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मातृ-पितृ पूजन

अपने बच्चों को स्वस्थ, प्रसन्नचित्त,

उत्साही, एकाग्र, लक्ष्यभेदी एवं कार्यकुशल

बनाने हेतु पूज्य बापू जी की पावन प्रेरणा से

चलाये जा रहे बाल संस्कार केन्द्र में भेजिये।


अनुक्रम

मात पिता गुरू प्रभु चरणों में............... 2

निवेदन.. 3

'वैलेन्टाइन डे' कैसे शुरू हुआ ? और आज...... 4

विश्वमानव की मंगलकामना से भरे पूज्य संत श्री आसारामजी बापू का परम हितकारी संदेश.. 4

कैसे मनायें 'मातृ-पितृ पूजन दिवस'?. 5

अभिभावकों एवं बाल संस्कार केन्द्र शिक्षकों के लिए निवेदन.. 7

मातृ-पितृ-गुरू भक्ति.... 7

माता-पिता-गुरु की सेवा का महत्त्व... 9

शास्त्र-वचनामृत.. 11

संत-वचनामृत.. 12

माँ-बाप को भूलना नहीं.. 13

 

मात पिता गुरू प्रभु चरणों में...............

मात पिता गुरू चरणों में प्रणवत बारम्बार।

हम पर किया बड़ा उपकार। हम पर किया बड़ा उपकार। ।।टेक।।

(1) माता ने जो कष्ट उठाया, वह ऋण कभी न जाए चुकाया।

अंगुली पकड़ कर चलना सिखाया, ममता की दी शीतल छाया।।

जिनकी गोदी में पलकर हम कहलाते होशियार,

हम पर किया..... मात पिता...... ।।टेक।।

(2) पिता ने हमको योग्य बनाया, कमा कमा कर अन्न खिलाया।

पढ़ा लिखा गुणवान बनाया, जीवन पथ पर चलना सिखाया।।

जोड़-जोड़ अपनी संपत्ति का बना दिया हकदार।

हम पर किया..... मात पिता...... ।।टेक।।

(3) तत्त्वज्ञान गुरू ने दरशाया, अंधकार सब दूर हटाया।

हृदय में भक्तिदीप जला कर, हरि दर्शन का मार्ग बताया।

बिनु स्वारथ ही कृपा करें वे, कितने बड़े हैं उदार।

हम पर किया..... मात पिता...... ।।टेक।।

(4) प्रभु किरपा से नर तन पाया, संत मिलन का साज सजाया।

बल, बुद्धि और विद्या देकर सब जीवों में श्रेष्ठ बनाया।

जो भी इनकी शरण में आता, कर देते उद्धार।

हम पर किया..... मात पिता...... ।।टेक।।

अनुक्रम

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निवेदन

 

भारतभूमि ऋषि-मुनियों, अवतारों की भूमि है। पहले लोग यहाँ मिलते तो राम-राम कहकर एक दूसरे का अभिवादन करते थे।

दो बार राम कहने के पीछे कितना सुंदर अर्थ छुपा है कि सामने वाला व्यक्ति तथा मुझमें दोनों में उसी राम परमात्मा ईश्वर की चेतना है, उसे प्रणाम हो! ऐसी दिव्य भावना को प्रेम कहते हैं। निर्दोष, निष्कपट, निःस्वार्थ, निर्वासनिक स्नेह को प्रेम कहते हैं। इस प्रकार एक दूसरे से मिलने पर भी ईश्वर की याद ताजा हो जाती थी पर आज ऐसी भावना तो दूर की बात है, पतन करने वाले आकर्षण को ही प्रेम माना जाने लगा है।

14 फरवरी को पश्चिमी देशों में युवक युवतियाँ एक दूसरे को ग्रीटिंग कार्डस, फूल आदि देकर वेलेन्टाइन डे मनाते हैं। यौन जीवन संबंधी परम्परागत नैतिक मूल्यों का त्याग करने वाले देशों की चारित्रिक सम्पदा नष्ट होने का मुख्य कारण ऐसे वेलेन्टाइन डे हैं जो लोगों को अनैतिक जीवन जीने को प्रोत्साहित करते हैं। इससे उन देशों का अधःपतन हुआ है। इससे जो समस्याएँ पैदा हुईं, उनको मिटाने के लिए वहाँ की सरकारों को स्कूलों में केवल संयम अभियानों पर करोड़ों डालर खर्च करने पर भी सफलता नहीं मिलती। अब यह कुप्रथा हमारे भारत में भी पैर जमा रही है। हमें अपने परम्परागत नैतिक मूल्यों की रक्षा करने के लिए ऐसे वेलेन्टाइन डे का बहिष्कार करना चाहिए। इस संदर्भ में विश्ववंदनीय पूज्य संत श्री आसारामजी बापू ने की की है एक नयी पहल – 'मातृ-पितृ पूजन दिवस'

अनुक्रम

 

'वैलेन्टाइन डे' कैसे शुरू हुआ ? और आज......

