संत माता माँ महँगीबाजी

के मधुर संस्मरण

पूजनीया अम्मा के जीवन-आदर्शों को शब्दों में पिरोने का एक लघु प्रयास

इस पुस्तक में हैः कैसा दिव्य था पूजनीया माँ महँगीबा जी का जीवन ? कैसी अनन्य रीत से अपने ही पुत्र पूज्य बापू जी में उन्होंने गुरुबुद्धि की ? कैसी अनन्य थी उनकी गुरुभक्ति ? कैसा अनूठा वार्तालाप वे पूज्यश्री से करती थीं ? कैसा अदभुत था उनका निष्काम कर्मयोग ? कैसा था उनका विराट व्यक्तित्व ? कैसे पायी उन्होंने ब्रह्मज्ञान में स्थिति ?

इससे माताओं की आध्यात्मिक उन्नति एवं बच्चों को माता-पिता के प्रति सदभाव-सदव्यवहार प्राप्त होगा। यह पुस्तक अवश्य पढ़े-पढ़ायें।

(100 पुस्तकें लेने वाले को 15 पुस्तकें भेंट में मिलेंगीं।)

महिला उत्थान ट्रस्ट

संत श्री आशारामजी आश्रम

संत श्री आशारामजी बापू आश्रम मार्ग, अहमदाबाद-380005

फोनः 079-27505010-11

आश्रम रोड, जहाँगीरपुरा, सूरत-395005 फोनः 0261-2772201-1

वन्दे मातरम् रोड, रवीन्द्र रंगशाला के सामने, नई दिल्ली-60

फोनः 011-25729338, 25764161

पेरूबाग, गोरेगाँव (पूर्व), मुंबई-400063, फोनः 022-26864143-44

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पाठकों के साथ संवाद

"दुर्लभ था वह सबको सुलभ कराया !"

संतशिरोमणि, करोड़ों-करोड़ों के सदगुरु, ब्रह्मनिष्ठ पूज्य संत श्री आशारामजी बापू को इस धरा पर अवतरित कर उनको सदगुरुरूप में मान के स्वयं को ब्रह्मज्ञान में प्रतिष्ठित कर मातुश्री माँ महँगीबा जी ने अपना और करोड़ों-करोड़ों का जीवन सार्थक कर दिया। कितना दुर्लभ सौभाग्य ! माता देवहूति ने अपने ही पुत्र कपिल मुनि में भगवदबुद्धि, गुरुबुद्धि करके ईश्वरप्राप्ति की और अपना जीवन सार्थक किया था, उसी इतिहास का पुनरावर्तन करने का गौरव प्राप्त करने वाली पुण्यशीला माँ महँगीबा जी के श्रीचरणों में कोटि-कोटि प्रणाम।

उनके विराट व्यक्तित्व के लिए तो जगज्जननी की उपमा भी नन्हीं पड़ जात है। माँ की तुलना किससे की जा सकती है। वात्सल्य की साक्षात मूर्ति... प्रेम का अथाह सागर.... करूणा की अविरत सरिता बहाते नेत्र.... प्रेममय वरदहस्त... कंठ अवरूद्ध हो जाता है उनके स्नेहमय संस्मरणों से ! उनके विराट व्यक्तित्व को पहचानने में बुद्धि स्वयं को कुंठित अनुभव करती है ! हम तो उनके होकर उनके लिए प्रेमपूर्ण सम्बोधन से केवल इतना ही कह सकते हैं कि ʹअम्माजी तो बस हम सबकी अम्माजी ही थीं !ʹ पूजनीया माँ महँगीबा की जीवनलीलाओंकी ओर दृष्टि करते हैं तो मस्तक उनके श्रीचरणों में झुक जाता है। उनके सान्निध्य में आयी बहनों का उन्होंने जीवन-निर्माण किया। शिष्टाचार, गुरु के प्रति भक्ति ओर प्रेम, गुरु आज्ञा-पालन की सम्पूर्ण सहर्ष तैयारी, निष्कामता, निरभिमानिता, धैर्य, सहनशीलता आदि अनेक दैवी सदगुण उनके जीवन में देखने को मिले। आज जीवन-मूल्यों के ह्रास की ओर जा रहा समाज ऐसे उच्चकोटि के संतों की आज्ञा तथा प्रेरणा के अनुसार अपने जीवन का निर्माण करे तो वह निश्चय ही उन्नत हो सकता।

हमें विश्वास है कि यह पुस्तक - ʹसंत माता माँ महँगीबा जी के मधुर संस्मरणʹ पाठकों को पूज्य अम्माजी के जीवन में सदैव प्रकाशित उच्च आध्यात्मिक आदर्शों को अपने जीवन में लाने और परम सत्य के पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देती रहेगी।

श्री योग वेदान्त सेवा समिति, अहमदाबाद आश्रम।

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अनुक्रमणिका

जीवन परिचय

पाठकों के साथ संवाद

भूमिका

जन्म एवं बाल्यकाल

माँ महँगीबा जी का विवाह

संतानप्राप्ति

अपने-पराये का भेद नहीं

पूज्यश्री का अवतरण

पुत्र में सुसंस्कार-सिंचन

पूज्यश्री ही एकमात्र आश्रयरूप

आदर्श गृहस्थ

पूज्यश्री की साधना में प्रगाढ़ होती रूचि

पूज्यश्री का गृहत्याग

पुत्र की आध्यात्मिक उन्नति के लिए प्रार्थना

पुत्र को गुरुरूप में स्वीकार किया

साँईं लीलाशाहजी की कृपा

माउँट आबू की नल गुफा की घटना

साँईं ने कहा था.....

आश्रम में अभूतपूर्व योगदान

मधुर संस्मरण

मधुर संस्मरण

ʹऐसी थी मेरी माँ !ʹ

इच्छाओं से परेः माँ महँगीबा जी

जीवन में कभी फरियाद नहीं...

बीमारों के प्रति माँ की करुणा

कोई कार्य घृणित नहीं है....

ʹप्रभु ! मुझे जाने दो....ʹ

अम्माजी की गुरुनिष्ठा

गुरुवचन माने एक व्रत, एक नियम

स्वावलम्बन एवं परदुःखकातरता

अम्माजी में माँ यशोदा जैसा भाव

देने की दिव्य भावना

माता का वात्सल्य

ʹजा..... अब कभी प्रसाद नहीं रखूँगीʹ

गरीब कन्याओं के विवाह में मदद

अम्माजी का उत्सवप्रेम

ʹमैं तो तुम्हारे साथ हूँ...ʹ

प्रत्येक वस्तु का सदुपयोग होना चाहिए

सबके हृदय में भगवान के दर्शन

अम्मा का सेवाभाव

कण और क्षण का सदुपयोग

हमेशा के लिए अम्मा का हो गया...

सभी परिस्थितियों में धन्यवाद !

प्रकृति के साथ तादात्म्य

परहित सरिस धरम नहिं भाई....

ʹबस ! यही एक सार है....ʹ

दिव्य गुरुभक्ति

मधुर विरह व्यथा

पूज्य बापू जी के नित्य दर्शन

विनोद-विनोद में ब्रह्मज्ञान

ऐसी माँ के लिए शोक किस बात का ?

श्रद्धांजलि

अध्यात्म के पथिकों के नाम संदेश

अमर रहेगा तेरा नाम

ज्ञान का किया उजाला है

माँ ब्रह्म तेरे घर आयो

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जीवन परिचय

भूमिका

"हे माँ महँगीबा ! बड़भागी तू जो ऐसो लाल जनायो।

भारत का यह संत दुलारा, हम सबका है सदगुरु प्यारा।।

तूने पुत्र रूप में पायो रे, माँ ! ब्रह्म तेरे घर आयो।।"

समग्र विश्व जिनकी ज्ञानगंगा में गोते लगाकर संसार के त्रिविध तापों से बच के शीतलता व शांति पा रहा है, जिनका ज्ञानप्रकाश अनेक हृदयों के अज्ञान-अंधकार को दूर करने में सहायक हो रहा है, जिनके श्रीचरणों में बैठकर अनेक जिज्ञासु अपनी जिज्ञासा शांत कर रहे हैं, जिनके दैवी कार्यों में जुड़कर अनेकों लोग अपना भाग्य उज्जवल कर रहे हैं उन्हीं सबके प्यारे, सबके दुलारे प्रातः स्मरणीय पूज्य संत श्री आशारामजी महाराज की जननी थीं – पूजनीया श्री श्री माँ महँगीबाजी।

जैसा सतयुग में कपिल भगवान की माँ देवहूति ने कर दिखाया, उसी इतिहास का लाखों वर्षों के बाद पुनः संतमाता माँ महँगीबाजी (अम्माजी) द्वारा भारतभूमि पर पुनरावर्तन हुआ। उन्होंने परमात्मप्राप्त पुत्र में ऐसी भगवदबुद्धि, ऐसी श्रद्धा कर दिखायी कि उसने उन्हें परमात्मतत्त्वमें प्रतिष्ठित कर दिया। पुत्र में प्रभुदृष्टि, गुरुदृष्टि रखने वाली माँ महँगीबाजी को कोटि-कोटि प्रणाम !

माँ होकर भी गुरु भाव की,  तुमने जो ज्योत जगायी है।

युगों-युगों तक अमर रहेगी, ऐसी प्रेरणा हमने पायी है।।

संतमाता पूजनीया श्री श्री माँ महँगीबाजी का जीवन-चरित्र लिखना वास्तव में बड़ा ही दुष्कर कार्य है। जिन्होंने समग्र विश्व को पूज्य संत श्री आशारामजी बापू जैसा अनमोल रत्न प्रदान किया है, उन संतमाता का जीवन कैसा रहा होगा ? उन्होंने किस तरह पूज्यश्री में आध्यात्मिकता के संस्कारों का सिंचन किया ? पूज्य बापूजी के ईश्वरप्राप्ति हेतु घर छोड़कर चले जाने पर पुत्र वियोग की उस स्थिति में उन्होंने उच्चकोटि की समता, तितिक्षा का महान आदर्श किस प्रकार प्रस्तुत किया ? अपने संत पुत्र के प्रति उनका कैसा भाव था ? इन सब बातों से थोड़ा बहुत परिचित होकर प्रेरणा पा सके, इस हेतु यह नम्र प्रयास किया गया है।

पूजनीया श्री माँ महँगीबाजी अर्थात् हम सबकी पूजनीया श्री अम्मा का जीवन-चरित्र विशेष रूप से भारत की प्रत्येक माता के लिए प्रेरणास्रोत सिद्ध होगा, ऐसी आशा है।

जीवन परिचय

जन्म एवं बाल्यकाल

"ऐसा आत्माएँ धरती पर कभी-कभी ही अवतरित होती हैं और उऩ्हीं की वजह से यह वसुन्धरा टिकी हुई है।" – पूज्य बापू जी

अविभाज्य भारत (वर्तमान पाकिस्तान) के टंडेआदम शहर से 2 मील की दूरी पर स्थित मीरहसनमरी नामक स्थान पर लुहाणा जाति, नुखबंद गोत्र में श्री देवड़ामल जी के सुपुत्र श्री प्रेमचंद जी के यहाँ लगभग सन् 1908 में श्री माँ महँगीबा जी का जन्म हुआ था।

प्रेमचन्द जी की दूसरी संतान थीं हम सबकी प्यारी-दुलारी पूजनीया अम्मा-श्री माँ महँगीबा। परिवार में इनके अलावा इनकी बड़ी बहन धीरीबाई एवं छोटा भाई ढालूमल था। पिताजी का देहावसान अम्मा के बाल्यकाल में ही हो गया था। पारिवारिक स्थिति अत्यन्त साधारण थी, बड़ी मुश्किल से संतानों का पालन-पोषण हो रहा था।

माँ महँगीबा जी बाल्यकाल से ही शांत एवं सरल स्वभाव की थीं। तभई से इनके जीवन में प्रत्येक परिस्थिति में समता के दर्शन होते थे। परमात्मा के प्रति अम्मा की सहज भक्तिनिष्ठा थी और वे कई व्रत-उपवास भी किया करती थीं। ऐसे सरल-सहज, निर्दोष एवं भक्तिसम्पन्न लोगों के यहाँ ही तो महान आत्माएँ अवतरित हुआ करती हैं ! ʹश्रीरामचरितमानसʹ में भी आता हैः

निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।

माँ महँगीबाजी कभी अपने नाना जी के पास तो कभी माँ के पास रहती थीं। इन्होंने अपने स्वभाव से ननिहाल में सभी का मन मोह लिया था। वे वहाँ गायें-भैंसें सँभालती थीं, दही बिलोतीं, अड़ोस-पड़ोस के लोगों में छाछ बाँटतीं। बचपन से ही अम्मा की बाँटने में बहुत रूचि थी। आसपास के सब लोग इन पर बड़े प्रसन्न रहते थे। नाना जी भी इऩ्हें खूब आशीर्वाद देते थे।

माँ महँगीबा को घर पर प्रेम से सब ʹढेलʹ कहते थे। नानाजी कभी-कभी बड़े प्रेम से इन्हें आशीर्वाद देते हुए गाने लगतेः

डेल मतारी, मेंहुनि जे वलड़नि वारी

छजु सोन पाईं, शाबास हुजेई, जस मथां।

नन्हीं सी मँहगीबा पूछतीः "हृष्ट-पुष्ट शरीरवाली ! बहुत से पशुधनवाली ! तू सूप भरकर सोना पहने। तुझे शाबाश है, तेरा खूब यश हो।"

उस समय बालविवाह की प्रथा थी किंतु अम्मा का सहज सरल निर्दोष स्वभाव देखकर नाना कहतेः "हम इसकी शादी जल्दी नहीं करेंगे।" ननिहाल में कोई भी इनको अपने से दूर नहीं करना चाहता था। शायद इसीलिए उस बालविवाह के जमाने में भी महँगीबाजी का विवाह 20 वर्ष की उम्र में ( जो कि उस जमाने के हिसाब से ज्यादा थी) सम्पन्न हुआ।

समय कब किसकी राह देखता है ? अम्मा का बचपन बीतता गया और अब वे 17-18 वर्ष की हो गयीं। उसकी माँ को उनके विवाह की बड़ी चिन्ता होने लगी.... किंतु मआँ कि चिंता से क्या हो सकता था ? उचित समय आने पर ही सब काम सम्पन्न होते हैं। जीवन परिचय

माँ महँगीबा जी का विवाह

"महँगी मैया ! सारे जग में, अमर रहेगा तेरा नाम।

दिव्य सदा स्नेहमय जीवन, जन्म-कर्म तेरा निष्काम।।

बचपन से ही माँ महँगीबा जी में गुरुसेवा का बड़ा प्रबल भाव था। एक बार इनकी माता जी अपने मायके गयीं तब वे इन्हें घर पर ही छोड़ गयीं। घर पर इनके कुलगुरु बहुधा आते ही रहते थे। अम्मा कुलगुरु की खूब सेवा करतीं।

इस विषय में बताते हुए अम्माजी कहती थीं- "मेरी माँ अपनी माँ के यहाँ गयी हुई थीं। वहाँ से वे 16 महीने बाद आयीं। मैं कुलगुरु की खूब सेवा करती थी। समय से उऩ्हें भोजन-पानी आदि देती थी। मेरी माँ आयीं तब गुरु जी ने कहाः

ʹबेराणी में मेरे सेवकों के 24 घर हैं। इसकी (अम्मा की) शादी तो मैं अपने सेवक के घर में ही करवाऊँगा। अगर तुम वह रिश्ता स्वीकार न करोगी तो मैं अऩ्न-जल त्याग दूँगा।ʹ

माँ ने मुझसे कहाः ʹगुरुजी पर तूने ऐसा कौन सा जादू कर दिया है क वे तेरी शादी के बारे में हठ लेकर बैठ गये हैं ?ʹ

जिस वर के लिए गुरुजी ने विचार कर रखा था, वे थाऊमल जी नगरसेठ थे। उनके पास खेतीबाड़ी, जमीन जायदाद बहुत थी लेकन उऩकी उम्र काफी अधिक हो गयी थी। थाऊमल जी के माता-पिता का देहावसान पहले ही हो चुका था। दोनों बड़े भाइयों की पत्नियाँ सगी बहनें थीं एवं उनकी माँ भी उनके साथ रहती थी। दो बहनों और उनकी माँ के साथ हमारी बेटी दुःखी रहेगी, यह सोचकर कोई भी उस घर में अपनी बेटी ब्याहने को तैयार न था।

सगाई से पहले जब लोग वर का घर देखने गये तब थाऊमल जी घर पर ही थे। उन्होंने बातचीत भी की लेकिन अपना परिचय नहीं दिया। देखने वालों ने उऩ्हें वर का बड़ा भाई समझा। वर की अधिक आयु का बाद में पता चला (अम्माजी से थाऊमल जी 15-16 बड़े थे)।"

थाऊमल जी उम्र में दोनों भाइयों से छोटे थे लेकिन बुद्धि में वरिष्ठ थे। यह तो परम्परा है कि छोटा भाई बेटे के समान होता है लेकिन दोनों भाभियों का स्वभाव बड़ा कर्कश था, इसलिए थाऊमल जी की शादी नहीं होती थी। परिवार धनी तो था लेकिन लड़के (थाऊमल जी) की भाभियाँ ऐसी थीं कि कोई अपनी कन्या उस घर में देना नहीं चाहता था। वहाँ अपनी लड़की देकर उसे जानबूझकर मुसीबत में क्यों डालना !

अतः यह काम उनके कुलगुरु को करना पड़ा। उन्होंने ही कहाः ʹअपनी कन्या का विवाह यहाँ करो।ʹ कुलगुरु की बात मानकर कन्या के परिवारवालों ने सिरूमलानी जी के सबसे छोटे पुत्र थाऊमल जी से महँगीबाजी की सगाई करा दी। जब इस बात का पता दोनों पक्षों के गाँववालों को चला तो उन्हें ऐसा आश्चर्य हुआ मानो कोई वज्रपात हो गया हो !

