हमें लेने हैं अच्छे संस्कार

पूज्य संत श्री आशारामजी बापू का पावन संदेश

गर्व करो कि तुम भारत के लाल हो

हे भारतभूमि के वीर सपूतो ! तुम भारत के गौरव, राष्ट्र की सम्पत्ति तथा देश की शान हो। अपनी भक्ति को और अपनी शक्ति को इतना अधिक विकसित कर दो कि तुममें वीर शिवाजी और महाराणा प्रताप का स्वाभिमान जाग उठे... सुभाषचन्द्र बोस और भगत सिंह का देशप्रेम जाग उठे.... रानी लक्ष्मीबाई और चेनम्मा का साहस जाग उठे.... पारूशाह की धर्मनिष्ठा व योग सामर्थ्य जाग उठे.... संत श्री लीलाशाह जी बापू का योग-सामर्थ्य, ब्रह्मज्ञान तथा समाज के उत्कर्ष का दिव्य दृष्टिकोण जाग उठे.....

हे वीरो ! हिम्मत करो, निर्भय बनो और गर्व करो कि तुम भारत के लाल हो। दीन-दुःखियों व शोषितों की सहायता करो.... शोषकों का विरोध करो.... देश के साथ गद्दारी करने वालों को सबक सिखाओ.... और निर्भय होकर आत्मपद में स्थिति प्राप्त कर लो। शाबाश वीर ! शाबाश.... ईश्वर और संतों के आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं।

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अपने बच्चों को स्वस्थ, प्रसन्नचित्त, उत्साही, एकाग्र, लक्ष्भेदी एवं कार्यकुशल बनाने हेतु पूज्य बापूजी की पावन प्रेरणा से चलाये जा रहे ʹबाल संस्कार केन्द्र में भेजिये। आयु मर्यादाः बाल संस्कार केन्द्रः 6 से 10 वर्ष, बाल संस्कार केन्द्रः 10 से 18 वर्ष, कन्या बाल संस्कार केन्द्रः 10 से 17 वर्ष।

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विषय-सूची

प्रार्थना

सदगुरु महिमा

संत-अवतरण

आदर्श बालक की पहचान

विद्या

जीवन में दृढ़ता लाओ

बालभक्त ध्र्रुव

भारतीय परम्परा

स्मरणशक्ति बढ़ाने के उपाय

गुरुभक्त एकलव्य

मातृ-पितृ भक्त

पीड़ पराई जाणे रे....

सुषुप्त शक्तियाँ जगाने के प्रयोग

करुणामय हृदय

जन्मदिवस कैसे मनायें ?

क्या करू, क्या नहीं

शिवाजी का साहस

परीक्षा में सफल होने के लिए....

पृथ्वी का अमृतःगोदुग्ध

योगासन एवं यौगिक मुद्राएँ

ताड़ासन

दीक्षा यानी सही दिशा

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सम्पर्कः महिला उत्थान ट्रस्ट संत श्री आशारामजी आश्रम,

संत श्री आशारामजी बापू आश्रम मार्ग, अहमदाबाद-5

फोनः 079-27505010-11,

email: ashramindia@ashram.org website: http://www.ashram.org 

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प्रार्थना

हर कार्य के पहले भगवान या सदगुरुदेव की प्रार्थना करना भारतीय संस्कृति का महत्त्वपूर्ण अंग है। इससे हमारे कार्य में ईश्वरीय सहायता, प्रसन्नता और सफलता जुड़ जाती है।

गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः।

गुरूर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।

अर्थः गुरू ही ब्रह्मा हैं, गुरू ही विष्णु हैं। गुरूदेव ही शिव हैं तथा गुरूदेव ही साक्षात् साकार स्वरूप आदिब्रह्म हैं। मैं उन्हीं गुरूदेव के नमस्कार करता हूँ।

ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामलं गुरोः पदम्।

मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा।।

अर्थः ध्यान का आधार गुरू की मूरत है, पूजा का आधार गुरू के श्रीचरण हैं, गुरूदेव के श्रीमुख से निकले हुए वचन मंत्र के आधार हैं तथा गुरू की कृपा ही मोक्ष का द्वार है।

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

अर्थः जो सारे ब्रह्माण्ड में जड़ और चेतन सबमें व्याप्त हैं, उन परम पिता के श्री चरणों को देखकर मैं उनको नमस्कार करता हूँ।

त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देव देव।।

अर्थः तुम ही माता हो, तुम ही पिता हो, तुम ही बन्धु हो, तुम ही सखा हो, तुम ही विद्या हो, तुम ही धन हो। हे देवताओं के देव! सदगुरूदेव! तुम ही मेरा सब कुछ हो।

ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं

द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।

एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं

भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरूं तं नमामि।।

 

अर्थः जो ब्रह्मानन्द स्वरूप हैं, परम सुख देने वाले हैं, जो केवल ज्ञानस्वरूप हैं, (सुख-दुःख, शीत-उष्ण आदि) द्वंद्वों से रहित हैं, आकाश के समान सूक्ष्म और सर्वव्यापक हैं, तत्त्वमसि आदि महावाक्यों के लक्ष्यार्थ हैं, एक हैं, नित्य हैं, मलरहित हैं, अचल हैं, सर्व बुद्धियों के साक्षी हैं, सत्त्व, रज, और तम तीनों गुणों के रहित हैं ऐसे श्री सदगुरूदेव को मैं नमस्कार करता हूँ।

हमें भी प्रार्थना से ईश्वरीय मदद प्राप्त करनी है। विषय-सूची

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सदगुरु महिमा

ʹश्रीरामचरित मानसʹ में आता हैः

गुर बिन भव निधि तरइ न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई।।

ʹगुरु के बिना कोई भवसागर नहीं तर सकता, चाहे वह ब्रह्माजी और शंकरजी के समान ही क्यों न हो !ʹ

सदगुरु का अर्थ शिक्षक या आचार्य नहीं है। शिक्षक अथवा आचार्य हमें थोड़ा-बहुत ऐहिक ज्ञान देते हैं लेकिन सदगुरु तो हमें निजस्वरूप का ज्ञान दे देते हैं। जिस ज्ञान की प्राप्ति के बाद मोह उत्पन्न न हो, दुःख का प्रभाव न पड़े और परब्रह्म की प्राप्ति हो जाय ऐसा ज्ञान गुरुकृपा से ही मिलता है। उसे प्राप्त करने की भूख जगानी चाहिए। इसीलिये कहा गया हैः

गुरु गोबिन्द दोउ खड़े, का के लागों पाँव।

बलिहारी गुरु आपने, जिस गोबिन्द दियो बताय।।

जब श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि अवतार धरा पर आये, तब उन्होंने भी गुरु विश्वामित्र, वसिष्ठजी तथा सांदीपनी मुनि जैसे ब्रह्मनिष्ठ संतों की शरण में जाकर मानवमात्र को सदगुरु महिमा का महान संदेश प्रदान किया।

राम, कृष्ण से कौन बड़ा, तिन्ह ने भी गुरु कीन्ह।

तीन लोक के हैं धनी, गुरु आगे आधीन।।

हमें भी महापुरुषों सदगुरुओं के श्रीचरणों में बैठना है। विषय-सूची

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संत-अवतरण

अपने पूज्य संत श्री आशारामजी बापू के जन्म के पहले अज्ञात सौदागर एक शाही झूला अनुनय-विनय करके दे गया, बाद में पूज्य श्री अवतरित हुए। नाम रखा गया आसुमल। ʹयह तो महान संत बनेगा, लोगों का उद्धार करेगा....ʹ ऐसी भविष्यवाणी कुलगुरु ने कही। तीन वर्ष की उम्र में बालक आसुमल ने चौथी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों के बीच चौथी कक्षा की कविता सुनाकर शिक्षक एवं पूरी कक्षा को चकित कर दिया। आठ-दस वर्ष की उम्र में ऋद्धि-सिद्धियाँ अनजाने में आविर्भूत हो जाया करती थीं। 22 वर्ष की उम्र तक उन्होंने भिन्न-भिन्न आध्यात्मिक यात्राएँ की और कुछ उपलब्धि की। वात्सल्यमयी माँ महँगीबा का दुलार, घर पर ही रखने के लिए रिश्तेदारों की पुरजोर कोशिश एवं नवविवाहिता धर्मपत्नी श्री लक्ष्मीदेवी का त्यागपूर्ण अनुराग भी उनको अपने लक्ष्य पर पहुँचने के लिए गृहत्याग से रोक न सका। गिरि गुफाओं, कन्दराओं को छानते हुए, कंटकीले एवं पथरीले मार्गों पर पैदल यात्रा करते हुए, अनेक साधु-संतों का सम्पर्क करते हुए आखिर वे इसी जीवन में जीवनदाता से एकाकार बने हुए आत्मसाक्षात्कारी ब्रह्मवेत्ता पूज्यपाद स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज के पास नैनीताल के अरण्य में पहुँच ही गये। आध्यात्मिक यात्राओं एवं कसौटियों से वे खरे उतरे। साधना की विभिन्न घाटियों को पार करते हुए सम्वत् 2021, आश्विन शुक्ल पक्ष द्वितीय को उन्होंने अपना परम ध्येय हासिल कर लिया.... परमात्म-साक्षात्कार कर लिया।

तमाम विघ्न बाधाएँ, प्रलोभन एवं ईर्ष्यालुओं की ईर्ष्याएँ, निंदक व जलने वालों की अफवाहें उन्हें आत्मसुख से, प्रभु प्यालियाँ बाँटने के पवित्र कार्य से रोक न सकीं। उनके ज्ञानलोक से केवल भारत ही नहीं वरन् पूरे विश्व के मानव लाभान्वित हो रहे हैं। विषय-सूची

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हमें भी बापू जी के प्यारे बनना है।

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आदर्श बालक की पहचान

उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम – ये छः गुण जिस व्यक्ति के जीवन में हैं, अंतर्यामी देव उसकी सहायता करते हैं।

आज्ञाकारी बुद्धिमान संत स्वभाव स्वाध्यायी।

अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।

दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।।

ʹनिर्भयता, अंतःकरण की शुद्धि, ज्ञान और योग में निष्ठा, दान, इन्द्रियों पर काबू यज्ञ और स्वाध्याय, तप, अंतःकरण की सरलता का भाव – ये दैवी सम्पत्तिवाले के लक्ष्ण हैं।ʹ (श्रीमद भगवद् गीता 16.1)

मातृ-पितृ भक्ति, गुरुभक्ति, सत्यनिष्ठा, सहनशीलता, समता, प्रसन्नता, उत्साह, विनम्रता, उदारता, आज्ञाकारिता आदि सदगुण भी आदर्श बालक के जीवन में होते हैं। विषय-सूची

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हे प्रभु! आनन्ददाता!!

