बंदऊँ गुरु पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।।
श्रीगुर पद नख मनि गन जोती।
सुमिरत दिव्य दृष्टि हियँ होती।।
गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन।
नयन अमिअ दृग दोष विभंजन।।
गुर बिनु भव निधि तरइ न कोई।
जौं बिरंचि संकर सम होइ।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
तत्त्वज्ञ महापुरुषों का सान्निध्य बड़ा दुर्लभ है। कबीरदासजी कहते हैं-
सुख देवें
दुःख दूर करें,
करें पाप का अन्त।
कह कबीर
वे कब मिलें, परम
स्नेही संत।।
संत मिले
यह सब मिटे, काल
जाल जम चोट।
सीस नमावत
ढही पड़े, सब पापन
की पोट।।
ऐसे महापुरुषों के आगे जिन्हें अपने अहंकाररूपी शीश के झुकाने का सौभाग्य मिल जाता है, वे धन्य हो उठते हैं। स्थूल देहरूप में अवतरित ऐसे परमात्म-पुरुष को कोई भाग्यशाली ही पहचान पाते हैं। लोग परमात्मा को ढूँढने जाते हैं और परमात्मा इन आँखों से कहीं नज़र नहीं आता, क्योंकि वह अगम्य है। निराश मनुष्य फिर क्या करें? उस अलख को कैसे जानें? कैसे देखें? कबीरजी ने इस पहेली का सुन्दर हल पेश करते हुए कहा है-
अलख पुरुष
की आरसी, साधु का
ही देह।
लखा जो
चाहे अलख को, इन्हीं
में लख लेह।।
हे मानव ! यदि तुझे उस अलख को लखना हो, जो जानने से परे है उसे जानना हो, जो देखने से परे हैं उसे देखना हो, तो तू ऐसे किसी संत-महापुरुष को देख ले, क्योंकि उन्हीं में वह अपने पूर्ण वैभव के साथ प्रकट हुआ है।
ऐसे महापुरुष संसाररूपी मरुस्थल में त्रिविध तापों से तप्त मानव के लिए विशाल वटवृक्ष हैं, शीतल जल के झरने हैं। उनकी पावन देह को स्पर्श करके आने वाली हवा भी जीव के जन्म-जन्मान्तरों की थकान को उतार कर उसके हृदय को आत्मिक शीतलता से भर देती है। ऐसे महापुरुष की महिमा गाते-गाते तो वेद और पुराण भी थक चुके हैं।
ऐसे ही एक जीवन्त महापुरुष की पद्यमय संक्षिप्त गाथा को यहाँ जिज्ञासु हृदयों के समक्ष प्रस्तुत किया गाया है।
इस दिव्य शीतल अमृतमय झरने में नहाएँ.... अपने जन्म-जन्मान्तरों के पापों को धोयें.... थकान को उतारें और अपने परम लक्ष्य के पथ को पार करें।
श्री वेदान्त
सेवा समिति
अमदावाद
आश्रम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गुरु चरण
रज शीष धरि, हृदय
रूप विचार।
श्रीआशारामायण
कहौं, वेदान्त
को सार।।
धर्म कामार्थ
मोक्ष दे, रोग शोक
संहार।
भजे जो
भक्ति भाव से, शीघ्र
हो बेड़ा पार।।
भारत सिंधु नदी बखानी, नवाब जिले में गाँव बेराणी।
रहता एक सेठ गुण खानि, नाम थाऊमल सिरुमलानी।।
आज्ञा में रहती मेंहगीबा, पतिपरायण नाम मंगीबा।
चैत वद छः उन्नीस पंचानवे, आसुमल अवतरित आँगने।।
माँ मन में उमड़ा सुख सागर, द्वार पै आया एक सौदागर।
लाया एक अति सुन्दर झूला, देख पिता मन हर्ष से फूला।।
सभी चकित ईश्वर की माया, उचित समय पर कैसे आया।