थाऊमल जी के परिवार वालों को लोग भड़काने लगे कि ʹतुमने क्यों ऐसे गरीब घर में रिश्ता तय  किया ? उऩके पास है ही क्या ?.... और तुम लोग तो कितने साधन-सम्पन्न हो !ʹ

उधर महँगीबाजी के परिवारवालों से भी लोग कहने लगेः ʹतुम्हारे घर में यदि पावभर आटा नहीं है तो लड़की का गला घोंटकर उसे बोरे में भरकर तालाब में डाल आओ। इससे तो उसकी एक बार ही मृत्यु होगी। किंतु उस घर में तो वह रोज मार खायेगी। घुट-घुट के मरने के लिए लड़की को उस घर में क्यों भेज रही हो ?ʹ दोनों संबंधों में कोई तालमेल ही नहीं था। एक ओर एकदम गाय जैसी कन्या तो दूसरी और शेरनी जैसी जेठानियाँ ! आखिर कुलगुरु श्रीपरशुरामजी को अपने विशेष अधिकार का उपयोग करना पड़ा। उन्होंने घोषणा कर दी कि "अगर वह रिश्ता पक्का नहीं हुआ तो मैं अऩ्न-जल का त्याग कर दूँगा।"

कुलगुरु जी को तकलीफ न हो इसलिए कन्या पक्ष ने कन्यादान कर दिया और महँगीबाजी दुल्हन बनकर बेराणी गाँव में आयीं।"

महँगीबाजी की ससुराल में लोग सोना नहीं पहनते थे। उसकी जगह हाथी दाँत के कुंडल, चूड़ियाँ आदि गहने पहनते थे। लेकिन महँगीबाजी की माँ को हाथीदाँत के गहने जरा भी पसंद नहीं थे। अतः उन्होंने उनके ससुरालवालों से कह दियाः "मेरी बेटी हाथीदाँत के गहने नहीं पहनेगी।"

थाऊमल जी नगरसेठ तो थे ही। वे घर में छोटे थे किंतु अपने दोनों बड़े भाइयों से होशियार थे। दोनों भाई उन्हीं के कहने में चलते थे। पूरा घर उऩ्हीं के भरोसे चलता था। उन्होंने महँगीबाजी को खूब सोना पहनाया। 10 चूड़ियाँ, कान के कुंडल, नाक की नथनी, सब सोना ही सोना, मानो सिर से पैर तक सोने से ही मढ़ दिया हो। एक तो महँगीबाजी देखने में पहले से ही सुन्दर, उस पर सोना पहनने से उनकी सुन्दरता और भी निखऱ उठी।

सुन्दर होने के साथ-साथ महँगीबाजी सदगुण सम्पन्न भी थीं। ससुराल में उन्होंने अपने नम्र और सुशील व्यवहार से अपने दोनों जेठों का हृदय जीत लिया था।

प्रतिदिन सुबह उठकर वे अपने जेठों के चरण छूतीं। तीनों भाई एक जैसे दिखते थे। लम्बा घूँघट तानने के कारण कौन-से जेठ के चरण छुये यह पता नहीं चलता था तो कभी-कभी एक ही जेठ को दो बार भी प्रणाम हो जाता।। जेठ भी उनकी ऐसी नम्रता, सरलता पर खूब प्रसन्न रहते थे।

महँगीबाजी के लिए इस नये घऱ में सुख-सुविधाएँ तो थीं, साथ ही मानसिक कष्ट भी थे। महँगीबाजी की जेठानियाँ उनसे घर का सारा काम तो करवातीं ही, ऊपर से ताने भी मारतीं। किंतु महँगीबाजी इतनी सरल थीं कि कभी उनका कोई प्रतिकार नहीं करती थीं वरन् चुप्पी साधकर प्रभु-चिंतन करते-करते सब सहन कर लेती थीं। सहनशीलता तो मानो उनमें कूट-कूटकर भरी थी। और शायद उनके जीवन का यह कसौटी का काल ही उनके उज्जवल भविष्य की नींव बना।

माँ महँगीबाजी का स्वभाव अत्यंत नम्र, दयालु, सरल, सेवाभावी एवं ईश्वरभक्ति से परिपूर्ण था। वे प्रतिदिन नियम से पक्षियों को दाना डालतीं और नियमपूर्वक ईश्वर की पूजा-अर्चना करती थीं। घर आये अतिथियों, साधु-संतों की सेवा, घर की गायों की देखभाल तथा अन्य कितने ही घरेलु काम वे खुद ही करतीं। माता यशोदा की तरह वे स्वयं दही बिलोकर गाँव के लोगों में छाछ, मक्खन बड़े प्रेमपूर्वक बाँटती थीं। उन्होंने अपने नौकरों तक से कह रखा था कि ʹयदि किसी कारणवश मैं यहाँ न होऊँ तो तुम लोग कभी भी किसी को भी यहाँ से खाली हाथ लौटने मत देना।

ऐसी थी उनकी अनन्य परोपकारिता ! जीवन परिचय

संतानप्राप्ति

समय पाकर महँगीबाजी ने एक स्वस्थ-सुंदर बालक को जन्म दिया किंतु वह 13 महीने ही जीवित रहा। पुत्रशोक से व्याकुल माँ महँगीबाजी का हृदय पुकार उठाः "हे प्रभु ! दूसरी संतान भले काली-कलूट हो किंतु उसे जीवित रखना।"

निर्दोष हृदय की प्रार्थना फली और जेठानंदजी का जन्म हुआ। वे थोड़े साँवले थे। तृतीय संतान कन्या थी जो 2-3 साल में ही चल बसी। उसकी पश्चात मीरा बहन एवं खिमी बहन का। इनके बाद अवतरित हुए सबके प्यारे दुलारे सदुगुरु संत श्री आशारामजी बापू। पूज्य बापूजी के जन्म के पश्चात एक बालक और एक कन्या का भी जन्म हुआ किंतु वे चल बसे। अंतिम संतान कृष्णा बहन थीं। जीवन परिचय

अपने पराये का भेद नहीं

"प्रखर ओज-तेज वैभव, रंगा भक्ति से हृदय का पालव।

ज्ञान-ध्यान समता का आश्रय, अंतरचित्त में हरि का नाम।।"

अम्मा जी की जेठानी अस्वस्थता के कारण अपने बच्चों को पेयपान कराने में असमर्थ थीं। उसी दौरान महँगीबाजी ने भी एक बच्चे को जन्म दिया था। जेठानियाँ इतनी-इतनी परेशानियाँ एवं कष्ट देती रहती थीं तो भी महँगीबाजी उदारतापूर्ण व्यवहार रखतीं और अपने बच्चे के साथ जेठानी के बच्चे को भी पयपान करातीं।

साक्षात् परब्रह्मस्वरूप ब्रह्मज्ञानी संतशिरोमणि की जननी के वक्षस्थल से सदैव सबके लिये वात्सल्य का अमृत तो बहेगा ही। उनके हृदय में अपने परायेपन का भेद कैसे हो सकता है ! जीवन परिचय

पूज्य श्री का अवतरण

"योगी जिनको पकड़ न आये, तून उँगली पकड़ चलायो रे....

माँ ! ब्रह्म तेरे घर आयो।।"

"जब मैंने पहली बार साँईं को देखा तब मैं आनंदविभोर हो उठी थी। वे बहुत गोरे-गोरे व लाल-लाल थे।" पूजनीया अम्माजी

माँ की महिमा का वर्णन करते हुए ʹब्रह्मवैवर्त पुराणʹ में गणेश खंड के 40 वें अध्याय में आया हैः

जनको जन्मदानाच्च पालनाच्च पिता स्मृतः।।

गरीयान् जन्मदातुश्च योन्नदाता पिता मुने।

तयोः शतगुणं माता पूज्या मान्या च वन्दिता।।

गर्भधारणपोषाभ्यां सैव प्रोक्ता गरीयसी।

ʹ(कोई) जन्म देने के कारण जनक और पालन करने के कारण पिता कहलाता है। उस जन्मदाता से अन्नदाता पिता श्रेष्ठ होता है। इनसे भी माता सौ गुनी अधिक पूज्या, मान्या और वन्दनीया होती है क्योंकि वह गर्भधारण तथा पोषण करती है।ʹ

इसलिए जननी एवं जन्मभूमि को स्वर्ग से भी श्रेष्ठ बताते हुए कहा गया हैः

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।

पूज्य बापू जी का अवतरण 17 अप्रैल 1941 तदनुसार वैशाख कृष्ण पक्ष षष्ठी (गुजरात एवं सिंध के अनुसार चैत्र वद छठ), गुरुवार को हुआ था।

महँगीबाजी को प्रसव-पीड़ा सुबह से ही होने लगी थी परंतु जब उन्होंने देखा कि आज अभी तक छाछ नहीं बाँटी हैं तो उऩ्होंने भगवान से प्रार्थना की कि ʹहे प्रभु ! पहले मैं छाछ व मक्खन बाँट लूँ फिर ही प्रसूति हो।ʹ परमात्मा ने उनकी पुकार सुन ली और हमारे प्यारे सदगुरुदेव पूज्य बापू जी का अवतरण उनके रोज के सेवाकार्य के बाद दोपहर 12 बजे हुआ।

अम्मा बताती थीं कि "साँईं के जन्म से पहले ही घर पर एक सौदागर दैवी प्रेरणा झूला लेकर आ गया था। जन्म के बाद पिता श्री ने मटके में पानी डालकर मटके को तोड़ा और बालक को घोड़े पर बिठाया। बालक को खिड़की से तीन बार अंदर-बाहर करके त्रेखण की विधि की गयी। बालक को देखकर बहन बोलने लगी कि ʹलगता है भगवान भी पक्षपात करते हैं। मेरे बच्चे तो ऐसे नहीं हैं। इसको तो देखो, कैसा लाल-लाल चेहरा, विशाल ललाट, बड़ी-बड़ी आँखें, लम्बे घुँघराले काले बाल !ʹ

अम्मा आगे कहती हैं- जब मैंने पहली बार साँईं को देखा तो मैं आनंदविभोर हो उठी। मैं उन्हें एकटक देखती ही रही। वे खूब गोरे-गोरे और लाल-लाल थे। देखते-देखते मेरे मन में हुआ कि ʹअरे-अरे ! इसे कहीं मेरी ही नज़र न लग जाये !ʹ ऐसा सुंदर चेहरा था पूज्य साँईं का ! जन्म के समय ऐसा दिव्य शरीर था उनका ! मैं भी उन्हें देखकर आनंदित होने लगी।"

बच्चा हमेशा शांत रहता था। वैसे तो अम्मा जी के सभी बच्चे शांत रहते थे लेकिन यह बच्चा विशेष ही था। बालक का वर्ण देखकर जेठानियाँ बोलतीं कि दूध पीकर बच्चे को जन्म दिया है क्या ? गौर वर्ण के कारण सब लोग उसे प्रेम से ʹभूराʹ कहकर बुलाते किंतु पिता उँगलियों पर कुछ गिनती करके बालक का नाम रखा ʹआसुʹजीवन परिचय

पुत्र में सुसंस्कार सिंचन

"मेरी ये माता इस शरीर को जन्म देने वाली माता तो हैं ही, साथ ही भक्तिमार्ग की गुरु भी हैं।"

अम्माजी स्वयं तो ईश्वर की पूजा अर्चना करती ही थीं, अपने पुत्र आसुमल में भी यही संस्कार उन्होंने बाल्यकाल में डाले थे। अम्माजी आटा-पीसते नन्हें आसु को गोदी में बिठाकर सिंधी में यह भजन सुनातीं-

सुबह सवेरो उथी निंड मां, पख्यां चूं चूं कनि

दीहां पोर्ह्यो पेट जो, रात्यां राम जपिनि।

मिठा मेवरड़ा से पाईदा, जेके सुबुह जो जागनि

लाल साईं दुध पुट लक्ष्मी तिन, जेके सुबुह जो जागनि।।

अर्थात् प्रातः सवेरे उठकर पक्षी किलोल करते हैं, तब नींद से जाग जाना चाहिए। दिन में पेट भरने के लिए परिश्रम करते और रात को राम को रिझाते हैं। जीवन में वे ही मीठे फल पायेंगे, जो सुबह जल्दी से जागेंगे। उनको ही लाल साँईं (भगवान झूलेलाल) धन-धान्य, सुख-शांति, पुत्र और लक्ष्मी प्रदान करते हैं।

मातुश्री मँहगीबा जी सोचतीं कि ʹमेरे लाल को बचपन से ही भगवान में विश्वास हो जाये इसके लिए मैं क्या करूँ, उसे कौन सी चीज दूँ ?ʹ फिर आसू से कहतीं- ʹतू भगवान के आगे आँखें बंद करके बैठेगा तो भगवान तुझे मक्खन मिश्री देंगे।ʹ फिर अम्मा स्वयं ही चुपके से आसु के पास मक्खन-मिश्री रख जातीं। आँखें खोलते ही मक्खन मिश्री देखकर आसु खुश हो जाता। बहनें बताने जातीं क ʹआसु ! यह तो माँ ने रखा है।ʹ तो अम्मा जी उन्हें आँखें दिखाकर चुप करवा देतीं और समझातीं कि इससे आसु का भगवद्विश्वास नहीं जमेगा।

इस प्रकार पूज्य बापू जी की बचपन में ध्यान-भजन में रूचि जगाने वाली माँ महँगीबाजी ही थीं।

आसुमल का मनमोहक स्वभाव, ओज-तेज व हँसमुख चेहरा देखकर कोई भी आकर्षित हुए बिना नहीं रहता था। इसलिए विद्यालय में सभी इन्हें हंसमुख भाई कहकर पुकारते थे। जीवन परिचय

पूज्यश्री ही एकमात्र आश्रयरूप

सन् 1947 में देश का विभाजन हुआ, तब श्री थाऊमलजी को अपनी सारी सम्पत्ति, जमीन-जायदाद, पशुधन आदि छोड़कर भारत आना पड़ा। भारत आकर वे मणिनगर, अहमदाबाद में स्थायी रूप से बस गये और यहीं पर पूज्य श्री का बाल्यकाल बीता। बचपन से ही पूज्य श्री की तीव्र सूझबूझ की प्रशंसा करते हुए अम्माजी बताया करती थीं-

"साँईं (पूज्य बापू जी) बचपन में ही जेठे के पिताजी (श्री थाऊमल जी) की दुकान पर जाकर पानी का मटका भर देते। दुकान की साफ-सफाई करते, उसके बाद कोयले की बोरियाँ और लकड़ियाँ देखते थे कि कितनी हैं। बाबा से पूछतेः ʹकोयले का क्या भाव है ? लकड़ियों का क्या भाव है ?ʹ बाबा सोचते कि ʹयह इतना छोटा है तो भी पूछता है, बड़ा बेटा दुकान पर आयेगा तो अपने कपड़ों को ही सँभालता रहेगा कि कहीं उनपर दाग न लग जाय। यह छोटा आसु तो बहुत ही होशियार है।ʹ

समय जाते जेठे के बाबा बीमार रहने लगे। खाँसी में खून आने के कारण मैं उन्हें मालपुआ या शीरा (हलवा) खिलाती थी। तब वे मुझसे कहतेः पहले आसु को दे, बाद में मुझे क्योंकि आसू ही तेरे काम आने वाला है।"

भावी को पहले से ही जान लेने की कैसी अदभुत दृष्टि थी थाऊमल जी की !

अम्मा आगे बतातीं कि "जेठे के बाबा की अंतिम घड़ियाँ नजदीक आ रही थीं। एक दिन उन्होंने मुझसे पूछा क ʹआज कौन-सा वार, कौन सी तिथि है ?ʹ फिर बोले कि ʹठीक है, कल पूनम है न, तो कल भगवान की कथा सुनकर फिर जाऊँगा।ʹ उनकी चिरविदाई की बात सुनकर मैं अत्यधिक दुःखी हो गयी। मैं सोचने लगी कि उनके जाने के बाद मैं किसके सहारे जीवन बिताऊँगी ? इतने में पतिदेव के उपरोक्त वाक्य के याद आये तो मन को तसल्ली हुई कि हाँ, ʹआसूʹ तो है न मेरे पास... अब आसू ही मेरा एकमात्र आश्रय है।" जीवन परिचय

आदर्श गृहस्थ

जीवन के अंतिम क्षणों में एक आदर्श पति-पत्नी को किस प्रकार एक-दूसरे के ऋण से मुक्त होना चाहिए, इसका आदर्श भी श्री थाऊमल जी के जीवन की अंतिम घड़ियों में देखने को मिला। इस विषय पर पूज्यश्री कई बार अपने सत्संग में कहते हैं-

"मेरे पिता जी अंतिम समय में अर्थात संसार से विदा लेते समय मेरी माँ के आगे हाथ जोड़कर बोलेः "कभी मैंने तुझको कुछ भला-बुरा कह दिया होगा, कभी हाथ भी उठ गया होगा, उसके लिए तू मुझे माफ कर देगी तो ठीक होगा, नहीं तो मुझे फिर से भोगने के लिय़े आना पड़ेगा। किसी जन्म में आकर तेरी डाँट-फटकार और पिटाई सहन करनी पड़ेगी।"

मेरी माँ ने कहाः "अच्छा तो मुझसे भी तो कोई गलती हुई होगी, आप भी मुझे माफ कर दो।"

वे बोलेः "हाँ-हाँ, मैंने माफ कर दिया।"

आप भी मरो तो जरा यह अक्ल लेकर मरना। अब मरते समय याद रहे-न-रहे, अभी से साल में एक बार आपस में एक दूसरे से माफ करा लिया करो। पति-पत्नी, भाई-भाई, मित्र-मित्र लेखा चुकता करा लिया करो, जिससे दुबारा कर्मबंधन में पड़कर आना न पड़े।

गहना कर्मणो गतिः। कर्म की गति बड़ी गहन है।"

गृहस्थ धर्म का कैसा उत्तम आदर्श ! जीवन परिचय

पूज्य श्री की साधना में प्रगाढ़ होती रूचि

"नन्हा सा आसुमल मुझे फोटो दिखाकर कहता है मैं स्वामी विवेकानंद जैसा कब बनूँगा ?" पूजनीया अम्माजी

शादी के बाद जेठानियों के द्वारा दिया गया मानसिक कष्ट, भारत पाक विभाजन के समय सब कुछ छोड़कर गुजरात आना एवं अचानक थाऊमल जी का देहावसान... माँ महँगीबाजी पर तो मानो एक के बाद एक वज्रपात हो रहे थे, मगर सहनशीलता की साक्षात् मूर्ति माँ महँगीबाजी यह सब धैर्यपूर्वक सहन करती रहीं।

छोटी उम्र में ही बालक आसुमल पर पारिवारिक जिम्मेदारियाँ आ गयीं। बीच में ही पढ़ाई छोड़ देनी पड़ी व बड़े भाई के साथ जिम्मेदारियों को निभाने में सहभागी होना पड़ा। इतने पर भी आसुमल ने अपने ध्यान-भजन के नियमों में थोड़ी भी कमी नहीं आने दी, ध्यान-भजन में उनकी रूचि और अधिक प्रगाढ़ होने लगी थी। व्यापार में कम समय देने के बावजूद भी आसुमल की अनोखी व्यापारिक सूझबूझ के कारण थोड़े ही समय में आमदनी इतनी बढ़ गयी कि जिसकी तुलना नहीं हो सकती। अन्य दुकानदार, व्यापारी भी आसुमल से सलाह लेकर काम करते थे। बड़े भाई जेठानंद चाहते थे कि  आसुमल ज्यादा समय दुकान पर रहें ताकि आमदनी और भी बढ़ती रहे लेकिन आसुमल ने अपने नियम में कोई कमी नहीं आने दी।

पूज्य बापू जी की बढ़ती आध्यात्मिक उत्कंठा के बारे में अम्मा कहती थीं- "घर में स्वामी विवेकानंदजी का फोटो लगा हुआ था। नन्हा आसुमल मुझे फोटो दिखाकर बोलता कि ʹमैं विवेकानंद जी जैसा कब बनूँगा ?ʹ और फिर भाभी को कहताः ʹदेखना, इनके समान घर-घर में मेरे भी फोटो लगेंगे।ʹ यह सुनकर भाभी मुँह बनाती, मुँह में हवा भरकर आवाज निकालती और बोलतीः "हं... आया बड़ा विवेकानंद बनने वाला... छोटा मुँह बड़ी बात...।" लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे आसुमल का वचन साकार होता गया..... वास्तव में ऐसे दिन आये कि आसुमल महान संत श्री आशारामजी बापू बन गये और आज घर-घर में उनके फोटो लगे हुए हैं। अब तो भाभी भी अपने घर में पूज्य बापू जी का फोटो लगाकर पूजा करने लगी और दर्शन प्रसाद के लिए कतार में खड़ी रहने लगी। जीवन परिचय

पूज्यश्री का गृहत्याग

"श्वास-श्वास में वेद हैं जिनके, लीलाशाह गुरु बनायो रे....

माँ ब्रह्म तेरे घर आयो।।"

कसौटी पर तो कंचन को ही कसा जाता है, लोहे को नहीं। प्रकृति भी मानो अम्मा को कष्टों की भीषण अग्नि में तपा-तपाकर कुंदन सा बना रही थी। प्राणों से भी प्यारे पुत्र आसुमल को बाल्यकाल में जिन्होंने ध्यान भजन करना सिखाया था, उन्हीं माता को अब उसी पुत्र का वियोग सहन करने के दिन आये। आसुमल अब घर छोड़कर ईश्वरप्राप्ति के लिए जाना चाहते थे किंतु वे कहीं संन्यासी न हो जायें, इस डर से घऱवालों ने आसुमल की इच्छा न होने पर भी आदिपुर (कच्छ, गुज.) निवासी श्री थदारामजी तथा कुंदनबाई की सुपुत्री लक्ष्मी देवी के साथ उनकी शादी करवा दी। शादी कराने के बावजूद भी ईश्वरीय पथ के पथिक आसुमल को उनकी इच्छाविरूद्ध भला कोई कब तक रोक सकता था ? आखिर एक दिन उन्होंने  अपना दृढ़ निश्चय अपनी पूजनीया माँ महँगीबाजी एवं धर्मपत्नी लक्ष्मीदेवी को बता ही दिया कि "मैं अपने ध्येय ईश्वरप्राप्ति के लिए घऱ छोड़कर जा रहा हूँ। लक्ष्यसिद्धि के बाद पुनः लौट आऊँगा – ऐसा वचन देता हूँ।"

कितना बड़ा वज्रपात !.... लेकिन माँ महँगीबाजी ने अपने हृदय पर पत्थर रखकर उस अवधि को भी धैर्य एवं तितिक्षापूर्वक पार किया। जीवन परिचय

 पुत्र की आध्यात्मिक उन्नति के लिए प्रार्थना

जब पूज्य बापू जी सदगुरुदेव साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज की आज्ञा से डीसा में साधना कर रहे थे, तब अम्मा और बहू दोनों उनकी साधना पूर्ण होने के लिए भगवान से प्रार्थना करतीं और धीरज रखकर स्वयं भी साधन-भजन में लगी रहतीं।

परिवार के अन्य सदस्यों के साथ अम्मा नयी बहू का भी बहुत ध्यान रखती थीं। अम्माजी लक्ष्मीदेवी के बारे में बताती थीं कि ʹबहू अपने कमरे से निश्चित समय पर बाहर आती और घर का सारा काम पूरा करके तुरंत अपने कमरे में चली जाती।ʹ अम्माजी कभी झरोखे से देखतीं कि बहू क्या कर रही है? तो वे कभी ध्यान-भजन में लगी रहतीं तो कभी रोती हुई देखी जातीं। अम्मा उन्हें ढाढ़स बँधातीं और धीरज रखने को कहतीं।

माँ के हृदय को भला कौन समझ सकता है ! अम्मा सदैव देवी-देवताओं से, संतों-महापुरुषों से अपने पुत्र की आध्यात्मिक उन्नति के लिए कामना करती रहतीं। अम्मा कहती थीं- "एक बार मैं एक महाराजजी के पास प्रसादरूप में दूध लेकर गयी और मैंने उनसे प्रार्थना की कि मेरा बेटा आपके जैसा महान कब बनेगा ?ʹ

दूसरी तरफ पूज्य बापूजी भी अपनी मातुश्री पूजनीया अम्मा को ईश्वरप्राप्ति के मार्ग पर आगे बढ़ने में कैसे मददरूप होते थे, इस पर प्रकाश डालते हुए अम्मा स्वयं कहती हैं- "साँईं चाहते थे कि मेरा पुत्रमोह दूर हो। इसलिए एक दिन डीसा में साँईं ने भिक्षा में मुझसे नारियल माँगा। मैंने कहाः ʹनहीं दूँगी। एक बार भिक्षा दे दूँगी तो फिर घर नहीं आओगे।ʹ

पूज्य बापूजी ने कहाः ʹअरे ! अभी तो दे दो।ʹ

फिर मैंने दे दिया।"  जीवन परिचय

पुत्र को गुरुरूप में स्वीकार किया

"जिसका न कोई नाम रूप है, बापू आशाराम कहायो रे...