हे प्रभु! आनन्ददाता !! ज्ञान हमको दीजिये।

शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिये।।

हे प्रभु......

लीजिये हमको शरण में हम सदाचारी बनें।

ब्रह्मचारी धर्मरक्षक वीर व्रतधारी बनें।।

हे प्रभु......

निंदा किसी की हम किसी से भूलकर भी न करें।

ईर्ष्या कभी भी हम किसी से भूलकर भी न करें।।

हे प्रभु...

सत्य बोलें झूठ त्यागें मेल आपस में करें।

दिव्य जीवन हो हमारा यश तेरा गाया करें।।

हे प्रभु....

जाय हमारी आयु हे प्रभु ! लोक के उपकार में।

हाथ डालें हम कभी न भूलकर अपकार में।।

हे प्रभु....

कीजिये हम पर कृपा अब ऐसी हे परमात्मा!

मोह मद मत्सर रहित होवे हमारी आत्मा।।

हे प्रभु....

प्रेम से हम गुरुजनों की नित्य ही सेवा करें।

प्रेम से हम संस्कृति ही नित्य ही सेवा करें।।

हे प्रभु...

योगविद्या ब्रह्मविद्या हो अधिक प्यारी हमें।

ब्रह्मनिष्ठा प्राप्त करके सर्वहितकारी बनें।।

हे प्रभु.... विषय-सूची

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हमें भी आदर्श बालक बनना है।

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आदर्श दिनचर्या

जीवन विकास और सर्व सफलताओं की कुंजी है एक सही दिनचर्या। सही दिनचर्या द्वारा समय का सदुपयोग करके तन को तंदरूस्त, मन को प्रसन्न एवं बुद्धि को कुशाग्र बनाकर बुद्धि को बुद्धिदाता की ओर लगा सकते हैं।

ब्राह्ममुहूर्त में जागरण

प्रातः 4.30 बजे से 5 बजे के बीच उठें, लेटे-लेटे शरीर को खींचें। कुछ समय बैठकर ध्यान करें। शशक आसन करते हुए इष्टदेव, गुरुदेव को नमन करें।

करदर्शनः दोनों हाथों के दर्शन करते हुए यह श्लोक बोलें।

कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती।

करमूले तू गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम्।।

देवमानव हास्य प्रयोगः तालियाँ बजाते हुए तेजी से भगवन्नाम लेकर दोनों हाथ ऊपर उठाकर हँसें।

भूमिवंदनः धरती माता को वंदन करें और यह श्लोक बोलें।

समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डिते।

विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे।।

पानी प्रयोगः सुबह खाली पेट एक अथवा दो गिलास रात का रखा हआ पानी पियें।

शौच विज्ञानः स्नान करते समय यह मंत्र बोलें। ह्रीं गंगायै। ह्रीं स्वाहा।

ऋषि स्नानः ब्राह्म मुहूर्त में। मानव स्नानः सूर्योदय से पूर्व। दानव स्नानः सूर्योदय के बाद चाय, नाश्ता लेकर 8-9 बजे।

शौच जाते समय कानों तथा सिर पर कपड़ा बाँधें, दाँत भींचकर मल त्याग करें। शौच के समय पहने हुए कपड़े शौच के बाद धो लें।

दंत सुरक्षाः नीम की दातुन अथवा आयुर्वैदिक मंजन से दाँत साफ करें।

स्नानः ठंडे पानी से नहा रहे हों तो सर्वप्रथम सिर पर पानी डालें। रगड़-रगड़कर स्नान करें। विषय-सूची

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हमें भी सुसंस्कारी जीवन जीना है।

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ईश्वर उपासना

"हे विद्यार्थी ! ईश्वरप्राप्ति का लक्ष्य बना लो। बार-बार सत्संग का आश्रय लो, ईश्वर का नाम लो, उसका गुणगान करो, उसको प्रीति करो। और कभी फिसल जाओ तो आर्तभाव से पुकारो। वे परमात्मा-अंतरात्मा सहाय करते हैं, बिल्कुल करते हैं।" – पूज्य बापू जी।

आरतीः हमें यह अनमोल जीवन ईश्वरकृपा से मिला है। अतः आप रोज के 24 घंटों में से कम-से-कम एक घंटा ईश्वर-उपासना के लिए दें। प्रातः शौच-स्नानादि से निवृत्त होकर सर्वप्रथम भ्रूमध्य में तिलक करें। तत्पश्चात प्राणायाम, प्रार्थना, जप-ध्यान, सरस्वती उपासना, त्राटक, शुभ संकल्प, आरती आदि करें।

ये भी करें

नियमित रूप से व्यायाम, योगासन एवं सूर्योपासना करें।

5-7 तुलसी के पत्ते चबाकर एक गिलास पानी पियें।

माता-पिता और गुरुजनों को प्रणाम करें। हलका-पौष्टिक नाश्ता करें या दूध (गोदुग्ध) पियें।

प्रतिदिन विद्यालय जायें और एकाग्रतापूर्वक पढ़ाई करें। विषय-सूची

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हमें भी फूल की तरह महकना है।

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भोजन प्रसाद

हाथ पैर धोकर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके मौनपूर्वक भोजन करें।

स्वास्थ्यकारक, सुपाच्य व सात्त्विक आहार लें।

बाजारू चीज-वस्तुएँ न खायें।

भोजन से पूर्वः इस श्लोक का उच्चारण करें-

हरिर्दाता हरिर्भोक्ता हरिरन्नं प्रजापतिः।

हरिः सर्वशरीररथो भुक्ते भोजयते हरिः।।

श्रीमद् भगवद् गीता के पन्द्रहवें अध्याय का पाठ अवश्य करें।

इन मंत्रों से प्राणों को 5 आहूतियाँ अर्पण करें।

प्राणाय स्वाहा।

अपानाय स्वाहा।

व्यानाय स्वाहा।

उदानाय स्वाहा।

समानाय स्वाहा।

अध्ययनः विद्या ददाति विनयम्।

ʹविद्या से विनयशीलता आती है।ʹ

सर्वप्रथम हाथ-पैर-धोकर, तिलक कर ʹहरि ʹ का उच्चारण करें। अब शांत होकर निश्चिंत होकर पढ़ने बैठें।

अध्ययन के बीच-बीच में एवं अंत में शांत हों और पढ़े हुए का मनन करें।

कमर सीधी रखें। मुख ईशान कोण (पूर्व और उत्तर के बीच) की दिशा में हो।

जीभ की नोक को तालु में लगाकर पढ़ने से पढ़ा हुआ जल्दी याद होता है।

खेलकूद के बाद नियत समय पर पढ़ाई करें।

संध्याकाल में प्राणायाम, जप, ध्यान व त्राटक करें।

सदग्रंथों का नियमित पठन करें। विषय-सूची

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हमें भी उच्च शिक्षा प्राप्त करनी है।

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शयन

सोने से पहलेः सत्संग की पुस्तक, सत्शास्त्र पढ़ें अथवा कैसेट या सीडी सुनें।

ईश्वर या गुरुमंत्र से प्रार्थना तथा ध्यान करके सोयें।

सिर पूर्व या दक्षिण की ओर हो।

मुँह ढककर न सोयें।

जल्दी सोयें, जल्दी उठें।

श्वासोच्छवास की गिनती करते हुए सीधा (मुँह ऊपर की ओर करके) सोयें। फिर जैसी आवश्यकता होगी वैसे स्वाभाविक करवट ले ली जायेगी।

ज्ञानवर्धक पहेलियाँ-

काला घोड़ा गोरी सवारी, एक के बाद एक की बारी। (तवा और रोटी)

दिन को सोये रात को रोये, जितना रोये उतना खोये। (मोमबत्ती)

बोलो किसके प्राण बचाये, परमेश्वर ने नृसिंह रूप धर।

बोलो किसके दुष्ट पिता को, ईश्वर ने मारा देहरी पर। (भक्त प्रह्लाद)

जन-जन  के रोगों को हरने, वे पृथ्वी पर आये।

बोलो आयुर्वेद के ज्ञान को, कौन धरा पर लाये ? (भगवान धन्वंतरी) विषय-सूची

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हमें भी अपनी नींद को भक्तिमय बनाना है।

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विद्या

तीन प्रकार कि विद्याएँ-

ऐहिक विद्याः स्कूल और कालेजों में पढ़ायी जाती है।

योग विद्याः योगनिष्ठ महापुरुषों के सान्निध्य में जाकर योग की कुंजियाँ प्राप्त करके उनका अभ्यास करने से प्राप्त होती है।

आत्मविद्याः आत्मवेत्ता ब्रह्मज्ञानी सदगुरु का सत्संग-सान्निध्य प्राप्त करके उनके उपदेशों के अनुसार अपना जीवन ढालने से यह प्राप्त होती है। यह विद्या सर्वोपरि विद्या है, जिससे अंतरात्मा परमात्मा में विश्रान्ति मिलती है और कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता। योगविद्या एवं आत्मविद्या की उपासना से आत्मबल बढ़ता है, दैवी गुण विकसित होते हैं, स्वभाव संयमी बनता है और बड़ी-बड़ी मुसीबतों के सिर पर पैर रखकर उन्नति के पथ पर आगे बढ़ने की शक्ति प्राप्त होती है।

साखियाँ

बच्चों के जीवन में सदगुणों का संचार करने के लिए उपयोगी साखियाँ-

हाथ जोड़ वंदन करूँ, धरूँ चरण में शीश।

ज्ञान भक्ति मोहे दीजिये, परम पुरुष जगदीश।।

मैं बालक तेरा प्रभु, जानूँ योग न ध्यान।

गुरुकृपा मिलती रहे, दे दो यह वरदान।।

भयनाशन दुर्मति हरण, कलि में हरि को नाम।

निशदिन नानक जो जपे, सफल होवहिं सब काम।।

आलस कबहुँ न कीजिये, आलस अरि सम जानि।

आलस से विद्या घटे, बल बुद्धि की हानि।।

तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विना विवेक।

साहस सुकृत सत्यव्रत, राम भरोसो एक।। विषय-सूची

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हमें भी आत्मविद्या प्राप्त करनी हैं।

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जीवन में दृढ़ता लाओ

हे विद्यार्थी !