रोम के राजा क्लाउडियस ब्रह्मचर्य की महिमा से परिचित रहे होंगे, इसलिए उन्होंने अपने सैनिकों को शादी करने के लिए मना किया था, ताकि वे शारीरिक बल और मानसिक दक्षता से युद्ध में विजय प्राप्त कर सकें। सैनिकों को शादी करने के लिए ज़बरदस्ती मना किया गया था, इसलिए संत वेलेन्टाइन जो स्वयं इसाई पादरी होने के कारण ब्रह्मचर्य के विरोधी नहीं हो सकते थे, ने गुप्त ढंग से उनकी शादियाँ कराईं। राजा ने उन्हे दोषी घोषित किया और उन्हें फाँसी दे दी गयी। सन् 496 से पोप गैलेसियस ने उनकी याद में वेलेन्टाइन डे मनाना शुरू किया।

वेलेन्टाइन डे मनाने वाले लोग संत वेलेन्टाइन का ही अपमान करते हैं क्योंकि वे शादी के पहले ही अपने प्रेमास्पद को वेलेन्टाइन कार्ड भेजकर उनसे प्रणय-संबंध स्थापित करने का प्रयास करते हैं। यदि संत वेलेन्टाइन इससे सहमत होते तो वे शादियाँ कराते ही नहीं।

अतः भारत के युवान-युवतियाँ शादी से पहले प्रेमदिवस के बहाने अपने ओज-तेज-वीर्य का नाश करके सर्वनाश न करें और मानवमात्र के परम हितकारी पूज्य बापू जी के मार्गदर्शन में अपने यौवन-धन, स्वास्थ्य और बुद्धि की सुरक्षा करें। मातृ-पितृ पूजन दिवस मनायें।

डॉ. प्रे.खो. मकवाणा।

अनुक्रम

 

विश्वमानव की मंगलकामना से भरे पूज्य संत श्री आसारामजी बापू का परम हितकारी संदेश

प्रेम-दिवस (वेलेन्टाइन डे) के नाम पर विनाशकारी कामविकार का विकास हो रहा है, जो आगे चलकर चिड़चिड़ापन, डिप्रेशन, खोखलापन, जल्दी बुढ़ापा और मौत लाने वाला साबित होगा। अतः भारतवासी इस अंधपरंपरा से सावधान हों !

'इन्नोसन्टी रिपोर्ट कार्ड' के अनुसार 28 विकसित देशों में हर साल 13 से 19 वर्ष की 12 लाख 50 हजार किशोरियाँ गर्भवती हो जाती हैं। उनमें से 5 लाख गर्भपात कराती हैं और 7 लाख 50 हजार कुँवारी माता बन जाती हैं। अमेरिका में हर साल 4 लाख 94 हजार अनाथ बच्चे जन्म लेते हैं और 30 लाख किशोर-किशोरियाँ यौन रोगों के शिकार होते हैं।

यौन संबन्ध करने वालों में 25% किशोर-किशोरियाँ यौन रोगों से पीड़ित हैं। असुरिक्षित यौन संबंध करने वालों में 50% को गोनोरिया, 33% को जैनिटल हर्पिस और एक प्रतिशत के एड्स का रोग होने की संभावना है। एडस के नये रोगियों में 25% 22 वर्ष से छोटी उम्र के होते हैं। आज अमेरिका के 33% स्कूलों में यौन शिक्षा के अंतर्गत 'केवल संयम' की शिक्षा दी जाती है। इसके लिए अमेरिका ने 40 करोड़ से अधिक डॉलर (20 अरब रूपये) खर्च किये हैं।

प्रेम दिवस जरूर मनायें लेकिन प्रेमदिवस में संयम और सच्चा विकास लाना चाहिए। युवक युवती मिलेंगे तो विनाश-दिवस बनेगा। इस दिन बच्चे-बच्चियाँ माता-पिता का पूजन करें और उनके सिर पर पुष्ष रखें, प्रणाम करें तथा माता-पिता अपनी संतानों को प्रेम करें। संतान अपने माता-पिता के गले लगे। इससे वास्तविक प्रेम का विकास होगा। बेटे-बेटियाँ माता-पिता में ईश्वरीय अंश देखें और माता-पिता बच्चों में ईश्वरीय अंश देखें।

तुम भारत के लाल और भारत की लालियाँ (बेटियाँ) हो। प्रेमदिवस मनाओ, अपने माता-पिता का सम्मान करो और माता-पिता बच्चों को स्नेह करें। करोगे न बेटे ऐसा! पाश्चात्य लोग विनाश की ओर जा रहे हैं। वे लोग ऐसे दिवस मनाकर यौन रोगों का घर बन रहे हैं, अशांति की आग में तप रहे हैं। उनकी नकल तो नहीं करोगे ?