माँ ब्रह्म तेरे घर आयो।।"

"व्यवहारिक दृष्टि से मैं उनका पुत्र था, फिर भी मेरे प्रति उनकी गुरुनिष्ठा बहुत ही निराली थी !" पूज्य बापू जी

गृहत्याग के बाद आसुमल ईश्वरप्राप्ति की तीव्र तड़प में गुफाओं, कंदराओं, जंगलों, हिमाच्छादित पर्वत-श्रृंखलाओं एवं अनेक तीर्थों में घूमे, कँटीले मार्गों पर चले, कठोर साधना करते-करते वे नैनीताल के जंगलों में पहुँचे। वहाँ उन्हें परमात्मा से मिलाने का सामर्थ्य रखने वाले परम पुरुष पूज्यपाद स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज के दर्शन हुए।

गुरु के द्वार पर कठोर कसौटियों में से खरे उतरने के बाद वज्रेश्वरी, मुंबई में सदगुरुदेव परम पूज्य श्री लीलाशाहजी महाराज के सान्निध्य में विक्रम संवत् 2021 आश्विन मास, शुक्ल पक्ष द्वितीया, तदनुसार 7 अक्तूबर 1964, बुधवार को मध्याह्न ढाई बजे आसुमल को आत्मा परमात्मा का साक्षात्कार हुआ। आसुमल में से ब्रह्मनिष्ठ संत श्री आशारामजी महाराज का प्राकट्य हुआ। आत्मपद को प्राप्त करने के बाद फिर इससे ऊँचा और कोई पद प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता। आत्मपद की महिमा वेद और उपनिषद भी अनादिकाल से गाते आये हैं।

पूजनीया अम्मा ने एक बार अपना अनुभव बताते हुए कहाः

"एक बार साँईं लीलाशाहजी का मणिनगर (अहमदाबाद) में सत्संग था। तब मैं और साँईं (पूज्य बापू जी) बड़े साँईं (पूज्य लीलाशाहजी) के पास गये थे। हम पीछे ही बैठे थे। बड़े साँईं ने साँईं को कहाः "अरे, पीछे जूतों के ढेर के पास क्यों बैठा है ? अब तो तू ब्रह्मज्ञानी हो गया है, यहाँ मेरे पास बैठ।ʹ फिर बड़े साँईं ने साँईं की तरफ इशारा करते हुए कहाः किसी ने पाया है, केवल आशाराम ने पाया है।"

इस प्रकार शनैः शनैः अम्मा को प्रत्यक्ष अनुभूति होती गई कि मेरा पुत्र आसुमल अब केवल मेरा पुत्र नहीं रहा बल्कि ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष संत श्री आशारामजी महाराज के रूप में परिणत हो चुका है और उनके हृदय में यह बात दृढ़ हो गयी कि माता यशोदा की तरह उनकी भी कोख पावन हो गयी है।

अब तो अम्मा को दृढ़ विश्वास हो गया कि ʹये ही मेरे उद्धारक भी होंगे। अब मैं इनमें ही भगवदबुद्धि करके इन्हें अपने गुरुरूप में स्वीकार करके आत्मोद्धार करूँगी।ʹ जीवन परिचय

साँईं लीलाशाह जी की कृपा

एक बार बड़ें साँईं लीलाशाहजी अहमदाबाद स्टेशन से गुजरने वाले थे, हम स्टेशन पर दर्शन करने गये। बहू (लक्ष्मीदेवी) को बड़े साँईं के आगे करके मैंने कहाः "इस पर दया कीजिये साँईं !" साँईं ने कहाः "इस उम्र में कितने ही लड़के व्यभिचारी जीवन जीते हैं, तम्बाकू आदि व्यसनों से अपना जीवन तबाह करते हैं, परिवार व समाज को कलंकित करते हैं। आसुमल तो भगवान के रास्ते जा रहा है। इतने सारे लोग गृहस्थी हैं, एक त्यागी हुआ तो क्या हुआ ? जल्दी ही अपना लक्ष्य हासिल करके कर वापस लौटेगा।"

फिर लक्ष्मीदेवी के सिर पर अपना कृपाभरा वरदहस्त रखकर बड़े साँईं ने कहाः "तू रोना मत।" उस समय लक्ष्मीदेवी पर उनकी ऐसी कृपा बरसी कि तब से उसकी भी साधन-भजन में तीव्रता बढ़ गयी और अनायास ही अजपाजप चालू हो गया। जीवन परिचय

माउंट आबू की नल गुफा की घटना

गुरुजी की आज्ञा से सात साल तक डीसा के आश्रम में और माउंट आबू की नल गुफा में पूज्य बापू जी ने योग की गहराइयों एवं ज्ञान के उन्नत शिखरों की यात्राएँ कीं। ध्यानयोग, लययोग, नादानुसंधान योग, कुंडलिनी योग, अहंग्रह उपासना आदि विविध मार्गों से आध्यात्मिक अनुभूतियाँ करने वाले इस परिपक्व साधक को सिद्ध अवस्था में देखकर भगवद्स्वरूप पूज्य लीलाशाहजी महाराज ने उनको आदेश दियाः "मैंने तुम्हें जो बीज दिया था उसे तुमने वृक्ष के रूप में विकसित कर लिया है। अब इसके मधुर फल समाज में बाँटो। पाप, ताप, शोक, तनाव, वैमनस्य, विद्रोह, अहंकार व अशांति से तप्त संसार को तुम्हारी आवश्यकता है।"

अम्मा अपने पर बरसी पूज्यश्री की कृपावर्षा के बारे में कहती हैं- "आबू में एक दिन छत पर मुझ पर साँईं की बहुत कृपा बरसी थी। जब सब फीका लगने लगा। इतनी मस्ती छा गयी कि भोजन की भी इच्छा नहीं होती थी। बस बैठी ही रहती। उस समय की मस्ती को मैंने सम्भाला होता तो आज मैं कहाँ होती !" जीवन परिचय

साँईं ने कहा था....

"माँ का विश्वास कितना गजब का था ! एक बार कह दिया तो बात पूरी हो गयी।" पूज्य बापू जी।

पूज्य बापूजी अपनी मातुश्री पूजनीया अम्मा को ईश्वरप्राप्ति के मार्ग पर आगे बढ़ने में कैसे मदद करते थे-इस विषय को उजागर करते हुए स्वयं अम्मा बताया करती थीं-

"एक बार समाचार मिला कि साँईं (पूज्य बापू जी) उत्कंठेश्वर में हैं तो मैं बहू को साथ लेकर उनके दर्शन करने गयी। उस दिन गाँव में लाइट नहीं थी। साँईं तो एकदम फक्कड़ अवस्था में ध्यान-समाधि में निमग्न थे और आगे पीछे साँप घूम रहे थे। हम भी कुछ अंतर पर साधना करने बैठ गये। लोग पूछने लगे कि ʹआप साँईं की क्या लगती हैं ?ʹ तब मुझे साँईं की बात याद आती। साँईं ने मुझे मना कर रखा था कि ʹलोगों को नहीं बताना कि मेरा बेटा है, नहीं तो लोग आपको आदरभाव देने लग जायेंगे, पूजा करने लग जायेंगे। इससे अहं जगने का खतरा रहता है। इसलिए जब तक पूर्णता को प्राप्त न होओ तब तक इन बातों से बचते रहना चाहिए।ʹ मैं कभी भी, कहीं भी किसी को नहीं बताती थी। कोई पूछता तो मैं कहती कि साँईं मेरे कुछ नहीं लगते।"

गुरुआज्ञा पालन में कैसी निष्ठा ! कैसी सरलता !! न कोई आडम्बर, न कोई दम्भ ! बापू जी ने कह दिया तो अक्षरशः पालन किया। इस प्रकार अम्मा गुरु आज्ञा पालन में तत्पर नहीं और बाहरी बड़प्पन से बचीं तो इतनी ऊँचाई पर पहुँच गयीं जो बड़े-बड़े योगियों को भी दुर्लभ है ! उनका पावन, पुण्यमय स्मरण करके हम भी धनभागी हो रहे हैं। जीवन परिचय

आश्रम में अभूतपूर्व योगदान

"आश्रम की छोटी-से-छोटी बात का भी अम्मा ख्याल रखतीं।" पूज्य बापू जी

पुण्यतोया साबरमती नदी के पावन तट पर 29 जनवरी 1972 को एक कच्ची कुटिया का निर्माण किया गया, जो धीरे-धीरे पावन तीर्थधाम आध्यात्मिक आश्रम के रूप में बदल गयी। आश्रम-स्थापना के कुछ समय बाद पूजनीया माँ महँगीबाजी भी आश्रम में ही निवास करने लगीं। यहाँ सब उन्हें प्रेम से ʹअम्माजीʹ कहकर बुलाने लगे (सिंधी भाषा में दादी माँ को ʹअम्माʹ कहते हैं इसलिए अपने गुरु पूज्य बापूजी को परम पितास्वरूप मानने वाले साधक प्रेम से माँ महँगीबाजी को ʹअम्माʹ कहकर पुकारने लगे। तब से लेकर आज तक उन्हें इसी नाम से सम्मानित किया जाता है।)

सदैव प्रसन्न रहना माता महँगीबाजी का सहज स्वभाव था। अपनी सूक्ष्म दूरदृष्टि एवं स्नेहपूर्ण करूणा द्वारा उन्होंने आश्रमवासियों के जीवन-निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। जो एक बार भी उनके सान्निध्य में आता, वह उन्हें कभी भूल नहीं पाता था।

वात्सल्य की तो वे साक्षात मूर्ति थीं। आश्रमवासी भाइयों एवं बहनों को अम्मा का माता सा स्नेह तो मिलता ही था, साथ ही उनके भोजन आदि की व्यवस्था पर भी उनका पूरा-पूरा ध्यान रहता था। कोई साधक किसी कारणवश आश्रम देर से लौटता तो उसके लिए अम्मा अलग से भोजन निकालकर रखतीं कि कहीं वह भूखा न रह जाय।

कभी माँ की गोद में खेलने वाले आसुमल अब उनके लिए आसुमल न रहकर भगवत्स्वरूप साँईं हो गये थे। जैसे माँ देवहूति ने पुत्र में भगवदबुद्धि करके कपिलदेवजी से ज्ञान प्राप्त किया था, वैसे ही अम्मा भी पूज्य श्री को ब्रह्मस्वरूप ही मानती थीं। कभी कोई अपने दुखड़े उनके आगे रोता तो वे आश्वासन देकर कहतीं- "साँईं बैठे हैं न ! गुरु जी बैठे हैं न ! मेरे गुरु परमात्मस्वरूप हैं, सर्वसमर्थ हैं, फिर क्यों चिंता करते हो ? उन्हीं पर श्रद्धा रखो, सब ठीक हो जायेगा।" ऐसी थी पूज्यश्री के प्रति उनकी अनन्य निष्ठा !

माँ महँगीबाजी ने जीवनकाल में अपने जीवन पुष्प की सुवास से जन-जन को सुरभित किया। ऐसी दिव्य आत्माओं के दिव्य जीवन की सुवास तो उनके जाने के बाद भी लोगों के जीवन में विनम्रता, सरलता, निष्कपटता, विशुद्ध स्नेह, भगवत्प्रेम, गुरुनिष्ठा आदि का परिमल फैलाती रहती है।

भगवन्नाम स्मरण उनकी दिनचर्या थी। .......... हरि ....आनंद.... शान्ति.... ऐसा जब तक बोलने का सामर्थ्य था तब तक वे बोलती ही रहीं। श्वासोच्छ्वास में अजपाजप चलता ही रहता था। हरि .......... करके हास्य करना-करवाना और आनंदमय रहना तो अम्मा का स्वभाव ही था। जीवन परिचय

मधुर संस्मरण

पूज्य बापू जी की ब्रह्मलीन मातुश्री माँ महँगीबाजी (पूजनीया अम्माजी) के कुछ मधुर संस्मरण स्वयं पूज्य बापू जी के शब्दों में...

ʹऐसी थीं मेरी माँ !ʹ

"पुत्र में गुरुबुद्धि... पुत्र में परमात्मबुद्धि... ऐसी श्रद्धा मैंने एक देवहूति माता में देखी, जो कपिल मुनि को अपना गुरु मानकर, आत्मसाश्रात्कार करके तर गयीं और दूसरी ये माता मेरे ध्यान में है।" पूज्य बापूजी

माँ बालक की प्रथम गुरु होती है। बालक पर उसके लाख-लाख उपकार होते हैं। व्यावहारिक दृष्टि से मैं उनका पुत्र था फिर भी मेरे प्रति उऩकी गुरुनिष्ठा बड़ी निराली थी !

एक वे दही खा रही थीं तो मैंने कहाः "दही आपके स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं रहेगा।"

उनके जाने (महाप्रयाण) के कुछ समय पूर्व उनकी सेविका ने मुझे बताया कि ʹअम्मा जी ने फिर कभी दही नहीं खाया क्योंकि गुरु जी ने मना किया था।"

इसी प्रकार एक अन्य अवसर पर माँ भुट्टा (मकई) खा रही थीं। मैंने कहाः "भुट्टा तो पचने में भारी होता है, बुढ़ापे में देर से पचता है। क्यों खाती हो ?"

माँ ने भुट्टा खाना भी छोड़ दिया। फिर दूसरे तीसरे दिन उन्हें भुट्टा दिया गया तो वे बोलीं- "नहीं गुरु जी ने मना किया है। गुरु जी ʹनाʹ बोलते हैं तो क्यों खायें ?ʹʹ

माँ को आम बहुत पसंद थे किंतु उनके स्वास्थ्य के अनुकूल न होने के कारण मैंने उनके लिए मना कर दिया तो माँ ने आम खाने छोड़ दिये।

माँ का विश्वास बड़ा गजब का था ! एक बार कह दिया तो बात पूरी हो गयी। अब ʹउसमें पोषक तत्त्व हैं कि नहीं... मेरे लिए हानिकारक है या अच्छा....ʹ उनको कुछ सुनने की जरूरत नहीं। बापू ने ʹनाʹ बोल दिया तो बात पूरी हो गयी।

श्रद्धा की हद हो गयी। उनकी श्रद्धा इतनी बढ़ गयी, इतनी बढ़ गयी कि उसने विश्वास का रूप धारण कर लिया। श्रद्धा और विश्वास में फर्क है। श्रद्धा सामने वाले की महानता को देखकर होती है जबकि विश्वास अपने-आप होता है। ʹश्री रामचरितमानसʹ में आता हैः

भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।

माँ पार्वती श्रद्धा का और भगवान शिव विश्वास का स्वरूप हैं। ये श्रद्धा और विश्वास जिसमें हैं समझो वह शिव-पार्वतीस्वरूप हो गया। मेरी माँ में पार्वती का स्वरूप तो था ही, साथ ही शिव का स्वरूप भी था। मैं एक बार जो कह देता, उनके लिए वह पत्थर पर लकीर हो जाता।

पुत्र में दिव्य संस्कार डालने वाली पुण्यशीला माताएँ तो इस धरा पर कई हो गयीं। विनोबा भावे की माता रखुमाई देवी ने उनमें बाल्यकाल से ही उच्च संस्कार डाले थे। बाल्यकाल से ही शिवाजी में भारतीय संस्कृति की गरिमा एवं अस्मिता की रक्षा के संस्कार डालने वाली भी उनकी माता जीजाबाई थीं, लेकिन पुत्र को गुरु मानने का भाव... देवहूति के बाद मेरी माँ में मैंने देखा।

मेरी माँ पहले तो मुझे पुत्रवत् प्यार करती थीं लेकिन जब से उनकी मेरे प्रति गुरु की दृष्टि बनी तब से उन्होंने मेरे साथ पुत्र जैसा व्यवहार नहीं किया।

वे अपनी सेविका से कहती थीं- "साँईं जी आये हैं... साँईंजी के भोजन के बाद जो बचा है, वह (प्रसादरूप) में मुझे दे दे..." आदि आदि।

एक बार की बात है, माँ ने मुझसे कहाः "प्रसाद दो।"

हद हो गयी ! कैसी अलौकिक श्रद्धा ! पुत्र में इस प्रकार की श्रद्धा कोई साधारण बात है ? उऩकी श्रद्धा को नमन है बाबा !

मेरी ये माता शरीर को जन्म देने वाली माता तो हैं ही, भक्तिमार्ग की गुरु भी हैं, समता में रहने वाली और समाज के उत्थान की प्रेरणा देने वाली माता भी हैं। यही नहीं, इन सबसे बढ़कर इन माता ने एक ऐसी गजब की भूमिका अदा की है कि जिसका उल्लेख इतिहास में कभी-कभी ही देखने को मिलता है। सतियों की महिमा हमने पढ़ी, सुनी, सुनायी... अपने पति को परमात्मा मानने वाली देवियों की सूची भी हम दिखा सकते हैं लेकिन पुत्र में गुरुबुद्धि.... पुत्र में परमात्मबुद्धि... ऐसी श्रद्धा हमने एक देवहूति माता में देखी, जो कपिल मुनि को अपना गुरु मानकर, आत्मसाक्षात्कार करके तर गयीं और दूसरी ये माता मेरे ध्यान में हैं।

एक बार मैं अचानक बाहर चला गया और जब लौटा तो उनकी सेविका ने बताया कि ʹअम्मा जी बात नहीं करती हैं।ʹ

मैंने पूछाः "क्यों?"

सेविकाः "वे कहती हैं कि साँईं मना कर गये हैं कि किसी से बात नहीं करना तो क्यों बातचीत करूँ ?"

मेरे निकटवर्ती कहलाने वाले शिष्य भी मेरी आज्ञा पर ऐसा अमल नहीं करते होंगे, जैसा इन देवीस्वरूपा माता ने अमल करके दिखाया है। माँ की श्रद्धा की कैसी पराकाष्ठा ! मुझे ऐसी माँ का पुत्र होने का व्यावहारिक गर्व है और ब्रह्मज्ञानी गुरु का शिष्य होने का भी गर्व है।"

मधुर संस्मरण

इच्छाओं से परेः माँ महँगीबाजी

"नश्वर काया माया से, चित-चकोर सदा निर्लेप रहा।

नित्यमुक्त हरिमय हृदय को, बंधन का कोई लेप न रहा।।"

एक बार मैंने माँ से कहाः "आपको सोने में तौलेंगे।".... लेकिन उनके चेहरे पर हर्ष का कोई चिह्न नजर नहीं आया।

मैंने पुनः हिला हिलाकर कहाः "आपको सोने में तौलेंगे, सोने में !"

माँ- "यह सब मुझे अच्छा नहीं लगता।"

मैंने कहाः "तुला हुआ सोना महिलाओं और गरीबों की सेवा में लगेगा।"

माँ- "हाँ... सेवा में भले लगे लेकिन मेरे को तौलना-वौलना नहीं।"

मगर सुवर्ण महोत्सव के पहले ही माँ की यात्रा पूरी हो गयी। बाद में सुवर्ण-महोत्सव के निमित्त जो भी करना था, वह किया ही।

मैंने कहाः "आपका मंदिर बनायेंगे।"

माँ- "यह सब कुछ नहीं करना है।"

मैं- "आपकी क्या इच्छा है ? हरिद्वार जायें ?"

माँ- "वहाँ तो नहाकर आये।"

मैं- "क्या खाना है ? यह खाना है ? (अलग-अलग चीजों के नाम लेकर)"

माँ- "मुझे अच्छा नहीं लगता।"

कई बार विनोद का समय मिलता तो हम माँ से उनकी इच्छा पूछते। मगर पूछ-पूछकर थक गये लेकिन उनकी कोई ख्वाहिश हमको कभी दिखी ही नहीं। अगर उनकी कोई भी इच्छा होती तो उनके इच्छित पदार्थ को लाने की सुविधा मेरे पास थी। किसी व्यक्ति से, पुत्र से, पुत्री से, कुटुम्बी से मिलने की इच्छा होती तो उनसे भी मिला देते। कहीं जाने की इच्छा होती तो वहाँ ले जाते लेकिन उनकी कोई इच्छा ही शेष नहीं थी।

न उनमें खाने की इच्छा थी, न कहीं जाने की, न किसी से मिलने की इच्छा थी, न ही यश-मान की.... जहाँ मान-अपमान सब स्वप्न है, उसमें उनकी स्थिति हो गयी थी, इसीलिए तो उन्हें इतना मान मिल रहा है।

इस प्रसंग से करोड़ों-करोड़ों लोगों को, समग्र मानव-जाति को जरूर प्रेरणा मिलती रहेगी।

मधुर संस्मरण

जीवन में कभी फरियाद नहीं....