पुरुषार्थी, संयमी, उत्साही पुरुषों के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है और आलसी, लापरवाह लोगों के लिए तो सफलता भी विफलता में  बदल जाती है। अतः पुरुषार्थी बनो, दृढ़ संयमी बनो, उत्साही बनो।

स्वामी रामतीर्थजी विद्यार्थी अवस्था में बड़ी अभावग्रस्त दशा में रहे। कभी तेल न होता तो सड़क के किनारे के लैम्प के नीचे  बैठकर पढ़ लेते। कभी तो जूते खरीदने के भी पैसे न होते और कभी धन के अभाव में एक वक्त ही भोजन कर पाते। फिर भी दृढ़ संकल्प और निरंतर पुरुषार्थ से उन्होंने अपना अध्ययन पूरा किया। उन्होंने लौकिक विद्या ही नहीं पायी अपितु आत्मविद्या में भी आगे बढ़े और मानवीय विकास की चरम अवस्था आत्मसाक्षात्कार को उपलब्ध हुए। वे एक महान संत बने और स्वयं परमात्मा उनके हृदय में प्रकट हुए। अमेरिका का प्रेजीडेंट रूज़वेल्ट उनके दर्शन और सत्संग से धन्य-धन्य हो जाता था। लाखों लोगों को अब भी उनके साहित्य से लाभ हो रहा है। कहाँ तो एक गरीब विद्यार्थी और कहाँ कार के जप व प्रभुप्राप्ति के दृढ़ निश्चय से महान संत हो गये !

लौकिक विद्या तो पाओ ही पर उस विद्या को भी पा लो जो मानव को जीते जी मृत्यु के पार पहुँचा देती है। उसे भी जानो जिसके जानने से सब जाना जाता है, इसी में तो मानव-जीवन की सार्थकता है। पेटपालू पशुओं की नाईं जिंदगी बितायी तो क्या बितायी ! आत्मा-परमात्मा का ज्ञान नहीं पाया तो क्या पाया ! आत्मसुख नहीं जाना तो क्या सुख जाना ! विषय-सूची

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हमें भी दृढ़संकल्पवान बनना है।

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बालभक्त ध्रुव

हे विद्यार्थी !

जीवन में किसी भी क्षेत्र में सफल होना चाहते हो तो कोई-न-कोई अच्छा व्रत ले लो तथा उसका दृढ़तापूर्वक पालन करो। जिस प्रकार गांधी जी ने बाल्यावस्था में राजा हरिशचन्द्र का नाटक देखकर जीवन में सत्य बोलने का व्रत लिया तथा जीवनपर्यन्त उसका पालन किया। व्रत (नियम) और दृढ़तारूपी दो सदगुण हों तो जीव शिवस्वरूप हो जाता है, मानव से महेश्वर बन जाता है।

राजा उत्तानपाद की दो रानियाँ थीं। प्रिय रानी का नाम था सुरूचि और अप्रिय रानी का नाम था सुनीति। दोनों रानियों को एक-एक पुत्र था। एक बार रानी सुनीति का पुत्र ध्रुव खेलता-खेलता अपने पिता की गोद में बैठ गया। प्रिय रानी ने तुरंत ही उसे अपने पिता की गोद से नीचे उतारकर कहाः "पिता की गोद में बैठने के लिए पहले मेरी कोख से जन्म ले।" ध्रुव रोता-रोता अपनी माँ के पास गया और सारी बात माँ से कही। माँ ने खूब समझायाः "बेटा! यह राजगद्दी तो नश्वर है, तू तो भगवान का दर्शन करके शाश्वत गद्दी प्राप्त कर।" ध्रुव को माँ की सीख बहुत अच्छी लगी और वह तुरन्त ही दृढ़ निश्चय करके तप करने के लिए जंगल में चला गया। रास्ते में हिंसक पशु मिले फिर भी वह भयभीत नहीं हुआ। इतने में उसे देवर्षि नारद मिले। ऐसे घनघोर जंगल में मात्र 5 वर्ष के बालक को देखकर नारदजी ने वहाँ  आने का कारण पूछा। ध्रुव ने घर में हुई सब बातें नारद जी से कहीं और भगवान को पाने की तीव्र इच्छा प्रकट की। नारदजी ने ध्रुव को समझायाः "तू इतना छोटा है और भयानक जंगल में ठंडी-गर्मी सहन करके तपस्या नहीं कर सकता इसलिए तू घऱ वापस चला जा। " परन्तु ध्रव दृढ़ निश्चयी था। उसकी दृढ़ निष्ठा और भगवान को पाने की तीव्र इच्छा देखकर नारदजी ने ध्रुव को " नमो भगवते वासुदेवाय" मंत्र देकर आशीर्वाद दियाः "बेटा ! तू श्रद्धा से इस मंत्र का जप करना। भगवान जरूर तुझ पर प्रसन्न होंगे।" ध्रुव तो कठोर तपस्या में लग गया। एक पैर पर खड़े होकर, ठंडी-गर्मी, बरसात सब सहन करते हुए नारदजी के द्वारा दिये हुए मंत्र का जप करने लगा। उसकी निर्भयता, दृढ़ता और कठोर तपस्या से भगवान नारायण स्वयं प्रकट हो गये। भगवान ने ध्रुव से कहाः "कुछ माँग, माँग बेटा ! तुझे क्या चाहिए। मैं तेरी तपस्या से प्रसन्न हुआ हूँ। तुझे जो चाहिए वह माँग ले।" ध्रुव भगवान को देखकर आनंदविभोर हो गया। भगवान को प्रणाम करके कहाः "हे भगवन् ! मुझे दूसरा कुछ भी नहीं चाहिए। मुझे अपनी दृढ़ भक्ति दो।" भगवान और अधिक प्रसन्न हो गये और बोलेः "तथास्तु। मेरी भक्ति के साथ-साथ तुझे एक वरदान और भी देता हूँ कि आकाश में एक तारा ʹध्रुवʹ तारा के नाम से जाना जायेगा और दुनिया दृढ़ निश्चय के लिए तुझे सदा याद करेगी।" आज भी आकाश में हमें यह तारा देखने को मिलता है। ऐसा था बालक ध्रुव, ऐसी थी भक्ति में उसकी दृढ़ निष्ठा। पाँच वर्ष के ध्रुव को भगवान मिल सकते हैं। तो हमें क्यों नहीं मिल सकते ! जरूरत है भक्ति में निष्ठा की और दृढ़ विश्वास की। इसलिए बच्चों को हररोज निष्ठापूर्वक प्रेम से मंत्र का जप करना चाहिए। विषय-सूची

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हमें भी ध्रुव की तरह अटल पद पाना है।

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5 वर्ष के बालक ने चलायी जोखिमभरी सड़कों पर कार !

"मैंने पूज्य बापूजी से ʹसारस्वत्य मंत्रʹ की दीक्षा ली है। जब मैं पूजा करता हूँ, बापू जी मेरी तरफ पलकें झपकाते हैं। मैं बापूजी से बातें करता हूँ। मैं रोज दस माला जप करता हूँ। मैं बापूजी से जो माँगता हूँ, वह मुझे मिल जाता है। मुझे हमेशा ऐसा एहसास होता है कि बापूजी मेरे साथ हैं।

5 जुलाई 2005 को मैं अपने दोस्तों के साथ खेल रहा था। मेरा छोटा भाई छत से नीचे गिर गया। उस समय हमारे घर में कोई बड़ा नहीं था। इसलिए हम सब बच्चे डर गये। इतने में पूज्य बापू जी की आवाज आयी कि ʹतांशू ! इसे वैन में लिटा और वैन चलाकर हास्पिटल ले जा।ʹ उसके बाद मैंने अपनी दीदियों की मदद से हिमांशु को वैन में लिटाया। गाड़ी कैसे चली और अस्पताल तक कैसे पहुँची, मुझे नहीं पता। मुझे रास्ते भर ऐसा एहसास रहा कि बापूजी मेरे साथ बैठे हैं और गाड़ी चलवा रहे हैं।" (घर से अस्पताल की दूरी 5 कि.मी. से अधिक है।)

-    तांशु बेसोया, राजवीर कालोनी, दिल्ली – 96 विषय-सूची

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हमें भी दृढ़ निश्चयी बनना है।

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भारतीय परम्परा

तिलक महिमाः तिलक भारतीय संस्कृति का प्रतीक है।

वैज्ञानिक तथ्यः ललाट पर दोनों भौहों के बीच आज्ञाचक्र (शिवनेत्र) है और उसी के पीछे के भाग में दो महत्त्वपूर्ण अंतःस्रावी ग्रंथियाँ स्थित हैं- पीनियल ग्रन्थि और पीयूष ग्रन्थि।

तिलक लगाने से दोनों ग्रन्थियों का पोषण होता है और विचारशक्ति विकसित होती है। ʹ गं गणपतये नमः।ʹ मंत्र का जप करके, जहाँ चोटी रखते हैं वहाँ दायें हाथ की उँगलियों से स्पर्श करें और संकल्प करें कि ʹहमारे मस्तक का यह हिस्सा विशेष संवेदनशील हो, विकसित हो।ʹ इससे ज्ञानतंतु सुविकसित होते हैं, बुद्धिशक्ति व संयमशक्ति का विकास होता है।

अनुभवः राजस्थान के जयपुर जिले में स्थित देवीनगर में गजेन्द्र सिंह खींची नाम का एक लड़का रहता है। वह नियमित रूप से बाल संस्कार केन्द्र में जाता था। केन्द्र में जब उसे तिलक करने से होने वाले लाभों के बारे में पता चला, तब से वह नियमित रूप से स्कूल में भी तिलक लगाकर जाने लगा।

पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित उसकी शिक्षिका ने उसे तिलक लगाने से मना किया परंतु जब उस बच्चे ने शिक्षिका को तिलक लगाने के फायदे बताये तब शिक्षिका ने तिलक लगाने की मंजूरी दे दी। तिलक की महिमा जानकर अन्य बच्चे भी तिलक लगाने लगे, जिससे उनको बहुत लाभ हुआ।

नमस्कारः नमस्कार भारतीय संस्कृति की एक सुंदर परम्परा है। जब हम किसी बुजुर्ग, माता-पिता या संत-महापुरुष के सामने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाते हैं तो हमारा अहंकार पिघलता है, अंतःकरण निर्मल होता है व समर्पण भाव प्रकट होता है।

दोनों हाथों को जोड़ने से जीवनीशक्ति और तेजोवलय का क्षय रोकने वाला एक चक्र बन जाता है। इसलिए हाथ मिलाकर ʹहैलोʹ कहने के बजाय हाथ जोड़कर ʹहरि ʹ अथवा भगवान का कोई भी नाम लेकर अभिवादन करना चाहिए। विषय-सूची

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हमें भी शीलवान बनना है।

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स्मरणशक्ति बढ़ाने के उपाय

हे विद्यार्थियो ! क्या आप उत्तम स्वास्थ्य की कामना करते हैं ? अपनी बुद्धि को सूक्ष्म, तेज व विचार-सम्पन्न बनाना चाहते हैं ? मन को मधुर व आनंदित रखना चाहते हैं ? जीवन को स्फूर्तिला, तेजस्वी तथा ओजस्वी रखना चाहते हैं ? शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक – सर्वांगीण विकास साधकर अपने जीवन के हर क्षेत्र में सफल होना चाहते हैं ? हाँ, अवश्य....

