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निर्भय नाद

अनुक्रम

निर्भय नाद. 4

शिवोऽहं शिवोऽहम्.. 20


आमुख

कुछ ऐसे महापुरुष होते हैं जिनके पास बैठने से, जिनके दर्शन मात्र से अलख के आनन्द की झलकें मिल जाती हैं, जिनके हाव-भाव, चाल-ढाल, वाणी की मधुरता तथा जिनके चारों और हवा में बिखरी हुई मस्ती से उस परमानन्द स्वरूप, निरंजन, अलख पुरुष की खबरें मिल जाती हैं और यदि उनकी विशेष कृपा हो जाय तो संसार में उलझा हुआ मनुष्य अपनी आध्यात्मिक यात्रा पर चल पड़ता है।

ऐसे ही एक महापुरुष की वाणी का यह एक छोटा-सा संचय है। इसका एक-एक शब्द ओज की चिनगारी है जो बुझते हुए हृदयों को फिर से प्रकाशित करने का अनंत तेज अपने में छुपाये हुए है। जिन्होंने परम पूज्य संत श्री आसारामजी महाराज को प्रत्यक्ष देखा है वे तो लाभ उठा ही रहे हैं, जो अभी दूर हैं उनके लिए यह वाणीरूप प्रसाद अमृत का काम करेगा। उपनिषदरुपी आध्यात्मिक खजाने का अमृत इसके एक-एक शब्द से टपकता है, इसका आप प्रत्यक्ष अनुभव करेंगे इसी विश्वास के साथ आपश्री के पावन करकमलों में......

श्री योग वेदान्त सेवा समिति

अमदावाद आश्रम


निर्भय नाद

विश्वं स्फुरति यत्रेदं तरंगा इव सागरे

तत्त्वमेवसन्देहश्चिन्मूर्ते विज्वरो भव ।।

श्रद्धत्स्व तात श्रद्धत्स्व नात्र मोहं कुरुष्व भोः

ज्ञानस्वरूपो भगवानात्मा त्वं प्रकृतेः परः।।

 

'जहाँ से यह संसार, सागर में तरंगों की तरह स्फुरित होता है सो तू ही है, इसमें सन्देह नहीं। हे चैतन्यस्वरूप ! संताप रहित हो। हे सौम्य ! हे प्रिय ! श्रद्धा कर, श्रद्धा कर। इसमें मोह मत कर। तू ज्ञानस्वरूप, ईश्वर, परमात्मा, प्रकृति से परे है।'

(अष्टावक्रगीता)

 

यदि तुमने शरीर के साथ अहंबुद्धि की तो तुममें भय व्याप्त हो ही जायेगा, क्योंकि शरीर की मृत्यु निश्चित है। उसका परिवर्तन अवश्यंभावी है। उसको तो स्वयं ब्रह्माजी भी नहीं रोक सकते। परन्तु यदि तुमने अपने आत्मस्वरूप को जान लिया, स्वरूप में तुम्हारी निष्ठा हो गयी तो तुम निर्भय हो गये, क्योंकि स्वरूप की मृत्यु कभी होती नहीं। मौत भी उससे डरती है।

 

सुख का दृश्य भी आयेगा और जायेगा तो दुःख का दृश्य भी आयेगा और जायेगा। पर्दे को क्या? कई फिल्में और उनके दृश्य आये और चले गये, पर्दा अपनी महिमा में स्थित है। तुम तो छाती ठोककर कहोः अनुकूलता या प्रतिकूलता, सुख या दुःख जिसे आना हो आये और जाय। मुझे क्या...? किसी भी दृश्य को सच्चा मत मानो। तुम दृष्टा बनकर देखते रहो, अपनी महिमा में मस्त रहो।

 

बाहर कैसी भी घटना घटी हो, चाहे वह कितनी भी प्रतिकूल लगती हो, परन्तु तुम्हें उससे खिन्न होने की तनिक भी आवश्यकता नहीं, क्योंकि अन्ततोगत्वा होती वह तुम्हारे लाभ के लिए ही है। तुम यदि अपने-आपमें रहो तो तुम्हें मिला हुआ शाप भी तुम्हारे लिए वरदान का काम करेगा। अर्जुन को ऊर्वशी ने वर्ष भर नपुंसक रहने का शाप दिया था परन्तु वह भी अज्ञातवास के समय अर्जुन के लिए वरदान बन गया।

 

प्रतिकूलता से भय मत करो। सदा शांत और निर्भय रहो। भयानक दृश्य (द्वैत) केवल स्वप्नमात्र है, डरो मत।

 

चिन्ता, भय, शोक, व्यग्रता और व्यथा को दूर फेंक दो। उधर कतई ध्यान मत दो।

सारी शक्ति निर्भयता से प्राप्त होती है, इसलिए बिल्कुल निर्भय हो जाओ। फिर तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा।

 

देहाध्यास को छोड़ना साधना का परम शिखर है, जिस पर तुम्हें पहुँचना होगा। मौत के पूर्व देह की ममता को भी पार करना पड़ेगा, वर्ना कर्मबन्धन और विकार तुम्हारा पीछा न छोड़ेंगे। तुम्हारे भीतर प्रभु के गीत न गूँज पायेंगे, ब्रह्म-साक्षात्कार न हो पायेगा। जब तक तुम हड्डी-मांस-चाम को ही मैं मानते रहोगे, तब तक दुर्भाग्य से पीछा न छूटेगा। बड़े-से-बड़ा दुर्भाग्य है जन्म-मृत्यु।

 

एक दिन तुम यह सब छोड़ जाओगे और पश्चाताप हाथ लगेगा। उससे पहले मोह-ममतारूपी पाश को विवेकरूपी कैंची से काटते रहना। बाहर के मित्रों से, सगे-सम्बन्धियों से मिलना, पर भीतर से समझनाः न कोई मित्र है न सगे-सम्बन्धी, क्योंकि ये भी सब साथ छोड़ जायेंगे। मेरा मित्र तो वह है जो अन्त में और इस शरीर की मौत के बाद भी साथ न छोड़े

 

मन में भय, अशांति, उद्वेग और विषाद को स्थान मत दो। सदा शांत, निर्भय और प्रसन्न रहने का अभ्यास करो। अपनी महिमा में जागो। खामखाह क्यों दीन होते हो?

 

दीनता-हीनता पाप है। तुम तो मौत से भी निर्भयतापूर्वक कहोः मौत ! मेरे शरीर को छीन सकती है, पर मेरा कुछ नहीं कर सकती। तू क्या डरायेगी मुझे? दुनिया की रंगीनियाँ ! संसार के प्रलोभनो ! तुम मुझे क्या फँसाओगे? तुम्हारी पोल मैंने जान ली है। दुनिया के रीत-रिवाजो ! सुख-दुःखो ! अब तुम मुझे क्या नचाओगे? अब लाख-लाख काँटों पर भी मैं निर्भयतापूर्वक कदम रखूँगा। हजार-हजार उत्थान और पतन में भी मैं ज्ञान की आँख से देखूँगा। मुझ आत्मा को कैसा भय? मेरा कुछ न बिगड़ा है न बिगड़ेगा। शाबाश है ! शाबाश है !! शाबाश है !!!