मेरे प्यारे युवक-युवतियों और उनके माता-पिता ! आप भारतवासी हैं। दूरदृष्टि के धनी ऋषि-मुनियों की संतान हैं। प्रेमदिवस (वेलेन्टाइन डे) के नाम पर बच्चों, युवान-युवतियों के ओज-तेज का नाश हो, ऐसे दिवस का त्याग करके माता-पिता और संतानों प्रभु के नाते एक-दूसरे को प्रेम करके अपने दिल के परमेश्वर को छलकने दें। काम विकार नहीं, रामरस, प्रभुप्रेम, प्रभुरस....

मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। बालिकादेवो भव।

कन्यादेवो भव। पुत्रदेवो भव।

माता पिता का पूजन करने से काम राम में बदलेगा, अहंकार प्रेम में बदलेगा, माता-पिता के आशीर्वाद से बच्चों का मंगल होगा।

पाश्चात्यों का अनुकरण आप क्यों करो? आपका अनुकरण करके वे सदभागी हो जायें।

जो राष्ट्रभक्त नागरिक यह राष्ट्रहित का कार्य करके भावी सुदृढ़ राष्ट्र निर्माण में साझीदार हो रहे हैं वे धनभागी हैं और जो होने वाले हैं उनका भी आवाहन किया जाता है।

अनुक्रम

 

कैसे मनायें 'मातृ-पितृ पूजन दिवस'?

माता-पिता को स्वच्छ तथा ऊँचे आसन पर बैठायें।

बच्चे-बच्चियाँ माता-पिता के माथे पर कुंकुम का तिलक करें।

तत्पश्चात् माता-पिता के सिर पर पुष्प अर्पण करें तथा फूलमाला पहनायें।

माता-पिता भी बच्चे-बच्चियों के माथे पर तिलक करें एवं सिर पर पुष्प रखें। फिर अपने गले की फूलमाला बच्चों को पहनायें।

बच्चे-बच्चियाँ थाली में दीपक जलाकर माता-पिता की आरती करें और अपने माता-पिता एवं गुरू में ईश्वरीय भाव जगाते हुए उनकी सेवा करने का दृढ़ संकल्प करें।

बच्चे-बच्चियाँ अपने माता-पिता के एवं माता-पिता बच्चों के सिर पर अक्षत एवं पुष्पों की वर्षा करें।

तत्पश्चात् बच्चे-बच्चियाँ अपने माता-पिता की सात बार परिक्रमा करें।

बच्चे-बच्चियाँ अपने माता-पिता को झुककर विधिवत प्रणाम करें तथा माता-पिता अपनी संतान को प्रेम से सहलायें। संतान अपने माता-पिता के गले लगे। बेटे-बेटियाँ अपने माता-पिता में ईश्वरीय अंश देखें और माता-पिता बच्चों से ईश्वरीय अंश देखें।

इस दिन बच्चे-बच्चियाँ पवित्र संकल्प करें- "मैं अपने माता-पिता व गुरुजनों का आदर करूँगा/करूँगी। मेरे जीवन को महानता के रास्ते ले जाने वाली उनकी आज्ञाओं का पालन करना मेरा कर्तव्य है और मैं उसे अवश्य पूरा करूँगा/करूँगी।"

इस समय माता-पिता अपने बच्चों पर स्नेहमय आशीष बरसाये एवं उनके मंगलमय जीवन के लिए इस प्रकार शुभ संकल्प करें- "तुम्हारे जीवन में उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति व पराक्रम की वृद्धि हो। तुम्हारा जीवन माता-पिता एवं गुरू की भक्ति से महक उठे। तुम्हारे कार्यों में कुशलता आये। तुम त्रिलोचन  बनो – तुम्हारी बाहर की आँख के साथ भीतरी विवेक की कल्याणकारी आँख जागृत हो। तुम पुरूषार्थी बनो और हर क्षेत्र में सफलता तुम्हारे चरण चूमे।"

बच्चे-बच्चियाँ माता-पिता को 'मधुर-प्रसाद' खिलायें एवं माता-पिता अपने बच्चों को प्रसाद खिलायें।