ईश्वर की ये लीला भारी, बालक है कोई चमत्कारी।।
संत की
सेवा औ' श्रुति
श्रवण, मात पिता
उपकारी।
धर्म पुरुष
जन्मा कोई, पुण्यों
का फल भारी।।
सूरत थी बालक की सलोनी, आते ही कर दी अनहोनी।
समाज में थी मान्यता जैसी, प्रचलित एक कहावत ऐसी।।
तीन बहन के बाद जो आता, पुत्र वह त्रेखन कहलाता।
होता अशुभ अमंगलकारी, दरिदता लाता है भारी।।
विपरीत किंतु दिया दिखाई, घर में जैसे लक्ष्मी आयी।
तिरलोकी का आसन डोला, कुबेर ने भंडार ही खोला।
मान प्रतिष्ठा और बड़ाई, सबके मन सुख शांति छाई।।
तेजोमय
बालक बढ़ा, आनन्द
बढ़ा अपार।
शील शांति
का आत्मधन, करने
लगा विस्तार।।
एक दिना थाऊमल द्वारे, कुलगुरु परशुराम पधारे।
ज्यूँ ही बालक को निहारे, अनायास ही सहसा पुकारे।।
यह नहीं बालक साधारण, दैवी लक्षण तेज है कारण।
नेत्रों में है सात्विक लक्षण, इसके कार्य बड़े विलक्षण।।
यह तो महान संत बनेगा, लोगों का उद्धार करेगा।
सुनी गुरु की भविष्यवाणी, गदगद हो गये सिरुमलानी।
माता ने भी माथा चूमा, हर कोई ले करके घूमा।।
ज्ञानी
वैरागी पूर्व का,
तेरे घर में आय।
जन्म लिया
है योगी ने, पुत्र
तेरा कहलाय।।
पावन तेरा
कुल हुआ, जननी कोख
कृतार्थ।
नाम अमर
तेरा हुआ, पूर्ण
चार पुरुषार्थ।।
सैतालीस में देश विभाजन, पाक में छोड़ा भू पशु औ' धन।
भारत अमदावाद में आये, मणिनगर में शिक्षा पाये।।
बड़ी विलक्षण स्मरण शक्ति, आसुमल की आशु युक्ति।
तीव्र बुद्धि एकाग्र नम्रता, त्वरित कार्य औ' सहनशीलता।।
आसुमल प्रसन्न मुख रहते, शिक्षक हँसमुखभाई कहते।
पिस्ता बादाम काजू अखरोटा, भरे जेब खाते भर पेटा।।
दे दे मक्खन मिश्री कूजा, माँ ने सिखाया ध्यान औ' पूजा।
ध्यान का स्वाद लगा तब ऐसे, रहे न मछली जल बिन जैसे।।
हुए ब्रह्मविद्या से युक्त वे, वही है विद्या या विमुक्तये।
बहुत रात तक पैर दबाते, भरे कंठ पितु आशीष पाते।।
पुत्र
तुम्हारा जगत में,
सदा रहेगा नाम।
लोगों
के तुम से सदा, पूरण
होंगे काम।।
सिर से हटी पिता की छाया, तब माया ने जाल फैलाया।
बड़े भाई का हुआ दुःशासन, व्यर्थ हुए माँ के आश्वासन।।
छूटा वैभव स्कूली शिक्षा, शुरु हो गयी अग्नि परीक्षा।
गये सिद्धपुर साधना करने, कृष्ण के आगे बहाये झरने।।
सेवक सखा भाव से भीजे, गोविन्द माधव तब रीझे।
एक दिन एक माई आई, बोली हे भगवन सुखदाई।।
पड़े पुत्र दुःख मुझे झेलने, खून केस दो बेटे जेल में।
बोले आसु सुख पावेंगे, निर्दोष छूट जल्दी आवेंगे।
बेटे घर आये माँ भागी, आसुमल के पाँवों लागी।।
आसुमल
का पुष्ट हुआ, अलौकिक
प्रभाव।
वाकसिद्धि
की शक्ति का, हो
गया प्रादुर्भाव।।
बरस सिद्धपुर तीन बिताये, लौट अमदावाद में आये।
करने लगी लक्ष्मी नर्तन, किया भाई का दिल परिवर्तन।।
दरिद्रता को दूर कर दिया, घर वैभव भरपूर कर दिया।
सिनेमा उन्हें कभी न भाये, बलात् ले गये रोते आये।।