"उनके चित्त की निर्मलता से मुझे तो काफी मदद मिली, उनके जीवन-प्रसंग पढ़कर तुम लोगों को भी बड़ा अच्छा लगता होगा।" पूज्य बापू जी

मैंने अपनी माँ को कभी फरियाद करते हुए नहीं देखा कि ʹमुझे इसने दुःख दिया... उसने कष्ट दिया... यह ऐसा है.... वह वैसा है...ʹ

जब हम घर पर थे तब बड़ा भाई जाकर मेरे बारे में माँ से फरियाद करता कि ʹवह तो दुकान पर आता ही नहीं है।ʹ

तब भी माँ के मन में मेरे प्रति कोई फरियाद नहीं होती थी। वे भाई की बात को मौनभाव से सुन लेतीं और कभी मुझे बता देतीं कि वो ऐसा बोलता है।

जब माँ आश्रम में रहने लगीं तब भी आश्रम की बच्चियों की कभी फरियाद नहीं.... आश्रम के बच्चों की कभी फरियाद नहीं। कैसा मौन जीवन ! ऐसी आत्माएँ धरती पर कभी-कभी ही आती हैं, उन्हीं की वजह से यह वसुन्धरा टिकी हुई है। मुझे इस बात का बड़ा संतोष है कि ऐसी तपस्विनी माता की कोख से यह शरीर पैदा हुआ है।

उनके चित्त की निर्मलता से मुझे तो बड़ी मदद मिली, आप लोगों को भी बड़ा अच्छा लगता होगा। मुझे तो लगता है कि जो भी महिलाएँ माँ के सम्पर्क में आयी होंगी, उनके हृदय में माँ के प्रति अहोभाव जगा ही होगा।

ʹमैं तो संत की माँ हूँ.... ये लोग साधारण हैं....ʹ अथवा ʹहम बड़े हैं.... पूजने योग्य हैं... लोग हमें प्रणाम करें.... मान दें....ʹ ऐसा किसी ने उनमें नहीं देखा। हाँ, मगर यह जरूर देखा होगा कि वे कभी किसी को प्रणाम नहीं करने देती थीं।

ऐसी माँ का सान्निध्य हमें मिला है तो हमें भी अपना चित्त ऐसा बनाना चाहिए कि ʹहम भी सुख-दुःख में सम रहें। अपनी आवश्यकताएँ कम करें। हृदय में भेदभाव न रखें। सबके प्रति मंगल का भाव रखें।ʹ मधुर संस्मरण

बीमारों के प्रति माँ की करूणा

धन्य-धन्य तेरा आँचल है, प्रगट ब्रह्म पावन निश्चल है।

दृढ़ता तेरी अचल अटल है, प्रभुप्रेम का ना कोई दाम।।

मुझे इस बात का पता अभी तक नहीं था, रसोइये और दूसरे लोगों ने बताया कि जब भी कोई आश्रमवासी बीमार पड़ता तो माँ उसके पास स्वयं चलकर पहुँच जातीं। संचालक रामभाई ने बताया कि ʹएक बार मैं बहुत बीमार पड़ गया था तो माँ मेरे पास आयीं और कुछ मंत्रजप किया। उन्होंने तीन दिन तक किया और मैं पूरी तरह स्वस्थ हो गया।ʹ

दूसरे लड़कों ने भी बताया कि ʹहमको भी कभी कुछ होता और माँ को पता चलता तो वे देखने आ ही जाती थीं।ʹ एक बार आश्रम में किसी महिला को बुखार हो गया तो माँ स्वयं उसका सिर दबाने बैठ गयीं। महिला आश्रम में भी कोई साधिका बीमार पड़ती तो माँ उसका ध्यान रखतीं। यदि वह ऊपर के कमरे में होती तो माँ कहतीं- ʹइसको नीचे का कमरा दो, बीमारी में ऊपर-नीचे आना-जाना नहीं कर पायेगी।ʹ

ऐसा था उनका परदुःखकातरता से भरा हृदय ! मधुर संस्मरण

कोई कार्य घृणित नहीं है.....

एक बार एक लड़के का कच्छा-लँगोट गन्दा देखकर शिवलाल काका (आश्रम के बुजुर्ग साधक) ने उसको फटकार लगायी। लेकिन माँ तो ऐसे कई कच्छे लँगोट धोकर चुपचाप बच्चों के कमरे के दरवाजे के पास रख देती थीं और किसी को इस बात का पता भी नहीं चलता था। कई गंदे-मैले कच्छे, जिन्हें धोने में स्वयं को भी घृणा हो, ऐसे कपड़े माँ ने धोये और बच्चों को कमरों के दरवाजे के पास चुपचाप रख दिये।

कैसा उदार हृदय रहा होगा, कैसा वात्सल्यभाव रहा होगा माँ का !! सभी के प्रति कैसी दिव्य संतान भावना और अंतःकरण में व्यावहारिक वेदांत का कैसा दिव्य प्रवाह !!!

सफाई के जिस कार्य को लोग निम्नतम समझकर घृणा करते हैं, उसे करने में भी माँ को घृणा नहीं हुई। उनकी कितनी महानता ! सचमुच, वे तो शबरी माँ ही थीं। देवहूति माँ थी कि शबरी माँ थी ! पर माँ तो माँ थी ! करोड़ों लोगों की आस्था के केन्द्र बापू जी की माँ तो थी ही ! मधुर संस्मरण

ʹप्रभु मुझे जाने दो....ʹ

मेरी माँ मुझे बड़े आदरभाव से देखा करती थीं। जब उनकी उम्र करीब 86 वर्ष की थी तब उनका शरीर काफी बीमार हो गया था। डॉक्टरों ने कहाः "लीवर और किडनी दोनों खराब हैं। एक दिन से ज्यादा नहीं जी सकेंगी।"

23 घंटे बीत गये। मैंने अपने वैद्य को भेजा तो वैद्य भी उतरा हुआ मुँह लेकर मेरे पास आया और बोलाः "एक घंटे से ज्यादा समय माँ नहीं निकाल पायेंगी।"

मैंने कहाः "भाई ! तू कुछ तो कर ! मेरा वैद्य है... इतने चिकित्सालय देखता है...."

वैद्यः "बापू ! अब कुछ नहीं हो सकेगा।"

माँ कराह रही थीं। करवट भी नहीं ले पा रही थीं। जब लीवर और किडनी दोनों निष्क्रिय हों तो क्या करेंगे आपके इंजेक्शन और दवाएँ ? मैं गया माँ के पास तो माँ ने इस ढंग से हाथ जोड़े कि आज्ञा माँग रही हों। फिर धीरे से बोलीं-

"प्रभु मुझे जाने दो।"

ऐसा नहीं कि ʹबेटा मुझे जाने दो।"

मैंने भी मेरे प्रति उनके प्रभु भाव और भगवान-भाव का फायदा उठाया और कहाः

"मैं नहीं जाने देता। तुम कैसे जाती हो, मैं देखता हूँ।"

माँ बोलीः "प्रभु ! पर मैं क्या करूँ ?"

मैंने कहाः "मैं स्वास्थ्य का मंत्र देता हूँ।"

उपजाऊ भूमि पर चाहे उलटा सीधा बीज पड़े तो भी उगता है। माँ का हृदय भई ऐसा ही था। मैंने उनको मंत्र दिया और उन्होंने जपना चालू कर दिया। एक घंटे में जो मरने की नौबत दिख रही थी, अब एक घंटे बाद उनके स्वास्थ्य में सुधार शुरु हो गया। फिर एक महीना.... दो महीने.... पाँच महीने... पन्द्रह महीने.... पचीस महीने.... चालीस महीने..... ऐसा करते-करते साठ से भी ज्यादा महीने हो गये। तब वे 86 वर्ष की थीं, फिर 92 वर्ष पार कर गयीं। रोकने का संकल्प लगाया तो उसे हटाने का कर्तव्य भी मेरा था। अतः आज्ञा मिलने पर ही उन्होंने शरीर छोड़ा। गुरु आज्ञा पालन का कैसा दृढ़ भाव ! मधुर संस्मरण

पूजनीया अम्मा के महान जीवन की वाटिका के कुछ सुरभित पुष्प...

अम्माजी की गुरुनिष्ठा

"सींच दिया है उर आँगन में, शील धर्म का अँकुर है।

गुरु ही राम रहीम ईश हैं, ब्रह्मा विष्णु शंकर हैं।।"

पूजनीया अम्मा अर्थात् पूर्ण निरभिमानिता का मूर्त स्वरूप ! लोग जब अम्मा के दर्शन करने जाते, तब संसार-ताप से तप्त हृदय सहज ही उनके समक्ष खुल जातेः "अम्मा ! आप आशीर्वाद दो न ! मैं मुसीबत से छूट जाँऊ...."

अम्मा का गुरुभक्त हृदय सामने वाले की गुरुनिष्ठा को मजबूत कर उसके हृदय में उत्साह एवं उमंग का संचार कर देता। वे कहतीं- "गुरुदेव बैठे हैं न ! हमेशा उन्हीं से प्रार्थना करो कि ʹहे गुरुवर ! हम आपके साथ का यह संबंध सदा निभा सकें ऐसी कृपा करना... हम गुरु से निभाकर ही इस संसार से जायें....ʹ माँगना हो तो गुरुदेव की भक्ति ही माँगना। मैं भी उनसे यही माँगती हूँ। अतः तुम्हें मेरा आशीर्वाद नहीं अपितु गुरुदेव का अनुग्रह माँगते रहना चाहिए। वे ही हमें हिम्मत देंगे, बल देंगे। वे शक्तिदाता हैं न !

साधना-पथ पर चलने वाले गुरुभक्तों को अम्मा का यह उपदेश अपने हृदयपटल पर स्वर्णाक्षरों में अंकित कर लेने जैसा है। मधुर संस्मरण

गुरुवचन माने एक व्रत, एक नियम

पूजनीया मातुश्री श्री माँ महँगीबाजी (अम्मा) गुरुभक्ति व गुरुनिष्ठा के महान इतिहास का एक प्रेरणादायी स्वर्णिम अध्याय हैं। पूज्य बापूजी में उनकी निष्ठा और गुरुआज्ञा पालन का भाव अदभुत था।

एक बार कुम्भ मेले के अवसर पर पूज्य बापूजी हरिद्वार में रुके हुए थे। वहाँ उन्होंने अम्मा को भी कुछ दिनों के लिए बुलाया था। अम्मा की शारीरिक स्थिति का ध्यान रखते हुए पूज्यश्री ने संदेश भिजवाया था कि ʹअम्मा के स्वास्थ्य के लिए प्रातःभ्रमण करना हितकारी है।ʹ परंतु अम्मा के लिए जहाँ निवास की व्यवस्था की गयी थी, वहाँ आसपास का रास्ता बहुत पथरीला था, जिससे अम्मा को सैर करने में अत्यंत कठिनाई होती थी। फिर भी संदेशा पाने के बाद अम्मा ने नियमित रूप से रोज सैर करना प्रारम्भ कर दिया। पूज्यश्री को जब इस बात का पता चला कि रास्ता पथरीला है तो उन्होंने एक सेवक को अम्मा के लिए जूते की व्यवस्था करने के लिए कहा। आज्ञानुसार सेवक जूते ले गया परंतु जूते कुछ आधुनिक ढंग के थे। जहाँ वर्तमान में जूते पहनना लोगों की दिनचर्या का एक सामान्य हिस्सा है, वहीं सीधा-सादा व परम्परागत जीवन जीने वाली अम्मा को जूते पहनने में जरा संकोच हो रहा था। अतः वह नित्य चप्पल पहनकर ही सैर करने जातीं।

कुछ दिनों बाद बापू जी सुबह-सुबह अम्मा का स्वास्थ्य पूछने उऩके निवास स्थान पर आये और अम्मा के पैरों में चप्पल देखते ही बापू जी ने जूते न पहनने का कारण पूछा।

तब अम्मा ने बड़ी मर्यादा से कहाः "साँईं ! मुझे जूते आदि की क्या जरूरत ! क्यों उन्हें लाने का कष्ट किया ! मेरा काम तो इन सादी-सूदी चप्पलों से ही चल जायेगा। और दूसरा, जूते पहनना मुझे दिखावटी बनने जैसा लगता है।"

तब बापू जी ने अम्मा जी को समझाया कि "इसमें दिखावटी बनने जैसी कोई बात नहीं है। चप्पल पहनने से आपके पैरों को जो कष्ट होता है वह जूते पहनने से नहीं होगा। आप निःसंकोच जूते पहना करो।"

इस पर अम्मा जी के हृदय में बड़ी व्यथा हुई कि ʹगुरुदेव को जूते पहनने का निर्देश दो बार देने का कष्ट हुआ और मुझे समझाना भी पड़ा।ʹ

पूरा जीवन अत्यंत सादा-सूदा, परम्परागत ढंग से बिताने वाली उन सादगीमूर्ति देवी ने लोकलज्जा का संकोच त्याग कर गुरु-वचन को सिर-आँखों पर लगाया और ऐसी दृढ़ता के साथ जीवन में धारण किया कि उनके जीवन के अंत तक अम्मा के चरणों को स्पर्श करने का सौभाग्य चप्पलों ने हमेशा-हमेशा के लिए खो दिया। तब से सभी ने अम्मा को जूते ही पहनते देखा।

हे माँ ! हे साक्षात् श्रद्धास्वरूपिणी ! धन्य है आपकी गुरुनिष्ठा ! धन्य है आपकी अनन्य श्रद्धा ! धन्य है आपका जीवन, जिसमें पूज्य गुरुदेव का हर वचन एक व्रत, एक नियम बन जाता था ! अम्मा के जीवन में सुशोभित गुरुनिष्ठा का यह सुंदर सदगुण प्रत्येक साधक के लिए साधना में सफलता का एक आधारस्तम्भ है। इससे आपके भी जीवन में श्रद्धा, विश्वास, अडिगता और समपर्ण के दिव्य पुष्प महक उठेंगे और सात्त्विक सूझबूझ व मन की गुलामी से बचने का सम्बल मिलेगा। मधुर संस्मरण

स्वावलम्बन एवं परदुःखकातरता

"मुझे ऐसी माता का पुत्र होने का व्यावहारिक गर्व है और ब्रह्मज्ञानी गुरु शिष्य होने का भी गर्व है।" पूज्य बापू जी

अम्मा ब्राह्ममुहूर्त में 4-5 बजे उठ जातीं और नित्यकर्म से निवृत्त होकर पहले अम्मा अपना नियम करतीं। जब तक शरीर ने साथ दिया, कितना भी काम हो पर एक घंटा जप तो वे करती ही थीं। जब शरीर वृद्धावस्था के कारण अशक्त होने लगा तो फिर तो दिन भर जप करती रहती थीं।

82 वर्ष की अवस्था तक तो अम्मा अपना भोजन स्वयं बनाकर खाती थीं। आश्रम के अन्य सेवाकार्य करतीं। जैसे – अतिथियों, साधु-संतों एवं गायों की सेवा, रसोईघर की देखरेख, बगीचे में सिंचाई, सब्जी तोड़ना, बीमारों का ध्यान रखना एवं रात्रि में भी एक दो बजे
आश्रम का चक्कर लगाने निकल पड़तीं। ठंड के मौसम में यदि कोई कम्बल ओढ़े बिना सो जाता तो अम्मा चुपचाप उसे कम्बल ओढ़ा जातीं। उसे पता भी नहीं चलता और वह शांति से सो जाता। उसे शांति से सोते देखकर अम्मा का मातृहृदय संतोष की साँस लेता। इसी प्रकार गरीबों में भी ऊनी वस्त्र, स्वेटर, गर्म टोपी, कम्बल आदि जीवनोपयोगी वस्तुओं का वितरण पूजनीया अम्मा करती-करवाती थीं। किसी को कोई कष्ट न हो, दुःख न हो, पीड़ा न हो इसका अम्मा विशेष ध्यान रखती थीं। स्वयं को कष्ट उठाना पड़े तो वह उन्हें मंजूर था पर दूसरे की पीड़ा, दूसरों के कष्ट उनसे देखे नहीं जाते थे।

व्यवहार तो क्या, वाणी के द्वारा भी कभी किसी का दिल अम्मा ने दुखाया हो ऐसा कभी देखने में नहीं आया। पूजनीया अम्मा के ये दैवी सदगुण आत्मसात् करके प्रत्येक मानव अपने जीवन को दिव्य बना सकता है। मधुर संस्मरण

अम्मा जी में माँ यशोदा जैसा भाव

जब अम्मा पाकिस्तान में थीं तब तो नित्य नियम से छाछ-मक्खन बाँटा ही करती थीं लेकिन भारत आने पर भी उनका यह नियम कभी नहीं टूटा।

अपने आश्रम-निवास के दौरान अम्मा अपने हाथों से ही दही बिलोतीं एवं लोगों में छाछ-मक्खन बाँटतीं। जब तक शरीर ने उनका साथ दिया तब तक उन्होंने स्वयं ही दही बिलोया। 82 साल की उम्र के बाद जब शरीर असमर्थ हो गया तब भी दूसरों से मक्खन निकलवाकर बाँटतीं।

अपने जीवन के अंतिम 3-4 वर्ष अम्मा ने एकदम एकांत, शांत स्थल में बिताये थे। वहाँ से भी अम्मा कभी-कभी साधकों में मक्खन बँटवातीं।

ब्रह्मलीन होने के 4-5 महीने पूर्व अम्मा हिम्मतनगर आश्रम में थीं। उस समय भी वे मक्खन मँगवाकर वहाँ के साधकों में बँटवातीं। ऐसा लगता मानो, माँ यशोदा अपने गोप-बालकों को मक्खन खिला रही हों ! मधुर संस्मरण

देने की दिव्य भावना

"उदारता का पार नहीं है, हरिरस बिन कोई सार नहीं है।"

अम्मा कभी किसी को प्रसाद लिये बिना नहीं जाने देती थीं। यह तो उनके सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति का अनुभव है।

नवरात्रि की एक घटना है। गुड़गाँव का एक भाई अम्मा को भेंट करने के लिए एक गुलदस्ता ले आया। दर्शन करके वह भाई तो चला गया पर सेविका को उसे प्रसाद देना याद न रहा। अम्मा को इस बात का बड़ा दुःख हुआ कि भाई प्रसाद लिये बिना ही चला गया।

अचानक वह भाई किसी कारणवश पुनः अम्मा की कुटीर के पास आया। उसे बुलाकर जब अम्मा ने प्रसाद दिया तभी उनको चैन पड़ा।

ऐसा तो एक-दो का नहीं, असंख्य लोगों का अनुभव है कि आगन्तुक को प्रसाद दिये बिना अम्मा नहीं जाने देती थीं। देना, देना और बस देना... यही उनका स्वभाव था। और देना भी ऐसा कि कोई संकीर्णता नहीं और देने का कोई अभिमान भी नहीं।

ऐसी सर्वसुहृद एवं परोपकारी माँ के यहाँ यदि संत अवतरित न होंगे तो भला और कहाँ होंगे ? मधुर संस्मरण

माता का वात्सल्य

"आश्रम के साधक अम्मा के आसपास वैसे ही इकट्ठे हो जाते थे, जैसे मधुमक्खियाँ छत्ते पर छा जाती हैं।" पूज्य बापूजी

महिला आश्रम बनने से पूर्व पूजनीया अम्मा मुख्य आश्रम में ही रहती थीं एवं आश्रम में रहने वाले सभी साधकों को नाम से पहचानती थीं। भक्तगण अम्मा को प्रसाद दे जाते तो अम्मा उसे सब साधकों में बाँट देतीं। वे कहतीं- "बच्चे खूब सेवा करते हैं... थक गये होंगे....." ऐसे करूणापूर्ण विचारों से उनका चित्त हमेशा द्रवित रहता था। उऩकी स्मरणशक्ति अत्यंत तेज थी। उन्हें पक्का याद रहता कि कौन-सा साधक प्रसाद लिये बिना रह गया है। उस साधक के लिए वे रात तक प्रसाद रखवातीं एवं संदेश भेजतीं। अन्य साधकों से पूछतीं- "अमुक साधक क्यों नहीं आया ?"

