अनुक्रम


अध्यात्म के उदगाता... 2

पुरुषार्थ परमदेव.. 4

पुरुषार्थ क्या है? उससे क्या पाना है?. 4

संकल्पबल के सितारे. 11

महाकवि कालिदास.. 11

वेलिंग्टन.. 14

हेनरी कैझर. 14

नेपोलियन बोनापार्ट. 15

रणजीत सिंह. 16

विनोबा भावो... 16

 

अध्यात्म के उदगाता

पूज्यपाद संत श्री आसाराम जी बापू आज समग्र विश्व की चेतना के साथ एकात्मकता साधे हुए ऐसे ब्रह्मज्ञानी महापुरुष हैं कि जिनके बारे में कुछ लिखना कलम को शर्माने जैसा है। पूज्यश्री के लिए यह कहना कि उनका जन्म सिन्ध के नवाब जिले के बेराणी नामक गाँव ई. श. 1941 में वि. सं. 1998 चत वद 6 को हुआ था, यह कहना कि उनके पिताश्री बड़े जमींदार थे, यह कहना कि उन्होंने बचपन से ही साधना शुरु की थी और करीब तेईस साल की उम्र में आत्मसाक्षात्कार किया था- यह सब अपने मन को फुसलाने वाले कहानियाँ हैं। उनके विषय में कुछ भी कहना बहुत ज्यादती है। मौन ही यहाँ परम भाषण है। सारे विश्व की चेतना के साथ जिनकी एकता है उनको भला किस रीति से स्थूल सम्बन्धों और परिवर्तनशील क्रियाओं के साथ बाँधा जाये?

आज अमदावाद से करीब तीन-चार कि.मी. उत्तर में पवित्र सलिला साबरमती के किनारे तथा सूरत शहर से तीन-चार कि.मी. उत्तर में सूर्यपुत्री तापी के तट पर, ऋषि-मुनियों की तपोभूमि में धवल वस्त्रधारी परम पूज्यपाद संतश्री लाखों-लाखों मनुष्यों के जीवनरथ के पथ प्रदर्शक बने हुए हैं। कुछ ही साल पहले साबरमती की जो कोतरें डरावनी और भयावह थीं, आज वही भूमि लाखों लोगों के लिए परम आश्रय और आनन्ददाता तीर्थभूमि बन चुकी हैं। हर रविवार और बुधवार के दिन हजारों लोग अमदावाद तथा सूरत के आश्रम में आकर मस्त संतश्री के मुखारविन्द से निसृत अमृत वर्षा का लाभ पाते हैं। ध्यान और सत्संग का अमृतमय प्रसाद पाते हैं। बाद में पूज्यश्री की पावन कुटीर के सामने स्थित, मनोकामनाओं को सिद्ध करने वाले कल्पवृक्ष बड़ बादशाह की परिक्रमा करते हैं। एक सप्ताह के लिए एक अदम्य उत्साह और आनन्द भीतर भरकर लौट जाते हैं।

कुछ साधक पूज्य श्री के पावन सान्निध्य में आत्मोत्थान की ओर अग्रसर होते हुए स्थायी रूप से आश्रम में ही रहते हैं। इस आश्रम से थोड़ी ही दूरी पर स्थित महिला आश्रम में पूज्य माता जी की निगाहों में रहकर कुछ साधिकाएँ आत्मोत्थान के मार्ग पर चल रही हैं।

अमदावाद और सूरत के अलावा दिल्ली, आगरा, वृन्दावन, ऋषिकेश, इन्दौर, भोपाल, उज्जैन, रतलाम, जयपुर, पुष्कर, अजमेर, जोधपुर, आमेट, सुमेरपुर, सागवाड़ा, राजकोट, भावनगर, हिम्मतनगर, विसनगर, लुणावाड़ा, वलसाढ़, वापी, उल्हासनगर, औरंगाबाद, प्रकाशा, नासिक एवं छोटे मोटे कई स्थानों में भी मनोरम्य आश्रम बन चुके हैं और लाखों-लाखों लोग उनसे लाभान्वित हो रहे हैं। हर साल इन आश्रमों में मुख्य चार ध्यान योग साधना शिविर होते हैं। देश विदेश के कई साधक साधिकाएँ इन शिविरों में सम्मिलित होकर आध्यात्मिक साधना के राजमार्ग पर चल रहे हैं। उनकी संख्या दिनोंदिन विशाल हो रही है। पूज्यश्री का प्रेम, आनन्द, उत्साह और आश्वासन से भरा प्रेरक मार्गदर्शन एवं स्नेहपूर्ण सान्निध्य उनके जीवन को पुलकित कर रहा है।

किसी को पूज्यश्री की किताब मिल जाती है, किसी को पूज्यश्री के प्रवचन की टेप सुनने को मिल जाती है, किसी को टी.वी. एवं चैनलों पर पूज्यश्री का दर्शन सत्संग मिल जाता है, किसी को पूज्यश्री का आत्मिक प्रेम पाकर अनन्त विश्वचेतना के साथ तार जोड़ने की सदभागी हो जाता है। वह भी आध्यात्मिक साधना का मार्ग खुल जाने से आनन्द से भर जाता है पूज्य श्री कहते हैं- "तुम अपने को दीन हीन कभी मत समझो। तुम आत्मस्वरूप से संसार की सबसे बड़ी सत्ता हो। तुम्हारे पैरों तले सूर्य और चन्द्र सहित हजारों पृथ्वियाँ दबी हुई हैं। तुम्हें अपने वास्तिवक स्वरूप में जागने मात्र की देर है। अपने जीवन को संयम-नियम और विवेक-वैराग्य से भरकर आत्माभिमुख बनाओ। किसने तुम्हें दीन-हीन बनाये रखा है? किसने तुम्हें अज्ञानी और मूढ़ बनाये रखा है? मान्यताओं ने ही न? तो छोड़ दो उन दुःखद मान्यताओं को जाग जाओ अपने स्वरूप में। आपको मात्र जागना है... बस। इतना ही काफी है। आपके तीव्र पुरुषार्थ और सदगुरु के कृपा-प्रसाद से वह कार्य सिद्ध हो जाता है।"

श्री योग वेदान्त सेवा समिति

अमदावाद आश्रम

(अनुक्रम)

पुरुषार्थ परमदेव

श्री वशिष्ठ जी महाराज पुरुषार्थ की महिमा सुनाते हुए श्री राम चन्द्र जी से कह रहे हैं-

"हे मननकर्त्ताओं में श्रेष्ठ श्री राम ! जो जीव सत्संग करता है और सत्शास्त्र को भी विचारता है फिर भी पक्षी के समान संसार वृक्ष की ओर उड़ता है तो समझो उसका पूर्व का संस्कार बली है। इसलिए वह आत्मज्ञान में स्थिर नहीं हो सकता। यद्यपि पूर्व के संस्कार अन्यथा नहीं होते फिर भी जीव सत्संग करे और सत्शास्त्र का दृढ़ अभ्यास करे तो पूर्व के बली संस्कार को भी वह पुरुष प्रयत्न से जीत लेता है। पूर्व के संस्कार से दुष्कृत किया है और सुकृत करे तो पिछले का अभाव हो जाता है। यह पुरुष प्रयत्न से ही होता है।

(अनुक्रम)

पुरुषार्थ क्या है? उससे क्या पाना है?

