्गन्ध
अपने में न
आने देना वरन्
अपनी सुगंध
फैलाते रहना
और आगे बढ़ते
रहना। तू
गुलाब होकर
महक ! तुझे
जमाना जाने...
तू संसार
में गुलाब की
तरह ही रहना।
किसी के
संस्कार अथवा
गुण-दोष अपने में
कदापि न आऩे
देना। अपनी
साधना एवं
सत्संग की
सुवास चारों
ओर फैलाते
रहना।
तो बच्चे
हों चाहे बड़े
हों, मैं आपको
ऐसा बोलता हूँ
कि आप भी ऐसा
बनना। दूसरे
के कुसंग में आप
नहीं आना। तू
गुलाब होकर
महक ! तुझे
जमाना जाने...
सर्दी का
मौसम था।
ब्रह्मवेत्ता
संत साँईं श्री
लीलाशाहजी
महाराज उनके
अस्थायी
निवास पर
प्रवचन कर रहे
थे। अचानक ही
ठंड से थर-थर
काँपती हुई एक
बुढ़िया वहाँ
पहुँची और हाथ
जोड़के
निवेदन करने
लगीः "औ
महाराज ! कुछ मेरा भी
भला करो। मैं
ठंड के मारे
मर रही हूँ।"
साँईं जी
अपने सेवक को
बुलाकर कहा कि
"कल जो
रेशमी बिस्तर
मिला था वह इस
बुढ़िया को दे
दो।" शिष्य
ने सारा
बिस्तर,
जिसमें दरी,
तकिया, गद्दा
व रजाई थी,
लाकर उस बुढ़िया
को दे दिया और
वह दुआएँ देती
हुई चली गयी।
जिस भक्त ने
वह बिस्तर साँईं
जी को दिया था,
उससे रहा न
गया। वह बोलाः
"साँईं
जी ! कम-से-कम
एक दिन तो उस
बिस्तर पर
विश्राम करते तो
मेरा मन
प्रसन्न हो
जाता।"
साँईं जी
बोलेः "जिस
पल बिस्तर
तुमने मुझे
दिया, उस पल से
यह तुम्हारा
नहीं रहा और जो
तुमने दान में
दिया वह दान
में ही तो गया ! दुनिया में ʹतेरा-मेराʹ कुछ नहीं, जो
जिसके नसीब
में होगा वह
उसे मिलेगा।" इस
प्रकार
भक्तों ने
अद्वैत ज्ञान,
वैराग्य एवं
परदुःखकातरता
का पाठ केवल
पढ़ा ही नहीं,
वह जीवन में
किस प्रकार
झलकना चाहिए
यह प्रत्यक्ष
देखा भी।
एक बार
साँईं जी
रस्सी के बल
सुलझा रहे थे।
पूछने पर बोले
कि "भारत के
दुश्मनों का
बल निकाल रहा
हूँ।" उन
दिनों
भारत-चीन
युद्ध चल रहा
था। दूसरे दिन
समाचार आया कि
"युद्ध
समाप्त हो गया
और दुश्मनों
का बल निकल गया।"
ब्रह्मनिष्ठ
योगियों को
भूत, वर्तमान
एवं भविष्य
काल – ये तीनों
हाथ पर रखे
आँवले की तरह
प्रत्यक्ष होते
हैं। इसलिए
उऩके
मार्गदर्शन
एवं आज्ञा में
चलने वालों को
उनकी
त्रिकालदर्शी
दृष्टि का लाभ
मिलता है।
इस प्रसंग
द्वारा
कौन-कौन से
दिव्य गुण
सीखने को
मिलते हैं ?
ऐसा प्रसंग
यदि आपके जीवन
में आये तो
किस तरह का
व्यवहार
करोगे ?
क्रियाकलापः
गरीबों
को मददरूप हो,
ऐसा कोई आयोजन
विद्यार्थी
मिलकर कर सकते
हैं।
जिसके अंदर
जिज्ञासा है,
वह छोटी-छोटी
बातों में भी
बड़े रहस्य
खोज लेगा और
जिसके जीवन
में जिज्ञासा
नहीं है, वह
रहस्य को
देखते हुए भी
अनदेखा कर
देगा।
जिज्ञासु की
दृष्टि पैनी
होती है,
सूक्ष्म होती है।
वह हर घटना को
बारीकी से
देखता है,
खोजता है और
खोजते-खोजते
रहस्य को भी
प्राप्त कर
लेता है। हे
विद्यार्थी ! तुम भी
जिज्ञासु
बनो।- पूज्य
बापू जी।
गुरु
द्रोणाचार्यजी
के कुछ शिष्य
सोचते थे कि
अर्जुन पर
गुरु जी की
विशेष कृपा
है। उन सभी को
मन-ही-मन
अर्जुन के
प्रति द्वेष
हो गया। एक बार
द्रोणाचार्य
अपने शिष्यों
को लेकर नदी किनारे
गये और एक
वटवृक्ष के
नीचे खड़े
होकर बोलेः "बेटा
अर्जुन ! मैं आश्रम
में अपनी धोती
भूल आया हूँ।
जा, जरा ले आ।"
अर्जुन चला
गया। गुरु
द्रोणाचार्य
ने दूसरे शिष्यों
से कहाः "बाहर के
धनुष और गदा
में तो शक्ति
है लेकिन मंत्र
में इनसे अनंत
गुनी
शक्तितयाँ
होती हैं। मैं
मंत्र से
अभिमंत्रित
एक ही बाण से
इस वटवृक्ष के
सारे पत्तों
को छेद सकता
हूँ।"
द्रोणाचार्य
जी ने धरती पर
एक मंत्र
लिखा। एक तीर
को उस मंत्र
से
अभिमंत्रित
किया और छोड़ दिया।
बाण एक-एक
पत्ते में छेद
करता हुआ गया।
सभी शिष्य
आश्चर्यचकित
हो गये।
गुरु द्रोणाचार्य और सब शिष्य नहाने चले गये। इतने में अर्जुन लौटा। उसकी दृष्टि पेड़ के पत्तों की ओर गयी। वह सोचने लगा कि "इस वटवृक्ष के पत्तों में पहले तो छेद नहीं थे। मैं सेवा के लिए गया तब गुरु जी ने इन शिष्यों को कोई रहस्य बताया है। रहस्य बताया है तो उसका कोई सूत्र भी होगा, शुरुआत भी होगी और कोई चिह्न भी होगा।ʹ अर्जुन ने इधर-उधर देखा तो धरती पर एक मंत्र के साथ लिखा थाः ʹवृक्षछेदन के सामर्थ्यवाला यह मंत्र अदभुत है।ʹ उसने वह मंत्र पढ़ा। पूरी एकाग्रता के साथ तिलक लगाने के स्थान (आज्ञाचक्र) पर मंत्र का ध्यान किया और दृढ़ निश्चय किया कि ʹमेरा यह मंत्र अवश्य सफल होगा।ʹ फिर तीर उठाया और मंत्र का मन-ही-मन जप करके छोड़ दिया। वटवृक्ष के पत्तों में एक-एक छेद तो था ही, दूसरा छेद भी हो गया। अर्जुन को प्रसन्नता हुई कि ʹगुरुजी ने उऩ सबको जो विद्या सिखायी, वह मैंने भी पा ली।ʹ नहाकर आने पर सबने वृक्ष के पत्तों में दूसरा छेद देखा। सब चकित हो गये। द्रोणाचार्य जी ने पूछाः "दूसरा छेद क्या तुम लोगों में से किसी ने किया है ?"
सभी चुप थे। गुरु जी ने फिर से पूछा तो सबने कहाः "नहीं।"
द्रोणाचार्य ने अर्जुन से पूछाः "क्या तुमने किया है ?"
अर्जुन थोड़ा डर गया किंतु झूठ कैसे बोलता। उसने कहाः "मैंने आपकी आज्ञा के बिना आपके मंत्र का प्रयोग इसलिए किया कि आपने इन सबको तो यह विद्या सिखा ही दी है, फिर आपसे पूछकर मैं अकेला आपका समय नष्ट न करूँ, इतना खुद ही सीख लूँ। गुरु जी ! गलती हो तो माफ कीजिये।"
द्रोणाचार्यः "नहीं अर्जुन ! तुममें जिज्ञासा है, संयम है, सीखने की तड़प है और मंत्र पर तुम्हें विश्वास है। मंत्रशक्ति का प्रभाव देखकर ये सब तो केवल आश्चर्य करके नहाने चले गये। इनमें से किसी ने भी दूसरा छेद करने का सोचा ही नहीं। तुमने हिम्मत की, प्रयत्न किया और सफल भी हुए। तुम मेरे सत्पात्र शिष्य हो। अर्जुन ! तुम विश्व के महान धुनर्धर के रूप में प्रसिद्ध होओगे।" शिष्य ऐसा जिज्ञासु हो कि गुरु का दिल छलक पड़े। जिसके जीवन में जिज्ञासा है, तड़प है और पुरुषार्थ है वह जिस क्षेत्र में चाहे, सफल हो सकता है। सफलता उद्यमियों का ही वरण करती है।
पूज्य बापू जी से मैंने सारस्वत्य मंत्र की दीक्षा ली है। मैं नियमित रूप जप करती हूँ। मैं जब भी परीक्षा देने जाती तो पहले आश्रम में जाकर पूज्य बापूजी द्वारा शक्तिपात किये गये बड़दादा (वटवृक्ष) के फेरे फिरकर आशीर्वाद अवश्य लेती। सभी परीक्षाओं में सदैव प्रथम आती थी। बी.ए. के तृतीय वर्ष की परीक्षा में हिन्दी विष्य में सर्वोच्च अंक प्राप्त करने पर दीक्षांत समारोह में राष्ट्रपति जी के हाथों मुझे स्वर्णपदक प्राप्त हुआ। मैं अपनी इस सफलता का श्रेय पूज्य बापू जी को एवं उऩसे प्राप्त सारस्वत्य मंत्र को देती हूँ। - अनुराधा अस्थाना, लखनऊ (उ.प्र.)
जिज्ञासु की दृष्टि कैसी होती है और वह उसका लाभ कैसे उठाता है ?
अर्जुन गुरु द्रोणाचार्य का सत्पात्र शिष्य किन गुणों से कारण बना ?
सफलता किसका वरण करती है ?
अपनी
दिनचर्या को
कालचक्र के
अनुरूप
नियमित करें
तो अधिकांश
रोगों से
रक्षा होती है
और उत्तम
स्वास्थ्य
एवं
दीर्घायुष्य
की भी प्राप्ति
होती है।
प्रातः
3 से 5 (फेफड़े)- ब्राह्ममुहूर्त
में थोड़ा सा
गुनगुना पानी पीकर
खुली हवा में
घूमना चाहिए।
ब्राह्ममुहूर्त
में उठने वाले
व्यक्ति
बुद्धिमान व
उत्साही होते
हैं।
प्रातः
5 से 7 बजे (बड़ी
आँत)- जो
इस समय सोये
रहते हैं, मल
विसर्जन नहीं
करते, उऩ्हें कब्ज
तथा कई अन्य
रोग होते हैं।
अतः प्रातः जागरण
से लेकर सुबह 7
बजे के बीच
मलत्याग कर
लेना चाहिए।
सुबह 7
से 9 (जठर)- इस कुछ पेय
पदार्थ लेना
चाहिए।
9 से 11
(अग्नाशय व
प्लीहा)- करीब 9 से 11 बजे
का समय भोजन
के लिए उपयुक्त
है।
दोपहर
11 से 1 (हृदय)- करूणा, दया,
प्रेम आदि
हृदय की
संवेदनाओं को
विकसित एवं
पोषित करने के
लिए दोपहर 12
बजे के आसपास
संध्या करें।
भोजन वर्जित
है।
दोपहर
1 से 3 (छोटी आँत)- भोजन के
करीब दो घंटे
बाद प्यास
अनुरूप पानी पीना
चाहिए। इस समय
भोजन करने
अथवा सोने से
पोषक आहार-रस
के शोषण में
अवरोध उत्पन्न
होता है व
शरीर रोगी तथा
दुर्बल हो
जाता है।
दोपहर
3 से 5 (मूत्राशय)- 2-4 घंटे
पहले पिये
पानी से इस
समय
मूत्रत्याग की
प्रवृत्ति
होगी।
शाम 5
से 7 (गुर्दे)- इस काल
में हलका भोजन
कर लेना
चाहिए।
सूर्यास्त के
10 मिनट पहले से 10
मिनट बाद तक
(संध्याकाल
में) भोजन न करें।
सुबह भोजन के
दो घंटे पहले
तथा शाम को भोजन
के तीन घंटे
बाद दूध पी
सकते हैं।
रात्रि
7 से 9 (मस्तिष्क)- प्रातः
काल के अलावा
इस काल में
पढ़ा हुआ पाठ जल्दी
याद रह जाता
है।
रात्रि
9 से 11 (रीढ़ की
हड्डी में स्थित
मेरूरज्जु)- इस समय
की नींद
सर्वाधिक
विश्रांति
प्रदान करती
है और जागरण
शरीर व
बुद्धि
को थका देता
है।
11 से 1
(पित्ताशय)- इस समय
का जागरण
पित्त को
प्रकुपित कर
अनिद्रा,
सिरदर्द आदि
पित्त विकार
तथा
नेत्ररोगों को
उत्पन्न करता
है। इस समय
जागते रहोगे
तो बुढ़ापा
जल्दी आयेगा।
1 से 3
(यकृत)- इस
समय शरीर को
गहरी नींद की
जरूरत होती
है। इसकी
पूर्ति न होने
पर पाचनतंत्र
बिगड़ता है।
ऋषियों व
आयुर्वेदाचार्यों
ने बिना भूख
लगे भोजन करना
वर्जित बताया
है। अतः
प्रातः एवं शाम
के भोजन की
मात्रा ऐसी
रखें, जिससे
ऊपर बताये समय
में खुलकर भूख
लगे।
लोक सेवा के
आदर्श पूज्य
बापू जी की
सेवा-प्रेरक
सत्संग-सरिता
एक बार कटक
(उड़ीसा) में
प्लेग फैला।
शहर का उड़िया
बाजार भी
प्लेग की चपेट
में आ चुका
था। केवल
बापूपाड़ा
जहाँ बहुत
सारे वकील
लोग, समझदार
लोग रहते थे,
इससे बचा था।
वे घर के आँगन
व आसपास में
गंदगी नहीं
रहने देते थे।
वहाँ के कुछ
विद्यार्थियों
ने सेवा के लिए
एक दल बनाया,
जिसका मुखिया
था एक 12 साल का
किशोर।
उड़िया
बाजार में
हैदरअली नाम
का एक शातिर
गुंडा रहता
था।
बापूपाड़ा के
लड़के जब
उड़िया बाजार
में सेवा करने
आये तो हैदरअली
को लगा कि ʹबापूपाड़ा
के वकीलों ने
मुझे कई बार
जेल भिजवाया
है। ये लड़के
बापूपाड़ा से
आये हैं,
हरामी हैं...
ऐसे हैं... वैसे
हैं....ʹ ऐसा
सोचकर उसने
उनको भगा
दिया। परंतु
जो लड़कों का
मुखिया था वह
वापस नहीं
गया। हैदरअली
की पत्नी और
बेटा भी प्लेग
का शिकार हो
गये थे। वह
लड़का उनकी
सेवा में लग
गया। हैदरअली
ने लड़के से
पूछाः "तुमको
डर नहीं लगा ?"
"मैं क्यों
डरूँ ?"
"बालक ! हम
तुम्हारी इस
हिम्मत और
उदारता से
प्रभावित
हैं। बेटा ! मुझे माफ कर
देना। मैंने
तुम्हारी
सेवा की कद्र
नहीं की।
"यदि कोई
बीमार है तो
हमें उसकी
सेवा करनी
चाहिए। आप तो
हमारे
पितातुल्य
हैं, आपकी
पत्नी तो मेरे
लिए
मातातुल्य
हैं और बेटा
भाई के समान।"
हैदरअली उस
बच्चे की
निष्काम सेवा
और मधुर वाणी
से इतना
प्रभावित हुआ
कि फूट-फूटकर
रोया। वही
परोपकारी
बालक आगे चलकर
नेता जी
सुभाषचन्द्र
बोस के नाम से
सुविख्यात
हुआ। निष्काम
सेवा और मधुर
वाणी कठोर हृदय
को भी पिघला
देती है।
विद्यार्थियों
ने अपना दल
क्यों बनाया
था ?
कठोर हृदय
का परिवर्तन
कैसे हो सकता
है ?