बालक गणेशजी की पृथ्वी-परिक्रमा, भक्त पुण्डलीक की मातृ-पितृ भक्ति – इन कथाओं का पठन करें अथवा कोई एक व्यक्ति कथा सुनायें और अन्य लोग श्रवण करें।

माता-पिता 'बाल-संस्कार', दिव्य प्रेरणा-प्रकाश', 'तू गुलाब होकर महक', 'मधुर व्यवहार'इन पुस्तकों को अपनी क्षमतानुरूप बाँटे-बँटवायें तथा प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा स्वयं पढ़ने का व बच्चों से पढ़ने का संकल्प लें।

श्री गणेश, पुण्डलीक, श्रवणकुमार आदि मातृ-पितृ भक्तों की कथाओं को नाटक के रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं।

इन दिन सभी मिलकर 'श्री आसारामायण' पाठ व आरती करके बच्चों को मधुर प्रसाद बाँटे।

नीचे लिखी पंक्तियों जैसी मातृ-पितृ भक्ति की कुछ पंक्तियाँ गले पर लिखके बोर्ड बनाकर आयोजन स्थल पर लगायें।

बहुत रात तक पैर दबाते, भरें कंठ पितु आशीष पाते।

पुत्र तुम्हारा जगत में, सदा रहेगा नाम। लोगों के तुमसे सदा, पूरण होंगे काम।

मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव।

माता-पिता और गुरूजनों का आदर करने वाला चिरआदरणीय हो जाता है।

माता पिता का सम्मान।

परम पूज्य बापू जी

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अनुक्रम

 

अभिभावकों एवं बाल संस्कार केन्द्र शिक्षकों के लिए निवेदन

दिनांक 14 फरवरी को अपने-अपने घर में अथवा सामूहिक रूप से विद्यालय में आयोजन कर 'मातृ-पितृ पूजन दिवस' मनायें। बाल संस्कार केन्द्र शिक्षक अपने केन्द्र में बच्चों के माता-पिता को बुलाकर सामूहिक कार्यक्रम कर सकते हैं। युवा सेवा संघ में भी इसे मनायें। पूज्य श्री के पावन संदेश को (जो अगले पृष्ठ पर है) अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाये। अपने क्षेत्र के समाचार पत्र में पूज्य श्री का संदेश प्रकाशित करवायें।

अनुक्रम

 

मातृ-पितृ-गुरू भक्ति

अपनी भारतीय संस्कृति बालकों को छोटी उम्र में ही बड़ी ऊँचाईयों पर ले जाना चाहती है। इसमें सरल छोटे-छोटे सूत्रों द्वारा ऊँचा, कल्याणकारी ज्ञान बच्चों के हृदय में बैठाने की सुन्दर व्यवस्था है।

मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। माता-पिता एवं गुरू हमारे हितैषी है, अतः हम उनका आदर तो करें ही, साथ ही साथ उनमें भगवान के दर्शन कर उन्हें प्रणाम करें, उनका पूजन करें। आज्ञापालन के लिए आदरभाव पर्याप्त है परन्तु उसमें प्रेम की मिठास लाने के लिए पूज्यभाव आवश्यक है। पूज्यभाव से आज्ञापालन बंधनरूप न बनकर पूजारूप पवित्र, रसमय एवं सहज कर्म हो जाएगा।

पानी को ऊपर चढ़ाना हो तो बल लगाना पड़ता है। लिफ्ट से कुछ ऊपर ले जाना हो तो ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है। पानी को भाप बनकर ऊपर उठना हो तो ताप सहना पड़ता है। गुल्ली को ऊपर उठने के लिए डंडा सहना पड़ता है। परन्तु प्यारे विद्यार्थियो! कैसी अनोखी है अपनी भारतीय सनातन संस्कृति कि जिसके ऋषियों महापुरूषों ने इस सूत्र द्वारा जीवन उन्नति को एक सहज, आनंददायक खेल बना दिया।

