युगप्रवर्तक

संत श्री आशारामजी बापू

आत्मारामी, श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ, योगिराज प्रातःस्मरणीय पूज्य संत श्री आशारामजी बापू ने आज भारत ही नहीं वरन् समस्त विश्व को अपनी अमृतवाणी से परितृप्त कर दिया है।

जन्म व बाल्यकालः

बालक आसुमल का जन्म अखण्ड भारत के सिंध प्रान्त के बेराणी गाँव में 17 अप्रैल 1941 को हुआ था। आपके पिता थाऊमल जी तिरुमलानी नगरसेठ थे तथा माता महँगीबा धर्मपरायण और सरल स्वभाव की थीं। बाल्यकाल में ही आपश्री के मुखमंडल पर झलकते ब्रह्मतेज को देखकर आपके कुलगुरु ने भविष्यवाणी की थी कि ʹआगे चलकर यह बालक एक महान संत बनेगा, लोगों का उद्धार करेगा।ʹ इस भविष्यवाणी की सत्यता आज किसी से छिपी नहीं है।

युवावस्था (विवेक-वैराग्य)

आप श्री का बाल्यकाल एवं युवावस्था विवेक-वैराग्य की पराकाष्ठा से संपन्न थे, जिससे आप अल्पायु में ही गृह-त्याग कर प्रभुमिलन की प्यास में जंगलों-बीहड़ों में घूमते तड़पते रहे। नैनीताल के जंगल में स्वामी श्री लीलाशाहजी आपको सदगुरुरूप में प्राप्त हुए। मात्र 23 वर्ष की अल्पायु में आपने पूर्णत्व का साक्षात्कार कर लिया। सदगुरु ने कहाः ʹआज से लोग तुम्हें संत आशारामजीʹ के रूप में जानेंगे। जो आत्मिक दिव्यता तुमने पायी है उसे जन जन में वितरित करो।ʹ

ये ही आसुमल ब्रह्मनिष्ठा को प्राप्त कर आज बड़े-बड़े दार्शनिकों, वैज्ञानिकों, शिक्षित-अशिक्षित साधक-साधिकाओं तक सभी को अध्यात्म-ज्ञान की शिक्षा दे रहे हैं, भटके हुए मानव-समुदाय को सही दिशा प्रदान कर रहे हैं।

अनुक्रम

 

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हे प्रभु ! आनंददाता !!

हे प्रभु ! आनंददाता ! ज्ञान हमको दीजिये।

शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिये।। हे प्रभु..

लीजिये हमको शरण में हम सदाचारी बनें।

ब्रह्मचारी धर्मरक्षक वीर व्रतधारी बनें। हे प्रभु....

निंदा किसी की हम किसी से भूलकर भी ना करें।

ईर्ष्या कभी भी हम किसी से भूलकर भी ना करें।। हे प्रभु.....

सत्य बोलें झूठ त्यागें मेल आपस में करें।

दिव्य जीवन हो हमारा यश तेरा गाया करें।। हे प्रभु....

जाय हमारी आयु हे प्रभु ! लोक के उपकार में।

हाथ डालें हम कभी ना भूलकर अपकार में।। हे प्रभु.....

कीजिये हम पर कृपा अब ऐसी हे परमात्मा !

मोह मद मत्सर रहित होवे हमारी आत्मा।। हे प्रभु...

प्रेम से हम गुरुजनों की नित्य ही सेवा करें।

प्रेम से हम संस्कृति की नित्य ही सेवा करें।। हे प्रभु....

योगविद्या ब्रह्मविद्या हो अधिक प्यारी हमें।

ब्रह्मनिष्ठा प्राप्त करके सर्वहितकारी बनें।। हे प्रभु....

अनुक्रम

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अनुक्रमणिका

युगप्रवर्तक

हेप्रभुआनंददाता

नौनिहालों का पूज्य बापू जी को उदबोधन

जीवनशक्ति का विकास

तीन प्रकार की विद्याएँ

ʹमैं भारत की पूजा करने लग गया हूँ....ʹ

पीछे मुड़कर क्या देखे ?

मारकर भी खिलाता है !

श्रद्धा-विश्वास का अदभुत प्रभाव

एकाग्रता कैसे बढ़े ?

ऐसी हो गुरु में निष्ठा

उनके लिए असम्भव कुछ नहीं जो...