तो आज से ही स्मरणशक्ति को बढ़ाने वाले प्रयोग करना शुरु कर दो।

सूर्यनमस्कारः सूर्यनमस्कार एक सरल और प्रभावशाली व्यायाम के साथ शक्तिवर्धक उपासना भी है। इसमें समग्र विश्व-ब्रह्मांड को जीवनशक्ति प्रदान करने वाले भगवान सूर्यनारायण के रूप में परब्रह्म-परमात्मा की उपासना तन, मन, बुद्धि एवं वाणी से व्यायाम के साथ की जाती है। सूर्यनमस्कार में अनेक योगासनों का अदभुत समन्वय किया गया है, अतः इन्हें करने से योगासनों का लाभ भी अपने-आप मिल जाता है।

सूर्य नमस्कार के नियमित अभ्यास से शारीरिक व मानसिक स्फूर्ति के साथ ही विचारशक्ति तेज व पैनी तथा स्मरणशक्ति तीव्र होती है। मस्तिष्क की स्थिति स्वस्थ, निर्मल और शांत हो जाती है।

सूर्य को अर्घ्यः सुबह स्नान के बाद जल से भरा ताँबे का कलश हाथ में लेकर सूर्य की ओर मुख करके किसी स्वच्छ स्थान पर खड़े हों। कलश को छाती के समक्ष बीचों-बीच लाकर धारावाले किनारे पर दृष्टिपात करेंगे तो हमें सूर्य का प्रतिबिम्ब एक छोटे से बिन्दु के रूप में दिखेगा। उस बिन्दु पर दृष्टि एकाग्र करने से हमें सप्तरंगों का वलय दिखेगा। इस तरह सूर्य के प्रतिबिम्ब (बिंदु) पर दृष्टि एकाग्र करें। सूर्य बुद्धिशक्ति के स्वामी हैं। अतः सूर्योदय के समय सूर्य को अर्घ्य देने से बुद्धि तीव्र बनती है। अर्घ्य देते समय सूर्य-गायत्री मंत्र का उच्चारण करें-

आदित्याय विद्महे भास्कराय धीमहि, तन्नो भानुः प्रचोदयात्।

भ्रामरी प्राणायामः लाभः वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है कि भ्रामरी प्राणायाम करते समय भौंरे की तरह गुंजन करने से छोटे मस्तिष्क में स्पन्दन होते हैं। इससे स्मृतिशक्ति का विकास होता है। यह प्राणायाम करने से मस्तिष्क के रोग निर्मूल होते हैं। अतः हर रोज सुबह 8-10 प्राणायाम करने चाहिए।

विधिः सर्वप्रथम दोनों हाथों की उँगलियों को कंधों के पास ऊँचा ले जायें। दोनों हाथों की उँगलियाँ कान के पास रखें। गहरा श्वास लेकर तर्जनी (अँगूठे के पास वाली पहली) उँगली से दोनों कानों को इस प्रकार बंद करें कि बाहर का कुछ सुनाई न दे। अब होंठ बंद करके भौंरे जैसा गुंजन करें। श्वास खाली होने पर उँगलियाँ बाहर निकालें।

सारस्वत्य मंत्र दीक्षाः समर्थ सदगुरुदेव से सारस्वत्य मंत्र की दीक्षा लेकर मंत्र का नियमित रूप से जप करने और उसका अऩुष्ठान करने से स्मरणशक्ति चमत्कारिक ढंग से बढ़ती है।

सूर्योदय के बाद तुलसी के 5-7 पत्ते चबाकर खाने और एक गिलास पानी पीने से भी स्मृतिशक्ति बढ़ती है। तुलसी खाकर तुरंत दूध न पियें। यदि दूध पीना हो तो तुलसी-पत्ते खाने के एक घंटे बाद पियें।

रात को देर तक पढ़ने के बजाय सुबह जल्दी उठकर पाँच मिनट ध्यान में बैठने के बाद पढ़ने से, पढ़ा हुआ तुरंत ही याद हो जाता है। विषय-सूची

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तीन वर्षों से कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया

"मैंने वर्ष 2001 में पूज्य बापूजी से सारस्वत्य मंत्र लिया था। मैं प्रतिदिन 10 माला जप करती हूँ। पूज्य बापूजी की कृपा से ही मैंने लगातार तीन वर्षों से कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया है। हमारे विद्यालय में ʹबाल संस्कार केन्द्रʹ की स्थापना हुई। हमें वहाँ बहुत अच्छी बातें बतायी गयीं। पहले मुझे टीवी से इतना लगाव था कि मैं एक भी कार्यक्रम नहीं छोड़ती थी लेकिन मेरे जीवन में अब इतना बदलाव आ गया है कि मेरी टीवी के चलचित्रों व कार्यक्रमों में कोई रूचि नहीं रही। अब पता चला कि इनके द्वारा तो जीवन छिछला, तुच्छ हो जाता है और मन पर हलके संस्कार पड़ते हैं। विषय-सूची

ज्योति यादव, मुसेपुर, रेवाड़ी (हरियाणा)

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गुरुभक्त एकलव्य

द्वापर युग की बात है। एकलव्य नाम का भील जाति का एक लड़का था। एक बार वह धनुर्विद्या सीखने के उद्देश्य से कौरवों एवं पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य के पास गया परंतु द्रोणाचार्य ने कहा कि वे राजकुमारों के अलावा और किसी को धनुर्विद्या नहीं सिखा सकते। एकलव्य ने मन ही मन द्रोणाचार्य को अपना गुरु मान लिया था, इसलिए उनके मना करने पर भी उसके मन में गुरु के प्रति शिकायत या छिद्रान्वेषण (दोष देखने) की वृत्ति नहीं आयी, न ही गुरु के प्रति उसकी श्रद्धा कम हुई।

वह वहाँ से घर न जाकर सीधे जंगल में चला गया। वहाँ जाकर उसने द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति बनायी। वह हररोज गुरुमूर्ति की पूजा करता, फिर उसकी तरफ एकटक देखते देखते ध्यान करता और उससे प्रेरणा लेकर धनुर्विद्या सीखने लगा।

स्वस्तिक अथवा इष्टदेव-गुरुदेव के श्रीचित्र पर एकटक देखने से एकाग्रता बढ़ती है। एकाग्रता बढ़ने से तथा गुरुभक्ति, अपनी सच्चाई और तत्परता के कारण एकलव्य को प्रेरणा मिलने लगी। इस प्रकार अभ्यास करते-करते वह धनुर्विद्या में बहुत आगे बढ़ गया।

एक बार द्रोणाचार्य धनुर्विद्या के अभ्यास के लिए पांडवों और कौरवों को लेकर जंगल में गये। उनके साथ एक कुत्ता भी था, वह दौड़ते दौड़ते आगे निकल गया। जहाँ एकलव्य धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था, वहाँ वह कुत्ता पहुँचा। एकलव्य के विचित्र वेश को देखकर कुत्ता भौंकने लगा।

कुत्ते को चोट न लगे और उसका भौंकना भी बन्द हो जाये इस प्रकार उसके मुँह में सात बाण एकलव्य ने भर दिये। जब कुत्ता इस दशा में द्रोणाचार्य के पास पहुँचा तो कुत्ते की यह हालत देखकर अर्जुन को विचार आयाः ʹकुत्ते के मुँह में चोट न लगे इस प्रकार बाण मारने की विद्या तो मैं भी नहीं जानता !ʹ

अर्जुन ने गुरु द्रोणाचार्य से कहाः "गुरुदेव ! आपने तो कहा था कि तेरी बराबरी कर सके ऐसा कोई भी धनुर्धर नहीं होगा परंतु ऐसी विद्या तो मैं भी नहीं जानता।"

द्रोणाचार्य भी विचार में पड़ गये। इस जंगल में ऐसा कुशल धनुर्धर कौन होगा ? आगे जाकर देखा तो उन्हें हिरण्यधनु का पुत्र गुरुभक्त एकलव्य दिखायी पड़ा।

द्रोणाचार्य ने पूछाः "बेटा ! तुमने यह विद्या कहाँ से सीखी ?"

एकलव्य ने कहाः "गुरुदेव ! आपकी कृपा से ही सीखी है।"

द्रोणाचार्य तो अर्जुन को वचन दे चुके थे कि उसके जैसा कोई दूसरा धनुर्धर नहीं होगा किंतु एकलव्य तो अर्जुन से भी आगे बढ़ गया। एकलव्य से द्रोणाचार्य ने कहाः "मेरी मूर्ति को सामने रखकर तुमने धनुर्विद्या तो सीखी  परंतु गुरुदक्षिणा...?"

एकलव्य ने कहाः "आप जो माँगें।"

द्रोणाचार्य ने कहाः "आप जो माँगें।।"

एकलव्य ने एक पल भी विचार किये बिना आपके दायें हाथ का अँगूठा काटकर गुरुदेव के चरणों में अर्पित कर दिया।

द्रोणाचार्य ने आशीर्वाद देते हुए कहाः "बेटा ! अर्जुन भले धनुर्विद्या में सबसे आगे रहे क्योंकि उसको मैं वचन दे चुका हूँ परंतु जब तक सूर्य, चाँद और नक्षत्र रहेंगे, तुम्हारी गुरुभक्ति के कारण तुम्हारा यशोगान होता रहेगा।"

एकलव्य की गुरुभक्ति और एकाग्रता ने उसे धनुर्विद्या में तो सफलता दिलायी ही, साथ ही संतों के हृदय में भी उनके लिए आदर प्रकट कर दिया। धन्य है एकलव्य, जिसने गुरु की मूर्ति से प्रेरणा लेकर धनुर्विद्या में सफलता प्राप्त की तथा अदभुत गुरुदक्षिणा देकर साहस, त्याग और समर्पण का आदर्श प्रस्तुत किया। विषय-सूची

सीखः गुरुभक्ति, श्रद्धा और लगनपूर्वक कोई भी कार्य करने से अवश्य सफलता मिलती है।

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हमें भी एकाग्रचित्त बनना है।

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साखियाँ

धैर्य धरो आगे बढ़ो, पूरन हों सब काम।

उसी दिन ही फलते नहीं, जिस दिन बोते आम।।

साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।

जाके हृदय साँच है, ताके हृदय आप।।

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।

सिर दीजे सदगुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।

तुलसी मीठे वचन ते, सुख उपजत चहुँ ओर।

वशीकरण यह मंत्र है, तज दे वचन कठोर।।

विषय-सूची

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हमें भी आदर्श गुरुभक्त बनना है।

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मातृ-पितृ भक्त

"माता पिता और गुरुजनों का आदर करने वाला

चिरआदरणीय हो जाता है।" पूज्य बापू जी।

हे विद्यार्थी !