ज्ञानवान जो संत हैं और सत्शास्त्र जो ब्रह्मविद्या है उसके अनुसार प्रयत्न करने का नाम पुरुषार्थ है और पुरुषार्थ से पाने योग्य आत्मज्ञान है जिससे जीव संसार समुद्र से पार होता है।

हे राम जी! जो कुछ सिद्ध होता है वह अपने पुरुषार्थ से ही सिद्ध होता है। दूसरा कोई दैव नहीं। जो लोग कहते हैं कि दैव करेगा, सो होगा, यह मूर्खता है। जिस अर्थ के लिए दृढ़ संकल्प के साथ पुरुषार्थ करे और उससे फिरे नहीं तो उसे अवश्य पाता है।

संतजन और सत्शास्त्र के उपदेशरूप उपाय से उसके अनुसार चित्त का विचरना पुरुषार्थ है और उससे इतर जो चेष्टा है उसका नाम उन्मत्त चेष्टा है। मूर्ख और पामर लोग उसी में अपना जन्म गँवा देते हैं। उन जैसे अभागों का संग करना यह अपने हाथों से अपने पैर में कुल्हाड़ी मारना है।

हे रघुकुलतिलक श्री राम ! केवल चैतन्य आत्मतत्त्व है। उसमें चित्त संवेदन स्पन्दनरूप है। यह चित्त-संवेदन ही अपने पुरुषार्थ से गरुड़ पर आरूढ़ होकर विष्णुरूप होता है और नारायण कहलाता है। यही चित्त-संवेदन अपने पुरुषार्थ से रूद्ररूप हो परमशान्तिरूप को धारण करता है। चन्द्रमा जो हृदय को शीतल और उल्लासकर्त्ता भासता है इसमें यह शीतलता पुरुषार्थ से हुई है। एक जीव पुरुषार्थ बल से ही त्रिलोकपति इन्द्र बनकर चमकता है और देवताओं पर आज्ञा चलाता है। मनुष्य तो क्या देवताओं से भी पूजा जाता है। कहाँ तो साधारण जीव और कहाँ त्रिलोकी में इन्द्रदेव बन कर पूजा जाना ! सब पुरुषार्थ की बलिहारी है।

बृहस्पति ने दृढ़ पुरुषार्थ किया इसलिए सर्वदेवताओं के गुरु हुए। शुक्रजी अपने पुरुषार्थ के द्वारा सब दैत्यों के गुरु हुए हैं। दीनता और दरिद्रता से पीड़ित नल और हरिश्चन्द्र जैसे महापुरुष पुरुषार्थ से ही सिद्ध होता है। पुरुषार्थ से जो सुमेरू का चूर्ण करना चाहो तो वो भी हो सकता है। अपने हाथ से जो चरणामृत भी नहीं ले सकता वह यदि पुरुषार्थ करे तो पृथ्वी को खण्ड-खण्ड करने में समर्थ हो जाता है। पुरुषार्थ करे तो पृथ्वी को खण्ड करने में समर्थ हो जाता है।

हे रामजी ! चित्त जो कुछ वांछा करता है और शास्त्र के अनुसार पुरुषार्थ नहीं करता सो सुख न पालेगा, क्योंकि उसकी उनुमत्त चेष्टा है।

पौरूष भी दो प्रकार का है। एक शास्त्र के अनुसार और दूसरा शास्त्रविरुद्ध।

जो शास्त्र को त्यागकर अपने इच्छा के अनुसार विचरता है सो सिद्धता न पावेगा और जो शास्त्र के अनुसार पुरुषार्थ करेगा वह सिद्धता को पावेगा। वह कदाचित दुःखी न होगा।

हे राम ! पुरुषार्थ ही परम देव है। पुरुषार्थ से ही सब कुछ सिद्ध होता है। दूसरा कोई दैव नहीं है। जो कहता है कि "जो कुछ करेगा सो देव करेगा।" वह मनुष्य नहीं गर्दभ है। उसका संग करना दुःख का कारण है।

मनुष्य को प्रथम तो यह करना चाहिए कि अपने वर्णाश्रम के शुभ आचारों को ग्रहण करे और अशुभ का त्याग करे। फिर संतों का संग और सत्शास्त्रों का विचार करे। अपने गुण और दोष भी विचारे कि दिन और रात्रि में अशुभ क्या है। फिर गुण और दोषों का साक्षी होकर संतोष, धैर्य, विराग, विचार और अभ्यास आदि गुणों को बढ़ावे और दोषों का त्याग करे। जीव जब ऐसे पुरुषार्थ को अंगीकार करेगा तब परमानन्दरूप आत्मतत्त्व को पावेगा।

वन का मृग घास, तृण और पत्तों को रसीला जानकर खाता है। विवेकी मनुष्य को उस मृग की भांति स्त्री, पुत्र, बान्धव, धनादि में मग्न नहीं होना चाहिए। इनसे विरक्त होकर, दाँत भीँचकर संसारसमुद्र से पार होने का पुरुषार्थ करना चाहिए। जैसे केसरी सिंह बल करके पिंजरे में से निकल जाता है वैसे ही संसार की कैद से निकल जाने का नाम पुरुषार्थ है। नश्वर चीजें बढ़ाकर, अहं को बढ़ाकर, चीख-चीखकर मर जाने का नाम पुरुषार्थ नहीं है।

एक भगतड़ा था सब देवी देवताओं का मानता था और आशा करता थाः "मुझे कोई मुसीबत पड़ेगी तब देवी देवता मेरी सहायता करेंगे।" शरीर से हट्टाकट्टा, मजबूत था। बैलगाड़ी चलाने का धन्ध करता था।

एक दिन उसकी बैलगाड़ी कीचड़ में फँस गई। वह भगतड़ा बैलगाड़ी पर बैठा-बैठा एक-एक देव को पुकारता था कि- 'हे देव! मुझे मदद करो। मेरी नैया पार करो। मैं दीन हीन हूँ। मैं निर्बल हूँ। मेरा जगत में कोई नहीं। मैं इतने वर्षों में तुम्हारी सेवा करता हूँ... फूल चढ़ाता हूँ... स्तुति भजन गाता हूँ। इसलिए गाता था कि ऐसे मौके पर तुम मेरी सहाय करो।"

इस प्रकार भगतड़ा एक-एक देव को गिड़गिड़ाता रहा। अन्धेरा उतर रहा था। निर्जन और सन्नाटे के स्थान में कोई चारा न देखकर आखिर उसने हनुमान जी को बुलाया। बुलाता रहा.... बुलाता रहा....। बुलाते-बुलाते अनजाने में चित्त शान्त हुआ। संकल्प सिद्ध हुआ। हनुमान जी प्रकट हुए। हनुमान जी को देखकर बड़ा खुश हुआ।

"और सब देवों को बुलाया लेकिन किसी ने सहायता नहीं की। आप ही मेरे इष्टदेव हैं। अब मैं आपकी ही पूजा करूँगा।"

हनुमान जी ने पूछाः "क्यों बुलाया है?"