अम्मा का ऐसा निर्दोष प्रेम भला किस व्यक्ति में उनके लिए पूज्यभाव न जगाता।

महिला आश्रम बन जाने के बाद अम्मा वहाँ निवास  करने लगीं, तब मुख्य आश्रम में साधकों को अम्मा का वात्सल्यभरा व्यवहार खूब याद आता था। साधक अम्मा के दर्शन के लिए व्याकुल हो उठते। अम्मा को भी बच्चों का प्रेम खींच ले आता। जब साधकों को पता चलता कि अम्मा आश्रम में पधारी हैं तब एक अनोखा दृश्य देखने को मिलता। आश्रम के साधक अम्मा के आसपास वैसे ही इकट्ठे हो जाते जैसे मधुमक्खियाँ छत्ते पर छा जाती हैं। अम्मा के नेत्रों से झरते वात्सल्य-रस का पान करते साधक अघाते नहीं थे। उठने का तो कोई नाम ही नहीं लेता। अम्मा भी आँखों से स्नेह तो बरसातीं ही साथ ही किसी भी साधक को खाली हाथ जाने नहीं देतीं। प्रत्येक साधक के हाथ में कुछ-न-कुछ प्रसाद रखे बिना उनका हृदय संतोष का अनुभव नहीं कर पाता। कैसा सरल, सहज, उदार एवं करूणामय स्वभाव ! मधुर संस्मरण

ʹजा..... अब कभी प्रसाद नहीं रखूँगीʹ

एक दिन की बात है। अम्मा ने एक साधिका के लिए सुबह से ही प्रसाद निकाल कर रखा था किंतु किसी कारणवश वह अम्मा के पास नहीं जा पायी। अम्मा ने पूरे दिन उस साधिका का इंतजार किया। कई बार अपनी सेविका से पूछा भी। शाम को वह जब दर्शन करने आयी तब अम्मा ने कहाः "मेंने कब से तेरे लिए प्रसाद निकाल कर रखा है पर तू आयी ही नहीं !" फिर प्रेम से उलाहना देते हुए बोलीं- "जा.... अब तेरे लिये कभी प्रसाद नहीं रखूँगी।"

साधिका ने कहाः "नहीं... अब मैं प्रसाद नहीं रखूँगी।"

साधिका ने दुबारा माफी माँगी, तब अम्मा बोल पड़ीं- "ले, अब मेरे सामने ही प्रसाद खा।"

यह तो एक छोटा सा उदाहरण है। ऐसा तो बहुत बार होता था। दूसरों को खिलाने में अम्मा तृप्ति का अनुभव करती थीं। वे केवल साँईं की ही माँ नहीं, सबकी माँ थीं। मधुर संस्मरण

गरीब कन्याओं के विवाह में मदद

एक गरीब परिवार में कन्या की शादी थी। जब पूजनीया अम्मा को इस बात का पता चला तो उन्होंने अत्यंत दक्षता के साथ उसे मदद करने की योजना बना ली। उस परिवार की आर्थिक स्थिति जानकर लड़की के लिए वस्त्र एवं आभूषण बनवा दिये। शादी के खर्च का बोझ कुछ हल्का हो, इसलिए आर्थिक मदद भी की और वह भी इस तरह से कि लेने वाले को पता तक न चला कि यह सब पूजनीया अम्मा के दयालु स्वभाव की देन है।

कई गरीब परिवारों को पूजनीया अम्मा की ओर से कन्या की शादी में यथायोग्य सहायता इस प्रकार से मिलती मानो उनकी अपनी ही बेटी की शादी हो। मधुर संस्मरण

अम्मा जी का उत्सवप्रेम

भारतीय संस्कृति के पर्व-त्यौहारों को मनाने के लिए अम्मा सभी को प्रोत्साहित करतीं एवं स्वयं भी पर्व के अनुरूप सबको प्रसाद बाँटा करती थीं। जैसे – मकर सक्रांति पर तिल के लड्डू आदि।

सिंधियों का एक विशेष त्यौहार है ʹतीजड़ीʹ, जो रक्षाबंधन के तीसरे दिन आता है। उस दिन चाँद के दर्शन-पूजन करके ही स्त्रियाँ भोजन करती हैं। महिला आश्रम की साधिकाएँ पूज्य बापू जी की दीर्घायु की कामना करते हुए यह व्रत करती हैं।

अम्मा की सेविका ने भी यह व्रत रखा था। उस समय अम्मा हिम्मतनगर (गुज.) आश्रम में थीं। रात्रि हो चुकी थीं। सेविका ने अम्मा से भोजन के लिए प्रार्थना की तो अम्मा बोलीं-

"तू तो चाँद देखकर ही खायेगा न ! न्याणी (कन्या) भूखी रहे और मैं खाऊँ ? नहीं। जब चाँद दिखेगा, मैं भी तभी खाऊँगी।" अम्मा भी चाँद की राह देखते हुए बाहर कुर्सी पर बैठी रहीं। जब चाँद दिखा, तब अपनी सेविका के साथ ही अम्मा ने भोजन किया। कैसा मातृहृदय था अम्मा का ! भला उन्हें ʹजगज्जननीʹ न कहें तो क्या कहें ! मधुर संस्मरण

ʹमैं तो तुम्हारे साथ हूँ....ʹ

"दुर्गुण-दोष, विषय-विकार से, चित्त सदा निर्लेप रहा।

सजा ज्ञान से मन-मंदिर है, तन भी एक शिवाला है।"

साधिकाओं को जितना लगाव पूजनीया अम्मा से था, उतना ही लगाव पूजनीया माता जी (लक्ष्मी माता) से भी है। एक बार शरद पूर्णिमा के अवसर पर मैया जी आश्रम में उपस्थित नहीं थीं, इसीलिए साधिकाओं में उत्सव मनाने का इतना उत्साह नहीं था। किंतु अम्मा कैसे इस प्रकार बैठी रहने वाली थीं ! वे रात्रि में बाहर आयीं और उन्होंने देखा कि सभी बच्चियाँ बड़ी मायूस होकर बैठी हैं।

अम्मा ने कारण पूछा तो बहनों ने बतायाः "अम्मा ! मैया आश्रम में उपस्थित नहीं हैं।"

अम्मा ने कहाः "इसमें क्या हुआ ? चलो, मैं तो तुम्हारे साथ हूँ न !" उन दिनों अम्मा का स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं था, फिर भी वे बहनों के बीच आकर बैठ गयीं। अम्मा की उपस्थितिमात्र से बहनों की मायूसी जाने कहाँ पलायन हो गयी। सभी बहनें उत्साह से भर गयीं। अम्मा की प्रसन्नता ने चाँदनी से भी ज्यादा प्रभावी काम किया। बहनों ने प्रसन्नता से गरबे किये, भजन-कीर्तन किया। अम्मा आखिर तक उनके बीच बैठकर उन्हें प्रोत्साहित करती रहीं। अंत में बहनों का अम्मा के हाथ में जब खीर का प्रसाद मिला तो उनके आनंद की सीमा न रही। कितने वात्सल्य से भरा था अम्मा का हृदय ! मधुर संस्मरण

प्रत्येक वस्तु का सदुपयोग होना चाहिए

हमारी अम्मा नम्रता की साक्षात मूर्ति थीं.... एक उच्च आदर्शरूप थीं। स्वामी शिवानंद जी हमेशा कहते थेः "सच्चे साधु की पहचान उसके प्रथम गुण नम्रता में ही निहित है।" और अम्मा में तो नम्रता कूट-कूटकर भरी थी, जिससे वे छोटी-से-छोटी वस्तु का सदुपयोग करने हेतु किसी भी प्रकार की सेवा करने में संकोच नहीं करती थीं।

अहमदाबाद आश्रम में आने वाली दर्शनार्थी पूज्य बापू जी द्वारा शक्तिपात किये हुए वटवृक्ष ʹबड़बादशाहʹ की परिक्रमा करते एवं वहाँ का तीर्थजल ले जाते। यदि उन्हें बोतल न मिलती तो अम्मा के पास आ जाते एवं अम्मा उन्हें बोतल दे देतीं।

अम्मा के पास इतनी सारी बोतलें कहाँ से आती थीं, जानते हैं ? अम्मा आश्रम में चक्कर लगाते समय यहाँ-वहाँ पड़ी हुई पानी की बोतलें ले आतीं और उन्हें गर्म पानी एवं साबुन से अच्छी तरह साफ करके सँभालकर रख देतीं और जरूरतमंदों को बाँट देतीं।

इसी प्रकार साधना शिविर पूरा होने के बाद कई लोगों की चप्पलें इधर-उधर पड़ी रहतीं। अम्मा उनकी जोड़ी बनाकर रखतीं एवं उन्हें गरीबों में बंटवा देतीं।

ऐसा था उनका हर चीज को उपयोगी बनाने का स्वभाव ! ʹमैं विश्ववन्दनीय संत की माँ हूँ....ʹ यह अभिमान तो उन्हें कभी छू तक न सका था। बस, प्रत्येक चीज का सदुपयोग होना चाहिए, फिर वह खाने की चीज हो या पहनने-ओढ़ने की। मधुर संस्मरण

सबके हृदय में भगवान के दर्शन

एक बार महिला आश्रम की एक साधिका अपने बाल खुले रखकर रसोईघऱ में चली गयी। अम्मा ने उसे जाते हुए देख लिया तो कहाः "अरे ! कहाँ जाती है ? अक्ल नहीं है ? रसोई घर में कभी खुले बार रखकर नहीं जाया जाता।"

वह साधिका तो बाल बाँधकर वहाँ से चली गयी लेकिन अम्मा ने तुरंत अपनी सेविका से कहाः "अरे रे ! बहुत गलत हो गया।"

सेविकाः "क्या हुआ अम्माजी ?"

अम्माः "देख न, मैंने उसे जरा तेज आवाज में कह दिया। जा, उसे बुला ला।"

सेविका उस साधिका को बुलाकर ले आयी। उसे अपने पास बिठाकर सिर पर हाथ फेरते हुए अम्मा ने कहाः "बेटी ! मैंने तुझे जरा तेज आवाज में कह दिया।"

साधिकाः "उसमें क्या हुआ अम्मा ? मेरी भूल तो थी ही।"

अम्माः "वह तो ठीक है, लेकिन मुझे तेज आवाज में तुझसे नहीं कहना चाहिए था। किसी को दुःख हो ऐसा क्यों बोलें ? हर दिल में परमात्मा निवास करते हैं।"

आवश्यकता पड़े तो अनुशासन के लिए टोक भी देतीं और पुचकार से सँभाल भी लेतीं, कैसा अनोखा था उनका आत्मीय भाव ! मधुर संस्मरण

अम्मा का सेवाभाव

अम्मा आश्रम में शिविरों के दौरान भोजन बनाने की सेवा में भी मदद करती थीं। सेवा में लगी बहनों को घर लौटने में यदि देर हो जाती तो अम्मा उन्हें सिर्फ खिलाकर ही नहीं भेजतीं बल्कि यह सोचकर कि ʹये घर जाकर कब खाना बनायेंगी और कब घरवालों को खिलायेंगी ?ʹ भोजन बाँधकर भी देती थीं।

अम्मा में सेवा करने का भाव तो बड़ा प्रबल था लेकिन किसी से सेवा लेना वे कभी पसंद नहीं करती थीं। वृद्धावस्था होने पर भी कभी कोई भाववश उनके पैर दबाता तो कुछ ही मिनटों में वे मना कर देतीं कि "छोड़ दे... थक जायेगी"

वह कहतीः "नहीं अम्मा ! हम बिल्कुल नहीं थके हैं।"

तब अम्मा कहतीं- "मुझे किसी से सेवा लेना अच्छा नहीं लगता। अब रहने दो... बहुत देर हो गयी।"

सेवा करने में अम्मा की जितनी तत्परता थी, सेवा लेने में वे उतना ही पीछे हट जातीं। मधुर संस्मरण

कण और क्षण का सदुपयोग

"अपव्यय को रोको, मितव्ययी बनो एवं जो बचे उसे परहित में लगा दो।" पूजनीया अम्मा।

अम्मा के जीवन का मंत्र थाः "कण और क्षण का सदुपयोग करो, बिगाड़ बिल्कुल न करो।" उनमें किसी भी चीज का अपव्यय सहन नहीं होता था। अम्मा आश्रम में हमेशा पैनी नजर रखतीं, कहीं जरा भी बिगाड़ होता तो अत्यंत प्रेम से उलाहना दे देतीं। आश्रम में रहने वाली साध्वी बहनों को अपनी पुत्री समझकर वे कई बार हितभरी सलाह दे देती थीं। जब बहनें कपड़े धोने बैठतीं तो कभी कभार अम्मा उनके पास पहुँच जाती एवं देखतीं कि वे किस प्रकार कपड़े धोती हैं। साबुन का थोड़ा सा भी बिगाड़ उनसे सहन न होता। वे कहतीं कि "देख बेटा ! जिस कपड़े को साबुन लगाया है उसे निचोड़कर उसी पानी में दूसरे कपड़े भिगो दे, इससे थोड़ा बहुत मैल तो धुल ही जायेगा और साबुन की बचत भी होगी।" कितनी सावधानी थी अम्मा में !

आज के जेटयुग में जब हम लोग किसी भी प्रकार के अपव्यय पर जरा भी ध्यान नहीं देते, तब कण और क्षण बचाने के अम्मा के ऐसे प्रेरक प्रसंग हमारे लिये प्रकाश-स्तम्भ बन जाते हैं।

सेविका बहनें यदि कपड़े धोते-धोते थोड़ा भी ज्यादा पानी का उपयोग करतीं तो अम्मा प्रेम से टोकते हुए कहतीं- "बहन ! पानी और वाणी को खूब सोच-समझकर उपयोग में लाना चाहिए।" उनका व्यवहार और वाणी पूर्ण एकता की प्रतीति कराते थे।

आश्रम की छोटी से छोटी बातों का भी अम्मा खूब ख्याल रखती थीं। रात्रि में कई बार वे गौशाला में पहुँच जातीं और ʹगायों को घास चारा ठीक  से दिया है कि नहींʹ - इस बात का सावधानीपूर्वक निरीक्षण करतीं। गायें भूखी भी न रहें और घास-चारे का बिगाड़ भी न हो, इस बात का साधकों को हमेशा ध्यान दिलाती रहतीं।

उनकी मितव्ययिता के तो असंख्य दृष्टांत हैं। उनका यह कथन हृदय में अकिंत करने जैसा हैः "अपव्यय को रोको, मितव्ययी बनो एवं जो पचे उसे परहित में लगा दो।" मधुर संस्मरण

हमेशा के लिए अम्मा का हो गया....

अनजान को भी अपना कर लेने का उनका सहज स्वभाव था। एक बार भी अम्मा के सम्पर्क में आने वाला हमेशा के लिए उन्हीं का हो जाता। विदेश का एक भाई आश्रम में आऩे के पश्चात भी अम्मा से दूर-दूर ही रहता था। एक दिन उस भाई को अम्मा ने पास बुलाया। खूब प्रेम से उसके सिर पर हाथ रखकर उसका हाल-चाल पूछा और बोलीं- "बेटा ! तुम्हें आश्रम में अच्छा लगता है कि नहीं ?" फिर प्रेम से उसे प्रसाद दिया। यह देखकर उस भाई को लगा, मानो उसे अपनी खोयी हुई माँ मिल गयी हो ! पूजनीया अम्मा की यह मधुर स्मृति उसके हृदयपटल पर सदा-सदा के लिए अंकित हो गयी। मधुर संस्मरण

सभी परिस्थितियों में धन्यवाद !

अम्मा के जीवन में आयी हुई संघर्षपूर्ण परिस्थितियाँ उनकी बहुमुखी प्रतिभा को जगाने में अत्यंत सहायक सिद्ध हुईं। अपने सम्पूर्ण जीवन के दौरान उन्होंने आत्म-शिक्षा को जितना महत्त्व दिया उतना अन्य किसी शिक्षा को नहीं दिया और पूज्य बापू जैसी समत्वयोग में स्थित महान विभूति इसी का सुफल है।

साधनसम्पन्न किंतु कलहप्रिय कुटुम्ब में पुत्रवधु के रूप में आने के बाद जेठानियों द्वारा दी जाने वाली मानसिक यातनाओं को हँसते हुए बिना किसी फरियाद के सहन कर लेने वाली अम्मा के हृदय की कितनी विशालता होगी ! भारत-पाकिस्तान के विभाजन के समय समस्त धन-वैभव को छोड़कर भारत आकर विकट परिस्थितियों में नये सिरे से जीवन की शुरूआत करना, यह एक अत्यंत कसौटी का काल था। ऐसी परिस्थितियों में ही कुछ समय पश्चात उनका सौभाग्य-सिंदूर भी मिट गया, मानो पहले की कसौटियाँ कुछ कम हों। जो अपने प्राणों से भी प्यारा था, वह पुत्र भगवत्प्राप्ति के लिए घर छोड़कर निकल पड़ा।

कठिनाइयों ने कभी उनका पीछा नहीं छोड़ा किंतु पूजनीया अम्मा एक ऐसी आदर्शनिष्ठ चरित्रवान महिला थीं कि जिन्होंने अपने दैवी गुणों को कभी मंद नहीं होने दिया। हर नयी विपदा ने अम्मा के जीवन को और भी दिव्य बनाया। हर नयी विपदा ने अम्मा के जीवन को और भी दिव्य बनाया। इसी से परमात्मा की विशेष पसंदगी बनीं सत्पात्र अम्मा को ही अपने पूज्य बापू जी की मातुश्री बनने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ।

उनके जीवन से प्राप्त करने योग्य सबसे सुंदर सीख यदि कोई होगी तो वह यही हो सकती है कि उन्होंने कभी किसी भी व्यक्ति, परिस्थिति, समय को अपनी कठिनाइयों, संकटों अथवा यातनाओं के लिए दोषी नहीं माना, न ही कभी किसी के लिए कोई फरियाद ही की। उनका जीवन सदैव सभी परिस्थितियों को धन्यवाद ही देता गया। यही उनकी महानता थी। मधुर संस्मरण

प्रकृति के साथ तादात्म्य

महान विभूतियाँ परमात्मा की इस सृष्टिरचना को देखकर सदा आनंद का अनुभव करती हैं तथा सृष्टिकर्ता के विलक्षण स्वरूप की ओर वृत्ति को उन्मुख कर सुखद आश्चर्य का अनुभव करती हैं। इसी से प्रकृति के साथ तादात्म्य करना उनके लिए अत्यंत सरल होता है। अम्मा के जीवन में यह बात स्पष्ट रूप से झलकती थी। चन्द्रमा की चाँदनी को देखकर अम्मा खूब प्रसन्न होती थीं। वे कहतीं- "यदि यह चाँदनी इतनी आह्लाददायक शीतलता देती है तो उसे बनाने वाले के दर्शन कितने मधुर, शांतिप्रदायक होंगे !"

उनके लिए गौशाला की गायों की देखभाल करना यह जितनी सहज व प्रेमपूर्ण सेवा थी, उतनी ही निष्ठा के साथ नित्य प्रातः पक्षियों को दाने  डालने का उनका नित्यक्रम था। मधुर संस्मरण

परहित सरिस धरम नहिं भाई....

अम्मा के आश्रम में सेवा करने के लिए आऩे वाली बहनों की आर्थिक स्थिति के विषय में सम्पूर्ण जानकारी एकत्रित करतीं एवं उन्हें गुप्त रूप से सहायता करतीं। लेने वाले को इसकी भनक भी न लगती कि उसे दान मिल रहा है। आश्रम में उगने वाली सब्जी आग्रह करके कई बहनों को घर में ले जाने के लिए दे देतीं।

परहित सरिस धनम नहिं भाई....

गोस्वामी तुलसीदास जी की यह उक्ति अम्मा के जीवन में पूर्णतया आत्मसात् हो गयी थी। कई अनाथ बालकों के भरण-पोषण की देखरेख अम्मा स्वयं करतीं।

अम्मा ने अपना कार्यक्षेत्र केवल आश्रम एवं आश्रम के साधकों तक ही सीमित नहीं रखा था बल्कि उनका करूणापूर्ण हृदय किसी भी दीन-दुःखी की सहायता के लिए विकल हो जाता।

आश्रम परिसर के बाहर अम्मा अनाथालयों और अस्पतालों में जाकर लोगों का दुःख-दर्द बाँटतीं और आश्रमवासियों को उनकी सहायता के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित करतीं।

अम्मा समाज से परित्यक्त एवं कारावास भुगत रहे लोगों को भी अपराधी की दृष्टि से नहीं देखती थीं। ʹयह भी भगवान का एक रूप हैʹ ऐसा समझकर अम्मा उनके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहतीं। मधुर संस्मरण

ʹबस ! यही एक सार है....ʹ

एक बार की बात है। आश्रम की गौशाला में सेवा करने वाला जयराम नामक आश्रमवासी अम्मा के दर्शन करने आया। अम्मा उसको सिंधी भाषा में कुछ समझाने लगीं। वह सिंधी नहीं जानता था। अम्मा की वाणी को बीच में रोककर यह बात बताने में उसे संकोच हो रहा था परंतु अम्मा को सेविका भाँप गयी। उसने कहाः "अम्मा ! इसे सिंधी नहीं आती है।"

अम्मा ने पूछाः "क्या तू सचमुच समझ नहीं पाया ?"

उसने कहाः "हाँ अम्मा ! मुझे कुछ समझ में नहीं आया।"

बच्चे की निर्दोषता, सहजता पर अम्मा मुस्कराने लगीं। फिर अम्मा ने ʹ...........ʹ का उच्चारण करते हुए दोनों हाथ ऊपर करके हास्य-प्रयोग किया और उससे भी करवाया। फिर बोलीं- "यह तो समझ में आया न ?"