जिस माँ ने था ध्यान सिखाया, उसको ही अब रोना आया।
माँ करना चाहती थी शादी, आसुमल का मन वैरागी।।
फिर भी सबने शक्ति लगाई, जबरन कर दी उनकी सगाई।
शादी को जब हुआ उनका मन, आसुमल कर गये पलायन।।
पंडित
कहा गुरु समर्थ
को, रामदास सावधान।
शादी फेरे
फिरते हुए, भागे
छुड़ाकर जान।।
करत खोज में निकल गया दम, मिले भरूच में अशोक आश्रम।
कठिनाई से मिला रास्ता, प्रतिष्ठा का दिया वास्ता।।
घर में लाये आजमाये गुर, बारात ले पहुँचे आदिपुर।
विवाह हुआ पर मन दृढ़ाया, भगत ने पत्नी को समझाया।।
अपना व्यवहार होगा ऐसे, जल में कमल रहता है जैसे।
सांसारिक व्यौहार तब होगा, जब मुझे साक्षात्कार होगा।
साथ रहे ज्यूँ आत्माकाया, साथ रहे वैरागी माया।।
अनश्वर
हूँ मैं जानता,
सत चित हूँ आनन्द।
स्थिति
में जीने लगूँ,
होवे परमानन्द।।
मूल ग्रंथ अध्ययन के हेतु, संस्कृत भाषा है एक सेतु।
संस्कृत की शिक्षा पाई, गति और साधना बढ़ाई।।
एक श्लोक हृदय में पैठा, वैराग्य सोया उठ बैठा।
आशा छोड़ नैराश्यवलंबित, उसकी शिक्षा पूर्ण अनुष्ठित।।
लक्ष्मी देवी को समझाया, ईश प्राप्ति ध्येय बताया।
छोड़ के घर मैं अब जाऊँगा, लक्ष्य प्राप्त कर लौट आऊँगा।।
केदारनाथ के दर्शन पाये, लक्षाधिपति आशिष पाये।
पुनि पूजा पुनः संकल्पाये, ईश प्राप्ति आशिष पाये।।
आये कृष्ण लीलास्थली में, वृन्दावन की कुंज गलिन में।
कृष्ण ने मन में ऐसा ढाला, वे जा पहुँचे नैनिताला।।
वहाँ थे श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठित, स्वामी लीलाशाह प्रतिष्ठित।
भीतर तरल थे बाहर कठोरा, निर्विकल्प ज्यूँ कागज कोरा।
पूर्ण स्वतंत्र परम उपकारी, ब्रह्मस्थित आत्मसाक्षात्कारी।।
ईशकृपा
बिन गुरु नहीं,
गुरु बिना नहीं
ज्ञान।
ज्ञान
बिना आत्मा नहीं,
गावहिं वेद पुरान।।
जानने को साधक की कोटि, सत्तर दिन तक हुई कसौटी।
कंचन को अग्नि में तपाया, गुरु ने आसुमल बुलवाया।।
कहा गृहस्थ हो कर्म करना, ध्यान भजन घर ही करना।
आज्ञा मानी घर पर आये, पक्ष में मोटी कोरल धाये।।
नर्मदा तट पर ध्यान लगाये, लालजी महाराज आकर्षाये।
सप्रेम शीलस्वामी पहँ धाये, दत्तकुटीर में साग्रह लाये।।
उमड़ा प्रभु प्रेम का चसका, अनुष्ठान चालीस दिवस का।
मरे छः शत्रु स्थिति पाई, ब्रह्मनिष्ठता सहज समाई।।
शुभाशुभ सम रोना गाना, ग्रीष्म ठंड मान औ' अपमाना।
तृप्त हो खाना भूख अरु प्यास, महल औ' कुटिया आसनिरास।
भक्तियोग ज्ञान अभ्यासी, हुए समान मगहर औ' कासी।।
भव ही कारण
ईश है, न स्वर्ण
काठ पाषान।
सत चित्त
आनंदस्वरूप है,
व्यापक है भगवान।।
ब्रह्मेशान
जनार्दन, सारद
सेस गणेश।
निराकार
साकार है, है सर्वत्र
भवेश।।
हुए आसुमल ब्रह्माभ्यासी, जन्म अनेकों लागे बासी।
दूर हो गई आधि व्याधि, सिद्ध हो गई सहज समाधि।।
इक रात नदी तट मन आकर्षा, आई जोर से आँधी वर्षा।
बंद मकान बरामदा खाली, बैठे वहीं समाधि लगा ली।।