भगतड़े ने कहाः "हे प्रभु ! मेरी बैलगाड़ी कीचड़ में फँसी है। आप निकलवा दो।"

पुरुषार्थमूर्ति हनुमान जी ने कहाः "हे दुर्बुद्धि ! तेरे अन्दर अथाह सामर्थ्य है, अथाह बल है। नीचे उतर। जरा पुरुषार्थ कर। दुर्बल विचारों से अपनी शक्तियों का नाश करने वाले दुर्बुद्धि ! हिम्मत कर नहीं तो फिर गदा मारूँगा।"

निदान, वह हट्टाकट्टा तो था ही। लगाया जोर पहिए को। गाड़ी कीचड़ से निकालकर बाहर कर दी।

हनुमान जी ने कहाः "यह बैलगाड़ी तो क्या, तू पुरुषार्थ करे तो जन्मों-जन्मों से फँसी हुई तेरी बुद्धिरूपी बैलगाड़ी संसार के कीचड़ से निकालकर परम तत्त्व का साक्षात्कार भी कर सकता है, परम तत्त्व में स्थिर भी हो सकता है।

तस्य प्रज्ञा प्रतिहिता

जैसे प्रकाश के बिना पदार्थ का ज्ञान नहीं होता उसी प्रकार पुरुषार्थ के बिना कोई सिद्धि नही होती। जिस पुरुष ने अपना पुरुषार्थ त्याग दिया है और दैव (भाग्य) के आश्रय होकर समझता है कि "दैव हमारा कल्याण करेगा" तो वह कभी सिद्ध नहीं होगा। पत्थर से कभी तेल नहीं निकलता, वैसे ही दैव से कभी कल्याण नहीं होता। वशिष्ठजी कितना सुन्दर कहते हैं !

"हे निष्पाप श्री राम ! तुम दैव का आश्रय त्याग कर अपने पुरुषार्थ का आश्रय करो। जिसने अपना पुरुषार्थ त्यागा है उसको सुन्दरता, कान्ति और लक्ष्मी त्याग जाती है।"

जिस पुरुष ने ऐसा निश्चय किया है कि 'हमारा पालने वाला दैव है' वह पुरुष है जैसे कोई अपनी भुजा को सर्प जानकर भय खा के दौड़ता है और दुःख पाता है।

पुरुषार्थ यही है कि संतजनों का संग करना और बोधरूपी कलम और विचाररूपी स्याही से सत्शास्त्रों के अर्थ को हृदयरूपी पत्र पर लिखना। जब ऐसे पुरुषार्थ करके लिखोगे तब संसार रूपी जालल में न गिरोगे। अपने पुरुषार्थ के बिना परम पद की प्राप्ति नहीं होती। जैसे कोई अमृत के निकट बैठा हो तो पान किये बिना अमर नहीं होता वैसे ही अमृत के भी अमृत अन्तर्यामी के पास बैठकर भी यदि विवेक.... वैराग्य जगाकर इस आत्मरस का पान नहीं करते तब तक अमर आनन्द की प्राप्ति नहीं होती।

हे राम जी ! अज्ञानी जीव अपना जन्म व्यर्थ खोते हैं। जब बालक होते हैं तब मूढ़ अवस्था में लीन रहते हैं, युवावस्था में विकार को सेवते हैं और वृद्धावस्था में जर्जरीभूत हो जाते हैं। जो अपना पुरुषार्थ त्याग कर दैव का आश्रय लेते हैं वे अपने हन्ता होते हैं। वे कभी सुख नहीं पाते। जो पुरुष व्यवहार और परमार्थ में आलसी होकर तथा पुरुषार्थ को त्याग कर मूढ़ हो रहे हैं सो दीन होकर पशुओं के सदृश दुःख को प्राप्त होते हैं।

पूर्व में जो कोई पाप किया होता है उसके फलस्वरूप जब दुःख आता है तब मूर्ख कहता है किः 'हा दैव....! हा दैव....!' उसका जो पूर्व का पुरुषार्थ है उसी का नाम दैव है, और कोई दैव नहीं। जो कोई दैव कल्पते हैं सो मूर्ख हैं। जो पूर्व जन्म में सुकृत कर आया है वही सुकृत सुख होकर दिखाई देता है। जो पूर्व जन्म मे दुष्कृत कर आया है वही दुष्कृत दुःख होकर दिखाई देता है। जो वर्त्तमान में शुभ का पुरुषार्थ करता, सत्संग और सत्शास्त्र को विचारता है, दृढ़ अभ्यास करता है वह पूर्व के दुष्कृत को भी जीत लेता है। जैसे पहले दिन पाप किया हो और दूसरे दिन बड़ा पुण्य करे तो पूर्व के संस्कार को जीत लेता है। जैसे बड़े मेघ को पवन नाश करता है, वर्षा के दिनों में पके खेत को ओले नष्ट कर देते हैं वैसे ही पुरुष का वर्त्तमान प्रयत्न पूर्व के संस्कारों को नष्ट करता है।

हे रघुकुलनायक ! श्रेष्ठ पुरुष वही है जिसने सत्संग और सत्शास्त्र द्वारा बुद्धि को तीक्ष्ण करके संसार-समुद्र से तरने का पुरुषार्थ किया है। जिसने सत्संग और सत्शास्त्र द्वारा बुद्धि तीक्ष्ण नहीं की और पुरुषार्थ को त्याग बैठा है वह पुरुष नीच से नीच गति को पावेगा। जो श्रेष्ठ पुरुष है वे अपने पुरुषार्थ से परमानन्द पद को पावेंगे, जिसके पाने से फिर दुःखी न होंगे। देखने में जो दीन होता है वह भी सत्शास्त्रानुसार पुरुषार्थ करता है तो उत्तम पदवी को प्राप्त होता है। जैसे समुद्र रत्नों से पूर्ण है वैसे ही जो उत्तम प्रयत्न करता है उसको सब सम्पदा आ प्राप्त होती है और परमानन्द से पूर्ण रहता है।

हे राम जी ! इस जीव को संसार रूपी विसूचि का रोग लगा है। उसको दूर करने का यही उपाय है कि संतजनों का संग करे और सत्शास्त्रों में अर्थ में दृढ़ भावना करके, जो कुछ सुना है उसका बारंबार अभ्यास करके, सब कल्पना त्याग कर, एकाग्र होकर उसका चिन्तन करे तब परमपद की प्राप्ति होगी और द्वैत भ्रम निवृत्त होकर अद्वैतरूप भासेगा। इसी का नाम पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ के बिना पुरुष को आध्यात्मिक आदि ताप आ प्राप्त होते हैं और उससे शान्ति नहीं पाता।