आश्रमवासीः "जी अम्मा !"

उसका मुखमंडल प्रसन्नता से खिल उठा। अम्मा ने वात्सल्यभरी दृष्टि डालते हुए कहाः "बस ! यही एक सार है। इसे ही समझना है।"

अम्मा का संकल्प कहो या उनका आशीर्वाद, उनकी भगवन्नाम-निष्ठा का प्रभाव कहो या तत्त्वनिष्ठा की ऊँचाई, उस दिन से उस साधक को कार की साधना में एक विलक्षण आनंद आने लगा।

समर्थ संत की ऐसी समर्थ माता के श्रीचरणों में हमारे बारम्बार प्रणाम ! मधुर संस्मरण

दिव्य गुरुभक्ति

भगवान कपिल मुनि जैसे ब्रह्मज्ञानी महापुरुष ने सदाचारी, संयमी एवं सात्त्विकता की मूर्ति माता देवहूति की कोख से अवतरित होकर उन्हें महानता प्रदान की। और माता देवहूति ने भी भगवत्प्राप्ति के लिए अपने आत्मज्ञानी पुत्र को गुरुपद पर आसीन करके ब्रह्मविद्या पाने का पुरुषार्थ किया था। इसका पुनरावर्तन इस कलियुग में भी देखने को मिला पूजनीया अम्मा के जीवन में। इस देवी ने पूज्य बापू जी को अपनी कोख से अवतरित कर जगज्जननी पद को विभूषित किया, साथ ही अपने ही ब्रह्मज्ञानी तत्त्ववेत्ता पुत्र को गुरुपद पर प्रतिष्ठित करके गुरु-शिष्य परम्परा को एक अनोखा गौरव भी प्रदान किया।

अम्मा  के जीवन में गुरुनिष्ठा, गुरुभक्ति और गुरुश्रद्धा कितनी प्रबल थी इससे संबंधित अम्मा के जीवन के अनेक प्रसंग सभी गुरुभक्तों के लिए प्रेरणादायी सिद्ध होंगे।

जब-जब अम्माजी को गुरुदेव का विरह असह्य हो उठता, गुरुदर्शन की तीव्रता पराकाष्ठा पर पहुँच जाती तब-तब अम्मा गुरुदेव की याद में मूर्च्छित हो जातीं। जब आश्रम में शिविर अथवा उत्सव का वातावरण होता तब अम्मा के दर्शन हेतु आने वाली भी बहुत होते। पूज्य श्री जैसी महान विभूति को जिन्होंने जन्म दिया ऐसी पूजनीया अम्मा के दर्शन की लालसा किसे नहीं होगी, फिर चाहे वर भारतवासी हो या विदेशी। ऐसी परिस्थितियों में उन्हें साधना के नियम को पूरा करने के लिए सत्साहित्य विभाग के कक्ष में चले जाना पड़ता। लोकैषणा अथवा वाहवाही से दूर रहने वाली अम्मा के लिए गुरुआज्ञा ही सर्वोपरि थी।

पूज्यश्री का सत्संग सुनकर उसका चिंतन करना, उसे आत्मसात् करना यह उनका महान लक्ष्य था। पूज्य श्री विनोद में अम्मा को ʹजेठानंद की माँʹ कहते तो अम्मा तुरंत कह देतीं- "मैं तो ब्रह्म हूँ।" सत्शिष्य की कैसी अनोखी पात्रता !

कभी कोई साधिका अम्मा के पास जाती और उनका अधिक समय ले लेती तो वे तुरंत ही कह देतीं- "ब्रह्मचिंतन कर। अपना और मेरा समय बरबाद मत कर।"

अम्मा की दृढ़ता भी गजब की थी। हाथ में लिया काम भले कठिन हो या सरल, छोटा हो या बड़ा किंतु निर्णय लेने के बाद वे उसे पूरा किये बिना नहीं रहतीं। वृद्धावस्था के कारण शरीर उनका साथ नहीं देता, फिर भी शरीर को उनके दृढ़ विचारों के अधीन होना पड़ता।

पूज्यश्री के दर्शन के लिए वे घंटों खिड़की के पास खड़ी रहकर अथवा बैठकर राह देखने से कभी उकसाती नहीं थीं। अपने पास मार्गदर्शन लेने आने वाले को हमेशा अपने गुरु देव के प्रति ही अखंड श्रद्धा रखने के लिए कहतीं और समझातीं- "साँईं बैठे हैं न ! मेरे सदगुरुदेव सर्वसमर्थ हैं। चिंता मत करो। श्रद्धा रखो, सब ठीक हो जायेगा।" पूज्य अम्मा ने अपने जीवन के अंतिम श्वास तक अपने गुरुदेव पर पूरी-पूरी श्रद्धा रखी थी। अम्मा का नाम भारत के सत्शिष्यों की सूचि में स्वर्णाक्षरों में लिखा जायेगा और युगों-युगों तक उनके जीवन से गुरुभक्तों को प्रेरणा,  उत्साह और हिम्मत मिलती रहेगी।

आज पूजनीया अम्मा हम सबके बीच नहीं है परंतु उनकी सरलता, सहिष्णुता, परोपकारिता एवं गुरुभक्ति की सुवास से आध्यात्मिक जगत सदैव महकता रहेगा। मधुर संस्मरण

मधुर विरह व्यथा

प्रेम जब जोर पकड़ता है तो शरारत का रूप ले लेता है।

पुण्यशीला माँ महँगीबाजी  एवं पूज्य श्री के बीच कैसा वार्तालाप-व्यवहार होता रहा होगा यह जिज्ञासा पूज्य बापू जी के साधकों में होनी स्वाभाविक ही है। अतः यहाँ इसी जिज्ञासा को कुछ अंश तक तृप्त करने का अल्प प्रयास किया जा रहा हैः

स्थलः हिम्मतनगर आश्रम

(पूज्य बापू अम्मा को प्यार से ʹजीजल माँʹ कहा करते थे। एक दिन....)

पूज्यश्रीः "कथा करने जाता हूँ।"

अम्माः "मुझे जीजल माँ कहते हो और छोड़कर चले जाते हो ?"

पूज्यश्रीः "मेरी एक माँ थोड़े ही है, लाखों हैं। सब रोती हैं।"

अम्माः ".... तो मैं भी तो रोती हूँ न !"

पूज्यश्रीः "रोना नहीं, .......... करना।"

अम्माः "आप यहाँ बैठो।"

पूज्यश्रीः "बहुत फोन आ रहे हैं.... लोग बुला रहे हैं।"

अम्माः ".....तो क्या हुआ ? नहीं जाने का। उनसे कह दो  मेरी माँ नन्हीं सी बालिका है। मैं नहीं आऊँगा।" यह सुनकर पूज्यश्री का हृदय भर आया कि कैसा दिव्य भाव है माँ का !

स्थलः शांति वाटिका, अहमदाबाद आश्रम

कभी-कभी अम्मा कह उठतीं- "इस बार साँईं आयें तो उन्हें पकड़कर रखना, इधर बैठा देना, छुपा देना ताकि कहीं न जा सकें।"

जब पूज्यश्री को इस बात का पता चलता तब अम्मा के प्रेम को देखकर उनका हृदय भावविभोर हो उठता ! वह अम्मा का प्रेम ही था जो उन्हें बार-बार अहमदाबाद खींच ले आता था।

स्थलः हिम्मतनगर आश्रम

अम्मा का पूज्यश्री के प्रति भक्तिभाव, प्रेम दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा था। एक बार हिम्मतनगर आश्रम में अम्मा सुबह उठ तो गयी थीं परंतु लेटी ही रहीं, बिस्तर छोड़ा नहीं। सेविका ने कारण पूछा तो बोलीं "नहीं, आज तो मैं नहीं उठूँगी। जब साँईं यहाँ आयेंगे, नाचेंगे, गायेंगे, मुझे उठायेंगे तभी मैं उठने वाली हूँ।"

उन दिनों बापू जी पंचकर्म-चिकित्सा करवा रहे थे इसलिए इतनी सुबह, सूर्योदय से पहले उनका आना सम्भव ही नहीं था परंतु एकाएक किसी ने दरवाजा खटखटाया, देखा तो साँईं आये हैं। भक्त के आगे भगवान विवश हो जाते हैं और अपने सारे नियम-बंधन तोड़कर उन्हें दर्शन देने दौड़े चले जाते हैं और सचमुच बापू जी अम्मा के सन्मुख नाचने लगे, गाने लगे और स्नेह से उनका हाथ पकड़कर उन्हें बिठाया। हृदय के तार कैसे एक दूसरे से जुड़ गये थे ! दूसरी ओर वैद्य के पूछने पर बापू जी ने कहाः ʹमैं क्या करूँ ? अम्मा ने बुलाया था। अम्मा के संकल्प से खिंचकर चला गया था।ʹ

स्थलः जटीकरा, दिल्ली आश्रम

एक बार दिल्ली में पूज्यश्री का दशहरे का सत्संग-कार्यक्र्म था। वहाँ पर भक्तों ने पूज्यश्री को भगवान श्रीरामचन्द्रजी के समान वस्त्राभूषण, मुकुट आदि पहनाये। रात्रि को पूज्यश्री जटीकरा आश्रम में अम्मा के सामने उसी वेश में आये और सेविका को पहले से कुछ समझा दिया। सेविका ने अम्मा से कहाः ʹअम्मा ! देखो, साक्षात् भगवान राम आप पर प्रसन्न होकर आपको दर्शन देने साकार रूप में प्रकट हुए हैं और कह रहे हैं कि ʹअम्मा ! कुछ माँगो।ʹ

परंतु अम्मा ने अपनी दृष्टि तक ऊपर न की। सेविका के बार-बार कहने पर भी अम्मा ने न कुछ देखा, न कुछ कहा। बस, चुप्पी साधे रखी। आखिर जब सेविका ने हार मानकर कहाः ʹअम्मा ! साँईं है, साँईं !ʹ

बस, ʹसाँईंʹ शब्द सुनते ही अम्मा ने तुरंत दृष्टि ऊपर की ओर साँईं को ऊपर से नीचे तक अहोभाव से राम जी के रूप में निहारने लगीं।

मानो कह रही थीं-

राम तजूँ पै गुरु न बिसारूँ।

गुरु के सम हरि कूँ न निहारूँ।।

बापूजी से बढ़कर अम्मा के लिए जीवन में और कोई भगवान नहीं थे। बापू जी कई बार पूछतेः "भगवान कहाँ हैं ?"

तो अम्मा बतातीं- "आप ही भगवान हो।"

स्थलः शांति वाटिका, अहमदाबाद आश्रम

एक बार पूज्य बापूजी और पूजनीया अम्मा कुर्सी पर बैठे थे।

अम्माः "सेविका कहती है कि ʹस्वामी जी कितना प्यार करते हैं, आपके लिए इतना दौड़े चले आते हैं तो आपको चले जाने का (शरीर छोड़ देने का) विचार क्यों आता है ?ʹ आप भी हमेशा मना करते हो। अब तो अनुमति दो जाऊँ ! अब अम्मा बैठ के क्या करेगी ?"

पूज्य बापू जीः "अम्मा आत्मज्ञान दृढ़ करेंगी।"

अम्माः "जरूर करेंगी लेकिन आप भीतर से ऐसा न रखो कि ʹअम्मा न जायें... अम्मा न जायें....ʹ आनंद.... आनंद....।"

कैसी थी अम्मा की अनासक्ति कि पूज्य बापू जी को भी कह दिया कि आप भीतर से ऐसा न रखो कि अम्मा न जायें ! मधुर संस्मरण

पूज्य बापू जी के नित्य दर्शन

"मेरे से भी आगे का काम मेरी माता ने कर दिखाया। लाखों वर्षों के बाद इतिहास ने मुझ पर मेहरबानी की। नहीं-नहीं, लेकिन इतिहास रचने वाली मेरी माता ने मुझ पर एहसान किया कि मुझे गुरुरूप में निहारा। मैं तो उनको भुलावे में डालता था लेकिन वे भुलावे में न पड़ीं।" पूज्य बापू जी

परम पूजनीया माँ महँगीबाजी की पूज्य बापू जी में ऐसी अनोखी श्रद्धा एवं दृढ़ गुरुभक्ति थी कि वे अपनी सरल व निर्दोष भक्ति के कारण अक्सर बापू जी का प्रेम तथा ज्ञान सम्पादन कर लिया करती थीं।

उन दिनों अम्मा हिम्मतनगर आश्रम में रहती थीं, पूज्य बापू जी भी एकांतवास के दौरान वहाँ पधारे हुए थे। बापू जी जब घूमने निकलते तो प्रायः अम्मा से मिलकर ही कुटिया में वापस जाते थे। अम्मा भी दर्शन के लिए व्याकुल रहतीं, पहले से ही कुर्सी तैयार रखवाती थीं और कभी आगे से तो कभी पीछे मुड़कर आवाज लगातीं- ʹओ दयालु प्रभु " थोड़ी देर तो बैठो।ʹ

पूज्य बापू जी को हिम्मतनगर से हरिद्वार जाना था। उन दिनों अम्मा की गुरुदर्शन  तड़प इतनी बढ़ गयी थीं कि वे बापू जी का विछोह सहन नहीं कर पाती थीं। वैसे तो बापू जी कहीं भी जाते तो अम्मा को प्रणाम करके ही जाते थे, परंतु इस बार वे अम्मा से मिले बिना ही चले गये ताकि अम्मा को दुःख न हो।

पूज्य बापू जी के हरिद्वार-प्रस्थान के बाद भी इधर अम्मा को नित्यप्रति बापू जी  साक्षात दर्शन होते थे। बापू जी उन्हें गुदगुदी करते थे,  ʹहरि हरि बोलʹ बुलवाते हुए हाथ ऊँचे करवाकर हँसाते थे। सेविका को बापू जी के दर्शन नहीं होते थे, सिर्फ अम्मा की क्रियाएँ ही दिखती थीं। इन्हीं मधुर अठखेलियों में एक दिन अम्मा ने देखा कि बापू जी चक्कर लगाकर जा रहे हैं और मुझे मिलने नहीं आ रहे हैं। ʹतो क्या वे मुझसे रूठ गये हैं ?ʹ ऐसा सोचकर अम्मा विरह व्यथा से बेचैन हो गयीं।

इस तरह विरह-विरह में एक दिन, दो दिन बीते... अम्मा पुकारने लगीं- "मेरे शाहों के शाह ! मेरे दयालु ! मेरे बाबा ! मेरे पुत्र ! .....सामने कुटिया में बैठे हो और दर्शन नहीं देते ? मुझसे क्यों बिछुड़ गये हो ? मुझसे क्यों दूर हो गये हो ?"

तीसरे दिन अम्मा खूब उदास हो गयीं और बोलने लगीं- "बापू जी तो ऐसा कहते हैं कि ओ मुंहिंजी जीजल माँ (ओ मेरी प्यारी माँ !) तुम कहीं भी होगी, मैं तुम्हें दृढ़ निकालूँगा। फिर क्यों नहीं आते हैं ?"

अब अम्मा अत्यधिक रोने लगी थीं। उनकी विरह व्यथा सीमा पार कर रही थी।

अम्मा कहने लगीं- "आज के आज मुझे साँईं के पास ले चलो या साँईं को यहाँ बुलाओ, नहीं तो मैं मर जाऊँगी।"

अंतर्यामी पूज्य बापूजी से कहाँ बेखबर रहने वाली थी भक्त की पुकार ! अम्मा अभी तो बोल रही थीं कि इतने में फोन के द्वारा पूज्य बापू जी का संदेश मिला कि अम्मा हिम्मतनगर से अहमदाबाद के लिए निकलें, साँईं हरिद्वार से अहमदाबाद के लिये निकल रहे हैं।

सच तो कहा हैः

सच्चे हृदय की प्रार्थना, जब भक्त सच्चा गाय है।

भक्तवत्सल के कान में, पहुँच झट ही जाय है।।

अहमदाबाद में साँईं के दर्शन करके अम्मा भावविभोर हो गयीं- "कुर्बान जाऊँ... बलिहार जाऊँ... आज आप आ गये नहीं तो पता नहीं क्या हो जाता ! मैं सुबह से रो रही थी।"

बापूजीः "मेरे भी मन में हुआ कि अम्मा बहुत याद करती हैं। मैंने फोन करवाया तो पता लगा कि मेरी जीजल माँ बहुत रो रही हैं। मैं उसी समय वहाँ से निकला और यहाँ पहुँच गया।"

फिर अम्मा साँईं का हाथ पकड़कर पूछने लगीं- "आपका नाम क्या है ?"

साँईं- "आशाराम।"

"नहीं।"

"आसू।"

"नहीं।"

"हँसमुख।" (पूज्यश्री के बचपन का नाम)

"नहीं। देखो तो, मैं आपका नाम भी भूल गयी क्या ? मैंने आज कितने नामों से पुकारा पर आप आये नहीं। अब आप ही कहो कि कौन से नाम से पुकारूँ तो आप आओगे ?"

अम्मा के हृदय के प्रेम की गहराई को देखकर पूज्य बापू जी का हृदय उनके प्रति एकदम छलक गया, मानो वे अपना ब्रह्मज्ञान का खजाना लुटाने लगे और उछालकर बोलेः "मैं भी ब्रह्म हूँ और अम्मा भी ब्रह्म हैं।"

अम्माः "हाँ।"

धन्य था अम्मा का उत्कट प्रेम कि जिससे उन्होंने हँसते-खेलते ब्रह्मज्ञान को पा लिया !

2

एक दिन आश्रम के संचालक अम्मा के स्वास्थ्य के बारे में पूछने आये, तब अम्मा ने पूछाः "क्या खबर लाये हो ?"

संचालकः "साँईं पूछ रहे थे कि अम्मा के क्या समाचार हैं ?"

अम्माः "साँईं तो यहाँ बैठे हैं ? तुमने दर्शन नहीं किये ? साँईं अभी-अभी अंदर गये।"

संचालक श्री समझ गये कि बापू जी अम्मा को नित्य दर्शन देते हैं, यह बात मैंने सुनी तो थी पर अब उसमें मेरी दृढ़ आस्था हो जाय इसलिए पूज्यबापू जी ने मुझे यहाँ भेजा है। यह सब मेरे गुरुदेव की ही लीला है।

उन्होंने तुरंत उत्तर दियाः "हाँ अम्मा !"

अम्माः "साँईं कितने दयालु हैं ! सामान तैयार किया कि दिल्ली जाना है परंतु मैंने मना किया तो बैठ गये।"

संचालक (भावविभोर होकर)- "हाँ अम्मा !" और मन ही मन बोल उठे, ʹबापू जी की लीला तो बापू जी ही जानें।ʹ

3

एक बार अम्मा वाटिका में टहल रही थीं। तभी एक साधक उनके दर्शन करने आया। उसे देख अम्मा ने प्रसन्नता से कहाः "आज तो साँईं (पूज्य बापूजी) कितनी मौज में हैं ! तूने दर्शन किये ?"

साधकः "नहीं अम्मा ! मुझे तो कई दिनों से दर्शन नहीं हुए।"

अम्मा को दया आ गयी। एक सेवक को बुलाकर कहाः "बेचारे ने बहुत दिनों से दर्शन नहीं किये। इसे साथ ले जा, साँईं जी कुटिया में बैठे हैं, तू इसे दर्शन करवा दे।"

वह बेचारा साधक क्या बोलता ! वह तो जानता था कि पूज्य बापू जी अभी दिल्ली में हैं पर अम्मा को दर्शन की तीव्र तड़प के कारण नित्य प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं।

साधकः "अम्मा ! मैं अभी बाहर जा रहा हूँ फिर आकर दर्शन कर लूँगा।"

अम्मा दिनभर राह देखती रहीं कि वह आये तो उसे साँईं के दर्शन करवा दूँ। वे सेविका से कहने लगीं- "बेचारे को बिना दर्शन के ही जाना पड़ा। अब न जाने कितने बजे उसका आना होगा !"

सेविका ने अम्मा की चिंता दूर करने के लिए अम्मा की फोन द्वारा उस भाई से बात करवा दी।

अम्मा ने पूछाः "दर्शन किये ?"

अम्मा की ऐसी ऊँची भावदशा एवं साधकों के प्रति अत्यधिक करूणा देख उसकी आँखों में आँसू छलक उठे। स्नेहकम्पित वाणी में वह बोलाः "हाँ अम्मा ! दर्शन हो गये। आपकी करूणा के, गुरुभक्ति के और दिव्य भावदशा के भी।"

उसका हृदय गदगद और रोम-रोम पुलकित हो रहा था। ऐसी वात्सल्यमूर्ति और महान गुरुभक्त माँ की कोख से ही कारूण्यमूर्ति, ज्ञानावतार पूज्य बापूजी का प्राकट्य हुआ था। मधुर संस्मरण

विनोद-विनोद में ब्रह्मज्ञान

"शरीर तो यहीं पर रहेगा, तुम तो आत्मा-परमात्मा में एक हो जाओ। अम्मा तो आनंदस्वरूप हैं।" पूज्यबापू जी

1

पूज्य श्री सत्संग के लिए शांति वाटिका से आश्रम जा रहे थे।

अम्माः "दयालु हो। पूरे एक दिन कथा करते हो। दिन में तो कथा की, अभी शाम को भी करोगे क्या ?"