देखा किसी ने सोचा डाकू, लाये लाठी भाला चाकू।
दौड़े चीखे शोर मच गया, टूटी समाधि ध्यान खिंच गया।।
साधक उठा थे बिखरे केशा, राग द्वेष ना किंचित् लेशा।
सरल लोगों ने साधु माना, हत्यारों ने काल ही जाना।।
भैरव देख दुष्ट घबराये, पहलवान ज्यूँ मल्ल ही पाये।
कामीजनों ने आशिक माना, साधुजन कीन्हें परनामा।।
एक दृष्टि
देखे सभी, चले शांत
गम्भीर।
सशस्त्रों
की भीड़ को, सहज
गये वे चीर।।
माता आई धर्म की सेवी, साथ में पत्नी लक्ष्मी देवी।
दोनों फूट-फूट के रोई, रुदन देख करुणा भी रोई।।
संत लालजी हृदय पसीजा, हर दर्शक आँसू में भीजा।
कहा सभी ने आप जाइयो, आसुमल बोले कि भाइयों।।
चालीस दिवस हुआ न पूरा, अनुष्ठान है मेरा अधूरा।
आसुमल ने छोड़ी तितिक्षा, माँ पत्नी ने की परतीक्षा।।
जिस दिन गाँव से हुई विदाई, जार जार रोय लोग-लुगाई।
अमदावाद को हुए रवाना, मियाँगाँव से किया पयाना।।
मुंबई गये गुरु की चाह, मिले वहीं पै लीलाशाह।
परम पिता ने पुत्र को देखा, सूर्य ने घटजल में पेखा।।
घटक तोड़ जल जल में मिलाया, जल प्रकाश आकाश में छाया।
निज स्वरूप का ज्ञान दृढ़ाया, ढाई दिवस होश न आया।।
आसोज सुद
दो दिवस, संवत्
बीस इक्कीस।
मध्याह्न
ढाई बजे, मिला ईस
से ईस।।
देह सभी
मिथ्या हुई, जगत
हुआ निस्सार।
हुआ आत्मा
से तभी, अपना साक्षात्कार।।
परम स्वतंत्र पुरुष दर्शाया, जीव गया और शिव को पाया।
जान लिया हूँ शांत निरंजन, लागू मुझे न कोई बन्धन।।
यह जगत सारा है नश्वर, मैं ही शाश्वत एक अनश्वर।
दीद हैं दो पर दृष्टि एक है, लघु गुरु में वही एक है।।
सर्वत्र एक किसे बतलाये, सर्वव्याप्त कहाँ आये जाये।
अनन्त शक्तिवाला अविनाशी, रिद्धि सिद्धि उसकी दासी।।
सारा ही ब्रह्माण्ड पसारा, चले उसकी इच्छानुसारा।
यदि वह संकल्प चलाये, मुर्दा भी जीवित हो जाये।।
ब्राह्मी
स्थिति प्राप्त
कर, कार्य रहे ना
शेष।
मोह कभी
न ठग सके, इच्छा
नहीं लवलेश।।
पूर्ण
गुरु किरपा मिली,
पूर्ण गुरु का
ज्ञान।
आसुमल
से हो गये, साँई
आसाराम।।
जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति चेते, ब्रह्मानन्द का आनन्द लेते।
खाते पीते मौन या कहते, ब्रह्मानन्द मस्ती में रहते।।
रहो गृहस्थ गुरु का आदेश, गृहस्थ साधु करो उपदेश।
किये गुरु ने वारे न्यारे, गुजरात डीसा गाँव पधारे।
मृत गाय दिया जीवन दाना, तब से लोगों ने पहचाना।।
द्वार पै कहते नारायण हरि, लेने जाते कभी मधुकरी।
तब से वे सत्संग सुनाते, सभी आर्ती शांति पाते।।
जो आया उद्धार कर दिया, भक्त का बेड़ा पार कर दिया।
कितने मरणासन्न जिलाये, व्यसन मांस और मद्य छुड़ाये।।
एक दिन
मन उकता गया, किया
डीसा से कूच।
आई मौज
फकीर की, दिया झोपड़ा
फूँक।।
वे नारेश्वर धाम पधारे, जा पहुँचे नर्मदा किनारे।
मीलों पीछे छोड़ा मन्दर, गये घोर जंगल के अन्दर।।