भारतवर्ष में माता-पिता को पृथ्वी पर का साक्षात देव माना गया है।

मातृदेवो भव। पितृदेवो भव।

विद्यार्थियो ! प्राचीनकाल में लोग क्यों लम्बी उम्र तक जीते थे ? आप जानते हैं ? क्योंकि उस समय लोग अपने माता-पिता को प्रतिदिन प्रणाम करके उनका आशीर्वाद प्राप्त करते थे। शास्त्र कहता हैः

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।। (मनुस्मृतिः 2.121)

ʹजो माता-पिता और गुरुजनों को प्रणाम करता है और उनकी सेवा करता है, उसकी आयु, विद्या, यश और बल चारों बढ़ते हैं।ʹ

विद्यार्थियो ! आपने श्रवण कुमार का नाम तो सुना ही होगा। माता-पिता की सेवा का आदर्श आप श्रवण कुमार से सीखो। अपने माता-पिता के इच्छानुसार उनको कावड़ में बिठाकर वे उन्हें तीर्थयात्रा करवाने निकल पड़े। पैदल जाना, हिंसक जानवरों का भय और माँगकर खाना – इस प्रकार की अनेक यातनाएँ सहन कीं लेकिन माता-पिता की सेवा से विमुख नहीं हुए। माता-पिता की सेवा करते-करते ही उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये। मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम भी आदर्श मातृ-पितृ गुरुभक्त थे। गोस्वामी तुलसीदास जी ने उनके बारे में लिखा हैः

प्रातःकाल उठि के रघुनाथा।

मातु पिता गुरु नावहिं माथा।।

(श्रीरामचरितमानस)

एक बार भगवान शंकर के यहाँ उनके दोनों पुत्रों में होड़ लगी कि ʹकौन बड़ा ?ʹ

कार्तिक ने कहाः "गणपति ! मैं तुमसे बड़ा हूँ।"

गणपतिः "आप भले उम्र में बड़े हैं लेकिन गुणों से भी बड़प्पन होता है।" निर्णय लेने के लिए दोनों गये शिव-पार्वती के पास।

शिव पार्वती ने कहाः "जो सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले पहुँचेगा, उसी का बड़प्पन माना जायेगा।"

कार्तिकेय तुरंत अपने वाहन मयूर पर निकल गये पृथ्वी की परिक्रमा करने। गणपति जी चुपके-से एकांत में चले गये। थोड़ी देर शांत होकर उपाय खोजा। फिर आये शिव-पार्वती के पास। माता-पिता का हाथ पकड़कर दोनों को ऊँचे आसन पर बिठाया, पत्र-पुष्प से उनके श्रीचरणों की पूजा की एवं प्रदक्षिणा करने लगे। एक चक्कर पूरा हुआ तो प्रणाम किया... दूसरा चक्कर लगाकर फिर प्रणाम किया... इस प्रकार माता-पिता की सात प्रदक्षिणाएँ कर लीं।

शिव-पार्वती ने पूछाः "वत्स ! ये प्रदक्षिणाएँ क्यों की ?"

गणपतिः "सर्वतीर्थमयी माता... सर्वदेवमयः पिता... सारी पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से जो पुण्य होता है, वही पुण्य माता की प्रदक्षिणा करने से हो जाता है, यह शास्त्र वचन है। पिता का पूजन करने से सब देवताओं का पूजन हो जाता है क्योंकि पिता देवस्वरूप हैं। अतः आपक परिक्रमा करके मैंने सम्पूर्ण पृथ्वी की सात परिक्रमाएँ कर ली हैं।" तब से गणपति प्रथम पूज्य हो गये। ʹशिव पुराणʹ में आता हैः

पित्रोश्च पूजनं कृत्वा प्रक्रान्तिं च करोति यः।

तस्य वै पृथिवीजन्यफलं भवति निश्चितम्।।

ʹजो पुत्र माता-पिता की पूजा करके उनकी प्रदक्षिणा करता है, उसे पृथ्वी-परिक्रमाजनित फल अवश्य सुलभ हो जाता है।ʹ विषय-सूची

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"विद्यार्थी 14 फरवरी को माता-पिता का पूजन कर

ʹमातृ-पितृ पूजन दिवसʹ मनायें।"

माँ-बाप को भूलना नहीं

 

भूलो सभी को मगर, माँ-बाप को भूलना नहीं।

उपकार अगणित हैं उनके, इस बात को भूलना नहीं।।

पत्थर पूजे कई तुम्हारे, जन्म के खातिर अरे।

पत्थर बन माँ-बाप का, दिल कभी कुचलना नहीं।।

मुख का निवाला दे अरे, जिनने तुम्हें बड़ा किया।

अमृत पिलाया तुमको जहर, उनको उगलना नहीं।।

कितने लड़ाए लाड़ सब, अरमान भी पूरे किये।

पूरे करो अरमान उनके, बात यह भूलना नहीं।।

लाखों कमाते हो भले, माँ-बाप से ज्यादा नहीं।

सेवा बिना सब राख है, मद में कभी फूलना नहीं।।

सन्तान से सेवा चाहो, सन्तान बन सेवा करो।

जैसी करनी वैसी भरनी, न्याय यह भूलना नहीं।।

सोकर स्वयं गीले में, सुलाया तुम्हें सूखी जगह।

माँ की अमीमय आँखों को, भूलकर कभी भिगोना नहीं।।

जिसने बिछाये फूल थे, हर दम तुम्हारी राहों में।

उस राहबर के राह के, कंटक कभी बनना नहीं।।

धन तो मिल जायेगा मगर, माँ-बाप क्या मिल पायेंगे?

पल पल पावन उन चरण की, चाह कभी भूलना नहीं।।

विषय-सूची

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पीड़ पराई जाणे रे.....

पर हित सरिस धर्म नहिं भाई।

पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।

ʹदूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को दुःख पहुँचाने के समान कोई नीचता (पाप) नहीं है।ʹ (श्रीरामचरितमानस)

मणिनगर (अहमदाबाद) में एक बालक रहता था। वह खूब निष्ठा से ध्यान-भजन एवं सेवा-पूजा करता था और शिवजी को जल चढ़ाने के बाद ही जल पीता था। एक दिन वह नित्य की नाईं शिवजी को जल चढ़ाने जा रहा था। रास्ते में उसे एक व्यक्ति बेहोश पड़ा हुआ मिला। रास्ते चलते लोग बोल रहे थेः ʹशराब पी होगी, यह होगा, वह होगा.... हमें क्या !ʹ कोई उसे जूता सुंघा रहा था तो कोई कुछ कर रहा था। उसकी दयनीय स्थिति देखकर उस बालक का हृदय करुणा से पसीज उठा। अपनी पूजा अर्चना छोड़कर वह उस गरीब की सेवा में लग गया। पुण्य किये हुए हों तो प्रेरणा भी अच्छी मिलती है। शुभ कर्मों से शुभ प्रेरणा मिलती है।

अपनी पूजा की सामग्री एक ओर रखकर बालक ने उस युवक को उठाया। बड़ी मुश्किल से उसकी आँखें खुलीं। वह धीरे से  बोलाः "पानी.....पानी....."

बालक ने महादेवजी के लिए लाया हुआ जल उसे पिला दिया। फिर दौड़कर घर गया और अपने हिस्से का दूध लाकर उसे दिया। युवक की जान में जान आयी।

उस युवक ने अपनी व्यथा सुनाते हुए कहाः "बाबू जी ! मैं बिहार से आया हूँ। मेरे पिता गुजर गये हैं और चाचा दिन-रात टोकते रहते थे कि ʹकुछ कमाओगे नहीं तो खाओगे क्या !ʹ नोकरी धंधा मिल नहीं रहा था। भटकते-भटकते अहमदाबाद रेलवे स्टेशन पर पहुँचा और कुली का काम करने का प्रयत्न किया। अपनी रोजी रोटी में नया हिस्सेदार मानकर कुलियों ने मुझे खूब मारा। पैदल चलते-चलते मणिनगर स्टेशन की ओर जा रहा थ कि तीन दिन की भूख व मार के कारण चक्कर आया और यहाँ गिर गया।"

बालक ने उसे खाना खिलाया, फिर अपना इकट्ठा किया हुआ जेबखर्च का पैसा दिया। उस युवक को जहाँ जाना था वहाँ भेजने की व्यवस्था की। इससे बालक के हृदय में आनंद की वृद्धि हुई, अंदर से आवाज आयीः ʹबेटा ! अब मैं तुझे जल्दी मिलूँगा.... बहुत जल्दी मिलूँगा।ʹ

बालक ने प्रश्न कियाः ʹअंदर से कौन बोल रहा है ?ʹ

उत्तर आयाः ʹजिस शिव की तू पूजा करता है वह तेरा आत्मशिव। अब मैं तेरे हृदय में प्रकट होऊँगा। सेवा के अधिकारी की सेवा मुझ शिव की ही सेवा है।ʹ

उस दिन बालक के अंतर्यामी ने उसे अनोखी प्रेरणा और प्रोत्साहन दिया। कुछ वर्षों के बाद वह तो घर छोड़कर निकल पड़ा उस अंतर्यामी ईश्वर का साक्षात्कार करने के लिए।

स्वामी लीलाशाह जी  बापू के श्रीचरणों में बहुत लोग आते थे परंतु सबमें अपने आत्मशिव को देखने वाले, छोटी उम्र में ही जाने-अनजाने आत्मविचार का आश्रय लेने वाले इस युवक ने उनकी पूर्ण कृपा प्राप्त कर आत्मज्ञान प्राप्त किया। जानते हो वह युवक कौन था ?

पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान। आसुमल से हो गये, साँई आशाराम।।

लाखों करोड़ों लोगों के इष्ट-आराध्य प्रातःस्मरणीय जग-वंदनीय पूज्य संत श्री आशारामजी बापू। विषय-सूची

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हमें भी परोपकारी बनना है।

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योग-सामर्थ्य के धनी

ब्रह्मनिष्ठ अपने-आप में एक बहुत बड़ी ऊँचाई है। ब्रह्मनिष्ठा के साथ यदि योग-सामर्थ्य भी हो तो दुग्ध-शर्करा योग की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ऐसा ही सुमेल देखने को मिलता है पूज्य बापू जी के जीवन में। एक ओर जहाँ आपकी ब्रह्मनिष्ठा साधकों को सान्निध्यमात्र से परम आनंद, पवित्र शांति में सराबोर कर देती है, वहीं दूसरी ओर आपकी करूणा-कृपा से मृत गाय को जीवनदान मिलना, अकालग्रस्त स्थानों में वर्षा होना, वर्षों से निःसंतान रहे दम्पत्तियों को संतान होना, रोगियों के असाध्य रोग सहज में दूर होना, निर्धनों को धन प्राप्त होना, अविद्वानों को विद्वता प्राप्त होना, घोर नास्तिकों के जीवन में आस्तिकता का संचार होना – इस प्रकार की अनेकानेक घटनाएँ आपके योग-सामर्थ्य सम्पन्न होने का प्रमाण है। विषय-सूची

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हमें भी योग सामर्थ्य से सम्पन्न होना है।

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सुषुप्त शक्तियाँ जगाने के प्रयोग

पूज्य संत श्री आशारामजी बापू का पावन संदेश

एकाग्रता स्वयं एक अदभुत सामर्थ्य है। वह सब धर्मों में श्रेष्ठ है। तप तु सर्वेषु एकाग्रता परं तपः। ʹसब तपों में एकाग्रता परम तप है।ʹ श्रीमद् आद्य शंकराचार्य ने कहा हैः

मनसश्चेन्द्रियाणां च ह्यैकाग्रयं परमं तपः।

तज्जयः सर्व धर्मेभ्यः स धर्मः पर उच्यते।।

ʹमन और इन्द्रियों की एकाग्रता ही परम तप है। उसका जय सब धर्मों से महान है।ʹ

जिसके जीवन में जितनी एकाग्रता होती है वह अपने कार्यक्षेत्र में उतना ही सफल होता है। चाहे वैज्ञानिक हो, डॉक्टर हो, न्यायाधीश अथवा विद्यार्थी हो लेकिन जब किसी गहरे विषय को खोजना हो तो सभी लोग शांत हो जाते हैं। मन को शांत तथा स्थिर करने का जितना अधिक अभ्यास होता है, उतनी ही उस क्षेत्र में सफलता मिलती है।

त्राटकः त्राटक अर्थात दृष्टि को जरा भी हिलाये बिना एक ही स्थान पर स्थिर करना। इष्टदेव या गुरुदेव के श्रीचित्र पर त्राटक करने से एकाग्रता में विलक्षण वृद्धि होती है एवं विशेष लाभ होता है। स्वस्तिक, या दीपक की ज्योति पर त्राटक किया जा सकता है। त्राटक के नियमित अभ्यास से पढ़ाई में अदभुत लाभ होता है। त्राटक करने वालों की आँखों से एक विशेष प्रकार का आकर्षण एवं तेज आ जाता है। उसकी स्मरणशक्ति तथा विचारशक्ति में विलक्षणता आ जाती है। त्राटक का एकाग्रता को सिद्ध करने की एक सरल एवं सचोट साधना है।

मौनः न बोलने में नौ गुण।

निंदा करने से बचेंगे, असत्य बोलने से बचेंगे, किसी से वैर नहीं होगा। क्षमा माँगने की परिस्थिति नहीं आयेगी, समय का दुरुपयोग नहीं होगा, अज्ञान ढका रहेगा। अंतःकरण की शांति बनी रहेगी, शक्ति का ह्रास नहीं होगा, क्रोध से बच सकेंगे।

प्रतिदिन कुछ समय मौन रखने वाला श्रेष्ठ विचारक व दीर्घजीवी बनता है। गांधी जी हर सोमवार को मौन रखते थे। उस दिन वे अधिक कार्य कर पाते थे। विषय-सूची

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हमें भी हर एक क्षेत्र में सफल होना है।

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करुणामय हृदय

पूज्य संत श्री आशारामजी बापू अपने सदगुरु भगवत्पाद स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज का एक पावन संस्मरण बताते हुए कहते हैं- गुरुजी जहाँ रोज बैठते थे वहाँ आगे एक जंगली पौधा था, जिसे बिच्छु का पौधा कहते हैं। उसके पत्तों को यदि हम छू लें तो बिच्छु के काटने जैसी पीड़ा होती है। मैंने सोचा, ʹयह बिच्छु का पौधा बड़ा हो गया है। अगर यह गुरुदेव के श्रीचरणों को अथवा हाथों को छू जायेगा तो गुरुदेव के शरीर को पीड़ा होगी।ʹ मैंने श्रद्धा और उत्साहपूर्वक सावधानी से उस पौधे को उखाड़कर दूर फेंक दिया। गुरु जी ने दूर से यह देखा और मुझे जोर से फटकाराः "यह क्या करता है !"

"गुरुजी ! यह बिच्छु का पौधा है। कही छू न जाय....."

"बेटा ! मैं हर रोज यहाँ बैठता हूँ... संभलकर बैठता हूँ.... उस पौधे में भी प्राण हैं। उसे कष्ट क्यों देना ! जा, कहीं गड्ढा खोदकर उस पौधे को फिर से लगा दे।" विषय-सूची

महापुरुषों का, सदगुरुओं का हृदय कितना कोमल होता है !

वैष्णवजन तो तेने रे कहिये, जे पीड़ पराई जाणे रे....

परदुःखे उपकार करे तोये, मन अभिमान न आणे रे...

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बुद्धि-परीक्षण

रणभूमि में मिला उपदेश। दिव्य ज्ञान का क्या संदेश ? (श्रीमद् भगवद् गीता)

संत की लीलाओं का है वर्णन, पाठ से होते सिद्ध सब काम।

इस युग की उस रामायण का बताओ क्या है पूरा नाम ? (श्री आसारामायण योगलीला)

गुरुजन, मात-पिता को करने से प्रणाम।

बढ़ते हैं गुण चार, बताओ क्या हैं उनके नाम ? (आयु, विद्या, यश और बल)

पिता शहाजी, माँ जीजा का वह था पुत्र महान।

देश, धर्म का रक्षक था, भारत माता की शान।। (शिवाजी)

वे विभूति थे द्वापर युग की, कौरव-पांडवों से थे पूजित।

किसने किये थे शांतभाव से, शर-शय्या पर प्राण विसर्जित ? (भीष्म पितामह)

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हमें भी करूणावान हृदयवाला बनना है।

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जन्मदिवस कैसे मनायें ?

तमसो मा ज्योतिर्गमय।

हे प्रभु ! तू हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल ! सनातन संस्कृति के इस दिव्य संदेश को जीवन में अपना कर अपना जीवन प्रकाशमय बनाने का सुअवसर है जन्मदिवस।

हम पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित होकर प्रकाश, आनंद व ज्ञान की ओर ले जाने वाली अपनी सनातन संस्कृति का अनादर करके अपना जन्मदिवस अंधकार व अज्ञान की छाया में मना रहे हैं। केक पर मोमबत्तियाँ जलाकर उन्हें फूँककर बुझा देते हैं, प्रकाश के स्थान पर अंधेरा कर देते हैं।

पानी का गिलास होठों से लगाने मात्र से उस पानी में लाखों किटाणु प्रवेश कर जाते हैं तो फिर मोमबत्तियों को बार बार फूँकने पर थूक के माध्यम से केक में कितने कीटाणु प्रवेश करते होंगे ? अतः हमें पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण का त्याग कर भारतीय संस्कृति के अनुसार ही जन्मदिवस मनाना चाहिए।

यह शरीर, जिसका जन्मदिवस मनाना है, पंचभूतों से बना है जिनके अलग-अलग रंग हैं। पृथ्वी का पीला, जल का सफेद, अग्नि का लाल, वायु का हरा व आकाश का नीला।

थोड़े से चावल, हल्दी, कुंकुम आदि उपरोक्त पाँच रंग के द्रव्यों से रँग लें। फिर उनसे स्वास्तिक बनायें और जितने वर्ष पूरे हुए हों, मान लो 11, उतने छोटे दीये स्वास्तिक पर रख दें तथा 12वें वर्ष की शुरूआत के प्रतीक के रूप में एक बड़ा दीया स्वास्तिक के मध्य में रखें।

फिर घर के सदस्यों से सब दीये जलवायें तथा बड़ा दीया कुटुम्ब के श्रेष्ठ, ऊँची समझवाले, भक्तिभाव वाले व्यक्ति से जलवायें। इसके बाद जिसका जन्मदिवस है, उसे सभी उपस्थित लोग शुभकामनाएँ दें। फिर आरती व प्रार्थना करें। विषय-सूची

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हमें भी अपना जन्मदिवस भारतीय संस्कृति के अनुरूप ही मनाना है।

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हे पुण्यशाली अभिभावको !....

आप अपने लाड़लों का जन्मदिवस भारतीय संस्कृति के अनुसार ही मनायें ताकि आगे चलकर ये मासूम नौनिहाल पाश्चात्य संस्कृति के गुलाम न बनकर भारत के सम्माननीय नागरिक बन सकें।

ध्यान दें- जन्मदिवस के अवसर पर पार्टियों का आयोजन कर व्यर्थ में पैसा उड़ाना कहाँ तक उचित है ? इससे देश के ये भावी कर्णधार कौन सा आदर्श लेंगे ? आप आज से ही जन्मदिवस भारतीय संस्कृति के अनुसार मनाने का दृढ़ निश्चय कर लें। इस दिन बच्चे के हाथों से गरीब बस्तियों, अनाथालयों में भोजन, वस्त्र इत्यादि का वितरण करवाकर बच्चे में अपने धन को सत्कर्म में लगाने के सुसंस्कार डालें। लोगों से चीज-वस्तुएँ (गिफ्टस) लेने के बजाये अपने बच्चे को दान करना सिखायें, ताकि उसमें लेने की नहीं अपितु देने की सवृत्ति विकसित हो। बच्चे में भगवदभाव एवं देशभक्ति के विकास हेतु उस दिन उसे बालभक्तों की कहानियाँ सुनायें, गीता-पाठ करायें, बड़े बुजुर्गों को प्रणाम करवाकर उनसे आशीर्वाद दिलवायें। वृक्षारोपण जैसे पर्यावरण के प्रति प्रेम उत्पन्न करने वाले एवं समाज हित के कार्य करवायें।

बच्चा उस दिन अपने गत वर्ष का हिसाब करे कि उसने वर्ष भर में क्या-क्या अच्छे और बुरे काम किये ? जो अच्छे कार्य किये हों उन्हें भगवान के चरणों में अर्पण कर दे और जो बुरे कार्य हुए उनको आगे भूलकर भी न दोहराने और सन्मार्ग पर चलने का शुभ संकल्प करे।

उस दिन बालक से कोई भी एक संकल्प करवायें जैसे - ʹआज से स्वस्तिक या सदगुरुदेव के श्रीचित्र पर नियमित रूप से त्राटक करूँगा इत्यादि। बच्चे से यह भी संकल्प करवायें कि वह नये वर्ष में सदगुण सदाचारों के पालन में पूरी लगन से लगकर अपने माता पिता व देश के गौरव को बढ़ायेगा।

ये बच्चे ऐसे महकते फूल बन सकते हैं कि अपनी निष्काम कर्मरूपी सुवास से वे केवल अपना घर, पड़ोस, शहर, राज्य व देश ही नहीं बल्कि पूरे विश्व को सुवासित कर सकते हैं। विषय-सूची