पूज्य श्रीः "........... अम्मा ! उदास क्यों होती हो ? अपना दिल क्यों छोटा करती हो ? अम्मा को तो ज्ञान है, अम्मा भगवान हैं, अम्मा तो खुद खुदा हो गयी हैं... क्या अपने को ʹजेठे माँʹ (जेठानंद की माँ) मानती हो ?"

अम्माः "नहीं।"

पुज्यश्रीः "फिर खुद को क्या समझती हो ?"

अम्माः "मैं तो ब्रह्म हूँ... ज्ञानस्वरूप हूँ।"

पूज्यश्रीः "बस, तो फिर मौज में रहो न !"

अम्माः "जिस समय साँईं आते हैं तब मौज रहती है, चले जाते हैं फिर तो... कुछ अच्छा नहीं लगता।"

पूज्यश्रीः "ऐसा चिंतन करो की शरीर नहीं है। शरीर को चलाने वाला चेतन आत्मा ही है।"

(फिर पूज्यश्री अम्मा का हाथ देखते हुए कहते हैं)

"अम्मा आनंदस्वरूप होंगी। भगवान मिलेंगे। भगवान पछेंगे कि अम्मा क्या चाहिए ? ... तो फिर क्या कहोगी ?"

अम्माः "कुछ नहीं चाहिए।"

(पूज्यश्री उठकर जाने लगते हैं।)

अम्माः "अभी आप यही बैठो।"

पूज्यश्रीः "बैठा रहूँ ? सत्संग नहीं करूँ ?"

अम्माः "सारा दिन तो जाकर बैठ जाते हो !"

पूज्यश्रीः "लोग प्रसन्न होते हैं।"

अम्माः "....और मैं यहाँ बैठी राह देखती रहूँ ?"

पूज्यश्रीः "क्यों देखती रहो ? ʹमैं खुद खुदा हूँ... मैं खुद साँईं हूँ.... मैं खुद आत्मा हूँ...ʹ ऐसा चिन्तन करना। शरीर को क्यों देखना !"

विनोद के क्षणों में भी ब्रह्मज्ञान की बातें ! अम्मा के साथ पूज्यश्री का सहज वार्तालाप भी ब्रह्मज्ञान से भरपूर होता था।

पूज्यश्री के प्रति अम्मा का दिव्य उत्कट प्रेम और पूज्यश्री का ब्रह्मज्ञान.... कैसा सुन्दर समन्वय। न कोई पांडित्यपूर्ण भाषा की आवश्यकता, न कोई वेद-उपनिषद के अध्ययन की आवश्यकता। हँसते-खेलते, विनोद में ही गूढ़ ब्रह्मज्ञान की बातें....

2

बापूजीः "भगवान कहाँ हैं ?"

अम्माः "अपना-आपा हैं।"

बापू जीः "हाँ, आनंद देने वाले भगवान अपना-आपा हैं।

राम जिन जे मन में, तिन जा सला थिया सावा....

राम जिनके मन में बसे हैं उनके भाग्य हरे-भरे हो जाते हैं। उनकी बराबरी कौन कर सकता है। अब हर काम भगवान सफल कर देंगे। बोलो श्रीराम...

मिलना है तो मिल लो रे भाई, साधु यह मिलन की वेला है।

मानुष जनम हीरा हाथ न आवे रे, चौरासी लख योनि में भटक जावे रे।

स्वरूप अपना ध्यान करो, अमर आत्मा का चिंतन करो, मुक्त हो जाओ।"

अम्माः "........ मैं अमर आत्मा हूँ।

मुंहिंजो साँईं त पीरनि जो पीर आ,

जंहि जी संगत बि खंड ऐं खीर आ

बारहां ई महिना मौज मचे हिन दर ते,

गुरुअ दर ते..."

(मेरे साँईं तो शाहों के शाह हैं, जिनकी संगत भी दूध-मिश्री के समान मधुर है। गुरु के इस दर पर बारहों महीने मौज लगी रहती है।)

बापू जीः "मेरी अम्मा तो ब्रह्म स्वरूप हैं, जिनकी संतान भी ब्रह्मात्मा है। वे तो बारहों महीने जप करती हैं, स्वरूप हैं। उनको तो नित्य सर्वत्र आनंद होता है, आनंद ही। चलो तो चलकर सत्संग सुनें...."

फिर अम्मा ने पूज्यश्री को तुलसी का हार पहनाते हुए कहाः "मेरे साँईं ! तुलसी का हार पहनो।"

"माई ! यह तुलसी की माला बहुत लाभप्रद है। जो तुलसी का पत्ता मुँह में डालें, तुलसी की माला शरीर पर धारण करे और पवित्रों से भी पवित्र परमात्मा की सत्ता को सबमें निहारे, वह मुक्तात्मा हो जाता है। बोलो श्रीराम... ..............

3

अम्माजी शरीर छोड़ने की बात कर रही थीं, तब पूज्य महाराजश्री बापू जी उनकी अपने प्रति अगाध श्रद्धा का सुंदर सदुपयोग करते हुए उन्हें जीवन्मुक्ति की ओर अग्रसर कर रहे हैं-

बापूजीः "अभी जल्दी नहीं जाना..... व्यर्थ समय न जाय, जपते कमाई कर लो, पक्का ब्रह्मज्ञान पाना है। अभी नहीं जाना है। बाद में मेरी गोद में सिर रखना।"

अम्माः "अभी रख दूँ ?"

"अभी नहीं, बाद में जब भेजना होगा तब मेरी गोद में सिर रखना। गाय के गोबर से लीपन करेंगे और मुँह में तुलसी का पत्ता डालेंगे। ૐૐ... मैं अमर आत्मा हूँ... ૐૐ... इस प्रकार से भगवान में मिल जाना। फिर और कहीं भटकाना नहीं है। दूसरा जन्म नहीं लेना है। जैसे घड़े के टूटे जाने पर उसके भीतर जो आकाश तत्त्व होता है वह उस महाकाश में मिल जाता है, वैसे ही मेरी प्यारी माँ का आत्मा व्यापक परमात्मा में मिल जायेगा। बोलो श्रीराम... ठीक है ? मुक्त होना है। ૐૐ... ब्रह्म... व्यापक....

ओ मुंहिंजी जीजल अमां, तुंहिंजा धक बि भला।

तुंहिंजा बुजा बि भला, पर शाल हुर्जी हयात।

ʹजीजल (प्यारी) अम्मा ! तेरी मार भी अच्छी, तेरी डाँट भी अच्छी पर तू रह हयात।ʹ

तू अमर आत्मा, खुद खुदा है। न कोई दूसरा जन्म लेना है, न स्वर्ग में जाना है। बोलो श्रीराम....

राम का मतलब है अमर आत्मा, जो रोम-रोम में बसता है। तुझमें राम, मुझमें भी राम, इसमें भी राम, सबमें राम, राम-ही-राम... बोलो श्रीराम...।

मौज आ गयी। ૐૐ.... अम्मा को अच्छा लगता है ?"

अम्माः "हाँ, कुछ-न-कुछ कहते रहो, अच्छा लगता है।"

"अच्छा लगता है। माई ! राम बाहर नहीं हैं, भीतर ही हैं। अड़सठ तीर्थ अपने भीतर ही हैं। नारायण भी तू, जेठे (बड़े भाई) की माँ भी तू, साँईं भी तू, सच्चा सरताज भी तू और मेरी जीजल माँ भी तू.... सबमें बसी है तू ! बोलो श्रीराम..."

कितना ज्ञानमय परिसंवाद है। इसे पढ़कर सुनकर तो ʹश्रीमद् भागवतʹ का भगवान कपिल एवं उनकी मातुश्री श्री देवहूति जी के बीच का परिसंवाद आँखों के सामने साकार हो जाता है। जो इस पावन संवाद को पढ़ेगा, सुनेगा, सुनायेगा उसको जीते-जी आत्मानंद, आत्मसुख और सारे बंधनों से मुक्ति पाने का नजरिया मिल जायेगा।

4

अम्मा प्रतिदिन राह देखती थीं कि साँईं सत्संग करके आयेंगे और मुझे दर्शन होंगे। एक दिन साँईं को आने में देर हो गयी तो अम्मा भी देर रात तक जागती ही रहीं। इतने में साँईं आ गये और बोलेः ʹ...........ʹ

अम्मा की खुशी का तो ठिकाना ही न रहा। वे एकदम से उठकर बाहर जाने लगीं।

साँईं- "अम्मा कहाँ जा रही हो ?"

अम्माः "बाहर बैठकर बातें करेंगे।"

साँईं ने समझायाः "अम्मा ! रात बहुत हो गयी है, अभी बातें करेंगे तो नींद बिगड़ जायेगी। ज्यादा बातें नहीं करनी चाहिए।" साँईं ने अम्मा को सुला दिया। दूसरे दिन अम्मा सुबह उठीं, नित्यकर्म किया और पूरा दिन बस चुपचाप ही रहीं।

शाम को साँईं ने पूछाः "अम्मा ! आज क्यों चुपचाप बैठी हो ?"

अम्माः "आज पूरा दिन वही चिंतन चलता रहा कि साँईं ने कहा है, ज्यादा बातें नहीं करनी चाहिए।"

अम्मा ने पूज्यश्री की आज्ञा अक्षरशः पकड़ ली। पूज्यश्री ने कहा कि ʹज्यादा बातें नहीं करनी चाहिएʹ तो नहीं की, चुप्पी साध ली। यह सदगुण हमेशा के लिए उनके जीवन में भी आ गया था। जप चलता रहता था।

आज्ञापालन का यह सदगुण देखकर बापूजी का हृदय प्रेम से बरस पड़ा, मानो एकाक्षरी मंत्र की दीक्षा दे दी हो। बापू जी बोलेः "हाँ, अम्मा ! आवश्यक हो उतना ही बोलना चाहिए। फालतू बातें नहीं करनी चाहिए। बस, ....... करती रहो।ʹʹ

कितनी सहजता से अम्मा एकाक्षरी मोक्ष-मंत्र ʹʹ के नित्य जप की अधिकारिणी बन गयीं और अंत में उत्तम पद को पाया !

5

पूज्यश्रीः "तुम स्वयं को जेठे की माँ मानती हो ?"

अम्माः "नहीं।"

पूज्यश्रीः "ढेल (अम्मा का मायके का नाम) मानती हो ?"

अम्माः "नहीं"

पूज्यश्रीः "तुम मेरी माँ हो ?"

अम्माः "यह शरीर है।"

पूज्यश्रीः "फिर तुम खुद को क्या समझती हो ?"

अम्माः "मैं ब्रह्म हूँ। ज्ञानस्वरूप हूँ। ....... मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर को चलाने वाला चेतन आत्मा हूँ।"

पूज्यश्रीः "हाँ, यही ब्रह्मज्ञान है। शरीर तो यहीं रहेगा, तुम तो आत्मा परमात्मा में एक हो जाओगी। अम्मा तो आनंदस्वरूप हैं, अम्मा भगवान हैं। यदि भगवान आ जायें तो तुम क्या कहोगी ?"

अम्माः "कुछ नहीं, मैं भी भगवान हूँ।"

पूज्यश्रीः  "जैसे मेंहदी बीच लाली रही समाय..."

6

एक बार रात को पूज्यबापू जी की राह देखते-देखते अंत में अम्मा को नींद आ गयी। अचानक 11.30 बजे उनकी आँख खुल गयी और ʹसाँईं कहाँ हैं ? मुझे साँईं के दर्शन करने हैंʹ... साँईं कहाँ हैं ?ʹ - इस प्रकार पुकार करते बालक की भाँति रोने लगीं। पास के कमरे में पूज्यश्री बापूजी विश्राम कर रहे थे। अम्मा की आवाज सुनकर तुरंत बाहर आये और पूछाः "अम्मा! क्यों रो रही हो ?"

अम्मा रोते-रोते उलाहना देते हुए बोलीं- "आप कथा करने चले जाते हो, मैं आपका इंतजार करती रहती हूँ... सारा दिन मुझे अकेली छोड़कर चले जाते हो...।"

पूज्य बापू जीः "अम्मा ! इसमें रोना क्यों ? ऐसा सोचो कि मैं अमर आत्मा हूँ और मैं ही साँईं में भी हूँ।" (सिंधी में भजन गाते हुए)

साँईं बि तूं ऐं माण्डू बि तूँ,

सभ में तूं, तूं छपर ऐं छांव, जल में थल में तूं।

बुढे बार में तूं, जित किथ वेठो आहीं तूं,

अमर आत्मा बि तूं, जेठे माउ बि तूं, साँईंअ में बि तूं।

अर्थात् साँईं भी तू और मनुष्य भी तू, सब में तू, तू ही छत और छाँव। जल थल में तू, वृद्ध और बालक में भी तू, जहाँ-तहाँ बसा है तू। अमर-आत्मा भी तू, जेठे माँ (बड़े पुत्र जेठानंद की माता) भी तू, साँईं में भी तू ही है।

ऐसी चिंता कभी मत करना कि मैं अकेली हूँ। अकेले आये हैं और अकेले ही जाना है तो मोह क्यों करना ? अकेले रहना है तो मोहमाया बढ़ती है। आपको तो मुक्त होना है। एक ईश्वर का आसरा लेना...। (भजन के स्वर में)

अजु बि तुंहिंजो आसरो, मूं खे कल बि तुंहिंजी वाह

मूं खे नित नित तुंहिंजो आसरो, सदाईं बारहां माह।

अर्थात् मुझे आज भी तेरा आसरा है, मुझे कल भी रहेगा तेरा इंतजार प्रभु ! मुझे नित-नित (प्रतिदिन) तेरा ही आसरा है, हमेशा ही, बारह माह।

दिल में धड़कण तुंहिंजी, अखियुनि में ओज बि तूं

कननि में तुंहिंजी कृपा बसे, मन जो मालिक बि तूं

अर्थात् मुझमें भी है तू और मुझे तेरा ही है आसरा। बोलो श्रीराम.... मेरे दयालु प्रभु ! ओ मेरे दयालु साँईं ! जितने तुम व्यापक-विशाल हो उतनी तुमसे मैं कृपा माँगती हूँ। यहाँ-वहाँ (सर्वत्र) तुम ही हो, मुझमें भी तुम-ही-तुम हो। मधुर संस्मरण

ऐसी माँ के लिए शोक किस बात का ?

"....?... का चिंतन-गुंजन करके, अंतर्मन में यात्रा करके दो दिन के बाद वे विदा हुई।" पूज्य बापू जी

पूज्य बापू जी कहते हैं- "जिस दिन मेरे सदगुरुदेव का महानिर्वाण हुआ, उसी दिन मेरी माता का भी महानिर्वाण हुआ। 4 नवम्बर 1999 तदनुसार रमा एकादशी का दिन, कार्तिक का महीना, गुजरात के मुताबिक आश्विन, संवत 2055 दिन गुरुवार। न इंजेक्शन भुकवाये, न ऑक्सीजन पर रहीं, न अस्पताल में भर्ती हुई वरन् दिल्ली में अपने जटीकरा आश्रम का एकांत जगह पर ब्राह्ममुहूर्त में 5 बजकर 37 मिनट पर बिना किसी ममता-आसक्ति के 92 साल की उम्र में उनकी नश्वर देह छूटी। पंछी पिंजरा छोड़कर आजाद हुआ, ब्रह्म हुआ तो शोक किस बात का ?

व्यवहारकाल में लोग बोलते हैं कि ʹबापू जी ! यह शोक की वेला है। हम सब आपके साथ हैं....ʹ ठीक है, यह व्यवहार की भाषा है लेकिन सच्ची बात यह है कि मुझे शोक हुआ ही नहीं। मुझे तो बड़ी शांति, बड़ी समता है क्योंकि माँ अपना काम बनाकर गयी हैं।

संत मरे क्या रोइये, वे जायें अपने घर....

माँ ने आत्मज्ञान के उजाले में देह-त्याग किया है। शरीर से स्वयं को पृथक मानने में उनकी रूचि थी, वासना को मिटाने की कुंजी उनके पास थी, यश और मान से वो कोसों दूर थीं। ʹ......ʹ का चिंतन-गुंजन करके, अंतर्मन में यात्रा करके दो दिन के बाद वे विदा हुईं। जैसे कपिल मुनि की माँ देवहूति आत्मारामी हुई, ऐसे ही माँ महँगीबाजी आत्मारामी होकर, नश्वर चोले को छोड़कर शाश्वत सत्ता में लीन हुई अथवा संकल्प करके कहीं भी प्रकट हो सकें, ऐसी दशा में पहुँच गयीं। ऐसी माँ के लिए शोक किस बात का ?

जिनके जीवन में किसी के लिए फरियाद नहीं रही, ऐसी आत्माएँ धरती पर कभी-कभी ही आती हैं, इसी से यह वसुंधरा टिकी हुई है।

मुझे इस बात का भी संतोष है कि आखिरी दिनों में मैं उनके ऋण से थोड़ा मुक्त हो पाया। इधर-उधर के कार्यक्रम होते रहते थे लेकिन हम कार्यक्रम ऐसे ही बनाते कि माँ याद करे और हम पहुँच जायें।

मेरे गुरुजी जब इस संसार से विदा हुए तो उन्होंने भी मेरी ही गोद में महाप्रयाण किया और मेरी माँ के महानिर्वाण के समय भी भगवान ने मुझे यह अवसर दिया – इस बात का मुझे संतोष है।

मंगल मनाना, यह तो हमारी संस्कृति में है लेकिन शोक मनाना, यह हमारी संस्कृति नहीं है। हम श्रीरामचन्द्रजी का प्राकट्य दिवस - ʹरामनवमीʹ बड़ी धूमधाम से मनाते हैं, श्रीकृष्ण का अवतरण दिवस - ʹजन्माष्टमीʹ बड़ी धूमधाम से मनाते हैं लेकिन श्रीकृष्ण और श्रीरामजी जिस दिन विदा हुए, उसे हम शोक दिवस के रूप में नहीं मनाते हैं, हमें उस दिन का पता भी नहीं है।

शोक और मोह – ये आत्मा की स्वाभाविक दशाएँ नहीं हैं। शोक और मोह तो जगत को सत्य मानने की गलती से होता है। इसीलिए अवतारी महापुरुषों की विदाई का दिन भी हमको याद नहीं कि किस दिन वे विदा हुए और हम शोक मनायें।

हाँ, किन्हीं-किन्हीं महापुरुषों की निर्वाण-तिथि जरूर मनाते हैं। जैसे – वाल्मीकि ऋषि निर्वाण तिथि, महात्मा बुद्ध की निर्वाण तिथि, संत कबीर, गुरु नानक, श्री रामकृष्ण परमहंस अथवा श्री लीलाशाहजी बापू आदि ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों की निर्वाण तिथि मनाते हैं, लेकिन उस तिथि को हम शोकदिवस के रूप में नहीं मनाते वरन् उस तिथि को हम मनाते हैं उनके उदार व विचारों का प्रचार-प्रसार करने के लिए, उनके मांगलिक कार्यों से सत्प्रेरणा पाने के लिए। हम शोक दिवस नहीं मनाते हैं क्योंकि सनातन धर्म जानता है कि आपका स्वभाव अजर, अमर, अजन्मा, शाश्वत और नित्य है और मृत्यु शरीर की होती है। ʹहम भी ऐसी दशा को प्राप्त होंʹ, इस प्रकार के संस्मरणों का आदान-प्रदान निर्वाण-तिथि पर करते हैं, महापुरुषों के सेवाकार्यों का स्मरण करते हैं एवं उनके दिव्य जीवन से प्रेरणा पाकर स्वयं भी उन्नत हो सकें – ऐसी उनसे प्रार्थना करते हैं।" मधुर संस्मरण

श्रद्धांजलि

"विश्वहित के लिए संतरत्न सदगुरु पूज्य आशारामजी बापू को अवतरित करने वाली माँ महँगीबा जी का समग्र विश्व ऋणी रहेगा।"

स्वभाव से शांत, नम्र एवं निष्कामता की मूर्ति माँ महँगीबाजी ने अपना पूरा जीवन एक धर्मपरायणा समाजसेविका के रूप में बिताया। अपने लिए कम-से-कम खर्च करके गरीब, असहाय लोगों की सेवा करना, अपने संकल्प के प्रति दृढ़ निश्चय रखना और विश्व के प्रत्येक प्राणी में परमात्मा का दर्शन करना, यह उनका सहज स्वभाव था। श्री श्री माँ महँगीबाजी ने अहमदाबाद में महिला उत्थान केन्द्र की स्थापना करवाकर महिलाओं के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

आश्रमवासी साधक-साधिकाओं के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं नैतिक उत्थान का भी वे बहुत ध्यान रखती थीं। जिन्हें उनका सान्निध्य-लाभ लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और जो उनके इस प्रेरक जीवन-चरित्र को पढ़ने-सुनने का सौभाग्य पा रहे हैं, उनके लिये अम्मा का जीवन एक मार्गदर्शक बन चुका है।