घने वृक्ष तले पत्थर पर, बैठे ध्यान निरंजन का घर।
रात गयी प्रभात हो आई, बाल रवि ने सूरत दिखाई।।
प्रातः पक्षी कोयल कूकन्ता, छूटा ध्यान उठे तब संता।
प्रातर्विधि निवृत्त हो आये, तब आभास क्षुधा का पाये।।
सोचा मैं न कहीं जाऊँगा, यहीं बैठकर अब खाऊँगा।
जिसको गरज होगी आयेगा, सृष्टिकर्त्ता खुद लायेगा।।
ज्यूँ ही मन विचार वे लाये, त्यूँ ही दो किसान वहाँ आये।
दोनों सिर बाँधे साफा, खाद्यपेय लिये दोनों हाथा।।
बोले जीवन सफल है आज, अर्घ्य स्वीकारो महाराज।
बोले संत और पै जाओ, जो है तुम्हारा उसे खिलाओ।।
बोले किसान आपको देखा, स्वप्न में मार्ग रात को देखा।
हमारा न कोई संत है दूजा, आओ गाँव करें तुमरी पूजा।।
आसाराम तब में धारे, निराकार आधार हमारे।
पिया दूध थोड़ा फल खाया, नदी किनारे जोगी धाया।।
गाँधीनगर
गुजरात में, है
मोटेरा ग्राम।
ब्रह्मनिष्ठ
श्री संत का, यहीं
है पावन धाम।।
आत्मानंद
में मस्त हैं, करें
वेदान्ती खेल।
भक्तियोग
और ज्ञान का, सदगुरु
करते मेल।।
साधिकाओं
का अलग, आश्रम नारी
उत्थान।
नारी शक्ति
जागृत सदा, जिसका
नहीं बयान।।
बालक वृद्ध और नरनारी, सभी प्रेरणा पायें भारी।
एक बार जो दर्शन पाये, शांति का अनुभव हो जाये।।
नित्य विविध प्रयोग करायें, नादानुसन्धान बतायें।
नाभ से वे ओम कहलायें, हृदय से वे राम कहलायें।।
सामान्य ध्यान जो लगायें, उन्हें वे गहरे में ले जायें।
सबको निर्भय योग सिखायें, सबका आत्मोत्थान करायें।।
हजारों के रोग मिटाये, और लाखों के शोक छुड़ाये।
अमृतमय प्रसाद जब देते, भक्त का रोग शोक हर लेते।।
जिसने नाम का दान लिया है, गुरु अमृत का पान किया है।
उनका योग क्षेम वे रखते, वे न तीन तापों से तपते।।
धर्म कामार्थ मोक्ष वे पाते, आपद रोगों से बच जाते।
सभी शिष्य रक्षा पाते हैं, सूक्ष्म शरीर गुरु आते हैं।।
सचमुच गुरु हैं दीनदयाल, सहज ही कर देते हैं निहाल।
वे चाहते सब झोली भर लें, निज आत्मा का दर्शन कर लें।।
एक सौ आठ जो पाठ करेंगे, उनके सारे काज सरेंगे।
गंगाराम शील है दासा, होंगी पूर्ण सभी अभिलाषा।।
वराभयदाता
सदगुरु, परम हि
भक्त कृपाल।
निश्छल
प्रेम से जो भजे,
साँई करे निहाल।।
मन में
नाम तेरा रहे, मुख
पे रहे सुगीत।
हमको इतना
दीजिए, रहे चरण
में प्रीत।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गुरु बिन ज्ञान न उपजे, गुरु बिन मिटे न भेद।
गुरु बिन संशय न मिटे, जय जय जय गुरुदेव।।
तीरथ का है एक फल, संत मिले फल चार।
सदगुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार।।
भव भ्रमण संसार दुःख, ता का वार ना पार।
निर्लोभी सदगुरु बिना, कौन उतारे पार।।
पूरा सदगुरु सेवतां, अंतर प्रगटे आप।
मनसा वाचा कर्मणा, मिटें जन्म के ताप।।
समदृष्टि सदगुरु किया, मेटा भरम विकार।
जहँ देखो तहँ एक ही, साहिब का दीदार।।