क्रियाकलापः
विद्यार्थी
भी अपना दल
बनाकर गरीब गुरबों,
पीड़ितों की
सेवा करें तो
उनके जीवन में
परहित की
भावना का
विकास होगा।
बुद्धि को
भगवत्प्राप्ति
के योग्य
बनाओ। जो जरूरी
है वह करो,
अनावश्यक
कार्य और भोग
सामग्री में उलझो
नहीं। जब
बुद्धि बाहर
सुख दिखाती है
तो क्षीण हो
जाती है और जब
अंतर्मुख
होती है तो महान
हो जाती है।
अपने-आप में
अतृप्त रहना,
असंतुष्ट
रहना, किसी के
प्रति
राग-द्वेष
करना, भयभीत
रहना, क्रोध करना
आदि से बुद्धि
कमजोर हो जाती
है।
जो काम है,
वासना है कि ʹयह मिल जाय
तो सुखी हो
जाऊँ, यह पाऊँ,
यह भोगूँ....ʹ इससे
बुद्धि छोटी
हो जाती है।
सत्य बोलने
से बुद्धि
विलक्षण
लक्षणों से सम्पन्न
होती है।
जप-ध्यान,
महापुरुषों
के सत्संग
द्वारा अपने को
परमात्म-रस से
तृप्त करने से
बुद्धि महान
हो जाती है।
भगवान के,
गुरु के
चिन्तन से
राग-द्वेष
मिटता है और
बुद्धि तृप्त
होती है। जिन
कारणों से बुद्धि
उन्नत होती है
वे सत्संग में
मिलते हैं और
जिन कारणों से
बुद्धि
भ्रष्ट हो
जाती है उनसे
बचने का उपाय
भी सत्संग में
ही मिलता है।
सत्संग बुद्धि
की जड़ता को
हरता है, वाणी
में सत्य का
संचार करता
है, पाप दूर
करता है,
चित्त को
आनंदित करता
है और यश व
प्रसन्नता का
विस्तार करता
है। अतः
प्रयत्नपूर्वक
किन्हीं
समर्थ संत-महापुरुष
के सत्संग में
पहुँच जाओ और
ईश्वरीय भक्तिरस
से अपने हृदय
व बुद्धि को
पवित्र कर दो।
अपने को तो आप
जिसके हैं उसी
को पाने वाला
बनाओ। आप
परमात्मा के
हैं अतः
परमात्मा को पा
लो बस !
इससे आपकी
बुद्धि बहुत
ऊँची हो
जायेगी। बुद्धि
को निष्काम
नारायण में
आनंदित होने
दो। इससे आपकी
बुद्धि में
चिन्मय सुख
आयेगा। ૐ.... ૐ..... ૐ....
हितकारी
वाणीः "तुम्हारा
शरीर
तंदरुस्त रहे,
तुम्हारा मन
प्रसन्न रहे,
बुद्धि में
समता रहे, साथ
ही बुद्धि में
बुद्धिदाता
का आनंद प्रकट
हो, यही मैं चाहता
हूँ।"
पूज्य बापू
जी।
बुद्धि किन
कारणों से
कमजोर होती है
?
सत्संग की
महिमा
बतायें।
क्रियाकलापः
बुद्धि
को महान बनाने
के उपायों पर
चर्चा करें व
उन्हें जीवन
में उतारें।
धर्म की
खातिर प्राण
देने पड़े तो
देंगे लेकिन
अत्याचारियों
के आगे कभी
नहीं
झुकेंगे। विलासियों
द्वारा
फैलाये गये
जाल, जो आज
हमें व्यस्न,
फैशन और
चलचित्रों के
रूप में देखने
को मिल रहे
हैं, उनमें
नहीं
फँसेंगे। अपनी
संस्कृति की
रक्षा के लिए
सदा तत्पर
रहेंगे। ૐ..... ૐ.... ૐ.....
फतेहसिंह और
जोरावरसिंह
सिख धर्म के
दसवें गुरु
गोविन्दसिंहजी
के सुपुत्र
थे। आनंदपुर के
युद्ध में
गुरुजी का
परिवार बिखर
गया था। चार
पुत्रों में
से दो छोटे
पुत्र गुरु
गोविन्दसिंह
की माता गुजरी
देवी के साथ
बिछुड़ गये।
उस समय
जोरावरसिंह
की उम्र मात्र
सात वर्ष
ग्यारह माह
तथा फतेहसिंह
की उम्र पाँच
वर्ष दस माह
थी। दोनों
अपनी दादी के
साथ जंगलों,
पहाड़ों को
पार करके एक
नगर में
पहुँचे। गंगू
नामक
ब्राह्मण, जिसने
बीस वर्षों तक
गुरुगोविन्दसिंह
के पास रसोइये
का काम किया
था, उऩके
आग्रह पर माता
जी दोनों
नन्हें
बालकों के साथ
उनके घर गयीं।
गंगू ने
रात्रि को
माता गुजरी
देवी के सामान
में पड़ी सोने
की मोहरें
चुरा लीं,
इतना ही नहीं
इनाम पाने के
लालच में
कोतवाल को
उनके बारे में
बता भी दिया।
कोतवाल ने
दोनों बालकों
सहित माता
गुजरी देवी को
बंदी बना
लिया। माता
गुजरी देवी
दोनों बालकों
को उनके दादा
गुरु
तेगबहादुर और
पिता गुरुगोविन्दसिंह
की
वीरतापूर्ण
कथाएँ सुनाकर
अपने धर्म में
अडिग रहने के
लिए प्रेरित
करती रहीं।
सुबह सैनिक
बच्चों को
लेने पहुँच
गये। दोनों बालक
नवाब वजीर खान
के सामने
पहुँचे। शरीर
पर केसरी
वस्त्र, पगड़ी
तथा कृपाण
धारण किये इन
नन्हें
योद्धाओं को
देखकर एक बार
तो नवाब का भी
हृदय पिघल
गया। उसने
कहाः "बच्चो
! हम
तुम्हें
नवाबों के
बच्चों की तरह
रखना चाहते
हैं। एक छोटी
सी शर्त है कि
तुम अपना धर्म
छोड़कर हमारे
धर्म में आ
जाओ।"
नवाब की बात
सुनकर दोनों
भाई
निर्भीकतापूर्वक
बोलेः "हमें
अपना धर्म
प्राणों से भी
प्यारा है।
जिस धर्म के
लिए हमारे
पूर्वजों ने
अपने प्राणों की
बलि दे दी उसे
हम तुम्हारी
लालचभरी
बातों में आकर
छोड़ दें, यह कभी
नहीं हो सकता।"
नवाबः "तुमने हमारे
दरबार का
अपमान किया
है। यदि जिंदगी
चाहते हो तो..."
नवाब अपनी
बात पूरी करे
इससे पहले ही
नन्हें वीर
गरजकर बोल
उठेः "नवाब
! हम उन
गुरु
तेगबहादुर के
पोते हैं जो
धर्म की रक्षा
के लिए
कुर्बान हो
गये। हम उन
गुरु गुरु
गोविन्दसिंह
के पुत्र हैं,
जिनका नाम
सुनते ही तेरी
सल्तनत थर-थर
काँपने लगती
है। तू हमें
मृत्यु का भय
दिखाता है ? हम फिर से
कहते हैं कि
हमारा धर्म
हमें प्राणों
से भी प्यारा
है। हम प्राण
त्याग सकते
हैं परंतु
अपना धर्म
नहीं त्याग
सकते।"
इतने में
दीवान
सुच्चानंद ने
बालकों से
पूछाः "अच्छा,
यदि हम
तुम्हें छोड़
दें तो तुम
क्या करोगे ?"
बालक
जोरावरसिंह
ने कहाः "हम सेना
इकट्ठी
करेंगे और
अत्याचारी
मुगलों को इस
देश से
खदेड़ने के
लिए युद्ध
करेंगे।"
दीवानः "यदि तुम हार
गये तो ?"
जोरावरसिंह
(दृढ़तापूर्वक)-
"हार
शब्द हमारे
जीवन में ही
नहीं है। हम
हारेंगे नहीं,
या तो विजयी
होंगे या शहीद
होंगे।"
बालकों की
वीरतापूर्ण
बातें सुनकर
नवाब आगबबूला
हो उठा। उसने
काजी से कहाः "इन
बच्चों ने
हमारे दरबार
का अपमान किया
है तथा भविष्य
में मुगल शासन
के विरूद्ध
विद्रोह की
घोषणा की है।
अतः इनके लिए
क्या दंड
निश्चित किया
जाय ?"
काजीः "इन्हें
जिन्दा दीवार
में चुनवा
दिया जाय।"
फैसले के
बाद दोनों
बालकों को
उनकी दादी के
पास भेज दिया
गया। बालकों
ने
उत्साहपूर्वक
दादी को पूरी
घटना सुनायी।
बालकों की
वीरता देखकर
दादी गदगद हो
उठी और उन्हें
हृदय से लगाकर
बोलीः "मेरे
बच्चो !
तुमने अपने
पिता की लाज
रख ली।"
दूसरे दिन
दोनों वीर
बालकों को एक
निश्चित स्थान
पर ले जाकर
उऩके चारों ओर
दीवार बनानी
प्रारम्भ कर
दी गयी।
धीरे-धीरे
दीवार उनके
कानों तक ऊँची
उठ गयी। इतने
में बड़े भाई
जोरावरसिंह
ने अंतिम बार
अपने छोटे भाई
फतेहसिंह की ओर
देखा और उसकी
आँखों में
आँसू छलक उठे।
जोरावरसिंह
की इस
अवस्था को
देखकर वहाँ
खड़ा काजी
समझा कि ये
बच्चे मृत्यु
को सामने
देखकर डर गये
हैं। उसने
कहाः "बच्चो
! अभी भी
समय है। यदि
तुम हमारे
धर्म में आ
जाओ तो तुम्हारी
सजा माफ कर दी
जायेगी।"
जोरावरसिंह
ने गरज कर
कहाः "मूर्ख
काजी !
मैं मौत से
नहीं डर रहा
हूँ। मेरा भाई
मेरे बाद इस
संसार में आया
परंतु मुझसे
पहले धर्म के लिए
शहीद हो रहा
है। मुझे बड़ा
भाई होने पर
भी यह सौभाग्य
नहीं मिला
इसलिए मुझे
रोना आता है।" सात
वर्ष के इस
नन्हें से
बालक के मुख
से ऐसी बात
सुनकर सभी दंग
रह गये। थोड़ी
देर में दीवार
पूरी हुई और
वे दोनों
नन्हें
धर्मवीर
उसमें समा
गये।
कुछ समय
पश्चात दीवार
को गिरा दिया
गया। दोनों
बालक बेहोश
पड़े थे परंतु
अत्याचारियों
ने उसी स्थिति
में उनकी
हत्या कर दी।
विश्व के
किसी अन्य देश
के इतिहास में
इस प्रकार की
घटना नहीं है,
जिसमें सात और
पाँच वर्ष के
दो नन्हें
सिंहों की अमर
वीरगाथा का
वर्णन हो।
धन्य हैं
ऐसे
धर्मनिष्ठ
बालक !
धन्य है भारत
माता, जिसकी
पावन गोद में
ऐसे वीर
बालकों ने
जन्म लिया।
विद्यार्थियो
! तुम भी
अपने देश और
संस्कृति की
सेवा और रक्षा
के लिए सदैव
प्रयत्नशील
रहना।
मेघों की
भयंकर गर्जना
हो या समुद्र
उमड़ पड़े,
पहाड़ से
पहाड़ टकराकर
भयानक शब्द हो
या साक्षात
मृत्यु का
मुकाबला करना
पड़े परंतु तुम
भयभीत न हो,
साहसी बनो।
अपने
उद्देश्य की
पूर्ति के लिए
अडिग रहो।
सुदृढ़, अचल
संकल्पशक्ति
के आगे मुसीबतें
इस प्रकार
भागती हैं
जैसे
आँधी-तूफान से
बादल बिखर
जाते हैं। ૐकार का
जप करो। अपने
आत्मा में
विश्वास करो,
अपनी अमरता
में विश्वास
रखो।
विघ्न-बाधाएँ
आती हैं, शरीर
मरता है, तुम
अमर आत्मा हो।
ૐ....ૐ....ૐ....
हम भारत के
लाल हैं,
ऋषियों की
संतान हैं।
कोई देश
नहीं दुनिया
में, बढ़कर
हिन्दुस्तान से।।
टेक ।।
इस धरती पर
पैदा होना,
बड़े गर्व की
बात है।
साहस और
वीरता अपने,
पुरखों की
सौगात है।। हम
भारत के... ।।
कूद समर में
आगे आये, जब भी
हम ललकारने।
उँगली
दाँतों तले
दबायी, अचरज
से संसार ने।।
हम भारत के....।।
गौरवपूर्ण
इतिहास हमारा,
अब भविष्य
चमकायेंगे।
भारत माँ की
महिमा को हम,
फिर से वहीं
पहुँचायेंगे।।
हम भारत के.... ।।
कभी महकते
कभी चहकते,
जीते मरते शान
से।
झुकना नहीं
आगे बढ़ना है,
सराबोर
गुरुज्ञान से।।
हम भारत के
लाल... ।।
बाल संस्कार
केन्द्र के
बच्चे हम सब,
भारत को विश्वगुरु
बनायेंगे।
आत्मज्ञान
की विजय
पताका, पूरे
विश्व में फहरायेंगे।।
हम भारत के.... ।।
माता गुजरी
देवी दोनों
बालकों में
कैसे संस्कार
भरा करती थीं ?
जब दीवार
चुनवायी जा रही
थी तब
जोरावरसिंह
की आँखें
क्यों भर आयीं
?
क्रियाकलापः
दोनों
बालकों के
बलिदान के
संदर्भ में
आपके क्या
विचार हैं ?
क्षणिक
भावावेश में
आकर आदर्शों
और सिद्धांतों
की राह पर
बढ़ने का
संकल्प तो कई
लोग कर लेते
हैं पर दृढ़ता
के अभाव में
वे प्रलोभनों
से विचलित हो
जाते हैं।
परंतु लाल
बहादुर
शास्त्री जी
कभी भी अपने
आदर्शों से
विचलित नहीं
हुए।
लाल बहादुर
जी के
विद्यालय के
पास ही अमरूद
(जामफल) का एक
बगीचा था। जब
वे पाँचवीं
कक्षा में
पढ़ते थे, तब
एक दिन उनके
चार-पाँच
शरारती दोस्त
अमरूद तोड़कर
खाने के
इरादे से
बगीचे की जा
निकले। वे लाल
बहादुरजी को
भी अपने साथ
ले गये। बगीचे
की छोटी दीवार
को जब वे
लड़के लाँघने
लगे, तब
लालबहादुर जी
ने अंदर जाने
से आनाकानी की
लेकिन
साथियों ने उन्हें
अंदर कूदने के
लिए मजबूर कर
दिया। वे अंदर
तो गये पर
अमरूद न
तोड़कर
चुपचाप एक तरफ
खड़े हो गये।
लेकिन
उन्होंने
गुलाब का एक
फूल जरूर तोड़
लिया।
इसी बीच
अचानक माली
वहाँ आ धमका।
सब लड़के भाग
गये पर
लालबहादुर जी
यह सोचकर खड़े
रहे कि "जब
मैंने चोरी
नहीं की तो
माली मुझ पर
क्यों बिगड़ेगा
?" पर हुआ
इसका उलटा।
माली ने
उन्हें ही
पकड़ लिया और
अमरूद न
तोड़ने की
उनकी सफाई पर
बिना ध्यान दिये
दो चाँटे लगा
दिये।
लालबहादुर जी
रोने लगे और
सिसकते हुए
बोलेः "मुझे
मत मारो। मैं
बिना बाप का
लड़का हूँ।" माली ने
उन्हें दो
चाँटे और
लगाये और
बिगड़कर
बोलाः "बिना
बाप का है तब
तेरी यह करनी
है। तुझे तो
नेक चलन वाला
और ईमानदार
होना चाहिए।
जा, भाग जा
यहाँ से।"
इस घटना का
लालबहादुर जी
के बाल मन पर
भारी प्रभाव
पड़ा।
उन्होंने
मन-ही-मन
निश्चय किया
कि ʹभविष्य
में मैं ऐसा
कोई काम नहीं
करूँगा, जिससे
मेरी या मेरे
परिवारवालों
की बदनामी हो
और मुझे नीचा
देखना पड़े।ʹ वे भारत के
प्रधानमंत्री
बने तब भी एक
दिन भी अपने
इस आदर्श से
विचलित नहीं
हुए।
उऩ्होंने अपने
उज्जवल,
निःस्वार्थ
जीवन में
भ्रष्टाचार
का दाग नहीं
लगने दिया।
कठिन
परिस्थिति
आने पर क्या
हमें अपने
आदर्शों से विचलित
होना चाहिए ?
माली की
नसीहत पर
लालबहादुर जी
पर क्या प्रभाव
पड़ा ?
क्रियाकलापः
आगे
चलकर आप अपने
देश की गरिमा
को बढ़ाने
हेतु क्या
करोगे ?