भोजन के समय कैसे बैठें ?

दिव्य संस्कार से दिव्य जीवन

माता-पिता परम आदरणीय

ʹवेलेन्टाइन डेʹ पर पूज्य बापू जी का संदेश

तिलक का महत्त्व

विद्यार्थी सुधरे तो भारत सुधरा

चारित्र्य-रक्षा

वीरांगना रानी जैत कुँवरि

जीवन में सफलता कैसे पायें ?

देशभक्त सुभाषचन्द्र

गुरुदीक्षा का विशेष महत्त्व क्यों ?

विद्यार्थियों के महान आचार्य

नाथ केवल एक है

स्वभाषा का प्रयोग करें

महात्मा गांधी की सूझबूझ

चलती गाड़ी को रोक दिया

मौन से शक्तिसंचय

आप कहते हैं...

भोजन का प्रभाव

योगासन

बुद्धिशक्ति-मेधाशक्ति प्रयोग

मुद्रा-ज्ञान

विद्यार्थियों के लिए उपयोगी बातें

अनुक्रम

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नौनिहालों को पूज्य बापू जी का उदबोधन

तुम भारत का भविष्य, विश्व का गौरव और अपने माता-पिता की शान हो। तुम्हारे भीतर बीजरूप में ईश्वर का असीम सामर्थ्य हुआ है। अपनी इन शक्तियों को तुम जितने अंश में विकसित करोगे, उतने ही महान हो जाओगे।

प्रिय विद्यार्थियो !

जिन्होंने भी अपनी सुषुप्त योग्यताओं को जगाया, वे महान हो गये। वास्तव में इतिहास उन चंद महापुरुषों और वीरों की ही गाथा है जिनमें अदम्य साहस, संयम, शौर्य और पराक्रम कूट-कूटकर भरा हुआ था।

आज जी जो भी संत महात्मा हैं, अच्छे ईमानदार नेता और समाज के अग्रणी हैं, वे भी पहले तुम्हारे जैसे विद्यार्थी ही थे। परंतु उन्होंने दृढ़ संकल्प, पुरुषार्थ और संयम का अवलम्बन लेकर अपने व्यक्तित्व को निखारा और आज लाखों के प्रेरणास्रोत बन गये। महापुरुषों के मार्गदर्शन में चलकर व उनके दिव्य जीवन से प्रेरणा पाकर तुम भी महान हो जाओ। विद्यार्थी ! संसार में ऐसी कोई वस्तु या स्थिति नहीं है जो संकल्पबल और पुरुषार्थ के द्वारा प्राप्त न हो सके। पूर्ण उत्साह और लगन से किया गया पुरुषार्थ कभी व्यर्थ नहीं जाता।

तुम वर्तमान में चाहे कितने ही निम्न श्रेणी के विद्यार्थी क्यों न हो लेकिन इन्द्रिय-संयम, एकाग्रता, पुरुषार्थ और दृढ़संकल्प के द्वारा आगे चलकर उच्चतम योग्यता प्राप्त कर सकते हो। इतिहास में ऐसे कई दृष्टान्त देखने को मिलते हैं। पाणिनी नाम का बालक पहली कक्षा में वर्षों तक अभ्यास करने के बाद भी लगातार अनुत्तीर्ण ही होता रहा पर बाद मे वही बालक अपने दृढ़ संकल्प, पुरुषार्थ, उपासना और योग के अभ्यास से संस्कृत व्याकरण का विश्वविख्यात रचयिता बना। आज भी पाणिनी का संस्कृत व्याकरण ʹअष्टाध्यायीʹ अद्वितीय माना जाता है।

अपनी उन्नति में बाधक, दुर्बलता के विचारों को जड़ से उखाड़ फेंको। उनके मूल पर ही कुठाराघात करो। अपनी मानसिक शक्तियों को नष्ट करने वाली बुरी  आदतों, तम्बाकू-गुटखे के व्यसनों और टी.वी. चैनलों के भड़कीले कार्यक्रमों में समय बिगाड़ना, फिल्में देखना, विडियो गेम्स आदि से आँखें बिगाड़ना – यह अपना पतन आप आमंत्रित करना है। हलके संग का त्याग, सत्शास्त्रों का अध्ययन, सत्संग-श्रवण, ध्यान, सारस्वत्य मंत्र का जप – ये बुद्धिशक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए अत्यंत उपयोगी साधन है। तुम्हारा भविष्य तुम्हारे ही हाथों में है। तुम्हें महान, तेजस्वी व श्रेष्ठ विद्यार्थी बनना हो तो अभी से दृढ़ संकल्प करके त्याज्य चीजों को छोड़ो और जीवन-विकास में उपयोगी मूल्यों को अपनाओ। हजार बार फिसल जाने पर भी फिर से हिम्मत करो... विजय तुम्हारी ही होगी।