इस सूत्र को जिन्होंने भी अपना बना लिया वे खुद आदरणीय बन गये, पूजनीय बन गये। भगवान श्रीरामजी ने माता-पिता व गुरू को देव मानकर उनके आदर पूजन की ऐसी मर्यादा स्थापित की कि आज भी मर्यादापुरूषोत्तम श्रीरामजी की जय कह कर उनकी यशोगाथा गायी जाती है। भगवान श्री कृष्ण ने नंदनंदन, यशोदानंदन बनकर नंद-घर में आनंद की वर्षा की, उनकी प्रसन्नता प्राप्त की तथा गुरू सांदीपनी के आश्रम में रहकर उनकी खूब प्रेम एवं निष्ठापूर्वक सेवा की। उन्होंने युधिष्ठिर महाराज के राजसूय यज्ञ में उपस्थित गुरूजनों, संत-महापुरूषों एवं ब्राह्मणों के चरण पखारने की सेवा भी अपने जिम्मे ली थी। उनकी ऐसी कर्म-कुशलता ने उन्हें कर्मयोगी भगवान श्री कृष्ण के रूप में जन-जन के दिलों में पूजनीय स्थान दिला दिया। मातृ-पितृ एवं गुरू भक्ति की पावन माला में भगवान गणेशजी, पितामह भीष्म, श्रवणकुमार, पुण्डलिक, आरूणि, उपमन्यु, तोटकाचार्य आदि कई सुरभित पुष्प हैं।

तोटक नाम का आद्य शंकराचार्य जी का शिष्य, जिसे अन्य शिष्य अज्ञानी, मूर्ख कहते थे, उसने आचार्यदेवो भव सूत्र को दृढ़ता से पकड़ लिया। परिणाम सभी जानते हैं कि सदगुरू की कृपा से उसे बिना पढ़े ही सभी शास्त्रों का ज्ञान हो गया और वे तोटकाचार्य के रूप में विख्यात व सम्मानित हुआ। वर्तमान युग का एक बालक बचपन में देर रात तक अपने पिताश्री के चरण दबाता था। उसके पिता जी उसे बार-बार कहते - बेटा! अब सो जाओ। बहुत रात हो गयी है। फिर भी वह प्रेम पूर्वक आग्रह करते हुए सेवा में लगा रहता था। उसके पूज्य पिता अपने पुत्र की अथक सेवा से प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद देते -

पुत्र तुम्हारा जगत में, सदा रहेगा नाम। लोगों के तुमसे सदा, पूरण होंगे काम।

अपनी माताश्री की भी उसने उनके जीवन के आखिरी क्षण तक खूब सेवा की।

युवावस्था प्राप्त होने पर उस बालक भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण की भांति गुरू के श्रीचरणों में खूब आदर प्रेम रखते हुए सेवा तपोमय जीवन बिताया। गुरूद्वार पर सहे वे कसौटी-दुःख उसके लिए आखिर परम सुख के दाता साबित हुए। आज वही बालक महान संत के रूप में विश्ववंदनीय होकर करोड़ों-करोड़ों लोगों के द्वारा पूजित हो रहा है। ये महापुरूष अपने सत्संग में यदा-कदा अपने गुरूद्वार के जीवन प्रसंगों का जिक्र करके कबीरजी का यह दोहा दोहराते हैं -

गुरू के सम्मुख जाये के सहे कसौटी दुःख। कह कबीर ता दुःख पर कोटि वारूँ सुख।।

सदगुरू जैसा परम हितैषी संसार में दूसरा कोई नहीं है। आचार्यदेवो भव, यह शास्त्र-वचन मात्र वचन नहीं है। यह सभी महापुरूषों का अपना अनुभव है।

मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। यह सूत्र इन महापुरूष के जीवन में मूर्तिमान बनकर प्रकाशित हो रहा है और इसी की फलसिद्धि है कि इनकी पूजनीया माताश्री व सदगुरूदेव - दोनों ने अंतिम क्षणों में अपना शीश अपने प्रिय पुत्र व शिष्य की गोद में रखना पसंद किया। खोजो तो उस बालक का नाम जिसने मातृ-पितृ-गुरू भक्ति की ऐसी पावन मिसाल कायम की।

आज के बालकों को इन उदाहरणों से मातृ-पितृ-गुरूभक्ति की शिक्षा लेकर माता-पिता एवं गुरू की प्रसन्नता प्राप्त करते हुए अपने जीवन को उन्नति के रास्ते ले जाना चाहिए।

अनुक्रम

 

माता-पिता-गुरु की सेवा का महत्त्व

शास्त्रों में आता है कि जिसने माता-पिता तथा गुरू का आदर कर लिया उसके द्वारा संपूर्ण लोकों का आदर हो गया और जिसने इनका अनादर कर दिया उसके संपूर्ण शुभ कर्म निष्फल हो गये। वे बड़े ही भाग्यशाली हैं, जिन्होंने माता-पिता और गुरू की सेवा के महत्त्व को समझा तथा उनकी सेवा में अपना जीवन सफल किया। ऐसा ही एक भाग्यशाली सपूत था - पुण्डलिक।

पुण्डलिक अपनी युवावस्था में तीर्थयात्रा करने के लिए निकला। यात्रा करते-करते काशी पहुँचा। काशी में भगवान विश्वनाथ के दर्शन करने के बाद उसने लोगों से पूछाः क्या यहाँ कोई पहुँचे हुए महात्मा हैं, जिनके दर्शन करने से हृदय को शांति मिले और ज्ञान प्राप्त हो?