ब्रह्मलीन
ब्रह्मनिष्ठ
साँईं श्री
लीलाशाहजी महाराज
के
सत्संग-प्रवचन
से
दो नाविक
थे। वे नाव
द्वारा नदी की
सैर करके सायंकाल
तट पर पहुँचे
और एक दूसरे
से कुशलता का
समाचार एवं
अऩुभव पूछने
लगे। पहले
नाविक ने कहाः
" भाई ! मैं तो ऐसा
चतुर हूँ कि
जब नाव भँवर
के पास जाती
है, तब चतुराई
से उसे तत्काल
बाहर निकाल लेता
हूँ।" तब
दूसरा नाविक
बोलाः "मैं
ऐसा कुशल
नाविक हूँ कि
नाव को भँवर
के पास जाने
ही नहीं देता।"
अब
दोनों में से
श्रेष्ठ
नाविक कौन है ? स्पष्टतः
दूसरा नाविक
ही श्रेष्ठ है
क्योंकि वह
भँवर के पास
जाता ही नहीं।
पहला नाविक तो
किसी-न-किसी
दिन भँवर का
शिकार हो ही
जायेगा। इसी
प्रकार सत्य
के मार्ग पर
चलने वाले
पथिकों के लिए
कुसंगीरूपी
भँवरों के पास
न जाना ही
श्रेयस्कर
है।
अगर
आग के नजदीक
बैठोगे जाकर,
उठोगे एक दिन
कपड़े जलाकर।
माना
कि दामन बचाते
रहे तुम, मगर
सेंक हरदम लाते
रहे तुम।।
कोई जुआ
नहीं खेलता
किंतु देखता है
तो
देखते-देखते
वह जुआ खेलना
भी सीख जायेगा।
विषय-विकार
एवं कुसंग नेक
व्यक्ति का भी
पतन कर देते
हैं। इसलिए
विषय-विकारों
और कुसंग से
बचने के लिए
संतों का संग
अधिकाधिक
करना चाहिए।
संत कबीर जी
ने कहाः ʹसंत-महापुरुषों
की ही संगति
करनी चाहिए
क्योंकि वे
अंत में निहाल
कर देते हैं।
दुष्टों की
संगति नहीं करनी
चाहिए
क्योंकि उऩके
सम्पर्क में
जाते ही मनुष्य
का पतन हो
जाता है।
संतों की
संगति से सदैव
हित होता है,
जबकि दुष्ट
लोगों की
संगति से
गुणवान
मनुष्यों का
भी पतन हो
जाता है।ʹ
अक्ल
लड़ाओ ज्ञान
बढ़ाओः 1. श्रीमद्
भगवद् गीता 2.
वाणी 3. ૐ. 4.
ब्रह्मज्ञानी
महापुरुष/सदगुरु 5.
गुरुपूर्णिमा।
ढूँढों
तो जानें- 1 सदगुरु
(पृष्ठ-32) 2.
पलाश-पुष्प
(पृष्ठ-43) 3. भगवान
शिवजी (पृष्ठ 32) 4.
सारस्वत्य
मंत्र (पृष्ठ-37) 5.
फास्टफूड (पृष्ठ-42)
6. त्रिकाल
संध्या
(पृष्ठ-35) 8.
सत्संग-श्रवण
(पृष्ठ-10) 9
भगवन्नाम-जप
(पृष्ठ-37)
दि.प्रे.प्र.ज्ञा.प्र.
के
प्रश्नपत्र
का प्रारूप- 1. (1). 2. (3). 3. (3). 4. (1). 5. (4). 6. (2).
7. (3). 8. (5). 9. (4). 10. (1). 11. (2). 12. x 13. √ 14. √ 15. x
कुसंगरूपी
भँवर के पास
क्यों नहीं
जाना चाहिए ?
आप कैसी
संगति में
रहना पसंद
करोगे और
क्यों ?
जन्मदिवस पर बच्चे बड़े-बुजुर्गों को प्रणाम करें. उनका आशीर्वाद पायें। बच्चे संकल्प करें कि आने वाले वर्षों में पढ़ाई, साधना, सत्कर्म आदि में सच्चाई और ईमानदारी से आगे बढ़कर अपने माता-पिता व देश का गौरव बढ़ायेंगे।
जन्मदिवस के दिन बच्चा ʹकेकʹ पर लगी मोमबत्तियाँ जलाकर फिर फूँक मारकर बुझा देता है। जरा सोचिये, हम कैसी उलटी गंगा बहा रहे हैं ! जहाँ दीये जलने चाहिए वहाँ बुझा रहे हैं ! जहाँ शुद्ध चीज खानी चाहिए वहाँ फूँक मारकर उड़े हुए थूक से जूठे, जीवाणुओं से दूषित हुए ʹकेकʹ को बड़े चाव से खा-खिला रहे हैं !
हमें चाहिए कि हम अपने बच्चों को उनके जन्मदिवस पर भारतीय संस्कार व पद्धति के अनुसार ही कार्य करना सिखायें ताकि इन मासूमों को हम अंग्रेज न बनाकर सम्माननीय भारतीय नागरिक बनायें।
यह शरीर, जिसका जन्मदिवस मनाना है, पंचभूतों से बना है जिनके अलग-अलग रंग हैं। पृथ्वी का पीला, जल का सफेद, अग्नि का लाल, वायु का हरा व आकाश का नीला। थोड़े से चावल हल्दी, कुंकुम आदि उपरोक्त पाँच रंग के द्रव्यों से रँग लें। फिर उनसे स्वस्तिक बनायें और जितने वर्ष पूरे हुए हों, मान लो 4, उतने छोटे दीये स्वस्तिक पर रख दें तथा 5वें वर्ष की शुरुआत के प्रतीक रूप में एक बड़ा दीया स्वस्तिक के मध्य में रखें।
फिर घऱ के सदस्यों से सब दीये जलवायें तथा बड़ा दीया कुटुम्ब के श्रेष्ठ, ऊँची समझवाले, भक्तिभाव वाले व्यक्ति से जलवायें। इसके बाद जिसका जन्मदिवस है, उसे सभी उपस्थित लोग शुभकामनाएँ दें। फिर आरती व प्रार्थना करें।
पार्टियों में फालतू का खर्च करने के बजाय बच्चों के हाथों से गरीबों में, अनाथालयों में भोजन, वस्त्र इत्यादि का वितरण करवाकर अपने धन को सत्कर्म में लगाने के सुसंस्कार डालें।
लोगों से चीज-वस्तुएँ (गिफ्टस) लेने के बजाये अपने बच्चे को गरीबों को दान करना सिखायें ताकि उसमें लेने की नहीं अपितु देने की सुवृत्ति विकसित हो।
हम कौन सी उलटी गंगा बहा रहे हैं ?
ऐसा जन्मदिवस मनाने की रीत आप कितनों को बतायेंगे ? क्यों ?
क्रियाकलापः अपने जन्मदिवस पर आप अपने दिव्य जीवन हेतु क्या-क्या करेंगे ? लिखें।
बधाई हो बधाई, शुभ दिन की बधाई।
बधाई हो बधाई, जन्मदिवस की बधाई।।
जन्मदिवस पर देते हैं, तुम हम बधाई,
जीवन का हर इक लम्हा, हो तुमको सुखदाई।
धरती सुखदायी, हो अम्बर सुखदाई,
जल सुखदाई, हो पवन सुखदाई। बधाई....
मंगलमय दीप जलाओ, उजियारा जग फैलाओ।
उद्यम पुरुषार्थ जगाकर, आत्मपद अपना पाओ।
हो शतंजीव तुम चिरंजीव, शुभ घड़ी आज आई।।
माता सुखदाई, हो पिता सुखदाई,
बंधु सुखदाई, हो सखा सुखदाई। बधाई....
सदगुण की खान बने तू, इतना महान बने तू।
हर कोई चाहे तुझको, ऐसा इन्सान बने तू।
बलवान हो तू महान हो, करे गर्व तुझ पे अब हम।।
दर्शन सुखदाई, हो जीवन सुखदाई। बधाई...
ऋषियों का वंशज है तू, ईश्वर का अंश है तू।
तुझमें है चंदा और तारे, तुझमें ही सर्जनहारे।
तू जान ले पहचान ले, निज शुद्ध बुद्ध आतम।।
ईश्वर सुखदाई, ऋषिवर सुखदाई, सुमति सुखदाई, हो सत्ज्ञान सुखदाई। बधाई..
आनंदमय जीवन तेरा, खुशियों का हो सवेरा।
चमके तू बन के सूरज, हर पल हो दूर अँधेरा।
तू ज्ञान का भंडार है, रखना तू धैर्य संयम।।
ग्रह सुखदाई, हो गगन सुखदाई,
जल सुखदाई, हो अगन सुखदाई। बधाई....
तुझमें ना जीना मरना, जग है केवल एक सपना।
परमेश्वर है तेरा अपना, निष्ठा तू ऐसी रखना।
तू ध्यान कर आत्मस्वरूप का, तू सृष्टि का है उदगम।।
मंजिल सुखदाई, हो बधाई हो बधाई। बधाई....
बधाई हो बधाई, शुभ दिन की बधाई।
बधाई हो बधाई, जन्मदिवस की बधाई।।
जल, थल, पवन, अगन और अम्बर, हो तुमको सुखदाई।
गम की धूप लगे ना तुझको, देते हम दुहाई।।
ईश्वर सुखदाई, ऋषिवर सुखदाई,
सुमति
सुखदाई, हो
सत्ज्ञान
सुखदाई।
बधाई....
"बहनें
इस दिन ऐसा
संकल्प करके
रक्षासूत्र
बांधे कि ʹहमारे
भाई
भगवत्प्रेमी
बनें।ʹ और
भाई सोचें कि ʹहमारी
बहन भी
चरित्रप्रेमी,
भगवत्प्रेमी
बने।ʹ
अपनी सगी बहन
व पड़ोस की
बहन के लिए
अथवा अपने सगे
भाई व पड़ोसी
भाई के प्रति
ऐसा सोचें।"
भारतीय संस्कृति का रक्षाबंधन-महोत्सव, जो श्रावणी पूनम के दिन मनाया जाता है, चरित्र-निर्माण, आत्मविकास का पर्व है। भारतीय संस्कृति में संकल्पशक्ति के सदुपयोग की सुन्दर व्यवस्था है। ब्राह्मण कोई शुभ कार्य कराते हैं तो कलावा (रक्षासूत्र) बाँधते हैं। सावन के महीने में सूर्य की किरणें धरती पर कम पड़ती हैं, किस्म-किस्म के जीवाणु बढ़ जाते हैं, जिससे किसी को दस्त, किसी को उलटियाँ, किसी को अजीर्ण, किसी को बुखार हो जाता है तो किसी का शरीर टूटने लगता है। इसलिए रक्षाबंधन के दिन एक दूसरे को रक्षासूत्र बाँधकर तन-मन-मति की स्वास्थ्य-रक्षा का संकल्प किया जाता है। रक्षासूत्र में कितना मनोबल है, कितना रहस्य है।
रक्षाबंधन के दिन बहन भैया के ललाट पर तिलक-अक्षत लगाकर संकल्प करती है। बहन का शुभ संकल्प होता है और भाई का बहन के प्रति सदभाव होता है। भाई बहन की धन-धान्य, इज्जत की दृष्टि से तो रक्षा करे, साथ ही ʹबहन का चरित्र उज्जवल रहेʹ ऐसा सोचे और ʹभाई का चरित्र उज्जवल बनेʹ ऐसा बहन सोचे। अपने मन को काम में से राम की तरफ ले जायें। हम भी इस पर्व का पूर्ण लाभ उठायें और किये हुए शुभ संकल्प पर अडिग रहें। ૐ... ૐ... दृढ़ता ! ૐ....ૐ.... पवित्रता ! ૐ.... ૐ.... पुरुषार्थ ! ૐ... ૐ..... प्रभुप्रीति ! ૐ शांति.... ૐ आनंद...
ʹइस पर्व पर धारण किया हुआ रक्षासूत्र सम्पूर्ण रोगों तथा अशुभ कार्यों का विनाशक है। इसे वर्ष में एक बार धारण करने से वर्षभर मनुष्य रक्षित हो जाता है।ʹ (भविष्य पुराण)
रक्षाबंधन के दिन आप क्या संकल्प करोगे ?
क्रियाकलापः रक्षाबंधन पर्व के इतिहास के बारे में जानकारी प्राप्त कर लिखें।
भगवान श्रीरामजी ने माता-पिता व गुरु को देव मानकर उनके आदर-पूजन वे सेवा की ऐसी मर्यादा स्थापित की कि आज भी ʹमर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामकी जयʹ कहकर उनकी यशोगाथा गायी जाती है।
कैसी महिमा है हमारी भारतीय सनातन संस्कृति की, जिनके ऋषियों-महापुरुषों के मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। के सूत्र को जिन्होंने भी अपनाया, वे महान हो गये। आप भी ऐसा करके महान बनो।
जो
पूजे इनको, वह
पूजनीय बन
जाता....
भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु सांदीपनी के आश्रम में रहकर उनकी खूब प्रेम एवं निष्ठापूर्वक सेवा की। मातृ-पितृ एवं गुरु भक्तों की पावन माला में भगवान गणेश जी, पितामह भीष्म, श्रवण कुमार, पुंडलिक, आरूणि, उपमन्यु, तोटकाचार्य आदि कई सुरभित पुष्प हैं।
वर्तमान युग का एक बालक बचपन में देर रात तक अपने पिताश्री के चरण दबाता था। उसके पिताजी उसे बार-बार कहतेः "बेटा ! अब सो जाओ, बहुत रात हो गयी है।" फिर भी वह प्रेमपूर्वक आग्रह करते हुए सेवा में लगा रहता था। उसके पूज्य पिता अपने पुत्र की अथक सेवा से प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद देतेः
पुत्र
तुम्हारा जगत
में, सदा
रहेगा नाम।
लोगों के तुमसे
सदा, पूरण
होंगे काम।।
अपनी पूजनीया मातुश्री की भी उसने उऩके जीवन के आखिरी क्षण तक खूब सेवा की। युवावस्था प्राप्त होने पर इस बालक ने भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण की भाँति ही अपने सदगुरु भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज के श्रीचरणों में खूब आदर-प्रेम रखते हुए सेवा-तपोमय जीवन बिताया। आज वही बालक पूज्य संत श्री आशारामजी बापू के रूप में विश्ववंदनीय होकर करोड़ों-करोड़ों लोगों के द्वारा पूजित हो रहे हैं।
शुभ संकल्पः हे विद्यार्थी मित्रो ! आप भी प्रतिदिन अपने माता-पिता एवं सदगुरु को प्रणाम करने और उनकी सेवा करने का संकल्प लो। उनकी प्रसन्नता प्राप्त करते हुए अपने जीवन को उन्नति के रास्ते पर ले जाने का पुण्यमय पुरुषार्थ करो।
आओ
मनायें 14
फरवरी को ʹमातृ-पितृ
पूजन दिवसʹ !
"पूज्य संत श्री आशाराम बापू जी ʹमातृ-पितृ पूजन दिवसʹ की पावन परम्परा के सूत्रधार हैं। ʹशिक्षा मंत्रालयʹ और मानव संसाधन विकास मंत्रालयʹ के माध्यम से मातृ-पितृ पूजन दिवस ʹराष्ट्रीय पर्वʹ के रूप में घोषित होना चाहिए।" – श्री सुमेरूपीठ (काशी) के शंकराचार्य जगदगुरु स्वामी नरेन्द्रानंद सरस्वती जी।
"यह दिवस समूचे हिन्दूस्तान में नये इतिहास का सृजन करेगा।" – जैन समाज के आचार्य युवा लोकेश मुनिश्रीजी।
"मातृ-पितृ पूजन दिवस निश्चित तौर पर बहुत ही अच्छी बात है।" – मुख्तार अब्बास नकवी, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, भा.ज.पा.