समग्र विश्व को ज्ञानामृत का पान कराने वाले संत श्री आशारामजी बापू की मातुश्री श्री माँ महँगीबाजी के अंतिम समय में पूज्य बापू जी स्वयं वहाँ उपस्थित थे। उनके पार्थिव शरीर को 4 नवम्बर को ही दोपहर बाद करोलबाग में वंदे मातरम रोड पर स्थित आश्रम में लाया गया। मातु श्री के महानिर्वाण के समाचार को पाकर हजारों-हजारों नर-नारियों के अलावा केन्द्रीय गृहमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी, मानव संसाधन मंत्री श्री मुरली मनोहर जोशी, शिक्षा राज्यमंत्री श्री जयसिंह राव गायकवाड़ पाटिल, भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष श्री जयसिंह राव गायकवाड़ पाटिल, भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष श्री कुशाभाई ठाकरे, विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष श्री अशोक सिंघल सहित अनेक गणमान्य नागरिकों ने दिल्ली आश्रम में पहुँचकर उनको अपनी भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित की।

दिनांक 5 नवम्बर को दोपहर 2 बजे से रवीन्द्र रंगशाला के सामने वन्दे मातरम् रोड से सम्मानयात्रा निकाली गयी, जो दिल्ली के प्रमुख राजमार्गों से होती हुई दिल्ली एयरपोर्ट पहुँची। वहाँ से विमान द्वारा माँ महँगीबाजी के शरीर को अहमदाबाद लाया गया।

दिनांक 6 नवम्बर को दोपहर 2 बजे तक उनका शरीर लोगों के दर्शनार्थ अहमदाबाद आश्रम में ही रखा गया। यहाँ भी उनके अंतिम दर्शन के लिए विशाल जनसैलाब उमड़ पड़ा। गुजरात राज्य के तत्कालीन राज्यपाल श्री सुंदरसिंह भंडारी एवं तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री केशुभाई पटेल को पता चला तो वे भी दौड़े चले आये। मुख्य मंत्री एवं उनके मंत्रिमंडल के कई सदस्यों तथा अन्य पक्षवालों ने भी ʹसंत की माँ..... सबकी माँʹ को श्रद्धांजलि अर्पित की। सभी पक्षवालों में से कइयों ने स्थल पर आकर श्रद्धा सुमन चढ़ाये तो कइयों ने श्रद्धांजलि संदेश भेजे। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी, राजस्थान के मुख्यमंत्री श्री अशोक गेहलोत तथा अन्य कई

गणमान्य लोगों ने श्रद्धांजलि-संदेश भेजे। दोपहर 2 बजे से अहमदाबाद के प्रमुख मार्गों से शोभायात्रा निकाली गयी, जिसमें करीब 20-25 हजार लोग शामिल थे और लाखों लोगों ने इन पुण्यात्मा पतितपावनी संत माँ के आखिरी दर्शन किये।

दिनांक 7 नवम्बर को वेदमंत्रों के उच्चारण के साथ दोपहर एक बजे माँ महँगीबाजी को महासमाधि दी गयी।

माँ महँगीबाजी का स्थूल शरीर भले आज नहीं है लेकिन उनके द्वारा जगायी गयी निष्काम सेवा, प्रभुभक्ति व आत्मज्ञान की जगमग ज्योति मानव-समाज को प्रकाश देती रहेगी, चिरकाल तक लाखों लोगों का पथ प्रदर्शन करती ही रहेगी। इन ʹमाँʹ को किस विधि प्रणाम करें..... क्या शब्द कहें, जिन्होंने विकट परिस्थितियों से पसार हो रहे इस त्रिताप-तप्त जगत को ऐसा संतरत्न प्रदान किया ! पूरा विश्व इन माँ का हमेशा ऋणि रहेगा।

उनके श्रीचरणों में समर्पित है श्रद्धांजलि... भावांजलि.... प्रेमांजलि....

श्री योग वेदांत सेवा समिति

आज भले ही माँ महँगीबाजी स्थूल रूप में हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनका सूक्ष्म अस्तित्व हमें सदैव आनंद की अनुभूति कराता रहेगा। अम्मा ब्रह्मलीन होकर हम सभी को सत्यस्वरूप ब्रह्म में प्रतिष्ठित होने का संदेश देकर गयी हैं।

कभी राम हुए, कभी कृष्ण हुए, कभी साँईं आशाराम हैं।

हे जगज्जननी माँ महँगीबा, तुमको बारम्बार प्रणाम हैं।।

ऐसी माँ महँगीबाजी को विश्वभर में फैले हुए करोड़ों-करोड़ों भक्तों की ओर से श्रद्धांजलि... भावांजलि... प्रेमांजलि...

साधक परिवार

"श्रद्धेय बापू जी ! यह जानकर गहरा शोक हुआ कि आपकी पूज्या माता जी अब संसार में नहीं रहीं। माता के स्नेह की छाया से बढ़कर कोई छाया नहीं होती। आप शोक और कष्ट में दूसरों को ढाढ़स बँधाते रहते हैं। आपके शोक की घड़ी में हम सब आपके साथ हैं। परम पिता परमात्मा से प्रार्थना है कि ये दिवंगत आत्मा को सदगति प्रदान करें और समस्त परिवार को यह शोक सहन करने की शक्ति दें। आपकी कृपा बनी रहे।"

श्री अटल बिहारी वाजपेयी, तत्कालीन प्रधानमंत्री

"आदरणीया माता जी के आकस्मिक निधन का समाचार प्राप्त कर हार्दिक दुःख हुआ। अपने प्रियजनों का बिछोह यद्यपि अत्यंत दुःखदायी होता है परंतु ईश्वरेच्छा के सम्मुख हम सब नतमस्तक हैं, यह बतलाने की आवश्यकता नहीं है क्यों आपमें (पूज्यबापूजी) कर्मयोगी, भक्तियोगी तथा ब्रह्मज्ञानी तीनों का ही समावेश है।

आप जैसे संत-महापुरुष को, जो आज लाखों-करोड़ों भक्तों का मार्गदर्शन कर रहे हैं, जन्म देकर वास्तव में पूजनीया माता जी की कोख धन्य हुई और उन्हें स्वतः ही ऊँची गति प्राप्त हो गयी।"

श्री अशोक सिंघल, कार्याध्यक्ष, विश्व हिन्दू परिषद

"परम पूज्य बापू ! सब साधक भाई-बहन !

ʹश्रीरामचरितमानसʹ में आता हैः

सोचनीय सबहीं बिधि सोई। जो न छाड़ि छलु हरि जन होई।।

ʹवह तो सभी प्रकार से सोच करने योग्य है जो छल छोड़कर हरि का भक्त नहीं होता।ʹ

मैं तो केवल परम पूजनीया माँ की विदाई को वंदन करने, अपने हृदय के भाव और श्रद्धा-सुमन समर्पित करने के लिए आया हूँ। उनकी चेतना के, उनकी ऊर्जा के आशीर्वाद सब पर उतरे ही हैं, उऩ्हें हम सब प्राप्त करें। इस निमित्त पूज्य बापूजी के दर्शन करने को मिले और साधकों की साधना-तपस्या के भी दर्शन हुए। विशेष कुछ न कहते हुए... कई वर्ष पूर्व मैं इस आश्रम (संत श्री आशाराम जी आश्रम, साबरमती, अहमदाबाद) में आया था। पूज्य बापू के दर्शन करने अब कई वर्षों के बाद आ पाया हूँ। कुछ अलग ही स्वरूप.... दिने दिने नवं नवं... प्रतिक्षणे वर्धमानम्... ऐसा कुछ हो रहा है और हो, यह स्वाभाविक ही है। बस, पूज्य माँ की चेतना को मेरे प्रणाम ! पूज्य बापू को प्रणाम !"

संत श्री मोरारी बापू

"श्रद्धेय माता जी के महाप्रयाण पर मैं अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन लोकसेवा में व्यतीत किया एवं पूज्यश्री को भी उनके जीवन से काफी बल मिला है। ऐसी भाग्यशाली माता का पुत्र होना भी एक गौरव की बात है। उनके महान जीवन से हम सभी को सत्कार्य से जुड़ने की प्रेरणा प्राप्त हो, ऐसा प्रभु से वरदान माँगकर मैं पुनः अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।"

श्री सुंदरसिंह भंडारी, तत्कालीन राज्यपाल, गुजरात

"महाप्रयाण पर पुष्पांजलि अर्पित करना, यह तो लोक-व्यवहार है। हृदय की भावना से हम यह श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं। पूज्य माता जी ने जो कुछ किया, वह अनुपम एवं अद्वितीय है। वे शक्तिस्वरूपा थीं, वही शक्ति संत श्री आशारामजी बापू के रूप में हमारे लिए हस्तांतरित कर गयीं एवं प्रेरणा देती गयीं कि हम भी शक्तिशाली बनें, कुछ कर दिखायें। अपना सनातन हिन्दू धर्म शक्ति का उपासक है और आज एक महाशक्ति विलीन होकर ईश्वर में मिल गयी है। विश्व को पूज्य बापू जैसा रत्न जिन माता ने दिया, उन माता की महिमा का यशोगान हम किन शब्दों में कर सकते हैं ! उनको हमारे शत-शत नमन....

श्री केशुभाई पटेल, तत्कालीन मुख्यमंत्री, गुजरात

"माँ का वियोग और वह भी उन माँ का, जिन्होंने विश्व को पूज्य बापूजी जैसे महापुरुष दिये, उनके वियोग का तो कहना ही क्या ! हमें वरदानस्वरूप बापू जी प्रदान करने का उनका महान कार्य कल्पनातीत है। वे कोई साधारण नारी नहीं अपितु एक महान देवीं थीं। मैं एक बार पुनः माताजी के श्रीचरणों में श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।"

श्री कुशाभाऊ ठाकरे, तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष, भा.ज.पा.

"बहुत ही कम समय में संस्कृति का रक्षण और उत्थान करने वाले हमारे आशारामजी बापू जैसे सपूत जिस माँ ने दिये हैं, ऐसी माँ को ईश्वर धरती पर बार-बार भेजा करें। उनके श्रीचरणों में नमन !"

आचार्य श्री गिरिराज किशोरजी, तत्कालीन महामंत्री, विश्व हिन्दू परिषद

"विदेशी मदर को हमारे देश में राष्ट्रीय सम्मान मिला सेवा के नाम पर... और हमारे देश की माँ जिन्होंने छुपे रूप से मानवमात्र की सेवा की, लाखों-करोड़ों की सेवा करने वाला संत सपूत जिनकी कोख ने दिया, उन माँ के सम्मान के लिए सरकार क्या करती है, यह प्रजा को देखना है।"

श्री नटुभाई शास्त्री, जामनगर

कोलकाता की ʹहावड़ा जूट मिल्स लिमिटेडʹ के प्रबंध-निदेशक श्री ओ.पी.मल कहते हैं- ʹकोलकाता में मेरा कारोबार चलता है और बार-बार अहमदाबाद भी जाना होता है, जिससे इन दोनों शहरों की सेवा-प्रवृत्तियों के बारे में मुझे जानकारी मिलती रहती है। इस सेवाक्षेत्र में एक तो थी सेवामूर्ति के रूप में अखबार और टेलिविजन पर प्रसिद्धि पायी हुई मदर टेरेसा और दूसरी थीं गुप्त रूप से निरंतर सेवा की ज्योत जगमगाती रखने वाली माता महँगीबाजी। माता महँगीबाजी लोगों के दुःख दूर करने लिए सदा तत्पर रहती थीं। गरीब-गुरबों के लिए उनके हृदय में असीम प्यार था। वे प्रेम और त्याग की साक्षात् प्रतिमा थीं। किसी के आँसू उनसे देखे नहीं जाते थे।

कोलकाता की मदर टेरेसा तो कोई भी छोटी-बड़ी सेवा करती तो उसके समाचार अखबारों एवं टेलिवजन के माध्यम से देश विदेश में फैल जाते, जबकि सेवामूर्ति माँ महँगीबाजी की निरंतर चल रही मूक सेवा-प्रवृत्ति का परिचय अखबारों एवं टेलिविजन पर आना तो दूर रहा, आश्रम द्वारा भी उसकी प्रसिद्धि का प्रसार किसी समय करते हुए देखने को नहीं मिला। दाहिना हाथ सेवा करे और बायें हाथ को पता भी नहीं चलता। इसी कारण से मेरा मानना है कि सेवाक्षेत्र में माता महँगीबाजी एक अप्रकट सितारा थीं। अखबार-टेलिविजन के माध्यम से उनकी प्रसिद्धि हो, उनमें ऐसी रूचि ही नहीं थी। इसलिए विश्व को इस महान आत्मा की निरंतर चल रही मूक सेवा-प्रवृत्ति का परिचय नहीं मिल पाया।" मधुर संस्मरण

अध्यात्म के पथिकों के नाम संदेश

संत श्री लाल जी महाराज

हम पहले भी जिनके आशीर्वाद के पात्र बन चुके हैं वे थीं माता देवहूति। उन माता ने समाज को भगवान कपिल के रूप में एक अमूल्य रत्न दिया था। ऐसे ही माँ महँगीबा जी ने भी भारत को संतशिरोमणि श्री आशारामजी महाराज के रूप में एक अनुपम भेंट देकर हम सबका कल्याण किया है। उन्होंने अपने पूरे कुटुम्बसहित सबके कल्याण के लिए सेवाकार्य कर दीर्घायु की प्राप्ति की।

जैसे दीपक स्वयं प्रकाशित होकर औरों को भी प्रकाश पहुँचाता है, वैसे ही माता महँगीबाजी के लाल संत श्री आशारामजी बापू ने स्वयं ज्ञान प्राप्त करके अगणित आत्माओं का भगवान से संबंध जोड़ने के लिए असीम पुरुषार्थ किया है। भारत की जनता को ईश्वरोन्मुख बनाने का इतना बड़ा पुरुषार्थ ! हम संक्षेप में इतना ही कह सकते हैं कि कलियुग में भगवान संतराज (पूज्य बापू) के रूप में अवतरित हुए हैं।

आशा के पाश में सभी लोग बँधे हुए हैं। इस आशा के पाश से मुक्त करने के लिए सदुगुरू श्रीलीलाशाहजी महाराज ने ʹआशाʹ के साथ ʹरामʹ जोड़कर हमें संत श्री आशारामजी के रूप में साक्षात राम ही दिये हैं। जैसे प्रभात के समय सूर्योदय होने पर अंधकार को हटाने के लिए कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता, सूर्य की उपस्थितिमात्र से अंधकार स्वयं दूर हो जाता है, उसी प्रकार संत श्री की उपस्थितिमात्र से अज्ञानरूपी अंधकार स्वयं दूर होने लगता है। पूज्य बापू जी का सत्संग ऐसा है कि भारत में ज्ञान का दिव्य प्रकाश फैल गया है।

संवत् 2021 के श्रावण मास में कृष्ण पक्ष की सोमवती अमावस्या को मातुश्री महँगीबाजी मणिनगर से मोटी कोरल स्थित पंचकुबेरेश्वर महादेव के मंदिर में पधारी थीं और उन्होंने ये शब्द कहे थेः "मेरा लाड़ला लाल, छोटा पुत्र आसुमल कहे बिना ही घर से चला गया है। वह कहाँ होगा, कोई पता नहीं है। लाल जी महाराज ! आप उससे मुलाकात करवा दो, तभी मैं अन्न-जल लूँगी।"

उसी माँ के आशीर्वाद का यह फल है कि करोड़ों-करोड़ों लोगों को इस घोर कलियुग में भी भगवदशांति की झलकें मिल रही हैं। जनता उसका अनुभव करे और उसे पचाये, यह बहुत जरूरी है।

संत श्री की दो संतानों – श्री नारायण साँईं और भारती देवी के लिए उनके माता पिता ने धर्म का खजाना कमाकर रखा है तथा उसे एक धरोहर के रूप में इन चिरंजीवियों के हृदय में उड़ेल रखा है।

राम की प्राप्ति के राम के द्वारा ही होती है। इसीलिए आज आशारामजी बापू ने जनता के समक्ष परम कल्याण का मार्ग प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में रखा है। यह कृपावर्षा दिन-प्रतिदिन उसी भाव से बढ़ती रहे, हम ऐसी प्रार्थना करें।

उस महान अमृतसागर के हिमायती, वेद-वेदांगों के सारांश के समरस भाव में रसेश्वर भगवान श्रीकृष्ण जैसे गोपिकाओं के बीच कह गये कि "मैं तो आपके प्रेम का ऋणी हूँ। आज अहैतुकी कृपा करके मुझे अपने ऋण से मुक्त करना।" जैसे स्वभाव से ʹʹ कार में ʹʹ एक मात्रा है तथा उसी के सामने ʹʹ कार है, वह मिलाकर ʹश्रीरामʹ जैसा मोक्षप्रद मंत्र बनता है, उसी प्रकार परम पूज्य संत श्री आशारामजी बापू के स्नेहार्थी सभी साधक उनके आशीर्वाद के रामरस में समा जायें। मधुर संस्मरण

अमर रहेगा तेरा नाम

महँगी मैया ! सारे जग में, अमर रहेगा तेरा नाम।

दिव्य सदा स्नेहमय जीवन, जन्म-कर्म तेरा निष्काम।।टेक।।

प्रखर ओज-तेज यश वैभव, रंगा भक्ति से हृदय का पालव।

ज्ञान-ध्यान समता का आश्रय, अंतरचित्त में हरि का नाम।।

महँगी मैय!....

धन्य-धन्य तेरा आँचल है, प्रगट ब्रह्म पावन निश्चल है।

दृढ़ता तेरी अचल अटल है, प्रभुप्रेम का ना कोई दाम।।

महँगी मैया !....

ममता-मोह त्यजी आसक्ति, अनन्य प्रभुभक्ति और मुक्ति।

विनय विवेक ईश्वरीय शक्ति, सुत को ही जाना भगवान।।

महँगी मैया !.....

उदारता का पार नहीं है, हरिरस बिन कोई सार नहीं है।

सत्य नाम और रूप रहित है, अजर अमर ʹसाक्षीʹ गुरुज्ञान।।

महँगी मैया !.....

मधुर संस्मरण

ज्ञान का किया उजाला है

महँगी मैया दिया है तूने, ऐसा लाल निराला है।

जन-जन को जागृत कर जिसने, ज्ञान का किया उजाला है।।टेक।।

अपनी स्नेहमयी छाया में, तूने जिसे सँवारा है।

प्रेम-भक्ति और ज्ञान-ध्यान से, जिसको सदा निखारा है।।

निजस्वरूप आनंदमय जीवन, प्राणों से भी प्यारा है।

सरल हृदय सत्कर्म अनोखा, मनवा भोला-भाला है।।

महँगी मैया....

नश्वर काया माया से, चित-चकोर सदा निर्लेप रहा।

नित्यमुक्त हरिमय हृदय को, बंधन का कोई न लेप रहा।।

दुर्गुण-दोष, विषय-विकार से, चित्त सदा निर्लेप रहा।

सजा ज्ञान से मन-मंदिर है, तन भी एक शिवाला है।।

महँगी मैया...

सींच दिया है उर आँगन में, शील धर्म का अंकुर है।

गुरु ही राम रहीम ईश हैं, ब्रह्मा विष्णु शंकर हैं।।

व्यापक है निर्लेप सदा ही, वही ब्रह्म परमेश्वर है।

ʹसाक्षीʹ आत्म-अमीरस पाया, प्रभु में मन मतवाला है।।

महँगी मैया....

मधुर संस्मरण

माँ ब्रह्म तेरे घर आयो

हे माँ महँगीबा ! बड़भागी तू जो ऐसो लाल जनायो।

ऐसो लाल जनायो, खुद ब्रह्म तेरे घर आयो।।टेक।।

जो भूमि का भार उठाये-2, उसे तूने गोद खिलायो रे....

माँ ! ब्रह्म तेरे घर आयो।। हे माँ महँगीबा...

जो सृष्टि को पालनहारो-2, उसे तूने दूध पिलायो रे...

माँ ! ब्रह्म तेरे घर आयो।। हे माँ महँगीबा...

योगी जिनको पकड़ न पाय-2, तूने उँगली पकड़ चलायो रे...

माँ ! ब्रह्म तेरे घर आयो।। हे माँ महँगीबा...

जिसका ना कोई नाम रूप है-2, बापू आशाराम कहायो रे....

माँ ! ब्रह्म तेरे घर आयो।। हे माँ महँगीबा...

श्वास-श्वास में वेद हैं जिनके-2, लीलाशाह गुरु बनायो रे....

माँ ! ब्रह्म तेरे घर आयो।। हे माँ महँगीबा...

भारत का यह संत दुलारा-2, हम सबका है सदगुरु प्यारा।।

तूने पुत्र रूप में पायो रे... माँ ! ब्रह्म तेरे घर आयो।। हे माँ महँगीबा...

मधुर संस्मरण

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