लोगों ने कहाः हाँ हैं। गंगापर कुक्कुर मुनि का आश्रम है। वे पहुँचे हुए आत्मज्ञान संत हैं। वे सदा परोपकार में लगे रहते हैं। वे इतनी उँची कमाई के धनी हैं कि साक्षात माँ गंगा, माँ यमुना और माँ सरस्वती उनके आश्रम में रसोईघर की सेवा के लिए प्रस्तुत हो जाती हैं। पुण्डलिक के मन में कुक्कुर मुनि से मिलने की जिज्ञासा तीव्र हो उठी। पता पूछते-पूछते वह पहुँच गया कुक्कुर मुनि के आश्रम में। मुनि के देखकर पुण्डलिक ने मन ही मन प्रणाम किया और सत्संग वचन सुने। इसके पश्चात पुण्डलिक मौका पाकर एकांत में मुनि से मिलने गया। मुनि ने पूछाः वत्स! तुम कहाँ से आ रहे हो?

पुण्डलिकः मैं पंढरपुर (महाराष्ट्र) से आया हूँ।

तुम्हारे माता-पिता जीवित हैं?

हाँ हैं।

तुम्हारे गुरू हैं?

हाँ, हमारे गुरू ब्रह्मज्ञानी हैं।

कुक्कुर मुनि रूष्ट होकर बोलेः पुण्डलिक! तू बड़ा मूर्ख है। माता-पिता विद्यमान हैं, ब्रह्मज्ञानी गुरू हैं फिर भी तीर्थ करने के लिए भटक रहा है? अरे पुण्डलिक! मैंने जो कथा सुनी थी उससे तो मेरा जीवन बदल गया। मैं तुझे वही कथा सुनाता हूँ। तू ध्यान से सुन।

एक बार भगवान शंकर के यहाँ उनके दोनों पुत्रों में होड़ लगी कि, कौन बड़ा?

निर्णय लेने के लिए दोनों गये शिव-पार्वती के पास। शिव-पार्वती ने कहाः जो संपूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले पहुँचेगा, उसी का बड़प्पन माना जाएगा।

कार्तिकेय तुरन्त अपने वाहन मयूर पर निकल गये पृथ्वी की परिक्रमा करने। गणपति जी चुपके-से एकांत में चले गये। थोड़ी देर शांत होकर उपाय खोजा तो झट से उन्हें उपाय मिल गया। जो ध्यान करते हैं, शांत बैठते हैं उन्हें अंतर्यामी परमात्मा सत्प्रेरणा देते हैं। अतः किसी कठिनाई के समय घबराना नहीं चाहिए बल्कि भगवान का ध्यान करके थोड़ी देर शांत बैठो तो आपको जल्द ही उस समस्या का समाधान मिल जायेगा।

फिर गणपति जी आये शिव-पार्वती के पास। माता-पिता का हाथ पकड़ कर दोनों को ऊँचे आसन पर बिठाया, पत्र-पुष्प से उनके श्रीचरणों की पूजा की और प्रदक्षिणा करने लगे। एक चक्कर पूरा हुआ तो प्रणाम किया.... दूसरा चक्कर लगाकर प्रणाम किया.... इस प्रकार माता-पिता की सात प्रदक्षिणा कर ली।

शिव-पार्वती ने पूछाः वत्स! ये प्रदक्षिणाएँ क्यों की?

गणपतिजीः सर्वतीर्थमयी माता... सर्वदेवमयो पिता... सारी पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से जो पुण्य होता है, वही पुण्य माता की प्रदक्षिणा करने से हो जाता है, यह शास्त्रवचन है। पिता का पूजन करने से सब देवताओं का पूजन हो जाता है। पिता देवस्वरूप हैं। अतः आपकी परिक्रमा करके मैंने संपूर्ण पृथ्वी की सात परिक्रमाएँ कर लीं हैं। तब से गणपति जी प्रथम पूज्य हो गये।