आत्मभ्रांति सम रोग नहीं, सदगुरु वैद्य सुजान।
गुरु आज्ञा सम पथ्य नहीं, औषध विचार ध्यान।।
सदगुरु पद में समात हैं, अरिहंतादि पद सब।
तातैं सदगुरु चरण को, उपासौ तजि गर्व।।
बिना नयन पावे नहीं, बिना नयन की बात।
सेवे सदगुरु के चरण, सो पावे साक्षात्।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
जेह स्वरूप समज्या विना, पाम्यो दुःख अनंत।
समजाव्युं ते पद नमुं, श्री सदगुरु भगवंत।।
देह छतां जेनी दशा, वर्ते देहातीत।
ते ज्ञानीना चरणमां, हो वन्दन अगणित।।
गुरु दीवो गुरु देवता, गुरु विण घोर अँधार।
जे गुरुवाणी वेगळा, रडवड़िया संसार।।
परम पुरुष प्रभु सदगुरु, परम ज्ञान सुखधाम।
जेणे आप्युं भान निज, तेने सदा प्रणाम।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
दुःसंग
में जाता नहीं,
सत्संग करता नित्य
है।
दुर्ग्रन्थ
न पढ़ता कभी, सदग्रन्थ
पढ़ता नित्य है।।
शुभ-गुण
बढ़ाता है सदा,
अवगुण घटाने में
कुशल।
मन शुद्ध
है वश इन्द्रियाँ,
नर जन्म उसका ह
सफल।।
धन का कमाना
जानता, धन खर्च
करना जानता।
सज्जन
तथा दुर्जन तुरंत,
मुख देखते पहिचानता।।
हो प्रश्न
कैसा ही कठिन, झट
ही समझ कर देय हल।
धर्मज्ञ
भी मर्मज्ञ भी,
नर जन्म उसका है
सफल।।
चिन्ता
न आगे की करे, ना
सोच पीछे का करे।
जो प्राप्त
हो सो लेय कर, मन
में उसे नाहीं
धरे।।
ज्यों
स्वच्छ दर्पण 'चित्त
अपना',
नित्य त्यों रक्खे
विमल।
चढ़ने
न उस पर देय मल, नर
जन्म उसका है सफल।।
लाया न
था कुछ साथ में,
ना साथ कुछ ले जायगा।
मुट्ठी
बँधा आया यहाँ,
खोले यहाँ से जायगा।।
रोता हुआ
जन्मा यहाँ, हँसता
हुआ जाये निकल।
रोते हुए
सब छोड़कर, नर जन्म
उसका है सफल।।
बांधव
न जाते साथ में,
सब रह यहाँ ही जाय
हैं।
'नाता निभाया
बहुत',
मर्घट माँहिं पहुँचा
आय हैं।।
ऐसा समझ
व्यवहार उनसे,
धीर जो करता सरल।
ना प्रीति
ही ना बैर ही, नर
जन्म उसका है सफल।।
मम देह
है तू मानता, तब
देह से तू अन्य
है।
है माल
से मालिक अलग, यह
बात सबको मन्य
है।।
जब देह
से तू भिन्न है,
क्यों फिर बने
है देह-मल।
जो आपको
जाने अमल, नर जन्म
उसका है सफल।।
तू जगाने
को, स्वप्न को, अरु
नींद को है जानता।
ये है अवस्था
देह की, क्यों आत्म
इनको मानता।।
ना जन्म
तेरा, ना मरण, तू
तो सदा ही है अटल।
जो जानता
आत्मा अचल, नर जन्म
उसका है सफल।।
कारण बना
है जब तलक, ना कार्य
तब तक जायगा।
भोला ! बना है
चित्त तब तक, चेत्य
ना छुट पायगा।।
पाता वही
साम्राज्य अक्षय,
चित्त जिसका जाय
गल।
इस चित्त
को देवे गला, नर
जन्म उसका है सफल।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
यदि पुत्र
होता दुष्ट तो,
वैराग्य है सिखलावता।
पुत्रेच्छु
पाता दुःख है, है
दुःख केवल मूढ़ता।।
सेवक न
देते दुःख हैं,
देते सभी आराम
हैं।
आज्ञानुसारी
होय हैं, करते समय
पर काम हैं।
नेत्रादि
सेवक साथ फिर भी,
मूढ़ !