"पूज्य बापू जी ने 14 फरवरी को ʹमातृ-पितृ पूजनʹ का दिन घोषित किया, यह बहुत ही सुंदर प्रयास है, जो आज हमारे देश के लिए बहुत जरूरी है।" - ʹरामायणʹ धारावाहिक में श्रीराम की भूमिका निभाने वाले श्री अरूण गोविल जी।
"भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी को यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई है कि भारत को पुनः विश्वगुरु बनाने हेतु वैश्विक स्तर पर प्रतिवर्ष 14 फरवरी को ʹमातृ-पितृ पूजनʹ अभियान चलाया जा रहा है।" – राष्ट्रपति के प्रेस सचिव वेणु राजामणि
"संस्कार धरोहर का संरक्षण-संवर्धन करने हेतु हर वर्ष 14 फरवरी को पूरा छत्तीसगढ़ राज्य ʹमातृ-पितृ पूजन दिवसʹ मनायेगा।" – डॉ. रमण सिंह, मुख्यमंत्री, छत्तीसगढ़।
"पूज्य बापू जी की मातृ-पितृ पूजन की पहल से समाज में नवचेतना का संचार होगा।" – भूपेन्द्र सिंह हुड्डा, मुख्यमंत्री, हरियाणा।
"माता-पिता पूजन दिवस बहुत ही अच्छा प्रयास है। आजकल के युवान-युवतियों को इसका महत्त्व बताना बहुत जरूरी है।" प्रसिद्ध गायिका अनुराधा पौडवाल
क्योंकि प्रेम तो पवित्र होता है... पूज्य संत श्री आशारामजी बापू
भारतीय संस्कृति कहती है केवल आदरभाव नहीं, पूज्यभाव। मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। अपने हितैषी माता-पिता और गुरु को देव मानने वाले हो जाओ, उनका पूजन करो और उन्नत हो जाओ।
"गणपति जी ने शिव-पार्वती जी का पूजन किया और शिव-पार्वती जी ने उनको गले लगाया और आशीर्वाद दियाः "बेटा ! तू उम्र में तो कार्तिक से छोटा है लेकिन तेरी समझ अच्छी है, तेरा पूजन पहले होगा।"
बेटे-बेटियाँ ! ʹवेलेंटाइन डेʹ क्यों मनाना ! तुम भी गणेशजी जैसे माता-पिता का पूजन करके ʹमातृ-पितृ पूजन दिवसʹ मनाओ। ऐसा प्रेम दिवस मनाओ जिसमें संयम और सच्चा विकास हो। इस दिन बच्चे-बच्चियाँ माता-पिता का आदर-पूजन करें और उनके सिर पुष्प रखें, प्रणाम करें तथा माता-पिता अपनी संतानों को प्रेम करें। बेटे-बेटियाँ माता-पिता में ईश्वरीय अंश देखें और माता-पिता बच्चों में ईश्वरीय अंश देखें। मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। पुत्रीदेवो भव। पुत्रदेवो भव। माता-पिता का पूजन करने से काम राम में बदलेगा, अहंकार प्रेम में बदलेगा, माता-पिता के आशीर्वाद से बच्चों का मंगल होगा।" पूज्य बापू जी।
आत्मारामी, श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ, योगराज प्रातःस्मरणीय पूज्य संत श्री आशारामजी बापू ने आज भारत ही नहीं वरन् समस्त विश्व को अपनी अमृतवाणी से परितृप्त कर दिया है।
बालक आसुमल का जन्म अखंड भारत के सिंध प्रांत के बेराणी गाँव में वैशाख (गुजरात-महाराष्ट्र अनुसार चैत्र) कृष्ण षष्ठी वि.सं. 1998 अर्थात् 17 अप्रैल 1941 को हुआ था। आपके पिता श्री नगरसेठ थे तथा माता श्री माँ महँगीबाजी धर्मपरायणा और सरल स्वभाव की थीं। बाल्यकाल में ही आपश्री के मुखमंडल पर झलकते ब्रह्मतेज को देखकर आपके कुलगुरु ने भविष्यवाणी की थी कि ʹआगे चलकर यह बालक एक महान संत बनेगा, लोगों का उद्धार करेगा।ʹ इस भविष्य़वाणी की सत्यता आज किसी से छिपी नहीं है।
आप श्री का बाल्यकाल एवं युवावस्था विवेक-वैराग्य की पराकाष्ठा से सम्पन्न थे, जिससे आप अल्पायु में ही गृह-त्याग कर प्रभुमिलन की प्यास में जंगलों-बीहड़ों में घूमते-तड़पते रहे। नैनीताल के जंगल में साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज आपको सदगुरु प्राप्त हुए। मात्र 23 वर्ष की अल्पायु में आपने पूर्णत्व का साक्षात्कार कर लिया। सदगुरु ने कहाः ʹआज से लोग तुम्हें ʹसंत आशारामजीʹ के रूप में जानेंगे। जो आत्मिक दिव्यता तुमने पायी है उसे जन-जन में वितरित करो।ʹ
ये ही ब्रह्मनिष्ठ संत श्री आशारामजी आज बड़े-बड़े दार्शनिकों, वैज्ञानिकों, नेताओं तथा अफसरों से लेकर अनेक शिक्षित-अशिक्षित साधक-साधिकाओं तक सभी को अध्यात्म-ज्ञान की शिक्षा दे रहे हैं, भटके हुए मानव-समुदाय को सही दिशा प्रदान कर रहे हैं।
गुरुआज्ञा शिरोधार्य करके समाधि-सुख छोड़कर आप अशांति की भीषण आग से तप्त लोगों में शांति का संचार करने हेतु समाज के बीच आ गये। सन् 1972 में आप श्री अहमदाबाद में साबरमती नदी के पावन तट पर स्थित मोटेरा गाँव पधारे, यहाँ दिन में भी मारपीट, लूटपाट, डकैती व असामाजिक कार्य होते थे। वही मोटेरा आज लाखों –करोड़ों श्रद्धालुओं का पावन तीर्थधाम, शांतिधाम बन चुका है। इस साबर-तट स्थित ʹसंत श्री आशारामजीʹ आश्रमरूपी विशाल वटवृक्ष की 425 से भी अधिक शाखाएँ आज भारत ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में फैल चुकी हैं और इन आश्रमों में सभी वर्णों, जातियों और सम्प्रदायों के लोग देश-विदेश से आकर आत्मानंद में डुबकी लगाते हैं तथा हृदय में परमेश्वरीय शांति का प्रसाद पाकर अपने को धन्य-धन्य अनुभव करते हैं। अध्यात्मविद्या के सभी मार्गों का समन्वय करके पूज्य श्री अपने शिष्यों के सर्वांगीण विकास का मार्ग सुगम करते हैं। भक्तियोग, ज्ञानयोग, निष्काम कर्मयोग और कुंडलिनी योग से साधक-शिष्यों का, जिज्ञासुओं का आध्यात्मिक मार्ग सरल कर देते हैं। निष्काम कर्मयोग हेतु आश्रम द्वारा स्थापित 1400 से भी अधिक श्रीयोग वेदांत सेवा समितियाँ आश्रम की सेवाओं को समाज के कोने-कोने तक पहुँचाने में जुटी रहती हैं।
ब्रह्मनिष्ठ अपने-आपमें एक बहुत बड़ी ऊँचाई है। ब्रह्मनिष्ठ के साथ यदि योग-सामर्थ्य भी हो तो दुग्ध-शर्करा योग की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ऐसा ही सुमेल देखने को मिलता है पूज्य बापू जी के जीवन में। एक ओर जहाँ आपकी ब्रह्मनिष्ठा साधकों को सान्निध्यमात्र से परम आनंद, पवित्र शांति में सराबोर कर देती है, वहीं दूसरी ओर आपकी करूणा-कृपा से मृत गाय को जीवनदान मिलना, अकालग्रस्त स्थानों में वर्षा होना, वर्षों से निःसंतान रहे दम्पत्तियों को संतान होना, रोगियों के असाध्य रोग सहज में दूर होना, निर्धनों को धन प्राप्त होना, अविद्वानों को विद्वता प्राप्त होना, घोर नास्तिकों के जीवन में आस्तिकता का संचार होना – इस प्रकार की अनेकानेक घटनाएँ आपके योग-सामर्थ्य सम्पन्न होने का प्रमाण हैं।
ʹसभी का मंगलʹ का उदघोष करने वाले पूज्य बापू जी को हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी व अन्य धर्मावलम्बी भी अपने हृदय-मंदिर में बसाये हुए हैं व अपने को पूज्य श्री के शिष्य कहलाने में गर्व महसूस करते हैं। भारत की राष्ट्रीय एकता-अखंडता व शांति के प्रबल समर्थक पूज्य बापू जी ने राष्ट्र के कल्याणार्थ अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया है।
सदगुरु साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज
"लाखों-लाखों जन्म के माता-पिता जो न दे सके, वह मेरे परम पिता गुरुदेव ने मुझे हँसते-खेलते दे दिया। मुझे घर में घर बता दिया।" पूज्य बापू जी।
गुरु
बिन भवनिधि
तरइ न कोई। जो
बिरंचि शंकर
सम होई।।
(श्रीरामचरितमानस)
ʹसदगुरु के बिना कोई भवसागर से नहीं तर सकता, चाहे वह ब्रह्माजी और शंकर जी के समान ही क्यों न हो !ʹ सदगुरु के बिना परमात्म-ज्ञान नहीं हो सकता, सभी धर्मग्रन्थों में इस बात के प्रमाण मिलते हैं। वेद-शास्त्रों तथा पुराणों ने भी सदगुरु की महिमा गायी है। भगवान शिवजी पार्वती जी को कहते हैं-
गुरुर्देवो
गुरुधर्मो
गुरौ निष्ठा
परं तपः।
गुरोः परतरं
नास्ति त्रिवारं
कथयामि ते।।
ʹगुरु ही देव हैं, गुरु ही धर्म हैं, गुरु में निष्ठा ही परम तप है। गुरु से अधिक और कुछ नहीं है, यह मैं तीन बार कहता हूँ।ʹ
आज तक जिसने भी आध्यात्मिक उन्नति की है, किसी-न-किसी सदगुरु के मार्गदर्शन में ही की है। राजा जनक ने अष्टावक्रजी से, राजा भर्तृहरि ने योगी गोरखनाथजी से, अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से, पूज्य बापू जी ने भगवत्पाद श्री लीलाशाहजी महाराज से आत्मज्ञान प्राप्त किया और वर्तमान में पूज्य बापू जी उसी का रसपान पूरे विश्व को करा रहे हैं।
सदगुरु सदैव अपने शिष्य पर रहमत की बरसात करते ही रहते हैं। धन्य हैं जो गुरु कृपा को पचाते हैं।
सिख गुरु अमरदास जी की उम्र लगभग 105 वर्ष हो गयी थी, तब उनके कुछ शिष्य सोचा करते थे, ʹमैंने गुरु जी की बहुत सेवा की है, इसलिए यदि गुरुगद्दी मुझे सौंप दी जाय तो कितना अच्छा होगा !ʹ
एक दिन अमरदास जी ने शिष्यों को बुलाकर कहाः "तुम लोग अलग-अलग अच्छे चबूतरे बनाओ !"
चबूतरे बन गये पर उनमें से एक भी पसंद नहीं आया। उन्होंने फिर से बनाने को कहा। ऐसा कई बार हुआ। शिष्य चबूतरे बनाते और गुरुजी उन्हें तोड़ने को कहते।
आखिर शिष्य निराश हो गये और सेवा छोड़कर जाने लगे किन्तु शिष्य रामदास अभी भी चबूतरा बनाने में जुटा हुआ था। उन लोगों ने उससे कहाः "पागल का हुक्म मानकर तुम भी पागल क्यों बन रहे हो ? चलो छोड़ दो चबूतरा बनाना।"
रामदास ने कहाः "अगर गुरु पागल हैं तो किसी का भी दिमाग दुरुस्त नहीं रह सकता। हमें तो यही सीख मिली है कि गुरु ईश्वर का ही दूसरा रूप हैं और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए। अगर गुरुदेव सारी जिंदगी चबूतरा बनाने का आदेश दें तो रामदास जिंदगीभर चबूतरा बनाता रहेगा।"
इस प्रकार रामदास ने लगभग सत्तर चबूतरे बनाये और अमरदास जी ने उन सबको तुड़वाकर फिर से बनाने का आदेश दिया। आखिर गुरु ने उसकी लगन और भक्ति देख उसे छाती से लगा कर कहाः "तू ही सच्चा शिष्य है और तू ही गुरुगद्दी का अधिकारी होने के काबिल है।" इतिहास साक्षी है कि गुरु अमरदासजी के बाद गुरुगद्दी सँभालने वाले रामदास जी ही थे।
गुरु की कृपा पाने का सच्चा अधिकारी कौन है ?
शिष्यों से चबूतरे बनवाने के पीछे गुरु अमरदास का क्या उद्देश्य था ?
क्रियाकलापः पाँच सदगुरुओं और सत्शिष्यों के नाम लिखें तथा एक विद्यार्थी दूसरे को बताये।
ʹगुरु की सेवा से शिष्य का मन किसी भी प्रकार के प्रयत्न बिना ही अपने-आप एकाग्र होने लगता है।" गुरुभक्तियोग ग्रंथ
संत एकनाथ जी ने 10 वर्ष की छोटी उम्र में ही देवगढ़ राज्य के दीवान श्री जनार्दनस्वामी के श्रीचरणों में अपना जीवन समर्पित कर दिया था। वे गुरुदेव के कपड़े धोते, पूजा के लिए फूल लाते, गुरुदेव भोजन करते तब पंखा झलते, उनके ऩाम आये हुए पत्र पढ़ते-ऐसे एवं अन्य भी कई प्रकार के छोटे-मोटे काम वे गुरुचरणों में करते।
एक बार गुरुदेव ने एकनाथ को राजदरबार का हिसाब करने को कहा। दूसरे ही दिन प्रातः सारा हिसाब राजदरबार में बताना था। पूरा दिन हिसाब किताब देखने में लिखने में बीत गया। रात हुई। एकनाथ को पता नहीं चला कि रात शुरु हो गयी है। हिसाब में एक पाई की भूल आ रही थी। आधी रात बीत गयी फिर भी भूल पकड़ में नहीं आयी।
प्रातः जल्दी उठकर गुरुदेव ने देखा कि एकनाथ तो अभी भी हिसाब देख रहा है ! वे आकर दीपक के आगे चुपचाप खड़े हो गये। बहियों पर थोड़ा अँधेरा छा गया फिर भी एकनाथ एकाग्रचित्त से बहियाँ देखते रहे। इतने में पाई की भूल पकड़ में आ गयी। एकनाथ हर्ष से चिल्ला उठेः "मिल गयी... मिल गयी....!" गुरुदेव ने पूछाः "क्या मिल गयी बेटा ?"
एकनाथ चौंक पड़े। ऊपर देखा तो गुरुदेव सामने खड़े हैं ! उठकर प्रणाम किया और बोलेः "गुरुदेव ! एक पाई की भूल पकड़ में नहीं आ रही थी। अब वह मिल गयी।"
हजारों के हिसाब में एक पाई की भूल !... और उसको पकड़ने के लिए रात भर जागरण ! गुरु की सेवा में इतनी लगन, इतनी तितिक्षा और भक्ति देखकर श्री जनार्दन स्वामी के हृदय से गुरुकृपा छलक पड़ी। सदगुरु की आध्यात्मिक वसीयत सँभालने वाला शिष्य मिल गया। एकनाथ जी के जीवन में पूर्ण ज्ञान का सूर्य उदित हुआ। साक्षात गोदावरी माता भी लोगों द्वारा डाले गये पाप धोने के लिए ब्रह्मनिष्ठ संत एकनाथ जी के सत्संग में आती थीं। संत एकनाथ जी की ʹएकनाथी भागवतʹ को सुनकर आज भी लोग तृप्त होते हैं।
जनार्दन स्वामी के हृदय से गुरुकृपा क्यों छलक पड़ी ?
इस प्रसंग से आप क्या प्रेरणा लेंगे और अपने जीवन में उसे कैसे उतारेंगे ?
रात्रि में अनजाने में हुए पाप सुबह की संध्या से दूर होते हैं। सुबह से दोपहर तक के दोष दोपहर की संध्या से और दोपहर के बाद अनजाने में हुए पाप शाम की संध्या करने से नष्ट हो जाते हैं तथा अंतःकरण पवित्र होने लगता है।
आजकल लोग संध्या करना भूल गये हैं इसलिए जीवन में तमस् बढ़ गया है। प्राणायाम से जीवनशक्ति, बौद्धिक शक्ति और स्मरणशक्ति का विकास होता है। संध्या के समय हमारी सब नाड़ियों का मूल आधार जो सुषुम्ना नाड़ी है, उसका द्वार खुला हुआ होता है। इससे जीवनशक्ति, कुंडलिनी शक्ति के जागरण में सहयोग मिलता है। वैसे तो ध्यान-भजन कभी भी करो, पुण्यादायी होता है किंतु संध्या के समय उसका प्रभाव और भी बढ़ जाता है। त्रिकाल संध्या करने से विद्यार्थी भी बड़े तेजस्वी होते हैं। अतएव जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए मनुष्यमात्र को त्रिकाल संध्या का सहारा लेकर अपना नैतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक उत्थान करना चाहिए।
प्रातःकाल सूर्योदय से दस मिनट पहले और दस मिनट बाद में, दोपहर को बारह बजे के दस मिनट पहले और बाद में तथा सायंकाल को सूर्यास्त के दस मिनट पहले और बाद में – यह समय संधि का होता है। प्राचीन ऋषि-मुनि त्रिकाल संध्या करते थे। भगवान श्रीरामजी उनके गुरुदेव वसिष्ठजी भी त्रिकाल संध्या करते थे। भगवान राम संध्या करने के बाद ही भोजन करते थे।
संध्या के समय हाथ पैर धोकर, तीन चुल्लू पानी पीकर फिर संध्या में बैठें और प्राणायाम करें, जप करें, ध्यान करें तो बहुत अच्छा। अगर कोई ऑफिस या कहीं और जगह हो तो वहीं मानसिक रूप से कर ले तो भी ठीक है।
त्रिकाल संध्या कब और कैसे करें ?
त्रिकाल संध्या से क्या-क्या लाभ होते हैं ?
क्रियाकलापः
त्रिकाल
संध्या शुरु
करने से आपको
अपने पूर्व के
जीवन में और
अभी वर्तमान
में क्या फर्क
महसूस हुआ
लिखकर
माता-पिता को
दिखाओ।
ब्रह्मलीन
ब्रह्मनिष्ठ
साँईं श्री
लीलाशाह जी महाराज
की हितभरी
वाणी
दीपक
जलता है तो
बत्ती और तेल
जलता है। इसी
तरह जितना
अधिक बोला
जाता है, अंदर
की शक्ति उतनी
ही नष्ट होती
है।
मौन
का अर्थ है
अपनी शक्ति
व्यय न करना।
मनुष्य जैसे
अन्य
इन्द्रियों
से अपनी शक्ति
खर्च करता है,
वैसे बोलने से
भी अपनी बहुत
शक्ति व्यय
करता है। आजकल
देखोगे तो
छोटे बालक तथा
बालिकाएँ भी
कितना वाद
विवाद करते
हैं। उन्हें
इसकी पहचान ही
नहीं है कि
हमें जो कुछ
बोलना है,
उससे अधिक तो
नहीं बोलते।
और जो कुछ
बोलते हैं वह
ऐसा तो नहीं
है, जो दूसरे
को अच्छा न लगे
या दूसरे के
मन में दुःख
उत्पन्न करे।
कहते हैं कि
तलवार का घाव
तो भर जाता है
किंतु जीभ से
कड़वे शब्द
कहने पर जो
घाव होता है,
वह मिटने वाला
नहीं है।
इसलिए सदैव
सोच-समझकर
बोलना चाहिए।
जितना हो सके
उतना मौन रहना
चाहिए।
महात्मा
गांधी प्रति
सोमवार को
मौनव्रत रखते
थे। मौन धारण
करने की बड़ी
महिमा है। इसे
धारण करोगे तो
बहुत लाभ
प्राप्त करोगे।
"आप
कम बोलें,
सारगर्भित
बोलें, सुमधुर
और हित से भरा
बोलें। मानवी
शक्तियों को
हरने वाली निंदा,
ईर्ष्या,
चुगली, झूठ,
कपट – इन गंदी
आदतों से बचें
और मौन व
सारगर्भिता का
सेवन करें।" पूज्य
बापू जी।
व्यर्थ
की बातें करने
वाले का क्या
नुकसान होता
है ?