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हमें भी अपने जन्मदिवस पर दान, पुण्य और परोपकार के कार्य करने हैं।

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क्या करें, क्या नहीं

आचार-विचार, खान-पान, पोशाक आदि का हमारे दिलो-दिमाग पर इतना प्रभाव  पड़ता है कि इनसे हमारी विचारधारा में काफी परिवर्तन आ जाता है, साथ ही हमारे तन-मन के स्वास्थ्य पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। अतः सुखी, स्वस्थ व सम्मानित जीवन जीने हेतु हमें संतों द्वारा बताये गये एवं शास्त्रों व संस्कृति में वर्णित नियमों का पालन करना चाहिए।

नमस्कार करें, ऋतु अनुसार सूखा मेवा खायें, ताजे फलों का रस पियें, शाकाहार करें, दूध पियें, फल व सलाद खायें।

शेकहैंड नहीं, गुटखा, धूम्रपान नहीं, शराब-कोल्डड्रिंक्स नहीं, मांसाहार नहीं, चाय-कॉफी नहीं, पीजा बर्गर फास्टफूड नहीं। विषय-सूची

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हमें शास्त्र सम्मत आचरण करना है।

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शिवाजी का साहस

12 वर्षीय शिवाजी एक दिन बीजापुर के मुख्य मार्ग पर घूम रहे थे। वहाँ उन्होंने देखा कि एक कसाई गाय को खींचकर ले जा रहा है। गाय आगे नहीं जा रही थी किंतु कसाई उसे डंडे मार-मार कर जबरदस्ती घसीट रहा था। शिवाजी से यह दृश्य देखा न गया। बालक शिवाजी ने म्यान से तलवार निकाली और कसाई के पास पहुँच कर उसके जिस हाथ में रस्सी थी उस हाथ पर तलवार का ऐसा झटका दिया कि गाय स्वतंत्र हो गयी।

इस घटना को लेकर वहाँ अच्छी खासी भीड़ इकट्ठी हो गई लेकिन वीर शिवाजी का रौद्र रुप देखकर किसी की आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं हुई। इस घटना का समाचार जब दरबार में पहुँचा तो नवाब क्रोध से तिलमिला उठा और शिवाजी के पिता शहाजी के बोलाः "तुम्हारा बेटा बड़ा उपद्रवी जान पड़ता है। शहाजी ! तुम उसे तुरंत बीजापुर से बाहर भेज दो।"

शहाजी ने आज्ञा स्वीकार कर ली। शिवाजी को उनकी माता के पास भेज दिया गया। वे शिवाजी को बाल्यकाल से ही रामायण, महाभारत आदि की कथाएँ सुनाया करती थीं। साथ ही उन्हें शस्त्रविद्या का अभ्यास भी करवाती थीं। बचपन में ही शिवाजी ने तोरणा किला जीत लिया था। बाद में तो उनको ऐसी धाक जम गयी की सारे यवन उनके नाम से काँपते थे। वह दिन भी आया जब अपने राज्य से शिवाजी को निकालने वाले बीजापुर के नवाब ने उन्हें स्वतंत्र हिन्दू सम्राट के नाते अपने राज्य में निमंत्रित किया और जब शिवाजी हाथी पर बैठकर बीजापुर के मार्गों से होते हुए दरबार में पहुँचे, तब आगे जाकर उनका स्वागत किया और उनके सामने मस्तक झुकाया। कैसी थी शिवाजी की निर्भीकता ! कैसा गजब का था उनका साहस, आत्मविश्वास !  विषय-सूची

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प्राणवान पंक्तियाँ

जहाजों से जो टकराये, उसे तुफान कहते हैं।

तूफानों से जो टकराये, उसे इन्सान कहते हैं।।

हमें रोक सके, ये जमाने में दम नहीं।

हमसे है जमाना, जमाने से हम नहीं।।

खुदी को कर बुलन्द इतना कि हर तकदीर से पहले।

खुदा बंदे से यह पूछे कि बता तेरी रजा क्या है।।

बाधाएँ कब रोक सकी हैं, आगे बढ़ने वालों को।

विपदाएँ कब रोक सकी हैं, पथ पे बढ़ने वालों को।।

विषय-सूची

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हमें वीर शिवाजी की तरह साहसी बनना है।

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परीक्षा में सफल होने के लिये

परीक्षा में सफल होने के लिए विद्यार्थी नीचे दिये गये प्रयोगों का अवलम्बन लें।

विद्यार्थी को अध्ययन के साथ-साथ जप, ध्यान, आसन एवं प्राणायाम का नियमित अभ्यास करना चाहिए। इससे एकाग्रता तथा बुद्धिशक्ति बढ़ती है।

सूर्य को अर्घ्य देना, तुलसी सेवन, भ्रामरी प्राणायाम, बुद्धिशक्ति एवं मेधाशक्तिवर्धक प्रयोग व सारस्वत्य मंत्र का जप – ऐसे बुद्धिशक्ति और स्मरणशक्ति बढ़ाने के प्रयोगों का नियमित अभ्यास करना चाहिए।

प्रसन्नचित्त होकर पढ़ें, तनावग्रस्त होकर नहीं।

सुबह ब्राह्ममुहूर्त में उठकर 5-7 मिनट ध्यान करने के पश्चात पढ़ने से पढ़ा हुआ जल्दी याद होता है।

देर रात तक चाय पीते हुए पढ़ने से बुद्धिशक्ति का क्षय होता है।

टी.वी. देखना, व्यर्थ गपशप लगाना इसमें समय न गँवायें।

प्रश्नपत्र मिलने से पूर्व अपने इष्टदेव या गुरु देव को प्रार्थना करें।

सर्वप्रथम पूरे प्रश्नपत्र को एकाग्रचित्त होकर पढ़ें।

सरल प्रश्नों के उत्तर पहले लिखें।

यदि किसी प्रश्न का उत्तर न आये तो निर्भय होकर भगवत्स्मरण करके एकाध मिनट शांत हो जायें, फिर लिखना शुरु करें।

मुख्य बात है कि किसी भी कीमत पर धैर्य न खोयें। निर्भयता बनाये रखे एवं दृढ़ पुरुषार्थ करते रहें।

इन बातों को समझकर इन पर अमल किया जाय तो केवल लौकिक शिक्षा में ही नहीं वरन् जीवन की हर परीक्षा में विद्यार्थी सफल हो जायेगा। विषय-सूची

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हमे भी परीक्षा में उज्जवल परिणाम लाना है।

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पृथ्वी का अमृतः गोदुग्ध

देशी गाय की रीढ़ में सूर्यकेतु नामक एक विशेष नाड़ी होती है, जो सूर्यकिरणों से स्वर्ण के सूक्ष्म कण बनाती है। इसलिए गाय के दूध में स्वर्ण कण पाये जाते हैं। गोदुग्ध में 21 प्रकार के उत्तम कोटि के अमाइनो एसिडस होते हैं। इसमें स्थित सेरीब्रोसाइड्स मस्तिष्क को तरोताजा रखता है। गाय का दूध बुद्धिवर्धक, बलवर्धक, खून बढ़ाने वाला, ओज शक्ति बढ़ाने वाला है।

संकल्प

स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिये हम सदैव गाय के दूध, मक्खन व घी का उपयोग करेंगे और चाय-कॉफी जैसे हानिकारक पेय पदार्थों से दूर ही रहेंगे तथा दूसरों को भी सेवा करने के लिए प्रेरित करेंगे।

आँतों और दाँतों के दुश्मन

फास्टफूडः डबल रोटी(ब्रेड), पीजा, बर्गर, बिस्कुट आदि खाद्य पदार्थों में मैदा, यीस्ट (खमीर) आदि होते हैं। वे आँतों में जाकर जम जाते हैं, जिससे कब्ज, बदहजमी, गैस, कमजोर पाचन-तंत्र, मोटापा, हृदयरोग, मधुमेह, आँतों के रोग आदि होते हैं।

आइसक्रीमः इसमें पेपरोनिल (कीड़े मारने की दवा), इथाइल एसिटेट (गुर्दे, फेफड़े और हृदयरोग के लिए हानिकारक) आदि घातक रसायन पाये जाते हैं। कई बाजारू आइसक्रीमों में 6 प्रतिशत तक पशुओं की चर्बी होती है।

चॉकलेटः फिनायल व इथाइल एमीन, जानथीम, थायब्रोमीन आदि केमिकल्स पाये जाते हैं, जिनसे दाँतों का सड़ना, डायबिटीज, कैंसर जैसे भयानक रोग हो सकते हैं। विषय-सूची

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हमें भी गोमाता की सेवा करनी है।

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योगासन एवं यौगिक मुद्राएँ

योगासन विभिन्न शारीरिक क्रियाओं और मुद्राओं के माध्यम से तन को स्वस्थ, मन को प्रसन्न एवं सुषुप्त शक्तियों को जागृत करने हेतु हमारे पूज्य ऋषि-मुनियों द्वारा खोजी गयी एक दिव्य प्रणाली है।

पद्मासनः

लाभः बुद्धि का आलौकिक विकास होता है। आत्मबल व मनोबल बढ़ता है।

विधिः बिछे हुए आसन पर बैठ जायें व पैर को खुले छोड़ दें, श्वास छोड़ते हुए दाहिने पैर को मोड़कर बायीं जंघा पर ऐसे रखें कि एड़ी नाभि के नीचे आये। इसी प्रकार बायें पैर को मोड़कर दायीं जंघा पर रखें। पैरों का क्रम बदल भी सकते हैं। दोनों हाथ दोनों घुटनों पर ज्ञान मुद्रा में रहें व दोनों घुटने जमीन से लगे रहें। अब गहरा श्वास भीतर भरें। कुछ समय तक श्वास रोकें, फिर धीरे-धीरे छोड़ें। ध्यान आज्ञाचक्र में हो। आँखें अर्धोन्मीलित हों अर्थात् आधी खुलीं, आधी बंद। सिर, गर्दन, छाती, मेरूदण्ड आदि पूरा भाग सीधा और तना हुआ हो। अभ्यास का समय धीरे-धीरे बढ़ा सकते हैं। ध्यान, जप, प्राणायाम आदि करने के लिए यह मुख्य आसन है। इस आसन में बैठकर आज्ञाचक्र पर गुरु अथवा इष्ट का ध्यान करने से बहुत लाभ होता है।