कदम अपना आगे बढ़ाता चला जा.... शाबाश वीर ! शाबाश !!

भारत के लाल ! दीनता-हीनता के विचारों को कुचल डालो।

करोगे न हिम्मत ? चलोगे न सत्पथ पर ? होगे न निहाल ?

हिम्मत.... उद्यम.... साहस.... बुद्धिशक्ति.... पराक्रम.... कदम-कदम पर परमात्मा तुम्हारे साथ हैं..... ........

प्रेता जयता नर। ʹआगे बढ़ो और विजय प्राप्त करो।ʹ (ऋग्वेदः 10.103.13)

कदम अपना आगे बढ़ाता चला जा....

कदम अपना आगे बढ़ाता चला जा। सदा प्रेम के गीत गाता चला जा।।

तेरे मार्ग में वीर काँटे बड़े हैं। लिये तीर हाथों में वैरी खड़े हैं।

बहादुर सबको मिटाता चला जा। कदम अपना आगे बढ़ाता चला जा।।

तू है आर्यवंशी ऋषिकुल का बालक। प्रतापी यशस्वी सदा दीनपालक।

तू संदेश सुख का सुनाता चला जा। कदम अपना आगे बढ़ाता चला जा।।

भले आज तूफान उठकर के आयें। बला पर चली आ रही हों बलाएँ।

युवा वीर है दनदनाता चला जा। कदम अपना आगे बढ़ाता चला जा।।

जो बिछुड़े हुए हैं उन्हें तू मिला जा। जो सोये पड़े हैं उन्हें तू जगा जा।

तू आनंद डंका बजाता चला जा। कदम अपना आगे बढ़ाता चला जा।

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जीवनशक्ति का विकास

निर्भयता, अहिंसा, सत्य, अक्रोध, आचार्य-उपासना, सहिष्णुता आदि सभी दैवी गुणों के विकास के लिए ब्रह्मचर्य, प्राकृतिक-वातावरण, सात्त्विक भोजन मददरूप होते हैं और इनसे जीवनशक्ति का विकास भी होता है।

पूज्य बापू जी की ज्ञानमयी अमृतवाणी

गुरुकुल शिक्षा प्रणाली में लौकिक विद्या के साथ-साथ विद्यार्थी की सुषुप्त शक्ति भी जागृत हो ऐसी व्यवस्था थी। इसीलिए गुरुकुल में पढ़ा हुआ विद्यार्थी प्रमाणपत्र लेकर नौकरी के लिए धक्के नहीं खाता था। वह जहाँ भी, जिस क्षेत्र में भी जाता सफलता ही अर्जित करता था। आजकल तो बेचारे कई जवान प्रमाणपत्र लेकर घूमते रहते हैं किंतु नौकरी के ठिकाने नहीं होते। नौकरी मिलने पर भी तबादले और पदोन्नति की समस्या तो रहती ही है।

जीवन में निर्भयता होनी चाहिए, प्रसन्नता एवं पुरूषार्थ होना चाहिए। मन में सच्चाई और साहस होना चाहिए। जीवन ढीला-ढाला और सुस्त नहीं होना चाहिए। तन और मन दोनों मजबूत होने चाहिए।

जीवन में दैवी गुण जितने अधिक विकसित होते हैं, उतना ही उस आत्म-परमात्मदेव का ज्ञान, शांति और आनंद चमकता है। निर्भयता, अहिंसा, सत्य अक्रोध, आचार्य-उपासना, सहिष्णुता आदि सब दैवी गुण हैं। इन दैवी गुणों के विकास के लिए ब्रह्मचर्य, प्राकृतिक वातावरण, सात्त्विक भोजन ये सब मददरूप होते हैं। इनसे जीवनशक्ति का भी विकास होता है। भगवन्नाम-जप से आपकी रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ती है, अनुमान शक्ति जागती है, स्मरणशक्ति और शौर्यशक्ति का विकास होता है।