 

पारिवारिक मोह और आसक्ति से अपने को दूर रखो। अपने मन में यह दृढ़  संकल्प करके साधनापथ पर आगे बढ़ो कि यह मेरा दुर्लभ शरीर न स्त्री-बच्चों के लिए है, न दुकान-मकान के लिए है और न ही ऐसी अन्य तुच्छ चीजों के संग्रह करने के लिए है। यह दुर्लभ शरीर आत्म ज्ञान प्राप्त करने के लिए है। मजाल है कि अन्य लोग इसके समय और सामर्थ्य को चूस लें और मैं अपने परम लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार से वंचित रह जाऊँ? बाहर के नाते-रिश्तों को, बाहर के सांसारिक व्यवहार को उतना ही महत्त्व दो जहाँ तक कि वे साधना के मार्ग में विघ्न न बनें। साधना मेरा प्रमुख कर्त्तव्य है, बाकी सब कार्य गौण हैं – इस दृढ़ भावना के साथ अपने पथ पर बढ़ते जाओ।

 

किसी भी अनुकूलता की आस मत करो। संसारी तुच्छ विषयों की माँग मत करो। विषयों की माँग कोई भी हो, तुम्हें दीन बना देगी। विषयों की दीनतावालों को भगवान नहीं मिलते। नाऽयमात्मा बलहीनेन लभ्यः

 

इसलिए भगवान की पूजा करनी हो तो भगवान बनकर करो। देवो भूत्वा देवं यजेत्

जैसे भगवान निर्वासनिक हैं, निर्भय हैं, आनन्दस्वरूप हैं, ऐसे तुम भी निर्वासनिक और निर्भय होकर आनन्द में रहो। यही उसकी महा पूजा है।

 

अपनी महिमा से अपरिचित हो, इसलिए तुम किसी से भी प्रभावित हो जाते हो। कभी मसखरों से, कभी विद्वानों की वाणी से, कभी पहलवानों या नट-नटियों से, कभी भविष्यवक्ताओं से, कभी नेताओं से, कभी जादू का खेल दिखानेवालों से, कभी स्त्रियों से, कभी पुरुषों से तो कभी थियेटरों में प्लास्टिक की पट्टियों (चलचित्रों) से प्रभावित हो जाते हो। यह इसलिए कि तुम्हें अपने आत्मस्वरूप की गरिमा का पता नहीं है। आत्मस्वरूप ऐसा है कि उसमें लाखों-लाखों विद्वान, पहलवान, जादूगर, बाजीगर, भविष्यवक्ता आदि आदि स्थित हैं। तुम्हारे अपने स्वरूप से बाहर कुछ भी नहीं है। तुम बाहर के किसी भी व्यक्ति से या परिस्थिति से प्रभावित हो रहे हो  तो समझ लो कि तुम मालिक होते हुए भी गुलाम बने हुए हो। खिलाड़ी अपने ही खेल में उलझ रहा है। तमाशबीन ही तमाशा बन रहा है। हाँ, प्रभावित होने का नाटक कर सकते हो परन्तु यदि वस्तुतः प्रभावित हो रहे हो तो समझो, अज्ञान जारी है। तुम अपने-आप में नहीं हो।

 

मन को उदास मत करो। सदैव प्रसन्नमुख रहो। हँसमुख रहो। तुम आनन्दस्वरूप हो। भय, शोक, चिन्ता आदि ने तुम्हारे लिए जन्म ही नहीं लिया है, ऐसी दृढ़ निष्ठा के साथ सदैव अपने आत्मभाव में स्थिर रहो।

 

समस्त संसार आपकी रचना है। महापुरुषों का अनुभव इस बात को पुष्ट करता है, फिर भी तुम घबराते हो ! अपनी ही कृति से भयभीत होते हो ! सब प्रकार के भय को परे हटा दो। किसी भी भय-शोक-चिन्ता को पास मत फटकने दो । तुम संसार के शहंशाह हो। तुम परमेश्वर आप हो। अपने ईश्वरत्व का अनुभव करो।

 

अपने-आपको परमेश्वर अनुभव करो, फिर आपको कोई हानि नहीं पहुँचा सकता। सब मत-मतान्तर, पंथ-वाड़े उपनिषद् के ज्ञान के आगे क्षुद्रतर हैं। तुम अपने ख्यालों से उनको बड़ा कल्प लेते हो, इसलिए वे बड़े बन जाते हैं। अन्यथा राम-रहीम सब तुम्हारे आत्मस्वरूप हैं, तुमसे बड़ा कोई नहीं है।

 

जब तक तुम भीतर से भयभीत नहीं होते, तब तक बाहर की कोई भी परिस्थिति या धमकी तुम्हें भयभीत नहीं कर सकती। बाहर की किसी भी परिस्थिति में इतना बल ही कहाँ जो सर्वनियन्ता, सबके शासक, सब के सृष्टा को क्षण मात्र के लिए भी डगमगा सके। किसी भी परिस्थिति से डरना अपनी छाया से डरने के समान है।

 

हमने ही रची है ये रचना सारी। संसार न हुआ है, न होगा। यह दृढ़ निश्चय रखो। अपने को हीन समझना और परिस्थितियों के सामने झुक जाना आत्महनन के समान है। तुम्हारे अन्दर ईश्वरीय शक्ति है। उस शक्ति के द्वारा तुम सब कुछ करने में समर्थ हो। परिस्थितियों को बदलना तुम्हारे हाथ में है।

 

तुम हीन नहीं हो। तुम सर्व हो; पूज्य भगवान हो। तुम हीन नहीं हो, तुम निर्बल नहीं हो, सर्वशक्तिमान हो। भगवान का अनन्त बल तुम्हारी सहायता के लिए प्रस्तुत है। तुम विचार करो और हीनता को, मिथ्या संस्कारों को मारकर महान बन जाओ। ...! .....! ......! दुनिया मेरा संकल्प है, इसके सिवाय कुछ नहीं। इसमें जरा भी सन्देह नहीं। स्थावर-जंगम जगत के हम पिता हैं। हम उसके पूज्य और श्रेष्ठ गुरु हैं। सब संसार मनुष्य के आश्रय है और मनुष्य एक विशाल वन है। आत्मा सबके भीतर बसती है।

 

साकार मिथ्या है। निराकार सत्य है। सारा जगत निराकार है। सब जगत को एक शिव समझो।

 

निर्द्वन्द्व रह निःशंक रह, निर्भय सदा निष्काम रे।

चिंता कभी मत कीजिये, जो होय होने दीजिये।।

 

जड़-चेतन, स्थावर-जंगम, सम्पूर्ण चराचर जगत एक ब्रह्म है और वह ब्रह्म मैं हूँ। इसलिए सब मेरा ही स्वरूप है। इसके सिवाय कुछ नहीं।

 

जो कुछ तू देखता है वह सब तू ही है। कोई शक्ति इसमें बाधा नहीं डाल सकती। राजा, देव, दानव, कोई भी तुम्हारे विरुद्ध खड़े नहीं हो सकते।

 