सेवक चाहता।
पाता उसी
से दुःख है, है दुःख
केवल मूढ़ता।।
आत्मा
कभी मरती नहीं,
मरती सदा ही देह
है।
ना देह
हो सकती अमर, इसमें
नहीं संदेह है।।
पर देह
भी नाहीं मरे, नर
मूढ़ आशा राखता।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
छुड़वाय
कर सब कामना, कर
देय हैं निष्कामना।
सब कामनाओं
का बता घर, पूर्ण
करते कामना।।
मिथ्या
विषय सुख से हटा,
सुख सिन्धु देते
हैं बता।
सुख सिन्धु
जल से पूर्ण, अपना
आप देते हैं जता।।
इक तुच्छ
वस्तु छीन कर, आपत्तियाँ
सब मेट कर।
प्याला
पिला कर अमृत का,
मर को बनाते हैं
अमर।।
सब भाँति
से कृत कृत्य कर,
परतंत्र को निज
तन्त्र कर।
अधिपति
रहित देते बना,
भय से छुड़ा करते
निडर।।
सदगुरु
जिसे मिल जायें,
सोही धन्य है जग
मन्य है।
सुर सिद्ध
उसको पूजते, ता
सम न कोऊ अन्य है।।
अधिकारी
हो गुरुदेव से,
उपदेश जो नर पाय
है।
भोला ! तरे संसार
से, नहिं गर्भ में
फिर आय है।।
ईश्वर
कृपा से, गुरु कृपा
से, मर्म मैंने
पा लिया।
ज्ञानाग्नि
में अज्ञान कूड़ा,
भस्म सब है कर दिया।।
अब हो गया
है स्वस्थ सम्यक्,
लेश नाहीं भ्रांत
है।
शंका हुई
निर्मूल सब, अब
चित्त मेरा शांत
है।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गुरु को
सिर पर राखिये,
चलिये आज्ञा माँहिं।
कहै कबीर
ता दास को, तीन लोक
डर नाहिं।।
गुरु मानुष
करि जानते, ते नर
कहिये अंध।
महा दुःखी
संसार में, आगे
जम के बंध।।
नाम रतन
धन मुज्झ में, खान
खुली घट माँहिं।
सेंत मेंत
ही देत हौं, गाहक
कोई नाहिं।।
नाम बिना
बेकाम है, छप्पन
कोटि विलास।
का इंद्रासन
बैठिबो, का बैकुंठ
निवास।।
सुमिरन
से सुख होत है, सुमिरन
से दुःख जाय।
कह कबीर
सुमिरन किये, साँई
माँहिं समाय।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गुरुर्ब्रह्मा
गुरुर्विष्णुः
गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुर्साक्षात्परब्रह्म
तस्मै श्रीगुरवे
नमः।।
ध्यानमूलं
गुरोर्मूतिः पूजामूलं
गुरो पदम्।
मंत्रमूलं
गुरोर्वाक्यं
मोक्षमूलं गुरोः
कृपा।।
अखण्डमण्डलाकारं
व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं
दर्शितं येन तस्मै
श्रीगुरवे नमः।।
त्वमेव
माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च
सखा त्वमेव।
त्वमेव
विद्या द्रविणं
त्वमेव त्वमेव
सर्वं मम देव देव।।
ब्रह्मानन्दं
परमसुखदं केवलं
ज्ञानमूर्तिं।
द्वन्द्वातीतं
गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।।
एकं नित्यं
विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं।
भावातीतं
त्रिगुणरहितं
सदगुरुं तं नमामि।।
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जय सदगुरु देवन देव वरं, निज भक्तन रक्षण देह धरं।
पर दुःख हरं सुख शांति करं, निरूपाधि निरामय दिव्य परं।।1।।
जय काल अबाधित शांतिमयं, जन पोषक शोषक ताप त्रयं।