अपने विचारों को, अपने जीवन को किस दिशा में मोड़ना और कैसे मोड़ना इसकी भी विधि होती है। संध्याकाल में ध्यान करना चाहिए। उस समय ध्यान करने से बुद्धि की रक्षा होती है। जैसे गन्ने में रस आता है वैसे ही अपनी रगों में ओज होता है। जो लोग ब्राह्ममुहूर्त में भी सोते रहते हैं और उम्रलायक लड़के (14 वर्ष से बड़े) यदि सावधान न रहे तो उनका जो वीर्य है वह स्खलित हो जाता है, ओज-तेज क्षीण हो जाता है। ब्राह्ममुहूर्त में उठने से वीर्यरक्षा होती है। जिस समय नक्षत्र दिखते हों, तारे दिखते हों उस समय नहा लेना चाहिए।

सूर्योदय के समय प्राणायाम और सूर्य की किरणों से स्नान – यह भी स्वास्थ्य की रक्षा करता है, बुद्धि का विकास करता है। आहार पर भी ध्यान देना चाहिए। अशुद्ध खुराक खाने से जीवनशक्ति का ह्रास होता है। कितने ही लोग जैसे-तैसे व्यक्तियों के हाथ से जैसा-तैसा अन्न खा लेते हैं, यह उचित नहीं है। आचारहीन मनुष्य के हाथ का अन्न खाने से नुकसान होता है। पवित्र मनुष्य के हाथ का अन्न खाने से उसके विचार अपने को मिलते हैं। भोजन करते समय जो जल्दी-जल्दी खाता है, उसमें खिन्नता बढ़ती है। चबा-चबाकर भोजन करना हितकारी है।

भगवन्नाम जप, ध्यान का नियम रखना चाहिए। विद्यार्थी अगर त्रिकाल-संध्या करने का नियम रख ले, त्रिबंध प्राणायाम के साथ गुरुमंत्र या सारस्वत्य मंत्र का जप करे तोत इससे असाध्य रोग और बुरी आदतें दूर होने लगती हैं, मिटने लगती हैं। प्राणायाम करें तो कुछ ही समय में विद्यार्थी में अच्छी आदतों का विकास होगा। उसे ऐसी पढ़ाई पढ़नी चाहिए कि जिससे जीवन में धैर्य, शांति, मिलनसार स्वभाव, कार्य में तत्परता, ईमानदारी, निर्भयता और आध्यात्मिक तेज बढ़े। सब छोड़कर मरना पड़े इसके पहले जिसका सब कुछ है, उस सर्वेश्वर के ज्ञान में स्थिति हो जाय।

व्रतेषु जागृहि। ʹआप अपने व्रत-नियमों के प्रति सदा जागृत रहें। (ऋग्वेदः 9.61.24)

संत महिमा

अड़सठ तीरथ जो फिरे, कोटि यज्ञ व्रत दान।

ʹसुंदरʹ दरसन साधु के, तुलै नहीं कछु आन।।

चाहे अड़सठ तीर्थ कर लो, चाहे करोड़ों यज्ञ, व्रत और दान ही क्यों न कर लो किंतु ये सब मिलकर भी संत दर्शन की बराबरी नहीं कर सकते। ऐसी दिव्य महिमा है संत दर्शन की !

संत सुंदरदासजी

अनुक्रम

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तीन प्रकार की विद्याएँ

जिन्होंने लौकिक विद्या सीखी है, अगर उन्हें योगविद्या और आत्मविद्या भी मिल जाय तो उनके जीवन में चार चाँद लग जाते हैं। उनके द्वारा बहुतों का सच्चा व स्थायी हित हो सकता है।

संत श्री आशारामजी बापू की सारगर्भित अमृतवाणी

तीन प्रकार की विद्याएँ होती हैं-

लौकिक विद्याः जो विद्या हम विद्यालयों-महाविद्यालयों में पढ़ते हैं।

योगविद्याः योगनिष्ठ महापुरुषों के सान्निध्य में जाकर योग की कुंजियाँ प्राप्त करके उनका अभ्यास करने से प्राप्त होती है।