शिव-पुराण में आता हैः

पित्रोश्च पूजनं कृत्वा प्रक्रान्तिं च करोति यः।

तस्य वै पृथिवीजन्यफलं भवति निश्चितम्।।

अपहाय गृहे यो वै पितरौ तीर्थमाव्रजेत।

तस्य पापं तथा प्रोक्तं हनने च तयोर्यथा।।

पुत्रस्य य महत्तीर्थं पित्रोश्चरणपंकजम्।

अन्यतीर्थं तु दूरे वै गत्वा सम्प्राप्यते पुनः।।

इदं संनिहितं तीर्थं सुलभं धर्मसाधनम्।

पुत्रस्य च स्त्रियाश्चैव तीर्थं गेहे सुशोभनम्।।

जो पुत्र माता-पिता की पूजा करके उनकी प्रदक्षिणा करता है, उसे पृथ्वी-परिक्रमाजनित फल सुलभ हो जाता है। जो माता-पिता को घर पर छोड़ कर तीर्थयात्रा के लिए जाता है, वह माता-पिता की हत्या से मिलने वाले पाप का भागी होता है क्योंकि पुत्र के लिए माता-पिता के चरण-सरोज ही महान तीर्थ हैं। अन्य तीर्थ तो दूर जाने पर प्राप्त होते हैं परंतु धर्म का साधनभूत यह तीर्थ तो पास में ही सुलभ है। पुत्र के लिए (माता-पिता) और स्त्री के लिए (पति) सुंदर तीर्थ घर में ही विद्यमान हैं।

(शिव पुराण, रूद्र सं.. कु खं.. - 20)

पुण्डलिक मैंने यह कथा सुनी और अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन किया। यदि मेरे माता-पिता में कभी कोई कमी दिखती थी तो मैं उस कमी को अपने जीवन में नहीं लाता था और अपनी श्रद्धा को भी कम नहीं होने देता था। मेरे माता-पिता प्रसन्न हुए। उनका आशीर्वाद मुझ पर बरसा। फिर मुझ पर मेरे गुरूदेव की कृपा बरसी इसीलिए मेरी ब्रह्मज्ञान में स्थिति हुई और मुझे योग में भी सफलता मिली। माता-पिता की सेवा के कारण मेरा हृदय भक्तिभाव से भरा है। मुझे किसी अन्य इष्टदेव की भक्ति करने की कोई मेहनत नहीं करनी पड़ी।

मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदवो भव।

मंदिर में तो पत्थर की मूर्ति में भगवान की कामना की जाती है जबकि माता-पिता तथा गुरूदेव में तो सचमुच परमात्मदेव हैं, ऐसा मानकर मैंने उनकी प्रसन्नता प्राप्त की। फिर तो मुझे न वर्षों तक तप करना पड़ा, न ही अन्य विधि-विधानों की कोई मेहनत करनी पड़ी। तुझे भी पता है कि यहाँ के रसोईघर में स्वयं गंगा-यमुना-सरस्वती आती हैं। तीर्थ भी ब्रह्मज्ञानी के द्वार पर पावन होने के लिए आते हैं। ऐसा ब्रह्मज्ञान माता-पिता की सेवा और ब्रह्मज्ञानी गुरू की कृपा से मुझे मिला है।

पुण्डलिक तेरे माता-पिता जीवित हैं और तू तीर्थों में भटक रहा है?

पुण्डलिक को अपनी गल्ती का एहसास हुआ। उसने कुक्कुर मुनि को प्रणाम किया और पंढरपुर आकर माता-पिता की सेवा में लग गया।

माता-पिता की सेवा ही उसने प्रभु की सेवा मान ली। माता-पिता के प्रति उसकी सेवानिष्ठा देखकर भगवान नारायण बड़े प्रसन्न हुए और स्वयं उसके समक्ष प्रकट हुए। पुण्डलिक उस समय माता-पिता की सेवा में व्यस्त था। उसने भगवान को बैठने के लिए एक ईंट दी।

अभी भी पंढरपुर में पुण्डलिक की दी हुई ईंट पर भगवान विष्णु खड़े हैं और पुण्डलिक की मातृ-पितृभक्ति की खबर दे रहा है पंढरपुर तीर्थ।

यह भी देखा गया है कि जिन्होंने अपने माता-पिता तथा ब्रह्मज्ञानी गुरू को रिझा लिया है, वे भगवान के तुल्य पूजे जाते हैं। उनको रिझाने के लिए पूरी दुनिया लालायित रहती है। वे मातृ-पितृभक्ति से और गुरूभक्ति से इतने महान हो जाते हैं।

अनुक्रम

 

शास्त्र-वचनामृत

यन्मातापितरौ वृत्तं तनये कुरुतः सदा।

न सुप्रतिकरं तत्तु मात्रा पित्रा च यत्कृतम्।।

'माता और पिता पुत्र के प्रति जो सर्वदा स्नेहपूर्ण व्यवहार करते हैं, उपकार करते हैं, उसका प्रत्युपकार सहज ही नहीं चुकाया जा सकता है।'