भय भंजन देत परम अभयं, मन रंजन, भाविक भाव प्रियं।।2।।
ममतादिक दोष नशावत हैं, शम आदिक भाव सिखावत हैं।
जग जीवन पाप निवारत हैं, भवसागर पार उतारत हैं।।3।।
कहुँ धर्म बतावत ध्यान कहीं, कहुँ भक्ति सिखावत ज्ञान कहीं।
उपदेशत नेम अरु प्रेम तुम्हीं, करते प्रभु योग अरु क्षेम तुम्हीं।।4।।
मन इन्द्रिय जाही न जान सके, नहीं बुद्धि जिसे पहचान सके।
नहीं शब्द जहाँ पर जाय सके, बिनु सदगुरु कौन लखाय सके।।5।।
नहीं ध्यान न ध्यातृ न ध्येय जहाँ, नहीं ज्ञातृ न ज्ञान ज्ञेय जहाँ।
नहीं देश न काल न वस्तु तहाँ, बिनु सदगुरु को पहुँचाय वहाँ।।6।।
नहीं रूप न लक्षण ही जिसका, नहीं नाम न धाम कहीं जिसका।
नहीं सत्य असत्य कहाय सके, गुरुदेव ही ताही जनाय सके।।7।।
गुरु कीन कृपा भव त्रास गयी, मिट भूख गई छुट प्यास गयी।
नहीं काम रहा नहीं कर्म रहा, नहीं मृत्यु रहा नहीं जन्म रहा।।8।।
भग राग गया हट द्वेष गया, अध चूर्ण भया अणु पूर्ण भया।
नहीं द्वैत रहा सम एक भया भ्रम भेद मिटा मम तोर गया।।9।।
नहीं मैं नहीं तू नहीं अन्य रहा गुरु शाश्वत आप अनन्य रहा।
गुरु सेवत ते नर धन्य यहाँ, तिनको नहीं दुःख यहाँ न वहाँ।।10।।
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किसी भी प्रकार के फल की आकांक्षा न रखते हुए सेवा करना यह सर्वोत्तम साधना है।
गुरुदेव की सेवा और गुरुदेव की आज्ञा का पालन करते वक्त आनेवाली तमाम आपत्तियों को सहन करने की हिम्मत जो रखता है वही अपने प्राकृत स्वभाव को जीत सकता है।
कृतघ्न शिष्य इस विश्व में अभागा व दुःखी है। उसका भाग्य दयाजनक, कंगाल और अत्यंत शोकजनक है।
अपने गुरुदेव में कमियाँ मत खोजो। अपनी कमियाँ खोजो और उनको दूर करने का प्रयत्न करो। वे शीघ्र दूर हो जायें इसलिए ईश्वर से प्रार्थना करो।
स्वामी
शिवानन्द
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श्रद्धापूर्वाः
सर्वधर्मा मनोरथ
फल प्रदाः। श्रद्धया
साध्यते सर्व श्रद्धया
तुष्यते हरिः।।
सनक जी कहते हैं- नारद ! श्रद्धापूर्वक आचरण में लाए हुए सब धर्म मनोवांछित फल देने वाले होते हैं। श्रद्धा से सब कुछ सिद्ध होता है और श्रद्धा से ही भगवान श्री हरि संतुष्ट होते हैं।
(नारदपुराणः
4.1)
कथा कीर्तन
जा घर भये, संत भये
मेहमान।
वा घर प्रभु
वासा कीन्हा, वो
घर है वैकुण्ठ
समान।।
कथा कीर्तन
जा घर नहीं, संत
नहीं मेहमान।
वा घर डेरा
जमड़ा दीन्हा,
साँझ पड़े शमशान।
अलख पुरुष
की आरसी, साधु का
ही देह।
लखा जो
चाहे अलख को, इन्हीं
में तू लख लेह।।
संत कबीर
दृढ़ श्रद्धा
और अथाह धैर्य
वाले के मनोरथ
अवश्य पूर्ण होते
हैं।
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अपने
आपको
परिस्थितियों
के गुलाम
कभी
मत समझो।
तुम
स्वयं अपने भाग्य
के
आप
विधाता हो।
पूज्यपाद
संत श्री आसारामजी
बापू
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