तुम्हारी शंकाएँ और भय ही तुम्हारे जीवन को नष्ट करते हैं। जितना भय और शंका को हृदय में स्थान दोगे, उतने ही उन्नति से दूर पड़े रहोगे।

 

सदा सम रहने की तपस्या के आगे बाकी की सब तपस्याएँ छोटी हो जाती हैं। सदा प्रसन्न रहने की कुंजी के आगे बाकी की सब कुंजियाँ छोटी हो जाती हैं। आत्मज्ञान के आगे और सब ज्ञान छोटे रह जाते हैं। इसलिए दुनिया में हर इज्जत वाले से ब्रह्मवेत्ता की ऊँची इज्जत होती है।

 

ब्रह्मवेत्ता भृगु की सेवा करने वाले शुक्र जब स्वर्ग में जाते हैं तब सहस्रनेत्रधारी इन्द्रदेव अपने सिंहासन से उठकर उन ब्रह्मवेत्ता के शिष्य शुक्र को बिठाते हैं और अर्घ्यपाद्य से उसका पूजन करके अपने पुण्य बढ़ाते हैं। आत्मपद के आगे और सब पद छोटे हो जाते हैं, आत्मज्ञान के आगे और सब ज्ञान छोटे हो जाते हैं।

 

तुम्हारे स्वरूप के भय से चाँद-सितारे भागते हैं, हवाएँ बहती हैं, मेघ वर्षा करते हैं, बिजलियाँ चमकती हैं, सूरज रात और दिन बनाता है, ऋतुएँ समय पर अपना रंग बदलती हैं। उस आत्मा को छोड़कर औरों से कब तक दोस्ती करोगे? अपने घर को छोड़कर औरों के घर में कब तक रहोगे? अपने पिया को छोड़कर औरों से कब तक मिलते रहोगे....?

 

जो एक से राग करता है, वह दूसरे से द्वेष करेगा। जो किसी से राग नहीं करता है, वह किसी से द्वेष भी नहीं करेगा। वह परम प्रेमी होता है। वह जीवन्मुक्त होता है। न प्रलय है, न उत्पत्ति है, न बद्ध है, न साधक है, न मुमुक्षु है और न मुक्त ही है। यही परमार्थ है।

 

आप सर्वत्र मंगलमय देखने लग जाइये, चित्त अपने-आप शान्त हो जायेगा।

जिस कृत्य से चित्त खिन्न हो ऐसा कृत्य मत करो। जो विचार भय, चिन्ता या खिन्नता पैदा करें उन विचारों को विष की नाईं त्याग दो।

 

अगर तुम सर्वांगपूर्ण जीवन का आनन्द लेना चाहते हो तो कल की चिन्ता को छोड़ो। कल तुम्हारा अत्यन्त आनन्दमय होगा, यह दृढ़ निश्चय रखो। जो अपने से अतिरिक्त किसी वस्तु को नहीं जानता, वह ब्रह्म है। अपने ख्यालों का विस्तार ही जगत है।

 

निश्चय ही सम्पूर्ण जगत तुमसे अभिन्न है, इसलिए मत डरो। संसार को आत्मदृष्टि से देखने लग जाओ फिर देखो, विरोध कहाँ रहता है, कलह कहाँ रहता है, द्वेष कहाँ रहता है।

जिसका मन अन्तर्मुख हो जाता है, वह चित्त थकान को त्याग कर आत्मविश्रान्ति का स्वाद लेता है। तुम जितना समाहित चित्त होते जाओगे, उतना जगत तुम्हारे चरणों के नीचे आता जायेगा।

 

आज तक तुम देवी-देवताओं को पूजते आये हो, मंदिर-मसजिद में नाक रगड़ते आये हो, लेकिन किसी बुद्ध पुरुष से अन्तर्मुख होने की कला पाकर अभ्यास करोगे तो वह दिन दूर नहीं जब देवी-देवता तुम्हारे दर्शन को आयेंगे।

 

प्रभात के समय साधकों को जो प्रेरणा होती है, वह शुभ होती है। तुम जब कभी व्यावहारिक परेशानियों में उलझ जाओ तो विक्षिप्त चित्त से कोई निर्णय मत लो। प्रातः काल जल्दी उठो। स्नानादि के पश्चात् पवित्र स्थान पर पूर्वाभिमुख होकर बैठो। फिर भगवान या गुरुदेव से, जिनमें आपकी श्रद्धा हो, निष्कपट भाव से प्रार्थना करोः 'प्रभु ! मुझे सन्मार्ग दिखाओ। मुझे सद्प्रेरणा दो। मेरी बुद्धि तो निर्णय लेने में असमर्थ है।' निर्दोष भाव से की गयी प्रार्थना से तुमको सही प्रेरणा मिल जायेगी।

 

शरीर की मौत हो जाना कोई बड़ी बात नहीं, लेकिन श्रद्धा की मौत हुई तो समझो सर्वनाश हुआ।

 

अगर तुमने दस साल तक भी ब्रह्मनिष्ठ गुरु के आदेशानुसार साधना की हो, फिर भी यदि तुम्हारी श्रद्धा चली गयी तो वहीं पहुँच जाओगे जहाँ से दस साल पहले चले थे।

 

अपनी ही कृति से तुम गुरु को नजदीक या दूर अनुभव करते हो। ब्रह्मज्ञानी न तो किसी को दूर धकेलते हैं, न ही नजदीक लाते हैं। तुम्हारी श्रद्धा और व्यवहार ही तुम्हें उनसे नजदीक या दूर होने का एहसास कराते हैं।

 

सदगुरु ही जगत में तुम्हारे सच्चे मित्र हैं। मित्र बनाओ तो उन्हें ही बनाओ, भाई-माता-पिता बनाओ तो उन्हें ही बनाओ। गुरुभक्ति तुम्हें जड़ता से चैतन्यता की ओर ले जायेगी। जगत के अन्य नाते-रिश्ते तुम्हें संसार में फँसायेंगे, भटकायेंगे, दुःखों में पटकेंगे, स्वरूप से दूर ले जायेंगे। गुरु तुम्हें जड़ता से, दुःखों से, चिन्ताओं से मुक्त करेंगे। तुम्हें अपने आत्मस्वरूप में ले जायेंगे।

 

गुरु से फरियाद न करो, उनके आगे समर्पण करो। फरियाद से तुम उनसे लाभ लेने से वंचित रह जाओगे। उनका हृदय तो ऐसा निर्मल है कि जैसी उनमें भावना करोगे, वैसा ही लाभ होगा। तुम उनमें दोषदृष्टि करोगे तो दोषी बनोगे, गुणग्राहक दृष्टि करोगे तो उनके गुण तुममें आयेंगे और उनको त्रिगुणातीत मानकर उनके आज्ञापालन में चलोगे तो स्वयं भी गुणों से एक दिन पार हो जाओगे।

 

खबरदार ! जो समय गुरु-सेवन, ईश्वर-भक्ति और सत्संग में लगाना है, वह यदि जड़ पदार्थों में लगाया तो तुम भी जड़ीभाव को प्राप्त हो जाओगे। तुमने अपना सामर्थ्य, शक्ति, पैसा और सत्ता अपने मित्रों व सम्बन्धियों में ही मोहवश लगाया तो याद रखो, कभी-न-कभी तुम ठुकराये जाओगे, दुःखी बनोगे और तुम्हारा पतन हो ही जायेगा।