दीपक
के दृष्टांत
से क्या सीख
मिलता है ?
क्रियाकलापः
आप
प्रतिदिन कुछ
समय मौन रखने
का संकल्प
करें।
भगवन्नाम-जप
से
रोगप्रतिकारक
शक्ति बढ़ती
है, अनुमान
शक्ति जगती
है,
स्मरणशक्ति
और
शौर्यशक्ति का
विकास होता
है।
संत
श्री
आशारामजी
बापू के
सत्संग
प्रवचन से
नानक
जी ने बड़ी ही
सुंदर बात कही
है-
भयनाशन
दुर्मति हरण,
कलि में हरि
को नाम।
निशदिन
नानक जो जपे,
सफल होवहिं सब
काम।।
भगवन्नाम
में, मंत्रजप
में बड़ी
अदभुत शक्ति है।
इसे
वैज्ञानिक
भी स्वीकार कर
रहे हैं। अभी
डॉ. लिवर
लिजेरिया,
वॉटस हक, मैडम
लॉगो तथा
दूसरे
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
ह्रीं, हरि, ૐ आदि के
उच्चारण से
शरीर के
विभिन्न
भागों पर भिन्न-भिन्न
हितकारी असर
पड़ता है। 17 वर्षों
के अनुभव के
पश्चात
उन्होंने यह
खोज निकाला कि
ʹहरिʹ के साथ अगर ʹૐʹ शब्द
मिलाकर
उच्चारण किया
जाय तो पाँचों
ज्ञानेन्द्रियों
पर उसका
प्रभाव अच्छा
पड़ता है।
किंतु भारत के
ऋषि-मुनियों
ने इससे भी
अधिक जानकारी
हजारों-लाखों
वर्ष पहले
शास्त्रों में
वर्णित कर दी
थी।
भगवन्नाम जप
से केवल स्थूल
शरीर को फायदा
होता है ऐसी
बात नहीं है
वरन् इससे
हमारे अन्नमय,
प्राणमय,
मनोमय,
विज्ञानमय और
आनंदमय इन पाँचों
शरीरों पर,
समस्त
नाड़ियों पर तथा
सातों
केन्द्रों पर
बड़ा
सात्त्विक
प्रभाव पड़ता
है।
सारस्वत्य
मंत्र के
प्रभाव से
बुद्धि
कुशाग्र होती
है,
स्मरणशक्ति
विकसित होती
है।
ग्रीष्मकालीन
अवकाश में या
अन्य
छुट्टिय़ों के
समय
सारस्वत्य
मंत्र का अनुष्ठान
करके बच्चे
इसका
अधिकाधिक लाभ
उठा सकते हैं।
पहले के
गुरुकुलों
में लौकिक
विद्या के
साथ-साथ
विद्यार्थियों
की सुषुप्त
शक्तियाँ भी
जाग्रत हों,
ऐसी व्यवस्था
थी। यदि आज का
विद्यार्थी
शास्त्रों
में वर्णित और
वैज्ञानिकों
द्वारा सिद्ध
इन प्रमाणों
को समझ लें और
किन्हीं
ब्रह्मवेत्ता
महापुरुष से
मंत्रदीक्षा
प्राप्त कर ले
तो वह आज भी
अपनी सुषुप्त शक्तियों
को जागृत करने
की कुंजियाँ
पाकर अपने जीवन
को व औरों को
भी समुन्नत कर
सकता है।
सारस्वत्य
मंत्र
विद्यार्थियों
के लिए लाभदायक
क्यों है ?
भगवन्नाम-जप
से किन-किन
शक्तियों का
विकास होता है
?
क्रियाकलापः
भगवन्नाम
व मंत्र तथा
उनके लाभ – इस
प्रकार की एक
तालिका
बनायें।
पुस्तक में अन्यत्र
दिये लाभ भी
ले सकते हैं।
पूज्य संत
श्री आशाराम
जी बापू
मंत्रदीक्षा के
समय
विद्यार्थियों
को सारस्वत्य
मंत्र और अन्य
दीक्षार्थियों
को वैदिक
मंत्र की दीक्षा
देते हैं।
सारस्वत्य
मंत्र के जप से
बुद्धि
कुशाग्र बनती
है और
विद्यार्थी
मेधावी होता
है।
सारस्वत्य
मंत्र की
दीक्षा पाकर
कई
विद्यार्थियों
ने अपना
भविष्य
उज्जवल बनाया
है।
वीरेन्द्र
मेहता नामक एक
सामान्य
विद्यार्थी
ने ʹऑक्सफोर्ड
एडवांस्ड
लर्नर्स
डिक्शनरीʹ के 80 हजार
शब्द
पृष्ठ-संख्यासहित
याद कर एक
महान
विश्वरिकार्ड
दर्ज किया है।
तनिश्क
(तांशु)
बेसोया नामक 5
साल के छोटे
से बच्चे ने
दिल्ली की
जोखिमभरी
सड़कों पर 5
कि.मी. कार
चलाकर अपने
छोटे भाई
हिमांशु की
जान बचायी।
उसे
राष्ट्रपति,
मुख्यमंत्री
एवं अन्य अऩेक
मान्यवरों
द्वारा
सम्मानित
किया गया।
कमजोर
स्मृतिवाले
अजय मिश्रा ने
पूज्य बापू जी
से सारस्वत्य
मंत्र
की दीक्षा
लेकर उसका
अनुष्ठान
किया। परिणाम
यह हुआ कि अजय
मिश्रा
(सालाना वेतन 30
लाख रूपये)
नोकिया
कम्पनी में ʹविश्वस्तरीय
प्रबन्धकʹ (Global Product Manager) हुए।
भैंस चराने
वाला क्षितीश
सोनी आज ʹगो एयरʹ हवाई जहाज
कम्पनी में ʹमुख्य
इंजीनियरʹ पद पर
पहुँचे हैं
(सालाना वेतन 21.60
लाख रूपये)। ऐसे
लाखों
विद्यार्थी
हैं, जो अपने
यश का श्रेय
बापू जी की
कृपा से
प्राप्त
सारस्वत्य
मंत्र और
यौगिक
प्रयोगों को
ही देते हैं।
भारत के
सबसे तेज बोलर
इशांत शर्मा
कहते हैं- "पूज्य बापू
जी की
मंत्रदीक्षा
व संयम-सदाचार
के उपदेश से
जीवन के हर
क्षेत्र में
विद्यार्थियों
को अप्रतिम
सफलता मिल
सकती है। ʹदिव्य
प्रेरणा
प्रकाशʹ ग्रंथ देश
के हर
विद्यार्थी
को पढ़ना ही
चाहिए।"
आश्रम
द्वारा
आयोजित ʹविद्यार्थी
उत्थान शिविरʹ व ʹविद्यार्थी
उज्जवल
भविष्य
निर्माण
शिविरʹ
विद्यार्थियों
के लिए वरदान
ही सिद्ध होते
हैं। ʹदिव्य
प्रेरणा-प्रकाश
ज्ञान
प्रतियोगिताʹ से अब तक 80 लाख
से अधिक
विद्यार्थी
लाभान्वित हो
चुके हैं।
अनुभव
प्रकाशः पूज्य बापू
जी से प्राप्त
सारस्वत्य
मंत्रदीक्षा
प्रतिभा
विकास की संजीवनी
बूटी है। युवा
वैज्ञानिक
फिजियोथेरेपिस्ट
डॉ. राहुल
कत्याल
नास्ति
ध्यानसमं
तीर्थम्। ध्यान
के समान कोई
तीर्थ नहीं।
नास्ति
ध्यानसमं
दानम्। ध्यान के
समान कोई दान
नहीं।
नास्ति
ध्यानसमं
यज्ञम्। ध्यान के
समान कोई यज्ञ
नहीं।
नास्ति
ध्यानसमं
तपम्।
ध्यान के समान
कोई तप नहीं।
तस्मात्
ध्यानं
समाचरेत्। अतः हर
रोज ध्यान
करना चाहिए।
सूर्योदय से
पहले उठकर,
स्नान आदि
करके गर्म कम्बल
अथवा टाट का
आसन बिछाकर
पद्मासन में
बैठें। अपने
सामने भगवान
अथवा गुरुदेव
का श्रीचित्र
रखें।
धूप-दीप-अगरबत्ती
जलायें। फिर दोनों
हाथों को
ज्ञानमुद्रा
में घुटनों पर
रखें। थोड़ी
देर तक
श्रीचित्र को
देखते-देखते त्राटक
करें (एकटक
देखना)। इसके
बाद आँखें बंद
करके
आज्ञाचक्र
में उस
श्रीचित्र का
ध्यान करें।
बाद में गहरा
श्वास लेकर
थोड़ी देर
अंदर रोके
रखें, फिर ʹहरि ૐ...ʹ का दीर्घ
उच्चारण करते
हुए श्वास को
धीरे-धीरे
बाहर छोड़ें।
श्वास को भीतर
लेते समय मन
में भावना
करें- "मैं
सदगुण, भक्ति,
निरोगता,
माधुर्य, आनंद
को अपने भीतर
भर रहा हूँ।ʹ और श्वास को
बाहर छोड़ते
समय ऐसी भावना
करें- ʹमैं
दुःख, चिंता, रोग, भय
को अपने भीतर
से बाहर निकाल
रहा हूँ।ʹ इस प्रकार
सात बार करें।
ध्यान करने के
बाद पाँच-सात
मिनट शांत भाव
से बैठे रहें।
लाभः इससे मन
शांत रहता है,
एकाग्रता व
स्मरणशक्ति बढ़ती
है, बुद्धि
सूक्ष्म होती
है, शरीर
निरोग रहता
है, परम शांति
का अनुभव होता
है और
परमात्मा,
सदगुरु के साथ
मानसिक संबंध
स्थापित किया
जा सकता है।
हमारे शरीर
में सात यौगिक
चक्र (यौगिक
केन्द्र) हैं।
स्थूल शरीर
में ये चक्र
सामान्य
आँखों से
दिखाई नहीं देते
क्योंकि ये
सूक्ष्म शरीर
में होते हैं।
प्रत्येक आसन
करते समय उससे
संबंधित
केन्द्र का
ध्यान करने से
चमत्कारिक
लाभ होते हैं।
सूर्योदय से
सवा दो घंटे
पूर्व से लेकर
सूर्योदय तक
का समय
ब्राह्ममुहूर्त
कहलाता है। शास्त्रों
में यही समय
निद्रा-त्याग
के लिए उचित
बताया गया है।
उस समय जप,
ध्यान,
प्राणायाम
आदि साधना-उपासना
करने की भारी
महिमा है।
जगत के
करीब-करीब सभी
जीव इस समय
प्रगाढ़ निद्रावस्था
में होते हैं,
जिससे
वातावरण उनसे
निकलने वाली
निकृष्ट
तरंगों से
रहति होता है।
दूसरी ओर इस
समय ऋषि, मुनि,
संत, महात्मा
व
ब्रह्मज्ञानी
महापुरुष
ध्यान-समाधि
में तल्लीन
होते हैं, जिससे
उनकी
उत्कृष्ट
तरंगों से
वातावरण
समृद्ध होता
है। इसलिए जो
लोग
ब्राह्ममुहूर्त
की वेला में
जागते हैं
उन्हें
वातावरण की इस
श्रेष्ठ
अवस्था का लाभ
मिलता है।
इस समय शांत
वातावरण,
शुद्ध और शीतल
वायु रहने के
कारण मन में
सात्त्विक
विचार, उत्साह
तथा शरीर में
स्फूर्ति
रहती है। देर
रात तक चाय
पीकर, जागकर
पढ़ाई करना
स्वास्थ्य और
बुद्धि के लिए
हानिकारक है।
इसकी अपेक्षा
ब्राह्ममुहूर्त
में जागकर
अध्ययन करना
विद्यार्थियों
के लिए अति उत्तम
है।
भगवान सूर्य
को जल करते
हैं तो जल की
धारा को पार
करती हुई
सूर्य की
सप्तरंगी
किरणें हमारे सिर
से पैर तक
पड़ती हैं, जो
शरीर के सभी
भागों को
प्रभावित
करती हैं।
इससे हमें
स्वतः ही ʹसूर्यकिरणयुक्त
जल-चिकित्साʹ का लाभ
मिलता है और
बौद्धिक
शक्ति में
चमत्कारिक
लाभ के साथ नेत्रज्योति,
ओज-तेज,
निर्णयशक्ति
एवं पाचनशक्ति
में वृद्धि
पायी जाती है
व शरीर स्वस्थ
रहता है।
अर्घ्य जल को
पार करके आने वाली सूर्यकिरणें
शक्ति व
सौंदर्य
प्रदायक भी हैं।
सूर्य प्रकाश
के हरे,
बैंगनी और
अल्ट्रावायलेट
भाग में
जीवाणुओं को
नष्ट करने की
विशेष शक्ति
है।
अर्घ्य देने
के बाद नाभि व
भ्रूमध्य
(भौहों के बीच)
पर
सूर्यकिरणों
का आवाहन करने
से क्रमशः
मणिपुर व
आज्ञाचक्रों
का विकास होता
है। इससे
बुद्धि
कुशाग्र होती
है। अतः हम
सबको प्रतिदिन
सूर्योदय के
समय सूर्य को
ताँबे के लोटे
से अर्घ्य
देना चाहिए।
अर्घ्य देते
समय इस ʹसूर्य
गायत्री
मंत्रʹ का
उच्चारण करना
चाहिएः
ૐ
आदित्याय
विद्महे
भास्कराय
धीमहि। तन्नो
भानुः
प्रचोदयात्।
प्राचीनकाल में
हमारे ऋषि मुनियों
ने मंत्र और
व्यायाम सहित
एक ऐसी आसन्
प्रणाली
विकसित की,
जिसमें
सूर्योपासना
का भी समावेश
है। इसे
सूर्यनमस्कार
कहते हैं।
इसके नियमित
अभ्यास से
शारीरिक और
मानसिक
स्फूर्ति की
वृद्धि के साथ
विचारशक्ति
और स्मरणशक्ति
भी तीव्र होती
है। पश्चिमी
वैज्ञानिक
गार्डनर रोनी
ने कहा हैः ʹसूर्य
श्रेष्ठ औषधि
है। सूर्य की
किरणों के प्रभाव
से सर्दी,
खाँसी,
न्यूमोनिया
और कोढ़ जैसे
रोग भी दूर हो
जाते हैं।ʹ डॉ. सोले
कहते हैं- ʹसूर्य
में जितनी
रोगनाशक
शक्ति है,
उतनी संसार की
किसी अन्य चीज
में नहीं है।ʹ
सूर्योदय,
सूर्यास्त,
सूर्यग्रहण
और मध्याह्न
के समय सूर्य
की ओर कभी न देखें,
जल में भी
उसका
प्रतिबिम्ब न
देखें। (महाभारत,
अनुशासन पर्व)
विभिन्न
धर्मों के
उपासना-स्थलों
के ऊर्जास्तरों
का तुलनात्मक
अध्ययन किया
गया तो चर्च
में क्रॉस के
इर्दगिर्द
लगभग 10000 बोविस
ऊर्जा का पता
चला।
मस्जिदों में
इसका स्तर 11000
बोविस
रिकार्ड किया
गया है।
शिवमंदिर में
यह स्तर 16000
बोविस से अधिक
प्राप्त हुआ।
हिन्दू धर्म
के प्रधान
चिह्न
स्वस्तिक में
यह ऊर्जा 10,00000 (दस
लाख) बोविस
पायी गयी।
इससे स्पष्ट
है कि भारतीय
संस्कृति में
इस चिह्न को
इतना महत्त्व
क्यों दिया गया
है और क्यों
इसे धार्मिक
कर्मकांडों
के दौरान,
पर्व-त्यौहारों
में एवं मुंडन
के उपरान्त
छोटे बच्चों
के मुंडित
मस्तक पर,
गृह-प्रवेश के
दौरान
दरवाजों पर और
नये वाहनों की
पूजा व अर्चना
के समय वाहनों
पर पवित्र
प्रतीक के रूप
में अंकित
किया जाता है।
आभूषणों का
स्वास्थ्य-रक्षक
प्रभाव
नाक
में नथनीः सर्दी-खाँसी
आदि रोगों में
राहत देती है।
चाँदी
की पायलः महिलाओं की
स्त्री-रोगों
से रक्षा तथा
उनका स्वास्थ्य
व मनोबल
बढ़ाने में
सहायक होती
है।
हाथ
की सबसे छोटी
उँगली में