हे रामजी ! तुम भी रोगी न होना। अपने पुरुषार्थ के द्वारा जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होना। कोई दैव मुक्ति नहीं करेगा। अपने पुरुषार्थ के द्वारा ही संसारबन्धन से मुक्त होना है। जिस पुरुष ने अपने पुरुषार्थ का त्याग किया है, किसी और को भाग्य मानकर उसके आश्रय हुआ है उसके धर्म, अर्थ और काम सभी नष्ट हो जाते हैं। वह नीच से नीच गति को प्राप्त होता है। जब किसी पदार्थ को ग्रहण करना होता है तो भुजा पसारने से ही ग्रहण करना होता है और किसी देश को जाना चाहे तो वह चलने से ही पहुँचता है, अन्यथा नहीं। इससे पुरुषार्थ बिना कुछ सिद्ध नहीं होता। 'जो भाग्य में होगा वही मिलेगा' ऐसा जो कहता है वह मूर्ख है। पुरुषार्थ ही का नाम भाग्य है। 'भाग्य' शब्द मूर्खों का प्रचार किया हुआ है।

हे अनघ ! जिस पुरुष ने संतों और शास्त्रों के अनुसार पुरुषार्थ नहीं किया उसका बड़ा राज्य, प्रजा, धन और विभूति मेरे देखते ही देखते क्षीण हो गई और वह नरक में गया है। इससे मनुष्य को सत्शास्त्रों और सत्संग से शुभ गुणों को पुष्ठ करके दया, धैर्य, संतोष और वैराग्य का अभ्यास करना चाहिए। जैसे बड़े ताल से मेघ पुष्ट होता है और फिर मेघ वर्षा करके ताल को पुष्ट करता है वैसे ही शुभ गुणों से बुद्धि पुष्ट होती है और शुद्ध बुद्धि से गुण पुष्ट होते हैं।

हे राघव ! शुद्ध चैतन्य जो जीव का अपना आप वास्तवरूप है उसके आश्रय जो आदि चित्त-संवेदन स्फुरता है सो अहं-ममत्व संवेदन होकर फुरने लगता है। इन्द्रियाँ भी अहंता से स्फुरती हैं। जब यह स्फुरता संतों और शास्त्रों के अनुसार हो तब पुरुष परम शुद्धि को प्राप्त होता है और जो शास्त्रों के अनुसार न हो तो जीव वासना के अनुसार भाव-अभावरूप भ्रमजाल में पड़ा घटीयंत्र की नाई भटककर कभी शान्तिमान नहीं होता। अतः हे राम जी ! ज्ञानवान पुरुषों और ब्रह्मविद्या के अनुसार संवेदन और विचार रखना। जो इनसे विरुद्ध हो उसको न करना। इससे तुमको संसार का राग-द्वेष स्पर्श न करेगा और सबसे निर्लेप रहोगे।

हे निष्पाप श्रीराम ! जिन पुरुष से शांति प्राप्त हो उनकी भली प्रकार सेवा करनी चाहिए, क्योंकि उनका बड़ा उपकार है कि वे संसार समुद्र से निकाल लेते हैं। संतजन और सत्शास्त्र भी वे ही हैं जिनकी संगति और विचार से चित्त संसार से उपराम होकर उनकी ओर हो जाये। मोक्ष का उपाय वही है जिससे जीव और सब कल्पना को त्याग कर अपने पुरुषार्थ को अंगीकार करे और जन्म मरण का भय निवृत्त हो जाये।

जीव जो वांछा करता है और उसके निमित्त दृढ़ पुरुषार्थ करता है तो अवश्य वह उसको पाता है। बड़े तेज और विभूति से सम्पन्न जो देखा और सुना जाता है वह अपने पुरुषार्थ से ही हुआ है और जो महा निकृष्ट सर्प, कीट आदि तुमको दृष्टि में आते हैं उन्होंने अपने पुरुषार्थ का त्याग किया है तभी ऐसे हुए हैं।

हे रामजी ! अपने पुरुषार्थ का आश्रय करो नहीं तो सर्प, कीटादिक नीच योनि को प्राप्त होंगे। जिस पुरुष ने अपने पुरुषार्थ त्यागा है और किसी दैव का आश्रय लिया है वह महामूर्ख है। यह जो शब्द है कि "दैव हमारी रक्षा करेगा" सो किसी मूर्ख की कल्पना है। हमको दैव का आकार कोई दृष्टि नहीं आता और न दैव कुछ करता ही है। क्योंकि अग्नि में जा पड़े और दैव निकाल ले तब जानिये कि कोई देव भी है, पर सो तो नहीं होता। स्नान, दान, भोजन आदि को त्याग करके चुप हो बैठे और आप ही दैव कर जावे सो भी किये बिना नहीं होता। जीव का किया कुछ नहीं होता और दैव ही करने वाला होता तो शास्त्र और गुरु का उपदेश भी नहीं होता।

हे राघव ! जीव जब शरीर को त्यागता है और शरीर नष्ट हो जाता है, तब जो दैव होता तो चेष्टा करता, पर सो तो चेष्टा कुछ नहीं होती। इससे जाना जाता है कि दैव शब्द व्यर्थ है। पुरुषार्थ की वार्ता अज्ञानी जीव को भी प्रत्यक्ष है कि अपने पुरुषार्थ बिना कुछ नहीं होता । गोपाल भी जानता है कि मैं गौओं को न चराऊँ तो भूखी रहेंगी। इससे वह और दैव के आश्रय नहीं बैठता। आप ही चरा ले आता है। दैव यदि पढ़े बिना पण्डित करे तो जानिये कि दैव ने किया, पर पढ़े बिना पण्डित तो नहीं होता। जो अज्ञानी ज्ञानवान होते हैं सो भी अपने पुरुषार्थ से ही होते हैं। ये जो विश्वामित्र है, इन्होंने दैव शब्द दूर से ही त्याग दिया है और अपने पुरुषार्थ से ही क्षत्रिय से ब्राह्मण हुए हैं।

यदि कुछ पुरुषार्थ न किया होता तो पाप करने वाले नरक न जाते और पुण्य करने वाले स्वर्ग न जाते। पर सो तो होता नहीं। जो कोई ऐसा कहे कि कोई दैव करता हैं तो उसका सिर काटिये तब वह दैव के आश्रय जीता रहे तो जानिये कि कोई दैव है, पर सो तो जीता नहीं। इससे हे रामजी ! दैव शब्द मिथ्या भ्रम जानकर संतजनों और सत्शास्त्रों के अनुसार अपने पुरुषार्थ से आत्मपद में स्थित हो।"

रामजी ने पूछाः "हे सर्वधर्म के वेत्ता ! आप कहते हैं कि दैव कोई नहीं परन्तु इस लोक में प्रसिद्ध है कि ब्रह्मा दैव हैं और दैव का किया सब कुछ होता है।"

वशिष्ठजी बोलेः "हे प्रश्नकर्ताओं में श्रेष्ठ श्रीराम ! मैं तुम्हें इसलिए कहता हूँ कि तुम्हारा भ्रम निवृत्त हो जाए। अपने किये हुए शुभ अथवा अशुभ कर्म का फल अवश्यमेव भोगना पड़ता है। उसे दैव कहो या पुरुषार्थ कहो। इसके अतिरिक्त और कोई दैव नहीं है। मूर्खों को कहनाने के निमित्त दैव शब्द कहा है। जैसे आकाश शून्य है वैसे दैव भी शून्य है।"