आत्मविद्याः आत्मा-परमात्मा को जानने की, परमात्म-साक्षात्कार करने की, परमात्मा के साथ एकता स्थापित करने की विद्या।

लौकिक विद्या तो पा ली लेकिन योगविद्या और आत्मविद्या नहीं पायीं तो लौकिक चीजें बहुत मिलेंगी लेकिन भीतर अशांति होगी, दुराचार होगा। लौकिक विद्या को पाकर थोड़ा कुछ सीख लिया, यहाँ तक कि बम बनाना भी सीख गये, फिर भी हृदय में अशांति की आग जलती रहेगी।

जो लोग योगविद्या और आत्मविद्या का अभ्यास करते हैं, सुबह के समय थोड़ा योग व ध्यान का अभ्यास करते हैं वे लौकिक विद्या में भी शीघ्रता से सफल होते हैं। लौकिक विद्या के अच्छे-अच्छे रहस्य वे खोज सकते हैं।

वैज्ञानिक भी जब जाने-अनजाने थोड़ा सा योगविद्या की शरण जाते हैं, खोज करते-करते एकाग्र हो जाते हैं तभी कोई रहस्य उनके हाथ लगता है। वे ही वैज्ञानिक अगर योगी होकर खोज करें तो... योगियों ने तो ऐसी-ऐसी खोजें कर रखी हैं जिनका बयान करना भी आज के आदमी के बस की बात नहीं है।

विद्ययामृतमश्नुते ʹआत्मविद्या द्वारा अमृतत्त्व की प्राप्ति होती है।ʹ (यजुर्वेदः 40.14)

योगियों ने स्थूल शरीर के अंदर की संरचना का अध्ययन काट-छाँटकर (शल्यक्रिया करके) नहीं वरन् ध्यान की विधि से किया है। नाभिकेन्द्र पर ध्यान केन्द्रित किया जाय तो शरीर के अंदर की संरचना ज्यों-की-त्यों दिखती है तथा शरीर की छोटी बड़ी सब नाड़ियों की संरचना का पता चलता है। योगियों ने ही खोज करके बताया कि मानव-शरीर में 72000 नाड़ियाँ हैं। ऐहिक विद्या से जिन केन्द्रों के दर्शन नहीं होते उन मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धाख्य, आज्ञा और सहस्रार केन्द्रों की खोज योगविद्या के द्वारा ही हुई है। ʹएक-एक केन्द्र की क्या-क्या विशेषताएँ हैं ? उन केन्द्रों का रूपांतरण और विकास कैसे किया जाय ?ʹ यह सब भी योगविद्या के द्वारा ही जाना गया है।

यदि मूलाधार केन्द्र का रूपांतरण होता है तो ʹकामʹ विकार ʹरामʹ में बदल जाता है। महात्मा गांधी का ʹकामʹ केन्द्र ʹरामʹ में रूपांतरित हुआ और वे विश्वविख्यात हो गये। दूसरा केन्द्र है स्वाधिष्ठान। यदि वह रूपान्तरित होता है तो भय की जगह निर्भयता, हिंसा की जगह अहिंसा, घृणा की जगह प्रेम और स्पर्धा की जगह समता का जन्म होता है। अपने शरीर में ऐसे जो सात केन्द्र हैं उनकी खोज योगविद्या के द्वारा ही हुई है। लौकिक विद्या ने उनकी खोज नहीं की। ऐसे ही ʹसृष्टि का आधार क्या है ? सृष्टिकर्ता से कैसे मिलें ? जीते जी मुक्ति का अनुभव कैसे हो ?ʹ इनकी खोज ब्रह्मविद्या के द्वारा ही हुई है।

हम लोग लौकिक विद्या में तो थोड़ा बहुत आगे बढ़ गये हैं लेकिन योगविद्या का ज्ञान नहीं है इसलिए विद्यार्थियों का शरीर जितना तंदरुस्त होना चाहिए और मन जितना प्रसन्न और समझयुक्त होना चाहिए, उतना नहीं है।

ऐहिक विद्या को अगर योग का सम्पुट दिया जाय तो विद्यार्थी ओजस्वी-तेजस्वी बनता है। ऐहिक विद्या का आदर करना चाहिए किंतु योगविद्या और आत्मविद्या को भूलकर सिर्फ ऐहिक विद्या में ही पूरी तरह से गर्क हो जाना मानो, अपने जीवन का अनादर करना है