अँगूठी- छाती का
दर्द व घबराहट
से रक्षा करती
है।
सोने
के
कर्णकुंडलः मस्तिष्क
के दोनों
भागों को
विद्युत के
प्रभावों से
प्रभावशाली
बनाने में मदद
करते हैं।
मस्तक
पर चंदन या
सिंदूर का
तिलकः आज्ञाचक्र
को विकसित
करता है तथा
निर्णयशक्ति
व स्मरणशक्ति
बढ़ाता है।
तुलसी की जड़
की मिट्टी य़ा
हल्दी का तिलक
भी फायदा करता
है। प्लास्टिक
की बिन्दी
नुकसान करती
है।
हमारे
आयुर्वेद
ग्रंथों ने
ऐसे शुद्ध,
ताजे और
सात्त्विक
आहार का चुनाव
किया है,
जिसको खाने से
मन पवित्र और
बुद्धि
सात्त्विक
रहे। परंतु
दुर्भाग्यवश
पश्चिमी ʹकल्चरʹ का
अंधानुकरण कर
रहे भारतीय
समाज का मध्यम
तथा
उच्चवर्गीय
भाग फास्टफूड
खाने की अंधी
दौड़ में अपने
तन मन को
विकृत कर रहा
है। विद्यार्थी
भी इसकी चपेट
में आकर अपने
स्वास्थ्य के
दुश्मन
फास्टफूड को
मित्र समझ
बैठे हैं।
फास्टफूड को
आकर्षक,
स्वादिष्ट व
ज्यादा दिन तक
तरोताजा रखने
के लिए उनमें
तरह तरह के
रसायन
(केमिकल)
मिलाये जाते
हैं। उनमें बेन्जोइक
एसिड अत्यधिक
हानिकारक है,
जिसकी 2 ग्राम
मात्रा भी एक
बंदर या
कुत्ते को मार
सकती है।
मेग्नेशियम
क्लोराइड और
कैल्शियम
साइट्रेट से
आँतों में घाव
होते हैं,
मसूड़ों में घाव
हो सकते हैं
एवं किडनी
क्षतिग्रस्त
होती है।
सल्फर
डायोक्साइड
से उदर-विकार
होते हैं तथा
एरिथ्रोसीन
से अन्ननली और
पाचनतंत्र को
हानि होती है।
फास्टफूड से
ई-कोलाई,
सल्मोनेल्ला,
क्लोब्सिएल्ला
आदि जीवाणुओं
का संक्रमण
होने से न्यूमोनिया,
बेहोशी, तेज
बुखार,
मस्तिष्क
ज्वर, दृष्टिदोष,
मांसपेशियों
के रोग,
हृदयाघात आदि
बीमारियाँ
होती हैं। अतः
आँतों की
बीमारियाँ व
आँतों को
कमजोर करने
वाली डबल
रोटी, बिस्कुट
में कृत्रिम
फास्टफूडस से
बचो।
सात्त्विक
नाश्ता व आहार
करो। हमारे
शास्त्रों ने
भी कहा हैः ʹजैसा
अन्न वैसा मन।ʹ
शीतल पेय
(सॉफ्टड्रिंक्स)
में
पेस्टीसाइडस
और एसिड
अत्यधिक नुकसानकारक
मात्रा में
मौजूद हैं।
डीडीटी से कैंसर,
रोगप्रतिकारक
शक्ति का
ह्रास और
जातीय विकास
में विकृति
होती है।
लींडेन से
कैंसर होता है
तथा मस्तिष्क
और चेता तंत्र
(नर्वस सिस्टम)
को हानि होती
है।
मेलेथियोन
ज्ञानतंतुओं
की हानि करता
है और भावी
पीढ़ियों को
आनुवंशिक
विकृतियों का
शिकार बनाता
है। इनमें
कार्बोलिक
एसिड होने की
वजह से ये
खतरनाक हैं,
जिनका सेवन
नहीं किया जा
सकता है। ʹसेंटर फॉर
साइंस एंड
एन्वायरोनमेंटʹ की निदेशक
तथा प्रख्यात
पर्यावरणविद्
सुनीत नारायण
ने बाजार में
मौजूद तमाम
कम्पनियों के
सॉफ्टड्रिंक्स
के नमूनों की
जाँच करवायी
और सारे
नमूनों में खतरनाक
मात्रा में
पेस्टीसाइडस
पाये गये, जो उपयोगकर्ता
के स्वास्थ्य
को गम्भीर
नुकसान पहुँचाते
हैं।
महाराष्ट्र
के ʹफूड एंड
ड्रग्सʹ विभाग ने
अपनी जाँच में
पाया था कि ये
पेय छात्रों
के स्वास्थ्य
का सत्यानाश
कर रहे हैं। (संदर्भः
लोकमत समाचार)
आज आधुनिक
चिकित्सक एवं
वैज्ञानिक
रासायनिक
रंगों की
हानियाँ
उजागर करते जा
रहे हैं। जैसे-
रंग
|
रसायन |
दुष्प्रभाव |
काला |
लेड
ऑक्साइड |
गुर्दे
की बीमारी |
हरा |
कॉपर
सल्फेट |
आँखों
में जलन, सूजन,
अस्थायी
अंधत्व |
सिल्वर |
एल्यूमीनियम
ब्रोमाइड |
कैंसर |
नीला |
प्रूशियन
ब्लू |
ʹकान्टेक्ट
डर्मेटाइटिसʹ नामक भयंकर
त्वचारोग |
लाल |
मरक्यूरिक
सल्फाइड |
त्वचा
का कैंसर |
बैंगनी |
क्रोमियम
आयोडाइड |
दमा
और एलर्जी |
पलाश-पुष्पों
के प्राकृतिक
रंग से होली
खेलने से शरीर
में गर्मी सहन
करने की
क्षमता बढ़ती
है। इतना ही
नहीं, पलाश के
फूलों का रंग
रक्त-संचार
में वृद्धि
करता है,
मांसपेशियों
को स्वस्थ
रखने के
साथ-साथ
मानसिक शक्ति
व इच्छाशक्ति
को बढ़ाता है।
शरीर की
सप्तधातुओं,
सप्तरंगों का
संतुलन करता है।
अतः
पलाश के
फूलों के रंग
से अथवा अन्य
प्राकृतिक
रंगों से होली
खेलनी चाहिए।
देश में आये
दिन घटित होने
वाली आपराधिक
घटनाओं का
कारण क्या है ? अऩेक
कारणों के
अलावा टीवी
चैनलों,
फिल्मों व
अन्य प्रचार
साधनों की भी
इसमें
महत्त्वपूर्ण
भूमिका है।
शिवपुरी
(म.प्र.) स्थित
अरोरा गाँव की
एक घटित घटना
हैः 16 वर्षीय
मनोज और 13
वर्षीय
रामनिवास ने
अपने मालिक के
पुत्र शानु का
अपहरण करके
उसके पिता से
धन की माँग की
और शानु की
हत्या कर दी।
दोनों किशोरों
ने पुलिस को
आत्मसमर्पण
किया और
स्वीकार किया
कि यह प्रेरणा
उन्होंने
फिल्म देखकर
पायी थी।
अमेरिका और
अन्य विकसित
देशों में
प्रायः ऐसी
घटनाएँ होती
रहती हैं।
सिनेमा
टी.वी. का
दुरुपयोग
विद्यार्थियों
के लिए
अभिशापरूप
है। चोरी,
मद्यपान,
भ्रष्टाचार,
हिंसा, बलात्कार,
निर्लज्जता
जैसे
कुसंस्कारों
से बाल और युवावर्ग
को बचाना
चाहिए। इसलिए
टीवी के विविध
चैनलों का
उपयोग
ज्ञानवर्धक
कार्यक्रम, संत-महात्माओं
के सत्संग तथा
प्राकृतिक
सौंदर्य
दिखाने वाले
कार्यक्रमों
तक ही मर्यादित
करना चाहिए।
शरीर जितना
निरोग, स्वच्छ
व पवित्र
रहेगा, उतना
ही आत्मा का
प्रकाश इसमें
अधिक
प्रकाशित होगा।
यदि दर्पण ही
ठीक न होगा तो
प्रतिबिम्ब
कैसे दिखाई
देगा ? सफलता के
लिए भी स्वस्थ
तन और मन
जरूरी हैं। आइये
जानें स्वस्थ
रहने की कुछ
अनुपम
कुंजियों के
बारे में।
किसी भी प्रकार के रोग में मौन रहने से स्वास्थ्य-सुधार में मदद मिलती है।
जल्दी
सोयें, जल्दी
उठें। रात्रि
9 बजे से प्रातः
3 या 4 बजे तक की
प्रगाढ़
निद्रा से ही
आधे रोग ठीक
हो जाते हैं। ʹअर्धरोगहरी
निद्रा।ʹ
रात्रि में 9 में से 12 बजे के बीच 1 घंटे की नींद तीन घंटे का आराम देती है, मध्यरात्रि 12 से 3 बजे के बीच 1 घंटे की नींद 1.5 घंटे का आराम देती है, 3 से 5 बजे के बीच 1 घंटे की नींद 1 घंटे का आराम देती है और सूर्योदय के बाद 1 घंटा सोने से दो घंटे खराब हो जाते हैं, ज्यादा थकान होती है। जो लोग सूर्योदय के बाद तक सोते रहते हैं, वे लोग अधिक बुद्धि और स्फूर्ति नहीं पा सकते। सूर्योदय के बाद तक बिस्तर पर पड़े रहना अपने स्वास्थ्य की कब्र खोदना है। जो लोग जल्दी सोकर जल्दी उठते हैं, संयम और सात्त्विकता से जीते हैं उनमें गजब की स्फूर्ति होती है।
भोजन कम से कम 20-25 मिनट तक खूब चबा-चबाकर एवं उत्तर या पूर्वाभिमुख होकर करें। जल्दी या अच्छी तरह चबाये बिना भोजन करने वाले चिड़चिड़े व क्रोधी स्वभाव के हो जाते हैं।
सुबह 9 से 11 और शाम 5 से 7 के बीच भोजन करना चाहिए। ऋषियों व आयुर्वेदाचार्यों ने बिना भूख लगे भोजन करना वर्जित बताया है। अतः प्रातः एवं शाम के भोजन की मात्रा ऐसी रखें, जिससे ऊपर बताये समय में खुलकर भूख लगे।
बिना भूख के खाना रोगों को आमंत्रित करना है। कोई कितना भी आग्रह करे पर आप सावधान रहें। पेट आपका है। पचाना आपको है।
भोजन करने एवं पेय पदार्थ लेने के बाद पानी से कुल्ले करने चाहिए। जूठे मुँह रहने से बुद्धि क्षीण होती है और दाँतों व मसूड़ों में कीटाणु जमा हो जाते हैं।
कोई भी पेय पीना
हो तो इड़ा
नाड़ी
अर्थात् नाक
का बायाँ स्वर
चालू होना
चाहिए। यदि
दायाँ स्वर
चालू हो तो
दायाँ नथुना
दबाकर बाँयें
नथुने से
श्वास लेते
हुए ही पियें।
चाय-कॉफी
स्वास्थ्य के
लिए अत्यन्त
हानिकारक
साबित हुए
हैं। अतः इनसे
बचें। प्रातः
खाली पेट चाय
या कॉफी भूलकर
भी न पियें व
दुश्मन को भी
न पिलायें।
प्रातः कम
से कम 5 मिनट तक
लगातार तेज
दौड़ना या
चलना तथा कम
से कम 15 मिनट
नियमित
योगासन करने चाहिए।
सुबह-शाम
हवा में टहलना
स्वास्थ्य की
कुंजी है।
महीने में
एकाध बार
रात्रि को
सोने से पूर्व
नमक एवं सरसों
का तेल मिला
के, उससे दाँत
मलकर, कुल्ले
करके सो जाना
चाहिए। ऐसा
करने से वृद्धावस्था
में भी दाँत
मजबूत रहते
हैं।
जौ का पानी
में भिगोकर,
कूट के,
छिलकारहित कर
उसे दूध में
खीर की भाँति
पकाकर सेवन
करने से शरीर
हृष्ट-पुष्ट
होता है और
मोटापा कम
होता है। 3 से 5
अंजीर को दूध
में उबाल कर
या अंजीर खाकर
दूध पीने से शक्ति
बढ़ती है।
रात्रि में
एक गिलास पानी
में एक नींबू
निचोड़कर
उसमें दो
किशमिश भिगो
दें। सुबह
पानी छानकर पी
जायें एवं
किशमिश चबाकर
खा लें। यह एक
अदभुत
शक्तिदायक प्रयोग
है।
केले को
सुबह खाने से
उसकी कीमत
ताँबे जैसी, दोपहर
को खाने से
चाँदी जैसी और
शाम को खाने
से सोने जैसी
होती है।
शारीरिक श्रम
न करने वालों
को केला नहीं
खाना चाहिए।
केला सुबह
खाली पेट भी
नहीं खाना
चाहिए। भोजन
के बाद दो
केले खाने से
पतला शरीर
मोटा होने लगता
है।
दूध व
चावल की खीरः यह
सर्वप्रिय,
शीतल,
पित्तशामक,
मेदवर्धक, शक्तिदायक,
वातपित्त,
रक्तपित्त,
अग्निमांद्य
व अरूचि का
नाश करने वाला
सात्त्विक
आहार है। यह
शरद ऋतु में
विशेष
लाभकारी है।
विधिः
प्रति
व्यक्ति एक के
हिसाब से काली
मिर्च डालकर
चावल को पहले
पका लें। फिर
उसमें दूध,
मिश्री व
डालनी हो तो
इलायची डालकर
एक उबाल आने
पर उतार लें
और ढक के रख
दें। रात को
खीर बनानी हो
तो काली मिर्च
न डालें।
700
श्लोकों का
बगीचा,
ज्ञान-ध्यान
से जो है महका।
नर-नारायण
का सुसंवाद,
चाहे उत्थान
हर मानव का।।1।।
मीठी
मधुर है मेरी
चाल, प्यारी
लगूँ मैं सबको
आज।
अगर
उगलूँ मैं
कड़वी लार, तो
मैं कर दूँ
तुमको बेहाल।।2।।
एकाक्षर
ब्रह्म का
रूप, अनंत
निर्मल है
मेरा स्वरूप।
नित
सुमिरे जो
मुझको, हो
जाये वो मुझ
स्वरूप।।3।।
देते
सबको नित्य
ज्ञान, करायें
सबको अमृत का
पान।
जो
पचाये इनका
ज्ञान, उसे हो
जाय मोक्ष
आसान।।4।।
आकाश पर
पूर्ण
चन्द्रमा,
वेदव्यासजी
का प्रागट्य
दिवस।
गुरु
पूजन का पावन
पर्व, बोलो
आषाढ़ मास का
कौन सा
दिवस।।5।।
उत्तर इसी
पुस्तक में
हैं, खोजिये।
इस
पुस्तक पर आधारित
प्रश्न दिये
जा रहे हैं,
उनके सही
उत्तर
वर्ग-पहेली से
खोजिये।
1.
आत्मा-परमात्मा
का ज्ञान देने
वाले सर्वश्रेष्ठ
मार्गदर्शक।
2.
किस
पुष्प के रंग
से होली खेलने
से शरीर की सप्तधातुओं,
सप्तरंगों का
संतुलन बना
रहता है ?
3.
ʹगुरु
में निष्ठा ही
परम तप हैʹ। - किसने कहा है
?
4.
किस
मंत्र के
प्रभाव से
बुद्धि
कुशाग्र व स्मरणशक्ति
विकसित होती
है ?
5.
आकर्षक,
स्वादिष्ट
परंतु
स्वास्थ्य का
दुश्मन।
6.
क्या
करने से
अनजाने में
हुए पाप नष्ट
हो जाते हैं
तथा अंतःकरण
पवित्र होने
लगता है ?
7.
सफलता
किसका वरण
करती है ?
8.
क्या
करने से जीवन
जीने की कुंजियाँ
सहज में ही
प्राप्त होती
हैं ?
9.
किसका
समस्त
नाड़ियों व
सातों
केन्द्रों पर बड़ा
सात्त्विक
प्रभाव पड़ता
है ?