 

जितना हो सके, जीवित सदगुरु के सान्निध्य का लाभ लो। वे तुम्हारे अहंकार को काट-छाँटकर तुम्हारे शुद्ध स्वरूप को प्रत्यक्ष करेंगे। उनकी वर्त्तमान हयाती के समय ही उनसे पूरा-पूरा लाभ लेने का प्रयास करो। उनका शरीर छूटने के बाद तो..... ठीक है, मंदिर बनते हैं और दुकानदारियाँ चलती हैं। तुम्हारी गढ़ाई फिर नहीं हो पायेगी। अभी तो वे तुम्हारीस्वयं को शरीर मानना और दूसरों को भी शरीर मानना- ऐसी परिच्छिन्न मान्यताओं को छुड़ाते हैं। बाद में कौन छुड़ायेगा?..... बाद में नाम तो होगा साधना का कि मैं साधना करता हूँ, परन्तु मन खेल करेगा, तुम्हें उलझा देगा, जैसे सदियों से उलझाता आया है।

 

मिट्टी को कुम्हार शत्रु लगता है। पत्थर को शिल्पी शत्रु लगता है क्योंकि वे मिट्टी और पत्थर को चोट पहुँचाते हैं। ऐसे ही गुरु भी चाहे तुम्हें शत्रु जैसे लगें, क्योंकि वे तुम्हारे देहाध्यास पर चोट करते हैं, परन्तु शत्रु होते नहीं। शत्रु जैसे लगें तो भी तुम भूलकर भी उनका दामन मत छोड़ना। तुम धैर्यपूर्वक लगे रहना अपनी साधना में। वे तुम्हें कंचन की तरह तपा-तपाकर अपने स्वरूप में जगा देंगे। तुम्हारा देहाध्यासरूपी मैल धोकर स्वच्छ ब्रह्मपद में तुम्हें स्थिर कर देंगे। वे तुमसे कुछ भी लेते हुए दिखें परन्तु कुछ भी नहीं लेंगे, क्योंकि वे तो सब छोड़कर सदगुरु बने हैं। वे लेंगे तो तुम्हारी परिच्छिन्न मान्यताएँ लेंगे, जो तुम्हें दीन बनाये हुए हैं।

 

सदगुरु मिटाते हैं। तू आनाकानी मत कर, अन्यथा तेरा परमार्थ का मार्ग लम्बा हो जायेगा। तू सहयोग कर। तू उनके चरणों में मिट जा और मालिक बन, सिर दे और सिरताज बन; अपना 'मैं' पना मिटा और मुर्शिद बन। तू अपना तुच्छ 'मैं' उनको दे दे और उनके सर्वस्व का मालिक बन जा। अपने नश्वर को ठोकर मार और उनसे शाश्वत का स्वर सुन। अपने तुच्छ जीवत्व को त्याग दे और शिवत्व में विश्राम कर।

 

तुम्हारे जिस चित्त में सुखाकार-दुःखाकार-द्वेषाकार वृत्तियाँ उठ रही हैं, वह चित्त प्रकृति है और उसका प्रेरक परमात्मा साक्षी उससे परे है। वही तुम्हारा असली स्वरूप है। उसमें न रहकर जब प्रकृति में भटकते हो, वृत्तियों के साथ एक हो जाते हो तो अशांत होते हो और स्वरूप में रहकर सब करते हो तो करते हुए भी अकर्ता हो। फिर आनन्द तो तुम्हारा स्वरूप ही है।

 

जैसे सड़क पर कितने ही वाहन-कार, रिक्शा, साइकिल, बैलगाड़ी आदि चलते हैं लेकिन अचल सड़क के आधार पर ही चलते हैं वैसे ही तुम्हारा आत्मा अचल है। उस पर वृत्तियाँ चल रही हैं। जैसे सरोवर में तरंगे उठती हैं, वैसे तुम्हारे आत्मस्वरूप में ये सब वृत्तियाँ उठती हैं और लय होती हैं।

 

व्यवहार में चिन्तारूपी राक्षसी घूमा करती है। वह उसी को ग्रस लेती है, जिसको जगत सच्चा लगता है। जिसको जगत स्वप्नवत् लगता है, उसे परिस्थितियाँ और चिन्ताएँ कुचल नहीं सकती।

 

एक ही मंदिर-मसजिद में क्या जाना, सारे विश्व को ही मंदिर मसजिद बना दो। तुम ऐसा जीवन जियो कि तुम जो खाओ वह प्रसाद बन जाय, जो करो वह साधना या भक्ति बन जाय और जो चिंतन करो वह आत्मचिंतन बन जाय।

 

तुम जब सत्य के रास्ते पर चल पड़े हो तो व्यावहारिक कार्यों की चिन्ता मत करो कि वे पूरे होते हैं कि नहीं। समझो, कुछ कार्य पूरे न भी हुए तो एक दिन तो सब छोड़कर ही जाना है। यह अधूरा तो अधूरा है ही, लेकिन जिसे संसारी लोग पूरा समझते हैं, वह भी अधूरा ही है। पूर्ण तो एक परमात्मा है। उसे जाने बिना सब जान लिया तो भी व्यर्थ है।

 

कोई आपका अपमान या निन्दा करे तो परवाह मत करो। ईश्वर को धन्यवाद दो कि तुम्हारा देहाध्यास तोड़ने के लिए उसने उसे ऐसा करने के लिए प्रेरित किया है। अपमान से खिन्न मत बनो बल्कि उस अवसर को साधना बना लो। अपमान या निन्दा करने वाले आपका जितना हित करते हैं, उतना प्रशंसक नहीं करते – यह सदैव याद रखो।

 

क्या आप सुख चाहते हैं?... तो विषय भोग से सुख मिलेगा यह कल्पना मन से निकाल दीजिये। उसमें बड़ी पराधीनता है। पराधीनता दुःख है। भोग्य वस्तु चाहे वह कुछ भी क्यों न हो, कभी मिलेगी कभी नहीं। इन्द्रियों में भोग का सामर्थ्य सदा नहीं रहेगा। मन में एक-सी रूचि भी नहीं होगी। योग-वियोग, शत्रु-मित्र, कर्म-प्रकृति आदि उसमें बाधक हो सकते हैं। यदि विषयभोग में आप सुख को स्थापित कर देंगे तो निश्चय ही आपको परवश और दुःखी होना पड़ेगा।

 

'सुख' क्या है?  'सु' माने सुन्दर। '' माने इन्द्रिय, मन, हृदयाकाश। इनकी सुन्दरता सहज स्वाभाविक है। आप सुखस्वरूप हैं किन्तु सुख की इच्छा करके उत्पात खड़ा करते हैं; अपने केन्द्र से च्युत होते हैं। सुख को आमन्त्रित मत कीजिये। दुःख को भगाने के लिए बल प्रयोग मत कीजिये। बुद्धि में वासना रूप मलिनता लगी-सी भास रही है। उसको आत्मबुद्धि के प्रकाश में लुप्त हो जाने दीजिये। आपका जीवन सुख-समुद्र का तरंगायमान रूप है। सुख-सूर्य का रश्मि-पुंज है; सुख-वायु का सुरभि-प्रवाह है।