आटोरिक्शे के पिछले पहिये ठीक हैं, अगला पहिया और स्टियरिंग नहीं हैं तो वह ढाँचामात्र दिखेगा, उससे यात्रा नहीं होगी। ऐसे ही जीवन में ऐहिक विद्या तो हो लेकिन उसके साथ योगविद्यारूपी पहिया न हो और ब्रह्मविद्यारूप स्टियरिंग न हो तो मनुष्य अविद्या में ही उत्पन्न होकर, उसी में ही जीकर, अंत में उसी में ही मर जाता है।

संत तुकाराम लौकिक विद्या पढ़ने से अधिक समय न दे सके किंतु आज उनके द्वारा गाय गये अभंग महाराष्ट्र के विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में पढ़ाये जाते हैं। संत एकनाथ जी लौकिक विद्या के साथ-साथ योगविद्या भी पढ़े थे। स्वामी विवेकानंद लौकिक विद्या तो पढ़े थे, साथ ही उन्होंने आत्मविद्या का ज्ञान भी प्राप्त किया था। जिन्होंने लौकिक विद्या सीखी है, अगर उन्हें योगविद्या और आत्मविद्या भी मिल जाय तो उनके जीवन में चार चाँद लग जाते हैं। उनके द्वारा बहुतों का सच्चा व स्थायी हित हो सकता है। भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण के पास ये तीनों विद्याएँ थीं तो हजारों विघ्न-बाधाओं के बीच भी उनका जीवन बड़ा सुख, शांति व परमानंद से सम्पन्न बीता। वे सदा मुस्कराते रहे, आत्मानंद, शाश्वत सुख में रमण करते रहे और दूसरों को भी कराते रहे।

हम चिकित्सक, वकील या उद्योगपति हो गये तो भी हमारा ज्ञान केवल बुद्धि तक ही सीमित रहता है। इससे केवल नश्वर शरीर का ही पालन-पोषण होता है क्योंकि यह अपूर्ण ज्ञान है। हमने सुना है कि अष्टावक्र मुनि, ध्रुव पूर्वजन्म के योगी थे, मीरा भगवान श्रीकृष्ण की गोपियों में से एक, भगवान की भक्त थी। पूर्वजन्म के योगियों और भक्तों के बारे में तो बहुत सुना है लेकिन यह कभी सुनने में नहीं आया कि यह पूर्वजन्म का चिकित्सक या पी.एच.डी. है। नये जन्म में सभी को क, ख, ग, घ से ही लौकिक विद्या की शुरूआत करनी पड़ती है लेकिन आत्मविद्या में ऐसा नहीं है। जिन्होंने आत्मतत्त्व का साक्षात्कार कर लिया वे तो मुक्त हो गये लेकिन जिनकी साधना अधूरी रह गयी है, उनकी साधना अगले जन्म में वहीं से शुरू होगी जहाँ से छूटी थी। इस पर मौत का भी प्रभाव नहीं पड़ता। यह विद्या दूसरे जन्म में भी हमारे काम आती है इसीलिए इसे ʹअमर विद्याʹ भी कहते हैं।

नूनं भूपते श्रुते। ʹज्ञान में अपना मन अवश्य लगाओ।ʹ (सामवेद,पूर्वार्चिक, ऐंद्र पर्वः 3.18.20)

जहाँ से विश्व की तमाम बुद्धियों को, दुनिया के बड़े-बड़े वैज्ञानिकों, ऋषि-मुनियों एवं साधु संतों को दिव्य आत्मिक ज्ञान मिलता रहा है, चतुरों को चतुराई, विद्वानों को विद्या सँभालने की योग्यता, प्रेम, आनंद, साहस, निर्भयता, शक्ति, सफलता, इहलोक और परलोक के रहस्यों का उदघाटन करने की क्षमता, यह सब जहाँ से मिलता आया है, मिल रहा है और मिलता रहेगा और इतना देने के बाद जिसमें एक तिनके जितनी भी कमी नहीं हुई उसे कहते हैं ब्रह्म परमात्मा। ब्रह्म परमात्मा को, आत्मा को जानने की विद्या को ही