स |
श्वा |
वि |
त्म |
आ |
क |
बि |
द्
|
अ |
अ |
ज |
सा |
द |
द् |
त्सं |
सा |
ई |
रा |
वि |
प |
स |
उ |
तु |
र |
र |
श |
गु |
म |
द्य |
र |
प |
सा |
सं |
त्य |
सू |
स्व |
मी |
फा |
ह |
रु |
त्रि |
शि |
क |
म |
र |
आ |
श |
त्य |
त्रि |
रा |
श |
रा |
घ |
दा |
त्रि |
नि |
की |
ष्ठ |
व |
मं |
पा |
जी |
बा |
जी |
म |
ण |
का |
दा |
दी |
ड़ |
ग |
त्र |
ल |
शा |
बा |
र |
व |
त्म |
ल |
पू |
गु |
रो |
ङ |
टी |
ना |
सा |
व |
श्र
|
न्ना |
ष्प |
सं |
डा |
मी |
रा |
गु |
चं |
ध्या |
नं |
ग |
य |
पु |
ली |
ध्या |
बा |
र |
द्य |
पा |
ड |
ज |
त्सं |
ड़ |
श |
गा |
शि |
व |
फा |
आ |
ल |
उ |
फू |
स |
वृ |
ला |
सी |
भ |
ग |
वा |
न |
शि |
व |
जी |
स्ट |
गी |
प |
भ |
ग |
व |
न्ना |
म |
ज |
प |
दी |
ड |
फा |
जहाँ तुलसी
के पौधे अधिक
मात्रा में
होते हैं,
वहाँ की हवा
शुद्ध और
पवित्र रहती
है। तुलसी को ʹविष्णुप्रियाʹ कहा जाता
है। आप भी इस पूजनीय
पौधे का रोपण
कर मानव के
शारीरिक-मानसिक
स्वास्थ्य व
आध्यात्मिक
उन्नति के
सत्कार्य में
भागीदार
बनें।
तुलसी के
पत्तों में
एक
विशिष्ट तेल
होता है, जो
कीटाणुयुक्त
वायु को शुद्ध
करता है। इससे
मलेरिया के
कीटाणुओं का
भी नाश होता
है।
तुलसी के
पास बैठकर
प्राणायाम
करने से शरीर
में बल,
बुद्धि और ओज
की वृद्धि
होती है।
प्रातः खाली
पेट तुलसी का
रस पीने अथवा
पाँच-सात
पत्ते
चबा-चबाकर
खाने और पानी
पीने से बल,
तेज और
स्मरणशक्ति
में वृद्धि होती
है।
तुलसीदल एक
उत्कृष्ट
रसायन है।
तुलसी सौंदर्यवर्धक
एवं रक्तशोधक
है।
तुलसी
गुर्दे की
कार्यशक्ति
को बढ़ाती है।
कोलेस्ट्रोल
को सामान्य
बना देती है।
हृदयरोग में
आश्चर्यजनक
लाभ करती है।
आँतों के
रोगों के लिए
तो यह रामबाण
है।
नित्य
तुलसी-सेवन से
अम्लपित्त
(एसिडिटी) दूर हो
जाती है,
मांसपेशियों
का दर्द,
सर्दी-जुकाम,
मोटापा,
बच्चों के रोग
विशेषकर कफ,
दस्त, उलटी, पेट
के कृमि (70 % बच्चों के
पेट में कृमि
होते हैं) आदि
में लाभ करती
है।
सावधानीः
अमावस्या,
पूर्णिमा,
द्वादशी को
तुलसी न तोड़ें।
रविवार को न
तोड़ें, न
खायें।
तुलसी-सेवन के
दो घंटे पहले
और बाद में
दूध न लें।
गले में
तुलसी की माला
धारण करने से
जीवनशक्ति
बढ़ती है,
बहुत से रोगों
से मुक्ति
मिलती है।
तुलसी की माला
पर भगवन्नाम-जप
करना
कल्याणकारी
है।
ʹमृत्यु के
समय मृतक के
मुख में तुलसी
के पत्तों का
जल डालने से
वह सम्पूर्ण
पापों से
मुक्त होकर
भगवान विष्णु
के लोक में
जाता है।ʹ
(ब्रह्मवैवर्त
पुराण,
प्रकृति खंडः
21.42)
फ्रेंच
डॉक्टर विक्टर
रेसीन ने कहा
हैः "तुलसी एक
अदभुत औषधि (Wonder Drug) है,
जो
ब्लडप्रेशर व
पाचनतंत्र के
नियमन, रक्तकणों
की वृद्धि एवं
मानसिक रोगों
में अत्यंत
लाभकारी है।"
पूज्य बापू
जी के शिष्यों
द्वारा ʹपर्यावरण-सुरक्षा
अभियान चलाया
जाता है, जिसमें
विशेषकर
तुलसी, आँवला,
पीपल, वटवृक्ष
और नीम का
रोपण किया
जाता है।
शास्त्र-वचनः
ʹजिस घर
में तुलसी का
पौधा होता है
वह घर तीर्थ समान
पवित्र होता
है। उस घर में
रोगरूपी यमदूत
नहीं आते।ʹ (स्कन्द
पुराण एवं
पद्म पुराण)
ʹप्रत्येक
विद्यार्थी
को गीता के
श्लोक कंठस्थ
करने चाहिए
एवं उनके अर्थ
में गोता
लगाकर अपने
जीवन को
ओजस्वी-तेजस्वी
बनाना चाहिए।" – पूज्य
बापू जी
दुनिया के दो
पुस्तकालय
प्रसिद्ध थेः
एक तो भारत
में चेन्नई
(मद्रास),
दूसरा
अमेरिका के शिकागो
में है।
रवीन्द्रनाथ
टैगोर
अमेरिका गये
तब शिकागो के
विश्वप्रसिद्ध
पुस्तकालय
में भी गये
एवं वहाँ के मुख्य
अधिकारी से
कहाः "लाखों
लाखों
किताबें हैं,
शास्त्र हैं।
मैं सब नहीं
पढ़ पाऊँगा,
इतना समय नहीं
है। सारी पुस्तकों
में, सारे
शास्त्रों
में आपको जो
सबसे ज्यादा
महत्त्वपूर्ण
ग्रंथ लगता
हो, मुझे वह
बता दो। मैं
वह पढ़ना चाहता
हूँ।"
मुख्य
अधिकारी
टैगोरजी को एक
अलग सुन्दर,
सुहावने खंड
में ले गया।
बड़े आदर से
रखी गयी तमाम
पुस्तकों में
भी, एक अलग
ऊँचे स्थान पर
बड़े कीमती
वस्त्र में एक
ग्रंथ
सुशोभित था।
वस्त्र खोला
तो टैगोरजी ने
देखा कि ग्रंथ
की जिल्द पर
रत्नजड़ित
सजावट थी। टैगोरजी
देखकर दंग रह
गये कि ऐसा
कौन-सा महान ग्रन्थ
है ! फिर
सोचा कि इनका
कोई
धर्मग्रन्थ
बाइबिल आदि होगा।
ज्यों ही उस
सर्वाधिक
आदरपूर्वक
रखे गये ग्रंथ
को खोला गया
तो मुख्य
पृष्ठ पर लिखा
हुआ था - ʹश्रीमद्
भगवद् गीताʹ।
किसी
भी जाति को
उन्नति के
शिखर पर
चढ़ाने के लिए
गीता का उपदेश
अद्वितीय है।ʹʹ
प्रसिद्ध
पाश्चात्य
तत्त्वचिंतक
वारेन हेस्टिंग्स
सोचें
व जवाब दें-
क्या आप
श्रीमदभगवदगीता
का रोज
पठन-पाठन करते
हैं ?
शिकागो के
पुस्तकालय
में जाकर
टैगोरजी आश्चर्यचकित
क्यों हुए ?
क्रियाकलापः
आप भी
प्रतिदिन
श्रीमद्
भगवदगीता के
कुछ श्लोकों
का पाठ करने
का संकल्प
लें।
"गीता
तो मेरा हृदय
है अर्जुन !" भगवान
श्रीकृष्ण
"जीवन के
सर्वांगीण
विकास के लिए
गीताग्रंथ
अदभुत है। इस
ग्रंथ में सभी
देश, जाति, पंथ
के मनुष्यों
के कल्याण की
अलौकिक
सामग्री भरी हुई
है।" –
भगवत्पाद
पूज्यपाद
साँईं श्री
लीलाशाहजी महाराज
"भगवदगीता
ऐसे दिव्य
ज्ञान से
भरपूर है कि
उसके अमृतपान
से मनुष्य के
जीवन में
साहस, हिम्मत,
समता, सहजता,
स्नेह, शांति
और धर्म आदि
दैवी गुण
विकसित हो
उठते हैं। अतः
प्रत्येक
युवक-युवती को
गीता के श्लोक
कंठस्थ करने
चाहिए।" पूज्य संत
श्री
आशारामजी
बापू
"गीता सब
सुखों की नींव
है। खुला हुआ
परम धाम है और
सब विद्याओं
की मूल भूमि
है।" संत
ज्ञानेश्वर
जी महाराज।
"गीता के आधार
पर अकेला
मनुष्य सारी
दुनिया का
मुकाबला कर सकता
है।" आचार्य
विनोबा भावे।
"गीता उपनिषदों से चयन किये हुए आध्यात्मिक सत्य के सुंदर पुष्पों का गुच्छा है।" स्वामी विवेकानंदजी
सम्पूर्ण विश्व में गीता ही एकमात्र ऐसा सदग्रंथ है, जिसकी जयंती मनायी जाती है।
गाय की
रक्षा, देश की
रक्षा।
गाय
मानवजीवन के
लिए बहुत ही
हितकारी है।
शास्त्रों
में गाय को
माता कहा गया
है।
गाय का दूध
एक उत्कृष्ट
प्रकार का
रसायन (टॉनिक)
है, जो शरीर
में पहुँचकर
रस, रक्त मांस,
मेद, अस्थि,
मज्जा और
वीर्य को
समुचित
मात्रा में
बढ़ाता है।
जर्सी गाय के
दूध से सावधान
!
राष्ट्रीय
कैंसर
संस्थान
(अमेरिका) के
अनुसार जर्सी
गाय का दूध
कैंसर करता
है। जर्सी गाय
के दूध, दही, घी
से परहेज
करें।
"हम गाय को
नहीं पालते,
गाय हमें
पालती है।" पूज्य बापू
जी।
8 प्रकार के
प्रोटीन्स, 6
प्रकार के
विटामिन्स, 21 प्रकार
के एमिनो
एसिड, 16 प्रकार
के नाइट्रोजन यौगिक,
2 प्रकार की
शर्करा, 4
प्रकार के
फॉस्फोरस
यौगिक
मुख्य
खनिज लोहा,
कैल्शियम,
ताँबा, सोना,
फ्लोरिन,
आयोडीन, सिलिकॉन
कत्लखाने
में ले जा रही
हजारों गायों
को बचाया गया
एवं गोझरण,
गोबर आदि से
धूपबत्ती,
खाद, फिनायल,
औषधियाँ आदि
का निर्माण कर
गौशालाओं का
निर्माण कर
गौशालाओं को स्वावलम्बी
बनाया गया।
गौरक्षा एवं
गौपालन की
मिसालः संत
श्री आशारामजी
गौशालाएँ
बच्चों ने
लगायी
गौ-हत्या पर
रोक
पूज्य बापू
जी के बाल,
छात्र व कन्या
मंडलों के
विद्यार्थियों
ने
गौ-रक्षार्थ
रैली निकाली,
जिससे
छत्तीसगढ़
प्रशासन ने
कृषक पशुओं के
रक्षण के लिए
अधिनियम
प्रस्तावित
किया।
शरीर एक मंदिर है जिसमें जीवात्मा का पूर्ण विकास हो सकता है। शरीर को स्वस्थ, मन को प्रसन्न और बुद्धि को निर्मल व कुशाग्र बनाने हेतु योगविद्या का आश्रय लेना चाहिए। योगविद्या के अभ्यास से सर्व सफलताओं की कुंजी ʹआत्मविद्याʹ को आत्मसात् करने में भी मदद मिलती है।
आसन शरीर के समुचित विकास के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध होते हैं। व्यायाम से भी अधिक उपयोगी आसन हैं। विद्यार्थियों को प्रतिदिन आसन अवश्य करने चाहिए।
सावधानियाँ- आसन प्रातः खाली पेट स्वच्छ हवादार कमरे में करने चाहिए। आसन करते समय शरीर पर वस्त्र ढीले हों तथा सूती वस्त्र हों तो अति उत्तम। भोजन के छः घंटे व दूध पीने के दो घंटे बाद भी आसन किये जा सकते हैं।
आसन शौच, स्नान आदि से निवृत्त होकर कम्बल, चटाई आदि बिछाकर करें। आसन करते समय शरीर के साथ जबरदस्ती न करें और श्वास मुँह से न लेकर नाक से लें।
सगर्भावस्था व मासिक धर्म की अवधि में महिलाएँ तथा हृदयरोग आदि से ग्रस्त लोग अपने वैद्य अथवा योग-प्रशिक्षक की सलाह लेकर ही आसनों का अभ्यास करें।
आठ वर्ष से कम आयु वाले बच्चों का आसन या प्राणायाम नहीं करने चाहिए। 5 से 8 वर्ष के बच्चों को व्यायाम करा सकते हैं। भ्रामरी प्राणायाम 3 वर्ष से अधिक उम्र वाले बच्चे कर सकते हैं।
लाभः मेरूदंड की कार्यशक्ति प्रबल बनती है।
स्मरणशक्ति व आँखों की दुर्बलता दूर होती है। तमाम अंतःस्रावी ग्रंथियों (Endocrine Glands) को पुष्टि मिलती है।
तन मन का स्वास्थ्य सुदृढ़ बनता है। जठराग्नि प्रदीप्त होती है।
विधिः
वज्रासन
में बैठने के
बाद चित्त होकर
पीछे की ओर
भूमि पर लेट
जायें। दोनों
जंघाएँ
परस्पर मिली
रहें। श्वास
छोड़ते हुए
बायें हाथ का
खुला पंजा
दाहिने कंधे
के नीचे और दाहिने
हाथ का खुला
पंजा बायें
कंधे के नीचे
इस प्रकार
रखें कि मस्तक
दोनों हाथ के
क्रॉस के ऊपर
आये। ध्यान
विशुद्धाख्य
चक्र में रखें।
लाभः हाथ, कोहनी, कंधे, वक्षःस्थल इन सभी अंगों में भलीभाँति रक्तसंचार होता है और भुजाओं में बल आ जाता है।
खूब निर्भयता आती है। छोटी-छोटी बात में घबराने वालों या थोड़ी भी ऊँची आवाज सुनने पर डरने वालों को इसका अभ्यास अवश्य करना चाहिए। स्नायु-दुर्बलता दूर होती है। फेफड़ों तथा हृदय को शक्ति मिलती है।
विधिः
पद्मासन
में बैठ
जायें। दोनों
हाथों के बल
पूरे शरीर को
जमीन से ऊपर
उठा लें।
इस आसन में शरीर का आकार कोन (कोण) के समान हो जाता है, इसलिए इसे कोनासन कहते हैं।
लाभः कफ की शिकायत दूर होती है।
बौनापन दूर करने में मदद मिलती है।
कमर तथा पसलियों का दर्द ठीक हो जाता है।
स्वास्थ्य के साथ-साथ सौंदर्य भी बढ़ता है।
विधिः दोनों पैरों को डेढ़-दो फुट के अंतर पर रखते हुए सीधे खड़े हो जायें। अब दायें हाथ को नीचे दायें पैर के पंजे पर रखते हुए बायें हाथ को ऊपर ले जायें। दृष्टि ऊपर हाथ की ओर हो। इस स्थिति में 5-6 सैकेण्ड रहें।
मूल स्थिति में आकर इसी क्रिया को पुनः दूसरी ओर से करना चाहिए। ध्यान रहे कि कमर का हिस्सा यथासम्भव स्थिर रहे। इसे 4-6 बार करें।
सावधानीः
कुछ
लोग इस आसन को
जल्दी-जल्दी
करने का
प्रयत्न करते
हैं और
बार-बार करते
हैं। उसमें
विशेष लाभ
नहीं। इसलिए
इसे धीरे-धीरे
करें।
इसमें शरीर का आकार ऊँट (ऊष्ट्र) की तरह बनने से इसे ʹउष्ट्रासनʹ कहते हैं।
लाभः गर्दन, कंधा, रीढ़, हाथ व पैरों के स्नायु मजबूत होते हैं।
प्राणतंत्र सक्रिय, नेत्रज्योति में वृद्धि, सीना सुडौल व धड़कन की अनियमितता दूर होती है। मुख्य रक्तवाहक नाड़ियों को बल मिलता है तथा खिसकी हुई नाभि यथास्थान स्थित हो जाती है।
शारीरिक दुर्बलता, स्थायी सिरदर्द, कब्ज, पेटदर्द व मंदाग्नि में अत्यधिक लाभकारी है। झुके हुए कंधे, कूबड़, पीठदर्द, कमरदर्द, दमा, मधुमेह, हृदयरोग – इन सबके उपचार में यह अत्यंत सहायक है।
विधिः वज्रासन में बैठें। फिर घुटनों के बल खड़े हो जायें। घुटनों से कमर तक का भाग सीधा रखें व पीठ को पीछे की ओर मोड़कर हाथों से पैरों की एड़ियाँ पकड़ लें।
अब सिर को पीछे झुका दें। श्वास सामान्य, दृष्टि जमीन पर व ध्यान विशुद्धाख्य चक्र (कंठस्थान) में हो। इस अवस्था में 10-15 सैकेण्ड रुकें।
आसन छोड़ते समय हाथों की एड़ियों से हटाते हुए सावधानीपूर्वक वज्रासन में बैठें व सिर को सीधा करें। ऐसा 2-3 बार करें। क्रमशः अभ्यास बढ़ाकर एक साथ 1 से 3 मिनट तक यह आसन कर सकते हैं।
सावधानीः
यह
आसन हर्निया व
उच्च रक्तचाप
में वर्जित है।
जैसे सूर्य सारे सौरमण्डल को उष्णता प्रदान करता है, वैसे ही सूर्यभेदी प्राणायाम से शरीर के सम्पूर्ण नाड़ी-मंडल में ऊष्मा का संचार हो जाता है।
लाभः इससे सूर्य नाड़ी क्रियाशील हो जाती है।
सर्दी, खाँसी, जुकाम दूर हो जाते हैं व पुराना जमा हुआ कफ निकल जाता है। मस्तिष्क का शोधन होता है।
इससे जठराग्नि प्रदीप्त होती है।
कमर के दर्द में यह लाभदायी है।
विधिः प्रातः पद्मासन अथवा सुखासन में बैठकर बायें-नथुने को बंद करें और दायें नथुने से धीरे-धीरे अधिक-से-अधिक गहरा श्वास भरें। श्वास लेते समय आवाज न हो इसका ख्याल रखें।