फिर रामजी बोलेः "भगवन ! आप कहते हैं कि दैव कोई नहीं और आकाश की नाईं शून्य है सो आपके कहने से भी दैव सिद्ध होता है। जगत में दैव शब्द प्रसिद्ध है।

वशिष्ठजी बोलेः "हे राम जी ! मैं इसलिए तुम्हें कहता हूँ कि जिससे दैव शब्द तुम्हारे हृदय से उठ जाये। दैव नाम पुरुषार्थ का है, पुरुषार्थ कर्म का नाम है और कर्म नाम वासना का है। वासना मन से होती है और मनरूपी पुरुष जिसकी वासना करता है सोई उसको प्राप्त होता है।  जो गाँव को प्राप्त होने की वासना करता है सो गाँव को प्राप्त होता है और घाट की वासना करता है तो घाट को प्राप्त होता है।

पूर्व का जो शुभ अशुभ दृढ़ पुरुषार्थ किया है उसका परिणाम सुख-दुःख से अवश्य होता है और उसी पूर्व के पुरुषार्थ का नाम दैव है। जीव जो पाप की वासना और शास्त्रविरुद्ध कर्म करता है सो क्यों करता है? पूर्व के दृढ़ कुसंस्कारों से ही पाप करता है। जो पूर्व का पुण्यकर्म किया होता तो शुभ मार्ग में विचरता।"

रामजी ने पूछाः "हे संशयरूपी कोहरे के नाशकर्ता सूर्य ! जो जीव सोचता है कि, पूर्व की दृढ़ वासना के अनुसार मैं विचरता हूँ। अब मैं क्या करूँ? मुझको पूर्व की वासना ने दीन किया है। तो ऐसे जीव को क्या करना चाहिए?"

वशिष्ठजी बोलेः "हे रघुकुलभूषण राम ! जीव पूर्व की दृढ़ वासना के अनुसार विचरता है पर जो श्रेष्ठ मनुष्य है सो अपने पुरुषार्थ से पूर्व के मलिन संस्कारों को शुद्ध करता है। जब तुम सत्शास्त्रों और ज्ञानवानों के वचनों के अनुसार दृढ़ पुरुषार्थ करोगे तब मलिन वासना दूर हो जायेगी। पूर्व के शुभ और मलिन संस्कारों को कैसे जानिये, सो सुनो।

जो चित्त विषय और शास्त्रविरुद्ध मार्ग की ओर जावे, शुभ की ओर न जावे तो जानिये कि कोई पूर्व का कोई मलिन कर्म है। जो चित्त संतजनों और सत्शास्त्रों के अनुसार चेष्टा करे और संसारमार्ग से विरक्त हो तो जानिये कि पूर्व का कोई शुभ कर्म है।

हे राम जी ! यदि पूर्व का संस्कार शुद्ध है तो तुम्हारा चित्त सत्संग और सत्शास्त्रों के वचनों को ग्रहण करके शीघ्र आत्मपद को प्राप्त होगा और जो तुम्हारा चित्त शुभ मार्ग में स्थिर नहीं हो सकता तो दृढ़ पुरुषार्थ करके संसार समुद्र से पार हो। तुम चैतन्य हो, जड़ तो नहीं हो। अपने पुरुषार्थ का आश्रय करो। मेरा यही आशीर्वाद है कि तुम्हारा चित्त शीघ्र ही शुद्ध आचरण और ब्रह्मविद्या के सिद्धान्तासार में स्थित हो।

हे राम जी ! श्रेष्ठ पुरुष वही है जिसका पूर्व का संस्कार यद्यपि मलिन भी था, लेकिन संतों और सत्शास्त्रों के अनुसार दृढ़ पुरुषार्थ करके सिद्धता को प्राप्त हुआ है। मूर्ख जीव वह है जिसने अपना पुरुषार्थ त्याग दिया है और संसार मुक्त नहीं होता। पूर्व का जो कोई पापकर्म किया जाता है उसकी मलिनता से पाप में दौड़ता है और अपना पुरुषार्थ त्यागने से अन्धा होकर विशेष दौड़ता है।

जो श्रेष्ठ पुरुष है उसको यह करना चाहिए कि प्रथम पाँचों इन्द्रियों को वश में करे, फिर शास्त्र के अनुसार उनको बर्तावे और शुभ वासना दृढ़ करे, अशुभ वासना का त्याग करे। यद्यपि दोनों वासनाएँ त्यागनीय हैं, पर प्रथम शुभ वासना को इकटठी करे और अशुभ का त्याग करे। जब शुद्ध होगा तब संतों का विचार उत्पन्न होगा। उससे आत्मज्ञान की प्राप्ति होगी। उस ज्ञान के द्वारा आत्म-साक्षात्कार होगा। फिर क्रिया और ज्ञान का भी त्याग हो जायेगा। केवल शुद्ध  अद्वैतरूप अपना आप शेष भासेगा।

हे राम जी ! मेरे ये वचनों को तुम ग्रहण करो। ये वचन बान्धव के समान हैं। ये तुम्हारे परम मित्र होंगे और दुःख से तुम्हारी रक्षा करेंगे। यह चित्त जो संसार के भोग की ओर जाता है उस भोग रूपी खाई में उसे गिरने मत दो। भोग को त्याग दो। यह त्याग तुम्हारा परम मित्र होगा। और त्याग भी ऐसा करो कि फिर उसका ग्रहण न हो। इससे परमानन्द की प्राप्ति होगी।

प्रथम शम और दम को धारण करो। सम्पूर्ण संसार की वासना त्याग करके उदारता से तृप्त रहने का नाम शम है और बाह्य इन्द्रियों को वश में करने का नाम दम है। जब प्रथम इन शम-दम को धारण करोगे तब परम तत्त्व का विचार आप ही उत्पन्न होगा और विचार से विवेक द्वारा परमपद की प्राप्ति होगी, जिस पद को पाकर फिर कदाचित दुःख न होगा और अविनाशी सुख तुम को प्राप्त होगा। इसलिए इस मोक्ष उपाय संहिता के अनुसार दृढ़ पुरुषार्थ करो तब आत्मपद को प्राप्त होगे।"

(अनुक्रम)

संकल्पबल के सितारे

महाकवि कालिदास

संस्कृत साहित्य के भास्कर महाकवि कालिदास जिस प्रकार महाकवि बने यह एक प्रचंड पुरुषार्थ और दृढ़ संकल्पबल की गाथा है।

विद्योतमा नाम की एक राजकुमारी बहुत विद्वान थी। उसने घोषणा की थी कि जो पुरुष मुझे शास्त्रार्थ में हरा देगा उसी के साथ मैं शादी करूँगी, अन्य किसी के साथ नहीं। इस रूप लावण्यवती विद्वान राजकुमारी को प्राप्त करने के लिए कितने ही राजकुमार आये। अब राजकुमार क्या शास्त्रार्थ करेंगे ! अपना सा मुँह लेकर वापस लौट गये। विद्वानों के युवान पुत्र भी शास्त्रार्थ करने आये लेकिन राजकुमारी ने सब को हरा दिया।