 

कहीं आप अपने को अवयवयुक्त पंचभौतिक शरीर तो नहीं मान बैठे हैं। यदि ऐसा है तो आप सुखी जीवन कैसे बिता सकते हैं? शरीर के साथ जन्म-मृत्यु, जरा-व्याधि, संयोग-वियोग, ह्रास-विकास लगे ही रहते हैं। कोई भी अपने को शरीर मानकर कभी भयमुक्त नहीं हो सकता। निर्भयता की प्राप्ति के लिए आत्मा की शाश्वत सत्ता पर आस्था होना आवश्यक है। यह आस्था ही धर्म का स्वरूप है। जितने धार्मिक मत-मजहब हैं उनका मूल आधार देहातिरिक्त आत्मा पर आस्था है। आप बुद्धि के द्वारा न समझ सकें तब भी आत्मा के नित्य अस्तित्व पर आस्था कीजिये। मृत्यु का भय त्याग दीजिये। अपने नित्य आत्मा में स्थित रहिये और कार्य कीजिये। आपके जीवन में धर्म प्रवेश करेगा और प्रतिष्ठित होगा। बुद्धि की निर्मलता और विवेक का प्रकाश आने पर आपका अन्तःकरण मुस्करायेगा और बाह्य जीवन भी सुखी हो जायेगा।

 

तुम अपने को भूलकर दीन-हीन हो रहे हो। जिस प्रकार पशु रस्सी से बँधकर दीन-हीन हो जाता है, उसी प्रकार मनुष्य जिस्म की खुदी में पड़कर, देह के कीचड़ में फँसकर दीन-हीन हो जाता है। साधना का मतलब स्वर्गप्राप्ति नहीं बल्कि अपने-आप तक पहुँचना है। ऐसी मृत्यु को लाना है जिससे फिर मृत्यु न हो।

 

ईश्वर को सब कुछ सौंप दो। समर्पण की भावना में बल आने दो। उस ईश्वर को भी कुछ काम करने दो। कमजोरी को दूर करो। यही साधना है जो अमृत में डुबा देती है.... मनुष्य को अमर बना देती है। उस अमृत में डूबकर वह अपनी खुदी की 'मैं' को खो देता है और असली 'मैं' को पहचान लेता है। जीव खो जाता है, शिवस्वरूप प्रकट हो जाता है।

 

तुम महान हो। अपनी महानता को सँभालो। तब तक दुःख की रात नहीं कटेगी, जब तक आत्मविश्वास से 'अहं ब्रह्मास्मि' न कह पाओगे। इस वास्तविकता को भूलकर अन्धकार में ठोकरें खा रहे हो। आत्म प्रकाश को भूल जाने से ही काम, क्रोध, लोभादि चोर आपके पीछे लगे हैं। अँधेरे में प्रकाश करो, चोर अपने-आप भाग जायेंगे।

 

हिमालय की तरह दृढ़ होकर अपनी रुकावटों को काटो। यह विश्वास रखो कि जो सोचूँगा वही हो जाऊँगा। सत्यसंक्लप आत्मा तुम्हारे साथ है.... नहीं नहीं, तुम ही सत्यसंकल्प आत्मा हो। उठो, अपनी शक्ति को पहचानो। तमाम शक्तियाँ तुम्हारे साथ हैं। यह ख्याल न करो कि तमाम चीजें पहले इकट्ठी हों, बाद में मैं आगे बढ़ूँ। बल्कि दृढ़ संकल्प करो अपने परम लक्ष्य को हासिल करने का। चीजें अपने-आप तुम्हारे कदम चूमेंगी।

 

सोचो कि तुम ताकत के तूफान हो। वह चश्मा हो जिससे तमाम नदियों को जल मिलता है। जो आत्मशक्ति पर विश्वास करता है, वह स्वावलम्बी और निर्भय होता है।

 

हाथी हमेशा दल में रहते हैं। उनका झुण्ड जब सोता है तो एक हाथी चौकी देता है कि कहीं शेर हमें न मार दे। शेर से वह डरता रहता है। अपनी ताकत पहचानता नहीं। वह शेर से बड़ा ताकतवर और वजन में भी ज्यादा है, बड़े-बड़े वृक्षों को जड़ से उखाड़ देता है। यदि वह अपना बल पहचान जाय तो शेरों को मार दे। लेकिन दर्जनों हाथी भी एक शेर से डरते हैं। एक शेर निर्भीक हो जंगल में क्यों सोता है? क्योंकि वह अपनी शक्ति को पहचानता है। तभी तो वह जंगल का बादशाह कहलाता है। शेर असल में वेदान्ती है। वेदान्त अन्दर की शक्ति पर विश्वास करता है, बाहर के साजो-सामान पर नहीं।

 

सुख को भविष्य में मत ढूँढो'यह मिलेगा तब सुखी होऊँगा, इतना करुँगा तब सुखी होऊँगा...' ऐसा नहीं। वर्त्तमान क्षण को ही सुखद बनाने की कला सीख लो, क्योंकि भविष्य कभी आता नहीं और जब भी आता है तब वर्त्तमान बनकर ही आता है।

 

तुम आनन्दस्वरूप हो। तुम्हें कौन दुःखी कर सकता है? एक-दो तो क्या... जगत के सारे लोग, और यहाँ तक कि तैंतीस करोड़ देवता मिलकर भी तुम्हें दुःखी करना चाहें तो दुःखी नहीं कर सकते, जब तक कि तुम स्वयं दुःखी होने को तैयार न हो जाओ। सुख-दुःख की परिस्थितियों पर तुम्हारा कोई वश हो या न हो परन्तु सुखी-दुःखी होना तुम्हारे हाथ की बात है। तुम भीतर से स्वीकृति दोगे तभी सुखी या दुःखी बनोगे। मंसूर को लोगों ने सूली पर चढ़ा दिया, परन्तु दुःखी नहीं कर सके। वह सूली पर भी मुस्कराता रहा।

 

कोई भी परिस्थिति तुमसे बड़ी नहीं हो सकती। कोई भी दुःख तुमसे बड़ा नहीं हो सकता। फिर किसी भी परिस्थिति से, दुःख से, भय से भयभीत होने की क्या आवश्यकता?

 

तुम अचल हो, शेष सब चल है, परिवर्तनशील है। फिल्म का पर्दा अचल है, फिल्म के दृश्य बदलते रहते हैं। बाह्य परिस्थिति कितनी ही भयंकर लगे, दुःख भले पर्वताकार लगे, सब तरफ अन्धकार-ही-अन्धकार नजर आता हो, कोई रास्ता नहीं सूझता हो, सभी स्वजन विरोधी बन गये हों, सारा संसार तुम्हारे सम्मुख तलवार लिये खड़ा नजर आता हो, फिर भी डरो मत … हिम्मत रखो, धैर्य रखो, सब तुम्हारी माया है। इसको वास्तविकता मत दो। अपने निर्भय आत्मस्वरूप का स्मरण कर उन सबकी अवहेलना कर दो। विकट परिस्थिति के रूप में नजर आती हुई आँधी उड़ जायेगी। परिस्थिति की ऐसी कौन-सी गंभीरता है, जिसे तुम हटा नहीं सकते या फूँक मारकर उड़ा नहीं सकते?