सावधानीः कमजोर घुटने वाले, अशक्त या रोगी व्यक्ति हठपूर्वक इस आसन में न बैठें।

शशकासन

लाभः निर्णयशक्ति बढ़ती है। जिद्दी व क्रोधी स्वभाव पर नियंत्रण होता है।

विधिः वज्रासन में बैठ जायें। श्वास लेते हुए बाजुओं को ऊपर उठायें व हाथों को नमस्कार की स्थिति में जोड़ दें। श्वास छोड़ते हुए धीरे-धीरे आगे झुककर मस्तक जमीन से लगा दें। जोड़े हुए हाथों को शरीर के सामने जमीन पर  रखें व सामान्य श्वास-प्रश्वास करें। धीरे-धीरे श्वास लेते हुए हाथ, सिर उठाते हुए मूल स्थिति में आ जायें।

विशेषः ʹ गं गणपतये नमःʹ मंत्र का मानसिक जप व गुरुदेव, इष्टदेव की प्रार्थना, ध्यान करते हुए शरणागति भाव से इस स्थिति में पड़े रहने से भगवान और सदगुरु के चरणों में प्रीति बढ़ती है व जीवन उन्नत होता है। रोज सोने से पहले व सवेरे उठने के तुरन्त बाद 5 से 10 मिनट तक ऐसा करें।

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हमें भी मन बुद्धि पर विजय पानी है।

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ताड़ासन

लाभः एकाग्रता एवं शरीर का कद बढ़ता है।

विधिः दोनों पैरों के बीच 4 से 6 इंच का फासला रखकर सीधे खड़े हो जायें। हाथों को शरीर से सटाकर रखें। एड़ियाँ ऊपर उठाते समय श्वास अंदर भरते हुए दोनों हाथ सिर से ऊपर उठायें। पैरों के पंजों पर खड़े रहकर शरीर को पूरी तरह ऊपर की ओर खींचें। सिर सीधा व दृष्टि आकाश की ओर रहे हथेलियाँ आमने-सामने हों। श्वास भीतर रोके हुए यथाशक्ति इसी स्थिति में खड़ें रहें। श्वास छोड़ते हुए एड़ियाँ जमीन पर वापस लायें व हाथ नीचे लाकर मूल स्थिति में आ जायें।

शवासनः

लाभः शरीर के समस्त नाड़ी तंत्र को विश्राम मिलता है। शारीरिक एवं मानसिक शक्ति बढ़ती है।

विधिः सीधे लेट जायें, दोनों पैरों को एक दूसरे से थोड़ा अलग कर दें व दोनों हाथ भी शरीर से अलग रहें। पूरे शरीर को मृतक व्यक्ति की तरह ढीला छोड़ दें। सिर सीधा रहे व आँखें बंद। हाथों की हथेलियाँ आकाश की तरह खुली रखें। मानसिक दृष्टि से शरीर को पैर से सिर तक देखते जायें। हरेक अंग को शिथिल करते जायें। बारी-बारी से एक-एक अंग पर मानिसक दृष्टि एकाग्र करते हुए भावना करें कि वह अंग अब आराम पा रहा है।

ध्यान दें- शवासन  करते समय निद्रित न होकर जाग्रत रहना आवश्यक है।

टंक विद्या की एक यौगिक क्रियाः

लाभः मन एकाग्र होता है। ध्यान-भजन व पढ़ाई में मन लगता है। थायराइड के रोग नष्ट होते हैं।

विधिः लम्बा श्वास लेकर होंठ बंद करके कंठ से की ध्वनि निकालते हुए सिर को ऊपर नीचे करें।

टिप्पणीः यह प्रयोग प्रतिदिन मात्र दो बार ही करें।

प्राण मुद्राः

प्राणशक्ति बढ़ती है। आँखों के रोग मिटाने एवं चश्मे का नम्बर घटाने हेतु अत्यन्त उपयोगी।

ज्ञानमुद्राः

ज्ञानतंतुओं को पोषण मिलता है। एकाग्रता व यादशक्ति में वृद्धि होती है।

यौगिक मुद्राएँ

लिंग मुद्राः खांसी मिटती है, कफ नाश होता है।

शून्य मुद्राः कान का दर्द दूर होता है। बहरापन हो तो यह मुद्रा 4 से 5 मिनट तक करनी चाहिए।

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हमें भी शरीर स्वस्थ और मन प्रसन्न रखना है।

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ʹदीक्षाʹ यानी सही दिशा

जैसा सदगुरु बतायें वैसा व्रत-नियम लेना दीक्षा है और उसके अनुसार जीवन बनाना शिक्षा है। पहले दीक्षा के बाद ही शिक्षा दी जाती थी तो शिक्षा फलीभूत होती थी और यह शिक्षा-दीक्षा मानव में से महामानव का प्राकट्य करने का सामर्थ्य रखती थी।

ऐहिक शिक्षा तुम भले पाओ किंतु उस शिक्षा को वैदिक दीक्षा की लगाम लगाना जरूरी है। दीक्षा माने सही दिशा। जिस विद्यार्थी के जीवन में ऐहिक शिक्षा के साथ दीक्षा हो, प्रार्थना, ध्यान एवं उपासना के संस्कार हों, वह सुन्दर सूझबूझवाला, सबसे प्रेमपूर्ण व्यवहार करने वाला, तेजस्वी-ओजस्वी, साहसी और यशस्वी बन जाता है। उसका जीवन महानता की सुवास से महक उठता है। दीक्षा से ही जीवन की सही दिशा का पता चलता है और वास्तविक लक्ष्य सिद्ध होता है। सफल उसी का जीवन है जिसने आत्मज्ञान को प्राप्त किया। विषय-सूची

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सारस्वत्य मंत्र महिमा

ब्रह्मज्ञानी सदगुरु से ʹसारस्वत्य मंत्र की दीक्षा लेकर जप करने वाले बच्चों के जीवन में एकाग्रता, अनुमान शक्ति, निर्णय-शक्ति एवं स्मरणशक्ति, चमत्कारिक रूप से बढ़ती है और बुद्धि तेजस्वी बनती है।

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हमें भी सारस्वत्य मंत्र की दीक्षा लेनी है।

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पूज्य बापू जी से मंत्रदीक्षित बच्चों के

जीवन में होने वाले लाभः

ऐसे बच्चों के जीवन में हताशा, निराशा, चिंता, भय आदि दूर हो जाते हैं। वे उत्साही, आशावादी, निश्चिंत, निडर तथा बुद्धिमान बनते हैं, स्वस्थ एवं प्रसन्नमुख रहते हैं और पढ़ाई-लिखाई में सदा आगे रहते हैं।

सत्संग व मंत्रदीक्षा ने कहाँ-से-कहाँ पहुँचा दिया !

पहले मैं भैंसें चराता था। रोज सुबह रात की रूखी रोटी, प्याज, नमक और मोबिल आयल के डिब्बे में पानी लेकर निकालता व दोपहर को वही खाता था। आर्थिक स्थिति ठीक न होने से टायर की ढाई रूपये वाली चप्पल पहनता था।

12वीं में मुझे केवल 60 प्रतिशत अंक प्राप्त हुए थे। उसके बाद मैंने इलाहाबाद में इंजीनियरिंग में प्रवेश लिया। फिर मुझे बापू जी द्वारा सारस्वत्य मंत्र मिला। मेरी मति में सदगुरु की कृपा का संचार हुआ। मैंने सविधि मंत्र अनुष्ठान किया। इस समय मैं ʹगो एयरʹ (हवाई जहाज कम्पनी) में इंजीनियर हूँ। महीने भर का करीब 1 लाख 80 हजार पाता हूँ। गुरु जी ने भैंसें चराने वाले एक गरीब लड़के को आज इस स्थिति में पहुँचा दिया है।"

क्षितिश सोनी (एयरक्राफ्ट इंजीनियर), दिल्ली

पूरी डिक्शनरी याद कर विश्व रिकॉर्ड बनायाः

"ऑक्सफोर्ड एडवांस्ड लर्नर्स डिक्शनरी (अंग्रेजी, छठा संस्करण) के 80000 शब्दों को उनकी पृष्ठ संख्यासहित मैंने याद कर लिया, जो कि समस्त विश्व के लिए किसी चमत्कार से कम नहीं है। फलस्वरूप मेरा नाम ʹलिम्का बुक ऑफ रिकॉर्डसʹ में दर्ज हो गया। यही नहीं ʹजीʹ टी.वी. पर दिखाये जाने वाले रियालिटी शो ʹशाबाश इंडियाʹ में भी मैंने विश्व रिकॉर्ड बनाया।

मुझे पूज्य गुरुदेव से मंत्रदीक्षा प्राप्त होना, ʹभ्रामरी प्राणायामʹ सीखने को मिलना तथा अपनी कमजोरी को ही महानता प्राप्त करने का साधन बनाने की प्रेरणा, कला, बल एवं उत्साह प्राप्त होना, यह सब तो गुरुदेव की अहैतुकी कृपा का ही चमत्कार है।

वीरेन्द्र मेहता, रोहतक (हरियाणा)

मंत्रदीक्षा व यौगिक प्रयोगों से बुद्धि का अप्रतिम विकासः

"पहले मैं एक साधारण छात्र था। मुझे लगभग 50-55 प्रतिशत अंक ही मिलते थे। 11 वीं कक्षा में तो ऐसी स्थिति हुई कि स्कूल का नाम खराब न हो इसलिए प्रधानाध्यापक ने मेरे अभिभावकों को बुलवाकर मुझे स्कूल से निकाल देने तक की बात कही थी। बाद में मुझे पूज्य बापू जी से सारस्वत्य मंत्र की दीक्षा मिली। इस मंत्र के जप व बापू जी से सारस्वत्य मंत्र की दीक्षा मिली। इस मंत्र के जप व बापू जी द्वारा बताये गये प्रयोगों के अभ्यास से कुछ ही समय में मेरी बुद्धिशक्ति का अप्रतिम विकास हुआ। तत्पश्चात् ʹनोकियाʹ मोबाइल कम्पनी में ʹग्लोबल सर्विसेस प्रोडक्ट मैनेजरʹ के पद पर मेरी नियुक्ति हुई और मैंने एक पुस्तक लिखी जो अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियों को सेल्युलर नेटवर्क का डिजाइन बनाने में उपयोगी हो रही है। एक विदेशी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक की कीमत 110 डॉलर (करीब 4500 रूपये) है। इसके प्रकाशन के बाद मेरी पदोन्नती हुई और अब विश्व के कई देशों में मोबाइल के क्षेत्र में प्रशिक्षण हेतु मुझे बुलाते हैं। फिर मैंने एक और पुस्तक लिखी, जिसकी कीमत 150 डॉलर (करीब 6000 रूपये) है। यह पूज्य श्री से प्राप्त सारस्वत्य मंत्र दीक्षा का ही परिणाम है।" विषय-सूची

अजय रंजन मिश्रा, जनकपुरी, दिल्ली

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हमें भी सदगुणी, प्रभावशाली व्यक्तित्ववाला बनना है।

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