सब थके। विद्वान पण्डितों के पुत्र भी अपमानयुक्त पराजय पाकर आये यह देखकर पण्डितों के अहं को चोट लगी। उनको गुस्सा आया किः "एक कन्या ने, अबला स्त्री ने हमारे पुत्रों को हरा दिया ! उस राजकुमारी को हम सब सबक सिखाकर ही रहेंगे।"

सब पण्डितों ने मिलकर एक षडयन्त्र रचा। निर्णय किया कि उस गर्वित राजकुमारी की शादी किसी मूर्ख के साथ करा दें तभी हम पण्डित पक्के।

उन्होंने खोज लिया एक मूर्ख.... महामूर्ख। पेड़ पर चढ़कर जिस डाल पर खड़ा था उसी डाल को उसके मूल से काट रहा था। उससे बड़ा मूर्ख और कौन हो सकता है? पण्डितों ने सोचा कि यह दूल्हा ठीक है। राजकुमारी की शादी इसके साथ करा दें। उन्होंने उससे कहाः "हम तेरी शादी राजकुमारी के साथ करा देते हैं लेकिन एक शर्त है। तुम्हें मौन रहना होगा। कुछ बोलना नहीं। बाकी हम सब संभाल लेंगे।"

विद्वानों की सभा में मूर्खों का मौन ही उचित है... और भगवान की भक्ति के लिए सबका मौन आवश्यक है।

पण्डित लोग उस मूर्ख को ले गये। एक विद्वान के योग्य वस्त्र पहना दिये। जो कुछ वेशभूषा करनी थी, करा दी। उसे बड़ा मौनी गुरु होने का ढोंग रचा कर राजकुमारी के पास ले गये और कहाः

"हमारे गुरु जी आपके साथ शास्त्रार्थ करना चाहते हैं, परन्तु वे मौन रहते हैं। आप में हिम्मत हो तो मौन इशारों से प्रश्न पूछो और इशारों से दिये जाने वाले उत्तर समझो। उनके साथ यदि शास्त्रार्थ नहीं करोगी तो हम समझेंगे कि तुम कायर हो।"

राजकुमारी के लिए यह चुनौती थी। उसको हाँ कहना पड़ा। पण्डितों की सभा मिली। इस अभूत पूर्व शास्त्रार्थ देखने सुनने के लिए भीड़ इकट्ठी हो गई। पण्डित लोग इन मौनी गुरु के कई शिष्य होने का दिखावा करके उनको मानपूर्वक सभा में ले आये और ऊँचे आसन पर बिठा दिया।

बिना वाणी का शास्त्रार्थ शुरु हुआ। राजकुमारी ने गुरु जी को एक उँगली दिखाई। गुरु जी समझे कि यह राजकुमारी मेरी एक आँख फोड़ देना चाहती है। उन्होंने बदले में दो उँगलियाँ दिखाई कि तू मेरी एक फोड़ेगी तो मैं तेरी दो फोड़ूँगा।

पण्डितों ने अपने गुरुजी की भाषा का अर्थघटन करते हुए राजकुमारी से कहाः "आप कहते हैं कि ईश्वर एक है हमारे गुरु जी कहते हैं कि एक ईश्वर से यह जगत नहीं बनता। ईश्वर और ईश्वर की शक्ति माया, पुरुष और प्रकृति इन दो से जगत भासता है।"

बात युक्तियुक्त और शास्त्रसम्मत थी। राजकुमारी कबूल हुई। फिर उसने दूसरा प्रश्न करते हुए हाथ का पंजा दिखाया। मूर्ख समझा कि यह राजकुमारी 'थप्पड़ मारूँगी' ऐसा मुझे कहती है। उसने मुट्ठी बन्द करके घूँसा दिखायाः "यदि तू मुझे थप्पड़ मारेगी तो मैं तुझे घूँसा मारूँगा, नाक कुचल दूँगा।''

पण्डितों ने राजकुमारी से कहाः "आप कहती हैं कि पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। हमारे गुरुजी कहते हैं कि उन पाँचों इन्द्रियों को सिकुड़ने से परमात्मा मिलते हैं।"

फिर राजकुमारी ने सात उँगलियाँ दिखाईं। मूर्ख ने उस संख्या को बढ़ाकर नव ऊँगलीयाँ दिखाईं। प्रश्न से उत्तर सवाया होना चाहिए न? पण्डितों ने राजकुमारी से कहाः "आप सात उँगलियों के द्वारा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि, इस प्रकार सात की संख्या बताती हैं। हमारे गुरुजी कहते हैं कि उसके साथ चित्त और अहंकार भी गिनने चाहिए। इस प्रकार सब मिलाकर नौ होते हैं।"

राजकुमारी ने जिह्वा दिखाई। मूर्ख ने मुँह पर हाथ धर दियाः ''यदि तू जिह्वा दिखाएगी तो मैं तेरा मुँह बन्द कर दूँगा।"

आप कहती हैं जिह्वा से बोला जाता है लेकिन हमारे गुरुजी कहते हैं कि वाणी का संयम करने से शक्ति बढ़ती है। बोलने से परमात्मा नहीं मिलते। मौन का अभ्यास चाहिए, अन्तर्मुख होने का अभ्यास होना चाहिए, जिह्वा को छिपाने का अभ्यास चाहिए। व्यर्थ बोलने वाले को जूते खाने पड़ते है।

इस प्रकार संस्कृत के विद्वानों की सभा में शास्त्रार्थ हुआ। पण्डितों ने अपने महाविद्वान गुरुजी के मौन इशारों का अर्थघटन शास्त्रोक्त विचारधारा के अनुसार करके दिखाया। उनकी शास्त्र सम्मत और युक्तियुक्त बातें राजकुमारी को माननी पड़ीं। उस मूर्ख के साथ राजकुमारी की शादी हो गई।

रात्री हुई। दोनों महल में गये। राजकुमारी ने खिड़की से बाहर झाँका तो बाहर ऊँट खड़ा था। उसने अपने पतिदेव से संस्कृत में पूछाः "यह क्या है?" संस्कृत में ऊँट को ऊष्ट्र कहते हैं। मूर्ख उस शब्द को क्या जाने? राजकुमारी समझ गई कि यह तो मूर्ख है। धक्का देकर घर से बाहर निकाल दिया और बोलीः

"मूर्ख ! तू मेरा पति कैसे हो सकता है? जा विद्वान होकर ही मुँह दिखाना। शादी तो हो गई। मैं दूसरी शादी नहीं कर सकती। लेकिन विद्वान होकर आयेगा तभी स्वीकार करूँगी।

युवक को चोट लग गई। वह जंगल में चला गया। उसने निश्चय किया कि वह संस्कृत का महान विद्वान होकर ही रहूँगा।