 

यह संसार तुम्हारा बनाया हुआ है। तुमने अपने आनन्द के लिए रचा है। अरे देवों के देव! अपने-आपको भूलकर तुम अपनी ही कृति से भयभीत हो रहे हो? भय और झिझक को दूर फेंकोसत् होकर असत् से डरते हो ! चेतन होकर जड़ से डरते हो ! जिन्दा होकर मुर्दे से डरते हो ! अमृत का पुंज होकर मौत से डरते हो !

 

ये पंचभूत तुम्हारे ही बनाये हुए हैं। भय और झिझक को दूर फेंक दो।

धन, सत्ता व प्रतिष्ठा प्राप्त करके भी तुम चाहते क्या हो? तुम दूसरों की खुशामद करते हो, किसलिए ? सम्बन्धियों को खुश रखते हो, समाज को अच्छा लगे ऐसा ही व्यवहार करते हो, किसलिए ? सुख के लिए ही न ? फिर भी सुख टिका? तुम्हारा सुख टिकता नहीं और ज्ञानी का सुख जाता नहीं। क्यों? क्योंकि ज्ञानी गुणातीत हैं और हम लोग गुणों में भटकते हैं।

 

दुःखों और चिंताओं से भागो नहीं। तुम ताल ठोककर उन्हें आमंत्रण दो कि वे आ जायें। वे कहाँ रहती हैं.... जरा देखूँ तो सही ! हैं ही नहीं। सब ख्याल ही ख्याल हैं। जो कुछ है, दृष्टा का दृश्यविलास है। तुम दृष्टा हो। अपने से अलग कुछ भी माना; अपनी ज्ञानदृष्टि से कुछ भी नीचे आये तो समझो दुःख-ही-दुःख खड़े हो गये। ज्ञानदृष्टि आयी तो प्रतिकूलता भी अनुकूलता बन गयी। विरोधी भी मित्र बन गये।

 

तूफान और आँधी हमको न रोक पाये।

वे और थे मुसाफिर जो पथ से लौट आये।।

मरने के सब इरादे जीने के काम आये।

हम भी तो हैं तुम्हारे कहने लगे पराये।।

 

ऐसा कौन है जो तुम्हें दुःखी कर सके? तुम यदि न चाहो तो दुःखों की क्या मजाल है जो तुम्हारा स्पर्श भी कर सके? अनन्त-अनन्त ब्रह्माण्ड को जो चला रहा है वह चेतन तुम्हीं हो।

 

अहो निरंजनः शान्तो बोधोऽहं प्रकृतेः परः

एतावन्तमहं कालं मोहेनैव विडम्बितः।।

अहो अहं नमो मह्यं विनाशो यस्य नास्ति मे।

ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तं जगन्नाशेऽपि तिष्ठत:।।

 

"मैं निर्दोष, शान्त, बोधस्वरूप और प्रकृति से परे हूँ। अहो ! कितने आश्चर्य की बात है कि फिर भी मैं इतने समय तक मोह द्वारा ठगा हुआ था ! ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त सारे जगत के नाश हो जाने पर भी जिस 'मैं' का नाश नहीं होता वह 'मैं' कैसा आश्चर्य-भरा हूँ। मेरा मुझको नमस्कार है।"

(अष्टावक्रगीता)

 

मैं तो आनन्दघन हूँ। मैं तो जानता ही नहीं कि सुख् क्या है और दुःख क्या है, भय, शोक और चिंता क्या है? मैं स्वभाव से ही निर्भीक हूँ।

 

मैं चैतन्यघन आत्मा हूँ। सारा जगत मेरा बनाया हुआ है। इसमें जरा भी सन्देह नहीं है।

मैं बादशाहों का भी बादशाह हूँ। मैं शाहों का शाह हूँ। मुझे कौन भयभीत कर सकता है ? ..........

 

ज्ञानी पुरुष को स्वप्नावस्था में भी 'जगत सच्चा है' ऐसी भूल नहीं होती।

संसार में जितनी वस्तुएँ प्रत्यक्ष में घबराने वाली मालूम होती हैं, वास्तव में तेरी प्रफुल्लता और आनन्द के लिए ही प्रकृति ने तैयार की हैं। उनसे डरने से क्या लाभ? तेरी ही मूर्खता तुझे चक्कर में डालती है, नहीं तो तुझे कोई नीचा दिखाने वाला है ही नहीं। यह पक्का निश्चय रख कि संसार तेरे ही आत्मदेव का सारा विलास है। संसार का कोई भी पदार्थ तुझे वास्तव में दुःख नहीं दे सकता है।

 

सुख-दुःखों की बौछारें होती रहें परन्तु वे मुझे अपने स्वरूप से कभी विचलित नहीं कर सकतीं।

 

एक बैलगाड़ी वाला था। वह सदगुरु के पास जाता, सत्संग सुनता और ध्यान भी करता। उसने समझ लिया था कि कैसी भी परिस्थिति आये, उससे डरना नहीं चाहिए, मनोबल दृढ़ करके उसका सामना करना चाहिए।

 

एक बार बैलगाड़ी में नमक भरकर वह कहीं जा रहा था। इतने में आकाश बादलों से छा गया। रिमझिम.... रिमझिम... बारिश होने लगी। थोड़ी ही देर में मेघगर्जना, बिजली और आँधी-तूफान के साथ जोर-से वर्षा होने लगी। रास्ते में पानी भर गया। मेघगर्जना के साथ बिजली का तेज चमकारा हुआ तो बैल भड़क उठे और भाग गये। गाड़ी एक नाले में फँस गयी। इतने में फिर से बिजली चमकी। गाड़ीवाला बोलता हैः

 

" बिजली ! तू किसको डराती है मैं नमक नहीं कि बह जाऊँ। मैं गाड़ी नहीं कि फँस जाऊँ। मैं बैल नहीं कि भाग जाऊँ। मैं तो तेरे ही प्रकाश में अपना रास्ता तय करूँगा।"

मानव यदि निर्भय हो जाय तो जगत की तमाम-तमाम परिस्थितियों में सफल हो जाय।

 

हमें रोक सके ये जमाने में दम नहीं।

हमसे जमाना है जमाने से हम नहीं।।

 

आप जैसा सोचते हो वैसे ही बन जाते हो। अपने-आपको पापी कहो तो अवश्य ही पापी बन जाओगे। अपने को मूर्ख कहो तो अवश्य ही मूर्ख बन जाओगे। अपने को निर्बल कहो तो संसार में कोई ऐसी शक्ति नहीं है जो आपको बलवान बना सके। अपने सर्वशक्तित्व का अनुभव करो तो आप सर्वशक्तिमान हो जाते हो।

 

अपने हृदय से द्वैत की भावना को चुन-चुनकर निकाल डालो। अपने परिच्छिन्न अस्तित्व की दीवारों को नींव से ढहा दो, जिससे आनन्द का महासागर प्रत्यक्ष लहराने लगे।