(वाल्मीकि रामायणः 2.111.9)

माता गुरुतरा भूमेः खात् पितोच्चतरस्तथा।

'माता का गौरव पृथ्वी से भी अधिक है और पिता आकाश से भी ऊँचे (श्रेष्ठ) हैं।'

(महाभारत, वनपर्वणि, आरण्येव पर्वः 313.60)

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।

'जो माता-पिता और गुरुजनों को प्रणाम करता है और उनकी सेवा करता है, उसकी आयु, विद्या, यश और बल चारों बढ़ते हैं।'

(मनुस्मृतिः 2.121)

मातापित्रोस्तु यः पादौ नित्यं प्रक्षालयेत् सुतः।

तस्य भागीरथीस्नानं अहन्यहनि जायते।।

'जो पुत्र प्रतिदिन माता और पिता के चरण पखारता है, उसका नित्यप्रति गंगा-स्नान हो जाता है।'

(पद्म पुराण, भूमि खंडः 62.74)

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संत-वचनामृत

जो अपने माता-पिता का नहीं, वह अन्य किसका होगा ! जिनके कष्टों और अश्रुओं की शक्ति से अस्तित्व प्राप्त किया, उन्हीं के प्रति अनास्था रखने वाला व्यक्ति पत्नी, पुत्र, भाई और समाज के प्रति क्या आस्था रखेगा ! ऐसे पाखण्डी से दूर रहना ही श्रेयस्कर है।

बोधायन ऋषि

माता-पिता एवं गुरू का त्याग करने वाला, उनकी निंदा करने वाला, उन्हें प्रताड़ित करने वाला मनुष्य समस्त वेदों का ज्ञाता होने पर भी यज्ञादि को करने का अधिकारी नहीं होता। ऐसे मूढ़, अहंकारी और निकृष्ट प्राणी को दान देने वाला, भोजन कराने वाला या उसकी सेवा करने वाला भी नरकगामी होता है।

महर्षि याज्ञवल्क्यजी

माता-पिता के प्रति अश्रद्धा रखकर उन्हें अपमानित  करने वाले और उनके प्रति निंदा का भाव रखकर उन्हें दुःखी करने वाले व्यक्ति का वंश नष्ट हो जाता है। उसे पितरों का आशीर्वाद नहीं मिलता।

कात्यायन ऋषि

माता-पिता और आचार्य – ये तीन व्यक्ति के अतिगुरु (श्रेष्ठ गुरु) कहलाते हैं। इसलिए उनकी आज्ञा का पालन करना, सेवा करना, उनके लिए हितकारी कार्य करना और उनको दुःखी न करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है।

अंगिरा ऋषि

माता-पिता और गुरुजनों का आदर करने वाला चिरआदरणीय हो जाता है। आप भी माता-पिता व गुरुजनों की आदर से सेवा करके उनके ऋण से उऋण बनें। आप आदर्श बालक बनें, संतों के आशीर्वाद आपके साथ हैं।

परम पूज्य बापू जी

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माँ-बाप को भूलना नहीं

 

भूलो सभी को मगर, माँ-बाप को भूलना नहीं।

उपकार अगणित हैं उनके, इस बात को भूलना नहीं।।

पत्थर पूजे कई तुम्हारे, जन्म के खातिर अरे।

पत्थर बन माँ-बाप का, दिल कभी कुचलना नहीं।।

मुख का निवाला दे अरे, जिनने तुम्हें बड़ा किया।

अमृत पिलाया तुमको जहर, उनको उगलना नहीं।।

कितने लड़ाए लाड़ सब, अरमान भी पूरे किये।

पूरे करो अरमान उनके, बात यह भूलना नहीं।।

लाखों कमाते हो भले, माँ-बाप से ज्यादा नहीं।

सेवा बिना सब राख है, मद में कभी फूलना नहीं।।

सन्तान से सेवा चाहो, सन्तान बन सेवा करो।

जैसी करनी वैसी भरनी, न्याय यह भूलना नहीं।।

सोकर स्वयं गीले में, सुलाया तुम्हें सूखी जगह।

माँ की अमीमय आँखों को, भूलकर कभी भिगोना नहीं।।

जिसने बिछाये फूल थे, हर दम तुम्हारी राहों में।

उस राहबर के राह के, कंटक कभी बनना नहीं।।

धन तो मिल जायेगा मगर, माँ-बाप क्या मिल पायेंगे?

पल पल पावन उन चरण की, चाह कभी भूलना नहीं।।

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