अचल संकल्पबल के आगे प्रतिकूलताएँ क्या टिकेगी? उपासना-आराधना करते-करते उसकी कुण्डलिनी शक्ति जागृत हुई, काली के दर्शन हुए। चित्त में सात्विकता और संकल्पबल हो तो काली माता भी आयेगी और कृष्ण भी आयेंगे। जिसके आधार पर सब आकर्षित होकर आते हैं वह आत्मज्ञान पाने के लिए भी चित्त की शुद्धि चाहिए।

चित्त शुद्ध होते ही देवी प्रकट हुई और उस संकल्पवान युवक को वरदान दिया किः "जा बेटा ! तू महान विद्वान होगा, महाकवि के रूप में प्रसिद्ध होगा।"

माँ काली प्रसन्न हो जाये फिर क्या कमी रहे? जो पढ़े वह याद रह जाये। जिस प्रकार ज्ञानी को जो दिखे सो ब्रह्म। अज्ञानी को जो दिखे वह मेरा.... मेरा.... तेरा पराया...  और ज्ञानी को जो दिखे वह ब्रह्मस्वरूप। उसी प्रकार उस युवक को जो दिखे, जो पढ़ने में आये वह उसका हो जाये। उसके ऊपर अपना अधिकार हो जाए।

ऐसे करते-करते वह युवक महान विद्वान हो गया। इतना महान विद्वान हुआ कि उसने संस्कृत में रघुवंश महाकाव्य लिखा। महाकवि कालिदास उसका नाम पड़ा। महाकवि कालिदास ने शाकुन्तलम् नाटक लिखा। और भी अनेक संस्कृत रचनाएँ उन्होंने लिखी हैं। विदेशी भाषाओं में उनके अनुवाद हुए हैं।

जर्मनी के गेटे नामक एक प्रसिद्ध कवि ने जब महाकवि कालिदास का 'शाकुन्तलम्' नाटक पढ़ा तब वह इतना प्रसन्न हो गया कि नाटक सिर पर रखकर खुल्ली सड़कों पर नाचने लगा। ऐसा शाकुन्तलम् नाटक महामूर्ख में महा विद्वान, महाकवि बने हुए कालिदास द्वारा लिखा गया।

महापुरुष व्यक्ति को भी जब दिल में चोट लग जाती है और सीना तान कर पुरुषार्थ करने लग जाता है तब उसकी सम्पूर्ण चेतना उस दिशा में मुड़ जाती है। वह चेतना प्रयत्नशील और दृढ़संकल्पवान को महामूर्ख में से महाकवि बना देती है।

साधक भी यदि पूर्ण उत्साह के साथ आत्मस्वरूप को पहचानने में अपनी पूरी चेतना लगा दे तो जिसमें हजारों कालिदास जैसे उत्पन्न होकर विलीन हो गये उस परमात्मा का साक्षात्कार कर सके।

चातक मीन पतंग जब पिय बिन नहीं रह पाय।

साध्य को पाये बिना साधक क्यों रह जाय।।

मनुष्य जीवन घड़ाई के लिए ही है। उसको आकार देने वाले कोई सदगुरु मिल जायें। बस फिर तुम्हें मोम जैसे नर्म बनना है। सदगुरु अपना कार्य करके ही रहेंगे। उनकी कृपा किसी से बाधित नहीं होती। उनके द्वारा अनुशासित होने का उत्साह हममें होना चाहिए।

(अनुक्रम)

वेलिंग्टन

कोई वस्तु स्थिति ऐसी नहीं है जो संकल्पबल और पुरुषार्थ के द्वारा प्राप्त न हो सके। स्कूल से भागा हुआ वेलिंग्टन नाम का एक किशोर लंडन की गलियों से गुजरता हुआ एक सरकारी उद्यान में जा पहुँचा। इतने में ऊँचे टावर की घंटी बजीः 'टन...टन...टन...!' वह किशोर टावर के उस नाद के साथ ताल मिलाकर गाने लगाः 'टन...टन...वेलिंग्टन.... लोर्ड मेयर ऑफ लंडन...!' स्वाभाविक मस्ती में ही गा रहा था। अचानक उसे ख्याल आया किः 'मैं गलियों में भटकता, अनजान, अपरिचित लड़का इतने बड़े लंडन शहर का मेयर? How is it possible? यह कैसे संभव है?

तुरन्त उसके आन्तर मन में से दृढ़ता का सुर सुनाई पड़ाः ‘Why not?’ क्यों नहीं? जंगल की झाड़ियों में जन्म लेने वाला लिंकन यदि अमेरिका का राष्ट्रप्रमुख बन सकता है तो मैं इस छोटे से लंडन शहर का मेयर क्यों नहीं बन सकता? ज़रूर बन सकता हूँ। मेयर होने के लिए जो सदगुण चाहिए, जो शक्ति चाहिए, जो योग्यता चाहिए, जो कार्यक्षमता चाहिए, जो परदुःखभंजनता चाहिए वह सब मैं विकसित करूँगा। ये सब गुण मेरे जीवन में आत्मसात् करूँगा और मेयर बनूँगा।'

उसने संकल्प और पुरुषार्थ का समन्वय किया। आखिर वह लंडन का मेयर होकर ही रहा।

वेलिंग्टन लंडन का मेयर बन सका, तीव्र संकल्प के बल पर। उसके संकल्प की शक्ति उसे किसी भी परिस्थिति के योग्य बना सके ऐसी थी। यदि उसके टावर के नाद में टन...टन.... वेलिंग्टन.... एन्जल ऑफ गॉड (ईश्वर का दूत).. सुनाई दिया होता तो वह केवल लंडन का मेयर ही नहीं, पूरे विश्व का प्रेमपूर्ण बिनहरीफ मेयर बन गया होता। मन एक महान कल्पवृक्ष है इस बात का ख्याल अवश्य रखना।

(अनुक्रम)

हेनरी कैझर

ऐसा ही दूसरा किशोर हेनरी कैझर जब तेरह वर्ष की उम्र में नौकरी की तलाश में निकला था तो कोई उसे नौकरी नहीं देता था। सब उसे दुत्कार देते, निकम्मा जानकर तिरस्कार करते। तब उस किशोर ने मन ही मन महान उद्योगपति बनने का दृढ़ संकल्प किया। प्रचंड हिम्मत और अथक पुरुषार्थ से अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए कमर कस ली। एक दिन वह महान उद्योगपति बना ही। 58 वर्ष की उम्र में उसका औद्योगिक साम्राज्य 50 देशों में फैल चुका था। 90 हजार लोग उसमें काम करते थे। उसका वार्षिक उत्पादन 1500 करोड़ रुपये था। यह है संकल्पशक्ति और पुरुषार्थ का जीवन्त प्रमाण।