क्या तुम्हें अपने ब्रह्मत्व के विषय में सन्देह है? अपने हृदय में ऐसा सन्देह रखने की अपेक्षा गोली मार लेना श्रेष्ठ है।

 

गम्भीर-से-गम्भीर कठिनाइयों में भी अपना मानसिक सन्तुलन बनाये रखो। क्षुद्र अबोध जीव तुम्हारे विरूद्ध क्या कहते हैं इसकी तनिक भी परवाह मत करो। जब तुम संसार के प्रलोभनों और धमकियों से नहीं हिलते तो तुम संसार को अवश्य हिला दोगे। इसमें जो सन्देह करता है, वह मंदमति है, मूर्ख है।

 

मेरे मानसिक शुभाशुभ कर्म कोई नहीं हैं। न शारीरिक शुभाशुभ कर्म मेरे हैं और न वाचिक शुभाशुभ कर्म मेरे हैं। मैं स्वभाव से ही निराकार, सर्वव्यापी आत्मा हूँ। मैं ही अविनाशी, अनन्त, शुद्ध और विज्ञानस्वरूप हूँ। मैं नहीं जानता हूँ कि सुख-दुःख किसको कहते हैं। यदि स्वप्न में रूचिकर और चित्ताकर्षक घटनाएँ उपस्थित हैं तो वे तेरे ही विचार हैं और महाभयावने रूप विद्यमान हैं तो वे भी तेरी ही करतूतें हैं। वैसे ही संसार में मनभाती घटनाएँ हो चाहे विपत्तियाँ और आफतें हों,ये सब तेरी ही बनायी हुई हैं। तू दोनों का स्वामी है।

 

हे प्रिय ! तेरे ही विराट स्वरूप में ये जगतरूपी तरंगे अपने-आप उदय होती हैं और अस्त होती हैं। उसमें न तेरी वृद्धि होती है न नाश, क्योंकि जगतरूपी तरंगें तुझसे भिन्न नहीं हैं। फिर "किसका ग्रहण करूँ.... किससे मोह करूँ. किससे द्वेष करूँ..." आदि चिन्तन करके क्यों परेशान होता है?

 

इस इन्द्रजालवत् मिथ्या संसार में मोह मत कर। हे सौम्य ! तेरा यह जड़ शरीर कल्प के अन्त तक स्थिर रहे चाहे अभी इसी वक्त इसका नाश हो जाय, तुझ चैतन्य को भय कैसा?

इस संसाररूपी समुद्र में एक तू ही हुआ है, तू ही है और कृतार्थ भी तू ही होगा। तेरा न बन्धन है और न मोक्ष है, यह निश्चित जानकर तू सुखपूर्वक विचर

 

हे चैतन्यस्वरूप ! तू संकल्प और विकल्पों से चित्त को क्षुब्ध मत कर। मन को शान्त करके अपन आनन्दमय स्वरूप में सुखपूर्वक स्थित हो जा। ब्रह्मदृष्टि को छोड़कर अन्य किसी भाव से किसी वस्तु को मत देखो। यदि ऐसा नहीं करोगे तो अन्याय और बुरा ही देखने में आयेगा।

भय मात्र हमारी कल्पना की उपज है। यह सब प्रपंच हमारी स्फुरणा है, कल्पना मात्र है। फिर बताओ, हम किससे भय खायें और किसकी इच्छा करें ? सदा सिंहवत् निर्भय रहो। कभी भी किसी से मत डरो

 

वेदान्त के अनुसार समस्त संसार आपकी ही रचना है, आप ही का संकल्प है तो आप अपने को दीन-हीन, पापी क्यों समझते हो? आप अपने को निर्भय, स्वावलम्बी, परमात्मा का अवतार क्यों नहीं मानते? सब प्रकार के भय, दुःख, शोक और चिन्ता भ्रम मात्र हैं। जब दुःख का विषय सामने आये तो झट भ्रम समझकर टाल दो।

 

भय और सन्देह से ही तुम अपने को मुसीबतों में डालते हो। किसी बात से अस्थिर और चकित मत हो। अज्ञानियों के वचनों से कभी भय मत करो।

 

परमात्मा की शांति भंग करने का भला किसमें सामर्थ्य है? यदि आप सचमुच परमात्म-शांति में स्थित हो जाओ तो सारा संसार उलटा होकर टँग जा, आपकी शांति कभी भंग नहीं हो सकती।

 

वेदान्त का सिद्धान्त यह है कि हम बद्ध नहीं हैं, अपितु नित्य मुक्त हैं। इतना ही नहीं बल्कि 'मैं बद्ध हूँ....' ऐस सोचते ही तुम्हारा दुर्भाग्य आरम्भ हो जाता है। इसलिए ऐसी बात कभी न कहना और न इस प्रकार कभी सोचना ही।

 

विद्वानों, दार्शनिकों और आचार्यों की धमकियाँ और अनुग्रह, आलोचनाएँ तथा सम्मतियाँ ब्रह्मज्ञानी पर कोई प्रभाव नहीं डालतीं

 

परहित के लिए थोड़ा-सा काम करने से भी भीतर की शक्तियाँ जागृत होने लगती हैं। दूसरों के कल्याण करने के विचार मात्र से हृदय में एक सिंह के समान बल आ जाता है।

जो फालतू बातें नहीं करता, फालतू समय नहीं गँवाता, चारित्र्यहीन व्यक्तियों का संग नहीं करता, ऐसे सौभाग्यशाली व्यक्ति को यदि तत्त्वज्ञानी गुरु मिल जा तो मानो उसका आखिरी जन्म है। मूर्खों की कल्पनाओं को, जगत की वस्तुओं को जितना सत्य मानते हैं, उतना ही महापुरुषों के वचनों को सत्य मान लें तो ऐसा कौन है जो मुक्त न हो जाय? ऐसी कौन-सी मुक्ति है जो उसकी मुट्ठी में न आ जा?

 

तुम्हें जितना देखना चाहिए, जितना बोलना चाहिए, जितना सुनना चाहिए, जितना घूमना चाहिए, जितना समझना चाहिए वह सब हो गया। अब, जिससे बोला जाता है, सुना जाता है, समझा जाता है, उसी में डूब जाना ही तुम्हारा फर्ज है। यही तुम्हारी बुद्धिमत्त का कार्य है, अन्यथा तो जगत का देखना-सुनना खत्म न होगा.... स्वयं ही खत्म हो जायेंगे.....। इसलिए कृपा करके अब रुको। .....हाँ रुक जाओ.... बहुत हो गया। भटकने का अन्त कर दो।

 

बस, खो जाओ.....। हाँ, खो जाओ..... उसी अपने निज स्वरूप में खो जाओ। वही हो जाओ.... तुम वही हो..... वही हो.... समझ लो तुम वही हो। ..................

आनन्द ! आनन्द !! आनन्द!!!