अब अपनी क्षमता के अनुसार श्वास भीतर ही रोके रखें।
श्वास बायें नथुने से धीरे-धीरे बाहर छोड़ें। झटके से न छोड़ें। इस प्रकार 3 से 5 प्राणायाम करें।
सावधानियाँ- इस प्राणायाम का अभ्यास सर्दियों में करें। गर्मी के दिनों में तथा पित्तप्रधान व्यक्तियों के लिए यह हितकारी नहीं है।
स्वस्थ
व्यक्ति
उष्णता तथा
शीतलता का
संतुलन बनाये
रखने के लिए
सूर्यभेदी
प्राणायाम के साथ
उतने ही
चन्द्रभेदी
प्राणायाम भी
करे।
लाभः इससे चन्द्र नाड़ी क्रियाशील हो जाती है। शरीर के समस्त नाड़ी मंडल में शीतलता का संचार होता है।
उच्च रक्तचाप वालों के लिए यह लाभदायी है।
यह प्राणायाम 5 बार नियमित करने से पित्तप्रकोप शांत होता है। आँखों की जलन, नाक से खून बहना आदि रोगों में लाभदायक है।
मन शांत हो जाता है। शरीर की थकान दूर होती है।
विधिः यह सूर्यभेदी से ठीक विपरीत है। इसमें बायें नथुने से श्वास लेकर भीतर ही कुछ समय रोकें। बाद में दाहिने नथुने से धीरे-धीरे श्वास छोड़ दें। इस प्रकार 3 से 5 बार प्राणायाम करें।
सावधानीः सर्दियों में तथा कफ प्रकृतिवालों के लिए यह हितकर नहीं है। निम्न रक्तचापवालों के लिए भी यह प्राणायाम निषिद्ध है।
(आसन-प्राणायाम
आदि किसी
अनुभवी के
मार्गदर्शन
में सीखें।)
लाभः स्नायुमंडल को बल मिलता है।
चंचल मन एकाग्र होता है।
शारीरिक व मानसिक तनाव दूर करने में मदद मिलती है।
विधिः
पद्मासन
या सुखासन में
बैठें। बायीं
हथेली पर
दायीं हथेली
रखें। दोनों
हाथों के
अँगूठे तर्जनी
(अँगूठे के
नजदीक की
उँगली) से
मिलायें। सिर,
गर्दन और रीढ़
की हड्डी सीधी
रेखा में रहें।
आँखें और होंठ
सहज रूप से
बंद करें। मनःचक्षुशों
के आगे अपने
इष्टदेव,
सदगुरुदेव की प्रतिमा
को लायें।
लाभः वाणी की मधुरता व प्रभाव बढ़ता है।
विधिः
बायें
हाथ का अँगूठा
दायें हाथ की
मुट्ठी में पकड़ें
और बायें हाथ
की तर्जनी
दायें हाथ के
अँगूठे के
अग्रभाग को
लगायें।
बायें हाथ की
अन्य उँगलियाँ
दायें हाथ की
उँगलियों पर
किंचित्-सी दबायें।
थोड़ी देर बाद
हाथों को
अदल-बदलकर पुनः
यही मुद्रा
करें।
पूज्य बापू जी का विद्यार्थियों के लिए वरदान
कानों में उँगलियाँ डालकर लम्बा श्वास लो। जितना श्वास लोगे उतने फेफड़ों के बंद छिद्र खुलेंगे, रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ेगी।
श्वास रोककर कंठ में भगवान के पवित्र, सर्वकल्याणकारी ʹૐʹ का जप करो। मन में ʹप्रभु मेरे, मैं प्रभु काʹ बोलो।
मुँह बंद रख के कंठ से ૐ.... ૐ.... ૐ.... ૐ..... ૐ...... ૐ..... ૐ..... ओઽઽઽम्.... का उच्चारण करते हुए श्वास छोड़ो। इस प्रकार दस बार करो।
कानों में से उँगलियाँ निकाल दो।
इतना करने के बाद शांत बैठकर होठों से जपो - ʹૐ ૐ प्रभु जी ૐ आनंद देवा ૐ, अंतर्यामी ૐ....ʹ दो मिनट करना है। फिर हृदय से जपो - ʹૐशांति.... ૐ आनंद....ૐૐૐ...ʹ जीभ व होंठ मत हिलाओ। अब कंठ से जप करना है। यह एक चमत्कारिक प्रयोग है। इसके नियमित अभ्यास से बुद्धिशक्ति का अदभुत विकास होगा। विद्यार्थियों के लिए तो यह वरदानस्वरूप है।
इससे प्राणशक्ति का अदभुत विकास होता है। इसलिए इसे प्राणशक्तिवर्धक प्रयोग कहते हैं।
लाभः इससे स्वाधिष्ठान केन्द्र को जागृत होने में खूब मदद मिलती है। स्वाधिष्ठान केन्द्र जितना-जितना सक्रिय होगा, उतना प्राणशक्ति के साथ-साथ रोगप्रतिकारक शक्ति एवं मनःशक्ति बढ़ने में मदद मिलेगी। वैज्ञानिकों ने इस केन्द्र की शक्तियों का वर्णन करते हुए कहा हैः This is the mind of the stomach. ʹयह पेट का मस्तक हैʹ।
विधिः सीधे लेट जायें। शरीर को ढीला छोड़ दें, जैसे शवासन में करते हैं। दोनों हाथों की उँगलियाँ नाभि के आमने-सामने पेट पर रखें। हाथ की कोहनियाँ धरती पर लगी रहें।
अब जैसे होठों सीटी बजाते हैं वैसा मुँह बनाकर दोनों नथुनों से खूब गहरा श्वास लें। मुँह बंद रहे। होठों की ऐसी स्थिति बनाने से दोनों नथुनों से समान रूप में श्वास भीतर जाता है।
10-15 सैकेण्ड तक श्वास को रोके रखें। इस स्थिति में पेट को अंदर-बाहर करें, अंदर ज्यादा बाहर कम। यह भावना करें कि मेरी नाभि के नीचे का स्वाधिष्ठान केन्द्र जागृत हो रहा है।
फिर होठों से सीटी बजाने की मुद्रा में मुँह से धीरे-धीरे श्वास बाहर छोड़ते हुए यह भावना करें कि ʹमेरे शरीर में जो दुर्बल प्राण हैं अथवा रोग के कण हैं उनको मैं बाहर फेंक रहा हूँ।ʹ यह प्रयोग 2 से 3 बार करें।
"एकादशी व्रत पापनाशक तथा पुण्यदायी व्रत है। प्रत्येक व्यक्ति को माह में दो दिन उपवास करना चाहिए। इससे आध्यात्मिक लाभ के साथ-ही-साथ शारीरिक लाभ भी होता है।" पूज्य बापू जी।
शास्त्रों
में एकादशी
व्रत की बड़ी
भारी महिमा
है। ʹएकादशी
जैसा कोई व्रत
नहींʹ
- ऐसा भगवान
महादेवजी
कहते हैं।
व्रत से श्रद्धा,
भक्ति,
पवित्रता,
ज्ञान आदि
सदगुणों की
वृद्धि तो
होती ही है,
साथ ही
आयुर्वेद की दृष्टि
से व्रत उत्तम
स्वास्थ्य की
प्राप्ति में
भी सहायक है।
उपवास रखकर
रात्रि को
भगवान के समीप
कथा-कीर्तन
करते हुए
रात्रि-जागरण
करना चाहिए।
(रात्रि 12 या 1
बजे तक जागरण
योग्य है)। इस
दिन अन्न न
खायें, फलाहार
ले सकते हैं।
चावल तो भूलकर
भी नहीं खाने
चाहिए। एकादशी
के दिन बाल
नहीं कटवाने
चाहिए। (एकादशियों
की व्रत-महिमा
एवं विधि की
विस्तृत
जानकारी के
लिए पढ़ें
आश्रम की
पुस्तक ʹएकादशी
व्रत-कथाएँʹ।)
"एकादश इन्द्रियों द्वारा जो पाप किये जाते हैं, वे सब के सब एकादशी के उपवास से नष्ट हो जाते हैं। अनजाने में भी एकादशी का उपवास कर लिया जाय तो वह यमराज का दर्शन नहीं होने देती।" श्री वसिष्ठजी महाराज
तीरथ
का है एक फल,
संत मिले फल
चार।
सदगुरु
मिले अनंत फल,
कहत कबीर
विचार।।
रमा थोड़ी-सी ऊँची आवाज सुनकर काँप जाती है। बहुत डरती भी है। उसे आप कौन-सा आसन करने की सलाह देंगे ?
मोहन के पिता जी की कमर में बहुत दर्द रहता है। उन्हें कौन-सा आसन करना चाहिए ?
सर्दी-जुकाम होने पर आप कौन सा प्राणायाम करेंगे ?
कौन-सी मुद्रा में बैठकर ध्यान करने से स्नायु-मंडल को बल मिलता है ?
आपका मित्र यदि रोगप्रतिकारक शक्ति कम होने के कारण बहुत जल्दी बीमार पड़ता हो तो आप उसे कौन-सा प्रयोग करने की सलाह देंगे ?
प्राचीनकाल में गुरुकुल शिक्षा-पद्धति प्रचलित थी। गुरु के चरणों में बैठकर विद्यार्थी विद्या प्राप्त करते थे। विद्यार्थियों की विविध शंकाओं को जानकर गुरु उनका उत्तर दिया करते थे।
प्रश्नः सर्वोत्तम लाभ क्या है ? उत्तरः आत्मलाभ (आत्मा – परमात्मा का अनुभव)।
प्रश्न सदा फल देने वाला क्या है ? उत्तर धर्म।
प्रश्नः सबसे बड़ी दया क्या है ? उत्तरः सबके सुख की इच्छा सबसे बड़ी दया है।
प्रश्नः दुर्जय शत्रु कौन है ? उत्तरः क्रोध।
प्रश्नः ऐसी कौन सी विद्या है जिसे पाकर जीव मुक्त हो जाता है ?
उत्तरः ब्रह्मविद्या। इस विद्या से जीव जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है।
प्रश्नः सूर्योदय के बाद भी सोते रहने से क्या हानि होती है ?
उत्तरः ʹअथर्ववेदʹ में बताया गया है कि जो व्यक्ति सूर्योदय के बाद भी सोता रहता है, उसके ओज-तेज को सूर्य की किरणें पी जाती हैं।
प्रश्नः जिसके साथ मित्रता कभी जीर्ण नहीं होती और धोखा नहीं मिलता, ऐसा मित्र कौन है ?
उत्तरः सज्जन की मित्रता नित्य नवीन रहती है, कभी जीर्ण नहीं होती। सज्जन की मित्रता दुःख और धोखा नहीं देती और भगवान तथा भगवत्प्राप्त महापुरुषों से बढ़कर सज्जन कौन हैं ? अतः मित्र बनाओ तो उन्हीं को।
हे प्रभु ! आनंददाता !! ज्ञान हमको दीजिये।
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिये।। हे प्रभु.....
लीजिये हमको शरण में, हम सदाचारी बनें।
ब्रह्मचारी धर्मरक्षक वीर व्रतधारी बनें।। हे प्रभु....
निंदा किसी की हम किसी से भूलकर भी ना करें।
ईर्ष्या कभी भी हम किसी से भूलकर भी ना करें।। हे प्रभु....
सत्य बोलें झूठ त्यागें, मेल आपस में करें।
दिव्य जीवन हो हमारा, यश तेरा गाया करें।। हे प्रभु....
जाय हमारी आयु हे प्रभु ! लोक के उपकार में।
हाथ डालें हम कभी ना भूलकर अपकार में।। हे प्रभु...
प्रेम से हम गुरुजनों की नित्य ही सेवा करें।
प्रेम से हम संस्कृति की नित्य ही सेवा करें।। हे प्रभु....
योगविद्या ब्रह्मविद्या हो अधिक प्यारी हमें।
ब्रह्मनिष्ठा प्राप्त करके सर्वहितकारी बनें।। हे प्रभु....
संत श्री
आशारामजी
द्वारा
आयोजित
समय 1 घंटा कुल अंक-50 (प्रति प्रश्न 1 अंक)
आपकी जानकारी के लिए यहाँ प्रश्नों के कुछ नमूने दिये गये हैं। दिव्य प्रेरणा-प्रकाश ज्ञान प्रतियोगिता में ऐसे 50 सरल व विकल्पात्मक प्रश्न (MCQ) होंगे।
दिये
गये प्रश्नों
के सही विकल्प
का क्रमांक
दायीं तरफ
दिये बॉक्स
में लिखिये।
1.सूर्योदय से ...... पूर्व से लेकर सूर्योदय तक का समय ब्राह्ममुहूर्त कहलाता है।
|
1 सवा दो
घंटे 2 सवा चार
घंटे 3 आधा
घंटे 4 तीनों
गलत
2.हमारे शरीर में कितने यौगिक चक्र हैं ?
|
1 (8). 2 (11). 3 (7). 4
(तीनों गलत).
निम्नलिखित
वचन किनके कहे
हुए हैं ?
नीचे दिये गये
विकल्पों में
से सही उत्तर
का क्रमांक
छाँटिये।
|
3 ʹगुरुर्देवो गुरुधर्मो गुरौ निष्ठा परं तपः।ʹ
|
4 ʹतुलसी एक अदभुत औषधी (Wonder Drug) है।
|
5 ʹभयनाशन दुर्मति हरण कलि में हरि को नाम।ʹ
|
6 "हार शब्द हमारे जीवन में ही नहीं है। हम हारेंगे नहीं, या तो विजयी होंगे या शहीद होंगे।"
विकल्प 1. डॉ. विक्टर रेसीन 2 जोरावर सिंह 3 भगवान शिवजी 4 गुरुनानक जी।
उचित
मिलान करो।
7 प्राणशक्तिवर्धक प्रयोग 1 जिज्ञासु
8 ध्यान मुद्रा 2 परदुःखकातरता
9 भगवन श्रीकृष्ण 3 स्वाधिष्ठान केन्द्र
10 अर्जुन 4 गुरु सांदीपनी
11 साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज 5 चंचल मन एकाग्र होता है
निम्नलिखित
वाक्य सहीं
हों तो √ का
निशान और गलत
हों तो x का
निशान करें।
|
12 तुलसी की
माला धारण
करने से
जीवनशक्ति
घटती है।
|
13 भोजन के
पहले गीता के
15वें अध्याय
का पाठ करना
चाहिए।
|
14 मन, वचन और
कर्म से किसी
को नहीं सताना
चाहिए।
|
15 लेटकर या
झुककर पुस्तक
को पढ़ना
चाहिए।
बालक ही इस देश के भावी नागरिक हैं। बालकों के सुंदर भविष्य निर्माण हेतु ब्रह्मनिष्ठ संत श्री आशारामजी बापू के प्रेरक मार्गदर्शन में देश विदेश में 17000 से अधिक ʹबाल संस्कार केन्द्रʹ निःशुल्क चलाये जा रहे हैं।
लाखों विद्यार्थी पूज्य बापू जी से सारस्वत्य मंत्र की दीक्षा प्राप्त कर अपना जीवन कृतार्थ कर रहे हैं। विद्यार्थियों के विकास हेतु और उऩ्हें तेजस्वी, पुरुषार्थी, संयमी तथा दृढ़ आत्मविश्वासी बनाने हेतु पूज्य श्री के सान्निध्य में ʹविद्यार्थी तेजस्वी तालीम शिविरोंʹ का आयोजन किया जाता है। विद्यार्थियों की छुट्टियों का सदुपयोग करने हेतु ʹविद्यार्थी उज्जवल भविष्य निर्माण शिविरोंʹ का आयोजन होता है।
विद्यार्थियों को प्रतिभावान, उन्नत, संयमी बनाने के लिए विद्यालयों-महाविद्यालयों में ʹयोग व उच्च संस्कार शिक्षाʹ अभियान चलाया जाता है एवं पिछले पाँच वर्षों से ʹदिव्य प्रेरणा प्रकाश ज्ञान प्रतियोगिताʹ का आयोजन किया जा रहा है, जिसमें वर्ष 2012 में 25,57,823 विद्यार्थियों ने भाग लिया।
ʹवेलेन्टाइन डेʹ जैसे संयम-विनाशक विदेशी त्यौहारों से अपने देश के किशोरों व युवक-युवतियों की रक्षा करने हेतु पूज्य बापू जी की प्रेरणा से हर वर्ष 14 फरवरी को विभिन्न विद्यालयों एवं घर-घर में ʹमातृ-पितृ पूजन दिवसʹ मनाया जा रहा है।
बचपन से ही विद्यार्थियों में निष्काम सेवा आदि सदगुणों का विकास हो, इस हेतु राष्ट्रव्यापी विद्यार्थी सेवाओं के मंडलों - ʹबाल मंडलʹ, ʹकन्या मंडलʹ व ʹछात्र मंडलʹ का गठन किया गया है। पूज्य श्री युवानों को राष्ट्र के कर्णधार मानते हैं। उनके जीवन को तेजस्वी बनाने के लिए पूज्यश्री के पावन मार्गदर्शन में ʹयुवाधन सुरक्षा अभियानʹ चलाया जाता है। युवाओं तथा महिलाओं के सर्वांगीण विकास हेतु ʹयुवा सेवा संघʹ एवं ʹमहिला उत्थान मंडलʹ की स्थापना की गयी है।
भारत का भविष्य संतों के आशीर्वाद से अवश्य ही उज्जवल होगा। भारत पुनः विश्वगुरु की अपनी गरिमा प्राप्त करने की राह पर है, जो निःसन्देह उसे प्राप्त होगी।
ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