उस हेनरी कैझर को 13 वर्ष की उम्र में नौकरी की ठोकर लगने के बदले आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए ब्रह्मवेत्ता सदगुरु का इशारा मिल गया होता तो वह कितनी ऊँचाई पर पहुँचा होता? आत्मज्ञान के विरल पथ पर यदि वह चला होता तो सिर्फ 50 देशों में ही नहीं बल्कि अनंत ब्रह्मांडों में उसकी आत्मा का साम्राज्य होता। केवल 90 हजार ही नहीं बल्कि समग्र विश्व के लोग उसके साम्राज्य में मात्र आय ही नहीं लेकिन आत्मशांति को उपलब्ध होते और 1500 करोड़ रूपये ही नहीं, पूरे विश्व के समग्र उत्पादन पर उसकी आत्मसत्ता की मुहर लगी होती। यदि परिश्रम करना ही है तो नश्वर चीजों के लिए क्यों करे? हमारी दृढ़ संकल्पशक्ति को स्थूल जगत के नश्वर भोग एवं अहं-पोषक सत्ताओं के पीछे नष्ट न करें किन्तु परम सत्य का साक्षात्कार करने में लगायें।

(अनुक्रम)

नेपोलियन बोनापार्ट

नेपोलियन बोनापार्ट एक गरीब कुटुंब में जन्मा था। एक साधारण सैनिक की हैसियत से नौकरी का प्रारम्भ किया। दृढ़ संकल्पबल और पुरुषार्थ से एक दिन फ्राँस का शहंशाह बन गया। 15 वर्ष तक समग्र यूरोप पर चक्रवर्ती शासन किया वह कौन सी शक्ति के आधार पर? वह शक्ति थी प्रबल पुरुषार्थ और दृढ़ संकल्प। दृढ़ संकल्पबल उसका जीवनमंत्र था। वह कहताः

"Nothing is impossible to a willing mind. इच्छाशक्ति वाले के लिए कुछ भी असंभव नहीं है।"

"Impossible is a word to be found in the dictionary of fools. 'असंभव' शब्द मूर्ख लोगों के शब्दकोष में से मिले ऐसा शब्द है।

नेपोलियन तो यहाँ तक कहता था किः "Impossible is not a French Word. 'असंभव' शब्द फ्रेन्च भाषा का शब्द नहीं है।"

नेपोलियन के पास दृढ़संकल्पबल और अथाह मनोबल था। उसकी वजह से वह एक साधारण सैनिक में से नेपोलियन बोनापरार्ट बन गया। परन्तु उसके जीवन के उषःकाल में ही उसे यदि कोई संत मिल गये होते और उसको अध्यात्म के शिखर पर पहुँचने का ध्येय सिखाया होता तो क्या वह समग्र विश्व का 'आत्म-सम्राट' न बन गया होता? अवश्य बन गया होता। (अनुक्रम)

रणजीत सिंह

पंजाबकेसरी रणजीत सिंह के बचपन की यह बात है। उनके पिता महासिंह के पास एक जौहरी जवाहरात लेकर आया। राजा, रानी और राजकौर जवाहरात देखने बैठे। जौहरी उत्साहपूर्वक एक के बाद एक चीज दिखाता। इतने में बाल कुमार का आगमन हुआ। लाडले कुमार ने कहाः

"पिता जी ! मेरे लिए भी हीरे की एक अंगूठी बनवाओ न ! मेरी इस उँगली पर वह शोभायमान होगी।"

पिता का प्रेम उमड़ पड़ा। रणजीत सिंह को आलिंगन देते हुए वे बोलेः "मेरा पुत्र ऐसे साधारण हीरे क्यों पहने? ये हीरे तो साधारण हैं।"

राजकौर ने पूछाः "तो फिर आपका इकलौता बेटा कैसे हीरे पहनेगा?"

महासिंह ने कोई दृढ़ स्वर से कहाः "कोहीनूर।"

राजकौर ने पूछाः "कोहीनूर अब कहाँ है पता है?"

महासिंहः "हाँ। अभी वह कोहीनूर अफगानिस्तान के एक अमीर के पास है। मेरा लाल तो वही हीरा पहनेगा। क्यों बेटा पहनेगा न?"

रणजीत सिंह ने सिर हिलाकर कहाः "जी पिता जी ! ऐसे साधारण हीरे कौन पहने? मैं तो कोहीनूर ही पहनूँगा।"

......और आखिर रणजीत सिंह कोहीनूर पहन कर ही रहे।

पिता ने यदि इस बालक के चित्त में संत होने के या परमात्मप्राप्ति करने के उच्च संस्कार डाले होते तो वह महत्वाकांक्षी और पुरुषार्थी बालक मात्र पंजाब का स्वामी ही नहीं बल्कि लोगों के हृदय का स्वामी बना होता। लोगों के हृदय का स्वामी तो बने या नहीं बने लेकिन अपने हृदय का स्वामी तो बनता ही। ..... और अपने हृदय का स्वामी बनने जैसा, अपने मन का स्वामी बनने जैसा बड़ा कार्य जगत में और कोई नहीं है। क्योंकि यही मन हमें नाच नचाता हैं, इधर उधर भटकाता है। अतः उठो जागो। अपने मन के स्वामी बन कर आत्मतत्त्वरूपी कोहीनूर धारण करने की महत्त्वाकांक्षा के साथ कूद पड़ों संसार-सागर को पार करने के लिए।

(अनुक्रम)

विनोबा भावो

तुम जानते हो कि विनोबा भावे संत कैसे बने? उनके बचपन का एक प्रसंग है।

गली के बच्चे इकट्ठे हुए थे। बात चली कि हरेक के परिवार में कौन-कौन संत हो गये। हरेक बालक ने अपनी पीढ़ी के किसी पूर्वज का नाम बताया। विनोबा की बारी आई। वे कुछ न बोल पाये। उनकी पीढ़ी में कोई संत नहीं हुआ था। उन्होंने मन ही मन निश्चय किया और जाहिर भी किया किः "हमारी पीढ़ी में कोई संत नहीं हुआ है तो मैं स्वयं संत होकर दिखाऊँगा।

अपने संकल्प की सिद्धि के लिए उन्होंने प्रचंड पुरुषार्थ का प्रारम्भ कर दिया। लग गये अपना लक्ष्य हासिल करने में और आखिर एक महान संत बन कर प्रसिद्ध हुए।

संकल्पशक्ति क्या नहीं कर सकती? हमेशा ऊँचे संकल्प करो और उनको सिद्ध करने के लिए प्रबल पुरुषार्थ में लग जाओ। अपने संकल्प को ठंडा मत होने दो, अन्यथा दूसरों के संकल्प तुम्हारे मन पर हावी हो जावेंगे और कार्यसिद्धि का मार्ग रुंध जायेगा। तुम स्वयं सिद्धि का खजाना हो। सामर्थ्य की कुंजी तुम्हारे पास ही है। अपने मन को मजबूत बना लो तो तुम पूर्णरूपेण मजबूत हो। हिम्मत, दृढ़ संकल्प और प्रबल पुरुषार्थ से ऐसा कोई ध्येय नहीं है जो सिद्ध न हो सके। नश्वर की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करोगे तो नश्वर फल मिलेगा और शाश्वत की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करोगे तो शाश्वत फल मिलेगा।

(अनुक्रम)

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