 

अभागा आदमी भले ही इन विचारों से भयभीत हो, इन विचारों को हृदय में स्थान न दे, पर इन पावनकारी परम मंगल के द्वार खोलनेवाले शुभ विचारों को कोई सौभाग्यशाली तो पढ़ेगा ही और उसी आत्मरस में डूबेगा जिससे सब देखा जाता है, सुना जाता है, समझा जाता है।

आलसी, प्रमादी, बुद्ध लोगों के लिए यह अमृत-उपदेश नहीं है। जो सुज्ञ है, स्फूर्तिले हैं, उत्साही हैं, संयमी है, वे ही यह परम खजाना पा सकते हैं। .... ..... .....

 

सदैव बहिर्मुख रहना अपने को धोखा देना है।

सुबह घूमने निकल जाओ। इन पावन विचारों को जरा-सा पढ़ते जाओ। नदी के किनारे, तालाब के किनारे.... जहाँ एकान्त हो, टहलो। खुली जगह में, प्राकृतिक सौन्दर्यवाले वातावरण में जब मौका मिले जाया करो। वहाँ नाचो, गाओ, कूदो, घूमो और फिर बैठ जाओ। जब तक साक्षात्कार न हो जाय तब तक इस पावन पुस्तिका को सदैव अपने साथ रखो और इसके विचारों में तल्लीन रहो।

 

फिर देखो, जगत की परेशानियाँ, लोगों के वाग्जाल, शत्रुओं की निन्दा व धमकियाँ, मित्रों की मोह-ममता, सत्ताधीशों की धमकियाँ और सब किस्म की परेशानियाँ तुम्हारे पास से पलायन होती हैं कि नहीं? यदि नहीं होती हैं तो मुझसे मिलना।

 

सूर्योदय और सूर्यास्त के समय सोने से बुद्धि कमजोर होती है। सूर्योदय के पहल स्नान हो, उसके बाद 10-15 प्राणायाम हों, फिर ॐकार की पावन ध्वनि गूँजने दो। आधी आँख बन्द, आधी खुली। तुम्हारे भीतर ज्ञान-सूर्य उदय हो रहा है। भूताकाश में भास्कर उदय हो रहा है तो चित्ताकाश में चैतन्य उदय हो रहा है।

 

आनन्द ! आनन्द ! आनन्द ! मस्ती में डूबते जाओ। बार-बार इस पुस्तिका के कुछ वाक्य पढ़ो..... फिर मन को उनमें डूबने दो.... फिर पढ़ो..... फिर उनमें डूबने दो.... ऐसा आदर सहित अभ्यास करो। सारी परेशानियों से छूटने की यही सुन्दर-से-सुन्दर कुंज है।

सदैव शान्त रहो। मौन का अवलम्बन लो। कम-से-कम मित्र बनाओ। कम-से-कम जगत का परिचय करो। कम-से-कम जगत की जानकारी मस्तिष्क में भरो। अधिक-से-अधिक आत्मज्ञान के विचारों से अपने हृदय और मस्तिष्क को भर दो..... भर दो बाबा ! भर दो....

काफी समय निकल चुका.... काफी जान चुके.... काफी देख चुके.... काफी बोल चुके..... शान्ति: शान्ति: शान्ति: !

 

मुझे वेद पुराण कुरान से क्या? मुझे सत्य का पाठ पढ़ा दे कोई।

मुझे मन्दिर मसजिद जाना नहीं, मुझे प्रेम का रंग चढ़ा दे कोई।।

जहाँ ऊँच या नीच का भेद नहीं, जहाँ जात या पाँत की बात नहीं।

न हो मन्दिर मसजिद चर्च जहाँ, न हो पूजा नमाज में फर्क जहाँ।।

जहाँ सत्य ही सार हो जीवन का, रिधवार सिंगार हो त्याग जहाँ।

जहाँ प्रेम ही प्रेम की सृष्टि मिले, चलो नाव को ले चलें खे के वहीं।।

 

प्रेम का पाठ कौन पढ़ायेगा....? तुम स्वयं अपने प्रेमस्वरूप में डूब जाओ। यही है आनन्द के सागर में डूबने का तरीका... डूब जाओ...

 

साहसी बनो। धैर्य न छोड़ो। हजार बार असफल होने पर भी एक कदम और रखो। फिर से रखो। अवश्य सफलता मिलेगी। संशयात्मा विनश्यतिसंशय निकाल दो।

 

जिन कर्मों और विचारों से तुम्हारी चंचलता, भय और अशांति बढ़ती है, उनको विष की तरह त्याग दो। पहुँच जाओ किससमचित्त, शांत स्वरूप, प्रेममूर्ति, निर्द्वन्द्व-निरामय स्वरूप में मस्त रहने वाले मस्त फकीर के चरणों में। वहाँ तुम्हें जो सहयोग मिलेगा.... उनकी दृष्टि मात्र से जो मिलेगा, वह न चान्द्रायण व्रत रखने से मिलेगा न गंगास्नान से मिलेगा। काशी, मक्का, मदीना आदि तीर्थों में जाने से भी उतना नहीं मिलेगा जितना आत्मज्ञानी महापुरुष की दृष्टि तुम पर पड़ने से लाभ होगा। फिर तो तुम कह उठोगेः

 

कर सत्संग अभी से प्यारे, नहीं तो फिर पछताना है।

खिला पिलाकर देह बढ़ायी, वह भी अगन जलाना है।

पड़ा रहेगा माल खजाना, छोड़ त्रिया सुत जाना है।

कर सत्संग....

नाम दीवाना दाम दीवाना, चाम दीवाना कोई।

धन्य धन्य जो राम दीवाना, बनो दीवाना सोई।।

नाम दीवाना नाम न पायो, दाम दीवाना दाम न पायो

चाम दीवाना चामपायो, जुग जुग में भटकायो।।

राम दीवाना राम समायो......

क्यों ठीक है न.... ? करोगे न हिम्मत ? कमर कसोगे ..... ? वीर बनोगे कि नहीं....? आखिरी सत्य तक पहुँचोगे कि नहीं? उठो.... उठो.... शाबाश.... हिम्मत करो। मंजिल पास में ही है। मंजिल दूर नहीं है। अटपटी जरूर है। झटपट समझ में नहीं आती परन्तु याज्ञवल्क्य, शुकदेव, अष्टावक्र जैसे कोई महापुरुष मिल जायें और समझ में आ जा तो जीवन और जन्म-मृत्यु की सारी खटपट मिट जाय।

आनन्द ! आनन्द !! आनन्द !!!

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अनुक्रम

शिवोऽहं शिवोऽहम्

मनो बुद्धयहंकारचित्तानि नाहं

न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे

न च व्योमभूमिर्न तेजोवायुः

चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्।।

 

प्राणसंज्ञौवै पंचवायुः

न वा सप्तधातुर्न वा पंचकोशः

वाक्पाणिपादौचोपस्थपायुः

चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्।।

 

न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ

मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः

धर्मोचार्थो न कामो न मोक्षः

चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्।।

 

पुण्यंपापंसौख्यंदुःखम्

मंत्रोतीर्थंवेदायज्ञाः

अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता

चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्।।

 

न में मृत्युशंका न मे जातिभेदः

पिता नैव मे नैव माता न जन्मः

बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः

चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्।।

 

अहं निर्विकल्पो निराकार रूपो

विभुर्व्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्

सदा मे समत्वंमुक्तिर्नबन्धः

चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्।।

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अनुक्रम